डबल्यूएचओ कर्मचारियों पर यौन उत्पीड़न का आरोप

हाल ही में एक स्वतंत्र आयोग ने डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में एबोला प्रकोप के दौरान विश्व स्वास्थ्य संगठन के कर्मचारियों पर यौन उत्पीड़न और शोषण सम्बंधी मामलों पर अपनी अंतिम रिपोर्ट जारी की है। इनमें मुख्य रूप से नौकरियों और अन्य संसाधनों के बदले सेक्स की मांग और नौ बलात्कार के मामलों का उल्लेख है।

इन मामलों में संगठन द्वारा नियुक्त अल्पकालिक ठेकेदारों से लेकर उच्च प्रशिक्षित अंतर्राष्ट्रीय स्तर के 21 पुरुष कर्मचारियों पर आरोप लगाए गए हैं। ये आरोप डबल्यूएचओ की इमानदारी, विश्वास और प्रबंधन पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं।

इस तरह की घटनाओं से पता चलता है कि कम आय वाले देशों में आपातकाल के दौरान भी सत्ता और संसाधनों से लैस पुरुषों ने कमज़ोर वर्ग की महिलाओं और लड़कियों का जमकर शोषण किया है। संगठन जिन लोगों की हिफाज़त करना चाहता है उनके साथ ऐसा सलूक लचर प्रशासन का परिणाम है।            

इस रिपोर्ट में संगठन की संरचनात्मक विफलताओं का भी वर्णन किया गया है। गौरतलब है कि डबल्यूएचओ में नियम है कि किसी भी शिकायत को लिखित में दर्ज करना अनिवार्य है। यह कम पढ़े-लिखे लोगों के साथ स्पष्ट रूप से भेदभावपूर्ण है। इसके अतिरिक्त, कई मामलों में जांच को इसलिए आगे नहीं बढ़ाया गया क्योंकि आरोप लगाने वाले व्यक्ति और डबल्यूएचओ कर्मचारी के बीच “सुलह” हो गई थी। अत्यधिक दबाव के बावजूद जो महिलाएं और लड़कियां आगे आती हैं उनकी शिकायतों पर विश्वास करके पूरी पारदर्शिता के साथ उचित प्रक्रिया लागू करने की आवश्यकता है। ऐसे मामलों को उठाने वालों को भी संगठन द्वारा पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की जाना चाहिए।     

देखा जाए तो मानवीय कार्यों के दौरान इस तरह के मामले अन्यत्र भी हुए हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इन्हें स्वाभाविक मान लिया जाए। हैटी में ऑक्सफेम और मध्य अफ्रीकी गणराज्य में संयुक्त राज्य के मानवीय मिशन में ऐसी समस्याएं देखी गई हैं। दरअसल, इन संगठनों को अपने कार्यस्थलों में विषैले और महिला-द्वैषी पहलुओं का सामना करने और संरचनात्मक स्तर पर बदलाव करने की आवश्यकता है। 

डीआरसी में दसवीं एबोला महामारी से एक महत्वपूर्ण सबक यह मिला है कि चाहे कितने भी तकनीकी संसाधन उपलब्ध क्यों न हों, समुदाय के विश्वास के बिना कोई भी परियोजना सफल नहीं हो सकती। इस घटना के बाद से लोगों ने टीकाकरण से इन्कार कर दिया, और उपचार केंद्रों पर हमला भी हुए। स्वास्थ्य कर्मियों के खिलाफ हिंसा या धमकियों के 450 मामले सामने आए। इसके अलावा 25 स्वास्थ्य कर्मियों की हत्या और 27 अन्य का अपहरण कर लिया गया। रिपोर्ट में दर्ज की गई शोषण की घटनाएं समुदाय के विश्वास को नष्ट कर देती हैं। ऐसे देशों में सदियों के औपनिवेशक शोषण के बाद पहले से ही अविश्वास व्याप्त है, और इन घटनाओं से डबल्यूएचओ अपने कर्मचारियों को और अपने मिशन को खतरे में डाल रहा है।

इन आरोपों पर डबल्यूएचओ की प्रतिक्रिया काफी देर से आई। वीमन इन ग्लोबल हेल्थ की कार्यकारी निर्देशक डॉ. रूपा धत्त बताती हैं कि डबल्यूएचओ के एबोला कार्यक्रम के 2800 कर्मचारियों में से 73 प्रतिशत पुरुष थे और उनमें से 77 प्रतिशत पुरुष प्रमुख पदों पर थे। यदि पुरुषों की तुलना में महिला कर्मचारियों की संख्या अधिक होती और वे प्रमुख पदों पर होतीं परिणाम अलग हो सकते थे। इसके लिए डबल्यूएचओ के सभी कार्यक्रमों में जेंडर-संतुलन बहुत आवश्यक है। शक्तिशाली पुरुषों के रहमोकरम पर कमज़ोर महिलाओं और लड़कियों का शोषण मानवीय मिशन को क्षति पहुंचा सकता है।   हालांकि, इस घटना के बाद से डबल्यूएचओ के नेतृत्व ने यौन शोषण और दुर्व्यवहार को बरदाश्त न करने और दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई करने पर ज़ोर दिया है ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोका जा सके। लेकिन इसका सही आकलन तो तभी हो पाएगा जब इसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भाषा के साथ उसमें सहेजा ज्ञान भी लुप्त होता है

हाल ही में हुए अध्ययन के आधार पर ज्यूरिख विश्वविद्यालय में वैकासिक जीवविज्ञान और पर्यावरण अध्ययन विभाग में कार्यरत जोर्डी बसकोम्प्टे बताते हैं कि जब भी कोई भाषा विलुप्त होती है तो उसके साथ उसके विचारों की अभिव्यक्ति चली जाती है, वास्तविकता को देखने का, प्रकृति के साथ जुड़ने का, जानवरों और पौधों के वर्णन करने का और उन्हें नाम देने का एक तरीका गुम हो जाता है।

एथ्नोलॉग परियोजना के अनुसार, दुनिया की मौजूदा 7,000 से अधिक भाषाओं में से लगभग 42 प्रतिशत पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। भाषा अनुसंधान की गैर-मुनाफा संस्था एसआईएल इंटरनेशनल के अनुसार, सन 1500 में पुर्तगालियों के ब्राज़ील आने के पहले ब्राज़ील में बोली जाने वाली 1000 देशज भाषाओं में से अब सिर्फ 160 ही जीवित बची हैं।

वर्तमान में बाज़ार में उपलब्ध अधिकतर दवाएं – एस्पिरिन से लेकर से लेकर मॉर्फिन तक – औषधीय पौधों से प्राप्त की जाती हैं। एस्पिरिन व्हाइट विलो (सेलिक्स अल्बा) नामक पौधे से प्राप्त की जाती है और मॉर्फिन खसखस (पेपावर सोम्निफेरम) से निकाला जाता है।

शोधकर्ता बताते हैं कि स्थानिक या देशज समुदायों में पारंपरिक ज्ञान का अगली पीढ़ी में हस्तांतरण मौखिक रूप से किया जाता है, इसलिए इन भाषाओं के विलुप्त होने के साथ औषधीय पौधों के बारे में पारंपरिक ज्ञान और जानकारियों का यह भंडार भी लुप्त हो जाएगा। जिससे भविष्य में औषधियों की खोज की संभावना कम हो सकती है।

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 12,495 औषधीय उपयोगों वाली 3,597 वनस्पति प्रजातियों का विश्लेषण किया और पाया कि औषधीय पौधों के औषधीय उपयोग या गुणों की 75 प्रतिशत जानकारी सिर्फ एक ही एक भाषा में है। और अद्वितीय ज्ञान वाली ये भाषाएं और साथ में उस भाषा से जुड़ा ज्ञान भी विलुप्त होने की कगार पर हैं।

यह दोहरी समस्या विशेष रूप से उत्तर-पश्चिमी अमेज़ॉन में दिखी है। 645 पौधों और 37 भाषाओं में इन पौधों के मौखिक तौर पर बताए जाने वाले औषधीय उपयोग के मूल्यांकन में पाया गया कि इनके औषधीय उपयोग का 91 प्रतिशत ज्ञान सिर्फ एक ही एक भाषा में मौजूद है।

इसके अलावा, इन औषधीय प्रजातियों की विलुप्ति के जोखिम का अध्ययन करने पर पाया गया कि अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) ने उत्तरी अमेरिका और उत्तर-पश्चिमी अमेज़ॉन में लुप्तप्राय भाषाओं से जुड़े क्रमश: 64 प्रतिशत और 69 प्रतिशत पौधों की संकटग्रस्त स्थिति का मूल्यांकन ही नहीं किया है। मूल्यांकन न होने के कारण क्रमश: चार प्रतिशत और एक प्रतिशत से कम प्रजातियां ही वर्तमान में संकटग्रस्त घोषित हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि पौधों की इन प्रजातियों का आईयूसीएन आकलन तत्काल आवश्यक है।

