पिछली शताब्दी में वैश्विक समुद्र स्तर में वृद्धि हुई है और
हाल के दशकों में इसकी दर तेज़ी से बढ़ रही है। यूएस नेशनल ओशेनिक एंड एटमॉस्फेरिक
एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएएस) के अनुसार वर्ष 1880 और 2015 के बीच औसत वैश्विक समुद्र
स्तर लगभग 22 से.मी. बढ़ा है। इसमें से एक-तिहाई वृद्धि तो पिछले 25 साल में ही
हुई।
विश्व के वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन को लेकर अध्ययन करके संभावित नुकसान से
बचने के लिए चेतावनियां भी जारी करते हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि ग्लोबल
वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन के कारण ही प्राकृतिक आपदाओं की दुर्घटनाएं एवं
विनाशकारिता बढ़ी है। वर्तमान में पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक
आपदाओं से जूझ रही है। परंतु अब इसमें एक नया कारक जुड़ गया है।
नेचर क्लाइमेट चेंज में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु
परिवर्तन के कारण समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी के साथ-साथ चंद्रमा की कक्षा डगमगाने
से भी पृथ्वी पर विनाशकारी बाढ़ें आ सकती है। इस अध्ययन में यह पूर्वानुमान लगाया
गया है कि अमेरिकी तटीय इलाकों में 2030 के दशक में उच्च ज्वार के कारण बाढ़ के
स्तर में बढ़ोतरी होगी। नासा के अनुसार ये विनाशकारी बाढ़ें लगातार और अनियमित रूप
से जनजीवन को प्रभावित करेगी। अमेरिका में तटीय क्षेत्र जो अभी महीने में सिर्फ दो
या तीन बाढ़ का सामना करते हैं, वे अब एक दर्जन या उससे भी
अधिक का सामना कर सकते हैं। अध्ययन में यह चेतावनी भी दी गई है कि यह बाढ़ पूरे साल
प्रभावित नहीं करेगी बल्कि कुछ ही महीनों में बड़े पैमाने पर अपना असर दिखाएगी।
ज्वार आने में चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण की भूमिका होती है। गुरुत्वाकर्षण में
उथल-पुथल उसकी कक्षा के डगमगाने से होता है। चंद्रमा की कक्षा में होने वाली इस
तरह की डगमग को मून वॉबल कहते हैं, जिसे सन 1728 में खोजा गया था।
एनओएएस के अनुसार वर्ष 2019 में अटलांटिक और खाड़ी तटों पर बाढ़ की 600 से ज़्यादा इस
तरह की घटनाएं देखी गई थीं।
समुद्र के स्तर के साथ चंद्रमा की कक्षा के डगमगाने का जुड़ना अत्यधिक खतरनाक
है। शोधकर्ताओं के अनुसार, चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण
खिंचाव,
समुद्र के बढ़ते स्तर और जलवायु परिवर्तन का संयोजन पृथ्वी
पर समुद्र तटों और दुनिया भर में तटीय बाढ़ को बढ़ाता है। इस अध्ययन के प्रमुख लेखक
और हवाई विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर फिल थॉम्पसन ने कहा है कि चंद्रमा की
कक्षा में इस डगमग को एक चक्र पूरा करने में 18.6 वर्ष लगते हैं। नासा के अनुसार
18.6 सालों की आधी अवधि में पृथ्वी पर नियमित दैनिक ज्वार कम ऊंचे हो जाते हैं और
बाकी आधी अवधि में ठीक इसका उलटा होता है।
नासा ने यह भी कहा कि जलवायु चक्र में अल-नीनो जैसी घटनाएं भी बाढ़ को बढ़ावा देंगी। नासा की जेट प्रपल्शन लेबोरेटरी के वैज्ञानिक बेन हैमलिंगटन ने कहा कि इस तरह की घटनाएं पूरे महीने होंगी। यह भी संभावना है कि साल के किसी एक हिस्से में बहुत ज़्यादा बाढ़ें आ जाएंगी। यह सबसे ज़्यादा अमेरिका को प्रभावित करेगा क्योंकि इस देश में तटीय पर्यटन स्थल बहुत ज़्यादा हैं। शोधकर्ताओं ने आगाह किया कि अगर देशों ने अभी से इससे निपटने की योजना शुरू नहीं की, तो तटीय बाढ़ से लंबे समय तक जीवन और आजीविका बुरी तरह प्रभावित होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.aljazeera.com/wp-content/uploads/2021/07/AP773802886326.jpg?resize=1200%2C630
हाल ही में नेवलों की आबादी पर किए गए अध्ययन से प्रजनन
सम्बंधी कुछ अद्भुत परिणाम सामने आए हैं।
युगांडा में किए गए इस अध्ययन में पाया गया कि एक समूह की 60 प्रतिशत मादा
गर्भवती नेवले एक ही रात बच्चों को जन्म देती हैं भले ही उनके गर्भधारण का समय
अलग-अलग ही क्यों न हो। बायोलॉजी लेटर्स नामक जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के
अनुसार यह तालमेल वास्तव में घातक प्रतियोगिता को टालने के इरादे से प्रेरित है।
युनाइटेड किंगडम स्थित युनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर की जीव विज्ञानी सारा हॉज के
अनुसार इन समूहों में शावक नेवलों का जल्दी या देर से जन्म लेना, दोनों ही खतरनाक हो सकते हैं। जल्दी जन्म लेने वाले नवजात नेवले अन्य मादा
नेवलों के लिए आसान शिकार बन जाते हैं। ये मादाएं इन नन्हे नेवलों को अपनी आने
वाली संतान के लिए बाधा मानती हैं। दूसरी ओर, देर से
जन्म लेने वाले नेवलों के जीवित रहने की संभावना कम हो जाती है क्योंकि उनको भोजन
के लिए अधिक प्रतिस्पर्धा का सामना करना होता है और समूह के अन्य वयस्क नेवलों की
देखभाल भी नहीं मिलती।
अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओ ने शिशुओं के जन्म के समय का वज़न भी नियंत्रित
किया। इसके लिए उन्होंने कुछ गर्भवती नेवलों को गर्भावस्था के दौरान अतिरिक्त भोजन
दिया। यह देखा गया कि सुपोषित मादाओं ने अपने तंदुरुस्त बच्चों की बजाय कम भोजन
