हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया है कि बर्फ पिघलकर बह
जाने से जैसे-जैसे महाद्वीपों पर जमी हुई बर्फ का भार कम होता है, ज़मीन
विकृत होती है – न केवल उस स्थान पर जहां की बर्फ पिघली है बल्कि इसका असर
दूर-दराज़ हिस्सों तक पड़ता है; असर बर्फ पिघलने के स्थान से 1000 किलोमीटर
दूर तक देखा गया है।
बर्फ पिघलने से पृथ्वी के महाद्वीपों पर
भार में अत्यधिक कमी आती है, और इस तरह बर्फ के भार से मुक्त हुई ज़मीन
हल्की होकर ऊपर उठती है। ज़मीन में होने वाले इस ऊध्र्वाधर बदलाव पर तो काफी अध्ययन
हुए हैं, लेकिन हारवर्ड विश्वविद्यालय की सोफी कूल्सन और उनके साथी
जानना चाहते थे कि क्या ज़मीन अपने स्थान से खिसकती भी है?
यह जानने के लिए उन्होंने ग्रीनलैंड, अंटार्कटिका, पर्वतीय
ग्लेशियरों और आइस केप्स (बर्फ की टोपियों) से पिघलने वाली बर्फ का उपग्रह डैटा
एकत्रित किया। फिर इस डैटा को एक ऐसे मॉडल में जोड़ा जो बताता है कि पृथ्वी की
भूपर्पटी पर पड़ने वाले भार में बदलाव होने पर वह किस तरह प्रतिक्रिया देती है या
खिसकती है।
उन्होंने पाया कि 2003 से 2018 के बीच ग्रीनलैंड और आर्कटिक ग्लेशियरों की बर्फ के पिघलने से ज़मीन उत्तरी गोलार्ध की तरफ काफी खिसक गई है। और कनाडा तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के अधिकांश हिस्सों में ज़मीन प्रति वर्ष 0.3 मिलीमीटर तक खिसक रही है, कुछ क्षेत्र जो बर्फ पिघलने वाले स्थान से काफी दूर हैं वहां पर भी ज़मीन के खिसकने की गति ऊपर उठने की गति से अधिक है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/w1248/magazine-assets/d41586-021-02285-0/d41586-021-02285-0_19585022.jpg
टीवी पर हैंडवाश का एक विज्ञापन आता है जिसमें एक बच्चा अच्छी
तरह मलकर हाथ धोते दिखता है, तो उसके दोस्त उससे पूछते हैं तेरा साबुन
स्लो है क्या और फटाफट अपने हाथ उस हैंडवाश से धोकर निकल जाते हैं जो दावा करता है
कि वह 10 सेकंड में कीटाणुओं का सफाया कर डालता है।
लेकिन भौतिकी का सामान्य मॉडल बताता है कि
हाथों से वायरस या बैक्टीरिया से छुटकारा पाने का कोई तेज़ तरीका नहीं है। झाग बनने
की द्रव गतिकी के विश्लेषण के अनुसार वायरस या बैक्टीरिया को हाथों से हटाने के
लिए हाथों को धीमी गति से कम से कम 20 सेकंड तक तो धोना ही चाहिए। हाथ धोने का यह
समय सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों द्वारा सुझाए गए समय के बराबर है।
हाथ धोने के सरल से काम में जटिल भौतिकी
कार्य करती है। हाथ धोते समय जब हाथ आपस में रगड़ते हैं तो दोनों हाथों के बीच पानी
और साबुन की एक पतली परत होती है। इसकी भौतिकी पर प्रकाश डालने के लिए पॉल हैमंड
ने द्रव गतिकी के लूब्रिकेशन सिद्धांत का सहारा लिया,
जो दो सतहों के बीच
द्रव की पतली परत की भौतिकी का वर्णन करता है। हैमंड ने इस सिद्धांत (इसके सूत्र)
का उपयोग कर एक सरल मॉडल तैयार किया जो यह अनुमान लगाता है कि हाथ से कीटाणुओं या
रोगणुओं को हटाने में कितना समय लगता है। उन्होंने पाया कि हाथों से रोगाणुओं का
सफाया करने के लिए कम से कम 20 सेकंड तक हाथ रगड़कर धोना ज़रूरी है।
हालांकि विश्लेषण में हाथ धोने के लिए इस्तेमाल किए गए रसायन और जीव वैज्ञानिक पहलुओं को ध्यान में नहीं रखा गया, लेकिन यह परिणाम आगे के अध्ययनों के लिए रास्ता खोलते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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हालिया अध्ययन बताता है कि जीव-जगत में सबसे चमकदार हरी चमक
जुगनू की नहीं होती, बल्कि एशिया में पाई जानी वाली पेपर ततैया के छत्ते हरे रंग
में सबसे तेज़ चमकते हैं। जर्नल ऑफ दी रॉयल सोसाइटी इंटरफेस में प्रकाशित
रिपोर्ट के अनुसार यह प्रकाश ततैया के लार्वा (जीनस पॉलिस्टेस) द्वारा ककून
में बुने रेशम प्रोटीन से निकलता है। इस चमक को पराबैंगनी रोशनी में 20 मीटर दूर
से देखा जा सकता है।
शोधकर्ताओं को लगता है कि छत्ते की यह चमक
संध्या के समय ततैया को घर वापसी में मदद करती है – जब शाम गहराने लगती है लेकिन
हल्की पराबैंगनी रोशनी होती है। पोलिस्टेस 540 नैनोमीटर तरंग दैर्घ्य तक का
प्रकाश देख सकते हैं, और ककून से निकलने वाला हरा प्रकाश इसी तंरग दैर्घ्य का
होता है।
यह भी संभावना है कि यह फ्लोरेसेंट प्रोटीन सूर्य के पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित कर लेता है और विकसित होते लार्वा को इस हानिकारक विकिरण से बचाता है। संभवत: फ्लोरेसेंस लार्वा की वृद्धि में भी मदद करता है: शोधकर्ता बताते हैं कि कई पोलिस्टेस प्रजातियों की वृद्धि जंगल में बरसात के मौसम के दौरान होती हैं, जब अक्सर धुंध या बादल छाए रहते हैं। तब यह ककून लैम्प धुंध में ततैयों को सूर्य का अंदाज़ा देता है; ककून की हरी रोशनी ततैयों द्वारा दिन-रात चक्र का तालमेल बनाए रखने में उपयोग की जाती होगी, जो उनके उचित विकास में महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)
