परजीवी और प्रतिरक्षा तंत्र की जुगलबंदी
सफल घुसपैठ के लिए परजीवी अलग-अलग रणनीतियों का इस्तेमाल करते हैं। तो इन रणनीतियों का जवाब देने के लिए प्रतिरक्षा तंत्र को किस तरह से काम करना पड़ता है?
क्या शरीर में परजीवियों के अलग-अलग अड्डे हैं?
पिछले लेख में हमने कहा था कि लक्ष्य को पहचान लेने के बाद प्रतिरक्षा तंत्र को परजीवियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली विविध रणनीतियों के जवाब में अपनी रणनीतियों को भी निर्धारित करना होता है। तो सवाल यह उठता है कि क्या परजीवियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली रणनीतियों को कुछ प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है? उसी से यह तय होगा कि प्रत्युत्तर के उपलब्ध प्रकार क्या होंगे। और इस सवाल का जवाब है – हां, मोटे तौर पर रणनीतियों के प्रकार पहचाने जा सकते हैं।
आवास-भोजन के अड्डे
याद कीजिए कि हमने पिछले हिस्से में यह बात की थी कि बहुकोशिकीय जीवों में श्रम विभाजन के चलते पौष्टिक पर्यावरण मौजूद होता है। ऐसे परिवेश में मुफ्तखोरों के लिए कितने संभव अड्डे (पारिस्थितिक निशे) पहचाने जा सकते हैं? ज़ाहिर है, पहला तो पोषण का वह समंदर स्वयं है जो सारी कोशिकाओं के आसपास भरा होता है। कोई परजीवी मज़े से इस तालाब में पड़ा रह सकता है और निशुल्क भोजन प्राप्त करके जीवनयापन कर सकता है। कई बैक्टीरिया संक्रमण (जैसे निमोनिया पैदा करने वाला न्यूमोकॉकस या मुहांसे पैदा करने वाला स्टेफिलोकॉकस) इसी कोशिका-बाह्य रणनीति का इस्तेमाल करते हैं। ये कोशिकाओं को भूखा मार देते हैं और ऐसा कचरा उत्पन्न करते हैं जो कोशिकाओं के ‘वातावरण’ को विषैला कर देता है।
कोशिका के अंदर के अड्डे
कशेरुकी जंतुओं के शरीर में लुटेरों के लिए दूसरा पारिस्थितिक निशे कोशिकाओं के बीच की जगह में नहीं बल्कि उनके अंदर होता है। बहु-कोशिकीय जीवों की कोशिका रचना के मद्देनज़र इस रणनीति में दो मुख्य प्रकार संभव हैं।
कोशिका के अंदर जाकर परजीवी उसके अलग-अलग अंगकों में बस सकता है। ये अंगक शेष कोशिका से झिल्ली के द्वारा पृथक रहते हैं। या फिर वे इन झिल्लियों की बाधा को पार करके सीधे कोशिका द्रव्य में अड्डा जमा सकते हैं।
अंगकों में अड्डा
परजीवियों के लिए कोशिकीय अंगकों में प्रवेश पाना आसान है – कोशिकाएं अपने नियमित रख-रखाव की प्रक्रिया के दौरान अपनी कोशिका झिल्ली को बदलती रहती हैं। इस प्रक्रिया में पुरानी झिल्ली का टुकड़ा एक बुलबुले के रूप में कोशिका के अंदर ले लिया जाता है। उस स्थान पर नई झिल्ली बन जाती है और पुरानी झिल्ली को ठिकाने लगाने के लिए भेज दिया जाता है। इस प्रकिया में उस बुलबुले के साथ थोड़ा बाहरी तरल पदार्थ कोशिका के अंदर पहुंच जाता है। इस प्रक्रिया को पिनोसायटोसिस (कोशिका-पायन) कहते हैं। परजीवी को बस इतना करना है कि जब यह बुलबुला बने तब झिल्ली पर उसी जगह पर बैठा रहे और बुलबुले (पिनोसोम) में प्रवेश कर जाए। बाकी काम कोशिका कर ही देगी यानी वह बुलबुला कोशिका के कचरा