प्राप्त मादा नेवलों के कम वज़न वाले बच्चों का ज़्यादा ध्यान रखा – उन्हें दूध
पिलाया,
देखभाल की और रक्षा की। यानी साथ-साथ बच्चे पैदा होने से
कमज़ोर बच्चों को कुछ फायदा तो मिलता है।
वैज्ञानिकों को लगता है कि इस उत्कृष्ट तालमेल में फेरेमोन की भूमिका हो सकती
है।
युगांडा स्थित क्वीन एलिज़ाबेथ नेशनल पार्क में नेवलों (मंगोस मंगो) के 11
समूहों पर लगभग सात वर्ष लंबा अध्ययन किया गया। इस अध्ययन में युनिवर्सिटी ऑफ
एक्सेटर के प्रोफेसर माइकल केंट और उनके सहयोगियों ने कुछ मादाओं को अल्प अवधि के
गर्भनिरोधक देकर निर्धारित किया कि कौन-सी मादाएं संतान का योगदान करेंगी।
वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि यदि प्रभावशाली मादाएं समूह में संतान का योगदान
नहीं कर पाती हैं तो वे सभी नवजात नेवलों को मार देती हैं। लेकिन यदि उन्हें लगता
है कि इन नवजात नेवलों में उनकी संतानें भी हैं, तो वे
उन सबको बख्श देती हैं।
निष्कर्ष बताते हैं कि कशेरुकियों के बीच सहयोग के विकास में इस तरह की रणनीतियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। इससे यह भी पता चलता है कि जनसंख्या नियंत्रण में अन्य मादाओं के नवजात शिशुओं की हत्या एक महत्वपूर्ण प्रतिकूल रणनीति हो सकती है। वैज्ञानिकों के अनुसार कई सामाजिक स्तनधारियों में एक प्रमुख मादा प्रजनक होती है। इन नेवलों में लगभग 12 मादाएं एक साथ गर्भवती होती हैं और एक ही दिन जन्म देने के लिए तालमेल बनाती हैं। केंट बताते हैं कि इस प्रयोग में मादा नेवलों के बीच तालमेल बनाने का मुख्य उद्देश्य प्रजनन में इस तरह की जानलेवा घटनाओं को टालना है। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में हुआ अध्ययन बताता है कि जहाज़ों के ईंधन से होने वाले वायु प्रदूषण को कम करने के उद्देश्य से शिपिंग नियम में किए गए बदलावों के कारण जल प्रदूषण बढ़ा है। दरअसल नए नियमों के बाद अधिकांश जहाज़ मालिकों ने जहाज़ में स्क्रबिंग उपकरण लगा लिए हैं जो प्रदूषकों को पानी में रोक लेते हैं। फिर यह पानी समुद्र में फेंक दिया जाता है, जो प्रदूषण का कारण बन रहा है।
अध्ययन के अनुसार स्क्रबर से लैस लगभग 4300 जहाज़ हर साल कम से कम 10 गीगाटन अपशिष्ट
जल समुद्र में,
अक्सर बंदरगाहों और कोरल चट्टानों के पास छोड़ रहे हैं।
लेकिन शिपिंग उद्योग का कहना है कि इस पानी में प्रदूषकों का स्तर राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय सीमा से अधिक नहीं हैं, और इससे नुकसान के भी
कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। लेकिन कुछ शोधकर्ता अपशिष्ट जल इस तरह बहाए जाने से
चिंतित हैं क्योंकि इसमें तांबा जैसी विषैली धातुएं और पॉलीसाइक्लिक एरोमेटिक
हाइड्रोकार्बन जैसे कैंसरजनक यौगिक होते हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक इस तरह की
प्रणालियों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।
दरअसल, अंतर्राष्ट्रीय सामुद्रिक संगठन (आईएमओ) ने वर्ष 2020 में अम्लीय वर्षा और स्मॉग के लिए ज़िम्मेदार प्रदूषकों के उत्सर्जन को कम करने के उद्देश्य से जहाज़ों में अति सल्फर युक्त ईंधन के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया था। अनुमान था कि इससे सल्फर उत्सर्जन में 77 प्रतिशत तक की कमी आएगी, और बंदरगाहों व तटीय इलाकों के नज़दीक रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य को हानि से बचाया जा सकेगा।
लेकिन स्वच्छ ईंधन की लागत सल्फर-युक्त ईंधन से 50 प्रतिशत अधिक है। और नया नियम छूट देता है कि जहाज़ों में स्क्रबर लगा कर सल्फर-युक्त सस्ता ईंधन उपयोग किया जा सकता है। जहाज़रानी उद्योग के अनुसार वर्ष 2015 तक ढाई सौ से भी कम जहाज़ों में स्क्रबर लगे थे और वर्ष 2020 में इनकी संख्या बढ़कर 4300 से भी अधिक हो गई।
स्क्रबर पानी का छिड़काव कर प्रदूषकों को आगे जाने से रोक देता है। सबसे
प्रचलित ओपन लूप स्क्रबर में प्रदूषक युक्त अपशिष्ट जल को बहुत कम उपचारित करके या
बिना कोई उपचार किए वापस समुद्र में छोड़ दिया जाता है। अन्य तरह के स्क्रबर
अपशिष्ट को कीचड़ के रूप में जमा करते जाते हैं और अंतत: भूमि पर फेंक देते हैं।
अपशिष्ट जल की तुलना में इस दलदली अपशिष्ट की मात्रा कम होती है लेकिन इसमें
प्रदूषक अधिक मात्रा में होते हैं।
इंटरनेशनल काउंसिल ऑन क्लीन ट्रांसपोर्टेशन के पर्यावरण नीति शोधकर्ता ब्रायन
कॉमर और उनके दल ने स्क्रबर से लैस लगभग 3600 जहाज़ों का विश्लेषण करके पाया कि एक
वर्ष में 10 गीगाटन से कहीं अधिक अपशिष्ट समुद्र में छोड़ा जा रहा है। यह अनुमान से
बहुत अधिक है क्योंकि एक तो अनुमान से अधिक जहाज़ स्क्रबर लगा रहे हैं, और प्रत्येक जहाज़ का अपशिष्ट भी अनुमान से कहीं अधिक है।
2019 में जहाज़ों के मार्गों के एक अध्ययन में पता चला है कि व्यस्त मार्गों पर
अधिक प्रदूषक अपशिष्ट बहाया जा रहा है, जैसे उत्तरी सागर और
मलक्का जलडमरूमध्य। साथ ही यह प्रदूषण कई देशों के अपने एकाधिकार वाले आर्थिक
मार्गों में भी दिखा।
पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में प्रदूषण मिलना चिंता का विषय है –