अध्ययन यह भी बताता है कि जैव विविधता के ह्रास की तुलना में भाषाओं के विलुप्त होने का औषधीय ज्ञान खत्म होने पर अधिक प्रभाव पड़ेगा। सांस्कृतिक विरासत को बनाए रखना भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना पौधों को बचाना। हम प्रकृति और संस्कृति के बीच के सम्बंध को अनदेखा नहीं कर सकते, सिर्फ पौधों के बारे में या सिर्फ संस्कृति के बारे में नहीं सोच सकते।

एक उदाहरण औपनिवेशिक काल के बाद ब्राज़ील में देखने को मिलता है। ब्राज़ील में अभिभावक अपने बच्चों की सामाजिक सफलता के लिए स्थानिक भाषाएं बोलना छोड़ औपनिवेशिक काल से प्रभावी रहीं पुर्तगाली और स्पेनिश भाषा को अपनाने लगे। भाषाविद किसी भाषा को विलुप्ति के जोखिम में तब मानते हैं जब अभिभावक अपने बच्चों के साथ अपनी मातृभाषा में बात करना बंद कर देते हैं।

ब्राज़ील में जब हम संरक्षण की बात करते हैं तो इसमें स्थानीय स्कूल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते दिखते हैं। गांवों में स्थित स्थानीय स्कूलों में बच्चे पुर्तगाली और समुदाय की अपनी भाषा दोनों में सीखते हैं। कारितियाना समुदाय की संस्कृति को संरक्षित करने की एक शुरुआत ब्राज़ील में हुई। इस परियोजना की शुरुआत कारितियाना भाषा में संरक्षित पौधों और जानवरों की सूची बनाने और जानकारी दर्ज करने के साथ हुई। दस्तावेज़ीकरण की इस प्रक्रिया में समुदाय के बुज़ुर्ग, मुखिया, संग्रहकर्ता और शिक्षक शामिल थे जिन्होंने अमेज़ॉन की जैव विविधता का पारंपरिक ज्ञान दर्ज किया।

इसी तरह, बाहिया और उत्तरी मिनस गेरैस में शोधकर्ताओं के एक समूह ने पेटाक्सो भाषा का अध्ययन कर पुनर्जीवित किया जिसे वर्षों से लुप्त माना जा रहा था। पेटाक्सो युवाओं और शिक्षकों के साथ मिलकर शोधकर्ताओं ने दस्तावेज़ों का अध्ययन किया और साथ में फील्डवर्क भी किया। पेटाक्सो भाषा अब कई गांवों में पढ़ाई जा रही है।

दुनिया भर में देशज या स्थानिक समुदायों की भाषाओं को संरक्षित करने, पुनर्जीवित करने और बढ़ावा देने के लिए युनेस्को ने 2022-2032 को देशज भाषा कार्रवाई दशक घोषित किया है। बेसकोम्प्टे कहते हैं कि अंग्रेज़ी के बाहर भी जीवन है। जिन भाषाओं को हम भूल जाते हैं या ध्यान नहीं देते वे भाषाएं उन गरीब या अनजान लोगों की हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर किसी भूमिका में नहीं दिखते हैं। सांस्कृतिक विविधता के बारे में जागरूकता बढ़ाने के प्रयास ज़रूरी हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हाइवे के बोझ तले गांव की पगडंडी – भारत डोगरा

हिमालय क्षेत्र में समय-समय पर ऐसे समाचार मिलते हैं कि किसी बीमार महिला या वृद्ध को कुर्सी या चारपाई या पीठ पर ही बिठाकर 5 से 15 कि.मी. की दूरी तय करते हुए इलाज के लिए ले जाना पड़ा। जहां एक ओर ग्रामीण संपर्क मार्गों व छोटी सड़कों की कमी है या उनकी दुर्दशा है, वहीं दूसरी ओर हाइवे व सुरंगों की सैकड़ों करोड़ रुपए की परियोजनाओं को इतनी तेज़ गति से बढ़ाया जा रहा है जितनी पहले कभी नहीं देखी गई।

मसूरी सुरंग बायपास की घोषणा हाल ही में की गई। ट्राफिक कम करने के नाम पर 700 करोड़ रुपए की ऐसी सुरंग परियोजना लाई गई है जिससे लगभग 3000 पेड़ कटेंगे। इसके अतिरिक्त चूने-पत्थर की चट्टानों में उपस्थित प्राकृतिक जल-व्यवस्था ध्वस्त होगी।

मसूरी के पहाड़ गंगा व यमुना के जल-ग्रहण क्षेत्रों के बीच के पहाड़ हैं व यहां के जल-स्रोतों को क्षतिग्रस्त करना देश को बहुत महंगा पड़ सकता है। ध्यान रहे कि जब पानी को सोखने की क्षमता रखने वाली, संरक्षित रखने वाली इन चट्टानों को खनन से नष्ट व तबाह किया जा रहा था और बहुत से भूस्खलनों ने अनेक गांवों के जीवन को संकटग्रस्त कर दिया था, उस समय सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर ही मसूरी व आसपास के क्षेत्र में चूना पत्थर के खनन को रोका गया था। इन चट्टानों में जो संरक्षित पानी है, उससे अनेक गांवों के जल-स्रोतों व झरनों में पानी बना रहता है।

हिमालय की अनेक हाइवे परियोजनाओं के क्रियान्वयन के दौरान देखा गया है कि अनेक भूस्खलन क्षेत्र सक्रिय हो गए हैं व कुछ नए भूस्खलन क्षेत्र उत्पन्न हो गए हैं। खर्च बचाने के लिए या जल्दबाज़ी में सड़क के लिए सीधा रास्ता दिया जाता है व ज़रूरी सावधानियों की उपेक्षा की जाती है। जो तरीके आज़माए जाते हैं या भूस्खलन रोकने के प्रयास किए जाते हैं वे प्रायः पर्याप्त नहीं होते हैं। परिणाम यह है कि भूस्खलनों के कारण बहुत से मार्ग समय-समय पर अवरुद्ध होने लगते हैं व ट्राफिक को गति देने का लक्ष्य भी वास्तव में प्राप्त नहीं हो पाता है।

यह सच है कि लोगों को अधिक चौड़ी सड़कों पर गाड़ी चलाना अच्छा लगता है, पर हिमालय क्षेत्र में जहां एक-एक पेड़ अमूल्य है, वहां यह पूछना भी ज़रूरी है कि हाइवे को अधिक चौड़ा करने के प्रयास में कितने पेड़ काटे गए। सरकारी आंकड़ों के आधार पर ही ऐसी एक ही परियोजना में हज़ारों पेड़ कट सकते हैं, कट रहे हैं, पर वास्तविक क्षति इससे भी अधिक है। चारधाम हाइवे परियोजना क्षेत्र (उत्तराखंड) में एक अनुभवी सामाजिक कार्यकर्ता ने बताया कि एक बड़े पेड़ को काटने के प्रयास में अनेक छोटे पेड़ भी क्षतिग्रस्त होते हैं। पूरे हिमालय क्षेत्र में इस तरह गिरने वाले पेड़ों की संख्या लाखों में है।

अतः क्या यह उचित नहीं है कि हाइवे व सुरंगों की परियोजनाएं बनाते समय यह ध्यान में रखा जाए कि पर्यावरणीय व सामाजिक क्षति को कैसे न्यूनतम किया जा सकता है। परवाणू सोलन हाइवे (हिमाचल प्रदेश) को हाल ही में बहुत चौड़ा कर दिया गया है। आज धर्मफर, कुमारहट्टी जैसे अनेक स्थानों पर आपको आसपास के गांववासी व दुकानदार बताएंगे कि उनका रोज़गार उजड़ गया व मुआवज़ा बहुत कम मिला। यदि आप थोड़ा और कष्ट कर आसपास के गांवों में पहुंचेंगे तो स्थिति और भी दर्दनाक हो सकती है। लगभग दो वर्ष पहले जब मैं गांव में गया तो लोगों ने बताया है कि यह एक समय बहुत खूबसूरत दृश्यों वाला खुशहाल गांव था पर हाइवे को चौड़ा करने के दौरान जो भूस्खलन व अस्थिरता हुई तो मकान, दुकान, गोशाला सबकी क्षति हुई व पूरा गांव ही संकटग्रस्त हो चुका है।

हाइवे पर नए मॉडल की कार दौड़ाते हुए सैलानियों को प्रायः इतनी फुरसत नहीं होती है, पर हमें यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि हाइवे व सुरंगों का गांववासियों, वृक्षों, हरियाली, जल-स्रोतों व पगडंडियों पर क्या असर हुआ। ऐसी अनेक रिपोर्टें आई हैं कि निर्माण कार्य में हुई असावधानियों के कारण आसपास के किसी गांव में मलबा व वर्षा का जल प्रवेश कर गया, या मलबे के नीचे गांव की पगडंडी बाधित हो गई। यदि इन सभी पर्यावरणीय व सामाजिक तथ्यों का सही आकलन हो, तो कम से कम सरकार के पास एक महत्वपूर्ण संदेश जाएगा कि इन उपेक्षित पक्षों पर भी ध्यान देना ज़रूरी है।

