भारत सरकार ने 18 अगस्त को घोषित 11,040 करोड़ रुपए की स्कीम में पाम आयल का घरेलू उत्पादन तेज़ी से बढ़ाने के लिए इसके वृक्ष बड़े पैमाने पर लगाने का निर्णय किया है। इसके लिए खासकर उत्तर-पूर्वी राज्यों और अंडमान व निकोबार द्वीप समूह पर ध्यान दिया जाएगा। इस दौर में यह सुनिश्चित करना चाहिए कि खाद्य तेल का घरेलू उत्पादन बढ़ाने के प्रयासों में परंपरागत तिलहनों की उपेक्षा न हो जाए।
भारत में तिलहनों की समृद्ध परंपरा रही है व इन तिलहनों तथा इनसे प्राप्त तेलों का हमारी संस्कृति व पर्व-त्यौहारों में भी विशेष महत्व रहा है। विशेषकर सरसों, तिल, मूंगफली व नारियल का तो बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इसके अतिरिक्त अपेक्षाकृत कम उत्पादन क्षेत्र के ऐसे अनेक तिलहन हैं जिनमें से कुछ का हिमालय क्षेत्र में, कुछ का आदिवासी क्षेत्रों में, कुछ का औषधि व अन्य विशिष्ट उपयोगों में महत्व रहा है। इसके अतिरिक्त कपासिया तेल का अपना महत्त्व है और यह अपेक्षाकृत सस्ता भी है।
जहां तक पोषण का सवाल है, तो देश के अलग-अलग क्षेत्रों के व्यंजनों के अनुसार हमारे परंपरागत तेल उपलब्ध हैं, व अच्छे पोषण व स्वाद की दृष्टि से इनका स्थान बाहरी तेल नहीं ले सकते हैं। इनसे केवल तेल नहीं मिलता है, अपितु मूंगफली, सरसों का साग, तिल, नारियल का पानी व गिरी भी मिलते हैं। पौष्टिक गजक, लड्डू, रेवड़ी, मिठाई आदि के रूप में इनका सेवन विशेषकर सर्दी के दिनों में अनुकूल है। अरंडी व अलसी के तेल औषधीय गुणों के लिए जाने जाते हैं। लोहड़ी के त्यौहार में रेवड़ी-गजक होना ज़रूरी है। सर्द शामों में गर्म मूंगफली खाने का अपना ही मज़ा है। ये सभी खाद्य स्वास्थ्य व स्वाद दोनों की दृष्टि से अच्छे हैं। सरसों के साग के बिना तो सर्दी के दिन कटते ही नहीं हैं, तो गर्मी व उमस के दिनों में सबसे अधिक राहत नारियल के पानी से ही मिलती है।
सवाल यह है कि तिलहन की इतनी समृद्ध विरासत के बावजूद हमारा देश खाद्य-तेलों के आयात पर इतना निर्भर क्यों हो गया? इसकी वजह यह है कि परंपरागत तिलहन के किसानों को उचित समर्थन व प्रोत्साहन नहीं मिल पाया। बाहरी सस्ते तेलों के आयात को एक सकल विकल्प मान लिया गया। हाइड्रोजिनेशन की तकनीक से यह समस्या सुलझा ली गई कि कोई तेल स्थानीय स्वाद के अनुकूल है या नहीं। पर हम यह भूल गए कि जहां तक स्वास्थ्य का सवाल है, तो स्थानीय शुद्ध तेल ही सर्वोत्तम हैं व खेती-किसानी की खुशहाली के लिए भी इनको प्रोत्साहित करना ही सबसे उचित है।
जब तिलहन-किसानों को अनुकूल माहौल दिया गया है, उन्होंने तिलहन उत्पादन बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पर जब प्रतिकूल स्थितियां मिलीं तो खाद्य तेलों के आयात पर निर्भरता बढ़ी। खाद्य तेलों के आयात का वार्षिक बिल असहनीय हद तक बढ़ गया क्योंकि 60 प्रतिशत या उससे अधिक खाद्य तेल आयात करना पड़ रहा था।
भारत में ढाई करोड़ हैक्टर भूमि पर तिलहन की खेती होती है। इससे पता चलता है कि तिलहन के किसानों की संख्या बहुत अधिक है। तिस पर यदि शुद्ध तेल देने वाली कुटीर व लघु प्रोसेसिंग इकाई कच्ची घानी व कोल्हू का उपयोग हो तो इससे भी तिलहन व खाद्य तेल क्षेत्र में रोज़गार बहुत बढ़ता है। इसी आधार पर स्थानीय स्तर पर खली की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है जिससे डेयरी कार्य व पशुपालन की संभावनाएं बढ़ सकती हैं।
आजीविका सुरक्षा व आत्म-निर्भरता दोनों के उद्देश्यों को समान महत्व देते हुए हमें तिलहन उत्पादन वृद्धि का एक ऐसा कार्यक्रम बनाना चाहिए जो मूलत: देश के स्थानीय तिलहनों पर आधारित हो, ऐसे तिलहनों पर जिनके बारे में हमारे किसानों के पास भरपूर ज्ञान पहले से उपलब्ध है, जो हमारी पोषण आवश्यकताओं के साथ मिट्टी, जल व जलवायु स्थिति के अनुकूल हों। इस खेती के साथ स्थानीय स्तर की कुटीर इकाइयों द्वारा तिलहन से तेल प्राप्त करने की पर्याप्त इकाइयां स्थापित करना चाहिए व साथ में खली की पर्याप्त उपलब्धता स्थानीय पशुपालकों को करनी चाहिए। मुख्य तिलहनों के अलावा जो औषधि व विशिष्ट उपयोगों के तिलहन हैं, उनके साथ जुड़े कुटीर व लघु उद्योगों को भी विकसित करना चाहिए। आर्गेनिक खेती को प्रोत्साहित करना चाहिए। इस राह पर चले तो भारत निकट भविष्य में तिलहन क्षेत्र में विश्व स्तर पर महत्वपूर्ण व विशिष्ट स्थान बना सकता है।
यह बहुत ज़रूरी है कि हम अपनी क्षमताओं और विशिष्ट आवश्यकताओं को पहचानें व उनके अनुकूल कार्य करें। इस तरह तिलहन के क्षेत्र की जो प्रगति होगी वह अपने देश की मिट्टी, फसल चक्र, पोषण, जल, जलवायु की स्थिति के अनुकूल होगी व यही प्रगति की राह सफल व टिकाऊ सिद्ध होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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