दीर्घ कोविड से जुड़े चार अहम सवाल

कोविड-19 संक्रमण से उबरने के बाद कई लोग लंबे समय तक तमाम लक्षणों से जूझ रहे हैं। इसे दीर्घ कोविड कहा जाने लगा है। युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन की तंत्रिका वैज्ञानिक एथेना अक्रामी ने 3,500 से अधिक लोगों पर किए अध्ययन में दीर्घ कोविड के 205 लक्षण पाए हैं। इनमें थकान, सूखी खांसी, सांस में तकलीफ, सिरदर्द और मांसपेशीय दर्द वगैरह शामिल हैं। थकान, काम के बाद अस्वस्थता और संज्ञानात्मक विकार जैसे लक्षण छह महीने तक बने रहे। वैसे लक्षणों की तीव्रता लगातार एक जैसी नहीं रहती, लोग बीच-बीच में थोड़ा बेहतर महसूस करते हैं।

महामारी की शुरुआत में गंभीर मामलों से निपटने की प्राथमिकता में दीर्घ कोविड की अनदेखी हुई। लेकिन मई 2020 में, पीड़ितों का एक फेसबुक ग्रुप बना जिसमें वर्तमान में 40,000 से अधिक लोग जुड़े हैं।

अब दीर्घ कोविड सार्वजनिक-स्वास्थ्य समस्या के रूप में पहचाना जा चुका है। जनवरी में WHO ने कोविड-19 उपचार के दिशानिर्देशों में जोड़ा है कि दीर्घ कोविड के मद्देनज़र कोविड-19 के रोगियों की संक्रमण उपरांत देखभाल तक पहुंच होनी चाहिए।

कई फंडिंग एजेंसियां भी दीर्घ कोविड के विभिन्न अध्ययनों को वित्तीय समर्थन देने के लिए आगे आई हैं। यूके बायोबैंक ने स्व-परीक्षण किट उपलब्ध कराने की योजना बनाई है ताकि कोविड-19 से संक्रमितों की पहचान की जा सके और उन्हें अध्ययनों में शामिल किया जा सके।

दीर्घ कोविड से सम्बंधित चार बड़े सवालों पर नेचर पत्रिका ने प्रकाश डालने की कोशिश की है।

दीर्घ कोविड कितने लोगों में होता है, कौन अधिक जोखिम में है?

फिलहाल पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह कुछ ही लोगों को क्यों होता है और अधिक जोखिम किसे है। अधिकांश शुरुआती अध्ययन उन लोगों पर ही हुए थे जो गंभीर कोविड-19 के कारण अस्पताल में भर्ती हुए थे। कोलंबिया युनिवर्सिटी इरविंग मेडिकल सेंटर की कार्डियोलॉजिस्ट अनी नलबंडियन और उनके साथियों ने नौ अध्ययनों के आधार पर पाया कि कोविड-19 से उबरने के बाद 32.6 से 87.4 प्रतिशत रोगियों में कम से कम एक लक्षण कई महीनों तक बना रहता है।

लेकिन वास्तव में कोविड-19 से संक्रमित अधिकांश लोग इतने बीमार नहीं पड़ते कि उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़े। ऐसे लोग अध्ययनों से छूट जाते हैं। इसलिए यूके के राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (ONS) ने अप्रैल 2020 के बाद से कोविड-19 पॉज़िटिव पाए गए 20,000 से अधिक लोगों पर नज़र रखी। ONS ने पाया कि उबरने के 12 हफ्ते बाद भी 13.7 प्रतिशत लोगों ने कम से कम एक लक्षण अनुभव किया। आम तौर पर संक्रमण मुक्त होने के बाद 4 हफ्ते से अधिक समय तक लक्षण बने रहते हैं तो इसे दीर्घ कोविड कहा जाता है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं में यह स्थिति अधिक दिखती है – 23 प्रतिशत महिलाओं और 19 प्रतिशत पुरुषों में संक्रमण के पांच सप्ताह बाद भी लक्षण मौजूद थे।

इसके अलावा अधेड़ लोगों में भी इसका जोखिम अधिक है। ONS के अनुसार, 35 से 49 वर्ष की आयु के 25.6 प्रतिशत लोगों में पांच सप्ताह बाद भी लक्षण बरकरार थे। युवाओं व वृद्ध लोगों में ये कम दिखे। हालांकि अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि बुज़ुर्गों में दीर्घ कोविड कम दिखने की एक वजह यह हो सकती है कि अधिकतर संक्रमित बुज़ुर्गों की मृत्यु हो जाती है। 2-11 वर्ष के लगभग 10 प्रतिशत संक्रमित बच्चों में पांच सप्ताह बाद भी लक्षण दिखे हैं।

अभी तक की समझ के आधार पर, अधिक जोखिम में कौन है इसका पूर्वानुमान करने में उम्र, लिंग और संक्रमण के पहले सप्ताह में लक्षणों की गंभीरता महत्वपूर्ण लगते हैं।

लेकिन कई अनिश्चितताएं बनी हुई हैं। खासकर यह स्पष्ट नहीं है कि दीर्घ कोविड से महज 10 प्रतिशत लोग ही क्यों प्रभावित होते हैं? लेकिन यदि मात्र 10 प्रतिशत लोग भी प्रभावित होते हैं, तो भी यह आंकड़ा लाखों में होगा।

दीर्घ कोविड क्यों होता है?

वैसे तो दीर्घ कोविड के विविध लक्षणों पर विस्तृत अध्ययन किए जा रहे हैं, लेकिन यह होता क्यों है इसका कोई स्पष्ट कारण पता नहीं चला है। देखा गया है कि दीर्घ कोविड कई अंगों को प्रभावित करता है, इससे लगता है कि यह बहु-तंत्रीय विकार है।

अध्ययनों में देखा गया है कि कुछ हफ्तों बाद यह वायरस शरीर से लगभग खत्म हो जाता है इसलिए यह संभावना तो कम है कि संक्रमण ही इतना लंबा चल रहा है। लेकिन वायरस के अवशेष (जैसे प्रोटीन अणु) ज़रूर महीनों तक शरीर में बने रह सकते हैं। भले ही ये अवशेष कोशिकाओं को संक्रमित न करें, लेकिन हो सकता है कि वे शरीर के कामकाज में कुछ बाधा डालते हों।

इसके अलावा एक संभावना यह है कि दीर्घ कोविड प्रतिरक्षा प्रणाली के अति सक्रिय होने और शरीर के बाकी हिस्सों पर हमला करने की वजह से होता है। यानी दीर्घ कोविड एक ऑटोइम्यून बीमारी हो सकती है। अलबत्ता, यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि इनमें से कौन-सी परिकल्पना सही है। यह भी हो सकता है कि अलग-अलग लोगों के लिए कारण अलग-अलग हों।

इसके कारण को बेहतर समझने के लिए पोस्ट हॉस्पिटलाइज़ेशन कोविड-19 स्टडी (PHOSP-COVID) के तहत यूके के 1000 से अधिक रोगियों के रक्त के नमूनों में शोथ, हृदय सम्बंधी समस्याओं और अन्य परिवर्तनों का पता लगाया जा रहा है। इसके अलावा, शोधकर्ताओं के एक दल ने कोविड-19 से पीड़ित 300 लोगों के हर चार महीने के अंतराल पर रक्त और लार के नमूने लेकर उनमें शोथ, रक्त का थक्का बनाने वाली प्रणाली में बदलाव और वायरस की मौजूदगी के प्रमाण तलाशे। अध्ययन में उन्होंने रक्त में साइटोकाइन्स (जो प्रतिरक्षा का नियमन करते हैं) का स्तर परिवर्तित पाया। इससे लगता है कि प्रतिरक्षा प्रणाली असंतुलित थी। इसके अलावा ऐसे प्रोटीन संकेतक भी मिले जो तंत्रिका तंत्र सम्बंधी विकार की ओर इशारा करते हैं। शोधकर्ता इस काम में मशीन लर्निंग की भी मदद ले रहे हैं।

इसी कड़ी में PHOSP-COVID अध्ययन में शामिल रेचेल इवांस और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में कोविड-19 से संक्रमित हो चुके 1077 लोगों में शारीरिक दुर्बलता, दुÏश्चता जैसी मानसिक-स्वास्थ्य सम्बंधी तकलीफों और संज्ञानात्मक क्षति को जांचा। उन्होंने इसमें उम्र और लिंग जैसी बुनियादी जानकारी शामिल की और जैव रासायनिक डैटा (जैसे सी-रिएक्टिव प्रोटीन) का स्तर भी रिकॉर्ड किया। गणितीय विश्लेषण की मदद से देखा गया कि क्या एक जैसे लक्षण वाले रोगियों के समूह दिखाई देते हैं? कोविड-19 की गंभीरता, या अंगों की क्षति के स्तर और दीर्घ कोविड की गंभीरता के बीच बहुत कम सम्बंध पाया गया।

विश्लेषण में दीर्घ कोविड के भिन्न-भिन्न लक्षणों वाले चार समूहों की पहचान हुई। तीन समूहों में अलग-अलग स्तर की मानसिक और शारीरिक दुर्बलता थी, जबकि संज्ञानात्मक समस्या नहीं या बहुत कम थी। चौथे समूह के लोगों में मध्यम स्तर की मानसिक और शारीरिक दुर्बलताएं थी, लेकिन संज्ञानात्मक समस्याएं अत्यधिक थीं।

क्या यह संक्रमण-उपरांत लक्षण है?

कुछ वैज्ञानिक के लिए दीर्घ कोविड की स्थिति कोई हैरत की बात नहीं थी। संक्रमण ठीक होने के बाद लंबे समय तक लक्षण बने रहना कई मामलों में देखा गया है। दरअसल मायेल्जिक एन्सेफलाइटिस या क्रॉनिक फटीग सिंड्रोम (ME/CFS) वायरस संक्रमणों के बाद उपजी एक स्थिति है जिसमें लोग सिरदर्द, थोड़े से काम के बाद काफी थकान जैसे लक्षणों का अनुभव करते हैं।

वायरस या बैक्टीरिया से संक्रमित हो चुके 253 लोगों पर हुए एक अध्ययन में देखा गया था कि लगभग 12 प्रतिशत लोगों में 6 महीने बाद भी थकान, मांसपेशीय-कंकालीय दर्द, तंत्रिका सम्बंधी समस्या और मनोदशा में गड़बड़ी जैसे लक्षण मौजूद थे। यानी दीर्घ कोविड संक्रमण-उपरांत लक्षण हो सकता है।

लेकिन दीर्घ कोविड के लक्षण ME/CFS से काफी अलग हैं। उदाहरण के लिए दीर्घ कोविड वाले लोगों में सांस की तकलीफ ME/CFS वाले लोगों की तुलना में अधिक दिखती है।

क्या किया जा सकता है?