निपटान अंगक में पहुंचा दिया जाएगा। इस प्रक्रिया में वे अंगक सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं जिनके ज़रिए पिनोसोम का परिवहन किया जाता है। वैसे कोई कण (जैसे बैक्टीरिया) इस बुलबुले में हो तो यह बुलबुला काफी बड़ा हो जाता है और इसे पिनोसोम की बजाय फैगोसोम कहते हैं। इन दोनों का एक नाम एंडोसोम भी है। तो बैक्टीरिया वगैरह एंडोसोम में सवारी करके कोशिका के अंगक में पहुंच जाते हैं।
ऐसे कीटाणु कभी-कभी कोशिका की झिल्ली पर आणविक खरोंच मारकर ऐसे एंडोसोम का बनना प्रेरित भी कर सकते हैं। यानी कोशिका के एंडोसोम में दाखिल होना कीटाणुओं के लिए खेल जैसा ही है।
लेकिन जैसा कि ऊपर कहा गया एंडोसोम की अंतिम मंज़िल तो कचरा निपटान व्यवस्था है – अर्थात ये एंडोसोम जाकर एक अंगक लायसोसोम से जुड़ जाते हैं जिसमें खूब सारे एंज़ाइम भरे होते हैं। यह कोशिका के अंदर ठिकाना ढूंढने आए किसी भी परजीवी के लिए अच्छी बात नहीं होगी। इसलिए यह रणनीति अपनाने वाले परजीवियों के लिए इस दुखांत से निपटने की रणनीति बनाना ज़रूरी होगा। और यह काम वे कई तरह से करते हैं।
उनमें से कुछ हैं (जैसे टीबी का कीटाणु) जो इतना मोटा और वसीय आवरण ओढ़ लेते हैं कि एंज़ाइम्स उन तक पहुंच ही नहीं पाते और वे मज़े में इस कहावत को चरितार्थ करते हैं – कुत्ते भौंकते रहते हैं हाथी चलता रहता है। टायफॉइड के कीटाणु जैसे कुछ अन्य हैं, जो उस बुलबुले पर कब्ज़ा कर लेते हैं और या तो उसका रास्ता बदल देते हैं अथवा संघटन बदल देते हैं ताकि वह लायसोसोम के साथ जुड़ ही न पाए। इस तरह वे नष्ट होने से बच जाते हैं। एक तीसरा विकल्प भी है जिसे पेचिश के कीटाणु जैसे कीटाणु अपनाते हैं – वे उस बुलबुले में एक छेद करके बाहर निकलकर कोशिका द्रव्य में पहुंच जाते हैं।
ऐसे चतुर घुसपैठियों का सबसे अधिक खतरा किन कोशिकाओं के लिए होता है? ज़ाहिर है, सबसे अधिक खतरा उन कोशिकाओं को होता है जो भक्षण करना पसंद करती हैं, जिन्हें सामान्यत: फैगोसाइट्स कहते हैं। और विडंबना यह है कि इन्हीं फैगोसाइट्स को यह ज़िम्मेदारी सौंपी गई है कि वे घुसपैठियों को तलाश करें और खा जाएं। अधिकांश घुसपैठिए तो आसानी से खाए जाकर पच जाते हैं। लेकिन ऊपर हमने जिन चकमा तरकीबों की बात की, उनके दम पर कुछ परजीवी इन कोशिकाओं को परास्त करके उन्हें ही संक्रमित कर देते हैं। हालांकि फैगोसाइट कोशिकाओं में पोलीमॉर्फोन्यूक्लियर न्यूट्रोफिलिक और इस्नोफिलिक ग्रेनुलोसाइट्स (रक्त में उपस्थित) के नाम भी शामिल हैं लेकिन ये कोशिकाएं अल्पजीवी होती हैं और इन्हें संक्रमित करने से परजीवी को पनाह पाने में कोई खास मदद नहीं मिलती। इस तरह से संक्रमित होने वाली कोशिकाओं में मोनोसाइट-मैक्रोफेज समूह की कोशिकाएं प्रमुख हैं और हम आगे देखेंगे कि मेज़बानों ने ऐसी रणनीतियां विकसित की हैं जो मैक्रोफेज को इन घुसपैठियों से लड़ने में मदद करती हैं।
कोशिका द्रव्य में अड्डे
