महामारी की शुरुआत से वैज्ञानिक कोविड-19 के उपचार के लिए
एंटीबॉडी विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। फिलहाल कई एंटीबॉडी क्लीनिकल परीक्षण
के अंतिम दौर में हैं और कइयों को अमेरिका और अन्य देशों की नियामक एजेंसियों
द्वारा आपातकालीन उपयोग की अनुमति दी गई है।
अलबत्ता,
डॉक्टरों के बीच एंटीबॉडी उपचार अधिक लोकप्रिय नहीं है।
गौरतलब है कि फिलहाल एंटीबॉडी इंट्रावीनस मार्ग (रक्त शिराओं) से दी जाती हैं न कि
सीधे सांस मार्ग जबकि वायरस मुख्य रूप से वहीं पाया जाता है। इस वजह से काफी अधिक
मात्रा में एंटीबॉडी का उपयोग करना होता है। एक अन्य चुनौती यह है कि सार्स-कोव-2
वायरस के कुछ संस्करण ऐसे भी हैं जो एंटीबॉडीज़ को चकमा देने में सक्षम हैं।
इस समस्या के समाधान के लिए युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के हेल्थ साइंस सेंटर के
एंटीबॉडी इंजीनियर ज़ीचियांग एन और उनकी टीम ने ऐसी एंटीबॉडी विकसित कीं जिन्हें
सीधे श्वसन मार्ग में पहुंचाया जा सके जहां उनकी ज़रूरत है। इसके लिए टीम ने स्वस्थ
हो चुके लोगों की हज़ारों एंटीबॉडीज़ की जांच की और अंतत: ऐसी एंटीबॉडीज़ पर ध्यान
केंद्रित किया जो सार्स-कोव-2 के उस घटक की पहचान कर पाएं जो वायरस को कोशिकाओं
में प्रवेश करने में मदद करता है। इनमें से सबसे प्रभावी IgG एंटीबॉडीज़ पाई गर्इं जो संक्रमण के बाद अपेक्षाकृत देर से
प्रकट होती हैं लेकिन विशिष्ट रूप से किसी रोगजनक के खिलाफ कारगर होती हैं।
इसके बाद टीम ने सार्स-कोव-2 को लक्षित करने वाले IgG अंशों को IgM नामक एक अन्य अणु से जोड़ा। IgM संक्रमण के प्रति काफी शुरुआती दौर में प्रतिक्रिया देता है। इस तरह से तैयार
किए गए IgM ने सार्स-कोव-2 के 20
संस्करणों के विरुद्ध मात्र IgG की तुलना में अधिक शक्तिशाली प्रभाव दर्शाया। नेचर में प्रकाशित
रिपोर्ट के अनुसार जब विकसित किए गए IgM को चूहों के श्वसन मार्ग में संक्रमण के 6 घंटे पहले या 6 घंटे बाद डाला गया
तो दो दिनों के भीतर चूहों में वायरस का संक्रमण कम हो गया।
लेकिन फिलहाल ये प्रयोग चूहों पर किए गए हैं और महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या
ये एंटीबॉडी मनुष्यों में उसी तरह से काम करेंगी।
एन का मत है कि यह एंटीबॉडी एक तरह का रासायनिक मास्क है जिसका उपयोग सार्स-कोव-2
के संपर्क में आए व्यक्ति कर सकते हैं। यह उन लोगों के लिए रक्षा का एक और कवच हो
सकता है जो टीका लगने के बाद पूरी तरह सुरक्षित नहीं हुए हैं।
IgM अणु अपेक्षाकृत टिकाऊ होते हैं, इसलिए इनको नेज़ल स्प्रे के रूप में आपातकालीन उपयोग के लिए रखा जा सकता है। फिलहाल कैलिफोर्निया आधारित IgM बायोसाइंस नामक एक बायोटेक्नॉलॉजी कंपनी द्वारा एन के साथ मिलकर इस एंटीबॉडी के क्लीनिकल परीक्षण की योजना है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit :https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-01481-2/d41586-021-01481-2_19221096.jpg
आजकल अखबारों में, नेट पर,
सोशल मीडिया पर ऐसे
पौधों की सूचियों की भरमार है जिनके बारे में यह दावा किया जा रहा है कि वे रात
में भी ऑक्सीजन छोड़ते हैं। जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया (https://timesofindia.indiatimes.com/life-style/home-garden/5-plants-that-release-oxygen-at-night/photostory/59969056.cms) में छपी यह खबर ‘फाइव प्लांट्स रिलीज़
ऑक्सीजन एट नाइट’। ये पांच पौधे हैं एलो वेरा,
स्नेक प्लांट, ऑर्किड, नीम
और पीपल। इनमें पहले तीन पौधे तो ‘कैम’ प्रकार के हैं परंतु बाकी दो सामान्य प्रकार
के हैं। अर्थात अन्य सभी पौधों जैसा प्रकाश संश्लेषण करने वाले हैं। कैम के बारे
में आगे बात करते हैं। एक और साइट है फर्न एंड पेटल्स जिसमें आलेख है ‘9 प्लांट
रिलीज़ ऑक्सीजन एट नाइट’। नाम हैं एलो वेरा,
पीपल, स्नेक
प्लांट, अरेका पाम, नीम,
ऑर्किड, जरबेरा, क्रिसमस
कैक्टस, तुलसी, मनी प्लांट।
इन सब में कहीं ना कहीं नासा का ज़िक्र है।
परंतु नासा की मूल रिपोर्ट में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि ये पौधे रात में
ऑक्सीजन छोड़ते हैं। इस रिपोर्ट में यह ज़रूर कहा गया है कि ये तरह-तरह के वाष्पशील
पदार्थों को सोखकर घर के अंदर की हवा को साफ करते हैं। ये हवा से रात में भी
कार्बन डाईऑक्साइड ग्रहण करते हैं क्योंकि इनमें से अधिकतर कैम पौधे हैं।
हद तो तब हो गई जब प्राणी विज्ञान के मेरे
एक परिचित प्राध्यापक ने रोज़ मेरे मोबाइल पर चौबीसों घंटे ऑक्सीजन छोड़ने वाले
पौधों की लिस्ट भेजना शुरू कर दिया। मैंने उन्हें बताया कि ऐसा नहीं हो सकता परंतु
वे मानते ही नहीं, पौधों की सूची रोज़ डाल देते हैं।
1989 में प्रकाशित नासा की उक्त रिपोर्ट
में 15 पौधों की सूची है। इनमें इंग्लिश आईवी,
स्पाइडर प्लांट, पीस
लिली, चाइनीस एवरग्रीन, बैम्बू पाम,
हार्टलीफ
फिलोडेंड्रॉन, एलीफैंट फिलोडेंड्रॉन,
गोल्डन पोथास, ड्रेसीना
की विभिन्न किस्में, फाइकस बेंजामिना आदि के नाम हैं। रिपोर्ट के मुताबिक ये हवा
को साफ करते हैं, हमारे आसपास की हवा से प्रदूषक पदार्थों को हटाते हैं। ये
मुख्य रूप से बेंज़ीन, फॉर्मेल्डिहाइड, ट्राइक्लोरोएथेन,
ज़ायलीन, अमोनिया
जैसे वाष्पशील पदार्थों को सोखते हैं। साथ ही कार्बन डाईऑक्साइड भी सोखते हैं।
इनमें से कुछ पौधे कैम प्रकार के भी हैं। रात में स्टोमैटा खुले होने के कारण ये
इन प्रदूषकों को सोखते रहते हैं। रिपोर्ट में रात में ऑक्सीजन छोड़ने का ज़िक्र कहीं
नहीं है।
तो भ्रम का कारण क्या है?
मुझे लगता है कि यह भ्रम आधी-अधूरी जानकारी
से उत्पन्न हुआ है। हमने यह तो पढ़ लिया कि कैम पौधे रात में प्रकाश संश्लेषण करते
हैं पर यह ध्यान नहीं दिया कि इस क्रिया का कौन-सा चरण रात में और कौन-सा चरण दिन
में चलता है। इस क्रिया के कितने चरण हैं?
और कौन, कब
और कैसे कार्य करता है?