चूंकि इस विकार को अभी पूरी तरह समझा नहीं जा सका है इसलिए उपचार/मदद सम्बंधी विकल्प काफी सीमित हैं। जर्मनी, इंगलैंड वगैरह कुछ देशों में दीर्घ कोविड से पीड़ित लोगों के लिए क्लीनिक खोले जा रहे हैं। यह एक अच्छी पहल है, लेकिन इस विकार से निपटने के लिए कई क्षेत्रों के विशेषज्ञों की ज़रूरत है क्योंकि दीर्घ कोविड शरीर के कई हिस्सों को प्रभावित करता है। दीर्घ कोविड से पीड़ित हर व्यक्ति में औसतन 16-17 लक्षण दिखाई देते हैं, लेकिन अक्सर क्लीनिकों में सभी के उपचार की व्यवस्था नहीं होती।

इसकी सामाजिक और राजनीतिक चुनौती सबसे बड़ी है। दीर्घ कोविड से जूझ रहे लोगों को आराम की ज़रूरत है, अक्सर कई महीनों तक वे बहुत काम नहीं कर सकते और ऐसे में उन्हें सहयोग की आवश्यकता है। खास तौर से श्रमिक वर्ग के लिए यह एक बड़ी चुनौती हो सकती है। एक सुझाव है कि उनकी स्थिति को विकलांगता के रूप में पहचाना जाना चाहिए।

कुछ लोग इसकी दवा खोजने की दिशा में भी काम कर रहे हैं। यूके के HEAL-COVID नामक अध्ययन का उद्देश्य दीर्घ कोविड की स्थिति बनने से रोकना है। इसमें कोविड-19 के अस्पताल में भर्ती रोगियों को ठीक होने के बाद विशिष्ट दवाइयां दी जाएंगी।

और अंत में यह सवाल कि कोविड-19 के टीके इसमें क्या भूमिका निभा सकते हैं? बेशक ये टीके कोविड-19 के खिलाफ कारगर हैं लेकिन क्या वे दीर्घ कोविड से भी बचाव करते हैं?

हालिया अध्ययन में दीर्घ कोविड से पीड़ित 800 लोगों पर टीके के प्रभाव जांचे गए। इनमें से 57 प्रतिशत लोगों के लक्षणों में सुधार दिखा, 24 प्रतिशत में कोई परिवर्तन नहीं दिखे और 19 प्रतिशत लोगों की हालत टीके की पहली खुराक के बाद और बिगड़ गई। अनुमान है कि यदि संक्रमण पश्चात वायरस के कुछ अवशेष शरीर में छूट भी गए हैं तो टीका उनका खात्मा कर सकता है या प्रतिरक्षा प्रणाली में आए असंतुलन को ठीक कर सकता है।

कुल मिलाकर दुनिया भर के शोधकर्ता दीर्घ कोविड को समझने और लोगों को उससे उबारने की जद्दोजहद में हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मिले-जुले टीके और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया

कोविड-19 टीकों की कमी का सामना करते हुए कुछ देशों ने एक अप्रमाणित रणनीति अपनाई और टीके की खुराक के लिए अलग-अलग टीकों का उपयोग किया। आम तौर पर अधिकांश टीकों की दो खुराक दी जाती है। लेकिन कनाडा और कई युरोपीय देश कुछ रोगियों में दो खुराकों के लिए अलग-अलग टीकों के उपयोग की सिफारिश कर रहे हैं। और, शुरुआती आंकड़े बता रहे हैं कि मजबूरी की यह रणनीति वास्तव में लाभदायक हो सकती है।

तीन अध्ययनों में रक्त के नमूनों की जांच करने पर पता चला है कि एस्ट्राज़ेनेका टीके की एक खुराक के बाद दूसरी खुराक के लिए फाइज़र-बायोएनटेक टीके का उपयोग करने से मज़बूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया विकसित होती है। इनमें से दो अध्ययनों से यह भी पता चला है कि मिश्रित टीकों से फाइज़र-बायोएनटेक की दो खुराकों के बराबर सुरक्षा मिलेगी जो सबसे प्रभावी कोविड-19 टीकों में से एक है।

यदि टीकों का मिला-जुला उपयोग सुरक्षित और प्रभावी होता साबित है तो अरबों लोगों को सुरक्षा प्रदान की जा सकती है। क्लीनिकल रिसर्च स्पेशलिस्ट क्रिस्टोबल बेल्डा-इनिएस्ता के अनुसार तब दूसरी खुराक के लिए उसी टीके की उपलब्धता की चिंता नहीं रहेगी। उनके नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन में 448 लोगों में एस्ट्राज़ेनेका और बायोएनटेक टीकों के मिले-जुले उपयोग में दूसरी खुराक के दो सप्ताह बाद मामूली साइड इफेक्ट और मज़बूत एंटीबॉडी प्रतिक्रिया देखी गई।       

इसी तरह बर्लिन स्थित चैरिटी युनिवर्सिटी हॉस्पिटल में 61 स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को 10 से 12 सप्ताह के अंतराल से दो खुराकें दी गर्इं। इन सभी कार्यकर्ताओं में स्पाइक एंटीबॉडी पाई गई जो तीन सप्ताह के अंतराल में फाइज़र-बायोएनटेक टीके की दोनों खुराकें प्राप्त होने के बाद पाई गई थीं और कोई साइड इफेक्ट भी नहीं हुआ। इसके अलावा, एंटीबॉडी प्रतिक्रिया को बढ़ावा देने वाली और शरीर को संक्रमित कोशिकाओं से छुटकारा दिलाने वाली टी-कोशिकाओं की प्रतिक्रया भी पूरी तरह फाइज़र-बायोएनटेक से टीकाकृत लोगों से अधिक पाई गर्इं। जर्मनी की टीम ने एक छोटे अध्ययन में लगभग समान परिणाम सामने पाए हैं।   

इन निष्कर्षों के बाद वैज्ञानिकों का मत है कि दो अलग-अलग टीकों की खुराकें अधिक शक्तिशाली साबित हो सकती हैं। गौरतलब है कि दो टीकों को मिलाकर उपयोग करने से प्रतिरक्षा प्रणाली को रोगजनकों को पहचानने के कई तरीके मिल सकते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार mRNA आधारित टीके एंटीबॉडी प्रतिक्रिया को तेज़ करते हैं और वेक्टर-आधारित टीके टी-कोशिका प्रतिक्रियाओं को शुरू करते हैं। इसलिए दो प्रकार के टीकों का उपयोग करने पर बेहतर परिणाम मिलते हैं। अलबत्ता, कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है और लंबे समय के अध्ययनों की ज़रूरत है। फिलहाल वैज्ञानिक लगभग 100 लोगों में आठ विभिन्न प्रकार के टीकों को अदल-बदल कर लगाने का प्रयास कर रहे हैं और साथ ही दो खुराकों के बीच के अंतराल में भी परिवर्तन करके अध्ययन किया जाएगा।

फिर भी, ये निष्कर्ष नीति परिवर्तन के लिए सहायक सिद्ध हुए हैं। स्पेन ने 60 वर्ष से कम आयु के लोगों के लिए मिश्रित टीकों के उपयोग करने की अनुमति दी है। कनाडा, जर्मनी, फ्रांस, नॉर्वे और डेनमार्क जैसे देश जिन्होंने एस्ट्राज़ेनेका टीकों पर आयु सीमा निर्धारित की थी उन्होंने भी इस तरह के सुझाव दिए हैं। आगे चलकर और अधिक टीके शामिल किए जा सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एकाकी उदबिलाव बहुत ‘वाचाल’ हैं

वैसे तो मध्य और दक्षिण अमेरिका में पाए जाने वाले उदबिलाव एकाकी होते हैं लेकिन हाल ही के अध्ययन में पता चला है कि वे खूब बड़बड़ाते रहते हैं। वे विभिन्न तरह से किंकियाकर और गुर्राकर आश्चर्य से लेकर प्रसन्नता तक व्यक्त करते हैं। इन नतीजों से यह पता लगाने में मदद मिल सकती है कि उदबिलावों में संवाद-संचार कैसे विकसित हुआ। इसके अलावा यह अध्ययन इन लुप्तप्राय जानवरों के संरक्षण में भी मदद कर सकता है।

सभी उदबिलाव गुर्राकर और चिंचियाकर संवाद करते हैं। कुछ सामाजिक उदबिलाव, जैसे अमेज़न के विशाल उदबिलाव (Pteronura brasiliensis), 22 अलग-अलग तरह की आवाज़ें निकालते हैं। दूसरी ओर, नॉर्थ अमेरिकी नदीवासी उदबिलावों (Lontra canadensis) जैसे कुछ एकाकी प्रवृत्ति के उदबिलावों में संवाद के केवल चार तरीके ज्ञात हैं। लेकिन नियोट्रॉपिकल नदीवासी उदबिलावों (L. longicaudis) में संवाद का अध्ययन मुश्किल रहा है, क्योंकि ये वर्ष में एक बार ही प्रजनन के लिए साथ आते हैं।

इसलिए इन उदबिलावों में संचार-संवाद का अध्ययन करने के लिए विएना विश्वविद्यालय की जैव ध्वनिकीविद सबरीना बेटोनी ने तीन जोड़ी नियोट्रॉपिकल नदीवासी उदबिलावों का साल भर अध्ययन किया। ये उदबिलाव ब्राज़ील तट के निकट कैटरिना टापू पर एक शरण-स्थल में नर-मादा जोड़ियों के रूप में रखे गए थे। बेटोनी ने उनके द्वारा निकाली गई हर आवाज़ को रिकॉर्ड किया, और उनकी ध्वनि तरंगों का विश्लेषण करके उनका वर्गीकरण किया। इसके अलावा उन्होंने तीन महीने तक इन उदबिलावों पर नज़र भी रखी ताकि यह समझ सकें कि वे किन परिस्थितियों में किस तरह की आवाज़ निकालते हैं।

