यह सही है कि दुनिया भर में बिल्ली कुल की विभिन्न
उप-प्रजातियों की अपेक्षा भारतीय बाघ में सबसे अधिक आनुवंशिक विविधता दिखती है, लेकिन नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज़ (एनसीबीएस), बैंगलोर
द्वारा हाल ही में किया गया एक अध्ययन बताता है कि इनके सीमित और घटते आवास के
कारण इनकी आबादी छोटे-छोटे हिस्सों में बंटती जा रही है। इस वजह से इनमें अंत:जनन
की स्थिति बन सकती है और इनकी विविधता में कमी आ सकती है।
सेंटर की आणविक पारिस्थितिकी विज्ञानी डॉ. उमा रामकृष्णन बताती हैं कि जैसे-जैसे
मानव आबादी फैली,
पृथ्वी पर उसके हस्ताक्षर भी बढ़े। इंसानी गतिविधियों ने बाघ
और उनके आवास को प्रभावित किया है, और उनके आवागमन को बाधित किया
है। इसके चलते बाघ अपने संरक्षित क्षेत्र में ही सिमट गए हैं और वे केवल अपने ही
क्षेत्र के अन्य बाघों के साथ प्रजनन कर पाते हैं, जिससे
एक समय ऐसा आएगा जब बाघ अपने ही रिश्तेदारों के साथ प्रजनन कर रहे होंगे।
हम नहीं जानते कि यह अंत:जनन उनके स्वास्थ्य और उनके जीवित रहने की क्षमता को
किस तरह प्रभावित करेगा लेकिन यह तो स्पष्ट है कि आबादी में आनुवंशिक विविधता
जितनी अधिक होगी भविष्य में जीवित रहने की संभावना भी उतनी बढ़ेगी। अध्ययन के
अनुसार बाघ का छोटे-छोटे इलाकों में बंटा होना उनकी आनुवंशिक विविधता में कमी लाकर
भविष्य में उन्हें विलुप्ति की कगार पर पहुंचा सकता है।
हालांकि वर्तमान में बाघ के संरक्षण पर बहुत अधिक ध्यान दिया जा रहा है लेकिन
फिर भी हमें उनके वैकासिक इतिहास और जीनोमिक विविधता के बारे में बहुत कम जानकारी
है। विश्व के 70 प्रतिशत बाघ भारत में पाए जाते हैं। इस दृष्टि से भारतीय बाघ की
आनुवंशिक विविधता को समझना दुनिया भर में बाघ संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है।
एनसीबीएस के इस तीन-वर्षीय अध्ययन में शोधकर्ताओं ने टाइगर की जीनोमिक विविधता
और इस विविधता को पैदा करने वाली प्रक्रिया के बारे में समझ प्रस्तुत की है। इसमें
उन्होंने 65 बाघों के पूरे जीनोम का अनुक्रमण किया, और आनुवंशिक
विविधता में विभाजन का पता लगाया, अंत:जनन के संभावित प्रभाव
देखे,
जनसांख्यिकीय इतिहास पता किया और स्थानीय अनुकूलन के
संभावित चिंहों की जांच की। अध्ययन में पाया गया कि अब कई बाघ आबादियों में
विविधता में कमी आई है। और बाघ की अधिक आबादी किन्हीं-किन्हीं जगहों पर सीमित हो
गई है जो उनमें अंत:जनन की संभावना बढ़ाती है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि इस स्थिति से निपटने के लिए हमें बाघ के विभिन्न
आवासों के बीच सुचारु संपर्क गलियारे बनाने होंगे ताकि उनका आवागमन क्षेत्र बढ़
सके। इसके अलावा उनके लिए उचित संरक्षित आवास बनाने चाहिए – जैसे उनके आवास
क्षेत्रों में घनी आबादी वाली बस्तियां या अत्यधिक मानव गतिविधियां ना हों।
उत्तर-पूर्व भारत में पाए जाने वाले बाघ अन्यत्र पाए जाने वाले बाघों से