पौधों में भोजन निर्माण अर्थात प्रकाश
संश्लेषण एक बहुत ही जटिल जैव रासायनिक क्रिया है। इसमें चार चीज़ों की ज़रूरत होती
है। पहला, प्रकाश; सामान्यत: इसका स्रोत सूर्य का प्रकाश ही
है। वैसे कृत्रिम प्रकाश यानी फिलामेंट बल्ब,
सीएफएल या एलईडी की
तेज़ रोशनी में भी यह क्रिया हो सकती है। दूसरा,
पानी (जो जड़ों से
सोखा जाता है); तीसरा, कार्बन डाईऑक्साइड (गैस जो हवा से मिलती
है)। और चौथा है क्लोरोफिल यानी पत्तियों में उपस्थित हरा पदार्थ। पौधों में भोजन
निर्माण की क्रिया को एकदम सरल रूप में हम यू लिख सकते हैं
यह जटिल जैव रासायनिक क्रिया पौधों में 2
चरणों में संपन्न होती है। पहले चरण के लिए प्रकाश ज़रूरी होता है। अत: इसे
प्रकाश-निर्भर क्रिया कहते हैं। इसमें पानी भाग लेता है,
कुछ इस तरह – क्लोरोफिल की उपस्थिति में सूर्य के प्रकाश
की ऊर्जा पानी के अणु को तोड़ती है जिसके फलस्वरूप ऑक्सीजन बनती है और साथ में
एटीपी और एनएडीपीएच जैसे अणुओं के रूप में रासायनिक ऊर्जा संचित कर ली जाती है। इसके
लिए प्रकाश ज़रूरी है।
अर्थात भोजन निर्माण (प्रकाश संश्लेषण) के
प्रथम चरण में हरे पौधे प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में बदल देते हैं। इसे
प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया कहते हैं और ऑक्सीजन इसी के दौरान निकलती है। यह ऑक्सीजन
स्टोमैटा के रास्ते हवा में विसरित हो जाती है। अन्य सभी जीवों के लिए ऑक्सीजन का
यही स्रोत है।
प्रकाश संश्लेषण के दूसरे चरण को डार्क
रिएक्शन (प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया) कहते हैं। इसके लिए प्रकाश ज़रूरी नहीं होता
परंतु यह प्रकाश की उपस्थिति में भी चलती रह सकती है और चलती है। अर्थात सामान्य
पौधों में प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया और प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया दिन में साथ-साथ
लगातार चलती रहती हैं। प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया के दौरान उस रासायनिक ऊर्जा का
उपयोग होता है जो प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया के दौरान रासायनिक रूप संचित हुई थी।
प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया को हम कुछ इस प्रकार लिख सकते हैं
कार्बन डाईऑक्साइड + एटीपी + एनडीपीएच = कार्बोहाइड्रेट +
पानी +
एडीपी + एनएडीपी
अधिकांश पौधों में यही चरण होते हैं। इन
सामान्य पौधों के अलावा कुछ ऐसे भी पौधे हैं जो रेगिस्तानी परिस्थितियों में उगते
हैं। यहां पानी की कमी होती है और गर्मी अधिक होती है। लिहाज़ा, पानी
बचाने के लिए इन पौधों के स्टोमैटा दिन में बंद रहते हैं और रात में खुलते हैं।
इन्हें क्रेसुलेसियन एसिड मेटाबोलिज़्म (कैम) पौधे कहा जाता है। इस प्रक्रिया को
सबसे पहले क्रेसुलेसी कुल के पौधों में खोजा गया था।
स्टोमैटा बंद होने के कारण कैम पौधों में
दिन के समय गैसों का आदान-प्रदान बहुत कम होता है। रात में स्टोमैटा खुले रहते हैं
और हवा की आवाजाही रहती है। अत: रात के समय ये पौधे कार्बन डाईऑक्साइड का संग्रहण
करते हैं। इस कार्बन डाईऑक्साइड को कार्बनिक अम्लों के रूप में परिवर्तित करके
पत्तियों की कोशिकाओं में जमा कर लिया जाता है।
दिन में जब इन कोशिकाओं पर सूर्य की रोशनी गिरती है तब स्टोमैटा तो बंद रहते हैं परंतु रात में बने कार्बनिक अम्लों के टूटने से कार्बन डाईऑक्साइड बनने लगती है जो प्रकाश संश्लेषण की सामान्य क्रिया में भाग लेती है। यह पहले चरण (प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया) में बनी ऑक्सीजन एवं रासायनिक ऊर्जा अर्थात एटीपी और एनएडीपीएच द्वारा प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया के रास्ते कार्बोहायड्रेट में बदल जाती है।
कैम-प्रेमियों के लिए वैसे तो यह स्पष्ट ही है कि पौधा चाहे सामान्य प्रकाश संश्लेषण करने वाला हो या कैम चक्र की मदद लेता हो, ऑक्सीजन का उत्पादन तो प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया के चरण में ही होता है और ज़ाहिर है यह अभिक्रिया दिन में होती है। लेकिन फिर भी यदि किसी कैम प्रेमी को पीपल के नीचे रात बिताकर ऑक्सीजन प्राप्त करने की धुन सवार है, तो एक सूचना काफी लाभदायक हो सकती है। पता यह चला है कि पीपल का पेड़ या पौधा उसी स्थिति में कैम चक्र का उपयोग करता है जव वह किसी अन्य पेड़ के ऊपर उगा हो। मिट्टी में लगा पीपल का पेड़ सामान्य प्रकाश संश्लेषण ही करता है। ज़ाहिर है किसी अन्य पेड़ के ऊपर पीपल के नन्हे पौधे ही उगते हैं, पेड़ तो ज़मीन पर ही होते हैं। तो कैम-सुख के लिए (यदि रात में ऑक्सीजन देने में मददगार हो तो भी) आपको किसी पेड़ के ऊपर उगे पीपल के पेड़ ढूंढने होंगे।
कैम पौधे इस मायने में विशिष्ट हैं उनमें
रात में कैम चक्र चलता है। लेकिन दिन में उसी कोशिका में प्रकाश-निर्भर क्रिया और
प्रकाश-स्वतंत्र अभिक्रिया (केल्विन चक्र) दोनों चलते रहते हैं। अत: स्पष्ट है कि
रात में ये ऑक्सीजन नहीं छोड़ते क्योंकि रात में उनमें प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया
नहीं होती। रात में तो केवल कार्बन डाईऑक्साइड का संग्रहण ही होता है। यानी
सामान्य पौधों एवं कैम पौधों में अंतर सिर्फ इतना है कि कैम पौधों में कार्बन
डाईऑक्साइड को कार्बनिक अम्लों के रूप में जमा करके रखा जाता है और बाद में मुक्त
कर दिया जाता है। शेष प्रक्रिया तो वही है।
सवाल यह है कि क्या कुछ पौधे रात में प्रकाश संश्लेषण का प्रथम चरण यानी प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया सम्पन्न कर सकते हैं। इसका जवाब है कि यह संभव नहीं है क्योंकि प्रकाश-निर्भर अभिक्रिया में पानी को तोड़कर उससे ऑक्सीजन मुक्त करने की क्रिया के लिए प्रकाश की जितनी मात्रा चाहिए रात में नहीं मिलती। यहां तक कि चांदनी रात में भी नहीं, क्योंकि पूर्णिमा की रात को भी चंद्रमा से दिन के सूर्य के प्रकाश की तुलना में 32 हज़ार गुना कम प्रकाश मिलता है। अत: यह कहना गलत है कि कैम पौधे (जैसे एलो वेरा, स्नेक प्लांट आदि) रात में प्रकाश संश्लेषण करते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं। हां, ये आसपास की हवा को साफ ज़रूर करते हैं। अत: कैम पौधे एयर प्यूरीफायर हो सकते हैं परंतु रात में ऑक्सीजन प्रदाता कदापि नहीं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.toiimg.com/photo/59969755.cms
वर्ष 1918 में उस समय के नए इन्फ्लुएंज़ा स्ट्रेन से मारे गए
दो जर्मन सैनिकों के फेफड़ों से बीसवीं सदी की सबसे विनाशकारी महामारी की आणविक झलक
देखने को मिली है। इन दोनों सैनिकों के फेफड़े लगभग सौ वर्षों से बर्लिन म्यूज़ियम
ऑफ नेचुरल हिस्ट्री में फॉर्मेलिन में संरक्षित रखे हुए हैं। हाल ही में
शोधकर्ताओं ने इन फेफड़ों में से वायरस के जीनोम के बड़े हिस्से को सफलतापूर्वक
अनुक्रमित किया है। इन आंशिक जीनोम्स में इस बात के सुराग मिले हैं कि शायद इस
फ्लू महामारी की दो लहरों के बीच यह वायरस मनुष्यों के साथ अनुकूलित हुआ होगा।
इसके अलावा शोधकर्ताओं ने 1918 में कभी जान गंवाने वाली म्यूनिश की एक महिला से
प्राप्त रोगजनक के पूरे जीनोम को भी अनुक्रमित किया है। यह रोगजनक वायरस का तीसरा
ऐसा जीनोम है और उत्तरी अमेरिका के बाहर का पहला। संग्रहालय में संरक्षित सामग्री
से आरएनए वायरस को पुनर्जीवित करने के ऐसे काम की पूर्व में सिर्फ कल्पना की जा
सकती थी।
गौरतलब है कि वर्तमान में जीनोम अनुक्रमण
एक नियमित कार्य हो गया है। कोरोनावायरस महामारी के दौरान शोधकर्ताओं द्वारा
सार्स-कोव-2 के 10 लाख से अधिक जीनोम का डैटाबेस एकत्रित किया गया है जिससे नए
संस्करणों निगरानी की जा सकी है। लेकिन 1918-19 में महामारी के लिए ज़िम्मेदार
एच1एन1 इन्फ्लुएंज़ा वायरस के बहुत कम अनुक्रमण उपलब्ध हैं।
इससे पहले 2000 के दशक में अमेरिका के कुछ
वैज्ञानिकों ने अलास्का की बर्फ में दफन एक महिला के शरीर से प्राप्त नमूनों से एक
पूरा जीनोम तैयार किया था। इसी तरह 2013 में आर्म्ड
फोर्सेस इंस्टीट्यूट ऑफ पैथोलॉजी में
संरक्षित नमूनों से अमेरिका के घातक फ्लू का दूसरा जीनोम पुनर्निर्मित किया गया। दोनों
ही प्रयास काफी श्रमसाध्य और महंगे थे।
इसी तरह के एक प्रयास में रॉबर्ट कोच
इंस्टीट्यूट के जीव वैज्ञानिक सेबेस्टियन कैल्विनैक और उनके सहयोगियों ने 1900 से
1931 के बीच बर्लिन के चिकित्सा संग्रहालय में संरक्षित फेफड़ों के ऊतकों के 13
नमूनों की जांच की। उनमें से तीन नमूनों में फ्लू वायरस के आरएनए मिले जो डेटिंग
करने पर 1918 के समय के पाए गए। गौरतलब है कि सार्स-कोव-2 की तरह इन्फ्लुएंज़ा
वायरस का जीनोम भी आरएनए आधारित था। आरएनए कई टुकड़ों में था लेकिन यह वायरस के