जैसे ग्रेट बैरियर रीफ, जिसके नज़दीक से कोयला शिपिंग का मुख्य
मार्ग है और यहां प्रति वर्ष लगभग 3.2 करोड़ टन अपशिष्ट बहाया जा रहा है।
समुद्री मार्गों पर ही नहीं, बंदरगाहों के पास भी काफी
प्रदूषित अपशिष्ट बहाया जाता है, जिसमें सबसे अधिक योगदान
पर्यटन जहाज़ों का है। 10 सबसे अधिक प्रदूषित बंदरगाहों में से सात बंदरगाहों में
लगभग 96 प्रतिशत स्क्रबर-प्रदूषण पर्यटन जहाज़ों के कारण होता है क्योंकि इन जहाज़ों
को किनारे पर भी अपने कैसीनो, गर्म पानी के पूल, एयर कंडीशनिंग और अन्य सुविधाओं को संचालित करने के लिए र्इंधन जलाना पड़ता है।
बंदरगाहों पर पानी उथला होने के कारण समस्या और विकट हो जाती है।
इस पर क्लीन शिपिंग एलायंस 2020 सहित उद्योग संगठनों का कहना है कि अपशिष्ट जल
के आंकड़े भ्रामक हैं। उनका तर्क है कि महत्व इस बात का है कि कचरे की विषाक्तता
कितनी है,
उसकी मात्रा का नहीं।
इस सम्बंध में कुछ शोधकर्ताओं ने स्क्रबर निष्कासित अपशिष्ट जल के समुद्री
जीवन पर प्रभाव का परीक्षण किया। एनवायरमेंटल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी में
प्रकाशित अध्ययन बताता है कि उत्तरी सागर में चलने वाले तीन जहाज़ों से निकलने वाले
अपशिष्ट जल ने कोपेपॉड (कैलेनस हेल्गोलैंडिकस) के विकास को नुकसान पहुंचाया है।
कोपेपॉड एक सूक्ष्म क्रस्टेशियन है जो अटलांटिक महासागर के खाद्य जाल का एक
महत्वपूर्ण अंग है। बहुत कम प्रदूषण से भी कोपेपॉड की निर्मोचन प्रक्रिया बाधित
हुई,
और इनकी मृत्यु दर भी जंगली कोपेपॉड से तीन गुना अधिक देखी
गई। ऐसे प्रभाव खाद्य संजाल को बुरी तरह प्रभावित कर सकते हैं।
अब शोधकर्ता स्क्रबर अपशिष्ट का प्रभाव मछलियों के लार्वा पर देखना चाहते हैं, क्योंकि वे कोपेपॉड की तुलना में अधिक संवेदनशील हैं। लेकिन शिपर्स वैज्ञानिकों के साथ नमूने और डैटा साझा करने में झिझक रहे हैं। क्लीन शिपिंग एलायंस 2020 के अध्यक्ष माइक कैज़मारेक का कहना है कि हम नमूने और डैटा उन संगठनों को देने के अनिच्छुक हैं जिनकी पहले से ही एक स्थापित धारणा है। हम सिर्फ उन समूहों के साथ डैटा साझा करेंगे जो तटस्थ रहकर काम करें। समाधान तो यही है कि जहाज़ों में स्वच्छ र्इंधन (मरीन गैस ऑइल) का उपयोग किया जाए। 16 देशों और कुछ क्षेत्रों ने सबसे प्रचलित स्क्रबर्स पर प्रतिबंध लगाया है, जिसके चलते स्क्रबर अपशिष्ट में चार प्रतिशत की कमी आई है। ऐसे कदम वैश्विक स्तर पर उठाने की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
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भारतीय बिजली क्षेत्र में ताप बिजली ने एक ऐतिहासिक भूमिका
निभाई है। हालांकि, हाल ही के घटनाक्रम ने कोयले की अब तक की
भूमिका पर सवाल खड़े कर दिए हैं। प्रतिस्पर्धी नवीकरणीय बिजली उत्पादन की तीव्र
वृद्धि,
राज्यों के पास बिजली की अतिशेष उत्पादन क्षमता, अनुमानित से कम मांग और कोयला आधारित उत्पादन से जुड़े सामाजिक और पर्यावरणीय
प्रभावों जैसे विभिन्न कारकों के चलते भविष्य में कोयले पर निर्भरता कम होने की
संभावना है।
इस संदर्भ में, लगभग 20-25 वर्ष पुराने कोयला आधारित ताप
बिजली संयंत्रों (टीपीपी) को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने के समर्थन में चर्चा जारी
है। समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के पीछे लागत में बचत और दक्षता में सुधार जैसे लाभ
बताए जा रहे हैं,
जो नए, सस्ते और अधिक कुशल स्रोतों
द्वारा प्राप्त किए जा सकते हैं।
आयु-आधारित सेवानिवृत्ति का एक कारण यह बताया जा रहा है कि पुराने संयंत्रों
की दक्षता काफी कम है और इस कारण वे महंगे भी हैं। लेकिन सभी मामलों में यह बात
सही नहीं है। उदाहरण के लिए रिहंद, सिंगरौली और विंध्याचल के टीपीपी
30 वर्ष से अधिक पुराने होने के बाद भी वित्त वर्ष 2020 में 70 प्रतिशत से अधिक
लोड फैक्टर पर संचालित हुए हैं। इसके साथ ही इनकी औसत परिवर्तनीय लागत (वीसी) 1.7
रुपए प्रति युनिट है और कुल औसत लागत 2 रुपए प्रति युनिट है जो वित्त वर्ष 2020
में राष्ट्रीय क्रय औसत 3.6 रुपए प्रति युनिट से काफी कम है। इसके अतिरिक्त, बिजली उत्पादन की पुरानी क्षमता वर्तमान में बढ़ते नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन के
साथ सहायक होगी और अधिकतम मांग (पीक डिमांड) को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका
निभा सकती है। हालांकि, उन्हें पर्यावरणीय मानदंडों को पूरा करना
होगा।
यह स्पष्ट है कि कोयला आधारित क्षमता की सेवानिवृत्ति एक जटिल मुद्दा है और
बिजली क्षेत्र के सभी हितधारकों पर इसके आर्थिक, पर्यावरणीय
और परिचालन सम्बंधी दूरगामी प्रभाव भी होंगे। इसे देखते हुए वर्तमान क्षमता की
सेवानिवृत्ति के सम्बंध में निर्णय के लिए ज़्यादा गहन छानबीन ज़रूरी है।
टीपीपी की समय-पूर्व सेवानिवृत्ति को निम्नलिखित कारणों से उचित ठहराया जा रहा
है:
पुराने संयंत्र कम कुशल हैं और इनको संचालित करना भी काफी
महंगा है। इसकी बजाय नई उत्पादन क्षमता का उपयोग करने से वीसी में काफी बचत हो
सकती है।
नए संयंत्रों के बेहतर प्लांट लोड फैक्टर (पीएलएफ) से
उत्पादन लागत में कमी आएगी और परिसंपत्तियों पर दबाव को कम किया जा सकता है।