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लगभग डेढ़ साल से बच्चे घर पर हैं। और तब से उनकी शिक्षा और
मनोरंजन डिजिटल स्क्रीन में सिमट गए हैं। इसका मतलब है कि वे अधिक समय तक मोबाइल
फोन देख रहे हैं। नेत्र रोग विशेषज्ञों का कहना है कि कोविड-19 महामारी के फैलने
के बाद से 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में मायोपिया (निकट दृष्टिता) के मामले
बढ़े हैं। यह आंखों का ऐसा विकार है जिसमें दूर की चीज़ें देखने में कठिनाई होती है।
अग्रवाल आई हॉस्पिटल के विशेषज्ञ
चिकित्सकों का कहना है कि बच्चों में ‘भेंगेपन’ के मामले भी अधिक देखे जा रहे हैं।
एक निजी अस्पताल में सलाहकार नेत्र रोग विशेषज्ञ पलक मकवाना के अनुसार, ‘हमारे
आंकड़े बताते हैं कि इस महामारी दौरान 5-15 वर्ष की उम्र के बच्चों में मायोपिया के
मामलों में 100 प्रतिशत वृद्धि और भेंगापन के मामलों में पांच गुना वृद्धि हुई
है।’
डॉ. मकवाना बताती हैं कि लॉकडाउन के दौरान
कंप्यूटर, लैपटॉप, और मोबाइल फोन या टैबलेट के माध्यम से काम
हुआ, और इस दौरान बार-बार ब्रेक भी नहीं लिए गए। शैक्षणिक व अन्य
उद्देश्यों से स्क्रीन को घूरने के समय में काफी वृद्धि हुई है। आंखों पर पड़ने
वाला यह तनाव भेंगेपन का कारण हो सकता है और मायोपिया को बढ़ावा देता है।
सलाहकार नेत्र रोग विशेषज्ञ टी. श्रीनिवास
ने बताते हैं कि कोविड-19 महामारी की वजह से इस समस्या में तेज़ी आई है। चूंकि खुद को
और परिवार को सुरक्षित रखना ही लोगों की सर्वोच्च प्राथमिकता थी इसलिए लोग नेत्र
रोग विशेषज्ञों सहित अन्य चिकित्सकों से भी मुलाकात से बचते रहे। वे आगे बताते हैं, ‘बच्चों
का नेत्र रोग विशेषज्ञ के पास जाना नहीं हो पाने की वजह से कई बच्चे नामुनासिब
पॉवर का चश्मा पहनते रहे, जिससे उनकी आंखों पर ज़ोर पड़ा। इससे उनकी
नज़र और भी कमज़ोर हुई। बिना ब्रेक लिए लगातार डिजिटल स्क्रीन पर काम ने इस समस्या
को और बढ़ाया। अक्सर 21 वर्ष की आयु तक नेत्रगोलक की साइज़ बदलती है। आम तौर पर बढ़ती
उम्र में चश्मे का नंबर बदलता है। गलत नंबर वाले चश्मों का उपयोग और अधिक समय
डिजिटल स्क्रीन पर बिताने से दृष्टि और भी कमज़ोर हो सकती है।’
मौजूदा हालात में, ऑनलाइन कक्षाओं से बचा नहीं जा सकता है। इसलिए डॉ. मकवाना का सुझाव है कि बच्चे कक्षा में शामिल होने के लिए मोबाइल फोन की बजाय लैपटॉप या डेस्कटॉप का उपयोग करें क्योंकि बड़ी स्क्रीन और आंखों के बीच की दूरी अधिक होती है। इसके अलावा, स्वस्थ और संतुलित आहार के साथ-साथ मैदानी खेल खेलने और दिन में एक से दो घंटे धूप में रहने की सलाह दी जाती है।(स्रोत फीचर्स)
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अति-संक्रामक डेल्टा संस्करण का प्रकोप बढ़ने के मद्देनज़र
वैज्ञानिक इसके तेज़तर प्रसार का जैविक आधार समझने का प्रयास कर रहे हैं। कई
अध्ययनों से पता चला है कि डेल्टा संस्करण में उपस्थित एक अमीनो अम्ल में परिवर्तन
से वायरस का प्रसार तेज़तर हुआ है। यूके में किए गए अध्ययन से पता चला है कि अल्फा
संस्करण की तुलना में डेल्टा संस्करण 40 प्रतिशत अधिक प्रसारशील है।
युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास मेडिकल ब्रांच के
वायरोलॉजिस्ट पी-यौंग शी के अनुसार डेल्टा संस्करण की मुख्य पहचान ही संक्रामकता
है जो नई ऊंचाइयों को छू रही है। शी की टीम और अन्य समूहों ने सार्स-कोव-2 के
स्पाइक प्रोटीन में एक अमीनो अम्ल में परिवर्तन की पहचान की है। यह वायरल अणु
कोशिकाओं की पहचान करने और उनमें घुसपैठ करने के लिए ज़िम्मेदार है। P681R
नामक यह परिवर्तनएक अमीनो अम्ल प्रोलीन को आर्जिनीन में बदल देता है, जो
स्पाइक प्रोटीन की फ्यूरिन क्लीवेज साइट में होता है।
जब चीन में पहली बार सार्स-कोव-2 की पहचान
की गई थी तब अमीनो अम्ल की इस छोटे खंड की उपस्थिति ने खतरे के संकेत दिए थे। ऐसा
इसलिए क्योंकि यह परिवर्तन इन्फ्लुएंज़ा जैसे वायरसों में बढ़ी हुई संक्रामकता से
जुड़ा पाया गया है। लेकिन सर्बेकोवायरस कुल में पहले कभी नहीं पाया गया था।
सर्बेकोवायरस वायरसों का वह समूह है जिसमें सार्स-कोव-2 सहित कोरोनावायरस शामिल
हैं। यह मामूली सा खंड एक बड़े खतरे का द्योतक था।
गौरतलब है कि कोशिकाओं में प्रवेश करने के
लिए ज़रूरी होता है कि मेज़बान कोशिका का प्रोटीन सार्स-कोव-2 प्रोटीन को दो बार
काटे। सार्स-कोव-1 में दोनों बार काटने की प्रक्रिया वायरस के कोशिका से जुड़ने के
बाद होती हैं। लेकिन सार्स-कोव-2 में फ्यूरिन क्लीवेज साइट होने का मतलब है कि
काटने की पहली प्रक्रिया संक्रमित कोशिका से निकलने वाले नए वायरस में ही हो जाती
है। ये पूर्व-सक्रिय वायरस कोशिकाओं को अधिक कुशलता से संक्रमित कर सकते हैं।
देखा जाए तो डेल्टा ऐसा पहला संस्करण नहीं
है जिसमें फ्यूरिन क्लीवेज साइट को बदलने वाला उत्परिवर्तन होता है। अल्फा संस्करण