सर्वथा भिन्न हैं। अत: हमें यह भी समझने की ज़रूरत है कि क्यों कुछ बंगाल बाघों में
अंत:जनन की स्थिति बनी है। पिछले 20,000 वर्षों में बाघ की उप-प्रजातियों के बीच
जो अलगाव पैदा हुए हैं वे बढ़ते मानव प्रभावों और एशिया महाद्वीप में हो रहे जलवायु
सम्बंधी परिवर्तनों के कारण हुए हैं।
इसके अलावा शोधकर्ताओं का सुझाव है कि बाघ के जनसंख्या प्रबंधन और संरक्षण नीतियों में आनुवंशिक विविधता की जानकारी भी शामिल होनी चाहिए। उम्मीद है कि इससे भारतीय बाघ के संरक्षण मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.hindustantimes.com/img/2021/02/23/1600×900/bandhavgarh-wildlife-officials-according-reserve-bandhavgarh-photographs_895a4e34-4b02-11eb-8fd5-05c83db08e58_1614065569158.jpg
गत 28 जनवरी को पॉल जे. क्रटज़ेन ने 87 वर्ष की आयु में इस दुनिया से रुखसती ले ली। क्रटज़ेन ने ही हमें इस बात से अवगत कराया था कि वायुमंडल में मौजूद प्रदूषक पृथ्वी की ओज़ोन परत को क्षति पहुंचाते हैं। इस काम के लिए उन्हें 1995 में दो अन्य शोधकर्ताओं के साथ रसायन विज्ञान के नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया था। पृथ्वी पर जैविक, रासायनिक और भूगर्भीय गतिविधियों पर मनुष्य के वर्चस्व के मद्देनज़र इस युग के लिए उन्होंने एक नया शब्द ‘एंथ्रोपोसीन’ गढ़ा था। ।
वर्ष 2000 में मेक्सिको में हुए एक सम्मेलन में क्रटज़ेन ने सबसे पहले
एंथ्रोपोसीन शब्द का उपयोग किया था और बताया था कि हम ‘एंथ्रोपोसीन युग’ में रह
रहे हैं। इस शब्द को तुरंत ही लोगों ने अपना लिया, और इस
शब्द ने कई विषयों में बहस छेड़ दी।
पृथ्वी पर एंथ्रोपोसीन युग (या मानव वर्चस्व का युग) की शुरुआत बीसवीं सदी के
मध्य से मानी जाती है, जब से मनुष्यों ने पृथ्वी पर मौजूद
संसाधनों का अंधाधुंध दोहन शुरू किया। इस विचार के ज़रिए क्रटज़ेन ने पृथ्वी की जलवायु
परिवर्तन की स्थिति और पर्यावरणीय दबावों पर अपनी चिंता जताई थी।
क्रटज़ेन का जन्म 1933 में एम्स्टर्डम में हुआ था। सिविल इंजीनियरिंग की शिक्षा
हासिल करने के बाद 1960 के दशक में उन्होंने एक कंप्यूटर प्रोग्रामर के रूप में
काम करते हुए स्टॉकहोम विश्वविद्यालय से मौसम विज्ञान का अध्ययन किया। स्नातक
शिक्षा के दौरान उन्होंने अपने प्रोग्रामिंग और वैज्ञानिक कौशल दोनों का उपयोग कर
समताप मंडल का एक कंप्यूटर मॉडल बनाया था। वायुमंडल में विभिन्न ऊंचाइयों पर ओज़ोन
के वितरण समझाते हुए उन्होंने पाया कि नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स ओज़ोन को क्षति
पहुंचाने वाली अभिक्रियाओं में उत्प्रेरक की भूमिका निभाते हैं। 1970 के दशक की
शुरुआत में जब सुपरसोनिक विमानों द्वारा उत्सर्जित नाइट्रोजन ऑक्साइड्स के स्तर पर
चर्चा शुरू हुई,
तब क्रटज़ेन ने पाया कि मानवजनित उत्सर्जन समताप मंडल में
मौजूद ओज़ोन परत को नुकसान पहुंचाता है। उसी समय दो अन्य शोधकर्ता मारियो जे.