नए संयंत्रों की बेहतर परिचालन क्षमता के कारण कोयले की
बचत।
पुराने संयंत्रों का जीवन अंत की ओर है, ऐसे में उनके शेष जीवन में पर्यावरण मानदंडों को पूरा करने के लिए आवश्यक
प्रदूषण नियंत्रण उपकरण (पीसीई) पर निवेश की प्रतिपूर्ति शायद संभव न हो।
उपरोक्त बातें एक औसत विश्लेषण के आधार पर कही जा रही हैं। अलबत्ता, ऐसे निर्णयों के लिए विस्तृत बिजली क्षेत्र मॉडलिंग पर आधारित सावधानीपूर्वक
विश्लेषण करने की आवश्यकता होगी।
इस तरह के विश्लेषण उपलब्ध न होने के कारण इस अध्ययन में हमने राष्ट्र स्तरीय
औसत आंकड़ों के आधार पर समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के लाभों का मूल्यांकन किया है। इस
अध्ययन में हमने पुरानी क्षमता के आक्रामक समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के संभावित
जोखिमों पर भी चर्चा की है।
अध्ययन में दिसंबर 2000 या उससे पहले स्थापित कोयला आधारित उत्पादन इकाइयों को
पुरानी इकाइयां माना गया है क्योंकि आम तौर पर टीपीपी के लिए बिजली खरीद के अनुबंध
25 वर्ष के लिए किए जाते हैं। वैसे, अच्छी तरह से परिचालित
संयंत्रों का जीवन काल 40 वर्ष तक होता है। भारत में ऐसे कोयला आधारित पुराने
संयंत्रों की कुल क्षमता 55.7 गीगावॉट है। इसमें से 9.1 गीगावॉट क्षमता को पहले ही
सेवानिवृत्त किया जा चुका है। यानी वर्ष 2000 से पूर्व स्थापित 46.6 गीगावॉट कोयला
आधारित क्षमता ही उपयोग में है।
पुराने संयंत्रों की जगह नए बिजली संयंत्र लगाने के संभावित लाभ
समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के लाभ के लिए लागत में बचत को महत्वपूर्ण बताया जा
रहा है। यह बचत मुख्य रूप से परिवर्तनीय लागत (वीसी) में होती है जबकि स्थिर लागत
(एफसी) तो डूबी लागत है। इसलिए समय-पूर्व सेवानिवृत्ति आर्थिक रूप से व्यवहार्य
होनी चाहिए और इससे वीसी में बचत होनी चाहिए। इसके लिए संभावित उम्मीदवार हैं नए
कोयला-आधारित संयंत्र या नवीकरणीय ऊर्जा संयंत्र।
वर्ष 2015 के बाद कोयला-आधारित ऊर्जा संयंत्रों को स्थापित करने की कुल लागत
2.5 रुपए प्रति युनिट है। नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन के लिए भी वीसी लगभग इतनी ही है।
अत: इस विश्लेषण में इसे ही बेंचमार्क माना गया है। इससे कम वीसी के पुराने
संयंत्रों को सेवानिवृत्त करना अलाभकारी होगा।
46.6 गीगावॉट पुरानी क्षमता में से 5.3 गिगावॉट के लिए आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
21.6 गीगावॉट को प्रतिस्थापित करना अलाभप्रद होगा क्योंकि इनकी परिवर्तनीय लागत
मानक से कम है। इनकी दक्षता (59 प्रतिशत) भी औसत (56 प्रतिशत) से बेहतर है।
शेष 19.8 गीगावॉट क्षमता की वीसी 2.5 रुपए प्रति युनिट से अधिक है। इन
संयंत्रों को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने पर विचार किया जा सकता है। आगे इसी 19.8
गीगावॉट क्षमता को लेकर संभावित लागत, पीएलएफ में सुधार, और कोयला बचत के आधार पर विचार किया गया है।
लागत में बचत, पीएलएफ में सुधार और
कोयले की बचत
वर्ष 2000 से पूर्व स्थापित 19.8 गीगावॉट क्षमता वाले संयंत्रों ने वित्त वर्ष
2020 में 81 अरब युनिट का उत्पादन किया। 2000-पूर्व क्षमता की तुलना 2015-पश्चात
स्थापित 64 गीगावॉट की कोयला-आधारित क्षमता से की गई है। 2015 के बाद स्थापित किए
गए संयंत्र वित्त वर्ष 2020 में 41 प्रतिशत के औसत पीएलएफ पर संचालित किए गए।
परिवर्तनीय लागत प्रति युनिट
2.5 रुपए से कम
2.5 रुपए से अधिक
क्षमता (मेगावॉट)
21,500
27,760
पीएलएफ
50 प्रतिशत
28 प्रतिशत
औसत परिवर्तनीय लागत
2.06
3.04
तालिका 1: 2015 के बाद स्थापित क्षमता का विवरण
वर्ष 2000
से पूर्व स्थापित 19.8 गीगावॉट क्षमता को सेवानिवृत्त करने पर 2015 के बाद स्थापित
क्षमता को इस कमी को पूरा करना होता। अर्थात वित्त वर्ष 2020 में वर्ष 2015 के बाद
स्थापित क्षमता को अतिरिक्त 81 अरब युनिट की पूर्ति करनी होती। इससे 2015 के बाद
स्थापित क्षमता का पीएलएफ वर्तमान 41 प्रतिशत से बढ़कर 56 प्रतिशत हो जाता जो दबाव
को कुछ कम करने में सहायक हो सकता था।
2000 से पूर्व स्थापित 19.8 गीगावॉट क्षमता की औसत वीसी 3.1 रुपए प्रति युनिट
है जबकि 2015 के बाद के संयंत्रों के लिए यह 2.5 प्रति युनिट है। अत: इस प्रक्रिया
से 81 अरब युनिट का प्रतिस्थापन प्रति वर्ष 5043 करोड़ रुपए की बचत कर सकता है। यह
बचत वर्ष 2020 के सभी कोयला आधारित बिजली उत्पादन का मात्र 2 प्रतिशत है। दरअसल, बचत और भी कम होने की संभावना है।
तालिका 1 के अनुसार, वित्त वर्ष 2020 में, 2015 के बाद स्थापित कम वीसी वाले संयंत्र अधिक वीसी वाले संयंत्रों की तुलना
में अधिक पीएलएफ पर संचालित हुए थे। चूंकि 2015 के बाद स्थापित किफायती संयंत्र तो
पहले से ही अधिक पीएलएफ पर संचालित हैं, इसलिए 2000 से पूर्व की
क्षमताओं की क्षतिपूर्ति की ज़िम्मेदारी 2015 के बाद स्थापित महंगे संयंत्रों पर ही
आएगी। लिहाज़ा,
बचत भी कम होगी।
इसके अतिरिक्त, वित्त वर्ष 2020 में 2000 से पूर्व स्थापित
क्षमता द्वारा उत्पादित 81 अरब युनिट की औसत कोयला खपत 0.696 कि.ग्रा. प्रति युनिट
