लॉकडाउन की कीमत – सोमेश केलकर

गभग एक वर्ष पूर्व भारत में लॉकडाउन को अपनाया गया था। उसके बाद से अर्थव्यवस्था को लगातार ऑक्सीजन की ज़रूरत पड़ रही है। इस लॉकडाउन के सामाजिक व आर्थिक असर आज भी दिख रहे हैं।

इस लॉकडाउन ने भारत के सभी वर्गों को किसी न किसी स्तर पर प्रभावित किया है। कुछ लोगों के लिए लॉकडाउन एक सुनहरा मौका रहा जहां वे अपने परिवार के साथ एक लंबी छुट्टी का आनंद ले सके, वहीं अन्य लोगों के लिए यह बेरोज़गारी, भुखमरी, पलायन और कुछ के लिए जान के जोखिम से भरा दौर रहा। आइए हम उन नुकसानों का पता लगाने का प्रयास करते हैं जो सख्त लॉकडाउन के कारण देश को झेलने पड़े। हम यह भी समझने का प्रयास करेंगे कि लॉकडाउन से किस हद तक वायरस संक्रमण रोका जा सका।

व्यापक अर्थ व्यवस्था

कोरोनावायरस जीवन और आजीविका के नुकसान के केंद्र में रहा। लॉकडाउन के एक वर्ष बाद भी भारत में जन स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था दोनों को ही पटरी पर लाने के प्रयास किए जा रहे हैं। विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार भारत में लॉकडाउन से अनुमानित 26-33 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। गौरतलब है कि अधिकांश अनुमान पिछले वर्ष प्रकाशित रिपोर्टों के आधार पर लगाए गए हैं जब लॉकडाउन से होने वाले नुकसान ठीक तरह से स्पष्ट नहीं थे। देखा जाए तो इन गणनाओं में उन कारकों को ध्यान में नहीं लिया गया जिन्हें धन के रूप में बता पाना मुश्किल या असंभव था लेकिन नुकसान में इनका हिस्सा काफी था। 

लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था को कई प्रकार की रुकावटों का सामना करना पड़ा। इसे ऐसे समय में अपनाया गया जब अर्थव्यवस्था पहले से ही संघर्ष के दौर से गुज़र रही थी। विभिन्न क्षेत्रों का व्यापार पहले से ही प्रभावित हो रहा था और लॉकडाउन के कारण जांच उपकरणों सहित आवश्यक वस्तुओं की खरीद पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।   

विदेश यात्रा और परिवहन पर प्रतिबंध ने परोक्ष रूप से आयात-निर्यात के व्यवसाय को प्रभावित किया। यह आय का एक प्रमुख स्रोत है। इसके अलावा, हवाई और रेल यात्रा पर प्रतिबंध के कारण पर्यटन उद्योग को झटका लगा जो आमदनी का एक बड़ा स्रोत है।

भारतीय अर्थव्यवस्था की एक विशेषता बड़ी संख्या में असंगठित खुदरा बाज़ार हैं। लॉकडाउन ने इन्हें भी झकझोर दिया। इसके चलते ऑनलाइन खुदरा बाज़ार पर दबाव बढ़ा जिसे कंपनियों ने चुनौती के रूप में स्वीकार किया और परिणामस्वरूप डिजिटल भुगतान की सुविधा प्रदान करने वाली कंपनियों ने अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन किया। 

अधिकारिक स्रोतों से उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर इस वर्ष पर नज़र डालें, तो हालात गंभीर दिखाई देते हैं। यह डैटा अगस्त के अंत में जारी किया गया था। सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियांवयन मंत्रालय की रिपोर्ट ने अप्रैल से जून तिमाही में जीडीपी में 23.9 प्रतिशत की गिरावट के संकेत दिए हैं। लेकिन यह समस्या कम करके आंकती है क्योंकि इसमें अनौपचारिक क्षेत्र को ध्यान में नहीं रखा गया है जिसे लॉकडाउन का सबसे अधिक खामियाजा उठाना पड़ा था। यह इतिहास में दर्ज अत्यंत खराब गिरावटों में से है और पिछले चार-पांच दशकों में ऐसा पहली बार हुआ है।         

भारत के प्रमुख सांख्यिकीविद जाने-माने अर्थशास्त्री प्रणब सेन का मानना है कि यदि हम सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियांवयन मंत्रालय द्वारा जारी किए गए आकड़ों में अनौपचारिक क्षेत्र को भी शामिल करते हैं तो जीडीपी में गिरावट बढ़कर 33 प्रतिशत तक हो जाएगी। सेन के अनुसार लॉकडाउन के बाद भारत की आर्थिक स्थिति गंभीर है और भविष्य में और बदतर होने की संभावना है। उनका अनुमान है कि मार्च 2021 के अंत तक भारत की जीडीपी में 10 प्रतिशत की और कमी हो सकती है।