मोलिना और एफ. शेरवुड रॉलैंड ने पाया था कि प्रणोदक, विलायकों
और रेफ्रिजरेंट के रूप में इस्तेमाल किए जाने वाले क्लोरीन युक्त यौगिक भी ओज़ोन
परत के ह्रास में योगदान देते हैं। 1985 में वैज्ञानिकों ने अंटार्कटिक के ऊपर
ओज़ोन परत में एक ‘सुराख’ पाया था।
क्रटज़ेन 1970-1980 के दशक में ओज़ोन ह्रास पर होने वाली सार्वजनिक बहसों में
काफी सक्रिय रहे। 1980 में उन्होंने जर्मनी के मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर
केमिस्ट्री में निदेशक का पदभार संभाला। वे पृथ्वी के वायुमंडल की सुरक्षा के लिए
निवारक उपायों को ध्यान में रखकर गठित एक जर्मन संसदीय आयोग के सदस्य भी थे। इस
आयोग द्वारा वर्ष 1989 में प्रकाशित रिपोर्ट ने वातावरण और जलवायु नीतियों का
प्रारूप बनाने को दिशा दी। क्रटज़ेन ने 1987 में मॉन्ट्रियल संधि की नींव रखने में
मदद की,
जिसके तहत हस्ताक्षरकर्ता देश ओज़ोन-क्षयकारी पदार्थों के
इस्तेमाल को धीरे-धारे कम करते हुए खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस संधि के
तहत हानिकारक क्लोरीन यौगिकों पर प्रतिबंध लगा, सुपरसोनिक
विमान सीमित हुए। नतीजतन, ओज़ोन परत में अब कुछ सुधार
दिखाई दे रहे हैं।
नाभिकीय जाड़े के बारे में सर्वप्रथम आगाह करने वाले क्रटज़ेन ही थे। 1970 के
दशक में वे कोलोरेडो स्थित नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक रिसर्च के लिए काम कर रहे
थे,
तभी उन्होंने यूएस नेशनल ओशेनिक एंड एटमॉस्फेरिक
एडमिनिस्ट्रेशन के साथ मिलकर समताप मंडलीय अनुसंधान कार्यक्रम की शुरुआत की थी।
इसी समय उनकी रुचि निचले वायुमंडल (क्षोभमंडल) और जलवायु परिवर्तन के रसायन
विज्ञान को जानने में बनी, और उन्होंने तब वायु प्रदूषण
के स्रोतों की पड़ताल की। उन्होंने पाया कि अधिकतर ऊष्णकबंधीय इलाकों में वायु
प्रदूषण का स्रोत कृषि और वनों की कटाई से निकलने वाले बायोमास का अत्यधिक उपयोग
है। और उन्होंने बताया कि क्षोभमंडल में इस अत्यधिक प्रदूषण का प्रभाव
ऊष्णकटिबंधीय इलाकों और दक्षिणी गोलार्ध में अधिक दिखता है, जहां अन्य मानवजनित प्रदूषण (जैसे जीवाश्म र्इंधन का उपयोग) उत्तरी औद्योगिक
देशों की तुलना में कम था।
इसने क्रटज़ेन को आग के तूफानों का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया, जो नाभिकीय युद्ध के कारण शुरू हो सकते हैं। ऐसी आग से निकलने वाले धुएं में
उपस्थित कार्बन-कण सूर्य के प्रकाश से ऊष्मा अवशोषित करते हैं, और धुएं को ऊपर उठाते हैं। इस तरह यह धुंआ पृथ्वी के ऊपर लंबे समय तक बना
रहेगा और पृथ्वी की सतह को ठंडा करेगा। 1982 में उन्होंने जॉन बर्क के साथ लिखे एक
लेख ‘ट्वाइलाइट एट नून’ (दोपहर में धुंधलका) में नाभिकीय शीतकाल के बारे में
चेताया था। इसी से प्रेरित होकर सोवियत संघ के प्रमुख मिखेल गोर्बाचेव ने 1987 में
अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के साथ परमाणु हथियार-नियंत्रण समझौते पर
हस्ताक्षर किए थे।
वर्ष 2000 में औपचारिक सेवानिवृत्ति के बाद क्रटज़ेन ने अपना काम जारी रखा।