पूरे जीनोम को तैयार करने के लिए काफी था। यह एक 17 वर्ष की महिला का था और दोनों
सैनिकों में पाए गए जीनोम को 90 प्रतिशत और 60 प्रतिशत तक तैयार किया जा सका।
दो सैनिकों से प्राप्त आंशिक जीनोम महामारी
की पहली और हल्की लहर के समय के हैं जिसके बाद 1918 के अंत में इसने काफी गंभीर
रूप ले लिया था। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यह वायरस पक्षियों से उत्पन्न हुआ था
और पहली और दूसरी लहर के बीच मनुष्यों में बेहतर ढंग से अनुकूलित हो गया। इसका एक
कारण वायरस की सतह पर उपस्थित एक महत्वपूर्ण प्रोटीन हीमग्लूटिनिन के लिए
ज़िम्मेदार जीन हो सकता है। इसमें अमीनो अम्ल की अदला-बदली वाला उत्परिवर्तन हुआ
जिसमें पक्षियों के फ्लू वायरस में पाए जाने वाले एक अमीनो अम्ल ग्लायसिन की जगह
एस्पार्टिक अम्ल ने ले ली। यह एस्पार्टिक अम्ल मनुष्यों के वायरस की विशेषता होती
है। हालांकि, दोनों जर्मन अनुक्रमों में एस्पार्टिक अम्ल ऐसी स्थिति में
था जिससे यह बात संभव नहीं लगती।
फिर भी शोधकर्ताओं को वायरस के
न्यूक्लियोप्रोटीन के जीन में विकास के संकेत मिले हैं। वास्तव में
न्यूक्लियोप्रोटीन एक ऐसा प्रोटीन है जो यह निर्धारित करने में मदद करता है कि
वायरस किस प्रजाति को संक्रमित कर सकता है। 1918 की महामारी के अंत में पाए गए
दोनों फ्लू स्ट्रेन के जीन में दो ऐसे उत्परिवर्तन पाए गए जो इन्फ्लुएंज़ा को मानव
शरीर की प्राकृतिक एंटीवायरल सुरक्षा से बचने में मदद करते हैं। जर्मन सैनिकों से
प्राप्त अनुक्रम पक्षियों से मेल खाते हैं। कैल्विनैक के अनुसार महामारी के शुरुआती
महीनों में मानव प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया से खुद को बेहतर तरीके से बचाने के लिए
वायरस विकसित हुआ। इसी तरह महिला के फ्लू स्ट्रेन में भी पक्षियों के समान
न्यूक्लियोप्रोटीन पाए गए जबकि उसकी मृत्यु की अनिश्चित तारीख को देखते हुए
स्ट्रेन के विकास के बारे में कोई अधिक निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते।
महिला के पूर्ण जीनोम से अन्य सुराग मिले
हैं। शोधकर्ताओं ने इन जीन्स का उपयोग करते हुए वायरस के पॉलीमरेज़ कॉम्प्लेक्स को
पुनर्जीवित किया है। कोशिका कल्चर प्रयोगों में उन्होंने पाया कि म्यूनिश स्ट्रेन
का पॉलीमरेज़ कॉम्प्लेक्स अलास्का स्ट्रेन में पाए गए पॉलीमरेज़ कॉम्प्लेक्स से लगभग
आधा सक्रिय है।
इस अध्ययन में पूरा वायरस नहीं बनाया गया था इसलिए इसमें कोई भी सुरक्षा सम्बंधी चिंताएं नहीं हैं। फिर भी ये अध्ययन पैथोलॉजी के इन खज़ानों की महत्ता को दर्शाते हैं जो आने वाले समय में 1918 की महामारी के बारे में अधिक जानकारी दे सकते हैं। इसकी मदद से भविष्य की महामारियों को नियंत्रित करने में भी मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/1918flu_1280p2_0.jpg?itok=HO07cnNs
अस्सी पार के मेरे जैसे लोग तो कलाई पर घड़ी सिर्फ समय देखने
के लिए बांधते हैं, लेकिन आज के ‘फैशनपरस्त’ युवा आम तौर पर करीने से फटी हुई
जींस और कई सुविधाओं से लैस घड़ी पहनते हैं,
जो न केवल समय बताती
है बल्कि उनके लिए सही ट्वीट्स, फिल्में और आज का संगीत भी सुनाती हैं।
उनकी तुलना में मेरे जैसे लोग म्यूज़ियम में रखे जाने लायक नमूने हैं। लेकिन जब मैं
उनमें से कुछ अधिक ‘ज्ञानियों’ से यह पूछता हूं कि यह तकनीकी प्रगति कितने पहले
शुरू हुई थी, तो वे गर्व से बताते हैं कि दिल्ली में स्थित कुतुब मीनार
और उसका लौह स्तंभ, दोनों ही लौह युग के हैं।
आधुनिक मनुष्य
‘आधुनिक’ मनुष्य अपने अन्य होमिनिन
पूर्वजों के साथ लौह युग के बहुत पहले, लगभग तीन लाख साल पहले, से
पृथ्वी पर रह रहे हैं। लेकिन ये ‘अन्य’ लोग कौन थे?
इनमें से एक ‘अन्य’
मानव पूर्वज है ‘निएंडरथल’, जिनकी हड्डियां सबसे पहले जर्मनी के
डसेलडोर्फ के पूर्व में स्थित निएंडर घाटी में मिली थीं। इसलिए इन्हें ‘निएंडरथल’
कहा गया। ये होमिनिन लगभग 4,30,000 साल पहले पृथ्वी पर अस्तित्व में आए थे, लेकिन
होमो सेपियन्स के विपरीत इनका विकास (या फैलाव) अफ्रीका में नहीं हुआ।
प्रारंभिक मनुष्यों से पहली बार इनका सामना तब हुआ जब मनुष्य अफ्रीका से बाहर
निकले।
तब होमो सेपियन्स और इनके बीच
प्रतिस्पर्धा हुई या उनके बीच सहयोग का सम्बंध बना?
एशिया और युरोप के
जिन स्थानों पर इन दो प्रजातियों का आमना-समाना हुआ वहां के लोगों की आनुवंशिकी का
अध्ययन कर इन सवालों के जवाब पता लगे हैं। इस तरह के विश्लेषण करने की तकनीकें अब
तेज़ी से उन्नत होती जा रही हैं – इसके लिए अब ज़रूरत होती है सिर्फ हड्डी के एक
टुकड़े की, और दांत मिल जाए तो और भी अच्छा। विश्लेषण में, हड्डी
या दांत में छेद करके कुछ मिलीग्राम पाउडर निकाला जाता है और उस जंतु का डीएनए
प्राप्त किया जाता है। फिर उसे अनुक्रमित किया जाता है। कभी-कभी तो इन टुकड़ों की भी
आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि प्राचीन मनुष्यों के आवास स्थलों – जैसे गुफाओं – की
तलछट में ही विश्लेषण योग्य डीएनए मिल जाते हैं! आनुवंशिकी की सभी तकनीकी और
बौद्धिक प्रगति के पीछे स्वीडिश आनुवंशिकीविद स्वांते पाबो और जैव रसायनज्ञ
जोहानेस क्राउस का उल्लेखनीय योगदान है।
‘आधुनिक’ मनुष्य इन क्षेत्रों के स्थानीय
लोगों के साथ अंतर-जनन करते थे। साइंस पत्रिका के 9 अप्रैल के अंक में
प्रकाशित लेख, निएंडरथल से आधुनिक मनुष्य कब संपर्क में आए, में
डॉ. एन गिब्स बताती हैं कि हाल ही में इस अंतर-जनन से जन्मी संकर संतान की जांघ की
हड्डी प्राप्त हुई है। प्राप्त नमूनों के हालिया आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला है
कि बुल्गारिया की बाचो किरो गुफा में निएंडरथल पहले आए थे (50,000 साल से भी पहले)
और वहां वे अपने पत्थरों के औजार छोड़ गए थे। इसके बाद आधुनिक मानव दो अलग-अलग
समयों पर, लगभग 45,000 पहले और 36,000 साल पहले, वहां
आकर रहे, और गुफा में मनके और पत्थर छोड़ गए। 45,000 साल पूर्व इस
गुफा में रहने वाले तीन मानव नरों के जीनोम डैटा से पता चलता है कि तीनों की कुछ
ही पीढ़ियों पूर्व निएंडरथल इनकी वंशावली में शामिल थे। इससे स्पष्ट रूप से पता
चलता है कि इस क्षेत्र में आधुनिक मनुष्य ने वहां के स्थानीय लोगों के साथ
अंतर-जनन किया था, और निएंडरथल और आधुनिक मनुष्य का एक संकर समूह बना था। इस
संकर समूह में निएंडरथल की विरासत 3.4 प्रतिशत से 3.8 प्रतिशत के बीच थी, (आधुनिक
गैर-अफ्रीकियों में यह विरासत लगभग 2 प्रतिशत है)। यह विरासत गुणसूत्र खंड के
लंबे-लंबे टुकड़ों के रूप में है, जो प्रत्येक अगली पीढ़ी में छोटे होते जाते
हैं। इन टुकड़ों की लंबाई को मापकर यह अनुमान लगाया गया कि निएंडरथल 6-7 पीढ़ी पहले
उक्त तीनों के पूर्वज रहे होंगे।
एक अन्य अध्ययन में चेक गणराज्य में ज़्लेटी
कुन पहाड़ी से लगभग साबुत मिली एक स्त्री की खोपड़ी,
जो लगभग उतनी ही
पुरानी है जितनी बाचो किरो से मिले तीन व्यक्तियों के अवशेष, के
विश्लेषण में पता चलता है कि लगभग 70 पीढ़ियों (2000 साल) पूर्व निएंडरथल उसके
पूर्वज थे।
इन चारों की आनुवंशिक वंशावली का अध्ययन
थोड़ा अचंभित करता है कि वर्तमान युरोपीय लोगों में उनके कोई चिंह नहीं मिलते।
हालांकि वे वर्तमान के पूर्वी-एशियाई लोगों और मूल अमरीकियों के सम्बंधी हैं। इन
युरेशियन गुफा वासियों के वंशज पूर्व की ओर पलायन कर गए,
हिम-युगीन बेरिंग
जलडमरूमध्य को पार करने की कठिनाई झेली और अमेरिका की वीज़ा-मुक्त यात्रा का आनंद
लिया।
इसके बाद आगे के अध्ययनों में निएंडरथल के जीनोम की आधुनिक मनुष्य के साथ तुलना की गई, जिसमें दोनों के डीएनए अनुक्रमों में आनुवंशिक परिवर्तन दिखे। आधुनिक मनुष्य में निएंडरथल से विरासत में मिले गुणसूत्र के खंड घटकर दो प्रतिशत रह गए, लेकिन विरासत में मिले इन नए जींस ने मनुष्यों को क्या लाभ पहुंचाए? इस विरासत की वजह से मनुष्य 4 लाख साल पूर्व ठंडे क्षेत्रों में रहने के लिए अनुकूलित हुआ। निएंडरथल ने हमें अफ्रीकी मनुष्यों से हटकर ठंड के अनुकूल त्वचा और बालों के रंग में भिन्नताएं दीं। इसके साथ ही, अनुकूली चयापचय और प्रतिरक्षा भी दी जिसने नए खाद्य स्रोतों और रोगजनकों के साथ बेहतर तालमेल बैठाने में मदद दी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/3xkzy9/article34678436.ece/ALTERNATES/FREE_660/30TH-SCINEAN-SKULL
इन दिनों फफूंद के बड़े चर्चे हैं। ब्लैक फंगस, वाइट
फंगस और फिर येलो फंगस। वैसे ये फफूंदें तो सहस्राब्दियों से हमारे साथ रहती आई
हैं और रहेंगी। कभी दोस्त तो कभी दुश्मन बन कर।
अनुमान के मुताबिक हमारे आसपास फफूंद की
15-50 लाख तक प्रजातियां हो सकती हैं। इनमें से अधिकांश मृतजीवी हैं (मृत, सड़ते-गलते