जन स्वास्थ्य

अर्थव्यवस्था का गंभीर रूप से प्रभावित होना तो एक समस्या रही ही, लोगों की जान के जोखिम को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है जिसके चलते जन स्वास्थ्य सेवा इस अभूतपूर्व स्थिति में सबसे आगे आई। महामारी से पहले भी जन स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच एक प्रमुख चिंता रही है। गौरतलब है कि प्रत्येक देश में एक स्वास्थ्य सेवा क्षमता होती है जिससे यह पता चलता है किसी देश में एक समय पर कितने रोगियों को संभाला जा सकता है। 1947 के बाद से भारत की स्वास्थ्य सेवा क्षमता कभी भी उल्लेखनीय नहीं रही है।

वर्ष 2018 से उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, भारत का अनुमानित सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय लगभग 1.6 लाख करोड़ रुपए है। अधिकांश लोगों के लिए सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं सबसे सस्ता विकल्प हैं। देखा जाए तो ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों के सरकारी अस्पतालों में बिस्तरों की उपलब्धता अनुपातिक रूप से अधिक है। महामारी के दौरान सरकार ने वायरस की पहचान और उससे निपटने में मदद के लिए कई सरकारी और निजी जांच प्रयोगशालाओं को आवंटन किया था।  

विश्व भर के मंत्रालय रोकथाम के उपायों के माध्यम से ‘संक्रमण ग्राफ को समतल’ करने की बात कर रहे हैं लेकिन यह दशकों से स्वास्थ्य सेवा में अपर्याप्त निवेश की ज़िम्मेदारी से बचने का तरीका भर है। यह सच है कि महामारी के कारण विश्व के विकसित देश भी काफी उलझे रहे हैं लेकिन यह भी सच है कि उनमें से किसी भी देश को अपनी स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक बोझ के डर से भारत की तरह सख्त लॉकडाउन को अपनाना नहीं पड़ा। वैसे भी, महामारी से निपटने में विकसित देशों की स्वास्थ्य सेवाओं की नाकामी न तो हमारी तैयारी में कमी और न ही हमारे खराब प्रदर्शन का बहाना होना चाहिए। आदर्श रूप से तो किसी भी देश की स्वास्थ्य सेवा क्षमता इतनी होनी चाहिए कि वह अपनी आधी आबादी को संभाल पाए।

वर्ष 2021 में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने 2021-22 के केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य और कल्याण के लिए 2.23 लाख करोड़ रुपए व्यय करने का प्रस्ताव रखा था जो पिछले वर्ष में स्वास्थ्य सेवा पर खर्च किए गए 94,452 करोड़ रुपए के बजट से 137 प्रतिशत अधिक है।

वित्त मंत्री ने अगले वित्त वर्ष में कोविड-19 टीकों के लिए 35,000 करोड़ रुपए खर्च करने का भी प्रस्ताव रखा है। इसके साथ ही न्यूमोकोकल टीकों को जारी करने की भी घोषणा की गई है। उनका दावा है कि इन टीकों की मदद से प्रति वर्ष 50,000 से अधिक बच्चों को मौत से बचाया जा सकता है।

स्वास्थ्य सेवा के आवंटन में वृद्धि के शोरगुल के बीच इस तथ्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि इनमें से कुछ खर्च एकबारगी किए जाने वाले खर्च हैं – जैसे 13,000 करोड़ का वित्त आयोग अनुदान और कोविड-19 टीकाकरण के लिए 35,000 करोड़ रुपए। गौरतलब है कि पानी एवं स्वच्छता के लिए आवंटित 21,158 करोड़ का बजट भी स्वास्थ्य सेवा खर्च में शामिल किया गया है जिसके परिणामस्वरूप कुल 137 प्रतिशत की वृद्धि नज़र आ रही है।

सच तो यह है कि बजट में इस तरह के कुछ आवंटन केवल वर्तमान महामारी से निपटने के लिए हैं जिनसे स्वास्थ्य सेवा में समग्र सुधार में कोई मदद नहीं मिलेगी। इसलिए स्वास्थ्य सेवा आवंटन में तीन गुना वृद्धि वास्तविक नहीं है। अगले कुछ वर्षों में स्वास्थ्य सेवा में सुधार के लिए निरंतर प्रयास करना आवश्यक है। इसके लिए अनुसंधान और विकास पर निवेश बढ़ाना होगा। स्वास्थ्य सेवा के संदर्भ में देखा जाए तो हमारी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली वैश्विक महामारी से निपटने के लिए न तो तैयार थी और न ही ठीक तरह से सुसज्जित। ऐसी स्थित में लॉकडाउन एक फौरी उपाय ही था।