2006 में उन्होंने जिओइंजीनियरिंग में अनुसंधान का आव्हान किया; उनका कहना था कि यदि उत्सर्जन थामने के प्रयास असफल रहे तो यही एकमात्र विकल्प
बचेगा। ऐसे एक विकल्प पर विचार हुआ था: सल्फर डाइऑक्साइड को समताप मंडल में छोड़ा
जाए,
जो वहां सल्फेट में परिवर्तित हो जाएगी। ये सल्फेट कण
पृथ्वी को सूरज से बचाएंगे और ग्रीनहाउस प्रभाव का मुकाबला करेंगे। क्रटज़ेन इस
विचार के समर्थक नहीं थे, लेकिन वे इस तरह के प्रयोग
करके देखना चाहते थे। आज, कुछ लोग इस विचार पर काम कर
रहे हैं,
तो कुछ अन्य इसे उत्सर्जन पर नियंत्रण की दिशा से भटकाव
मानते हैं।
क्रटज़ेन एक रचनात्मक वैज्ञानिक और जोशीले व्यक्ति थे। कई वैज्ञानिक और सार्वजनिक बहसों में मानवजनित चुनौतियों को वे सामने लाए। कोविड-19 महामारी भी एंथ्रोपोसीन-जनित है। क्रटज़ेन की अपेक्षा होती कि हम विज्ञान, समाज और पृथ्वी को लेकर ज़्यादा ज़िम्मेदारी से काम करें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
जलवायु बदलाव का संकट तेज़ी से विश्व के सबसे बड़े पर्यावरणीय
संकट के रूप में उभरा है। जीवन के विभिन्न महत्त्वपूर्ण पक्षों के संदर्भ में इस
संकट को समझना ज़रूरी हो गया है। भारत में आजीविका का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत कृषि
व इससे जुड़े विभिन्न कार्य हैं। अत: खेती-किसानी, पशुपालन, वृक्षारोपण आदि के संदर्भ में जलवायु बदलाव के संकट को समझना आवश्यक है।
पहला सवाल है कि खेती-किसानी पर जलवायु बदलाव का क्या असर पड़ सकता है? यह असर बहुत व्यापक व गंभीर हो सकता है। मौसम पहले से कहीं अधिक अप्रत्याशित व
प्रतिकूल हो सकता है। प्राकृतिक आपदाएं बढ़ सकती हैं। जल संकट अधिक विकट हो सकता
है। मौसम में बदलाव के साथ ऐसी कई समस्याएं पैदा हो सकती हैं जो पहले नहीं थीं।
किसानों,
पशुपालकों, घुमंतू समुदायों, वन-श्रमिकों आदि के लिए कुछ स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ सकती हैं।
अगला प्रश्न है कि इसके लिए कैसी तैयारी लगेगी? इसके
लिए खेती-किसानी के खर्च को तेज़ी से कम किया जाए व किसान-समुदायों की
आत्म-निर्भरता को तेज़ी से बढ़ाया जाए। यदि किसान रासायनिक खाद, कीटनाशकों आदि पर निर्भरता कम कर लें और विविधता भरे परंपरागत बीजों को संजो
लें तो खर्च बहुत कम हो जाएगा, कर्ज़ घटेगा व विपरीत स्थिति का
सामना करने में वे अधिक समर्थ हो जाएंगे। स्थानीय निशुल्क उपलब्ध संसाधनों (जैसे
गोबर,
पत्ती की खाद, स्थानीय पौधों या नीम
जैसी वनस्पतियों से प्राप्त छिड़काव) से आत्म-निर्भरता बढ़ जाएगी। परांपरागत बीज
संजोने व संग्रहण करने, उनकी जानकारी बढ़ाने, उन्हें आपस में बांटने से आत्म-निर्भरता आएगी, प्रतिकूल
या बदले मौसम के अनुकूल बीज भी परंपरागत विविधता भरे बीजों में से मिल जाएंगे।
आपदा-प्रबंधन व कठिन समय में सहायता के लिए सरकारी बजट बढ़ाना चाहिए। जल व
मिट्टी संरक्षण पर अधिक ध्यान देना चाहिए व यह कार्य लोगों की नज़दीकी भागीदारी से
होना चाहिए। यह कार्य, हरियाली बढ़ाने व वन-रक्षा के कार्य बड़े