रही और इसने 5.7 करोड़ टन कोयले का उपयोग किया। इन परिस्थितियों में 2015 के बाद की
क्षमता पर स्थानांतरित होने से कोयले की खपत कम होगी। गौरतलब है कि वित्त वर्ष
2020 में भारत की प्रति युनिट कोयला खपत का औसत 0.612 कि.ग्रा. है जो 2000 से पहले
स्थापित क्षमता से 12 प्रतिशत बेहतर है। यदि नई क्षमता से 81 अरब युनिट का उत्पादन
राष्ट्रीय औसत 0.612 कि.ग्रा. प्रति युनिट की दर से किया जाए तो 5.0 करोड़ टन कोयले
की आवश्यकता होगी यानी मात्र 70 लाख टन कोयले की बचत। यहां तक कि यदि औसत कोयला
खपत कि.ग्रा. युनिट में 20 प्रतिशत सुधार मान लिया जाए, (यानी
0.557 कि.ग्रा. प्रति युनिट जो भारतीय उर्जा क्षेत्र में कम ही देखा गया है) तब भी
81 अरब युनिट उत्पादन में कोयले की बचत मात्र 1.2 करोड़ टन होगी। मतलब कोयले में
कुल बचत मात्र 1-2 प्रतिशत ही होगी।
डैटा की अनुपलब्धता के चलते समस्त क्षमता को 2.5 रुपए प्रति युनिट ही मान लिया
जाए तो भी निष्कर्ष कमोबेश ऐसे ही रहेंगे – वार्षिक वीसी में बचत लगभग 2.5 प्रतिशत
और कोयले की बचत प्रति वर्ष 1.3-2.2 प्रतिशत के बीच ही रहेगी।
इस प्रकार,
पुराने संयंत्रों के सेवानिवृत्त होने से बचत तो होगी लेकिन
यह बचत इस क्षेत्र के पैमाने को देखते हुए बहुत अधिक नहीं है।
बचत के अलावा, मिश्रित बिजली उत्पादन के हिमायतियों का एक
तर्क समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से दक्षता में सुधार भी है। हालांकि यह वांछनीय है
लेकिन इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए समय-पूर्व सेवानिवृत्ति एक बोथरा साधन
है। अक्षमता को दंडित करने जैसे उपायों को अपनाकर अक्षम उत्पादन में कटौती की जा
सकती है।
परिवर्तनीय लागत में बचत से सेवानिवृत्ति में सुगमता
वर्ष 2000 से पहले स्थापित क्षमता की पूंजीगत लागत नई परियोजना की तुलना में
कम होने की संभावना है क्योंकि इतने वर्षों में उनकी अधिकांश पूंजीगत लागत का
भुगतान हो चुका होगा। इसका परिणाम कम अग्रिम (अपफ्रंट) भुगतान और पुराने टीपीपी को
समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने की कम लागत के रूप में होगा। भले ही 2000 से पूर्व की
क्षमता को सेवानिवृत्त करने से वीसी में प्रति वर्ष मात्र 5000 करोड़ की बचत होगी, फिर भी यह फायदेमंद होगा यदि इससे पुराने संयंत्रों की एफसी का भुगतान हो जाए।
देखा जाए,
तो 2000 से पूर्व की अधिकांश (60 प्रतिशत) सेवा-निवृत्ति के
लिए विचाराधीन क्षमता की स्थिर लागत कम है – 40 लाख रुपए प्रति मेगावाट प्रति वर्ष
से भी कम। वित्त वर्ष 2020 में इस 11.8 गिगावॉट क्षमता ने 44.6 अरब युनिट का
उत्पादन किया है। इस उत्पादन की कुल लागत औसतन 3.7 रुपए प्रति युनिट है जिसमें 3.1
रुपए वीसी और 0.6 रुपए एफसी है। यह ऊर्जा खरीद लागत के राष्ट्रीय औसत 3.6 रुपए
प्रति युनिट के बराबर ही है।
वर्तमान परिदृश्य में, यदि इस 11.8 गिगावॉट उत्पादन को
2015 के बाद के उत्पादन से प्रतिस्थापित कर दिया जाता है (जिसकी औसत वीसी 2.5 रुपए
प्रति युनिट है) तो इससे वीसी में 2447 करोड़ रुपए की सालाना बचत होगी। वहीं दूसरी
ओर,
वित्त वर्ष 2020 में इस क्षमता के लिए भुगतान की गई एफसी
3083 करोड़ रुपए थी। लिहाज़ा अकेले समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से वीसी में बचत द्वारा
एफसी की भरपाई की संभावना बहुत कम है।
वैसे वीसी में बचत की ही तरह वीसी और एफसी भुगतान की तुलना भी सीधा-सा मामला
नहीं है। इसके लिए गहन विश्लेषण की आवश्यकता है। समय से पहले सेवानिवृत्ति के लिए
भुगतान की जाने वाली वास्तविक एफसी विभिन्न कारकों पर निर्भर करेगी।
अक्षय उर्जा से प्रतिस्थापन पर विचार
अब तक की गई चर्चा में सिर्फ ऐसे परिदृश्य पर विचार किया है जिसमें सभी कोयला
आधारित उत्पादन को उसी के समान आधुनिक विकल्पों से बदला जाएगा। वास्तव में हटाए गए
कोयला उत्पादन को कोयला और नवीकरणीय ऊर्जा के मिश्रित उपयोग से बदलने की संभावना
है। इसलिए,
सभी पुराने कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों को नवीकरणीय ऊर्जा
से बदलने के निहितार्थ को समझना काफी दिलचस्प होगा।
इस बात पर ज़ोर दिया जाना चाहिए कि नवीकरणीय ऊर्जा का उत्पादन परिवर्तनशील और
अनिरंतर है। उदाहरण के लिए, सौर ऊर्जा केवल दिन के समय और
हवा कुछ विशेष मौसमों में उपलब्ध होती है। इसके अलावा, नवीकरणीय
ऊर्जा का उपयोग गुणांक ताप-बिजली की तुलना में काफी कम है। इसलिए, नवीकरणीय ऊर्जा से उसी समय पर बिजली सप्लाई नहीं की जा सकती जिस समय कोयला
आधारित उत्पादन से की जाती थी। इस कारण, नवीकरणीय ऊर्जा और कोयला
आधारित उत्पादन के बीच तुलना उपयुक्त नहीं है। लेकिन यहां हम सभी पुराने कोयला
आधारित उत्पादन को नवीकरणीय ऊर्जा से बदलने की व्यापक समझ के लिए ऐसा कर रहे
हैं।
यदि प्रतिस्थापन नवीकरणीय ऊर्जा से करना है तो नए टीपीपी के कम पीएलएफ में
सुधार और ऐसी तनावग्रस्त परिसंपत्तियों को संबोधित करने से लाभ नहीं मिलेगा। वहीं
दूसरी ओर,
नवीकरणीय ऊर्जा की ओर प्रतिस्थापन से कोयले की बचत अधिक
होगी। लेकिन नवीकरणीय उर्जा की उत्पादन लागत लगभग 2.5 रुपए प्रति युनिट के मानक के
बराबर है,
ऐसे में अनुमानित वीसी में बचत पहले जितनी ही होने की