में भी इसी स्थान पर एक अलग अमीनो अम्ल का परिवर्तन पाया जाता है। लेकिन डेल्टा
में हुए उत्परिवर्तन का प्रभाव अधिक होता है।
शी की टीम ने यह भी पाया है कि डेल्टा
संस्करण में स्पाइक प्रोटीन अल्फा संस्करण की तुलना में अधिक प्रभावी तौर से काटा
जाता है। इम्पीरियल कॉलेज लंदन की वायरोलॉजिस्ट वेंडी बारक्ले और उनकी टीम को भी
इसी तरह के परिणाम मिले थे। दोनों समूहों द्वारा किए गए आगे के प्रयोगों से पता
चला है कि स्पाइक प्रोटीन के इतनी कुशलता से कटने के पीछे P681R
परिवर्तन काफी हद तक ज़िम्मेदार है।
वर्तमान में शोधकर्ता P681R और
डेल्टा की संक्रामकता के बीच सम्बंध स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। शी की टीम
ने मनुष्य के श्वसन मार्ग की संवर्धित उपकला कोशिकाओं को समान संख्या में अल्फा और
डेल्टा के वायरस से संक्रमित किया और पाया कि डेल्टा संस्करण ने काफी तेज़ी से
अल्फा को संख्या में पीछे छोड़ दिया। यही पैटर्न हकीकत में भी दिखाई दे रहा है। जब
शोधकर्ताओं ने P681R
परिवर्तन को हटा दिया तो डेल्टा संस्करण को मिलने वाला लाभ खत्म हो गया।
शोधकर्ताओं का मानना है कि इस उत्परिवर्तन से एक कोशिका से दूसरी कोशिका में वायरस
का प्रसार भी अधिक हुआ है।
हालांकि,
इस बात के प्रमाण बढ़
रहे हैं कि P681R
परिवर्तन डेल्टा का एक अहम गुण है लेकिन शोधकर्ता यह नहीं मानते कि यही एकमात्र
उत्परिवर्तन है जो डेल्टा को लाभ प्रदान करता है। डेल्टा के स्पाइक प्रोटीन और
अन्य प्रोटीन्स में भी कई अन्य प्रकार के महत्वपूर्ण उत्परिवर्तन हो सकते हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार डेल्टा संस्करण के
तेज़ी से बढ़ने के पीछे अन्य कारक भी महत्वपूर्ण हो सकते हैं। डेल्टा के निकट
सम्बंधी, कैपा नामक संस्करण में भी P681R
सहित इसी प्रकार के उत्परिवर्तन थे लेकिन वह डेल्टा के समान विनाशकारी नहीं रहा।
हारवर्ड मेडिकल स्कूल के जीव विज्ञानी बिंग चेंग के अनुसार कैपा का स्पाइक प्रोटीन
काफी कम कटता है और डेल्टा की तुलना में कोशिका की झिल्ली से कम कुशलता से जुड़ता
है। शोधकर्ताओं के अनुसार इस खोज से P681R की भूमिका पर काफी
सवाल उठते हैं।
युगांडा के शोधकर्ताओं ने 2021 की शुरुआत में व्यापक रूप से फैले संस्करण में P681R परिवर्तन की पहचान की थी लेकिन यह डेल्टा के समान नहीं फैला जबकि इसने प्रयोगशाला अध्ययनों में वैसे गुण प्रदर्शित किए थे। वैज्ञानिकों की टीम ने महामारी की शुरुआत में वुहान में फैल रहे कोरोनावायरस में P681R परिवर्तन किया लेकिन इससे उसकी संक्रामकता में कोई वृद्धि देखने को नहीं मिली। इससे लगता है कि एक से अधिक उत्परिवर्तन की भूमिका हो सकती है। कई वैज्ञानिकों का मानना है कि डेल्टा में P681R की भूमिका के बावजूद फ्यूरिन क्लीवेज साइट पर परिवर्तन का महत्व रेखांकित हुआ है। और ऐसा परिवर्तऩ कई तरह से संभव है।(स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में अमेरिकी खुफिया समुदाय ने राष्ट्रपति बाइडेन के आग्रह पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की है। इस दो-पृष्ठों की सार्वजनिक रिपोर्ट में टीम ने सभी उपलब्ध खुफिया रिपोर्टिंग और अन्य जानकारियों की जांच के बाद कुछ मुख्य परिणाम जारी किए हैं।
खुफिया समुदाय के अनुसार उसके पास
सार्स-कोव-2 के स्रोत का पता लगाने के लिए पर्याप्त जानकारी ही नहीं है जिससे यह
बताया जा सके कि यह जीवों से मनुष्यों में आया या फिर प्रयोगशाला से दुर्घटनावश
निकला है। महत्वपूर्ण बात यह है कि खुफिया समुदाय के अंदर ही कोविड के संभावित स्रोत
को लेकर सहमति नहीं है और दोनों परिकल्पनाओं के समर्थक मौजूद हैं।
फिर भी वे अपने मूल्यांकन के कुछ बिंदुओं
पर एकमत हुए हैं। जैसे, दिसंबर 2019 में चीन के वुहान प्रांत में वायरस प्रकोप से
पूर्व चीनी अधिकारियों को सार्स-कोव-2 की जानकारी नहीं थी। उनका अनुमान है कि
सार्स-कोव-2 नवंबर 2019 के पहले ही उभरा था। एजेंसियों का यह भी मत है कि वायरस को
जैविक हथियार के रूप में विकसित नहीं किया गया था।
इस दौरान बाइडेन ने चीनी सरकार से वुहान की
ऐसी प्रयोगशालाओं के स्वतंत्र ऑडिट की अनुमति देने का आग्रह किया था जहां
कोरोनावायरस पर अध्ययन किया जाता है। चीनी अधिकारियों ने इस प्रस्ताव को खारिज कर
दिया था। खुफिया समुदाय का भी ऐसा मानना है कि कोविड-19 की उत्पत्ति के निर्णायक
आकलन के लिए चीन के सहयोग की आवश्यकता होगी।
फ्रेड हचिंसन कैंसर रिसर्च सेंटर के जीव
विज्ञानी जेसी ब्लूम ने खुफिया समुदाय के इन निष्कर्षों का समर्थन किया है। ब्लूम
व 17 अन्य वैज्ञानिकों ने एक पत्र जारी करके वायरस उत्पत्ति की परिकल्पनाओं पर
संतुलित विचार करने का आह्वान किया है।
हारवर्ड युनिवर्सिटी के जीव विज्ञानी
विलियम हैनेज इस मूल्यांकन को काफी संतुलित मानते हैं और उनके अनुसार खुफिया
समुदाय का निष्कर्ष प्राकृतिक उत्पत्ति की ओर अधिक झुका प्रतीत होता है। उनका यह