पैमाने पर,
विशेषकर भूमिहीन परिवारों को रोज़गार देते हुए, होने चाहिए ताकि सभी ग्रामीण परिवारों का आजीविका आधार मज़बूत हो सके। इसके
अलावा भूमिहीन परिवारों के लिए न्यूनतम भूमि की व्यवस्था भी ज़रूरी है।
कृषि व सम्बंधित आजीविकाओं की मज़बूती के कार्य में विकेंद्रीकरण बढ़ाना चाहिए व
गांव समुदायों,
ग्राम सभाओं व ग्राम पंचायतों की क्षमता व संसाधनों में
भरपूर वृद्धि होनी चाहिए ताकि उन्हें बाहरी मार्गदर्शन पर निर्भर न होना पड़े व
बदलती स्थिति में स्थानीय ज़रूरतों के अनुकूल निर्णय वे स्वयं ले सकें।
अति-केंद्रीकृत निर्णय ऊपर से लादने की प्रवृत्ति आज भी कठिनाइयां उत्पन्न करती है
व जलवायु बदलाव के दौर में ये कठिनाइयां और बढ़ सकती हैं।
आदिवासी क्षेत्रों में यह और भी महत्त्वपूर्ण हैं। वन-रक्षा के प्रयासों में
भी आदिवासियों व वनों के पास के समुदायों की भूमिका को तेज़ी से बढ़ाना चाहिए।
तीसरा सवाल यह है कि जलवायु बदलाव के संकट को कम करने में कृषि का योगदान कैसे
व कितना हो सकता है। यह योगदान बहुत महत्वपूर्ण हो सकता है। मज़े की बात तो यह है
कि जिन उपायों से कृषि को जलवायु बदलाव का सामना करने में मदद मिलेगी, कमोबेश वही उपाय ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने व इस तरह जलवायु बदलाव
का संकट कम करने में भी मददगार हो सकते हैं। रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाइयों पर
निर्भरता कम करने से किसानों के खर्च कम होंगे तो साथ में उनके उत्पादन, यातायात व उपयोग से जुड़ी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी कम होगा। यदि छोटे
नदी-नालों व नहरों से पानी उठाने के लिए डीज़ल के स्थान पर मंगल टरबाईन का उपयोग
होगा,
तो इससे किसानों का खर्च भी कम होगा व ग्रीनहाऊस गैसों का
उत्सर्जन भी कम होगा। यदि चारागाह बचेंगे व हरियाली बढ़ेगी तथा मिट्टी संरक्षण के
उपाय होंगे तो इससे किसानों की आजीविका बढ़ेगी पर साथ में इससे ग्रीनहाउस गैसों को
सोखने की क्षमता भी बढ़ेगी।
अत: इस बारे में उचित समझ बनाते हुए परंपरागत ज्ञान व नई वैज्ञानिक जानकारी का समावेश करते हुए हमें ऐसी कृषि की ओर बढ़ना है जो किसान की टिकाऊ आजीविका को मज़बूत करे है, आत्म-निर्भरता को बढ़ाए, खर्च व कर्ज़ कम करे व साथ में ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन भी कम करे या उन्हें सोखने में मदद करे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.ucsusa.org/sites/default/files/styles/original/public/images/fa-sus-climate-drought-soybeans.jpg?itok=cr5QRzxd
हाल ही में सूक्ष्मजीव विशेषज्ञों को जल-शोधन के एक तालाब के
पानी में सूक्ष्मजीवों की अनूठी सांठ-गांठ दिखी है। ज़ूफैगस इंसिडियन नामक
एक सूक्ष्म कवक है जो बैक्टीरिया के साथ मिलकर अपने भोजन के इंतज़ाम के लिए जाल
बिछाती है। इस जाल में उनके शिकार बनते हैं गंदे पानी में आम तौर पर पनपने वाले
छोटे जलीय जीव रोटिफर्स।
जल शोधन संयंत्र के पानी का प्रकाशीय और इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से अवलोकन कर