प्लॉस वन पत्रिका में उन्होंने बताया है कि वे विभिन्न व्यवहारों के लिए छह तरह की आवाज़ें निकालते हैं। जब वे मनुष्यों या अन्य जानवरों का ध्यान अपनी ओर खींचना चाहते हैं तो वे हल्का से चिंचियाते हैं। भोजन या दुलार की विनती करने के लिए वे धीमे से कुड़कुड़ाते हैं। खेलने के दौरान वे किंकियाते हैं। जब कुछ नया होते देखते हैं (जैसे भोजन लेकर आता व्यक्ति) तो वे अपने पिछले पैरों पर खड़े होकर सांस छोड़ने जैसी ‘हाह’ की आवाज़ निकालते हैं। इसके अलावा, लड़ाई के समय या अपने भोजन की सुरक्षा में वे गुर्राते हैं।

नियोट्रॉपिकल नदीवासी उदबिलाव की ये आवाज़ें सिर्फ उनकी ही प्रजाति तक सीमित नहीं हैं। इनमें से कुछ तरह की आवाज़ें, जैसे हाह या चिंचियाने की, पूरी तरह से भिन्न वातावरण में रहने वाले और भिन्न आनुवंशिक विशेषताओं वाले उदबिलावों में भी हैं। विभिन्न प्रजातियों में ध्वनियों की समानता देख कर लगता है कि ये ध्वनियां इनके साझा पूर्वज में मौजूद थीं। शोधकर्ता आगे जानना चाहते हैं कि वाणि-उत्पादन कैसे विकसित हुआ होगा। अन्य शोधकर्ता चेताते हैं कि संभवत: जंगली उदबिलाव कैद में रखे उदबिलावों जैसी ध्वनि न निकालते हों।

बहरहाल, उम्मीद है कि इस काम से उदबिलावों के संरक्षण में मदद मिलेगी। इस प्रजाति को लुप्तप्राय घोषित किया गया है। आवाज़ों की मदद से इन्हें एक जगह बुलाकर गिनती की जा सकेगी। और वैसे भी यह अध्ययन लोगों को इनके प्रति आकर्षित तो करेगा ही। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 वायरस का आणविक विश्लेषण – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

स्कूल के दिनों की सुखद यादों में हमें अक्सर परख नलियों, बुन्सन बर्नर की मदद से किए गए रसायन विज्ञान के प्रयोग भी याद आते हैं। रसायन विज्ञान अणुओं के गुणों का अध्ययन है। हर सजीव या निर्जीव चीज़ अणुओं से बनी होती है। लेकिन स्कूल में पढ़ाए गए साधारण रसायन, जैसे हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (जिसमें दो परमाणु होते हैं – एक हाइड्रोजन; एक क्लोरीन), जैविक रसायन विज्ञान की जटिलताओं के सामने बौने पड़ जाते हैं। किसी प्रोटीन अणु में हज़ारों परमाणु हो सकते हैं।

अणुओं का अनुरूपण

रासायनिक सिद्धांतों के बढ़ते ज्ञान के कारण ‘परख नली’ से आगे बढ़कर अणुओं का सैद्धांतिक अध्ययन, उनकी संरचना और अन्य अणुओं से उनकी परस्पर क्रिया का अध्ययन संभव हो गया है। उदाहरण के लिए जिस तरह अनुरूपण (सिमुलेशन) गेम में कंप्यूटर के पर्दे पर विमान के उड़ने-उतरने का अनुरूपण किया जाता है, उसी तरह जटिल जैविक अणुओं की परस्पर क्रिया का भी पर्याप्त सटीकता के साथ अनुरूपण किया जा सकता है। अनुरूपण चाहे विमान की उड़ान का हो या अणुओं का, अनुरूपण की गणितीय विधियों को भौतिकी के मूलभूत नियमों से जोड़ा जाता है।

देखा जाए तो कोई भी प्रोटीन एक-दूसरे से जुड़े अमीनो एसिड (20 अमीनो एसिड, जिनमें से प्रत्येक अमिनो एसिड 10 से 27 परमाणुओं से बना होता है) की एक सीधी शृंखला ही तो है, जो बड़े करीने से एक अद्वितीय आकार में तह की गई होती है। प्रत्येक अमीनो एसिड पर आवेश (धनात्मक, ऋणात्मक, उदासीन) या उसके जुड़ने (या चिपकने) की क्षमता भिन्न होती है। अमीनो एसिड की इस शृंखला के कुछ हिस्से अणु की गहराई में दबे होते हैं। और बाकी हिस्से सतह पर होते हैं। सतह पर मौजूद अमीनो एसिड ही अन्य प्रोटीन्स से लेन-देन करते हैं – ये कोई संरचना बनाने, ग्राही तथा एंटीबॉडी आदि से जुड़ने के लिए महत्वपूर्ण हैं।

अब हम वास्तविक दुनिया का रुख करते हैं। हममें से कई लोगों ने कोविड-19 महामारी की प्रगति पर लगातार नज़र रखी है, और इसके थमने या धीमा होने के संकेतों पर नज़र रखी है। हमने नई शब्दावली सीखी है, और कंटीले स्पाइक वाले गेंदनुमा वायरस की डरावनी छवि के आदी भी हो गए हैं।

वर्तमान में हम इस वायरस के नवीन और अधिक चिंताजनक संस्करणों का सामना कर रहे हैं। प्रत्येक संस्करण को या तो उसके भौगोलिक उत्पत्ति, या डब्ल्यूएचओ नामकरण पद्धति (अल्फा, बीटा, आदि) से मिले नाम, या ज़्यादा सटीक E484K, D614G जैसे नामों से पुकारा जाता है। E484K, D614G जैसी ये संख्याएं हमें प्रोटीन में अमीनो एसिड की रैखीय शृंखला का ध्यान दिलाती हैं। इस मामले में यह वायरस की सतह पर मौजूद स्पाइक प्रोटीन है।

स्पाइक प्रोटीन संक्रमण शुरू करता है – यह हमारे फेफड़ों और अन्य ऊतकों की कोशिकाओं की सतह पर मौजूद ग्राहियों से जुड़ जाता है। यह प्रोटीन अणु 1273 अमीनो एसिड की एक शृंखला है, और तीन अलग-अलग अणु मिलकर वायरस का ‘स्पाइक’ बनाते हैं। वायरस संस्करण E484K में संख्या 484 अमीनो एसिड की इस शृंखला के 484वें स्थान की द्योतक है। E इस स्थान पर पहले संस्करण में मौजूद ऋणात्मक आवेश वाले अमीनो एसिड ग्लूटामेट का संकेत है जो मेज़बान ग्राही से जाकर जुड़ता है। पूरा नाम दर्शाता है कि इस संस्करण में ऋणावेशित E (ग्लूटामेट) का स्थान अब धनावेशित अमीनो एसिड K (लाइसीन) ने ले लिया है। यह वाला उत्परिवर्तन बीटा और गामा संस्करणों में पाया गया है।

उत्परिवर्तन का प्रभाव

गौरतलब है कि उत्परिवर्तन में ऋणात्मक आवेश वाले ग्लूटामेट का स्थान धनात्मक आवेश वाले लाइसीन ने ले लिया है। क्या यह हम मनुष्यों के लिए अच्छी खबर है? उपलब्ध मैदानी आंकड़ों से पता चलता है कि वायरस का यह संस्करण अधिक संक्रामक है। और तो और, वायरस का यह संस्करण वायरस के खिलाफ बनी एंटीबॉडी से बच निकलने में भी सक्षम है।

सुर्खियों में छाए डेल्टा संस्करण में E484Q उत्परिवर्तन हुआ है। इसमें Q का मतलब ग्लूटामाइन है, जो ग्लूटामेट (E) से बहुत अलग नहीं है लेकिन Q उदासीन और ध्रुवीय है।

एक अन्य उत्परिवर्तन है L452 R। यह उत्परिवर्तन भी स्पाइक के ग्राही से बंधने वाले स्थान पर हुआ है। इसमें L का मतलब है ल्यूसीन जो कि अनावेशित और ‘चिपचिपा’ अमीनो एसिड है, और R धनावेशित आर्जिनीन है।

यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि वायरस के कई चिंताजनक संस्करणों के स्पाइक प्रोटीन के ग्राही से जुड़ने वाले हिस्से में सिर्फ एक या दो अमीनो एसिड में परिवर्तन नहीं हुए हैं। यूके में पहली बार देखे गए अल्फा संस्करण में कुल 23 उत्परिवर्तन हैं। इनमें से नौ उत्परिवर्तन स्पाइक प्रोटीन के किसी अन्य भाग में हुए हैं और कुछ अन्य उत्परिवर्तन वायरस के अन्य भागों में हुए हैं, जिन्हें अच्छी तरह समझा नहीं जा सका है।

यह स्पष्ट है कि इस प्रकार के परिवर्तन – विशाल अणु में एक या दो प्रतिस्थापन – का काफी कुशल और काफी विश्वसनीय कंप्यूटर मॉडल तैयार किया जा सकता है। जब भी वायरस  प्रोटीन का नया संस्करण सामने आता है तो इस तरह की मॉडलिंग करके हम उसके बारे में त्वरित अनुमान लगा सकते हैं। इसके अलावा, मॉडलिंग हमें वायरस के प्रोटीन से मज़बूती से जुड़ने वाली औषधियों के अणुओं को डिज़ाइन करने और उन्हें परिष्कृत करने में मदद कर सकता है। उदाहरण के लिए, कोरोनावायरस में एक एंज़ाइम होता है (प्रोटीएज़ वर्ग का एंज़ाइम), जो नए वायरस कण बनने से पहले स्पाइक प्रोटीन में कांट-छांट करके उसे सही आकार देता है। यदि औषधि अणु इस एंज़ाइम से कसकर बंध जाए, तो वह इस कांट-छांट को रोक कर वायरस की वृद्धि बाधित करेगा। आणविक मॉडलिंग से हज़ारों संभावित औषधियों में कुछ सर्वाधिक कारगर अणुओं को पहचानने में मदद मिलती है, जिनकी कारगरता फिर प्रयोगशाला में जांची जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या वनस्पति विज्ञान का अंत हो चुका है? – डॉ. किशोर पंवार