हाल ही में जून में जब मसूरी सुरंग बायपास योजना की घोषणा उच्च स्तर पर हुई तो अनेक स्थानीय लोगों ने ही नहीं, विशेषज्ञों व अधिकारियों तक ने इस बारे में आश्चर्य व्यक्त किया कि उनसे तो इस बारे में कोई परामर्श नहीं किया गया। मसूरी के बहुत पास देहरादून है जो देश में वानिकी व भू-विज्ञान विशेषज्ञों का एक बड़ा केंद्र है। इनमें से कुछ विशेषज्ञों ने भी कहा कि उन्हें इस परियोजना के बारे में पहले कुछ नहीं पता था।

दूसरी ओर अनेक स्थानीय लोग बताते हैं कि यदि समुचित स्थानीय परामर्श किया जाए तो सामाजिक व पर्यावरणीय दुष्परिणामों को न्यूनतम करने के साथ आर्थिक बजट को भी बहुत कम रखते हुए ट्राफिक समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। दूसरी ओर, कुछ लोग कहते हैं कि अधिक बजट की योजना बनती है तो अधिक कमीशन मिलता है।

पर यदि पर्वतीय विकास को सही राह पर लाना है तो पहाड़ी लोगों की समस्याओं को कम करने वाले छोटे संपर्क मार्गों की स्थिति सुधारने पर अधिक ध्यान देना होगा व हिमालयवासियों की वास्तविक ज़रूरतों को समझते हुए हिमालय का विकास करना होगा। (स्रोत फीचर्स)

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कोविड टीकों को नोबेल पुरस्कार क्यों नहीं मिला

स वर्ष कोविड-19 टीकों को नोबेल पुरस्कार मिलने की अपेक्षा की जा रही थी। लेकिन नोबेल समिति ने विश्व भर में अनगिनत लोगों की जान बचाने वाले टीकों पर किए गए शोध कार्य पर विचार नहीं किया। हर बार की तरह इस बार भी विज्ञान में बुनियादी शोध को पुरस्कृत किया गया। इस निर्णय पर कई वैज्ञानिकों ने आश्चर्य और निराशा व्यक्त की है, खासकर mRNA तकनीक का उपयोग करते हुए एक नए प्रकार के टीके विकसित करने से सम्बंधित शोध को शामिल न करने पर।     

इस विषय में सीएटल स्थित युनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन के कोशिका जीव विज्ञानी एलेक्सी मर्ज़ ने कहा है कि इस वर्ष नोबेल पुरस्कार समितियों को इस महामारी के दौरान वैश्विक स्वास्थ्य प्रयासों को पुरस्कृत करना चाहिए था। मर्ज़ इसे समिति की लापरवाही के रूप में देखते हैं जो भविष्य में हानिकारक हो सकती है।

लेकिन नोबेल समितियों के अंदरूनी सूत्रों की मानें तो वक्त, तकनीकी बारीकियों और राजनीति के लिहाज़ से कोविड टीकों को पुरस्कार मिलना संभव नहीं लग रहा था। अलबत्ता, इस योगदान के लिए जल्द ही सकारात्मक नोबेल संकेत प्राप्त हो सकते हैं।

मसलन, स्टॉकहोम स्थित रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के महासचिव ग्योरान हैंसों mRNA आधारित टीकों के विकास को एक अद्भुत सफलता के रूप में देखते हैं जिसके मानव जाति पर बहुत सकारात्मक परिणाम हुए हैं और इसके लिए वे वैज्ञानिकों के बहुत आभारी हैं। वे भविष्य में इस खोज के लिए नामांकन की उम्मीद रखते हैं।         

समस्या वक्त की है। इस वर्ष के नोबेल पुरस्कारों के लिए नामांकन 1 फरवरी तक जमा करना थे। लेकिन mRNA टीके इसके दो महीने से अधिक समय बाद उपयोग में लाए गए। कुछ अन्य टीकों ने नैदानिक परीक्षणों में अपनी प्रभाविता भी साबित की लेकिन तब तक महामारी पर इनका प्रभाव पूरी तरह स्पष्ट नहीं था।

नोबेल पुरस्कारों का इतिहास भी mRNA आधारित टीकों के पक्ष में नहीं रहा। पिछले कुछ वर्षों से किसी आविष्कार/खोज और पुरस्कार के बीच की अवधि बढ़ती गई है। वर्तमान में यह औसतन 30 वर्षों से अधिक हो गई है।

प्रायोगिक mRNA टीकों का सबसे पहला परीक्षण 1990 के दशक के मध्य में हुआ था जबकि 2000 के दशक तक टीकों पर खास प्रगति नहीं हुई थी। और इस वर्ष (2020-21) तक इस प्रौद्योगिकी के प्रभाव ठीक तरह से स्पष्ट नहीं हुए थे।            

अलबत्ता, ब्लूमिंगटन स्थित इंडियाना युनिवर्सिटी नेटवर्क साइंस इंस्टिट्यूट के भौतिक विज्ञानी और निदेशक सैंटो फार्चूनेटो के अनुसार प्रमुख खोजों को अपेक्षाकृत जल्दी पुरस्कृत किया गया है। जैसे गुरुत्वाकर्षण तरंगों की खोज को ही लें। अल्बर्ट आइंस्टाइन ने गुरुत्वाकर्षण तरंगों के अस्तिव की भविष्यवाणी 1915 में की थी लेकिन शोधकर्ताओं को इन तरंगों का पता लगाने में एक सदी का समय लग गया। शोधकर्ताओं ने इस खोज की घोषणा फरवरी 2016 में की थी और 2017 में इसे भौतिकी नोबेल पुरस्कार दे दिया गया था।        

कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि नोबेल पुरस्कार उन लोगों को दिया जाता है जो ऐसा बुनियादी शोध कार्य करते हैं जिनकी मदद से एक नहीं, कई समस्याओं को हल किया जा सकता है। शायद भविष्य में जब mRNA टीका तकनीक अन्य संक्रमणों के विरुद्ध प्रभावी साबित हो और नोबेल समिति पुरस्कार देने पर विचार करे। वास्तव में नोबेल समिति नवीनतम प्रगतियों के बजाय उन शोध कार्यों को पुरस्कृत करने में रुचि रखती है जो समय की कसौटी पर खरे उतरते हैं।

बहरहाल, नोबेल पुरस्कार न सही, कोविड-19 टीकों को कई प्रमुख वैज्ञानिक पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। हाल ही में 30 लाख अमेरिकी डॉलर के ब्रेकथ्रू पुरस्कार से दो वैज्ञानिकों को सम्मानित किया गया जिन्होंने mRNA अणु में ऐसे संशोधन किए जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं को mRNA के विरुद्ध शांत करने में सक्षम थे। यह तकनीक टीकों के लिए काफी महत्वपूर्ण रही है। इन्हीं दोनों शोधकर्ताओं ने लास्कर पुरस्कार भी जीता है। इन पुरस्कार को कुछ लोग भविष्य के नोबेल पुरस्कार के तौर पर देखते हैं। फिर भी नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित होने से पहले अभी कोविड-19 टीकों के लिए कई अन्य पुरस्कार प्रतीक्षा कर रहे हैं।  वैज्ञानिकों का ऐसा भी मानना है कि यदि टीकों को नोबेल पुरस्कार देना है तो समिति को कई शोधकर्ताओं द्वारा किए गए कार्य के विषय में कुछ कठिन निर्णय लेने होंगे कि पुरस्कार के लिए किसे चुना जाए। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि इस पुरस्कार के हकदार कौन हैं। (स्रोत फीचर्स)

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भाषा में रंगों के नाम परिवेश से तय होते हैं

रंगों का इंद्रधनुष होता है – एक सिरे पर लाल तो दूसरे सिरे पर बैंगनी और बीच में हरा, फ़िरोज़ी और नीला। हर भाषा इन रंगों को अपनी ज़रूरत के हिसाब से नाम देती है: कुछ भाषाओं में ‘हरा’ और ‘नीला’ रंग के लिए अलग-अलग शब्द होते हैं, तो कुछ भाषाओं में दोनों रंगों के लिए एक ही नाम मिलता है। कुछ में तो रंगों के लिए नाम ही नहीं होते।

लेकिन ऐसा क्यों हैं? वैकासिक भाषाविद डैन डिडियू और मनोविज्ञानी आसिफा मज़ीद ने इसी सवाल का जवाब पता लगाया है। अध्ययन में उन्होंने पाया है कि जिन इलाकों में सूर्य की भरपूर रोशनी होती है उन इलाकों की भाषा में इस बात की संभावना अधिक रहती है कि उनमें नीले और हरे रंग के लिए एक ही नाम हो। और ऐसा संभवत: ताउम्र अधिक प्रकाश के संपर्क में रहने के कारण होता है: तेज़ धूप के कारण आंखो में “लेंस ब्रुनेसेन्स” नामक स्थिति बनती है जिसके कारण दो रंगों को अलग-अलग पहचानने में मुश्किल होती है।