जीवों से भोजन प्राप्त करती हैं)। इनमें से कुछ ही मानव में बीमारी फैलाने के लिए
ज़िम्मेदार मानी गई हैं। पृथ्वी पर हमारे सहित सभी जीव-जंतु फफूंदों के साथ-साथ
विकसित हुए हैं। मानव का प्रतिरक्षा तंत्र भी इनके साथ विकसित हुआ है। अत: इनके
संक्रामक होने की संभावना बहुत कम होती है।
काली फफूंद के बीजाणु सांस के साथ, खाने
के साथ या फिर त्वचा के द्वारा प्रवेश करते हैं। ये बीजाणु ही रोग का कारण होते
हैं।
फफूंद ऐसे जीव हैं जो न तो पेड़-पौधों से
मेल खाते हैं न जंतुओं से। ये बैक्टीरिया भी नहीं हैं। ये तो अलग ही किस्म के जीव
हैं। इन्हें हम कुकुरमुत्ता, टोडस्टूल या यह खमीर जैसे नामों से जानते
हैं। इनकी उत्पत्ति, रचना, व्यवहार एवं प्रजनन आदि के तरीके लंबे समय
तक रहस्य और रोमांच के आवरण में ढंके रहे। कई किंवदंतियां जुड़ी हैं इनकी उत्पत्ति
से। जैसे कूड़े के ढेर पर कुत्ता पेशाब कर दे तो कुकुरमुत्ते उगते हैं।
इनमें पौधों की तरह न जड़ होती है न तना, पत्ती
या फूल। जंतुओं की तरह इनमें हाथ-पैर, सिर वगैरह भी नहीं है। और तो और, ये
पौधों की तरह अपना भोजन स्वयं नहीं बनाते हैं। और न ही जंतुओं की तरह चरते-कुतरते
हैं। इसके बावजूद भी ये दूर-दूर तक फैले हुए हैं। कुछ ज़मीन पर उगते हैं तो कुछ पानी
में मिलते हैं। कुछ पेड़-पौधों की पत्तियों,
तनों, जड़ों
और फलों पर अपना डेरा जमाते हैं तो कुछ हमारे जैसे जंतुओं की त्वचा पर। डैंड्रफ
यानी रूसी भी एक तरह की फफूंद है। तरह-तरह के फफूंद नाशक इनका सफाया नहीं कर पाते।
हां, यह अलग बात है डैंड्रफ हटाने के चक्कर में हमारी जेबें ज़रूर
साफ होती रहती हैं। खुजली, दाद और एग्ज़ीमा का कारण भी फफूंद ही हैं।
ये भोजन कहां से पाती हैं?
सड़ी-गली लकड़ियों और बरसात में घूरे पर उगी
काली, सफेद, भूरी छतरियां,
कार्टून कथाओं के
मेंढक के छाते, ज़मीन पर उगी पफ बॉल्स तथा अर्थस्टार्स सब इनके ही विभिन्न
रूप हैं। इन सबकी एक ही खासियत है कि ये हरे नहीं होते यानी क्लोरोफिल इनमें नहीं
होता। परिणामस्वरूप ये अपना भोजन नहीं बना पाते। मगर जीने के लिए तो भोजन ज़रूरी
है।
लिहाज़ा, अधिकांश फफूंद मृतजीवी हैं। कुछ ऐसी भी हैं जो पहले किसी जीते-जागते जीव से परजीवी की तरह भोजन लेती रहती हैं और फिर उसके मर जाने पर भी उनका पीछा नहीं छोड़ती हैं – जीवन के साथ भी, जीवन के बाद भी। ऐसी फफूंद विकल्पी परजीवी कहलाती हैं। कुछ फफूंदों ने भोजन चुराने का रास्ता भी अपनाया है, अमरबेल के समान। कुछ फफूंद इससे उलट भी होती हैं – वे यूं तो मृतजीवी होती हैं, परंतु मौका मिलते ही परजीवी बन जाती हैं। ब्लैक फंगस इसी मौकापरस्त श्रेणी में आती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://en.gaonconnection.com/wp-content/uploads/2021/05/Yellow-fungus.jpg
यह तो सब जानते हैं कि सख्तजान टार्डिग्रेड्स बहुत अधिक ठंड
और गर्मी दोनों बर्दाश्त कर सकते हैं। वे निर्वात में जीवित रह सकते हैं और
हानिकारक विकिरण भी झेल जाते हैं। और अब, शोधकर्ताओं ने पाया है कि टार्डिग्रेड्स
ज़ोरदार टक्कर भी झेल लेते हैं, लेकिन एक सीमा तक। यह अध्ययन टार्डिग्रेड
द्वारा अंतरिक्ष की टक्करों को झेल कर जीवित बच निकलने की उनकी क्षमता और अन्य
ग्रहों पर जीवन के स्थानांतरण में उनकी भूमिका की सीमाएं दर्शाता है।
2019 में इस्राइली चंद्र मिशन, बेरेशीट, दुर्घटनाग्रस्त
हो गया था। इस इस्राइली यान के साथ गुपचुप तरीके से चांद पर सूक्ष्मजीव
टार्डिग्रेड्स (जलीय भालू, साइज़ करीब 1.5 मि.मी.) भेजे गए थे। लेकिन
चांद पर उतरते वक्त लैंडर और साथ में उसकी सारी सवारियां दुर्घटनाग्रस्त हो गर्इं।
टार्डिग्रेड्स चांद पर यहां-वहां बिखरे और यह चिंता पैदा हो गई कि वे वहां के
वातावरण में फैल गए होंगे। इसलिए क्वीन मेरी युनिवर्सिटी की अलेजांड्रा ट्रेस्पस
जानना चाहती थीं कि क्या टार्डिग्रेड्स इतनी ज़ोरदार टक्कर झेल कर जीवित बचे होंगे?
यह जानने के लिए उनकी टीम ने लगभग 20
टार्डिग्रेड्स को अच्छे से खिला-पिलाकर फ्रीज़ करके शीतनिद्रा की अवस्था में पहुंचा
दिया, जिसमें उनकी चयापचय गतिविधि की दर महज़ 0.1 प्रतिशत रह गई।
फिर,
उन्होंने नायलॉन की
एक खोखली बुलेट में एक बार में दो से चार टार्डिग्रेड भरे और गैस गन से उन्हें कुछ
मीटर दूरी पर स्थित एक रेतीले लक्ष्य पर दागा। यह गन पारंपरिक बंदूकों की तुलना
में कहीं अधिक वेग से गोली दाग सकती है। एस्ट्रोबायोलॉजी में प्रकाशित
नतीजों के अनुसार टार्डिग्रेड लगभग 900 मीटर प्रति सेकंड (लगभग 3000 किलोमीटर
प्रति घंटे) तक की टक्कर के बाद जीवित रह सके,
और 1.14 गीगापास्कल
तक की ज़ोरदार टक्कर सहन कर गए। इससे तेज़ टक्कर होने पर उनका कचूमर निकल गया था।
तो बेरेशीट के दुर्घटनाग्रस्त होने पर
टार्डिग्रेड्स जीवित नहीं बचे होंगे। हालांकि लैंडर कुछ सैकड़ा मीटर प्रति सेकंड की
रफ्तार पर टकराया था, लेकिन टक्कर इतनी ज़ोरदार थी कि इससे 1.14 गीगापास्कल से
कहीं अधिक तेज़ झटका पैदा हुआ होगा, जो कि टार्डिग्रेड की सहनशक्ति से अधिक रहा
होगा।
ये नतीजे पैनस्पर्मिया सिद्धांत को भी
सीमित करते हैं, जो कहता है कि किसी उल्कापिंड या क्षुद्रग्रह की टक्कर के
साथ जीवन किसी अन्य ग्रह पर पहुंच सकता है। ऐसी टक्कर से उल्का पिंड में उपस्थित
जीवन भी प्रभावित या नष्ट होगा। यानी किसी उल्कापिंड के साथ पृथ्वी पर जीवन आने
(पैनस्पर्मिया) की संभावना कम है। कम से कम जटिल बहु-कोशिकीय जीवों का इस तरह
स्थानांतरण आसानी से संभव नहीं है।
वैसे ट्रैस्पस का कहना है कि स्थानांतरण
भले ‘मुश्किल’ हो, लेकिन असंभव भी नहीं है। पृथ्वी से उल्कापिंड आम तौर पर 11
किलोमीटर प्रति सेकंड से अधिक की रफ्तार से टकराते हैं;
मंगल पर 8 किलोमीटर
प्रति सेकंड की रफ्तार से। ये टार्डिग्रेड्स की सहनशक्ति से कहीं अधिक हैं। लेकिन
पृथ्वी या मंगल पर कहीं-कहीं उल्कापिंड की टक्कर कम वेग से भी होती है, जिसे
टार्डिग्रेड बर्दाश्त कर सकते हैं।
इसके अलावा, पृथ्वी से टक्कर के बाद चट्टानों के जो छोटे टुकड़े चंद्रमा की तरफ उछलते हैं, उनमें से लगभग 40 प्रतिशत की रफ्तार इतनी धीमी होती है कि टार्डिग्रेड जीवित रह सकें। यानी सैद्धांतिक रूप से यह संभव है कि पृथ्वी से चंद्रमा पर जीवन सुरक्षित पहुंच सकता है। कुछ सूक्ष्मजीव 5000 मीटर प्रति सेकंड का वेग झेल सकते हैं। उनके जीवित रहने की संभावना और भी अधिक है। (स्रोत फीचर्स)
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कोविड-19 महामारी ने यह तथ्य पुख्ता किया है कि जब तक सभी लोग
सुरक्षित नहीं होंगे तब तक इस महामारी से कोई भी सुरक्षित नहीं होगा। मार्च 2021
के दूसरे पखवाड़े में दुनिया भर के समाचार पत्रों में एक संयुक्त पत्र प्रकाशित हुआ
था, जिसमें दुनिया भर के नेताओं ने भविष्य में होने वाले
प्रकोपों के समय आपसी सहयोग और पारदर्शिता में सुधार के लिए एक महामारी संधि का
आह्वान किया है। उनका कहना है कि कोविड-19 महामारी ने वैश्विक समुदाय के सामने
सबसे बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है।
इस संधि पर हस्ताक्षर करने वालों में यूके
के प्रधान मंत्री बोरिस जॉनसन, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और
जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल जैसी हस्तियों समेत युरोप,
अफ्रीका, दक्षिण
अफ्रीका और एशिया के 20 से अधिक देशों के नेता व अधिकारी शामिल हैं।
भविष्य की महामारियों से निपटने के लिए इस
संधि की शुरुआत करने वाले विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के महानिदेशक टेडरोस
एडेनॉम गेब्रोयेसस और युरोपीय परिषद के अध्यक्ष चार्ल्स माइकल ने भी इस
अंतर्राष्ट्रीय समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इसके अलावा अल्बेनिया, चिली, कोस्टा
रिका, युरोपीय परिषद, फीजी,
फ्रांस, जर्मनी, ग्रीस, इंडोनेशिया, इटली, नार्वे, पुर्तगाल, कोरिया
गणराज्य, रोमानिया, रवांडा,
सेनेगल, दक्षिण
अफ्रीका, स्पेन, थाईलैंड,
त्रिनिदाद व टोबैगो, ट्यूनीशिया, युनाइटेड
किंगडम और युक्रेन के नेताओं ने भी इस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए हैं।
खास बात यह है कि इस महामारी के दौरान जिन
दो देशों – चीन और अमेरिका – के बीच पारदर्शिता में कमी,
(कु)प्रचार करने और
गलत सूचनाओं के प्रसार को लेकर तनातनी रही,
वे ही देश इस सूची से
गायब हैं। जब इस संधि के प्रस्तावक और हस्ताक्षरकर्ता,
गेब्रोयेसस से
अमेरिका और चीन की इस संधि से अनुपस्थिति के बारे में पूछा गया तो उन्होंने यह आश्वासन
दिया कि इस संधि पर अमेरिका और चीन की प्रतिक्रिया ‘सकारात्मक’ है, लेकिन
उन्होंने इस बात की पुष्टि नहीं की कि अमेरिका और चीन (साथ ही रूस और अन्य
उल्लेखनीय अनुपस्थित देश) इसमें शामिल होंगे या नहीं।
संधि व पत्र क्या कहते हैं?