आम आदमी

जून में प्रकाशित ग्लोबल अलायंस फॉर मास एंटरप्रेन्योरशिप की एक रिपोर्ट के अनुसार महामारी के पूर्व कई सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम ‘अनौपचारिकता और कम उत्पादकता के दुष्चक्र में स्थायी रूप से फंसे हुए थे’ और ‘विकसित नहीं हो रहे थे’। लॉकडाउन के बाद सरकार का मुख्य उद्देश्य सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों को व्यवसाय के लिए एक विशेष ऋण शृंखला तैयार करना रहा। ऐसे समय में जब नौकरी की कोई गारंटी नहीं है, लोग खर्च करने के अनिच्छुक हैं और मांग में कमी है, तब कई सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के सुचारु रूप से काम करने की संभावना सवालों के घेरे में हैं। ऐसे में विशेष ऋण लेने की क्षमता प्रदान करना अधिक सहायक नहीं लगता है। अर्थव्यवस्था में मांग और आपूर्ति दोनों की गंभीर कमी के चलते सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के लिए अधिक ऋण निरर्थक ही हैं।

ग्लोबल अलायंस फॉर मास एंटरप्रेन्योरशिप की रिपोर्ट का अनुमान है कि कोविड-19 छोटे अनौपचारिक व्यवसायों के लिए सामूहिक-विलुप्ति की घटना बन सकता है और लगभग 30-40 प्रतिशत सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के अंत की संभावना है। इन संख्याओं का मतलब है कि भारत में बहुत कम समय में उद्योग और खुदरा व्यापारी अपने व्यवसाय खो चुके होंगे। ये छोटी स्व-रोज़गार इकाइयां भारतीय अर्थव्यवस्था की एक विशेषता है। इनमें से कई इकाइयां किराए पर दुकान लेती हैं, नगर पालिकाओं को भुगतान करती हैं और इन पर अन्य कई वित्तीय दायित्व होते हैं। वैसे भी अपने छोटे स्तर के व्यवसाय के कारण उनकी आय अधिक नहीं होती है और लॉकडाउन के कारण उन्हें अपने व्यवसाय को कई महीनों तक पूरी तरह बंद रखना पड़ा जबकि उनके वित्तीय दायित्व तो निरंतर जारी रहे। चूंकि इन्हें मोटे तौर पर अनौपचारिक आर्थिक गतिविधियों में वर्गीकृत किया जाता है, व्यापक अर्थ व्यवस्था के नुकसान के हिसाब-किताब में इन्हें हुए नुकसान को इन्हें शामिल नहीं किया गया। यह लॉकडाउन के दौरान होने वाले नुकसान का अदृश्य रूप है।

आजीविका ब्यूरो के अनुसार प्रवासी महिलाओं पर होने वाला प्रभाव अधिक अदृश्य और हानिकारक रहा है। यह एक ऐसी श्रेणी है जिसे लॉकडाउन में भारी नुकसान चुकाना पड़ा है लेकिन इस नुकसान को वित्तीय शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है क्योंकि महिलाएं देखभाल के अवैतनिक कार्य का सबसे बड़ा स्रोत हैं।

आजीविका ब्यूरो ने यह भी पाया कि भारत के कपड़ा केंद्र अहमदाबाद में घरेलू और वैश्विक व्यवसाय द्वारा महिलाओं को घर-आधारित श्रमिकों के रूप में रखा जाता है। महामारी से पहले भी वहां की महिलाएं औसतन 40 से 50 रुपए प्रतिदिन कमा रही थीं (किसी प्रकार के श्रम अधिकार, आश्रय या रोज़गार एवं स्वास्थ्य सुरक्षा के बगैर)। लॉकडाउन के बाद वे केवल 10 से 15 रुपए प्रतिदिन कमा रही थीं। कई महिलाएं इसलिए भी काम जारी रखना चाहती हैं ताकि वे अपने पति की हिंसा से बच सकें। घर में किसी भी तरह से आय लाने में असमर्थ होने पर उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा, काम छोड़ देने का मतलब अपने ठेकेदार से सम्बंध खो देना जिसे वे किसी भी हाल में खोना नहीं चाहती हैं।   