भी कहना है कि किसी भी स्थिति में शुरुआती मनुष्यों के मामलों या वायरस-वाहक जीवों
के सबूतों के बिना एक स्पष्ट निष्कर्ष पर पहुंच पाना काफी मुश्किल होगा।
कुछ अन्य शोधकर्ताओं के अनुसार बाइडेन सरकार को इस महामारी की शुरुआत को समझने और इससे सम्बंधित सवालों का जवाब तलाशने के लिए ‘दुगने प्रयास’ की आवश्यकता होगी। हालांकि, अभी कोई ठोस जवाब तो हमारे नहीं है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि भविष्य में भी ऐसी ही अनिश्चितिता बनी रहेगी। वर्तमान में अमेरिकी सरकार भी समान विचारधारा वाले सहयोगियों के साथ मिलकर चीन सरकार पर दबाव बना रही है ताकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के नेतृत्व में सभी प्रासंगिक डैटा और साक्ष्यों की जांच करने की अनुमति मिल सके।(स्रोत फीचर्स)
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भारत के हर रसोईघर में पकने वाले भोजन में हल्दी किसी न किसी
रूप में इस्तेमाल होती है। हमारे दैनिक भोजन में या तो कच्ची हल्दी या हल्दी पाउडर
के रूप में डाली जाने वाली हल्दी में लगभग तीन प्रतिशत करक्यूमिन नामक सक्रिय घटक
होता है। करक्यूमिन एक पॉलीफिनॉल डाइकिटोन है (यह स्टेरॉयड नहीं है)। शोधकर्ता
बताते हैं कि हल्दी में पाइपेरीन नामक एक और घटक होता है, जो
क्षारीय होता है। हमारी रसोई में उपयोग होने वाले एक अन्य मसाले, कालीमिर्च,
के तीखेपन के लिए पाइपेरीन ही ज़िम्मेदार है। पाइपेरीन शरीर
में करक्यूमिन का अवशोषण बढ़ाता है। यह हल्दी को उसके विभिन्न उपचारात्मक और
सुरक्षात्मक गुण देता है।
हल्दी से भारतीय उपमहाद्वीप, पश्चिम एशिया, बर्मा,
इंडोनेशिया और चीन के लोग 4000 से भी अधिक सालों से परिचित
हैं। यह हमारे दैनिक भोजन का महत्वपूर्ण अंग है। सदियों से इसे एक औषधि के रूप में
भी जाना जाता रहा है। इसमें जीवाणु-रोधी, शोथ-रोधी और
एंटी-ऑक्सीडेंट गुण होते हैं। हर्बल औषधि विशेषज्ञ हल्दी का उपयोग गठिया, जोड़ों की जकड़न और जोड़ों के दर्द के पीड़ादायक लक्षणों के उपचार में करते थे।
उनका यह भी दावा रहा है कि हल्दी गुर्दे की गंभीर क्षति को ठीक करने में मदद करती
है। इनमें से कुछ दावों को नियंत्रित
क्लीनिकल परीक्षण कर जांचने की आवश्यकता है।
https://www.healthline.com पर हल्दी और उसके उत्पादों के कुछ साक्ष्य-आधारित लाभों की सूची दी गई है, जिनका उल्लेख यहां आगे किया गया है। इन लाभों के अलावा, हल्दी का सक्रिय अणु करक्यूमिन एक शक्तिशाली शोथ-रोधी और एंटी-ऑक्सीडेंट है; यह एक प्राकृतिक शोथ-रोधी है। लगातार बनी रहने वाली हल्की सूजन (शोथ) हमारे
स्वास्थ्य को प्रभावित करती है, और हृदय रोग और चयापचय
सिंड्रोम को बढ़ावा देती है। शुक्र है कि करक्यूमिन रक्त-मस्तिष्क अवरोध को पार कर
जाता है। (रक्त-मस्तिष्क अवरोध ऐसी कोशिकाओं की सघन परत है जो तय करती है कि रक्त
में मौजूद कौन से अणु मस्तिष्क में जाएंगे और कौन से नहीं।) रक्त-मस्तिष्क अवरोध
को पार करने की इसी क्षमता के चलते करक्यूमिन अल्ज़ाइमर के लिए ज़िम्मेदार एमीलॉइड
प्लाक नामक अघुलनशील प्रोटीन गुच्छों के निर्माण को कम करता है या रोकता है।
(हालांकि,
इस संदर्भ में उपयुक्त जंतु मॉडल पर और मनुष्यों पर
प्लेसिबो-आधारित अध्ययन की ज़रूरत है)। करक्यूमिन ब्रेन-डेराइव्ड न्यूरोट्रॉफिक
फैक्टर (BDNF) को बढ़ावा देता है। BDNF एक
ऐसा जीन है जो न्यूरॉन्स (तंत्रिका कोशिकाओं) को बढ़ाता है। BDNF को बढ़ावा देकर करक्यूमिन स्मृति और सीखने में मदद करता है। कुछ हर्बल औषधि
विशेषज्ञों का कहना है कि यह कैंसर से भी बचा सकता है। कैंसर कोशिकाओं के मरने के
साथ कैंसर का प्रसार कम होता है, और नई ट्यूमर कोशिकाओं का
निर्माण रुक जाता है। गठिया और जोड़ों की सूजन में करक्यूमिन काफी प्रभावी पाया गया
है। हर्बल औषधि चिकित्सक भी यही सुझाव देते आए हैं। यह अवसाद के इलाज में भी
उपयोगी है। 60 लोगों पर 6 हफ्तों तक किए गए नियंत्रित अध्ययन में पाया गया है कि
यदि अवसाद की आम दवाओं (जैसे प्रोज़ैक) को करक्यूमिन के साथ दिया जाए तो वे बेहतर
असर करती हैं।
युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के गैरी स्मॉल और उनके साथियों का एक पेपर अमेरिकन
जर्नल ऑफ जेरिएट्रिक साइकिएट्री में प्रकाशित हुआ है (doi: 10.1016/j.jagp.2017.10.10)। इस परीक्षण में शोधकर्ताओं ने 50 से 90 वर्ष की उम्र के 40 ऐसे वयस्कों पर
अध्ययन किया जिन्हें भूलने की थोड़ी समस्या थी। उन्होंने 18 महीनों तक दिन में दो बार
एक समूह को प्लेसिबो और दूसरे समूह को 90 मिलीग्राम करक्यूमिन दिया। अध्ययन की
शुरुआत में और 18 महीने बाद सभी प्रतिभागियों का मानक आकलन परीक्षण किया गया, और उनके रक्त में करक्यूमिन का स्तर जांचा गया। इसके अलावा, अध्ययन के शुरू और 18 महीने बाद सभी प्रतिभागियों का पीईटी स्कैन भी किया गया
ताकि उनमें अघुलनशील एमीलॉइड प्लाक का स्तर पता लगाया जा सके। अध्ययन में पाया गया