पिछले दिनों सेल प्रेस रिव्यू में विज्ञान और समाज शीर्षक के अंतर्गत एक पर्चा छपा था – दी एंड ऑफ बॉटनी। यह पर्चा संयुक्त रूप से अर्जेंटाइना के वनस्पति संग्रहालय के जार्ज वी. क्रिसी, लिलियाना कैटीनास, मारिया एपीडोका और मिसौरी वनस्पति उद्यान के पीटर सी. हॉच द्वारा लिखा गया है। इस पर्चे का शीर्षक वाकई चौंका देने वाला है और हमें वनस्पति विज्ञान के वर्तमान यथार्थ से रू-ब-रू कराता है।

मैं स्वयं वनस्पति शास्त्र का शिक्षक रहा हूं। यह पर्चा पढ़ते हुए मुझे विक्रम विश्वविद्यालय की वानस्पतिकी अध्ययन शाला में स्नातकोत्तर शिक्षा (1977-78) के अपने दिन याद आ गए। 1982 तक वहीं मैं शोध छात्र भी रहा। बॉटनी डिपार्टमेंट में एम.एससी. की कक्षाएं खचाखच भरी होती थीं। वनस्पति विज्ञान के प्रतिष्ठित प्राध्यापकों द्वारा अध्यापन किया जाता था। फिर गिरावट का एक ऐसा दौर आया कि विद्यार्थी लगातार कम होते चले गए। अध्यापकों की नई भर्ती हुई नहीं और जो थे वे एक के बाद एक रिटायर होते गए। और वर्तमान में यहां एक ही स्थायी प्राध्यापक है। और विभाग आज वनस्पति शास्त्र विषय लेने वाले विद्यार्थियों को तरसता है।

मुख्य विषय वनस्पति विज्ञान की उपेक्षा वर्तमान में एक विश्वव्यापी चिंता का कारण बन चुकी है। इस स्थिति के लिए ज़िम्मेदार कारण कमोबेश वैश्विक हैं। दूसरी ओर, इसकी उप-शाखाएं (जैसे बायो-टेक्नोलॉजी, मॉलीक्यूलर बायोलॉजी, एनवायरमेंटल साइंस और माइक्रोबायोलॉजी आदि) फल-फूल रही हैं। दुख की बात तो यह है कि इन तथाकथित नए प्रतिष्ठित विषयों को पढ़ाने वाले, चलाने वाले प्राध्यापक मूल रूप से वनस्पति विज्ञान के विद्यार्थी ही रहे हैं।

वैसे यह पर्चा अमेरिका के संदर्भ में लिखा गया है लेकिन समस्या अमेरिका तक सीमित नहीं है, दुनिया भर में यही स्थिति है। वनस्पति विज्ञान के कई प्राध्यापक भी सामान्य पौधों तक को पहचानने में असमर्थ हैं। यह जानते हुए भी कि पेड़-पौधे जीवन का आधार हैं, हम इस संकट तक कैसे पहुंचे, इसके कारण क्या हैं? इस परिस्थिति को बदलने के लिए हम क्या कर सकते हैं? ऐसे ही कुछ सवाल उक्त पर्चे में उठाए गए हैं जिनका उल्लेख यहां किया जा रहा है।

इस पर्चे में एक विधेयक की भी बात है जिसका शीर्षक है ‘दी बॉटेनिकल साइंस एंड नेटिव प्लांट मटेरियर रिसर्च रीस्टोरेशन एंड प्रमोशन एक्ट’ जिसे ‘बॉटनी विधेयक’ भी कहा जा रहा है। यह उन चेतावनियों का नतीजा है जो यूएस नेशनल पार्क सर्विसेज़ एंड ब्यूरो आफ लैंड मैनेजमेंट जैसे संस्थानों द्वारा समय-समय पर दी गई थीं। इन संस्थानों का कहना है कि उन्हें वर्तमान में ऐसे वनस्पति शास्त्री पर्याप्त संख्या में नहीं मिल रहे हैं जो घुसपैठी पौध प्रजातियों, जंगल की आग के बाद पुन:वनीकरण और आधारभूत भूमि प्रबंधन के क्षेत्र में मदद कर सकें।

विधेयक का उद्देश्य वनस्पति शास्त्र में शोध और विज्ञान क्षमता को बढ़ावा देना और स्थानीय पौध सामग्री की मांग बढ़ाना है। बिल में त्वरित कार्रवाई की ज़रूरत बताई गई है क्योंकि अगले कुछ वर्षों में सेवा निवृत्ति के चलते तथा नई भर्ती के अभाव में यूएस अपने आधे से भी अधिक विशेषज्ञ वनस्पति शास्त्री गंवा देगा। यह टिप्पणी यूं तो विशेषकर यूएस के लिए है, पर कमोबेश यही स्थिति सारी दुनिया में है।  

बॉटनी शब्द आठवीं शताब्दी के दौरान होमर द्वारा इलियड में दिया गया था। यह धीरे-धीरे पूरे रोमन साम्राज्य में फैला और इसका व्यावहारिक महत्व रेनेसां काल में काफी बढ़ा। बॉटनी ने आधुनिक विज्ञान में लीनियस और डारविन के विचारों को बढ़ावा देने में मदद की और कई महान प्रकृतिविदों ने मिलकर 19वीं से लेकर 20वीं शताब्दी तक इसे स्थापित किया। लेकिन इन 2700 वर्षों में पहली बार यह शब्द विलोप के खतरे से जूझ रहा है। इसके लिए जाने-अनजाने स्वयं इससे जुड़े लोग ही ज़िम्मेदार हैं।

एक उदाहरण देखिए। वर्ष 2017 में शेनजेन में संपन्न हुए एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में दुनिया भर के लगभग 700 से अधिक वैज्ञानिकों ने भाग लिया था। यहां 14 अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वनस्पति शास्त्रियों द्वारा वनस्पति विज्ञान पर एक घोषणा प्रस्तुत की गई। जिसमें सात योजनाबद्ध प्राथमिकताएं बताई गई थीं। लेकिन घोषणा के मजमून में बॉटनी शब्द कहीं नहीं था; इसका स्थान पादप विज्ञान ने ले लिया था।

वनस्पति विज्ञान का ह्यास

वनस्पति विज्ञान के उपविषयों के प्रसार स्वीकार्य हैं, परंतु एक असंतुलित दृष्टिकोण अपनाने से गड़बड़ी होती है। आणविक जीव विज्ञान, सूक्ष्मजीव विज्ञान और पर्यावरण विज्ञान जैसे विषय वर्गीकरण विज्ञान एवं आकारिकी जैसे विषयों पर हावी हो जाते हैं। वस्तुत:,   इन तथाकथित उच्च श्रेणी के विषयों ने वनस्पति विज्ञान की बहुआयामी प्रकृति को तार-तार कर दिया है। गौरतलब है कि आणविक जीव विज्ञान, सूक्ष्मजीव विज्ञान, जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसे विषय वनस्पति विज्ञान की बुनियाद के बिना अधूरे हैं। उदाहरण के लिए, पदानुक्रम के किसी भी स्तर पर कोई भी जैविक परियोजना बिना वैज्ञानिक नाम के पूरी नहीं होती।

प्राकृतिक इतिहास के संग्रह खतरे में

हर्बेरिया तथा अन्य प्राकृतिक इतिहास के संग्रहों का रख-रखाव संग्रहालयों तथा विश्वविद्यालयों द्वारा किया जाता है। ऐसे संग्रह समाज के लिए अमूल्य हैं। ये जैव विविधता और इसके वितरण को समझने की नींव बनाते हैं। हर्बेरिया पौधों की फीनॉलॉजी (ऋतुचक्र) के अध्ययन के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इनके आधार पर परागण के इतिहास और शाकाहारियों के असर का आकलन किया जा सकता है। वर्तमान पौधों में पाए जाने वाले स्टोमेटा की तुलना किसी हर्बेरिया के स्पेसिमेन से करके यह देखा जा सकता है कि उनमें स्टोमेटा की संख्या में कितना बदलाव आया है। इनसे यह भी पता लगाया जा सकता है कि प्रजातियां जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से कैसे तालमेल बैठाती हैं।

दुखद बात यह है कि प्राकृतिक इतिहास के ये संग्रह और सम्बंधित संस्थान तेज़ी से बंद हो रहे हैं। दुर्भाग्य से बजट का अभाव इनके बंद होने के लिए ज़िम्मेदार है। इस तरह के नकारात्मक सामाजिक परिणामों को व्यापक रूप से पत्र-पत्रिकाओं और संपादकों, यहां तक कि लोकप्रिय मीडिया ने भी व्यक्त किया है।

प्राकृतिक इतिहास संग्रह पर मंडराते इन वैश्विक खतरों का वनस्पति विज्ञान पर गहरा प्रभाव पड़ा है क्योंकि कई वनस्पति अनुसंधान परियोजनाओं को हर्बेरिया आदि की आधारभूत आवश्यकता होती है। यहां तक कि आणविक और पारिस्थितिकी विज्ञान सहित अधिकांश जैविक अनुसंधान जीवों की सही-सही पहचान पर निर्भर करता है। प्राकृतिक इतिहास संग्रह में जीवों के नमूनों (वाउचर) का संरक्षण आवश्यक है।

वनस्पति विज्ञान के क्षरण का एक और कारण वर्तमान में शोध पत्रों के महत्व को आंकने का तरीका भी है। आजकल यह देखा जाता है कि किसी शोध पत्र का उल्लेख कितने अन्य शोधकर्ताओं ने अपने शोध पत्रों में किया है। इसके चलते आणविक जीव विज्ञान या सूक्ष्मजीव अनुसंधान की तुलना में वनस्पति विज्ञान के शोध पत्रों को कमतर आंका जाता है।

वनस्पति विज्ञान में घटती रुचि का एक कारण कुछ गलतफहमियां भी हैं। उदाहरण के लिए एक विचार प्रचलित है कि वर्गीकरण विज्ञान (टेक्सॉनॉमी) मूलत: एक विवरणात्मक शाखा है, जिसमें केवल अवलोकन होते हैं। यह गलतफहमी का एक स्पष्ट उदाहरण है। वास्तव में वर्गीकरण विज्ञान में विवरणों की आवश्यकता तो होती है लेकिन साथ ही सिद्धांत, तथा आनुभविक और ज्ञान की मीमांसा की गहनता भी ज़रूरी होती है। यह परिकल्पना आधारित होता है और इसमें मैदानी तथा प्रयोगशालाई विशेषज्ञता ज़रूरी होती है।