वैश्विक नेताओं ने इस पत्र से उम्मीद जगाई
है। पत्र में लिखा है कि ‘एक अधिक मज़बूत अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य ढांचा बनाया जा
सकता है जो भावी पीढ़ी को अधिक सुरक्षित कर सकता है।’
‘भविष्य में दुनिया में और भी अन्य
महामारियां और गंभीर स्वास्थ्य संकट आएंगे। और कोई भी राष्ट्रीय सरकार या संघ
अकेले इन मुश्किलों का सामना नहीं कर सकता। और यह तो वक्त बताएगा कि यह ज़रूरत कब
पड़ेगी।’
इस संधि का उद्देश्य राष्ट्रीय, क्षेत्रीय
और वैश्विक क्षमताओं को मज़बूत करना है और भविष्य की महामारियों के प्रति लचीलापन
बनाना है। यह उद्देश्य डब्ल्यूएचओ के उद्देश्य से मेल खाता है जो मानता है कि विश्व
के हरेक व्यक्ति को बेहतर स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध हो।
पारदर्शिता इस अंतर्राष्ट्रीय महामारी संधि
के मुख्य बिंदुओं में से एक है। देखा गया है कि कोविड-19 महामारी के दौरान
पारदर्शिता में कमी लगातार एक डर पैदा करती रही।
यूके पहले ही कह चुका है कि वह एक नई
स्वास्थ्य सुरक्षा एजेंसी शुरू करेगा जो यह सुनिश्चित करेगी कि देश किसी भी भावी
महामारी से निपटने के लिए तैयार रहे। चूंकि हाल ही में टीकों की आपूर्ति और वितरण
देशों के बीच कटुता का नवीन स्रोत बनकर उभरा है,
इसलिए यह संधि
महामारी के दौरान अंतर्राष्ट्रीय सहयोग पर भी केंद्रित होगी। अंतर्राष्ट्रीय
महामारी संधि का आह्वान करने वाले अंतर्राष्ट्रीय नेताओं का कहना है कि संधि का
मुख्य उद्देश्य ‘राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और वैश्विक क्षमताओं को मज़बूत
करने वाले और भावी महामारियों के प्रति लचीलापन बनाने वाले राष्ट्रव्यापी व
सामाजिक तरीकों को बढ़ावा देना है।’
अंतर्राष्ट्रीय महामारी संधि का आगाज़ करने
वाले नेताओं को लगता है कि यह संधि चेतावनी प्रणाली को बेहतर करने में सहयोग
बढ़ाएगी। संधि इसमें शामिल राष्ट्रों के साथ डैटा साझा करने और अनुसंधान करने की
बात भी कहती है। इसमें स्थानीय, क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर टीके व
सार्वजनिक स्वास्थ्य विकास, और जन स्वास्थ्य सामग्री (जैसे टीके, दवाइयां, नैदानिक
उपकरण और व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण) की वितरण युक्तियों का भी उल्लेख किया गया है।
संधि में उतनी ही महत्वपूर्ण बात यह भी है
कि यह संधि हस्ताक्षरकर्ता देशों के बीच ‘पारदर्शिता,
सहयोग और ज़िम्मेदारी’
बढ़ाएगी। यही बात नेताओं ने भी अपने पत्र में कही है: ‘यह संधि अपने नियमों और
मानदंडों के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर परस्पर दायित्व और साझा ज़िम्मेदारी, पारदर्शिता
और सहयोग को बढ़ावा देगी।’
संधि के हस्ताक्षरकर्ताओं का कहना है कि
‘इन उद्देश्य की पूर्ति के लिए हम दुनिया भर के नेताओं और सभी हितधारकों समेत
समुदाय और निजी क्षेत्रों के साथ भी काम करेंगे। देश,
सरकार और
अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के प्रमुख होने के नाते यह सुनिश्चित करना हमारी
ज़िम्मेदारी है कि दुनिया कोविड-19 महामारी से सबक सीखे।’
अंतर्राष्ट्रीय महामारी संधि अपना स्वरूप
ले रही है, और अधिक से अधिक देशों के प्रतिनिधि महामारी के खिलाफ
दुनिया को एकजुट करने के लिए इसमें शामिल हो रहे हैं। ऐसे में सात औद्योगिक देशों
के समूह (जी-7) से उम्मीद है कि जून में यूके में होने वाले शिखर सम्मेलन में वे
महामारी संधि के विचार को समझें।
संधि के संभावित परिणाम
यह तंत्र इसलिए बनाया जा रहा है ताकि भावी
महामारियों से बेहतर ढंग से निपटने में हस्ताक्षरकर्ता देश एक-दूसरे को तैयार
करें। यदि यह संधि अस्तित्व में आती है तो इसके परिणाम कुछ इस प्रकार हो सकते हैं
–
डैटा साझा करने और साझा अनुसंधान करने से महामारियों के
खिलाफ सुरक्षा उपाय जल्द पता किए जा सकेंगे,
क्योंकि ऐसा करने से
एक ही समस्या पर न सिर्फ अधिक लोग काम कर रहे होंगे बल्कि वे एक-दूसरे के साथ
मिलकर काम कर रहे होंगे।
कुछ देशों के पास टीके बनाने के लिए ज़रूरी कच्चा माल
बहुतायत में उपलब्ध है, जबकि कुछ देशों को अपने टीके बनाने के लिए इसे आयात करना
पड़ता है। इसलिए देशों के बीच संसाधनों की साझेदारी से टीकों और दवाइयों का तेज़ी से
निर्माण किया जा सकेगा।
भविष्य में महामारी का सामना करके देश समन्वित तरह से श्रम
विभाजन कर सकेंगे, जिससे वे अपनी विशेषज्ञता के अनुसार स्वास्थ्य सेवा
सामग्रियों का निर्माण कर सकेंगे और इन सामग्रियों और सुविधाओं की एक विस्तृत
आपूर्ति शृंखला स्थापित कर सकेंगे। जो एक अकेले राष्ट्र या संगठन द्वारा हासिल करना
संभव नहीं है।
चूंकि इस संधि के तहत देश एक-दूसरे की मदद करेंगे और ऐसे
कार्यों से राष्ट्रों के बीच सद्भावना बनेगी,
नतीजतन यह संधि देशों
के बीच बेहतर सम्बंध बना सकेगी।
चूंकि संधि के सदस्य इसमें शामिल अन्य सदस्यों से चिकित्सा
उपकरणों की सहायता मांग सकते हैं, इसलिए इससे किसी भी राष्ट्र के लिए
चिकित्सा सुविधाओं की उपलब्धता बढ़ जाएगी। यह किसी देश को सिर्फ अपनी स्वास्थ्य
सुविधाओं के साथ महामारी से अकेले जूझने की तुलना में अधिक मददगार साबित होगा।
महामारी से यदि कुछ देशों की अर्थव्यवस्था गड़बड़ाती है, तो
इस संधि के तहत हस्ताक्षरकर्ता देशों के बीच होने वाले लेन-देन के कारण कुछ हद तक
उन देशों का आर्थिक विकास भी हो सकेगा। इस तरह के लेन-देन सुरक्षात्मक उपकरण, चिकित्सा
संसाधन, कच्चे माल आदि की आपूर्ति करने वाले देशों को राजस्व देंगे।
निष्कर्ष
दुनिया भर के नेताओं द्वारा ज़रूरत के वक्त एक दूसरे की मदद करने का आह्वान, अंतर्राष्ट्रीय महामारी संधि, काफी अच्छा विचार है। महामारी को हराने और जान-माल के नुकसान को कम करने के लिए एकजुट होकर काम करना एक अच्छा विचार है, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि संधि कैसी होगी। अमेरिका, चीन और रूस ने संधि पर हस्ताक्षर क्यों नहीं किए, यह सवाल अभी भी अनुत्तरित है। जी-7 शिखर सम्मेलन होने ही वाला है। इसलिए जब तक इन सवालों के जवाब स्पष्ट नहीं हो जाते और संधि एक ठोस रूप और ढांचा अख्तियार नहीं करने लगती, तब तक यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि वास्तव में इस संधि से लोगों को कोविड-19 और भविष्य में आने वाली महामारियों के दौरान लाभ मिलेगा या नहीं। आशावादी होना और बेहतर की कामना करना अच्छा है, लेकिन सभी की समस्याओं को हल करने के लिए एक ही संधि से आस बांधना भी व्यावहारिक नहीं है। इस तरह की संधि यकीनन सही दिशा में एक कदम है और मौजूदा हालात में यह आशाजनक ही लग रही है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.consilium.europa.eu/media/49751/10-points-infographic-pandemics-treaty-thumbnail-2021.png
वयोवृद्ध पर्यावरणविद और चिपको आंदोलन के अग्रणी सुंदरलाल
बहुगुणा का 21 मई को 94 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। इसके दो हफ्ते पहले उन्हें
कोविड-19 के चलते ऋषिकेश के एक अस्पताल में भर्ती किया गया था। जंगलों और नदियों
को बचाने के उनके प्रयासों और मानव कल्याण में उनके महान योगदान के लिए उन्हें