संभावना है। यह देखते हुए कि पुराने कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को पूरी तरह से
नवीकरणीय ऊर्जा से बदलना और इनका मिश्रित उपयोग करना संभव नहीं है, मामले की गहरी छानबीन ज़रूरी है।
प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों (पीसीई) में सुधार से संभावित लाभ
दिसंबर 2015 में संशोधित पर्यावरण मानकों के अनुपालन के लिए टीपीपी को पीसीई
स्थापित करने या अन्य समाधान लागू करने के लिए अतिरिक्त खर्च करना होगा। ताप बिजली
उत्पादन से होने वाले प्रदूषण को देखते हुए इन मानदंडों का पालन महत्वपूर्ण है।
लेकिन यह अतिरिक्त पूंजीगत व्यय खासकर पुराने टीपीपी के लिए चिंता का विषय है। यह
देखते हुए कि पुराने टीपीपी अपने अंत की ओर हैं, उनके
शेष जीवन में ऐसे निवेश की भरपाई करना मुश्किल हो सकता है। इसलिए यह दलील दी गई है
कि पीसीई पर अतिरिक्त पूंजीगत खर्च करने की बजाय पुराने कोयला संयंत्रों को
सेवानिवृत्त करना बेहतर है।
पीसीई लागत चिंता का विषय है। हालांकि, यह
मुद्दा सिर्फ परियोजना की अवधि से सम्बंधित नहीं है। डैटा से पता चलता है कि 2000
से पूर्व शुरू की गई 46.6 गिगावॉट क्षमता में से 14.9 गिगावॉट की कुल लागत (यानी
एफसीअवीसी) 3 रुपए प्रति युनिट से भी कम है। शुल्क पर पीसीई का प्रभाव 0.25-0.75
रुपए प्रति युनिट के आसपास होगा। यदि इसे 1 रुपए प्रति युनिट भी मान लिया जाए तो
वर्ष 2000 से पूर्व पीसीई के साथ स्थापित 14.9 गिगावॉट उत्पादन का कुल शुल्क 4
रुपए प्रति युनिट से कम ही रहेगा। अर्थात यह राष्ट्रीय औसत बिजली खरीद लागत (3.6
रुपए प्रति युनिट) से बहुत अधिक नहीं होगा।
इसके अलावा,
वर्ष 2000 से पूर्व शुरू की गई 46.6 गिगावॉट क्षमता में से
23.6 गिगावॉट में पीसीई स्थापित करने हेतु निविदाएं जारी हो चुकी हैं। कुछ निवेश
किए जा चुके हैं। इसमें से 14.2 गिगावॉट के लिए तो बोलियां मंज़ूर की जा चुकी हैं
और इनमें से भी 1995 के पूर्व स्थापित 80 मेगावॉट क्षमता में पहले से ही पीसीई
लगाए जा चुके हैं। स्पष्ट है कि कुछ पुराने संयंत्र पहले ही पीसीई सम्बंधी व्यय कर
चुके हैं और अन्य भी ऐसे खर्च के बावजूद व्यवहार्य हो सकते हैं। ऐसा विचार भी किया
जा रहा है कि यदि पीसीई पर और अधिक निवेश करने से जन-स्वास्थ्य में लाभ होता है तो
इस खर्च को उचित माना जा सकता है।
और तो और,
1 अप्रैल 2021 को मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार, सेवानिवृत्ति के करीब पहुंच चुके पुराने संयंत्र भी थोड़ी पेनल्टी का भुगतान
करके पीसीई स्थापित किए बिना उत्पादन जारी रख सकते हैं। ऐसे में उन्हें कानूनी तौर
पर पीसीई स्थापित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। कुल मिलाकर, पेनल्टी के कारण पुराने संयंत्रों से उत्पादन लागत में वृद्धि हो जाएगी जिसके
परिणास्वरूप उन संयंत्रों से उत्पादन कम हो जाएगा।
इसलिए,
पीसीई स्थापना की वित्तीय व्यवहार्यता के सम्बंध में सिर्फ
आयु के आधार पर सेवानिवृत्ति करना एक प्रभावी उपाय नहीं है। इसकी बजाय अधिक
उपयुक्त तो यह होता कि सेवानिवृत्ति के सम्बंध में निर्णय इकाई के आधार पर किए
जाते जिसमें शेष जीवन, पीएलएफ, उत्पादन
की वर्तमान लागत,
पर्यावरण मानदंडों को पूरा करने के लिए आवश्यक उपायों की
लागत,
आदि बातों को ध्यान में रखा जाता।
समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के उपेक्षित पहलू
कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने के लाभों पर
चर्चा के दौरान अक्सर इन संयंत्रों के संचालन के लाभों और सेवानिवृत्ति के नतीजों
पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
उदाहरण के लिए, यह ध्यान देना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि
समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से बचत के सभी दावे पुराने ऊर्जा संयंत्रों की क्षमता के
महत्व को हिसाब में नहीं लेते हैं। बढ़ती अक्षय ऊर्जा उत्पादन वाली बिजली प्रणाली
में,
वर्ष 2000 से पूर्व स्थापित क्षमताएं मौसमी और पीक डिमांड
को पूरा करने में सहायक हो सकती हैं। यदि ऐसे लाभों पर विचार किया जाए तो
समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से होने वाली संभावित बचत काफी कम हो नज़र आएगी।
इसके अतिरिक्त, कोयला आधारित क्षमताओं की समय-पूर्व
अनियोजित सेवानिवृत्ति के विचित्र परिणाम हो सकते हैं। आक्रामक समय-पूर्व
सेवानिवृत्ति की वजह से बिजली के अभाव की मानसिकता उत्पन्न हो सकती है, खास तौर से राज्यों में। चूंकि कथित अभाव राज्य की ऊर्जा राजनीति के लिए
अभिशाप हैं,
इससे हड़बड़ी में कोयला आधारित क्षमता में निवेश की नई लहर उठ
सकती है जो सरकारी संस्थानों में केंद्रित होगी।
उदाहरण के लिए हालिया अतीत में महाराष्ट्र और तेलंगाना जैसे राज्यों में खराब
नियोजन और अभाव की धारणा के कारण उत्पादन क्षमता में अत्यधिक वृद्धि की गई है।
इसका एक और ताज़ा उदाहरण मुंबई में देखा गया जब शहर में एक दिन के लिए बिजली गुल
होने पर नई उत्पादन क्षमता के लिए प्रयास किए जाने लगे थे।
इसलिए,
हो सकता है कि समय-पूर्व अनियोजित सेवानिवृत्ति से अनावश्यक
क्षमता वृद्धि हो जिसके अपने आर्थिक व पर्यावरणीय निहितार्थ होंगे।