तस्वीर कैसे बदल सकती है

इस समस्या का संभावित समाधान दो-तरफा है। पहला विज्ञान की वर्तमान संस्कृति का रोना न रोते हुए यह सोचना होगा कि व्यक्तिगत तौर पर वनस्पति शास्त्री क्या कर सकते हैं। दूसरी ओर वैज्ञानिक व्यक्तियों के रूप में क्या करते हैं इस पर न अटकते हुए यह सोचना होगा कि विज्ञान की संस्कृति क्या कर सकती है।

व्यक्तिगत स्तर पर इस हेतु कुछ प्रयास किए जा सकते हैं, जैसे –

  • वनस्पति विज्ञान शब्द का सम्मान करना और इसके निंदात्मक प्रयोग को अस्वीकार करना।
  • इस क्षेत्र में जोखिमपूर्ण लेकिन नई ज़मीन तोड़ने वाले काम करना, जबकि फिलहाल यह फैशन में नहीं है।
  • असंतुलित दृष्टिकोण को चुनौती देना। यह स्वीकार करना कि समकक्ष समीक्षित शोध पत्र काम के मूल्यांकन का प्रमुख आधार हैं।
  • शोध कार्य के मूल्यांकन में उल्लेखों की गिनती की विधि को अस्वीकार करना।
  • प्राकृतिक इतिहास संग्रह का मूल्य समझना बहुत ज़रूरी है।

विज्ञान की संस्कृति के संदर्भ में भी कई कदम उठाए जा सकते हैं, जैसे –

  • सरकारों को ऐसे कानून और नीतियां बनानी चाहिए जो वनस्पति विज्ञान के कद को बढ़ा सकें।
  • वैज्ञानिक समुदायों को प्राकृतिक इतिहास के महत्व को समझना होगा और उन तरीकों को बदलना होगा जिनसे वैज्ञानिक अनुसंधान के नतीजों का मूल्यांकन विभिन्न एजेंसियों द्वारा किया जाता है।
  • जीव-स्तर पर काम करने वाले वैज्ञानिकों के लिए रोज़गार के अवसर बढ़ाना होंगे।
  • प्राकृतिक संग्रह को बोझ के रूप में नहीं बल्कि वैज्ञानिक अनुसंधान को प्रोत्साहित करने और जैव विविधता का संरक्षण करने की संपदा के रूप में देखना होगा।
  • इसी तरह फंडिंग एजेंसियों को उन मापदंडों में विविधता लानी होगी जिनके आधार पर वित्त प्रदान करने के निर्णय किए जाते हैं। वनस्पति विज्ञान में अनुसंधान के महत्व को पहचानना और विज्ञान की अन्य शाखाओं के लिए इसके मूल्य और प्राकृतिक इतिहास संग्रह का समर्थन करना ज़रूरी है।
  • विश्वविद्यालय स्तर पर वनस्पति विज्ञान के पाठ्यक्रमों को प्रोत्साहित करना और फैकल्टी को इस तरह संतुलित करना कि उन पाठ्यक्रम को पढ़ाने और वनस्पति विज्ञान में अनुसंधान करने में सक्षम वैज्ञानिकों की पर्याप्त संख्या हो।
  • वैज्ञानिक पत्रिकाओं के संपादकों को वनस्पति विज्ञान की जीव-स्तर की पांडुलिपियों के खिलाफ संभावित पूर्वाग्रह से बचना होगा और बिब्लियोमेट्रिक्स के आधार पर अपनी पत्रिकाओं का महत्व स्थापित करने की प्रवृत्ति से बचना होगा।
  • विज्ञान अकादमियों को अपने घटकों को बॉटनी पर चर्चा हेतु प्रोत्साहित करना होगा।
  • मीडिया में आम जनता के लिये वनस्पति विज्ञान का कवरेज बढ़ाना। जिसमें पौधों के बारे में हमारे ज्ञान और समाज में उनके महत्व और प्राकृतिक इतिहास संग्रह की प्रासंगिकता और पौधों तथा अन्य जीवों की पहचान करने में सक्षम व्यक्तियों को महत्व देना शामिल है।
  • शिक्षकों को हमारे युवाओं के बीच जीवन के अंतर-सम्बंधों की भूमिका और मानव के अस्तित्व के लिए पौधों के महत्व और जैव विविधता के महत्व को समझाना होगा।

कुल मिलाकर पूरी दुनिया में वनस्पति विज्ञान के अध्यापन की मौजूदा स्थिति बहुत ही खराब है; हम सबके जीवन से सीधे तौर पर जुड़े इस विषय की महत्ता को पुन: स्थापित करने के लिए अभी से युद्ध स्तर पर गंभीर प्रयास करने होंगे। तभी कुछ अच्छे नतीजों की आशा की जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नासा की शुक्र की ओर उड़ान

हाल ही में नासा ने शुक्र ग्रह पर दो यान भेजने की घोषणा है। शुक्र हमारा पड़ोसी है और अत्यधिक गर्म है। इस मिशन का उद्देश्य यह समझना है कि शुक्र ऐसा आग का गोला कैसे बन गया जहां लेड भी पिघल जाता है, पृथ्वी कैसे विकसित हुई और पृथ्वी पर जीवन योग्य परिस्थितियां कैसे बनीं?

इन दो अंतरिक्ष यान में से एक यान है DAVINCI+ (डीप एटमॉस्फियर वीनस इनवेस्टिगेशन ऑफ नोबेल गैसेस, कैमिस्ट्री एंड इमेजिंग)। यह शुक्र पर कार्बन डाईऑक्साइड और सल्फ्यूरिक एसिड से संतृप्त विषाक्त बादलों की मोटी परत का अध्ययन करेगा। दूसरा यान है VERITAS (वीनस एमिसिविटी, रेडियो साइंस, इनसार, टोपोग्राफी एंड स्पेक्ट्रोस्कोपी) जो शुक्र की सतह का विस्तृत नक्शा बनाएगा और इसका भूगर्भीय इतिहास पता लगाएगा।

आकार और द्रव्यमान में शुक्र लगभग पृथ्वी के समान है। दूसरी ओर, पृथ्वी के विपरीत इसका वातावरण अत्यंत गर्म और दुर्गम है, लेकिन इस पर कभी हमारी पृथ्वी की तरह समशीतोष्ण वातावरण और समुद्र रहे होंगे। शुक्र की परिस्थितियों में यह बदलाव कैसे आए, इसे समझना यह समझने के लिए भी महत्वपूर्ण है कि वास्तव में शुक्र और पृथ्वी में कितनी समानता थी।

नासा के इस मिशन की घोषणा भूले-बिसरे ग्रह शुक्र में अंतरिक्ष विज्ञानियों की बढ़ती दिलचस्पी के दौर में हुई है। अमेरिका का अंतिम शुक्र मिशन, मैजेलन, वर्ष 1994 में समाप्त हुआ था। उसके बाद युरोप और जापान ने अपने यान शुक्र पर भेजे, और पृथ्वी स्थित दूरबीनों की मदद से ही वैज्ञानिक इस पर नज़र रखे हुए थे। लेकिन इतने अध्ययन के बावजूद भी शुक्र के बारे में कई जानकारियां स्पष्ट नहीं हैं। जैसे शुक्र की सतह पर ज्वालामुखीय गतिविधियों के प्रमाण मिले थे, लेकिन वहां वैसी टेक्टॉनिक गतिविधियों का अभाव है जो पृथ्वी पर ज्वालामुखीय गतिविधियां चलाती है। इसके अलावा शुक्र के वायुमंडल में फॉस्फीन गैस की उपस्थिति भी विवादास्पद रही है, जो वहां जीवन होने का संकेत हो सकती है।

संभवत: 2030 तक DAVINCI+ अंतरिक्ष यान शुक्र के लिए रवाना हो जाएगा। शुक्र पर पहुंचकर यह वहां के पृथ्वी की तुलना में 90 गुना घने वायुमंडल मे उतरेगा, उतरते-उतरते विभिन्न ऊंचाइयों पर हवा के नमूने लेगा और पृथ्वी पर जानकारियां भेजता रहेगा। ये वैज्ञानिकों को यह समझने में मदद करेंगी कि शुक्र कैसे विकसित हुआ था, और क्या इस पर कभी महासागर थे।

एक ओर, DAVINCI+ शुक्र के वायुमंडल का अध्ययन करेगा, वहीं VERITAS शुक्र की कक्षा में रहकर ही उसकी सतह का मानचित्रण करेगा। इससे प्राप्त चित्र, सतह के रसायन विज्ञान और स्थलाकृति के बारे में विस्तृत जानकारी शुक्र के भूगर्भीय इतिहास को समझने में मदद करेगी, और इस गुत्थी को सुलझाएगी कि शुक्र पर इतनी भीषण परिस्थितियां कैसे बनीं? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण पर बढ़ती चिंता

प्लास्टिक माउंट एवरेस्ट से लेकर अंटार्कटिका तक पहुंच चुका है। हर वर्ष, लाखों टन प्लास्टिक कचरा समुद्र में बहा दिया जाता है। इनमें से कुछ बड़े टुकड़े तो समुद्र में तैरते रहते हैं, कुछ छोटे कण समुद्र के पेंदे में पहुंच जाते हैं तो कुछ का ठिकाना समुद्र की गहरी खाइयों के क्रस्टेशियन जीवों तक में होता है।

पिछले कुछ वर्षों में समुद्री प्लास्टिक पर प्रकाशित शोध पत्रों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। राष्ट्र संघ की विज्ञान की स्थिति सम्बंधी एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011 में यह संख्या 46 थी जो 2019 में बढ़कर 853 हो गई।

युनिवर्सिटी ऑफ काडिज़ के कारमेन मोराल्स कहते हैं कि धातुओं या कार्बन यौगिकों जैसे प्रदूषकों की तुलना में प्लास्टिक ज़्यादा नज़र आता है जिसके चलते यह जनता और नीति निर्माताओं का अधिक ध्यान आकर्षित करता है। वैज्ञानिक यह पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं कि यह प्लास्टिक कहां से आता है, कहां जाता है और पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करता है।