नारीवादी अर्थशास्त्री अश्विनी देशपांडे ने लॉकडाउन के कारण नौकरी जाने के मामले में महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत बदतर पाई है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कई वर्षों से रोज़गार में महिला भागीदारी दर में गिरावट देखी जा रही है। अश्विनी देशपांडे का अनुमान है कि लॉकडाउन के दौरान दस में से चार महिलाओं ने अपनी नौकरी खो दी है। 

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी ने बेरोज़गारी से जुड़े कुछ और चौंकाने वाले आंकड़े प्रकाशित किए हैं। लॉकडाउन के महीनों में नौकरी गंवाने के आंकड़ों को देखिए:

  • अप्रैल 2020 में 177 लाख वेतनभोगी लोगों ने रोज़गार खो दिया।
  • मई 2020 में 10 लाख वेतनभोगी लोगों ने रोज़गार गंवाया।
  • जून 2020 में 39 लाख वेतनभोगी लोगों ने रोज़गार गंवाया।
  • जुलाई 2020 में 50 लाख वेतनभोगी लोगों ने रोज़गार गंवाया।

कुल मिलाकर भारत में केवल चार महीनों में 1.9 करोड़ लोग नौकरियों से हाथ धो बैठे। गौरतलब है कि ये आंकड़े औपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के हैं, अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों को तो उनके नियोक्ता की इच्छा पर नौकरी पर रखा और निकाला जाता है।

लॉकडाउन के कारण भोजन खरीदने के लिए आय की कमी और खाद्य पदार्थों के वितरण में अक्षमताओं के कारण कई क्षेत्रों में भुखमरी और अकाल जैसे हालात उत्पन्न हुए। गांव कनेक्शन द्वारा लॉकडाउन के दौरान ग्रामीण संकट पर एक रिपोर्ट में काफी निराशाजनक आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं। तालाबंदी के दौरान:

  • 35 प्रतिशत परिवारों को कई बार या फिर कभी-कभी पूरे दिन के लिए भोजन प्राप्त नहीं हो सका।
  • 38 प्रतिशत परिवारों को कई बार या फिर कभी-कभी दिन में एक समय का भोजन प्राप्त नहीं हो सका।
  • 46 प्रतिशत परिवारों ने अक्सर या कभी-कभी अपने भोजन में से कुछ चीज़ें कम कर दीं।
  • 68 प्रतिशत ग्रामीण भारतीयों को मौद्रिक संकट से गुज़रना पड़ा।
  • 78 प्रतिशत लोग ऐसे थे जिनके आमदनी प्राप्त करने वाले काम पूरी तरह रुक गए।
  • 23 प्रतिशत लोगों को अपने घर के खर्चे चलाने के लिए उधार लेना पड़ा।
  • 8 प्रतिशत लोगों को अपनी आवश्यक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अपनी बहुमूल्य संपत्ति जैसे मोबाइल फोन या घड़ी बेचना पड़ी।  

एक और बात जिसे बहुत लोग अनदेखा कर देते हैं, यह है कि लॉकडाउन के कारण नुकसान सिर्फ गरीबी रेखा के नीचे के लोगों का नहीं हुआ है। उन लोगों ने भी नुकसान उठाया है जो गरीबी रेखा के ठीक ऊपर हैं और सरकारी कल्याणकारी योजनाओं के दायरे से बाहर हैं। वैश्विक महामारी जैसी कठिन परिस्थितियों में इस वर्ग को अत्यंत विकट समस्याओं का सामना करना पड़ता है। और तो और, सरकारी योजनाओं में पात्रता की कमी हालात और बिगाड़ देती है। एक मायने में ये परिवार सरकार द्वारा अधिकारिक रूप से पहचाने गए असुरक्षित परिवारों की तुलना में कहीं अधिक असुरक्षित हैं।