अनावश्यक ज़ोर
जैसा कि हमने देखा, आयु के आधार पर टीपीपी को समय-पूर्व
सेवानिवृत्त करने से किसी उल्लेखनीय बचत की संभावना नहीं है। परिवर्तनीय लागत में
वार्षिक बचत लगभग 2 प्रतिशत और वार्षिक कोयला बचत 1-2 प्रतिशत ही होगी।
प्रणाली की दक्षता में सुधार एक वांछित लक्ष्य है लेकिन समय-पूर्व
सेवानिवृत्ति की बजाय अन्य विकल्प इस दृष्टि से अधिक प्रभावी होंगे।
यह तर्क भी ठीक नहीं है कि पर्यावरणीय उपाय स्थापित करने पर पुराने संयंत्र
अव्यावहारिक हो जाएंगे। दरअसल, इनमें से कई संयंत्र उसके बाद
भी आर्थिक रूप से लाभदायक रहेंगे। और तो और, मंत्रालय
ने यह दिशानिर्देश भी जारी कर दिया है कि पुराने संयंत्र सेवानवृत्ति की तारीख तक
बगैर ऐसे उपकरण स्थापित किए भी चल सकते हैं।
कहने का मतलब यह नहीं है कि पुराने संयंत्रों में किसी को भी समय-पूर्व
सेवानिवृत्त नहीं किया जाना चाहिए। दरअसल, संयंत्रों
और इकाइयों पर अलग-अलग अधिक विस्तृत विश्लेषण किया जाना चाहिए। ऐसा करके यह पता
लगाया जा सकता है कि कौन-सी विशिष्ट इकाइयों/संयंत्रों को सेवानिवृत्त करना
लाभदायक हो सकता है।
किसी भी निर्णय के लिए गहन विश्लेषण की ज़रूरत होगी जिसमें कई मापदंडों का ध्यान रखना होगा – जैसे संयंत्र/इकाई स्तर का विवरण, संविदात्मक प्रतिबद्धताएं, भार की प्रकृति, उत्पादन की प्रकृति, क्षमता का महत्व, आदि। पर्याप्त विश्लेषण के बिना समय-पूर्व सेवानिवृत्ति अनुपयुक्त उपाय प्रतीत होता है और बेहतर होगा कि अतिरिक्त कोयला आधारित क्षमता वृद्धि को रोका जाए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://imgs.mongabay.com/wp-content/uploads/sites/20/2021/06/08140518/Piece_of_coal_in_front_of_a_coal_firing_power_plant-scaled.jpg
प्रतिष्ठित अंतरिक्ष दूरबीन हबल में लगभग एक महीने पहले
कंप्यूटर सम्बंधी गड़बड़ी आ जाने के कारण उसने काम करना बंद कर दिया था, अब यह फिर से काम करने लगी है। साइंस पत्रिका के अनुसार दूरबीन का
नियंत्रण ऑपरेटिंग पेलोड कंट्रोल कंप्यूटर से हटाकर बैकअप उपकरणों पर लाने के बाद
हबल दूरबीन के सभी उपकरणों के साथ पुन: संवाद स्थापित कर लिया गया है।
दरअसल 13 जून को हबल के विज्ञान उपकरणों को नियंत्रित करने वाला और इनकी सेहत
की निगरानी करने वाला पेलोड कंप्यूटर उपकरणों के साथ संवाद नहीं कर पा रहा था, इसलिए उसने इन्हें सामान्य मोड से हटाकर सुरक्षित मोड में डाल दिया था। हबल के
ऑपरेटरों को पहले तो लगा कि मेमोरी मॉड्यूल में गड़बड़ी हुई होगी जिसके चलते यह
समस्या हो रही है। लेकिन तीन में से एक बैकअप मॉड्यूल पर डालने के बावजूद भी
समस्या बरकरार थी। कई अन्य उपकरणों को भी जांचा गया लेकिन गड़बड़ी का कारण उनमें भी
नहीं मिला।
अंतत: यह निर्णय लिया गया कि पूरी की पूरी साइंस इंस्ट्रूमेंट कमांड एंड डैटा
हैंडलिंग (SIC&DH) युनिट को बैकअप पर डाल दिया
जाए,
पेलोड कंप्यूटर इस युनिट का ही एक हिस्सा है। मरम्मत दल ने
पहले पृथ्वी पर ही हार्डवेयर के साथ इस पूरी प्रक्रिया का अभ्यास किया और यह
सुनिश्चित किया कि ऐसा करने से दूरबीन को कोई अन्य नुकसान न पहुंचे। युनिट को जैसे
ही स्थानांतरित करना शुरू किया गया समस्या की जड़ पकड़ में आ गई। समस्या SIC&DH के पावर कंट्रोल युनिट में
थी। यह युनिट पेलोड कंप्यूटर को स्थिर वोल्टेज देता है और समस्या इस कारण थी कि या
तो सामान्य से कम-ज़्यादा वोल्टेज मिल रहा था या वोल्टेज का पता लगाने वाला सेंसर
गलत रीडिंग दे रहा था। चूंकि SIC&DH में अतिरिक्त पॉवर कंट्रोल युनिट भी होती है इसलिए पूरी युनिट को बैकअप पर
डाला जाना जारी रहा।
हबल मिशन कार्यालय के प्रमुख टॉम ब्राउन ने बताया कि SIC&DH के साइड ए पर हबल को सामान्य मोड में सफलतापूर्वक ले आया गया है। यदि सब कुछ सामान्य रहा तो इस सप्ताहांत तक हबल फिर से अवलोकन का अपना काम शुरू कर देगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i2.wp.com/regmedia.co.uk/2018/10/29/hubble_by_nasa.jpg?ssl=1
हाल ही में यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने
सोट्रोविमैब को आपातकालीन उपयोग की अनुमति दी है। सोट्रोविमैब सार्स-कोव-2 के
विरुद्ध एक प्रभावी हथियार है जिसे भविष्य में विभिन्न कोरोनावायरस के कारण होने
वाली संभावित महामारियों के लिए भी प्रभावी माना जा रहा है। शोधकर्ताओं के अनुसार
सोट्रोविमैब जैसी तथाकथित सुपर-एंटीबॉडीज़ की वर्तमान वायरस संस्करणों के विरुद्ध
व्यापक प्रभाविता इसे कोविड-19 के लिए पहली पीढ़ी के मोनोक्लोनल एंटीबॉडी (mAb) उपचारों से बेहतर बनाती है।
चिकित्सकों के लिए यह तो संभव नहीं है कि हर बार वायरस का अनुक्रमण करके इलाज
करें। इसलिए ऐसी एंटीबॉडीज़ बेहतर हैं जो प्रतिरोध पैदा न होने दें और विभिन्न
ज्ञात संस्करणों के खिलाफ कारगर हों।
विर बायोटेक्नोलॉजी और ग्लैक्सो-स्मिथ-क्लाइन द्वारा निर्मित एंटीबॉडी उपचार
वास्तव में तीसरा mAb
आधारित उपचार है जो हल्के से मध्यम कोविड-19 से पीड़ित व्यक्तियों के लिए उपयोग
किया जा रहा है ताकि उन्हें गंभीर रूप से बीमार होने से बचाया जा सके। हालांकि, टीकाकरण में वृद्धि के साथ ऐसे उत्पादों की आवश्यकता कम हो जाएगी लेकिन जिन