एक अन्य परिकल्पना के अनुसार, जो लोग पानी के बड़े स्रोत – जैसे समुद्र या झील – के आसपास रहते हैं उनकी भाषा में ‘नीले’ रंग के लिए नाम होने की अधिक संभावना होती है। इसके अलावा, अगर कोई समुदाय नीले रंग में कपड़े रंगना शुरू करता है, तो यह भी उनकी भाषा में ‘नीले’ रंग के लिए नए नाम मिलने की संभावना को बढ़ाता है।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इन सभी मुख्य सिद्धांतों को एक साथ खंगालने का सोचा। इसके लिए उन्होंने अंटार्कटिका को छोड़कर बाकी सभी महाद्वीपों के 142 आबादी समूहों से भाषा सम्बंधी डैटा इकट्ठा किया। इनमें कोरियाई और अरबी जैसी बड़े पैमाने पर बोली जाने वाली भाषाओं से लेकर ऑस्ट्रेलिया और अमेज़ॉन में केवल कुछ सैकड़ा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएं शामिल थी। शोधकर्ताओं ने देखा कि प्रत्येक आबादी की मुख्य भाषा रंगों के लिए किन नामों का उपयोग करती है, और फिर इन नामों को प्रभावित कर सकने वाले कारकों का डैटा इकट्ठा किया – जैसे सूर्य के प्रकाश से संपर्क, या झील के नज़दीक होना।

साइंटिफिक रिपोर्ट्स में शोधकर्ता बताते हैं कि कोई भाषा हरे रंग और नीले रंग में अंतर करती है या नहीं इसमें प्रकाश से संपर्क महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भूमध्य रेखा के करीब वाले या वर्ष भर लगभग खुले आसमान वाले इलाकों (जैसे मध्य अमेरिका और पूर्वी अफ्रीका) की भाषाओं में ’हरे’  और ’नीले’  रंग के बीच फर्क काफी कम था। इससे पता चलता है कि ताउम्र तेज़ प्रकाश का संपर्क इन समुदाय में नीले-हरे रंग के भेद को मिटाता है। शोधकर्ताओं को अन्य दो सिद्धांतों के लिए भी समर्थन दिखा: झील के पास रहने से ’नीले’ रंग के लिए एक अलग नाम की संभावना बढ़ गई। और ऐसा ही उन्हें बड़े समुदायों के लिए भी दिखा। जिसका मतलब है कि किसी भाषा में अलग-अलग रंगों को नाम देने में दृष्टि, संस्कृति और पर्यावरण, ये सभी कारक भूमिका निभाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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नोबेल पुरस्कार: रसायन शास्त्र

रसायन शास्त्रियों का एक काम है कि वे विभिन्न पदार्थों से शुरू करके नए-नए पदार्थों का निर्माण करें। ये नए पदार्थ उर्वरक हो सकते हैं, सौर ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में बदलने वाले हो सकते हैं, ऊर्जा का भंडारण करने वाले हो सकते हैं या प्लास्टिक जैसी निर्माण व पैकेजिंग सामग्री में उपयोगी हो सकते हैं। उन्नीसवीं सदी में रसायनज्ञ जैकब बर्ज़ीलियस ने पहचान लिया था कि कुछ पदार्थ रासायनिक क्रियाओं को गति दे सकते हैं जबकि वे न तो क्रियाकारी होते हैं और न क्रियाफल। इन्हें उत्प्रेरक कहते हैं। एक अनुमान है कि विश्व के जीडीपी का 35 प्रतिशत उत्प्रेरकों के दम पर है।

इस वर्ष के नोबेल विजेता बेंजामिन लिस्ट और डेविड मैकमिलन के काम से पहले हम दो ही किस्म के उत्प्रेरक जानते थे। इनमें से एक थे जिनका उपयोग प्रकृति करती है (एंज़ाइम) और दूसरे थे धातु-आधारित। लिस्ट और मैकमिलन के शोध कार्य के फलस्वरूप हमें एक सर्वथा नवीन किस्म के उत्प्रेरक मिले हैं जिन्हें ऑर्गेनोउत्प्रेरक कहा जाता है और इस प्रक्रिया को ऑर्गेनोउत्प्रेरण कहते हैं।

दोनों शोधकर्ताओं ने प्रकृति के उत्प्रेरकों यानी एंज़ाइम्स पर ध्यान दिया। एंज़ाइम्स विशाल प्रोटीन अणु होते हैं जो किसी क्रिया के संचालन में मदद करते हैं। शोधकर्ताओं ने देखा कि पूरे विशाल प्रोटीन अणु में से मात्र कुछ हिस्सा ही क्रिया को संचालित करता है, शेष एंज़ाइम तो उस हिस्से को सही स्थिति में रखने के काम आता है। प्रोटीन दरअसल अमीनो अम्ल की इकाइयों से बने पॉलीमर हैं। तो शोधकर्ताओं ने सोचा कि क्या मात्र सम्बंधित अमीनो अम्ल वही काम कर सकता है जो पूरा एंज़ाइम अणु करता है।

इसी में से कार्बनिक उत्प्रेरण का विचार उभरा। प्रयोग करते-करते लिस्ट ने पाया कि वास्तव में अमीनो अम्ल उत्प्रेरण का काम कर सकते हैं, भले ही वे किसी एंज़ाइम का हिस्सा न हों। और तो और, ऐसे अमीनो अम्ल असममित संश्लेषण भी कर सकते हैं। गौरतलब है कि कई कार्बनिक अणु, रासायनिक संरचना में एक-से होते हुए भी, दो रूपों में पाए जाते हैं और ये दो रूप एक दूसरे के प्रतिबिंब होते हैं। प्राय: ऐसा होता है कि इनमें से एक आगे की क्रियाओं में उपयोगी होता है। लिस्ट ने पाया कि ऑर्गेनोउत्प्रेरक मनचाहा रूप बनाने में मदद कर सकते हैं।

लगभग इसी समय कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में डेविड मैकमिलन भी असममित संश्लेषण के लिए धातु उत्प्रेरकों के विकल्प की तलाश में थे। धातु उत्प्ररेकों के साथ समस्या यह होती है कि उन्हें काम करने के लिए अत्यंत नियंत्रित वातावरण की ज़रूरत होती है। और ये महंगी भी होती हैं। मैकमिलन का रास्ता एंज़ाइम से शुरू नहीं हुआ था, उन्होंने तो ऐसे कार्बनिक अणुओं से शुरुआत की थी जो उत्प्रेरण का काम कर सकें। देर सबेर वे भी वहीं पहुंच गए।

तो उपरोक्त शोधकर्ताओं के प्रयासों ने न सिर्फ हमें नए उत्प्रेरक दिए, बल्कि उत्प्रेरण के क्षेत्र को एक नई दिशा भी दी। उनके कार्य के बाद इस क्षेत्र में तेज़ी से प्रगति हुई है। असममित संश्लेषण के अलावा इन्होंने एक और चीज़ को संभव बनाया। जब कोई एंज़ाइम कोशिका में काम करता है तो अगला एंज़ाइम उसके क्रियाफलों का उपयोग सीधे ही क्रियाकारकों के रूप में कर लेता है। यानी उन क्रियाफलों को पृथक करके नए सिरे से उपयोग नहीं करना पड़ता। ऑर्गोनोउत्प्रेरण की इस खोज के बाद प्रयोगशाला और उद्योंगों में कृत्रिम रूप से भी ऐसा क्रमिक निरंतर उत्पादन (एसेंबली लाइन उत्पादन) संभव हो गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नोबेल पुरस्कार: कार्यिकी/चिकित्सा विज्ञान

वर्ष 2021 का कार्यिकी/चिकित्सा शास्त्र का नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के डेविड जूलियस और आर्डेम पैटापुटियन को दिया गया है। इन शोधकर्ताओं ने यह समझाने में मदद की है कि हमें स्पर्श की बारीकियों और गर्म-ठंडे का एहसास कैसे होता है। डेविड जूलियस ने गर्मी के एहसास की अपनी खोजबीन में एक जाने-माने पदार्थ कैप्सिसीन का उपयोग किया जो लाल मिर्च में भरपूर पाया जाता है और जलन पैदा करता है। दूसरी ओर, आर्डेम पैटापुटियन ने दाब-संवेदी कोशिकाओं की मदद से स्पर्श का रहस्य उजागर किया। किसी अनुभूति की प्रमुख बात यह होती है कि उससे जुड़े उद्दीपनों को कैसे तंत्रिका तंत्र विद्युत संकेतों में बदलकर मस्तिष्क तक पहुंचाता है।