इन शोध प्रकाशनों में अभी भी ज़्यादा ध्यान समुद्र तटों, समुद्र के पेंदे या जंतुओं में प्लास्टिक की उपस्थिति पर दिया जा रहा है जबकि प्लास्टिक के रुाोतों और समाधानों पर काफी कम शोध पत्र प्रकाशित हो रहे हैं। हाल ही में मोराल्स और उनकी टीम ने विभिन्न अध्ययनों के डैटा के आधार पर कचरे से 1.2 करोड़ वस्तुओं की सूची तैयार की है जिनका आकार दो सेंटीमीटर से अधिक है। भोजन और पेय पदार्थों के पैकिंग में उपयोग होने वाली बोतलें, कंटेनर, रैपर और बैग्स कुल पर्यावरणीय कचरे का लगभग 44 प्रतिशत है।

प्लास्टिक प्रदूषण के पारिस्थितिकी प्रभाव को समझने के प्रयास भी चल रहे हैं। प्लास्टिक स्वयं तो अक्रिय पदार्थ हैं लेकिन इनमें अग्निरोधी पदार्थों और रंजकों के अलावा इन्हें लचीला और टिकाऊ बनाने के लिए योजक मिलाए जाते हैं। यही चिंता का कारण हैं। हानिकारक पॉलीसाइक्लिक एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन भी बहते प्लास्टिक से चिपककर पर्यावरण में प्रवेश कर सकते हैं।

इसके अलावा, माइक्रोप्लास्टिक कण प्लवकों के आकार के होते हैं जिन्हें समुद्री जंतु भोजन समझकर निगल लेते हैं। छोटे नैनोप्लास्टिक तो और अधिक हानिकारक हो सकते हैं जो ऊतकों में प्रवेश कर जाते हैं और सूजन का कारण बन सकते हैं। अभी तक प्लास्टिक के विषैले प्रभावों को ठीक तरह से समझा नहीं जा सका है और पर्यावरण में पाए जाने वाले प्लास्टिक जैसा सम्मिश्रण प्रयोगशाला में बनाना कठिन कार्य है।

एक समाधान के तौर पर 2018 से लेकर अब तक 127 देशों ने प्लास्टिक बैग का उपयोग नियंत्रित करने के लिए कानून पारित किए हैं। लेकिन कुछ रिपोर्ट के अनुसार प्लास्टिक पुनर्चक्रण की धीमी गति को देखते हुए ऐसे प्रतिबंध लगाना पर्याप्त नहीं है। इसके लिए जैव-विघटनशील विकल्प ज़रूरी हैं।

ऐसे में वनस्पति-आधारित हाइड्रोकार्बन से प्राप्त सामग्री पर अनुसंधान में काफी तेज़ी आई है। लेकिन इसकी रफ्तार अभी भी समस्या की विकरालता के सामने काफी धीमी है। प्लास्टिक के पर्यावरण विकल्पों पर प्रकाशन 2011 में 404 से बढ़कर 2019 में 1111 हो गए हैं। युनिवर्सिटी ऑफ साओ पाउलो के रासायनिक इंजीनियर इन दिनों कसावा स्टार्च से बायोडीग्रेडेबल प्लास्टिक विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं।       

कुछ वैज्ञानिक प्लास्टिक प्रदूषण और परमाणु कचरे की समस्या में समानता देखते हैं। कहा जाता था कि विज्ञान के विकास के साथ नाभिकीय अपशिष्ट निपटान की तकनीकें विकसित होती जाएंगी। लेकिन आज भी परमाणु कचरे के निपटान की तकनीकें समस्या से काफी पीछे ही हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तालाबंदी की सामाजिक कीमत – सोमेश केलकर

म तौर पर कीमत को हम मुद्रा से जोड़कर देखते हैं। लेकिन यहां हम सामाजिक कीमत की बात करेंगे। सामाजिक कीमत वह है जिसे किसी उद्देश्य पूर्ति के लिए समाज सामूहिक रूप से वहन करता है। भारत के संदर्भ में यह पिछले साल मार्च और फिर इस साल अप्रैल-मई में की गई तालाबंदी के कारण समाज द्वारा झेली गई पीड़ा और क्षति है। इस लेख में हम देखेंगे कि कैसे आनन-फानन तालाबंदी ने लोगों का जीवन प्रभावित किया और किस तरह तालाबंदी की सामाजिक कीमत कम की जा सकती थी।

तालाबंदी के कारण मौतें

भारत में मई 2021 तक मरने वालों की अधिकारिक संख्या 2,95,525 थी जिसका कारण सिर्फ महामारी नहीं थी। समाचार वेबसाइट theprint.in के अनुसार सिर्फ केरल में अप्रैल 2020 तक तालाबंदी के दौरान भूख, पुलिस की बर्बरता, चिकित्सा सहायता में देरी, आय के स्रोत चले जाने, भोजन व आश्रय न मिलने, सड़क दुर्घटनाओं, शराब की तलब, अकेलेपन या बाहर निकलने पर पाबंदी और तालाबंदी से जुड़े अपराध (गैर-सांप्रदायिक) के कारण 186 लोगों की जान चली गई थी।

अनौपचारिक क्षेत्र

देशव्यापी तालाबंदी के दौरान भारत के अधिकांश हिस्सों में कोविड-19 से लड़ने के लिए आवश्यक वस्तुओं की निर्बाध आपूर्ति की कोशिश हो रही थी। लेकिन मुख्य सवाल यह है कि इतने बड़े पैमाने पर उत्पादन और कम लागत पर वितरण की मांग को पूरा करने के लिए श्रमिकों को क्या कीमत चुकानी पड़ी? ये ऐसे सवाल हैं जिनमें संक्रमण काल से परे दीर्घकालिक मानवीय चिंता झलकती है।

असंगठित और प्रवासी श्रमिकों का एक बड़ा वर्ग (39 करोड़) है, जो सबसे कमज़ोर है और सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा के दायरे से या तो बाहर है या उसकी परिधि पर है। तालाबंदी की सामाजिक कीमत सबसे अधिक इसी मज़दूर वर्ग ने चुकाई है। और इसी वजह से यह तबका शोषण और मानव तस्करी जैसे संगठित अपराधों का आसानी से शिकार बन जाता है।

प्रवासी मज़दूरों के लिए अपने गांव वापस जाना भी आसान नहीं था। कई राज्यों में श्रमिकों को अपने गांव पहुंचने से पहले और बाद में अभाव और भूख का सामना करना पड़ा। उन्हें अपने दैनिक निर्वाह के लिए महंगा कर्ज़ लेने को मजबूर होना पड़ा। इसने बच्चों को अपने माता-पिता द्वारा लिया कर्ज चुकाने के लिए बंधुआ मज़दूरी और भुगतान-रहित मज़दूरी करने की ओर धकेल दिया।

2020 के उत्तरार्ध में तालाबंदी के बाद जब चीज़ें सामान्य होने लगीं और कारखाने पूरी क्षमता के साथ शुरू हो गए तो कारखाना मालिकों ने अपने नुकसान की भरपाई के लिए श्रमिकों को कम पैसों पर रखना शुरू किया। ज़रूरतमंद, कमज़ोर और असंगठित श्रमिक पर्याप्त मज़दूरी या अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने की स्थिति में न होने के कारण कम मज़दूरी पर काम करने लगे। कई राज्य सरकारों ने अर्थ व्यवस्था दुरुस्त करने की आड़ में श्रमिक कानूनों में ढील देकर श्रमिकों की मुसीबत और बढ़ा दी।

काम पर रखे गए नए मज़दूरों में बड़ी संख्या में बच्चे थे, परिवार की मदद करने के कारण उनका स्कूल छूट गया। कारखानों में मज़दूरी के लिए हज़ारों बच्चों की तस्करी भी हुई, जहां उन्हें अत्यंत कम मज़दूरी पर काम करना पड़ा और संभवत: शारीरिक, मानसिक और यौन उत्पीड़न भी झेलना पड़ा।

केंद्र और राज्य सरकारों को इन चुनौतियों से निपटने के लिए वृहद योजना बनाने की ज़रूरत है। खासकर असुरक्षित/हाशिएकृत बच्चों की सुरक्षा के लिए। यहां कुछ ऐसे तरीकों का उल्लेख किया जा रहा है जिन्हें अपनाकर दोनों तालाबंदी का बेहतर प्रबंधन किया जा सकता था –

1. कानूनी ढांचे का आकलन और समीक्षा: केंद्र सरकार को मानव तस्करी के मौजूदा आपराधिक कानून, इसकी अपराध रोकने की क्षमता और पीड़ितों की ज़रूरतों को पूरा करने की क्षमता का आकलन करके लंबित मानव तस्करी विरोधी विधेयक को संशोधित करके संसद में पारित करवाना चाहिए।

2. कारखानों और विनिर्माण इकाइयों का निरीक्षण: छोटे और मध्यम व्यवसायी कारखानों को गैर-कानूनी ढंग से न चला पाएं, इसके लिए उनका निरीक्षण करना और उन्हें जवाबदेह बनाना चाहिए। बाल श्रम कानूनों के अनुपालन पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। साथ ही बाल श्रम रोकने के लिए कम से कम अगले दो वर्षों तक पंजीकृत कारखानों और अन्य निर्माण इकाइयों का गहन निरीक्षण किया जाना चाहिए।

3. कानून के अमल और पीड़ितों के पुनर्वास हेतु बजट आवंटन में वृद्धि: विमुक्त बंधुआ मज़दूरों के पुनर्वास के लिए 2016 में केंद्र सरकार ने अपनी योजना के तहत पीड़ितों को तीन लाख रुपए तक के मुआवज़े का प्रावधान रखा था। लेकिन बजट में योजना के लिए कुल आवंटन महज़ 100 करोड़ रुपए है जबकि योजना को बनाए रखने का न्यूनतम खर्च ही 100.2 करोड़ रुपए है। इसमें तत्काल वृद्धि आवश्यक है।

4. ऋण प्रणाली का विनियमन: ग्रामीण भारत में स्थानीय साहूकारों द्वारा तालाबंदी से प्रभावित लोगों का शोषण रोकने के लिए विनियमन की आवश्यकता है। इसमें उधार देने के लिए लायसेंस और ब्याज दर की उच्चतम सीमा निर्धारित करने के अलावा, सरकारी बैंकों द्वारा उचित शर्तों पर दीर्घावधि कर्ज़ देना व उदार वसूली प्रक्रियाएं शामिल हों। बंधुआ मज़दूरी को समाप्त करने में राज्य सरकारों की सक्रिय भूमिका हो।