विकल्प

अब तक यह तो स्पष्ट है कि भारत ने लॉकडाउन को अपनाकर एक भारी कीमत चुकाई है। ऐसे में एक स्वाभाविक सवाल यह है कि क्या लॉकडाउन के दौरान होने वाले आर्थिक नुकसान को उचित ठहराया जा सकता है? दावा किया गया था कि वायरस को फैलने से रोकने के लिए लॉकडाउन आवश्यक है। लेकिन वायरस अभी भी काफी तेज़ी से फैल रहा है और रोज़ नए मामले सामने आ रहे हैं। इसलिए लॉकडाउन और इसके कारण होने वाले नुकसान को उचित नहीं ठहराया जा सकता। हमें लॉकडाउन को अपनाने के लिए कम से कम एक महीने और इंतज़ार करना चाहिए था। यदि लॉकडाउन से वास्तव में संक्रमण की दर में कमी आई थी तो सख्त लॉकडाउन को अपनाने का पक्ष सही ठहराया जा सकता है। हम लॉकडाउन में थोड़ा विलंब करके अर्थव्यवस्था को बेहतर तरीके से संगठित कर सकते थे। लोगों को अपने घर जाने, आवश्यक वस्तुओं को स्टॉक करने और यदि राशन कार्ड नहीं है तो बनवाने के लिए कहा जा सकता था। इस तरह से मध्य-लॉकडाउन प्रवास के कारण बड़ी संख्या में लोगों की जान बचाई जा सकती थी। यदि पुनरावलोकन किया जाए तो एक महीने इंतज़ार करने पर कुछ भयावह नहीं हुआ होता।

एक और तरीका जो ऋण आधारित प्रोत्साहन के स्थान पर अपनाया जा सकता था। यह पोर्टेबल राशन कार्ड के माध्यम से किया जा सकता था। हम राशन कार्ड का डिजिटलीकरण कर सकते थे ताकि कोई व्यक्ति राशन कार्ड की हार्ड कॉपी के बिना भी उसका लाभ उठा सके।

हम आधार कार्ड को एकीकृत करके आधार आधारित बैंक-लिंक्ड मनी ट्रांसफर सिस्टम तैयार कर सकते थे जिसे विभिन्न उपकरणों द्वारा एक्सेस किया जा सके। इस तरीके से सभी सुरक्षा नियमों का पालन करते हुए तेज़ी और सुरक्षित रूप से धन का स्थानांतरण किया जा सकता है। लॉकडाउन के दौरान ऐसे कई लोग थे जिनके पास किसी प्रकार की आय का सहारा नहीं था। इस प्रणाली से उपयोगकर्ता से उपयोगकर्ता और सरकार से उपयोगकर्ता को सीधे तौर पर पैसा भेजने की सुविधा मिल पाती। यह उन लोगों को काफी फायदा पहुंचा सकता था जो लॉकडाउन के दौरान जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहे थे।

हम और अधिक पैसा छाप सकते थे। भारत की आर्थिक स्थिति के बावजूद हम इसे वहन कर सकते थे। अमेरिका ने ज़रूरतमंद लोगों तक धन पहुंचाने के लिए तीन ट्रिलियन डॉलर की अतिरिक्त मुद्रा छापने का काम किया। जर्मन सेंट्रल बैंक ने यूरोप के लोगों को सीधे धन पहुंचाने के लिए लगभग एक बिलियन डॉलर छापने की अनुमति दी। यदि भारत ने अपने जीडीपी की 3 प्रतिशत रकम भी छापी होती तो आज अर्थव्यवस्था बेहतर स्थिति में होती। यह लॉकडाउन के दौरान एक बड़ा अंतर पैदा कर सकता था जिसका अब कोई फायदा नहीं है। क्योंकि अब तो अर्थव्यवस्था वापस पूर्ण रोज़गार की ओर बढ़ रही है इसलिए अधिक पैसा छापने से मुद्रास्फीति में वृद्धि होगी।

निष्कर्ष

लॉकडाउन से हमें क्या नुकसान हुआ है? इस सवाल का जवाब देने के लिए सवाल करना चाहिए कि हम नुकसान को कैसे परिभाषित करते हैं। यदि हम इसे केवल मौद्रिक नुकसान के रूप में परिभाषित करते हैं तो लॉकडाउन के कारण हमें लगभग 26-33 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। लेकिन यहां अर्थशास्त्र के साथ एक समस्या है – इसने लोगों के जीवन, उनकी मृत्यु और उनकी पीड़ा को संख्याओं के रूप में देखा है। इसके बावजूद बहुत सी चीज़ों को ध्यान में नहीं रखा है जिन्हें मौद्रिक रूप से व्यक्त किया जा सकता है।

और इसलिए नुकसान की हमारी परिभाषा और व्यापक होनी चाहिए है। क्योंकि लॉकडाउन के दौरान महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा, उन परिवारों की पीड़ा जिन्हें खाली पेट सोना पड़ा, उन प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा जिन्हें शहर की सीमाओं पर पुलिस की बदसलूकी झेलते हुए सैकड़ों किलोमीटर पैदल या साइकलों पर अपने घरों के लिए निकलना पड़ा। वास्तव में ये नुकसान के कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिन्हें व्यक्त कर पाना अर्थशास्त्र की क्षमताओं से परे है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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