कि करक्यूमिन का दैनिक सेवन ऐसे लोगों में स्मृति और एकाग्रता में सुधार कर सकता
है जो मनोभ्रंश से पीड़ित न हों।
हाल ही में, मुंबई के एक समूह ने काफी रोचक अध्ययन प्रकाशित किया है, जो बताता है कि हल्दी कोविड-19 के रोगियों के उपचार में मदद करती है। शोधकर्ताओं ने कोविड-19 के 40 रोगियों पर अध्ययन किया और पाया कि हल्दी रुग्णता और मृत्यु दर को काफी हद तक कम कर सकती है। के. एस. पवार और उनके साथियों का यह पेपर फ्रंटियर्स इन फार्मेकोलॉजी में प्रकाशित हुआ है जिसका शीर्षक है: कोविड-19 के सहायक उपचार के रूप में पाइपेरीन और करक्यूमिन का मुख से सेवन: एक रैंडम क्लीनिकल परीक्षण। इसे नेट पर पढ़ा जा सकता है। अध्ययन महाराष्ट्र के एक 30-बेड वाले कोविड-19 स्वास्थ्य केंद्र में किया गया था। लाक्षणिक कोविड-19 के सहायक उपचार के रूप में पाइपेरीन के साथ करक्यूमिन का सेवन रुग्णता और मृत्यु दर को काफी हद तक कम कर सकता है, और स्वास्थ्य तंत्र का बोझ कम कर सकता है। (वैसे बैंगलुरू स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के जी. पद्मनाभन द्वारा किए गए विस्तृत अध्ययन में पता चला है कि करक्यूमिन एक बढ़िया प्रतिरक्षा सहायक है)। यह वास्तव में एक उल्लेखनीय प्रगति है। इसे देश भर के केंद्रों में आज़माया जा सकता है जहां महामारी अभी भी बनी हुई है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/vlav1h/article36035499.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_615/22TH-SCITURM-PLANTS1
हाल ही में एक दुर्लभ तंत्रिका रोग के लिए उपयोग की जाने वाली
जीन थेरेपी का क्लीनिकल परीक्षण रोक दिया गया है। परीक्षण में सहभागी एक व्यक्ति
में अस्थि मज्जा सम्बंधी समस्या विकसित होने लगी थी जिससे भविष्य में ल्यूकेमिया
की संभावना बढ़ सकती है। अध्ययन की आयोजक कंपनी ब्लूबर्ड बायो के अनुसार कैंसर शायद
एक वायरस के कारण हुआ है जिसका उपयोग रोगी की स्टेम कोशिकाओं में उपचारात्मक जीन
पहुंचाने में किया गया था।
हालांकि,
ब्लूबर्ड के शोधकर्ताओं और अन्य विशेषज्ञों का मानना है कि
यह समस्या शायद अन्य जीन उपचारों में उपयोग होने वाले इसी प्रकार के वायरस, (लेंटीवायरस) से उत्पन्न न हों क्योंकि इस अध्ययन में प्रयुक्त वायरस की एक
अनूठी विशेषता थी। वैसे आज तक लेंटीवायरस का सम्बंध कैंसर से नहीं देखा गया है।
दरअसल तीसरे चरण का यह परीक्षण सेरेब्रल एड्रेनोल्यूकोडिस्ट्रॉफी नामक बीमारी
के इलाज के लिए है। यह बीमारी एड्रेनोल्यूकोडिस्ट्रॉफी प्रोटीन (एएलडीपी) एंज़ाइम
के जीन में उत्परिवर्तन के कारण होती है। यह एंज़ाइम कुछ विशिष्ट वसाओं को तोड़ने का
काम करता है। जिन लोगों में इस जीन की क्रियाशील प्रतिलिपि नहीं होती उनके
मस्तिष्क में वसा जमा होने लगती है। यह जमाव तंत्रिकाओं के उस कुचालक आवरण को
क्षति पहुंचाता है जो तंत्रिकाओं को विद्युत संकेत तेज़ी से और दक्षतापूर्वक भेजने
में मदद करता है। यह जीन ‘X’ गुणसूत्र में होता है इसलिए यह समस्या लड़कों को ज़्यादा प्रभावित करती है।
क्योंकि यदि इस जीन की एक प्रति उत्परिवर्तित हो जाए तो लड़कों के पास दूसरा ‘X’ गुणसूत्र तो होता नहीं है।
उपचार के अभाव में एड्रेनोल्यूकोडिस्ट्रॉफी सुनने, देखने, याददाश्त और समन्वय की क्षमता को नुकसान पहुंचाती है और लक्षण प्रकट होने के
10 वर्षों के भीतर मृत्यु हो जाती है। कम उम्र में ही अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण की
मदद जीन युक्त स्टेम कोशिकाएं डालकर तंत्रिका सम्बंधी क्षति को रोका जा सकता है।
लेकिन इसके लिए दानदाता ढूंढना मुश्किल होता है और इस तरह के प्रत्यारोपण से
प्रत्यारोपण-बनाम-मेज़बान बीमारियों का भी खतरा रहता है जिसमें दानदाता की कोशिकाएं
रोगी की कोशिकाओं पर हमला करने लगती हैं।
जीन थेरेपी में किया यह जाता है कि रोगी की अस्थि मज्जा की स्टेम कोशिकाएं
एकत्र की जाती हैं और उन्हें एएलडीपी के स्वस्थ जीन वाहक लेंटीवायरस के साथ एक डिश
में रखा जाता है ताकि वह जीन इन कोशिकाओं में पहुंच जाए। स्वयं मरीज़ के शरीर की
अस्थि मज्जा कोशिकाओं को नष्ट करने के बाद इन संशोधित कोशिकाओं को प्रत्यारोपित कर
दिया जाता है। पिछले माह इस इलाज के लिए ब्लूबर्ड बायो को 17 वर्ष से कम उम्र के
32 रोगियों पर युरोप में विपणन की स्वीकृति प्राप्त हुई थी। अब 35 रोगियों पर किया
जाने वाला दूसरा परीक्षण 2024 में पूरा होने की संभावना है।
ब्लूबर्ड कंपनी ने वर्तमान परीक्षण में एक व्यक्ति में इलाज के एक वर्ष बाद
मायलोडिसप्लास्टिक सिंड्रोम (एमडीएस) विकसित होते देखा। यह समस्या एक प्रकार का
रक्त-कोशिका विकार है जो आगे चलकर ल्यूकेमिया का रूप ले सकता है। ब्लूबर्ड बायो के
चीफ साइंटिफिक ऑफिसर फिलिप ग्रेगरी के अनुसार जीन थेरेपी लेने वाले दो अन्य
रोगियों की अस्थि मज्जा कोशिकाओं में गड़बड़ियां पाई गर्इं जो भविष्य में एमडीएस का
रूप ले सकती हैं। इसी कारण अमेरिका के खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने इस अध्ययन को