हमेशा याद किया जाएगा।
उनका जन्म टिहरी गढ़वाल में गंगा किनारे एक गांव में हुआ था। जब वे स्कूली
छात्र थे तब उनकी मुलाकात प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी श्रीदेव सुमन से हुई, जिन्होंने आगे चलकर कारावास के दौरान अपने जीवन का बलिदान कर दिया था। समाज के
प्रति समर्पित उनके जीवन से बहुगुणा जी प्रेरित हुए और उन्होंने सुमन जी का अनुसरण
करने का फैसला किया। वे गोपनीय ढंग से सुमन जी से सम्बंधित खबरें भेजने लगे, जिसके कारण उन्हें पुलिसिया कार्रवाई का सामना करना पड़ा। बचने के लिए वे लाहौर
चले गए,
लेकिन जब टिहरी साम्राज्य में स्वतंत्रता आंदोलन चरम पर था
तब वे लौट आए।
पहले तो उन्हें टिहरी में प्रवेश नहीं करने दिया गया, लेकिन
किसी तरह वे संघर्षों में शामिल हुए और आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
आज़ादी के बाद उन्होंने खुद को विभिन्न सामाजिक उद्देश्यों के लिए समर्पित कर
दिया। अपनी निर्विवाद ईमानदारी और गहन समर्पण भाव के कारण उस समय वे गढ़वाल के
सामाजिक-राजनीतिक दुनिया के उभरते हुए सितारे थे। उन्हें विमला नौटियाल जी के पिता
की ओर से शादी का प्रस्ताव आया, लेकिन विमला जी तब तक सामाजिक
कार्यकर्ता और स्वतंत्रता सेनानी सरला बहन की शिष्या बन गर्इं थी और राजनीति की
चमक-दमक से दूर ग्रामीणों की सेवा के प्रति समर्पित थीं। उन्होंने सुंदरलाल जी के
सामने यह शर्त रखी कि वे उनसे शादी तभी करेंगी जब वे राजनीति की चमक-दमक छोड़ उनके
साथ दूर-दराज़ के ग्रामीण क्षेत्र में लोगों की सेवा करने के लिए राज़ी होंगे।
सुंदरलाल जी इस बात पर राज़ी हो गए। शादी के बाद वे दोनों घनसाली के पास स्थित
सिलयारा गांव में ग्रामीणों की सेवा करने के लिए बस गए। यह गांव बालगंगा नदी के
निकट था। वहां उन्होंने सिलयारा आश्रम बसाया, जो
सामाजिक गतिविधियों का प्रशिक्षण केंद्र बना। दोनों ने ही दृढ़ता से महात्मा गांधी
को अपना मुख्य शिक्षक और प्रेरणा स्रोत माना।
चीन के आक्रमण के बाद गांधीवादी विनोबा भावे ने हिमालयी क्षेत्र में गांधीवादी
सामाजिक कार्यकर्ताओं से व्यापक स्तर पर सामाजिक कार्य करने का आह्वान किया था। तब
विमला जी की सहमति से वे उत्तराखंड के कई हिस्सों, खासकर
गढ़वाली क्षेत्र में अधिक यात्राएं करने लगे और आश्रम की बागडोर विमला जी ने संभाल
ली। इन यात्राओं से सामाजिक और पर्यावरणीय सरोकारों में उनकी भागीदारी बढ़ी।
सुंदरलाल जी और विमला जी दोनों ही ने शराब विरोधी आंदोलनों और अस्पृश्यता को
चुनौती देने वाले दलित आंदोलनों में भाग लिया। इस दौरान हेंवलघाटी जैसे क्षेत्र
में कई युवा कार्यकर्ताओं के साथ उनके प्रगाढ़ सम्बंध बने। सत्तर के दशक के अंत में
अद्वानी और सालेट जैसे जंगलों को बचाने के लिए हेंवलघाटी क्षेत्र में चिपको आंदोलन
की शुरुआत की गई,
जिसने लोगों में बहुत उत्साह पैदा किया। यह आंदोलन कांगर और
बडियारगढ़ जैसे सुदूर जंगलों तक भी फैला, जहां सुंदरलाल बहुगुणा
ने बहुत कठिन परिस्थितियों में घने वन क्षेत्र में लंबे समय तक उपवास किया। साथ ही
साथ उन्होंने सरकार के वरिष्ठ लोगों के साथ संवाद बनाए रखा। खासकर, प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के मन में उनके लिए बहुत सम्मान था। उनके
प्रयासों से बहुत बड़ी सफलता हासिल हुई – सरकार हिमालय क्षेत्र के एक बड़े इलाके में
पेड़ों की कटाई रोकने के लिए तैयार हो गई।
इस सफलता के बाद उन्होंने जंगलों और पर्यावरण को बचाने में लोगों की भागीदारी
का संदेश फैलाने के लिए भूटान और नेपाल सहित कश्मीर से लेकर कोहिमा तक हिमालयी
क्षेत्र के एक बड़े हिस्से की बहुत लंबी और कठिन यात्रा की। कई चरणों में की गई इस
यात्रा के दौरान उनकी जान पर कई बार खतरे आए, लेकिन
वे रुके नहीं और अपनी यात्रा पूरी की।
उन्होंने पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ टिकाऊ आजीविका की सुरक्षा पर भी ज़ोर
दिया। उन्होंने विस्थापन का पुरज़ोर विरोध किया और वन श्रमिकों को संगठित किया।
उन्होंने कई रचनात्मक कार्य भी किए। जैसे, खत्म
होते जंगलों को पुर्नजीवित करना और जैविक/प्राकृतिक/पारंपरिक खेती को बढ़ावा देना।
जल्द ही वे हिमालयी क्षेत्र में बांध परियोजनाओं द्वारा होने वाली सामाजिक और
पर्यावरणीय हानि को रोकने के आंदोलन में गहन रूप से जुड़ गए, खासकर विशाल और अत्यधिक विवादास्पद टिहरी बांध परियोजना विरोधी आंदोलन से।
उच्च-स्तरीय आधिकारिक रिपोर्टों द्वारा इसके हानिकारक प्रभावों की पुष्टि किए जाने
के बावजूद इस परियोजना को बढ़ावा दिया जा रहा था। यह उनका यह बहुत लंबा और कठिन
संघर्ष रहा। सुंदरलाल बहुगुणा ने अपना आश्रम छोड़ दिया और विमला जी के साथ कई
महीनों तक गंगा नदी के तट पर डेरा डाले रहे।
भले ही उनका यह लंबा संघर्ष उच्च जोखिम वाले बांध बनने से न रोक सका, लेकिन बेशक उनके इस संघर्ष ने इन महत्वपूर्ण मुद्दों के प्रति दूर-दूर तक
जागरूकता फैलाई।
सुंदरलाल बहुगुणा जी भारत के कई हिस्सों और यहां तक कि विदेशों में भी वन
संरक्षण और पर्यावरण संघर्ष के एक प्रेरणा स्रोत बन कर उभरे। जैसे, पश्चिमी घाट क्षेत्र के वनों को बचाने के लिए छेड़े गए अप्पिको आंदोलन के वे एक
महत्वपूर्ण प्रेरणा स्रोत थे। उन्हें महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में
आमंत्रित किया गया और पर्यावरणीय मुद्दों पर व्यापक तौर पर उनकी राय ली गई। उन्हें
पद्मविभूषण सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा गया।
अपनी आजीविका के लिए उन्होंने आजीवन हिंदी और अंग्रेज़ी में अंशकालिक पत्रकार
और लेखक के रूप में काम किया। उनके साक्षात्कारों के अलावा उनके लेख और रिपोर्ट कई
प्रमुख समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। विमला जी ने मुझे बताया
कि उनके पूर्व में प्रकाशित लेखन के कम से कम दो संग्रह छपकर आने वाले हैं।
उन्होंने भूदान आंदोलन और हिमालयी क्षेत्र में टिकाऊ आजीविका और पर्यावरण
संरक्षण के संयोजन के साथ एक वैकल्पिक विकास रणनीति विकसित करने जैसे कई रचनात्मक
कार्यों में योगदान दिया।
उन्होंने अपने जीवन के आखिरी दिन देहरादून में अपनी बेटी के घर बिताए। पिछले
वर्ष जब मैंने सुंदरलाल जी और विमला जी की जीवनी लिखी, और
अपनी पत्नी मधु के साथ उन्हें यह पुस्तक भेंट करने के लिए देहरादून गया तो वे
कमज़ोर होने के बावजूद बातचीत करने के लिए बड़े उत्सुक और खुश थे। उनकी बेटी माधुरी
और विमला जी द्वारा उनकी बहुत देखभाल की जा रही थी।
यहां यह भी याद रखना महत्वपूर्ण होगा कि सत्तर सालों के साथ के दौरान उनकी पत्नी विमला जी ने उनके सभी प्रयासों में साथ और योगदान दिया। वे सभी संघर्षों, बाधाओं और उपलब्धियों में हमेशा साथ रहे। वे अपने पीछे विमला जी और एक बेटी माधुरी और दो बेटे राजीव और प्रदीप छोड़ गए हैं। पर्यावरण संरक्षण और लोगों की टिकाऊ आजीविका के लिए काम करते रहना ही उनके लिए हमारी सबसे अच्छी श्रद्धांजलि होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://spiderimg.amarujala.com/assets/images/2021/05/21/750×506/sundarlal_1621583639.jpeg
प्रतिरक्षा तंत्र बेतरतीबी से निर्मित खजाने से कैसे काम चलाता है?