महिलाएं

तालाबंदी की सामाजिक कीमत महिलाओं और बच्चों को भी चुकानी पड़ी है। आर्थिक के अलावा मनोवैज्ञानिक असर भी देखे जा रहे हैं। लोग पहले ही गंदगी और बदतर स्थितियों में रहने को मजबूर थे और अनियोजित तालाबंदी के कारण लिंग-आधारित हिंसा, बाल-दुर्व्यवहार, सुरक्षा में कमी, धन और स्वास्थ्य जैसी सामाजिक असमानताएं बढ़ी हैं। महिलाएं वैसे ही अपने स्वास्थ्य की उपेक्षा करती हैं। ऊपर से लॉकडाउन के दौरान महिलाओं के स्वास्थ्य – मासिक स्राव सम्बंधी स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य और पोषण – की और उपेक्षा हुई है और सीमित हुए संसाधनों ने स्थिति को और भी बदतर बनाया है।

तालाबंदी के दौरान बाल विवाह की संख्या में भी वृद्धि देखी गई है। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2020 की तालाबंदी के दौरान, बाल विवाह से सम्बंधित लगभग 5584 फोन आए थे।

स्कूल बंद होने के कारण परिवारों और युवा लड़कियों तक पहुंच पाना और बाल-विवाह के मुद्दे पर बात करना मुश्किल हो गया है। बाल अधिकार कार्यकर्ताओं के अनुसार बाल विवाह के चलते लड़कियों का स्कूल छूट जाता है। और यदि हालात बिगड़ते हैं तो उन्हें गुलामी और घरेलू हिंसा भी झेलनी पड़ती है।

तालाबंदी में नौकरी गंवाने और आय न होने के चलते प्रवासी कामगार और मज़दूर भुखमरी और कर्ज़ की ओर धकेले गए। इस स्थिति में उन्हें बेटियों का शीघ्र विवाह करना ही उनकी सुरक्षा और जीवन के लिए उचित लगा।

शिक्षा

शिक्षा पर तालाबंदी का प्रभाव विनाशकारी रहा। मार्च 2020 में सख्त तालाबंदी लगते ही स्कूल भी बंद कर दिए गए। और बंद पड़े स्कूल अब तक सबसे उपेक्षित मुद्दा रहा है। विश्व बैंक ने अपनी 2020 की रिपोर्ट बीटन ऑर ब्रोकन: इनफॉर्मेलिटी एंड कोविड-19 इन साउथ एशिया में पर्याप्त डैटा के साथ इस पर एक व्यापक विश्लेषण प्रकाशित किया है कि कैसे महामारी ने दक्षिण एशियाई क्षेत्र को प्रभावित किया।

इस रिपोर्ट का एक दिलचस्प बिंदु है अर्थव्यवस्था पर स्कूल बंदी का प्रभाव। तालाबंदी की घोषणा के बाद से ही दक्षिण एशिया में स्कूल बंद हैं। भारत में भी मार्च 2020 से स्कूल बंद कर दिए गए थे। अधिकतर शहरी निजी स्कूलों ने ऑनलाइन शैली में कक्षाएं शुरू कर दी थीं। लेकिन सरकारी स्कूल अब भी कक्षाएं संचालित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं क्योंकि सुदूर और ग्रामीण इलाकों में रहने वाले बच्चों की इंटरनेट तक पहुंच नहीं है या उसका खर्च वहन करने की सामथ्र्य नहीं है। यह एक गंभीर मुद्दा है।

विश्व बैंक ने शायद पहली बार अपनी रिपोर्ट में स्कूल बंदी के प्रभावों के मौद्रिक आकलन की कोशिश की है। रिपोर्ट के नतीजे चौंकाने वाले हैं। रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशियाई क्षेत्र में 39.1 करोड़ बच्चे स्कूलों से वंचित हुए जिसके कारण सीखने का गंभीर संकट पैदा हो गया है। महामारी के कारण 55 लाख बच्चे पढ़ाई छोड़ भी सकते हैं। इसके अलावा, स्कूल बंदी से स्कूली शिक्षा के 6 महीनों के समय का नुकसान हुआ है।

रिपोर्ट कहती है कि स्कूल बंद होने से न केवल सीखने पर अस्थायी रोक लगती है, बल्कि छात्रों द्वारा पूर्व में सीखी गई चीज़ों को भूलने का भी खतरा होता है। इसका आर्थिक असर भी चौंकाने वाला है। स्कूल बंदी के परिणामस्वरूप दक्षिण एशियाई क्षेत्र को 622 अरब डॉलर से 880 अरब डॉलर तक का नुकसान होने का अंदेशा है।

रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया में एक औसत बच्चे के वयस्क होने के बाद उसकी जीवन भर की कमाई में कुल 4400 डॉलर की कमी आएगी जो उसकी संभावित आमदनी का 5 प्रतिशत है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि वर्तमान तालाबंदी से होने वाला कुल आर्थिक नुकसान, वर्तमान में शिक्षा पर किए जाने वाले खर्च से काफी अधिक है।

सामाजिक पतन

भारत और अन्य देशों में कई तरह के नस्लवाद ने लोगों को बांट दिया है। धर्म-आधारित घृणा, जाति आधारित भेदभाव और उत्तर-पूर्वी लोगों को कलंकित करना किसी भी अन्य भेदभाव के समान ही घातक है। अनभिज्ञ और पक्षपाती मीडिया और लोगों ने देश के सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाया है और कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई को सामाजिक रूप से बहुत प्रभावित किया है। सार्स-कोव-2 वायरस को उसकी उत्पत्ति के चलते चीनी वायरस कहकर चीन के लोगों के साथ भेदभाव का माहौल बना। यह संवेदनशीलता के गिरते स्तर का द्योतक है। समाज ने तालाबंदी की यह एक और कीमत चुकाई है।

यदि उचित उपाय नहीं किए गए तो जातिवाद के विचार स्वाभाविक रूप से लोगों की मानसिकता में बने रहेंगे जो समाज की शांति और स्थिरता के लिए खतरा होगा। नस्लवाद के इस अदृश्य घातक वायरस से लड़ने के लिए व्यक्तिगत, सामुदायिक और सरकारी स्तर पर, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के स्तर पर दीर्घकालिक नियोजन और सामूहिक प्रयास किए जाने चाहिए। भारत में नेताओं को भाषा और मुद्दों के प्रति अधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता है। उन्हें समस्या के समाधान निकालने के प्रयास करने चाहिए न कि समाधान में अड़ंगा लगाना चाहिए।

निष्कर्ष

यहां हमने तालाबंदी की समाज द्वारा चुकाई गई कुछ कीमतों पर ध्यान दिया। लेकिन हमारे आसपास कई और भी मुद्दे हैं जो दिखते तो हैं लेकिन उपेक्षित रह जाते हैं। जैसे किराए की दुकान में अपना व्यवसाय करने वाले छोटे व्यवसाय, तालाबंदी में दुकान बंद रखने के कारण उनकी आय तो रुक गई लेकिन दुकान का किराया तो देना ही पड़ा होगा।

भले ही आकलन करना कठिन हो, लेकिन स्पष्ट है कि 2020 और 2021 दोनों में भारत के लॉकडाउन की सामाजिक कीमत काफी अधिक रही है। तालाबंदी जैसे कठोर उपायों को लागू करने से पहले व्यवस्थित योजना तालाबंदी की सामाजिक कीमत कम करने और लोगों का नुकसान कम करने व कम से कम असुविधा सुनिश्चित कर सकती है। यह सभी के लिए हितकर होगा कि हम अपनी गलतियों से सीखें, स्वास्थ्य व स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को दुरुस्त करने पर अधिक ध्यान दें, चिकित्सा अध्ययन को प्रोत्साहित करने के तरीके खोजें, और यह सुनिश्चित करें कि हमारे डॉक्टर देश छोड़कर न जाएं।

तालाबंदी अपर्याप्त स्वास्थ्य सेवा की भरपाई का अंतिम उपाय है, महामारी का समाधान नहीं। ज़रूरत है कि समाज के कमज़ोर वर्गों को होने वाले नुकसान को कम से कम करने के लिए उचित योजना बनाई जाए, और स्वास्थ्य सेवा में भारी निवेश किया जाए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि भविष्य में ऐसी स्थिति फिर से उत्पन्न होने पर हमें स्वास्थ्य के कमज़ोर ढांचे की वजह से तालाबंदी न करनी पड़े। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पुतली का आकार और बुद्धिमत्ता

हते हैं कि आंखें दिल की ज़ुबां होती हैं। लेकिन हाल ही में किए गए अध्ययन से पता चलता है कि ये हमारे मस्तिष्क का हाल भी बयां करती हैं। आंखों की पुतलियां न सिर्फ प्रकाश के प्रति प्रतिक्रिया देती हैं बल्कि उत्तेजना, रुचि तथा मानसिक थकावट के संकेत भी देती हैं। कई खुफिया एजेंसियां झूठ पकड़ने के लिए भी इनका उपयोग करती हैं।

पुतली आंख के बीच स्थित काले गोलाकार भाग को कहते हैं। इसका आकार लगभग 2 से 8 मिलीमीटर होता है। यह पुतली परितारिका नामक रंगीन क्षेत्र से घिरी होता है जो पुतली के आकार को नियंत्रित करता है।

इस विषय में जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में किए गए अध्ययन से पता चला है कि पुतली का मूल आकार बुद्धिमत्ता से निकट सम्बंध दर्शाता है। तार्किकता, एकाग्रता और स्मृति जांच में पाया गया कि जितनी बड़ी पुतली, उतनी ही अधिक बुद्धि। तीन अध्ययनों में किए गए संज्ञानात्मक परीक्षणों में सबसे अधिक और सबसे कम अंक प्राप्त करने वाले लोगों की पुतली के आकार में स्पष्ट अंतर देखे गए हैं।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पुतली के फैलाव की तकनीक का उपयोग किया। पुतली के आकार और बुद्धि के बीच के सम्बंध को समझने के लिए एटलांटा समुदाय के 18 से 35 वर्षों के 500 से अधिक लोगों पर अध्ययन किया गया। इसके बाद उन्होंने शक्तिशाली कैमरा और कंप्यूटर से लैस ऑई ट्रैकर की मदद से उनकी पुतली के आकार का मापन किया। इस प्रक्रिया में प्रतिभागियों को लगभग चार मिनट तक कंप्यूटर का खाली स्क्रीन देखने को कहा गया और इस दौरान उनकी पुतली की स्थिर अवस्था को मापा गया। इसके आधार पर प्रत्येक प्रतिभागी की पुतली के औसत आकार की गणना की गई। तेज़ रोशनी में पुतलियां सिकुड़ जाती हैं, इसलिए अध्ययन के दौरान रोशनी मंद रखी गई।              