जूलियस को यह विचार कौंधा कि यदि यह समझ में आ जाए कि मिर्च जलन कैसे पैदा करती है तो खोजबीन के नए रास्ते खुल जाएंगे। उन्हें यह तो पता था कि मिर्च में पाया जाने वाला कैप्सिसीन दर्द की अनुभूति पैदा करने वाली तंत्रिकाओं को उत्तेजित करता है। मामले को समझने के लिए जूलियस ने डीएनए का सहारा लिया। उन्होंने उन जीन्स पर ध्यान दिया जो दर्द, गर्मी और स्पर्श सम्बंधी तंत्रिकाओं में अभिव्यक्त होते हैं। उनका मानना था कि ऐसा कोई जीन ज़रूर होगा जो ऐसे प्रोटीन का कोड होगा जो कैप्सिसीन का संवेदी है। एक-एक करके विभिन्न जीन्स की जांच-पड़ताल की काफी मेहनत-मशक्कत के बाद वे एक जीन पहचान पाए जो किसी कोशिका को कैप्सिसीन-संवेदी बना सकता है। पता चला कि यह जीन जिस प्रोटीन का निर्माण करवाता है वह एक आयन चैनल प्रोटीन है। इसे नाम दिया गया TRPV1 और जूलियस ने पता लगा लिया कि यह प्रोटीन ऐसी गर्मी का एहसास करने में मददगार है जो दर्दनाक हो सकती है।

इस खोज ने आगे का रास्ता साफ कर दिया। आगे जूलियस और पैटापुटियन ने कई और ऐसे प्रोटीन खोजे जो अलग-अलग तापमान पर सक्रिय होते हैं और अनुभूति को जन्म देते हैं। अलग-अलग जंतु मॉडल्स पर प्रयोगों से इन निष्कर्षों की पुष्टि भी हुई।

अब अगला सवाल था कि स्पर्श (या ज़्यादा सामान्य रूप से दबाव) कैसे तंत्रिकाओं में विद्युत संकेतों का रूप लेता है। पैटापुटियन का अवलोकन था कि कोशिकाओं का एक प्रकार होता है जिन्हें माइक्रोपिपेट से टोंचा जाए तो उनमें विद्युत संकेत उत्पन्न हो जाता है। पैटापुटियन के दल ने भी जीन्स की जांच-पड़ताल का तरीका अपनाया। ऐसे 72 उम्मीदवार जीन्स पहचाने गए जिनके द्वारा बनाए गए प्रोटीन्स संभवत: दाब को विद्युत संकेत में बदलने का काम कर सकते हैं। एक-एक करके इन जीन्स को निष्क्रिय किया गया और अंतत: एक इकलौता जीन मिल गया जिसे निष्क्रिय करने पर कोशिका माइक्रोपिपेट की नोक टोंचने पर विद्युत संकेत उतपन्न नहीं करती। इस प्रोटीन को Piezo1 नाम दिया गया और आगे चलकर एक और प्रोटीन Piezo2 और उसका जीन भी पहचाना गया। ये दोनों प्रोटीन ऐसे आयन चैनल हैं जो कोशिका की झिल्ली पर दबाव डालने से सक्रिय हो जाते हैं।

यह भी स्पष्ट हुआ कि शरीर के बाहरी अथवा आंतरिक पर्यावरण में बदलाव दोनों ही इन चैनल्स को सक्रिय करते हैं और विद्युत संकेत भेजते हैं। इस प्रकार मिली समझ का उपयोग चिकित्सा के क्षेत्र में किया जा रहा है। (स्रोत फीचर्स)

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मास्क कैसा हो?

यह तो हम जानते हैं कि मास्क लगाना हमें कोविड-19 से सुरक्षा देता है। लेकिन स्वास्थ्य अधिकारियों की तरफ से इस बारे में बहुत कम जानकारी मिली है कि किस तरह के मास्क हमें सबसे अच्छी सुरक्षा देते हैं।

महामारी की शुरुआत में, यूएस सीडीसी और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आम जनता से कहा था कि वे N95 मास्क न पहनें क्योंकि एक तो उस समय इन मास्क की आपूर्ति बहुत कम थी और स्वास्थ्य कर्मियों को इनकी अधिक आवश्यकता थी। और दूसरा, उसी समय यह बात सामने आई थी कि सार्स-कोव-2 का एरोसोल के माध्यम से फैलने का जोखिम कम है। लेकिन इन मास्क की पर्याप्त आपूर्ति और इस वायरस के एरोसोल के माध्यम से फैलने के प्रमाण मिलने के बावजूद स्वास्थ्य एजेंसियां का आम लोगों के लिए कपड़े से बने मास्क लगाने पर ज़ोर रहा।

अब, N95 मास्क, चीन द्वारा निर्मित KN95 मास्क और दक्षिण कोरिया द्वारा निर्मित KF94 मास्क जैसे बेहतर बचाव देने वाले मास्क बाज़ार में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं और पहले की तुलना में सस्ते हैं। फिर भी कुछ समय पहले तक सीडीसी ने आम लोगों के लिए इनका उपयोग करने की बात नहीं कही थी। 10 सितंबर को सीडीसी ने कहा कि चूंकि अब N95 और अन्य मेडिकल-ग्रेड के मास्क पर्याप्त रूप से उपलब्ध हैं तो आम लोग भी इस तरह के मास्क पहन सकते हैं। लेकिन प्राथमिकता अब भी स्वास्थ्य कर्मियों के लिए है। वैसे, कपड़े के मास्क भी स्वीकार्य हैं।

लेकिन किस तरह के मास्क लोगों को बेहतर सुरक्षा देंगे इस बारे में कोई बात नहीं कही गई है। इस सम्बंध में साइंटिफिक अमेरिकन ने कई विशेषज्ञों से बात की। इनमें से कुछ विशेषज्ञों ने बाज़ार में उपलब्ध विभिन्न मास्क का परीक्षण किया है। और उनका कहना है कि स्वास्थ्य अधिकारियों को लोगों को यह बताना चाहिए कि लोगों को अच्छी तरह से फिट होने वाले और बाहरी कणों को मास्क के भीतर जाने से रोकने की उच्च क्षमता वाले मास्क पहनने की ज़रूरत है। खासकर तब जब तेज़ी से फैलने वाला डेल्टा संस्करण मौजूद है और लोग बंद जगहों पर अधिक समय बिता रहे हैं।

अच्छा मास्क

कोई मास्क अच्छा होगा यदि वह अधिक से अधिक बाहरी कणों या बूंदों को पार जाने से रोके, चेहरे पर अच्छी तरह फिट हो और नाक और मुंह के आसपास कोई खाली जगह न छोड़े, और उसे पहनने से सांस लेने में दिक्कत न हो। मसलन, N95 मास्क कम से कम 95 प्रतिशत कणों को पार जाने से रोकता है। लेकिन यदि यही मास्क चेहरे पर ढीला-ढाला रहेगा तो यह उतनी अच्छी सुरक्षा नहीं दे सकेगा। और यदि मास्क ऐसा हो जिसे लगाने पर सांस में तकलीफ जैसी दिक्कत लगे तो भी लोग इसे नहीं लगाएंगे, और संक्रमण का जोखिम बढ़ेगा।

स्वास्थ्य एजेंसियों ने इस बारे में भी कुछ नहीं कहा है कि किस ब्रांड के मास्क सर्वोत्तम सुरक्षा देते हैं। लेकिन कुछ शौकिया लोगों ने इस बारे में जानकारी उपलब्ध कराई है। एरोसोल विज्ञान की पृष्ठभूमि वाले एरोन कोलिन्स उर्फ ‘मास्क नर्ड’ सीगेट टेक्नोलॉजी में मैकेनिकल इंजीनियर हैं। अपने खाली समय में वे यूट्यूब वीडियो बनाते हैं जिनमें वे विभिन्न मास्क निर्माताओं द्वारा बनाए गए मास्क का परीक्षण और समीक्षा करते हैं।

कोलिन्स ने बाथरूम में एक मास्क-परीक्षण सेटअप लगा रखा है, जहां वे सोडियम क्लोराइड (नमक) के एरोसोल बनाते हैं और यह मापते हैं कि कौन सा मास्क इन्हें रोकने की कितनी क्षमता रखता है।

कोलिन्स ‘प्रेशर ड्रॉप’ का भी परीक्षण करते हैं जो दर्शाता है कि किसी मास्क से सांस लेने में कितनी सुविधा है। उनके अनुसार कुछ कपड़े के मास्क – जिनमें कॉफी फिल्टर से बने मास्क भी शामिल हैं – से सांस लेने में दिक्कत होती है। इसलिए N95 मास्क कपड़े से नहीं बने होते।