लोगों को किसी वजह से टीका नहीं लगता या टीकाकरण से पर्याप्त प्रतिरक्षा नहीं मिल
पाती,
उनके लिए mAb हमेशा आवश्यक रहेंगी।
हालांकि कुछ अन्य क्रॉस-रिएक्टिव mAb भी जल्द ही बाज़ार में आने वाले हैं। एडैजिओ थेराप्यूटिक्स ने व्यापक स्तर पर ADG20 नामक mAb के परीक्षण के लिए काफी निवेश
किया है। इसका उपयोग उपचार और रोकथाम के लिए किया जाएगा। इस क्षेत्र में कई
स्टार्ट-अप भी कोविड-19 के लिए अगली पीढ़ी के mAb पर काम कर रहे हैं।
दरअसल,
सोट्रोविमैब की शुरुआत 2013 में हुई थी जब 2003 के सार्स
प्रकोप से उबर चुके एक व्यक्ति के रक्त का नमूना लिया गया था। ADG20 को भी इसी तरह से तैयार
किया गया है। दूसरी ओर, अधिकांश अन्य mAb हाल ही में कोविड-19 से उबर चुके लोगों के एंटीबॉडीज़ से
प्रेरित हैं। कई कंपनियों ने mAb को अनुकूलित करने के लिए उनके अर्ध-जीवनकाल में विस्तार, निष्प्रभावन क्रिया में वृद्धि, स्थिर क्षेत्र में हेरफेर या
फिर इन सभी के संयोजन का उपयोग किया है।
हालांकि,
यूके बायोइंडस्ट्री एसोसिएशन की पूर्व प्रमुख जेन ओस्बॉर्न
के अनुसार mAb विकसित करने में वायरस के
विकास का विशेष ध्यान रखना होगा। कई परीक्षणों में नए संस्करणों के विरुद्ध
नकारात्मक परिणाम मिले हैं। ऐसे में वायरस के उत्परिवर्तन पर काफी गंभीरता से
सोचने की आवश्यकता है। हालांकि प्रयोगशाला में किए गए अध्ययनों में सोट्रोविमैब ने
दक्षिण अफ्रीका,
ज़ील और भारत में पाए गए सबसे चिंताजनक संस्करणों के प्रति
निष्प्रभावन क्षमता को बनाए रखा है। कई अन्य mAb ने तीसरे चरण में अच्छे परिणाम दर्शाए हैं। लेकिन कुछ अन्य
नए संस्करण के विरुद्ध कम प्रभावी रहे हैं। कुछ विशेषज्ञों का दावा है कि एकल
एंटीबॉडीज़ एकल उत्परिवर्तन के विरुद्ध कमज़ोर हो सकते हैं जबकि एंटीबॉडीज़ का मिश्रण
अधिक प्रभावी और शक्तिशाली हो सकता है।
लेकिन एक बेहतर रणनीति के तहत एडैजिओ और विर दोनों ने स्वतंत्र रूप से ऐसी mAb की जांच की जो सार्स जैसे
कोरोनावायरस परिवार में पाए जाने वाले लगभग स्थिर चिंहों की पहचान करते हैं। ऐसे
स्थिर हिस्से आम तौर पर वायरस के लिए आवश्यक कार्य करते हैं, ऐसे में वायरस अपने जीवन को दांव पर लगाकर ही इनमें उत्परिवर्तन का जोखिम मोल
ले सकता है।
हालांकि,
एंटीबॉडी सिर्फ इतना नहीं करते कि वायरल प्रोटीन को
निष्क्रिय कर दें। mAb
जन्मजात और अनुकूली प्रतिरक्षा को भी प्रेरित करते हैं जो संक्रमित कोशिकाओं को
नष्ट करने में मदद करती हैं और यही द्वितीयक क्रियाएं सार्स और कोविड-19 के उपचार
के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं।
चूहों पर किए गए अध्ययन (सेल और जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल मेडिसिन
में प्रकाशित) से इस विचार को समर्थन मिला है। लेकिन पिछले वर्ष जब कोविड-19 mAb काफी चर्चा में थे तब
एस्ट्राज़ेनेका,
एली लिली, एबप्रो और अन्य कंपनियों
अपने-अपने mAb में इन क्रियाओं का दमन करने
का निर्णय लिया था। वे वायरल संक्रमण में एंटीबॉडी-निर्भर वृद्धि के जोखिम को कम
से कम करना चाहते थे जिसमें एंटीबॉडीज़ रोग को कम करने की बजाय बढ़ावा दे सकते हैं।
कुछ रोगजनकों के मामले में यह एक वास्तविक समस्या हो सकती है। लेकिन शोधकर्ताओं को
जल्दी ही समझ आ गया कि सार्स-कोव-2 के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं है। ऐसे में विर ने
ऐसी क्रियाओं को रोकने पर ध्यान देना बंद कर दिया। इस कंपनी ने सोट्रोविमैब के लिए
न सिर्फ इन क्रियाओं को अछूता छोड़ दिया बल्कि इन्हें बढ़ाने के प्रयास भी किए।
वास्तव में इसका मुख्य उद्देश्य एक ऐसी एंटीबॉडी का निर्माण करना है जो न सिर्फ
सुरक्षा प्रदान करे बल्कि एक दीर्घावधि प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया विकसित करे। इसके
लिए पिछले वर्ष विर की एक टीम ने चूहों में एंटी-इन्फ्लुएंजा mAb पर काम किया है।
इस संदर्भ में एक टीम ने 2003 के सार्स संक्रमण के जवाब में तैयार किए गए
प्राकृतिक mAb से शुरुआत की। इसके पहले चरण
के परीक्षण में चिकित्सकों ने पाया कि ADG20 की एक खुराक से रक्त में वायरस को निष्क्रिय करने वाली क्रिया उतनी ही थी
जितनी mRNA आधारित टीकाकारण के बाद लोगों
में देखने को मिली थी। अध्ययनों से संकेत मिले हैं कि यह सुरक्षा एक वर्ष तक बनी
रहती है। दो वैश्विक परीक्षण अभी जारी हैं।
कुछ कंपनियां मांसपेशियों में देने वाले टीके के साथ-साथ श्वसन के माध्यम से भी इसे देने के तरीकों की खोज कर रही हैं। इस नेज़ल स्प्रे को संक्रमण के स्थान पर ही वायरस को कमज़ोर करने के लिए तैयार किया गया है। बहरहाल जो भी तरीका हो लेकिन यह काफी अच्छी खबर है कि कोविड-19 के जवाब में ऐसे प्रयोग किया जा रहे हैं ताकि भविष्य में ऐसे हालात का डटकर सामना किया जा सके। गौरतलब है कि फिलहाल ये सभी अनुमानित लाभ है जिनको लोगों में नहीं देखा गया है। वास्तविक परिस्थिति में परीक्षण के बाद ही स्थिति स्पष्ट होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.springernature.com/relative-r300-703_m1050/springer-static/image/art%3A10.1038%2Fs41587-021-00980-x/MediaObjects/41587_2021_980_Figa_HTML.jpg?as=webp