प्रतिरक्षा तंत्र यह कैसे सुनिश्चित करता है कि पहचान के लिए
जो चाभियां वह बना रहा है, वे किसी गलत ताले को नहीं
खोलेंगी और खुद ही बीमारी का कारण नहीं बन जाएंगी?
ज़ाहिर है कि यदि प्रतिरक्षा तंत्र को इस तरह तैयार किया गया है कि वह जिन
लक्ष्यों को पहचाने उनके खिलाफ ज़ोरदार कार्रवाई करे, तो हम
यह तो नहीं चाहेंगे कि वह किसी ऐसी चीज़ को लक्ष्य के रूप में पहचान ले जिसकी हमें
ज़रूरत है,
जैसे हमारी लिवर की कोशिकाएं। लेकिन हमने कहा था कि विकसित
होता प्रतिरक्षा खजाना तो मूलत: बेतरतीब होता है। इसलिए यह संभावना रहती ही है कि
उसमें ऐसे ग्राही तैयार हो जाएंगे जो हमारे अपने शरीर के सामान्य हिस्सों यानी
‘स्व’ को लक्ष्य के रूप में पहचान लेंगे।
अब चूंकि हम ग्राही-निर्माण प्रणाली की बेतरतीब व्यवस्था को गंवाना नहीं चाहते, इसलिए हम इस समस्या में उलझ जाते हैं कि ऐसी बी तथा टी कोशिकाएं बन जाएंगी जो
स्व-पहचान ग्राहियों से लैस होंगी। यदि हम ऐसी कोशिकाओं को बनने से रोक नहीं सकते, तो हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि बनने के बाद उन्हें ठप कर दिया जाएगा। इसके
लिए पहली ज़रूरी बात यह होगी कि उन कोशिकाओं को पहचाना जाए जिन पर ऐसे ग्राही हैं, जो अपने शरीर के किसी घटक को पहचानते हों। इसके बाद किसी युक्ति से उन्हें ठप
करना होगा। प्रतिरक्षा विज्ञान की अत्यंत प्रतिष्ठित ‘मूलभूत मान्यता’ यह है कि
प्रतिरक्षा तंत्र ‘अपने’ और ‘पराए’ में भेद करता है। यह काम छंटाई जैसी साधारण
प्रक्रियाओं पर टिका है हालांकि प्रतिरक्षा वैज्ञानिक इसे ‘नकारात्मक चयन’ कहकर
महिमामंडित करते हैं।
इसका मतलब है कि ‘अपने-पराए’ का भेद संरचना के किसी सामान्य नियम के तहत नहीं
किया जाता। प्रतिरक्षा तंत्र में ऐसा कोई पूर्व निर्धारित मापदंड नहीं है जो उसे
बताए कि वे अणु कौन-से हैं जो शरीर में ‘सामान्यत:’ बनते हैं। इनकी परिभाषा शुद्ध
रूप से अनुभव-आधारित है: यदि कोई चीज़ लगातार आसपास नज़र आती है, शरीर में सब जगह मिलती है और किसी घुसपैठिए के कामकाज से जुड़ा कोई चिंह नहीं
है तो बहुत संभावना है कि यह ‘अपना’ अणु होगा। अन्यथा इसके पराया होने की संभावना
ज़्यादा है।
प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा ‘अपने’ की पहचान
सवाल यह है कि प्रतिरक्षा तंत्र ऐसे अनुभव-आधारित फैसले कैसे करता है? एक तरीका यह है कि यदि कोई अणु लगातार उपस्थित हो तो काफी संभावना है कि उसका
सामना ‘नवनिर्मित’ बी या टी कोशिका से जन्म लेते ही हो जाएगा। तो एक नियम यह है कि
यदि कोई बी या टी कोशिका लड़कपन (यानी बनने के कुछ ही समय बाद) में ही किसी लक्ष्य
को पहचान ले,
तो वह बी या टी कोशिका हानिकारक है और उसे खामोश हो जाना
चाहिए। यदि उसे (बी या टी कोशिका को) अपना लक्ष्य प्रौढ़ होने के बाद नज़र आए तो
संभावना यह है कि वह लक्ष्य पराया होगा और ऐसी कोशिकाओं को उस लक्ष्य के विरुद्ध
पूरी ताकत से प्रतिक्रिया देना चाहिए। दूसरे शब्दों में बी व टी कोशिकाओं के विकास
के दौरान एक अवधि ऐसी होती है (कोशिका की सतह पर ग्राही के अभिव्यक्त होने के
तुरंत बाद) जब किसी एंटीजन से सामना होने पर वे सक्रिय होने की बजाय निष्क्रिय हो
जाएंगी।
ज़ाहिर है,
इसमें कई भूल-चूक की संभावना है। यदि शरीर में कोई संक्रमण
चल रहा है,
जिसके अणु (एंटीजन) नवजात प्रतिरक्षा कोशिकाओं को नज़र आ
जाते हैं,
तो ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाओं को छांटकर अलग कर दिया जाएगा।
वे उस एंटीजन के विरुद्ध कार्रवाई करने की बजाय निष्क्रिय हो जाएंगी। ऐसा गर्भाशय
में पल रहे बच्चे के मामले में होता है जो अपनी मां से कोई संक्रमण (जैसे
हिपैटाइटिस बी वायरस) हासिल कर लेता है।
दूसरा,
शरीर के सारे अणु लगातार अस्थि मज्जा या थायमस ग्रंथि में
आते-जाते तो नहीं रह सकते। शरीर के कई अणु कोशिकांतर्गत प्रोटीन के रूप में होते
हैं। या कुछ अणु मात्र कुछ विशिष्ट ऊतकों में प्रकट होते हैं। इसलिए संभावना है कि
अस्थि मज्जा या थायमस ग्रंथि में रहते हुए बी या टी कोशिकाएं इनके संपर्क में न
आएं। लेकिन जब वे अपनी जन्मस्थली से निकलकर व्यापक शरीर में पहुंचेंगी तो उनका
सामना इन अणुओं से होगा। यदि ऐसा हुआ, तो चाहे ये अणु शरीर के
दृष्टिकोण से ‘अपने’ हों, लेकिन प्रतिरक्षा तंत्र इन्हें
‘पराया’ मानेगा और हमला कर देगा। यह तो स्वास्थ्य व खुशहाली के लिए नुकसानदायक
होगा। तो एक और पहचान व्यवस्था की ज़रूरत है। क्या किया जाए?
प्रतिरक्षा तंत्र कैसे तय करे कि किस पर हमला करे और किसे छोड़ दे?
हमने ऊपर कहा था कि ‘अपने’ को पहचानने का एक और तरीका यह है कि ‘अपने’ पर
सामान्यत: किसी घुसपैठिए के कामकाज का कोई चिंह नहीं होगा। यह चीज़ एक अन्य समस्या
से जुड़ी है जिसका ज़िक्र हम पहले कर चुके हैं। इसका सम्बंध प्रतिरक्षा तंत्र के
पहचान मॉडल से है। यदि किसी चीज़ पर कोई ‘बिल्ला’ चिपका है, तो ज़रूरी
नहीं कि वह चीज़ हानिकारक ही हो। लिहाज़ा, हर ‘बिल्ले’ पर टूट पड़ना
संसाधन और श्रम की बरबादी होगी। तो प्रतिरक्षा तंत्र कैसे तय करे कि कब
प्रतिक्रिया दे और कब अनदेखा करे?