आम तौर पर वे चीन की कंपनी पॉवेकॉम और अन्य द्वारा बनाए गए KN95 मास्क, ब्लूना फेस फिट के KF94 मास्क और 3M, मोल्डेक्स या हनीवेल द्वारा बनाए गए N95 मास्क की सिफारिश करते हैं। इन सभी मास्क की कणों को रोकने की क्षमता 99 प्रतिशत है, और उनके परीक्षण के आधार पर इन्हें पहनने पर सांस लेने में तकलीफ भी नहीं होती। जबकि अच्छी फिटिंग वाले सर्जिकल मास्क की कणों को रोकने की क्षमता लगभग 50 से 75 प्रतिशत है और एक अच्छे कपड़े के मास्क की लगभग 70 प्रतिशत। लेकिन अच्छा मास्क चुनने में आराम एक निर्णायक कारक होना चाहिए।

इसके अलावा डेल्टा संस्करण के लिए वे सर्जिकल मास्क को उतना बेहतर नहीं मानते, यहां वे KN95 या KF94 जैसे मास्क को ज़रूरी बताते हैं। वैसे कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि सर्जिकल और कपड़े के मास्क कोविड-19 के खिलाफ कुछ हद तक सुरक्षा देते हैं। बांग्लादेश में हाल ही में हुए एक बड़े रैंडम अध्ययन में पाया गया कि सर्जिकल मास्क ने संक्रमण के जोखिम को काफी कम किया; कपड़े के मास्क को लेकर अस्पष्टता है।

बच्चों के लिए मास्क

अब जबकि बच्चों के स्कूल खुलने लगे हैं तो कई अभिभावकों को बच्चों की चिंता है, विशेषकर उन बच्चों की जो टीकाकरण के लिए अभी बहुत छोटे हैं। इस मामले में कणों को रोकने की उच्च क्षमता वाले मास्क बच्चों के लिए मददगार हो सकते हैं। बच्चों के लिए N95 मास्क के कोई मानक नहीं है, लेकिन कई निर्माता बच्चों के लिए KF94 या KN95 मास्क बना रहे हैं। इस तरह के मास्क छोटे चेहरों पर अच्छी तरह फिट होने के लिए और आसानी से पहने जाने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं। कोलिन्स के अनुसार ऐसा कोई कारण नहीं दिखता है कि बच्चे मास्क बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। उनका बेटा गर्मी के पूरे मौसम में मास्क पहने रहा।

कहां मिलेंगे

सीडीसी ने चेतावनी दी है कि यूएस में बिकने वाले KN95 मास्क में से लगभग 60 प्रतिशत मास्क नकली हैं। समस्या यही है कि भारत में इस बारे में कोई जानकारी ही नहीं है कि अच्छे मास्क कहां से खरीदे जाएं।

दोबारा उपयोग

KN95 जैसे मास्क लगाने में लोग इसलिए भी अनिच्छुक हैं क्योंकि आम तौर पर इन मास्क को डिस्पोज़ेबल माना जाता है। लेकिन कई विशेषज्ञों का कहना है कि वास्तव में इन्हें कई बार पहना जा सकता है। इस तरह के मास्क को आप तब तक उपयोग करते जा सकते हैं जब तक ये फट न जाए या गंदे न हो जाएं। कोलिन्स के परीक्षण के अनुसार ये मास्क 40 घंटे तक उपयोग किए जा सकते हैं, और इतनी देर में इनकी कणों को रोकने की क्षमता में कोई कमी नहीं आती। लेकिन पैकेट से निकालने के छह महीने के भीतर उपयोग कर लेना चाहिए। वैसे तो, इन मास्क पर वायरस लंबे समय तक जीवित नहीं रहते हैं इसलिए कुछ दिन छोड़कर दोबारा उपयोग में कोई बुराई नहीं है।

डबल मास्क

प्रभावशीलता बढ़ाने का एक प्रचलित तरीका है सर्जिकल मास्क के ऊपर कपड़े का मास्क पहनना। लेकिन वास्तव में यह जोड़ कितनी अच्छी तरह काम करता है?

कोलिन्स ने पाया कि यह तरीका 90 प्रतिशत से अधिक कणों को भीतर जाने से रोकता है। लेकिन अकेले N95 की तुलना में इस तरीके में सांस लेने में दिक्कत होती है।

हालांकि कुछ विशेषज्ञ इस बात से सहमत नहीं हैं कि N95 सरीखे मास्क सभी के लिए ज़रूरी हैं। वे सर्जिकल मास्क या कपड़े के मास्क की सिफारिश करते हैं।

दाढ़ी-मूंछ

इस पर बहुत अधिक डैटा नहीं है, लेकिन कुछ शोध बताते हैं कि किसी व्यक्ति की दाढ़ी या मूंछें जितनी बड़ी होंगी मास्क उतना ही कम प्रभावी होगा। बहरहाल सुविधा एक महत्वपूर्ण कारक है। (स्रोत फीचर्स)

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नोबेल पुरस्कार: भौतिक शास्त्र

इस वर्ष भौतिकी का नोबेल पुरस्कार तीन वैज्ञानिकों को दिया गया है। इन तीनों ने स्वतंत्र रूप से काम करते हुए जटिल तंत्रों व परिघटनाओं के अध्ययन के तौर-तरीके विकसित किए और जलवायु को समझने के लिए मॉडल विकसित करने में मदद की।

प्रिंसटन विश्वविद्यालय, यू.एस. के स्यूकुरो मनाबे और मैंक्स प्लांक मौसम विज्ञान विभाग, जर्मनी के क्लॉस हैसलमान ने पृथ्वी के जलवायु सम्बंधी हमारे ज्ञान की बुनियाद रखी और दर्शाया कि हम मनुष्य इसे कैसे प्रभावित करते हैं। इटली के सैपिएंज़ा विश्वविद्यालय के जियार्जियो पैरिसी ने बेतरतीब और अव्यवस्थित परिघटनाओं को समझने के क्षेत्र में क्रांतिकारी योगदान दिया।

जटिल तंत्र वे होते हैं जिनमें कई घटक होते हैं और वे एक-दूसरे के साथ कई अलग-अलग ढंग से परस्पर क्रिया करते हैं। ज़ाहिर है, इनका विवरण गणित की समीकरणों में नहीं समेटा जा सकता – कई बार तो ये संयोग के नियंत्रण में होते हैं।

जैसे मौसम को ही लें। मौसम पर न सिर्फ कई कारकों का असर होता है बल्कि कभी-कभी शुरुआती तनिक से विचलन से आगे चलकर असाधारण असर देखने को मिलते हैं। मनाबे, हैसलमान और पैरिसी ने ऐसे ही तंत्रों-परिघटनाओं को समझने तथा उनके दीर्घावधि विकास का पूर्वानुमान करने में योगदान दिया है।

मनाबे धरती की जलवायु के भौतिक मॉडल की मदद से यह दर्शा पाने में सफल रहे कि कैसे वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की बढ़ती सांद्रता के साथ धरती का तापमान बढ़ता है। इसी काम को आगे बढ़ाते हुए हैसलमान ने वह मॉडल विकसित किया जिसमें मौसम और जलवायु की कड़ियां जोड़ी जा सकती हैं। उन्होंने ऐसे संकेतक भी विकसित किए जिनकी मदद से जलवायु पर मनुष्य के प्रभाव को आंका जा सकता है। मनाबे व हैसलमान द्वारा विकसित मॉडल से यह स्पष्ट हुआ कि धरती के तापमान में हो रही वृद्धि मूलत: मानव-जनित कार्बन डाईऑक्साइड की वजह से हो रही है।

इन दोनों से अलग पैरिसी ने अव्यवस्थित जटिल पदार्थों में पैटर्न खोज निकाले। उनकी खोज के फलस्वरूप आज हम भौतिकी के साथ-साथ गणित, जीव विज्ञान, तंत्रिका विज्ञान और मशीन लर्निंग जैसे क्षेत्रों में सर्वथा बेतरतीब पदार्थों और परिघटनाओं को समझ पा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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खाद्य पदार्थों का स्टार रेटिंग – सोमेश केलकर

सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका में मांग की गई है कि सुप्रीम कोर्ट केंद्र को ऐसे दिशानिर्देश बनाने के निर्देश दे जो यह सुनिश्चित करें कि खाद्य उत्पाद के पैकेट पर सामने की ओर ‘स्वास्थ्य रेटिंग’ के साथ-साथ ‘स्वास्थ्य चेतावनी’ अंकित हो। याचिका में यह अनुरोध भी किया गया है कि डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों और पेय पदार्थों का उत्पादन करने वाले सभी उद्योगों के लिए ‘स्वास्थ्य प्रभाव आकलन’ और ‘पर्यावरण प्रभाव आकलन’ अनिवार्य किया जाए।

याचिका में यह भी अनुरोध है कि सुप्रीम कोर्ट भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (FSSAI) को निर्देश दे कि वह विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा वसा, नमक और शर्करा की स्वीकार्य मात्रा सम्बंधी सिफारिशों का अध्ययन करे। इसके अलावा, FSSAI अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के ‘स्वास्थ्य प्रभाव आकलन’ और ‘हेल्थ स्टार रेटिंग सिस्टम’ का अध्ययन करके तीन माह में प्रतिवेदन प्रस्तुत करे।

