कुछ सप्ताह पूर्व ब्राज़ील में कोविड से होने वाली मौतों ने 4 लाख का आंकड़ा पार कर लिया। कुछ ऐसी ही स्थिति भारत में भी देखी जा सकती है जहां प्रतिदिन लगभग 3500 लोगों की मृत्यु हो रही है। इसके चलते विश्व भर से ऑक्सीजन, वेंटीलेटर, बेड और अन्य आवश्यक वस्तुओं के माध्यम से सहायता के प्रयास किए जा रहे हैं। हालांकि, ये दो देश हज़ारों किमी दूर हैं लेकिन दोनों के संकट राजनैतिक विफलताओं के परिणाम हैं। दोनों ही देशों के नेताओं ने या तो शोधकर्ताओं की सलाह की उपेक्षा की या कार्रवाई में कोताही की। परिणाम: मानव जीवन की अक्षम्य क्षति।
ब्राज़ील के राष्ट्रपति जेयर बोल्सोनारो कोविड-19 को साधारण फ्लू कहते रहे और मास्क के उपयोग और शारीरिक दूरी जैसी वैज्ञानिक सलाह को भी शामिल करने से इन्कार करते रहे। यही स्थिति ट्रंप प्रशासन के दौरान यूएस में बनी थी जहां 5,70,000 जानें गर्इं।
नेचर में प्रकाशित एक लेख के अनुसार सितंबर में कोविड-19 के प्रतिदिन 96,000 मामले और उसके बाद गिरकर मार्च 2021 में लगभग 12,000 मामले प्रतिदिन रह जाने के बाद भारत के नेता मुगालते में आ गए। कारोबार पहले की तरह खोल दिए गए, बड़ी संख्या में सभाओं के आयोजन होने लगे, विवादास्पद कृषि कानून के विरोध में हज़ारों किसान दिल्ली की सीमाओं पर एकत्रित हो गए और मार्च-अप्रैल में चुनावी रैलियां और धार्मिक आयोजन भी होते रहे।
एक समस्या और भी रही – भारत में वैज्ञानिकों के लिए शोध के आंकड़ों तक पहुंच आसान नहीं रही। ऐसे में उनको सटीक अनुमान और साक्ष्य-आधारित सुझाव देने में काफी परेशानी होती है। फिर भी इस तरह के डैटा के अभाव में शोधकर्ताओं ने पिछले वर्ष सितंबर में सरकार को कोविड-19 प्रतिबंध में ढील देने के प्रति सतर्क रहने की चेतावनी दी थी। उन्होंने अप्रैल माह के अंत तक प्रतिदिन लगभग एक लाख मामलों की चेतावनी भी दी थी।
इस संदर्भ में, 29 अप्रैल को 700 से अधिक वैज्ञानिकों ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा था जिसमें अस्पतालों में कोविड-19 परीक्षण के परिणामों और रोगियों के स्वास्थ्य सम्बंधी नतीजों जैसे डैटा तक बेहतर पहुंच की मांग की गई थी। इसके अलावा, नए संस्करणों की पहचान करने के लिए बड़े स्तर पर जीनोम-निगरानी कार्यक्रम शुरू करने का भी आग्रह किया था। इसके अगले दिन सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार कृष्णस्वामी विजयराघवन ने इन चिंताओं को स्वीकार करते हुए यह स्पष्ट किया कि सरकार के बाहर के शोधकर्ताओं को आंकड़ों तक पहुंच कैसे मिल सकती है। इस कदम का सभी ने स्वागत किया, लेकिन डैटा प्राप्त करने के कुछ पहलू अभी भी अस्पष्ट हैं। गौरतलब है कि पूर्व में भी सरकार ने नीतियों के आलोचक शोधकर्ताओं की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था। दो वर्ष पूर्व, 100 से अधिक अर्थशास्त्रियों और सांख्यिकीविदों ने एक पत्र में आधिकारिक आंकड़ों में राजनीतिक हस्तक्षेप समाप्त करने का आग्रह किया था जिस पर अधिकारियों ने अच्छी प्रतिक्रिया नहीं दी थी।
सामान्य स्थिति में भी अनुसंधान समुदाय और सरकार के बीच इस तरह के कठिन सम्बंध उचित नहीं होते। महामारी के दौरान तो फैसले त्वरित और साक्ष्य आधारित होने चाहिए। तब इस तरह की स्थिति काफी घातक हो सकती है। विज्ञान और वैज्ञानिकों की उपेक्षा से भारत और ब्राज़ील सरकारों ने जीवन की हानि को कम करने का एक महत्वपूर्ण अवसर खो दिया है। अपर्याप्त जानकारी के कारण त्वरित निर्णय लेने में परेशानी होती है। अत: शोधकर्ताओं और चिकित्सकों दोनों को स्वास्थ्य डैटा सुलभता से प्राप्त होना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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