दरअसल,
यह दिक्कत एक अन्य वजह से और मुश्किल हो जाती है – ध्यान
रखें कि प्रतिरक्षा तंत्र को अलग-अलग रोगजनकों के बारे में यह भी फैसला करना होता
है कि कार्रवाई के किस मार्ग का उपयोग करे। वायरस को थामने के लिए उसे संक्रमित
कोशिका को मारना होता है; कोशिका से बाहर मौजूद संक्रमण
के लिए विशिष्ट किस्म की एंटीबॉडी बनानी होती हैं; और
विकल्पी परजीवियों के लिए उन भक्षी-कोशिकाओं को सक्रिय करना होता है जिनके अंदर ये
परजीवी बैठे हैं।
इनमें से कोई भी प्रतिक्रिया हर किस्म के संक्रमण के विरुद्ध कारगर नहीं
होंगी। तो प्रतिरक्षा तंत्र कैसे तय करेगा कि कब क्या करना है? और इसके साथ टीकों की बात जोड़ लें, तो हम प्रतिरक्षा तंत्र
को कैसे तैयार करेंगे कि वह सही किस्म की शक्तिशाली प्रतिक्रिया दे? आप देख ही सकते हैं कि प्रतिरक्षा खज़ाने की छंटाई करना टी और बी कोशिकाओं के
संदर्भ में सही निर्णय करने की सामान्य समस्या का ही हिस्सा है।
इस समस्या से निपटने का एक ही वास्तविक तरीका है – कि किसी लक्ष्य की पहचान के
बाद प्रतिरक्षा तंत्र की प्रतिक्रिया को संदर्भ के भरोसे छोड़ दिया जाए। यानी यह
संदर्भ ऐसे संकेतों से बना होगा जो यह नहीं बताएंगे कि लक्ष्य क्या है, बल्कि यह बताएंगे कि वह लक्ष्य ‘खतरे’ का द्योतक है या नहीं ऐसा होने पर
प्रतिरक्षा कोशिका को चुप बैठने की बजाय कुछ करना चाहिए। ज़ाहिर है, सबसे सरल संदर्भ संकेत वे होंगे जिनका उपयोग जन्मजात प्रतिरक्षा तंत्र करता है
– जैसे कि भक्षी कोशिकाएं अपने ढंग से परजीवियों से निपटने में करती हैं। कोशिकाओं
की सतह पर उपस्थित अणु तथा रुाावित प्रोटीन दोनों का स्तर संक्रमण से प्रेरित होता
है,
ऐसे संदर्भ जनित संकेत होते हैं और यदि लक्ष्य की पहचान ऐसे
संकेतों की अनुपस्थिति में हो तो बी और टी कोशिकाएं कोई प्रतिक्रिया नहीं देंगी
बल्कि खामोश कर दी जाएंगी। यह एक सफल नकारात्मक चयन होगा।
बहरहाल,
नकारात्मक चयन की ये सारी शैलियां लगभग ही ठीक बैठती हैं, और अपेक्षा की जानी चाहिए कि इनमें कई खामियां होंगी। दरअसल, सामान्य व्यक्तियों में भी स्व-सक्रिय प्रतिरक्षा कोशिकाएं बहुत दुर्लभ नहीं
होतीं। तो सवाल उठता है कि ऐसी स्व-सक्रिय प्रतिरक्षा कोशिकाएं बार-बार
आत्म-प्रतिरक्षा बीमारियां पैदा क्यों नहीं करतीं। इस सवाल का जवाब इस बात में
छिपा है कि संदर्भ-जनित संकेत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया का सूक्ष्म प्रबंधन करते
हैं।
ठप कर दी गई बी और टी कोशिकाओं का क्या होता है?
यह कहना तो ठीक है कि आप बी या टी कोशिका को ठप कर देंगे। लेकिन ठप करने का
ठीक-ठीक मतलब क्या है? मोटे तौर पर प्रतिरक्षा तंत्र के सामने दो
विकल्प हैं। एक तो यह है कि जिस कोशिका को ठप किया जाना है उसे उकसाया जाए कि वह
अपने मारक जीन्स को सक्रिय करके खुदकुशी कर ले। इसका मतलब होगा कि वह स्व-सक्रिय
कोशिका भौतिक रूप से मिटा दी जाएगी और फिर कभी समस्या पैदा नहीं करेगी। नवजात बी व
टी कोशिकाओं द्वारा स्व-लक्ष्य की कुशलतापूर्व पहचान और साथ में खतरे के सशक्त
संदर्भ-जनित संकेत मौजूद हों, तो सफाए का यही तरीका अपनाया
जाता है।
दूसरी ओर,
यदि संकेत (खास तौर से संदर्भ-जनित संकेत) इतने सशक्त न हों
कि वे कोशिका को खुदकुशी तक खींच लाएं, तो उस कोशिका को कोल्ड
स्टोरेज में डालकर खामोश रखा जा सकता है। कहने का मतलब कि उसके साथ ऐसी छेड़छाड़ की
जाती है कि वह काफी समय तक किसी चीज़ के प्रति प्रतिक्रिया नहीं दे पाएगी। यह एक
ऐसा उपचार है जो सिर्फ नवजात कोशिकाओं पर नहीं बल्कि सारी बी व टी कोशिकाओं पर
किया जा सकता है। तो यह छंटाई का एक सामान्य तरीका है।
लेकिन यह उपचार बार-बार करते रहना होगा, और
इसलिए ये संभावित स्व-सक्रिय बी व टी कोशिकाएं शरीर के लिए हमेशा एक खतरे के रूप
में उपस्थित रहेंगी। बहरहाल, प्रतिरक्षा तंत्र के पास इनसे
निपटने के उपाय हैं जो इन कोशिकाओं के ग्राहियों में फेरबदल कर सकते हैं। ऐसा
फेरबदल करने पर ये स्व की बजाय पराए लक्ष्यों को पहचानने लगती हैं। यानी कोल्ड स्टोरेज
विकल्प का कुछ फायदा तो है। ज़ाहिर है, यदि ग्राही को ही बदल
दिया गया तो इस कोशिका को ठप करने का उपचार फिर शायद काम न करे क्योंकि यह उपचार
इस बात पर निर्भर है कि कोई ग्राही शरीर में सदा उपस्थित किसी चीज़ को पहचाने। यदि
ग्राही बदल गया तो ये कोशिकाएं फिर से सक्रिय हो जाएंगी और संभावना है कि किसी काम
आएं।
तो हमने देखा कि विभिन्न सम्बंधित तंत्रों से कोशिकाएं और प्रक्रियाएं उधार लेकर प्रतिरक्षा तंत्र अपने लिए ऐसे जुगाड़ करता है कि उसे काम करने में मदद मिलती है – किसी भी बाहरी घुसपैठिए के खिलाफ काफी लक्ष्योन्मुखी ढंग से। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://2rdnmg1qbg403gumla1v9i2h-wpengine.netdna-ssl.com/wp-content/uploads/sites/3/2016/11/immuneSystem-1190000241-770×553-1-650×428.jpg
लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व युरोपीय खोजकर्ताओं ने न केवल
कैरेबिया के मूल निवासियों के जीवन को तहस-नहस किया बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र
को भी काफी नुकसान पहुंचाया था। एक नए अध्ययन से पता चला है कि इस द्वीप पर रहने
वाले लगभग 70 प्रतिशत सांप और छिपकलियां खत्म हो चुके हैं। इसके पीछे उपनिवेशकों
के साथ आए बिल्ली, चूहों और रैकून को ज़िम्मेदार बताया जा रहा
है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार कमज़ोर प्रजातियों के लिए समस्याएं मनुष्यों के कारण
नहीं बल्कि मनुष्यों की पर्यावरण से परस्पर क्रिया से उत्पन्न हुई हैं।
गौरतलब है कि पांडा जैसे लोकप्रिय जीवों की तुलना में छिपकली, सांप और अन्य सरिसृपों और उनके इतिहास के बारे में हम कम ही जानते हैं। फिर भी
ऐसा माना जाता है कि ये प्रजातियां पारिस्थितिकी तंत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका
निभाती हैं। ये जीव पौधों का परागण करते हैं, बीजों
को फैलाते हैं,
छोटे जीवों को खाते हैं और स्वयं भी बड़े जीवों द्वारा खाए
जाते हैं। इनमें से कुछ तो धरती के नीचे बिलों में रहते हुए पूरे भूपटल को ही बदल
देते हैं।
ऐसे में मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर साइंस ऑफ ह्यूमन हिस्ट्री के पुराजंतु
वैज्ञानिक कोरंतन बुशातों ने कैरेबिया की संवेदनशील जैव विविधता के अध्ययन हेतु
अपने सहयोगियों के साथ पूर्वी कैरेबिया स्थित गुआदेलूप के छह द्वीपों पर पहले से
खुदाई की गई गुफाओं का अध्ययन किया। ये छह द्वीप पूर्व में फ्रांस के अधीन थे। टीम
ने गुफाओं के फर्श की विभिन्न परतों को हटाते हुए हड्डियों के हज़ारों टुकड़े
एकत्रित किए जिनमें से कुछ तो तीन मिलीमीटर से भी छोटे थे।
खोजे गए 43,000 जीवाश्मों में से शोधकर्ताओं ने 16 विभिन्न प्रकार की छिपकलियों
और सांपों की पहचान की। जीवाश्मों को चार समूहों में विभाजित किया गया: 32,000 से
11,000 वर्ष पुराने, 11,650 से 2540 वर्ष पुराने, 2450 से 458 वर्ष पुराने (वह अवधि जब मूल निवासी बस चुके थे लेकिन युरोपीय
नहीं पहुंचे थे) और 458 से वर्तमान समय तक।
साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एक द्वीप
पर 11,000 वर्ष पूर्व चार प्रकार के सांप और पांच प्रकार की छिपकलियां पाई जाती
थीं जो अब नहीं पाई जातीं। इनकी जगह छिपकलियों की चार अन्य प्रजातियों ने ली, जिनमें से दो प्रजातियां लगभग 2000 वर्ष पूर्व प्रकट हुई थीं जबकि अन्य दो
युरोपियों के आगमन के बाद। संभावना है कि ये कैरेबिया के अन्य हिस्सों से आई हैं।
बुशातों और उनकी टीम ने गुआदेलूप में छिपकलियों और सांपों के 40,000 वर्ष के जैव
विकास इतिहास पर ध्यान दिया। उन्होंने पाया कि 1493 में क्रिस्टोफर कोलंबस के आने
से पूर्व कैरेबिया में 13 सरिसृप प्रजातियां उपस्थित थीं। जलवायु परिवर्तन और मूल
निवासियों की उपस्थिति उनके लिए कोई समस्या नहीं रही।
लेकिन इनकी लगभग आधी आबादी युरोपीय लोगों के आने के बाद गायब हो गई, जिनमें सांप की तीन और छिपकलियों की पांच प्रजातियां थीं। कुछ द्वीपों पर तो
70 प्रतिशत तक सरिसृप प्रजातियां खत्म हो गर्इं। ऐसी आशंका है कि छिपकलियां या तो
युरोपीय लोगों द्वारा लाए गए आक्रामक जीवों का शिकार हो गर्इं या फिर गन्ने की
खेती के कारण उन्होंने अपना प्राकृतवास खो दिया।
हालांकि, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि इस तरह की क्षति का पारिस्थितिकी तंत्र पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। इस निष्कर्ष से वैज्ञानिकों के बीच प्रचलित एक आम सिद्धांत को बल मिलता है कि जब तक देशज लोगों ने अपनी पारंपरिक प्रथाओं के साथ भूमि प्रबंधन किया है, तब तक जैव विविधता भी मनुष्यों के साथ-साथ सहजता से उपस्थित रह सकी है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Iguana_Guadalupe_1280x720.jpg?itok=cYa__1km