ऐहतियात के तौर पर रोक दिया है।
यह बात काफी लम्बे समय से पता रही है कि जिस वायरस की मदद से आनुवंशिक सामग्री
को किसी व्यक्ति के जीनोम में पहुंचाया जाता है वह आसपास के किसी कैंसर जीन को
सक्रिय कर सकता है। 2000 के दशक की शुरुआत में प्रशासन ने ऐसे दर्जनभर जीन थेरेपी
परीक्षणों पर रोक लगा दी थी जब माउस से प्राप्त रेट्रोवायरस (लेंटीवायरस से भिन्न
किस्म का वायरस) के उपयोग से लोगों में ल्यूकेमिया विकसित हो गया था। इसलिए
वैज्ञानिकों ने इसके स्थान पर लेंटीवायरस का उपयोग करना शुरू किया। विशेषज्ञों का
मानना है कि इन वायरसों को इंजीनियर करके और अधिक सुरक्षित बनाया जा सकता है।
देखा जाए तो जीन थेरेपी के लिए लेंटीवायरस का रिकॉर्ड अच्छा रहा है। ग्रेगरी
के अनुसार इस नए मामले में शोधकर्ताओं को लेंटीवायरल डीएनए रोगी की रक्त कोशिकाओं
में उन स्थलों पर मिला जो एमडीएस से सम्बंधित हैं। इससे लगता है कि वायरल डीएनए ने
रक्त स्टेम कोशिकाओं को असामान्य रूप से बढ़ने के लिए प्रेरित किया होगा।
ग्रेगरी का मत है कि इस परीक्षण में समस्या का मुख्य कारण वायरस-वाहक की
डिज़ाइन का एक खास गुण है। इस वायरस में एक आनुवंशिक अनुक्रम है जिसे प्रमोटर कहा
जाता है। संभवत: यह प्रमोटर बहुत सामान्य किस्म का है। यह कई जीन्स को सक्रिय कर
देता है। इस शक्तिशाली प्रोमोटर का उपयोग करके मस्तिष्क कोशिकाएं बीमारी के इलाज के
लिए उच्च स्तर के एएलडीपी का निर्माण तो करती हैं लेकिन आसपास के कैंसर जीन को
सक्रिय करने का जोखिम बना रहता है। शोधकर्ताओं ने अन्य प्रमोटर्स की पहचान की है
जो कैंसर के जोखिम को कम करते हैं। लेकिन अभी तक इस प्रकार के प्रमोटर का उपयोग
नहीं किया गया है।
बहरहाल, ग्रेगरी का मत है कि सेरेब्रल एड्रेनोल्यूकोडिस्ट्रॉफी के दुर्बलताजनक प्रभाव को देखते हुए और अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण के जोखिमों को देखते हुए जीन थेरेपी के फायदे उसके जोखिम से कहीं अधिक हैं। लेंटीवायरस आधारित जीन थेरेपी के फायदों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस तरह के उपचार की मदद से एक दर्जन से अधिक स्वास्थ्य संबंधी समस्या वाले 300 से अधिक रोगियों का इलाज किया जा चुका है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.abl8782/full/_20210810_on_bluebirdgenetherapy.jpg
जलवायु बदलाव के संकट पर चर्चा चरम पर है। इस समस्या की
गंभीरता के बारे में आंकड़े और अध्ययन तो निरंतर बढ़ रहे हैं, किंतु दुख व चिंता की बात है कि समाधान की राह स्पष्ट नहीं हो रही है।
इस अनिश्चय की स्थिति में महात्मा गांधी के विचारों को नए सिरे से टटोलना
ज़रूरी है। उनके विचारों में मूलत: सादगी को बहुत महत्त्व दिया गया है, अत: ये विचार हमें जलवायु बदलाव तथा अन्य गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान
की ओर भी ले जाते हैं।
जानी-मानी बात है कि जलवायु बदलाव के संकट को समय रहते नियंत्रित करने के लिए
ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करना बहुत ज़रूरी है। यह अपने में सही बात है, पर इसके साथ एक अधिक व्यापक सच्चाई है कि केवल तकनीकी उपायों से ही पर्यावरण
का संकट हल नहीं हो सकता है।
यदि कुछ तकनीकी उपाय अपना लिए जाएं, जीवाश्म र्इंधन को कम कर
नवीकरणीय ऊर्जा को अधिक अपनाया जाए तो यह अपने आप में बहुत अच्छा व ज़रूरी बदलाव
होगा। पर यदि साथ में सादगी व समता के सिद्धांत को न अपनाया गया, विलासिता व विषमता को बढ़ाया गया, छीना-छपटी व उपभोगवाद को
बढ़ाया गया,
तो आज नहीं तो कल, किसी न किसी रूप में
पर्यावरण समस्या बहुत गंभीर रूप ले लेगी।
महात्मा गांधी के समय में ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कम करने की ज़रूरत तो
नहीं महसूस की जा रही थी, पर उन्होंने उस समय ही
पर्यावरण की समस्या का मर्म पकड़ लिया था जब उन्होंने कहा था कि धरती के पास सबकी
ज़रूरतों को पूरा करने के लिए तो पर्याप्त संसाधन हैं, पर
लालच को पूरा करने के लिए नहीं।
उन्होंने अन्याय व विषमता के विरुद्ध लड़ते हुए विकल्प के रूप में ऐसे सब्ज़बाग
नहीं दिखाए कि सफलता मिलने पर तुम भी मौज-मस्ती से रहना। उन्होंने मौज-मस्ती और
विलासिता को नहीं, मेहनत और सादगी को प्रतिष्ठित किया। सभी
लोग मेहनत करें और इसके आधार पर किसी को कष्ट पहुंचाए बिना अपनी सभी बुनियादी
ज़रूरतों को पूरा कर सकें व मिल-जुल कर रहें, सार्थक
जीवन का यह बहुत सीधा-सरल रूप उन्होंने प्रस्तुत किया।
दूसरी ओर,
आज अंतहीन आर्थिक विकास की ही बात हो रही है जबकि विषमता व
विलासिता के विरुद्ध कुछ नहीं कहा जा रहा है। विकास के इस मॉडल में कुछ लोगों के
विलासितपूर्ण जीवन के लिए दूसरों के संसाधन छिनते हैं व पर्यावरण का संकट विकट
होता है। इसके बावजूद इस मॉडल पर ही अधिक तेज़ी से आगे बढ़ने को महत्व मिल रहा है।