ऊपर हमने जिन दो अड्डों (कोशिकाओं के बाहर और कोशिका के अंदर) की बात की उनका उपयोग बैक्टीरिया, प्रोटोज़ोआ अथवा फफूंद जैसे स्वतंत्र-जीवी जीव करते हैं। ये जीव किसी कोशिका के अंदर रहते हुए भी सिर्फ पनाह और भोजन की तलाश में होते हैं। अत: ये विकल्पी अंतरा-कोशिका परजीवी हैं – अर्थात इन्हें जीवित रहने के लिए कोशिका के अंदर रहना ज़रूरी नहीं है। उदाहरण के लिए, इन्हें कोशिका से बाहर पोषक माध्यम में पनपाया जा सकता है।
बहरहाल, परजीवियों का एक समूह ऐसा भी है जिसने मुफ्तखोरी की कला को पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया है – ये तभी ‘जीवित’ होते हैं जब इन्हें कोई कोशिका मिल जाए। ये वायरस हैं जो अनिवार्य रूप से अंतरा-कोशिकीय परजीवी हैं। ये तब तक लगभग अक्रिय कणों के रूप में पड़े रहते हैं जब तक कि वे किसी कोशिका में न घुस जाएं। लेकिन एक बार कोशिका में घुस जाएं, तो ये मेज़बान कोशिका की जीवन प्रक्रियाओं पर कब्ज़ा कर लेते हैं और उनका उपयोग नए वायरस बनाकर मुक्त करने के लिए करने लगते हैं ताकि वे अन्य कोशिकाओं को संक्रमित कर सकें। इस दौरान वे मेज़बान कोशिका को नुकसान पहुंचाते हैं। लिहाज़ा वे चाहे सीधे कोशिका झिल्ली के ज़रिए प्रवेश करें या फैगोसोम के ज़रिए प्रवेश करें, वायरस झिल्ली में छेद करके कोशिका द्रव्य में पहुंच जाते हैं। कोशिका द्रव्य में पहुंचकर वे मेज़बान कोशिका की प्रोटीन-निर्माण मशीनरी पर नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं। कुछ वायरस ढेर सारे वायरस कण बनाते हैं और कोशिका को फोड़कर उन्हें मुक्त कर देते हैं। अन्य वायरस नए-नए वायरस कण बनाकर उन्हें मेज़बान कोशिका की झिल्ली से मुकुलन के ज़रिए एक-एक करके बाहर भेजते रहते हैं। इस मामले में मेज़बान कोशिका अंदर से तहस-नहस होकर तिल-तिल करके मरती है।
तो इन रणनीतियों से प्रतिरक्षा तंत्र कैसे निपटता है।
कोशिका-बाह्य स्थान की सुरक्षा
चलिए परजीवियों की एक-एक रणनीति पर चर्चा करते हैं। जो कीटाणु कोशिका के बाहर उपस्थित पोषक तालाब में रहते हैं, उनके लिए यह तरीका कारगर रहेगा कि कुछ अणु बनाए जाएं तो रक्त परिसंचरण में तैरते रहें और कीटाणुओं को पहचानकर उन पर जानलेवा हमला कर दें। यह तरीका काफी बढ़िया है और अकशेरुकी जंतुओं में भी काम करता है। स्तनधारियों में ऐसे अणुओं में एक्यूट-फेज़ प्रोटीन्स, कॉम्प्लीमेंट, एंटीबॉडीज़ और कुछ अन्य तत्व शामिल होते हैं। ये सब कीटाणु की सतह पर उपस्थित किसी चीज़ की पहचान करते हैं, उससे जुड़ जाते हैं और या तो स्वयं ही उसे मार डालते हैं अथवा अन्य अणुओं/कोशिकाओं (जैसे फैगोसाइट्स) की मदद लेते हैं ताकि कीटाणु को खत्म किया जा सके।
संक्रमित बुलबुले या कोशिकाएं
दिक्कत यह है कि कोशिका-बाह्य तरल में विचरते उपरोक्त प्रतिरक्षा अणु कोशिकाओं के अंदर नहीं जा सकते क्योंकि कोशिकाओं में बाहर से अंदर और अंदर से बाहर के यातायात को सख्ती से नियंत्रित किया जाता है। लिहाज़ा, कोशिका-अंतर्गत परजीवी अपने सुरक्षित स्वर्ग में बैठकर बाहर विचरते प्रतिरक्षा अणुओं का मुंह चिढ़ाते रहते हैं। इन ओझल खतरों के बारे में शरीर क्या करे?