अध्ययन के अगले भाग में प्रतिभागियों की ‘तरल बुद्धिमत्ता’ (नई समस्याओं के प्रति तर्क करने की क्षमता), ‘कामकाजी स्मृति क्षमता’ (एक समय अवधि तक किसी जानकारी को याद रखने की क्षमता) और ‘एकाग्रता नियंत्रण’ (खलल की स्थिति में ध्यान केंद्रित करने की क्षमता) को मापने के लिए कई संज्ञानात्मक परीक्षण किए गए।

उदाहरण के तौर पर, प्रतिभागियों को कंप्यूटर स्क्रीन के एक सिरे पर बड़े से टिमटिमाते तारे से ध्यान बचाते हुए स्क्रीन के विपरीत सिरे पर एक अक्षर की पहचान करना थी। यह अक्षर कुछ ही क्षणों के लिए प्रकट होता था, इसलिए क्षण भर भी इस टिमटिमाते तारे की ओर ध्यान दिया तो अक्षर नहीं देख पाएंगे। गौरतलब है कि मनुष्य में परिधीय दृष्टि से गुज़रने वाली वस्तुओं पर प्रतिक्रिया करने की प्रवृत्ति होती है लेकिन इस कार्य में अक्षर पर ध्यान केंद्रित करने का निर्देश दिया गया था।     

शोधकर्ताओं ने पाया कि पुतली का मूल आकार तरल बुद्धिमत्ता, एकाग्रता नियंत्रण, और कुछ हद तक कामकाजी स्मृति क्षमता से जुड़ा है। पुतली का आकार उम्र के साथ घटता जाता है। विश्लेषण में इस बात का ध्यान रखते हुए भी यह सम्बंध बना रहता है।

सवाल है कि पुतली के आकार का सम्बंध बुद्धि से कैसे है? शोधकर्ताओं का मानना है कि पुतली का आकार मस्तिष्क के ऊपरी स्टेम में स्थित लोकस कोर्यूलियस की गतिविधि से सम्बंधित है। यह मस्तिष्क के अन्य हिस्सों से तंत्रिकाओं के माध्यम से जुड़ा होता है। लोकस कोर्यूलियस एक रसायन नॉरएपिनेफ्रिन मुक्त करता है जो मस्तिष्क और शरीर में तंत्रिका-संप्रेषक और हॉर्मोन के रूप में कार्य करता है। इसके साथ ही यह अनुभूति, एकाग्रता, सीखने और स्मृति जैसी प्रक्रियाओं को भी नियंत्रित करता है। यह मस्तिष्क की गतिविधियों का समन्वय भी करता है ताकि मस्तिष्क के दूरस्थ क्षेत्र चुनौतीपूर्ण कार्यों और लक्ष्यों को पूरा करने के लिए मिलकर काम कर सकें।

लोकस कोर्यूलियस के काम में गड़बड़ी की वजह से मस्तिष्क के कार्यों में समन्वय अस्त-व्यस्त हो जाता है। इसका सम्बंध अल्ज़ाइमर एवं एकाग्रता के अभाव से देखा गया है। मस्तिष्क की गतिवधियों में समन्वय बहुत महत्वपूर्ण है और मस्तिष्क अपनी अधिकांश ऊर्जा इसको बनाए रखने में खर्च करता है।

एक परिकल्पना यह है कि जिन लोगों में पुतलियों का आकार बड़ा होता है उनमें लोकस कोर्यूलियस की गतिविधि भी अधिक होती है जो संज्ञानात्मक प्रदर्शन के लिए लाभदायक है। फिर भी बड़े आकार की पुतलियों और बुद्धि का सम्बंध समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है। आंखों में अभी काफी रहस्य हैं जिनको अभी और गहराई से समझना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वैज्ञानिक साहित्य में नकली शोध पत्रों की भरमार

क अध्ययन से पता चला है कि वैज्ञानिक साहित्य में कंप्यूटर प्रोग्राम द्वारा रचे गए बेमतलब शोध पत्रों की संख्या काफी अधिक है। यदि प्रकाशकों द्वारा कार्यवाही की जाती है तो 200 से अधिक शोध पत्र हटाए जा सकते हैं।

यह मुद्दा सबसे पहले तब सामने आया जब 2005 में तीन पीएचडी छात्रों ने शोध पत्र बनाने वाला SCIgen नामक सॉफ्टवेयर तैयार किया। वे बताना चाहते थे कि कुछ सम्मेलनों में अर्थहीन पेपर भी स्वीकार किए जाते हैं। यह सॉफ्टवेयर बेतरतीब शीर्षकों, शब्दों और चार्ट्स के माध्यम से शोध आलेख तैयार करता है। मानव पाठक इसकी निरर्थकता को बहुत ही आसानी से पकड़ सकते हैं।

वर्ष 2012 तक कंप्यूटर वैज्ञानिक सिरिल लेबे ने SCIgen की मदद से तैयार किए गए 85 नकली पत्रों का पता लगाया था जो IEEE द्वारा प्रकाशित किए जा चुके हैं। इसके अलावा एक अन्य प्रकाशक स्प्रिंगर द्वारा भी कई नकली शोध पत्र प्रकाशित किए गए हैं। हालांकि, ये लेख या तो वापस ले लिए गए या हटा दिए गए हैं। फिर भी लेबे ने एक वेबसाइट शुरू की है जिसमें कोई भी पेपर या शोध पत्र अपलोड कर सकता है और पता लगा सकता है कि यह SCIgen की मदद से तैयार किया गया है या नहीं। स्प्रिंगर ने भी ऐसे पत्रों का पता लगाने के लिए SciDetect नामक सॉफ्टवेयर तैयार किया है।

इन कूट-रचित पर्चों का पता लगाने के लिए पहले तो लेबे ने SCIgen की शब्दावली के विशिष्ट शब्दों का सहारा लिया। फ्रांस के एक अन्य वैज्ञानिक ने SCIgen रचित पर्चों में प्रमुख वैयाकरणिक तत्वों का पता लगाने का काम किया। पिछले महीने ही दोनों ने डायमेंशन डैटाबेस में मौजूद लाखों पर्चों में ऐसे वाक्यांशों की खोज की है। इस अध्ययन में उन्होंने 243 ऐसे लेख पाए जो पूर्ण या आंशिक रूप से SCIgen की मदद से तैयार किए गए थे। ये लेख 2008 से 2020 के दौरान प्रकाशित किए गए हैं और मुख्य रूप से कंप्यूटर साइंस क्षेत्र के जर्नल, सम्मेलनों, प्रीप्रिंट साइट्स में छपे हैं। इनमें से कुछ तो ओपन-एक्सेस जर्नल में प्रकशित हुए हैं। 46 पर्चों को वेबसाइटों से वापस ले लिया या हटा दिया गया है। पिछले वर्ष वैज्ञानिकों ने 20 अन्य पेपर्स को भी हटाया है जो MATHgen (गणित) और SBIR प्रपोज़ल जनरेटर द्वारा रचे गए थे।

गौरतलब है कि SCIgen की मदद से तैयार किए गए अधिकांश नवीनतम पेपर चीन (64 प्रतिशत) और भारत (22 प्रतिशत) के शोधकर्ताओं द्वारा लिखे गए हैं। कुछ लेखकों ने बताया कि उनका नाम उनसे पूछे बगैर शामिल किया गया है। लेकिन कई लेख वास्तविक संदर्भ सूची के साथ प्रस्तुत किए गए हैं। लगता है कि वैज्ञानिकों की प्रकाशन-प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए ऐसा किया गया है। 

SCIgen रचित दो ऐसे पेपर्स का पता लगा है जिन्हें IEEE ने वापस नहीं लिया है। इसी तरह स्प्रिंगर का भी एक पेपर वापस नहीं लिया गया है जिसमें कुछ भाग MATHgen द्वारा रचित है। इस पड़ताल से कुछ प्रकाशक बहुत चिंतित हैं क्योंकि इससे यह भी पता चलता है कि इन सभी पेपर्स की विशेषज्ञ समीक्षा के दौरान ये पेपर्स पकड़े नहीं जा सके थे। यानी इस प्रक्रिया के साथ भी समझौता हुआ था।

SCIgen की मदद रचित सबसे अधिक सामग्री को प्रकाशित करने वालों में स्विस ट्रांस टेक पब्लिकेशन्स (57), भारत स्थित ब्लू आईज़ इंटेलिजेंस इंजीनियरिंग एंड साइंस पब्लिकेशन (BEIESP, 54) और फ्रांस स्थित अटलांटिस प्रेस (39) है। ट्रांस टेक और अटलांटिस ने लेखों को वापस लेते हुए इस पर जांच करने की बात कही है जबकि BEIESP का कहना है कि वह मूल सामग्री पर आधारित पेपर गहन समकक्ष समीक्षा और सभी तरह की जांच के बाद ही प्रकाशित करता है।

एक अध्ययन में पता चला है कि समकक्ष समीक्षा के पहले पेपर साझा करने वाले एक सर्वर (SSRN), पर भी SCIgen रचित 16 लेख प्रकाशित हुए हैं जिनकी जांच जारी है। ऐसे में वैज्ञानिकों को अपारदर्शी तरीकों से शोध पत्रों को प्रकाशित करने को लेकर काफी चिंता है। उदाहरण के लिए IEEE ने तो अपनी वेबसाइट से ऐसे शोध पत्रों को तो हटा लिया है और अन्य प्रकाशकों को औपचारिक तौर पर ऐसे पत्र हटाने के संदेश भी दिए हैं। SSRN सर्वर से कुछ पेपर्स तो बिना किसी रिकॉर्ड के हटा दिए गए हैं।

वैसे तो SCIgen की मदद से तैयार किए गए पेपर्स की संख्या बहुत ज़्यादा नहीं है लेकिन इस तरह के पेपर्स का प्रकाशित होना वैज्ञानिक प्रकाशन की परंपरा के लिए काफी खतरनाक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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