इस कारण विषमता बढ़ रही है, अभाव बढ़ रहे हैं, असंतोष बढ़ रहा है और हिंसा व युद्ध के बुनियादी कारण बढ़ रहे हैं।
जबकि गांधी की सोच में अहिंसा, सादगी, समता, पर्यावरण की रक्षा का बेहद सार्थक मिलन है। अत: धरती पर आज जब जीवन के
अस्तित्व मात्र का संकट मौजूद है, मौजूदा विकास मॉडल के विकल्प तलाशने
में महात्मा गांधी के जीवन व विचार से बहुत सहायता व प्रेरणा मिल सकती है।
जलवायु बदलाव व ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए कभी-कभी कहा
जाता है कि ऊर्जा आवश्यकता को पूरा करने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर परमाणु ऊर्जा
संयंत्र लगाए जाएं। पर खनन से लेकर अवशेष ठिकाने लगाने तक परमाणु ऊर्जा में भी खतरे
ही खतरे हैं,
गंभीर समस्याएं हैं। साथ में परमाणु बिजली उत्पादन के साथ
परमाणु हथियारों के उत्पादन की संभावना का मुद्दा भी जुड़ा हुआ है। अत: जलवायु
बदलाव के नियंत्रण के नाम पर परमाणु बिजली के उत्पादन में तेज़ी से वृद्धि करना
उचित नहीं है।
इसी तरह कुछ लोग पनबिजली परियोजनाओं के बड़े बांध बनाने पर ज़ोर दे रहे हैं।
लेकिन बांध-निर्माण से जुड़ी अनेक गंभीर सामाजिक व पर्यावरणीय समस्याएं पहले ही
सामने आ चुकी हैं। कृत्रिम जलाशयों में बहुत मीथेन गैस का उत्सर्जन भी होता है जो
कि एक ग्रीनहाऊस गैस है। अत: जलवायु बदलाव के नियंत्रण के नाम पर बांध निर्माण में
तेज़ी लाना किसी तरह उचित नहीं है।
जलवायु बदलाव के नियंत्रण को प्राय: एक तकनीकी मुद्दे के रूप में देखा जाता है, ऐसे तकनीकी उपायों के रूप में जिनसे ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कम हो सके।
यह सच है कि तकनीकी बदलाव ज़रूरी हैं पर जलवायु बदलाव का मुद्दा केवल इन तक सीमित
नहीं है।
जलवायु बदलाव को नियंत्रित करने के लिए जीवन-शैली में बदलाव ज़रूरी है, व इसके साथ जीवन-मूल्यों में बदलाव ज़रूरी है। उपभोगवाद का विरोध ज़रूरी है, विलासिता,
नशे, युद्ध व हथियारों की दौड़ व होड़
का विरोध बहुत ज़रूरी है। पर्यावरण पर अधिक बोझ डाले बिना सबकी ज़रूरतें पूरी करनी
है तो न्याय व साझेदारी की सोच ज़रूरी है।
अत: जलवायु बदलाव नियंत्रण का सामाजिक पक्ष बहुत महत्वपूर्ण है। आज विश्व के
अनेक बड़े मंचों से बार-बार कहा जा रहा है कि जलवायु बदलाव को समय रहते नियंत्रण
करना बहुत ज़रूरी है, पर क्या मात्र कह देने से या आह्वान करने
से समस्या हल हो जाएगी। वास्तव में लोग तभी बड़ी संख्या में इसके लिए आगे आएंगे जब
आम लोगों में,
युवाओं व छात्रों में, किसानों
व मज़दूरों के बीच न्यायसंगत व असरदार समाधानों के लिए तीन-चार वर्षों तक धैर्य से, निरंतरता व प्रतिबद्धता से कार्य किया जाए। तकनीकी पक्ष के साथ सामाजिक पक्ष
को समुचित महत्व देना बहुत ज़रूरी है।
एक अन्य सवाल यह है कि क्या मौजूदा आर्थिक विकास व संवृद्धि के दायरे में
जलवायु बदलाव जैसी गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान हो सकता है? मौजूदा विकास की गंभीर विसंगतियां और विकृतियां ऐसी ही बनी रहीं तो क्या
जलवायु बदलाव जैसी गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं नियंत्रित हो सकेंगी? इस प्रश्न का उत्तर है ‘नहीं’। वजह यह है कि मौजूदा विकास की राह में बहुत
विषमता और अन्याय व प्रकृति का निर्मम दोहन है।
पहले यह कहा जाता था कि संसाधन सीमित है उनका सही वितरण करो। पर अब तो
ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन से जुड़ी कार्बन की सीमा है। इस सीमा के अंदर ही हमें
सब लोगों की ज़रूरतों को टिकाऊ आधार पर पूरा करना है। अत: अब विषमता को दूर करना, विलासिता व अपव्यय को दूर करना, समता व न्याय को ध्यान में
रखना,
भावी पीढ़ी के हितों को ध्यान में रखना पहले से भी कहीं अधिक
ज़रूरी हो गया है।
सही व विस्तृत योजना बनाना इस कारण और ज़रूरी हो गया है कि ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को तेज़ी से कम करते हुए सब लोगों की बुनियादी ज़रूरतों को न्यायसंगत व टिकाऊ ढंग से पूरा करना है। यह एक बहुत बड़ी चुनौती है जिसके लिए बहुत रचनात्मक समाधान ढूंढने होंगे। जैसे, युद्ध व हथियारों की होड़ को समाप्त किया जाए या न्यूनतम किया जाए, बहुत बरबादीपूर्ण उत्पादन व उपभोग को समाप्त किया जाए या बहुत नियंत्रित किया जाए। पर्यावरण के प्रति समग्र दृष्टिकोण अपनाने से इन सभी प्रक्रियाओं में बहुत सहायता मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://delhigreens.com/wp-content/uploads/2017/10/gandhi-environment-and-sustainability.jpg
यह तो सभी अविभावक जानते हैं कि बच्चे ऊर्जा से भरे होते
हैं। अब एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने मानव के पूरे जीवन काल के दौरान खर्च होने
वाली ऊर्जा की दर की गणना की है। निष्कर्ष यह है कि 9 से 15 महीने की उम्र के शिशु
वयस्कों की तुलना में एक दिन में 50 प्रतिशत अधिक ऊर्जा खर्च करते हैं। ऊर्जा खपत
की दर को शरीर के डील-डौल के हिसाब से समायोजित किया गया था। यह भी पता चला कि