याचिका का तर्क है कि अनुच्छेद 21 स्वास्थ्य का अधिकार देता है। जबकि केंद्र और FSSAI बाज़ार में बिकने वाले खाद्य पदार्थों का ‘स्वास्थ्य प्रभाव आकलन’ नहीं करते हैं। उनके द्वारा ‘हेल्थ स्टार रेटिंग सिस्टम’ भी लागू नहीं किया गया है और इससे नागरिकों के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचता है। याचिका उपरोक्त दो निकायों की निष्क्रियता को संविधान के अनुच्छेद 21 के खुलेआम उल्लंघन समान बताती है। याचिका इस तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहती है कि किसी भी तरह के कुपोषण से बचने के लिए और अस्वास्थ्यकर या असंतुलित आहार के कारण होने वाले गैर-संचारी रोगों को थामने के लिए स्वास्थ्यप्रद आहार आवश्यक है। स्वास्थ्यप्रद आहार कोविड-19 जैसे संक्रामक रोगों के जोखिम को भी कम करता है। और FSSAI और केंद्र की निष्क्रियता ने इस बीमारी को बढ़ाया है। हेल्थ स्टार रेटिंग सिस्टम या स्वास्थ्य प्रभाव आकलन की अनिवर्यता न होने के कारण उपभोक्ता को ऐसा खाद्य मिलता है जिसमें कैलोरी, वसा, शर्करा व नमक की अधिकता होती है और फाइबर जैसे पोषक तत्वों की कमी होती है।

ऐसे में सवाल उठता है कि हेल्थ स्टार रेटिंग सिस्टम के साथ आगे बढ़ा जाए या नहीं? क्या वाकई इसकी आवश्यकता है? और है तो क्यों? जिन देशों में यह लागू है, क्या वे देश अपने उपभोक्ताओं को पौष्टिक विकल्पों के बारे में अधिक जागरूक कर पाए हैं? या क्या नागरिकों के स्वास्थ्य की देखभाल और चिंताओं की आड़ में कुछ और ही खेल रचा जा रहा है?

पोषण लेबलिंग

चौथे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक दस वर्षों में (2016 तक) देश में मोटापे से ग्रसित लोगों की संख्या दुगनी हो गई। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि 2030 तक भारत में होने वाली कुल मौतों में से 67 प्रतिशत मौतें गैर-संचारी रोगों के कारण होंगी।

पिछले दो दशकों में आहार विविधता बदली है, जिससे असंतुलित आहार के कारण गैर-संचारी रोग बढ़े हैं। हमारे वर्तमान भोजन में कैलोरी, शर्करा, ट्रांस फैटी एसिड, संतृप्त वसा, नमक आदि की अधिकता होती है। जबकि कुछ दशक पहले हमारा भोजन प्रोटीन, फाइबर, असंतृप्त वसा और कुछ अन्य आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्वों से समृद्ध होता था। भोजन में परिवर्तन के कारण देश में मोटापे की समस्या बढ़ी है। इसलिए भारत सरकार ने लगभग सभी खाद्य पदार्थों पर पोषण सम्बंधी जानकारी देना अनिवार्य किया है।

अब तक, यह जानकारी पैकेट के नीचे या पीछे की ओर एक पोषण तालिका में लिखी जाती है, जिसमें किसी खाद्य या पेय के सेवन से मिलने वाले पोषक तत्वों की लगभग मात्रा लिखी होती है। पैकेट पर एक और अनिवार्य हिस्सा है खाद्य या पेय में प्रयुक्त सामग्री की जानकारी, ताकि उपभोक्ता को पहले से यह पता हो कि जिस उत्पाद का वह सेवन कर रहा है उसमें कोई ऐसे पदार्थ तो नहीं है जिससे उसे एलर्जी है, या आस्थागत कारणों से वह उनका सेवन न करता हो – जैसे कुछ लोग प्याज़-लहसुन युक्त उत्पाद नहीं खाते।

पोषण सम्बंधी जानकारी दो तरह से दी जा सकती है;

1. लिखित तरीके से,

2. चित्र के रूप में।

वर्तमान में पोषण जानकारी लिखित तरीके से दी जाती है, जिसमें पैकेट पर एक तालिका में पोषण और प्रयुक्त सामग्री की जानकारी होती है। याचिका का सारा तर्क इसके इर्द-गिर्द है कि पोषण सम्बंधी जानकारी देने का कौन-सा तरीका बेहतर हो सकता है? यह सवाल महत्वपूर्ण है, क्योंकि उपभोक्ता अनुसंधान में पाया गया है कि लिखित जानकारी पढ़ना भ्रमित कर सकता है और उपभोक्ता अक्सर सामान खरीदते समय इन जानकारियों की अनदेखी करते हैं। और यह अनदेखी लापरवाही, निरक्षरता, पोषण सम्बंधी आवश्यकताओं के प्रति उदासीनता, भाषा से अनभिज्ञता, या जागरूकता में कमी के कारण हो सकती है।

ऐसे में, यह तर्क दिया जा सकता है कि चित्रात्मक लेबल पढ़ने में आसान होते हैं जैसे कि स्टार-रेटिंग सिस्टम। स्टार रेटिंग सिस्टम एयर कंडीशनर, माइक्रोवेव ओवन और रेफ्रिजरेटर जैसे बिजली से चलने वाले उपकरणों के लिए पहले से ही उपयोग की जा रही है। यह काफी हद तक भाषा और निरक्षरता की बाधा को दूर करती है। और उपभोक्ताओं को यह जानने का एक आसान और ‘विश्वसनीय’ तरीका देती है कि वे किस गुणवत्ता की वस्तु उपयोग कर रहे हैं।

स्टार रेटिंग सिस्टम के समर्थकों का कहना है कि यह निम्नलिखित पांच मानदंडों को पूरा करेगी;

1. दृश्यता – दृश्य लेबल इस तरह बनाया जाएगा कि उस पर लोगों की नज़र जाए, और इसके लिए स्टार रेटिंग लेबल को पैकेट के सामने छापा जाएगा।

2. बोधगम्यता – लेबल ऐसा हो कि इसे समझने में उपभोक्ताओं को भाषा या साक्षरता की बाधा न आए। ऐसा करने के लिए ट्रैफिक लाइट जैसी रंग आधारित कोडिंग प्रणाली का उपयोग की जा सकता है।

3. सूचनात्मकता – लेबल को पर्याप्त और आवश्यक जानकारी देना चाहिए। लाल, पीले, हरे रंग की प्रणाली अपनाई जा सकती है – लाल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक, पीला सहनीय और हरा स्वास्थप्रद।

4. पठनीयता – लेबल आसानी से पढ़ने या दिखने में आना चाहिए। वर्तमान में पैकेट के पीछे जानकारी छोटे अक्षरों में या तारांकित करके दी जाती है जो उपभोक्ताओं की नज़र से बच जाती है। इस तरह जानबूझ कर छोटे टाइप या तारांकन का उपयोग निषिद्ध होना चाहिए और उल्लंघन पर दंडित किया जाना चाहिए। स्टार का आकार इतना बड़ा होना चाहिए कि ये आसानी से दिखें।

5. वैज्ञानिक परीक्षण – लेबल का परीक्षण यह जानने के लिए किया जाना चाहिए कि क्या वह उपभोक्ता को उत्पाद के बारे में निर्णय करने में मदद करता है। लेबल के लगाए जाने से पहले और लेबल व्यवस्था शुरू होने के बाद उपभोक्ता के व्यवहार का अध्ययन किया जाना चाहिए और अध्ययन के परिणामों के आधार पर उपभोक्ताओं के लिए अधिक प्रासंगिक और आकर्षक लेबल बनाने के प्रयास होने चाहिए।

खाद्य उत्पाद पर किस तरीके से पोषण जानकारी देना कारगर होगा और किस तरह से नहीं, यह तब तक नहीं कहा जा सकता जब तक कि उपभोक्ता के क्रय व्यवहार का बहुत विस्तार से अध्ययन नहीं किया जाता। इसलिए, स्टार-रेटिंग सिस्टम के समर्थकों का प्रस्ताव है कि इसकी कारगरता जांचने के लिए फॉलोअप अध्ययन भी करना चाहिए। उनका सुझाव है कि FSSAI, WHO और गैर-सरकारी संगठन मिलकर भारत के विभिन्न हिस्सों में समय-समय पर रैंडम सर्वेक्षण कर सकते हैं ताकि यह पता लगाया जा सके कि स्वास्थ्य स्टार रेटिंग प्रणाली प्रभावी है या नहीं। अगर नहीं है तो उपभोक्ताओं के लिए जागरूकता कार्यक्रम तैयार किए जा सकते हैं।

क्या हम असफल प्रणाली ला रहे हैं?