यदि ये परजीवी मैक्रोफेज के अंदर एंडोसोम में विराजमान हैं, तो शरीर संक्रमित कोशिकाओं पर इनके पदचिंहों की मदद से इन्हें पहचान सकता है और फिर ‘हेल्पर’ कोशिकाएं संक्रमित मैक्रोफेज को निर्देश दे सकती हैं कि वह अपने एंडोसोम का परिवहन तेज़ कर दे और अपने एंज़ाइमी शस्त्रों को इस तरह बढ़ाए कि परजीवी की शामत आ जाए।
लेकिन यह तरीका भी तभी कारगर होगा जब परजीवी अंगक बुलबुले में बैठा हो। मेज़बान कोशिका उस बुलबुले की कुर्बानी दे सकती है और साथ में परजीवी की भी। नए अंगक तो देर सबेर बन ही जाएंगे। लेकिन यदि परजीवी कोशिका द्रव्य में बैठा है, तो कोशिका लाचार हो जाती है – उसे परजीवी के साथ-साथ अपना कोशिका द्रव्य भी नष्ट करना होगा। इसका मतलब तो हाराकिरी होगा। यहां अधिक से अधिक की भलाई का सिद्धांत अपनाया जाता है और पहचानी गई संक्रमित कोशिका को परजीवी को नष्ट करने में मदद की बजाय दोटूक निर्देश दिया जाता है कि वह खुद मर जाए। दरअसल, अधिकांश कोशिकाओं में खुदकुशी का एक जेनेटिक निर्देश पत्र उपस्थित होता है। इसे पूर्व-निर्धारित कोशिका मृत्यु या एपोप्टोसिस कहते हैं।
हालांकि अपनी ही कोशिका को मारना थोड़ा अतिवादी कदम लगता है लेकिन कोशिका द्रव्य के संक्रमण के अंतिम अवशेष खत्म करने के लिए प्राय: इस उपाय को अपनाया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी कोशिका में संख्यावृद्धि करते वायरस कण उस कोशिका को फोड़कर बाहर निकलकर अन्य कोशिकाओं को संक्रमित करने वाले हैं, तो शायद एंटीबॉडी व अन्य अणुओं के लिए यह संभव तो है कि वे इन कणों को कैद करके अन्य कोशिकाओं तक न पहुंचने दे। लेकिन किसी भी संक्रमित कोशिका से बड़ी संख्या में वायरस निकलेंगे और यदि एक भी वायरस प्रतिरक्षा अणुओं से छूट गया तो वह पूरा चक्र फिर से शुरू कर देगा। इसके अलावा, कुछ वायरस संक्रमित कोशिका को नष्ट नहीं करते बल्कि उसकी सतह से एक-एक, दो-दो करके वायरस छोड़ते रहते हैं। इसका मतलब होगा कि बाहर एंटीबॉडी उन्हें खत्म करती जाएंगी और अंदर का भंडार बना रहेगा, धीरे-धीरे वायरस छोड़ता रहेगा। ऐसी स्थिति में एकमात्र कारगर तरीका यह लगता है कि संक्रमित कोशिका को पहचान कर मार दिया जाए, इसके पहले कि नए वायरस कण परिपक्व होकर बाहर निकल पाएं। ऐसे में यदि कोशिका मरती है तो संक्रमण बाहर नहीं आएगा। आगे हम बात करेंगे कि प्रतिरक्षा तंत्र संक्रमित कोशिकाओं को पहचानने के कौन-से तरीके इस्तेमाल करता है।
फिलहाल यही कह सकते हैं कि प्रतिरक्षा तंत्र को मुख्य रूप से यह चिंता करनी है कि तरल पदार्थ में तैरते-विचरते ‘टर्मिनेटर’ अणु कैसे बनाए जाए, संक्रमित मैक्रोफेज को पहचानकर उन्हें सक्रिय करने के लिए हेल्पर कोशिकाएं कैसे बनाए और मारक कोशिकाएं कैसे बनाए जो संक्रमित कोशिकाओं को पहचानकर उन्हें खुदकुशी करने का फरमान सुनाएं। क्लोनल एकरूप और क्लोनल विविधरूपी, दोनों तरह की लक्ष्य-पहचान क्रियाविधियों में इन तीनों के तरीके विकसित हुए हैं हालांकि दोनों की लक्ष्य पहचान की रणनीतियां बहुत अलग-अलग हैं।
अगले अंक में यह चर्चा करेंगे कि आखिर प्रतिरक्षा तंत्र नीली छतरी के नीचे हर चीज़ को कैसे पहचान पाता है। यह फैसला तो और मुश्किल होता है कि इनमें से किस रास्ते को सक्रिय किया जाए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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