किशोरों और गर्भवती महिलाओं की तुलना में भी शिशु अधिक तेज़ी से ऊर्जा खर्च और
उपयोग करते हैं। यह संभवत: उनके ऊर्जा के लिहाज़ से महंगे मस्तिष्क और अंगों की
ज़रूरत पूरी करता है।
लेकिन बच्चे भी जल्दी थक (या चुक) जाते हैं। यदि उन्हें ज़रूरत के हिसाब से
कैलोरी न मिले तो उनकी उच्च चयापचय दर उनकी वृद्धि को बाधित करती है और उन्हें
बीमारियों के प्रति संवेदनशील बनाती है। इसके अलावा वयस्कों की तुलना में शिशुओं
की कोशिकाएं औषधियों को भी अधिक तेज़ी से पचा डालती हैं। जिसका अर्थ है कि उन्हें
बार-बार खुराक देने की ज़रूरत हो सकती है। वहीं दूसरी ओर, 60
वर्ष से अधिक आयु के व्यक्ति युवाओं की तुलना में प्रतिदिन कम ऊर्जा खर्च करते
हैं। यानी उन्हें कम भोजन की या औषधियों की कम खुराक की आवश्यकता हो सकती है। 90
से ऊपर के लोग मध्यम आयु के लोगों की अपेक्षा 26 प्रतिशत कम ऊर्जा का उपयोग करते
हैं।
हम अपने पूरे जीवन में कितनी ऊर्जा खर्च करते हैं, इस
बारे में वैज्ञानिक बहुत कम जानते हैं। क्योंकि यह पता करने का दोहरे चिंहाकित
पानी (डबली लेबल्ड वाटर) वाला तरीका काफी मंहगा है। इस तरीके में प्रतिभागियों को
हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के विशिष्ट समस्थानिक युक्त ‘भारी’ पानी एक हफ्ते या उससे
अधिक समय तक पिलाया जाता है। इस दौरान हर 24 घंटे के अंतराल में उनके मूत्र, रक्त और लार में इन ‘समस्थानिकों’ की मात्रा को मापकर पता लगाया जाता है कि एक
दिन में किसी व्यक्ति ने औसतन कितनी ऊर्जा खर्च की।
हालिया अध्ययन में ड्यूक युनिवर्सिटी के वैकासिक जीव विज्ञानी हरमन पोंटज़र और
उनके साथियों ने 29 देशों में 6421 लोगों पर हुए दोहरे चिंहाकित पानी अध्ययनों के
परिणामों का एक डैटाबेस तैयार किया। ये अध्ययन 8 दिन की उम्र के शिशु से लेकर 95
साल के व्यक्तियों पर किए गए थे। फिर उन्होंने इस डैटा से प्रत्येक व्यक्ति के लिए
दैनिक चयापचय दर की गणना की, और फिर इसे शरीर के आकार व
द्रव्यमान और अंग के आकार के हिसाब से समायोजित किया। अंगों के महीन ऊतक वसा ऊतकों
की तुलना में अधिक ऊर्जा का उपयोग करते हैं, और
वयस्कों की तुलना में बच्चों के अंगों का द्रव्यमान उनके बाकी शरीर के द्रव्यमान
की तुलना में अधिक होता है।
शोधकर्ताओं ने पाया कि जन्म के समय तो शिशुओं की चयापचय दर उनकी माताओं की
चयापचय दर के समान होती है। लेकिन 9 से 15 महीने के बीच शिशुओं की कोशिकाओं में
बदलाव होते हैं जिनके चलते वे तेज़ी से ऊर्जा खर्च करने लगती हैं।
साइंस पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार पांच वर्ष की आयु तक बच्चों की
चयापचय दर उच्च रहती है, फिर 20 वर्ष की आयु तक इसमें
धीरे-धीरे कमी आती है और फिर यह स्थिर हो जाती है। यह स्थिर दर 60 वर्ष की आयु तक
बनी रहती है और इसके बाद फिर से यह घटने लगती है। देखा गया कि 90 से अधिक उम्र के
व्यक्ति प्रतिदिन लगभग 26 प्रतिशत कम ऊर्जा उपयोग करते हैं।
यह तो जानी-मानी बात है कि गर्भवती महिलाएं अधिक कैलोरी खर्च करती हैं। लेकिन
अध्ययन में पाया गया कि गर्भवती महिलाओं की चयापचय दर अन्य वयस्कों से अधिक नहीं
होती। गर्भवती महिलाएं अधिक ऊर्जा और कैलोरी खपाती हैं क्योंकि उनके शरीर का आकार
बढ़ जाता है। इसी तरह बढ़ते किशोरों की भी चयापचय दर नहीं बढ़ती, जबकि ऐसा लगता था कि बच्चे किशोरावस्था में अधिक कैलोरी खर्च करते हैं। 30-40
की उम्र में लोग अक्सर सुस्ती महसूस करते हैं; और रजोनिवृत्ति
के समय तो महिलाओं को और अधिक सुस्ती लगती है। लेकिन इस समय भी चयापचय दर नहीं
बदलती। हारमोन्स में परिवर्तन, तनाव, बीमारी, वृद्धि और गतिविधि के स्तर में बदलाव भूख, ऊर्जा
और शरीर के वज़न को प्रभावित करते हैं।
शोधकर्ता है बताते हैं कि शिशुओं में चयापचय दर अधिक होती है क्योंकि संभवत:
उनके मस्तिष्क,
अन्य अंग या प्रतिरक्षा प्रणाली के विकास में बहुत अधिक
ऊर्जा खर्च होती है। और वृद्ध लोगों में यह कम हो जाती है क्योंकि उनके अंग सिकुड़
जाते हैं और उनके मस्तिष्क का ग्रे मैटर कम होने लगता है।
बच्चों का बढ़ता दिमाग बहुत ऊर्जा खपाता है। इस तर्क को मजबूती 2014 में हुआ एक
अन्य अध्ययन देता है, जिसमें पाया गया था कि छोटे बच्चों में
पूरे शरीर द्वारा उपयोग की जाने वाली कुल ऊर्जा में से लगभग 43 प्रतिशत ऊर्जा का
उपभोग मस्तिष्क करता है।
यह अध्ययन सार्वजनिक स्वास्थ्य की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है: इस तरह के आंकड़ों से यह पता लगाया जा सकता है कि शिशुओं, गर्भवती महिलाओं और वृद्ध जनों को कितनी कैलोरी की ज़रूरत है, और उन्हें दवा की कितनी खुराकें दी जाएं। इसके अलावा, हो सकता है कि कुपोषित बच्चों को हमारे पूर्वानुमान की तुलना में अधिक भोजन की आवश्यकता हो। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://laughsandlove.com/wp-content/uploads/2012/12/kids-running.png