चित्रित या दृश्य पोषण लेबलिंग प्रणाली के लाभ अन्य देशों में इसके लागू होने के आधार पर गिनाए जा रहे हैं। स्टार रेटिंग प्रणाली के प्रस्तावकों का कहना है कि यह प्रणाली 10 से अधिक देशों में सफल है।

लेकिन वास्तविकता निराशाजनक है। दरअसल, उपरोक्त 10 देशों में से केवल दो ही देश इस प्रणाली का पालन कर रहे हैं। ये दो देश हैं ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड। बाकी देश मानक पोषण तालिका और सामग्री की लिखित जानकारी के साथ या तो ‘ट्रैफिक-लाइट’ प्रणाली या ‘हाई अलर्ट’ प्रणाली का उपयोग करते हैं। ट्रैफिक लाइट प्रणाली में पैकेट पर लाल, पीला या हरा बिंदु या तारा होता है जो यह दर्शाता है कि कोई चीज कितनी स्वास्थ्यप्रद है या अस्वास्थ्यकर है। हाई अलर्ट प्रणाली में किसी उत्पाद में चीनी, नमक या वसा की मात्रा अधिक होने पर यह बात पैकेट पर मोटे अक्षरों में उसकी मात्रा के साथ लिखी जाती है।

और तो और, जिन दो देशों में इस प्रणाली का पालन किया जा रहा है वहां भी यह प्रणाली कारगर साबित नहीं हुई है। वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है कि इस तरह के लेबल किसी विशेष वस्तु के सेवन के खतरों के बारे में लोगों को सजग नहीं करते हैं।

उदाहरण के लिए कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं हैं। सिगरेट या तंबाकू उत्पादों को ही लें। सिगरेट और अन्य तंबाकू उत्पादों के बॉक्स या पैकेट पर एक बड़ा वैधानिक चेतावनी चित्र होता है, फिर भी युवा सिगरेट पीने की इच्छा करते हैं और धूम्रपान करने वाले ये चेतावनी देखने के बावजूद भी सिगरेट खरीदना और पीना जारी रखते हैं। भारत सरकार का यह विचार कि पैकेट पर चेतावनी छापने से लोग सतर्क होंगे और इन उत्पादों को नहीं खरीदेंगे, यह पहले ही विफल साबित हो चुका है।

स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि स्टार रेटिंग प्रणाली के लाभ तो अस्पष्ट हैं, लेकिन यह स्पष्ट है कि FSSAI इस प्रणाली का उपयोग कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए कर सकता है।

स्टार रेटिंग प्रणाली किसी खाद्य या पेय में उपस्थित वसा या शर्करा की सटीक मात्रा नहीं बताती। इस तरह, कोई कंपनी अपने अन्यथा हानिकारक उत्पाद में प्रोटीन, फाइबर या सूक्ष्म पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ाकर (अधिक वसा, नमक और शर्करा के बावजूद) उसके लिए अच्छी रेटिंग हासिल कर लेगी।

उत्तरी कैरोलिना विश्वविद्यालय का अध्ययन बताता है कि ‘हाई अलर्ट’ प्रणाली ने उच्च कैलोरी, शर्करा, नमक, वसा आदि युक्त उत्पादों की खपत को कम किया है। इसलिए, स्वास्थ्य स्टार रेटिंग प्रणाली के बजाय हाई अलर्ट प्रणाली का उपयोग किया जाना चाहिए। क्योंकि हाई अलर्ट प्रणाली वास्तव में अस्वास्थकर पदार्थों की उपस्थिति के बारे में आगाह करती है और उनकी मात्रा बताती है। स्टार-रेटिंग प्रणाली में यह एक बड़ी खामी है।

ऑस्ट्रेलिया की स्टार रेटिंग प्रणाली के दुष्परिणामों पर अध्ययन किए गए हैं। इनमें पाया गया है कि ऑस्ट्रेलिया में 41 प्रतिशत खाद्य पदार्थों पर स्टार-रेटिंग होती है, और इसके बावजूद भी उपभोक्ता अपने द्वारा उपयोग किए जा रहे खाद्य में वसा, शर्करा, कैलोरी, नमक आदि की मात्रा से अनभिज्ञ हैं। हम दूसरों की गलतियों से सीख सकते हैं।

स्टार रेटिंग प्रणाली लागू करने से परिवर्तन की संभावना नहीं दिखती। यह प्रणाली लोगों को विश्वास दिलाएगी कि पोषण के बारे में चिंता की जा रही है, इसकी आड़ में निम्न गुणवत्ता वाले उत्पाद बेचे जाएंगे। कंपनियों पर तो भरोसा नहीं किया जा सकता कि वे अपने खरीदारों को स्वास्थ्यप्रद उत्पाद पेश करेंगी, क्योंकि उनकी रुचि तो ऐसा उत्पाद देने में है जिसकी लागत बहुत कम हो और उसे ऊंचे दामों पर बेचा जा सके।

स्टार-रेटिंग सिस्टम के अन्य नुकसान भी हैं। किस उत्पाद को कौन सी रेटिंग मिलेगी, इसका निर्धारण करने वाले बेंचमार्क में ढील या संशोधन के लिए कंपनियां सरकार को घूस भी दे सकती हैं। और यह हमारे लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि हम न्यूनतम मज़दूरी को लागू करने में विफल रहे हैं, हम न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागू करने में विफल रहे हैं और हम अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे दिहाड़ी मज़दूरों के लिए बेहतर माहौल देने में असफल रहे हैं। मानकों में हेराफेरी नहीं होगी, यह सुनिश्चित करना एक चुनौती होगी।

स्टार रेटिंग प्रणाली के कारण एक और समस्या उत्पन्न होगी। यह कंपनियों द्वारा की जा रही बेइमानी को पकड़ना मुश्किल बना देगी। उदाहरण के लिए मैगी को ही लें। एमएसजी और सीसा (लेड) की अत्यधिक मात्रा के कारण मैगी की आलोचना की गई थी। पूरे भारत से लिए गए 12 में से 10 नमूनों में सीसा की मात्रा अस्वीकार्य स्तर पर निकली थी। मैगी में सीसा और एमएसजी की अत्यधिक मात्रा की शिकायत की जा सकी क्योंकि इसकी सामग्री और पोषण की मात्रा के बारे में पारदर्शिता थी। अन्यथा इस तरह के अनाचार होते रह सकते हैं और इन पर ध्यान तब जाएगा जब लोग वास्तव में बीमार होने और मरने लगेंगे।

निष्कर्ष

भोजन एक बुनियादी ज़रूरत है। और लाभ कमाना भी कोई अपराध नहीं है। लेकिन कंपनियों को इस बारे में बहुत संवेदनशील होने की ज़रूरत है कि मुनाफा कमाने के लिए क्या स्वीकार्य है, और उपभोक्ता के स्वास्थ्य को नज़रअंदाज़ कर अपना लाभ बनाना अस्वीकार्य और अनैतिक है।

इसका समाधान कोई बीच का रास्ता हो सकता है, जिसमें दो या दो से अधिक प्रणालियों को लागू किया जाए। उत्पाद की एक नज़र में परख के लिए और कुछ हद तक भाषागत बाधा को पार करने के लिए अलग-अलग रंग वाले स्टार अंकित किए जाएं, और अगर किसी खाद्य पदार्थ में अत्यधिक मात्रा में वसा, शर्करा, नमक, कैलोरी है तो उसे बड़े और मोटे शब्दों में छापा जाए। इसके साथ ही पैकेट के पीछे पोषक तत्व और सामग्री तालिका भी दी जाए। यह प्रणाली लचीली होगी क्योंकि यह सभी तरह के उपभोक्ताओं को जानकारी देगी – स्वास्थ्य के प्रति जागरूक उपभोक्ता पोषण चार्ट और अवयव देखकर उत्पाद चुन सकता है, निरक्षर या उस भाषा से अनजान व्यक्ति स्टार देखकर।

अलबत्ता, यह एक बड़ी समस्या का शॉर्ट-कट समाधान है। शिक्षा में कमी, स्वस्थ रहने के लिए हमारी संस्कृति में प्रोत्साहन की कमी, उपभोक्ता जागरूकता की कमी, उपभोक्ता अधिकारों के बारे में जागरूकता की कमी और इस तरह की नीतियों पर सरकार के फैसलों पर सवाल उठाने की इच्छा की कमी। ये समस्याएं लंबे समय से हमारे साथ हैं। और सरकार को अच्छी शिक्षा के माध्यम से तर्क करने वाले नागरिक बनाने में कोई रुचि नहीं है क्योंकि जो नागरिक सवाल नहीं करते हैं उन पर शासन करना आसान होता है। इन मुद्दों को संबोधित करने और सुधारने में एक लंबा समय लगेगा। जागरूक नागरिक बनाने में बहुत अधिक धन भी लगता है। लेकिन वर्तमान में हम अंतर्निहित समस्या को खत्म करने के बजाय शॉर्ट-कट सुधार तलाश रहे हैं। क्योंकि समस्या को खत्म करना न केवल कठिन और महंगा है बल्कि पहले तो हमें यह स्वीकार करने की ज़रूरत है कि हम गलत हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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