और बैक्टीरिया,
डीएनए और अन्य जीवों को चिंहित कर शोधकर्ताओं ने देखा कि
किस तरह यह कवक रोटिफर्स को पकड़ने का करतब करती है। उन्होंने देखा कि कवक सबसे
पहले मायसेलिया नामक पतले धागों से एक जाल-सा बुनती है। इस जाल से छोटी, लॉलीपॉप के आकार जैसी कई शाखाएं निकलती हैं, जिनमें
रोटिफर्स फंस जाते हैं। इसके बाद बैक्टीरिया अपना काम शुरू करते हैं। बैक्टीरिया
इन धागों के ऊपर और अंदर इकट्ठा होने लगते हैं; सबसे
अधिक संख्या में वे लॉलीपॉपनुमा संरचना की सतह पर एकत्रित होते हैं। फिर कुछ वायरस
और उनके डीएनए मिलकर बैक्टीरिया की इस परत पर एक झिल्ली चढ़ा देते हैं।
इंटरनेशनल जर्नल ऑफ मालीक्यूलर साइंसेज़ में
शोधकर्ताओं ने बताया है कि इस तरह रोटिफर के लिए बिछाया गया यह चिपचिपा जाल रोटिफर
के एक बार अंदर आने के बाद उसे बाहर जाने नहीं निकलने देता। जब रोटिफर इस जाल में
फंसने लगते हैं तो जाल के धागे रोटिफर को चारों ओर से घेर लेते हैं जिससे जाल पर
पनप रहे बैक्टीरिया इन तक पहुंच जाते हैं, और
रोटिफर को पचाना शुरू कर देते हैं। इस प्रक्रिया में बैक्टीरिया द्वारा स्रावित
वसा बूंदों से कवक अपना पोषण प्राप्त करती हैं। रोटिफर से पूरा पोषण चूसने के बाद
मायसेलिया समाप्त हो जाता है और रोटिफर का केवल खोखला शरीर और उसमें बैक्टीरिया ही
बचते हैं। फिर अन्य सूक्ष्मजीव इस बचे-खुचे अवशेष को भी खा डालते हैं।
कवक द्वारा बिछाए गए एक ऐसे ही जाल पर शोधकर्ताओं को लगभग 50 मृत रोटिफर फंसे दिखे। नतीजे एक बार फिर दर्शाते हैं कि सूक्ष्मजीव अपने सूक्ष्म आकार से कहीं अधिक जटिल हैं। गंदे पानी में देखी गई इस साझेदारी पर शोधकर्ताओं का कहना है कि सूक्ष्मजीवों की इस तरह की सांठ-गांठ कई अन्य आवासों में भी बहुत आम होगी, लेकिन अपने सूक्ष्म आकार के कारण वे अब तक नज़र में नहीं आर्इं हैं। बहरहाल इस पर आगे अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/fungibacteria_1280p.jpg?itok=1Zq1HPlq
यह तो लगभग सब जान गए हैं कि एमएसपी या न्यूनतम समर्थन मूल्य
महत्वपूर्ण चीज़ है। लेकिन यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि इसका निर्धारण कैसे
किया जाता है। इसके पीछे तर्क क्या हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य, उसके निर्धारण, उसके महत्व और सीमाओं को समझने के लिए थोड़ा
इतिहास में झांकना होगा।
एमएसपी का इतिहास
एमएसपी की व्यवस्था 1966-67 में गेहूं के लिए शुरू की गई थी। मकसद यह था कि
सरकार द्वारा संचालित रियायती सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए गेहूं की खरीद की जा
सके। आगे चलकर इस व्यवस्था को अन्य ज़रूरी फसलों पर भी लागू किया गया। वर्तमान में
कृषि लागत व मूल्य आयोग की अनुशंसा के आधार पर एमएसपी 23 फसलों पर लागू है। इनमें सात
अनाज (चावल,
गेहूं, मक्का, ज्वार, बाजरा,
जौं और रागी), पांच दालें (चना, तुअर,
मूंग, उड़द और मसूर), आठ तिलहन (सरसों, मूंगफली, सोयाबीन, तोरिया,
तिल, केसर बीज, सूरजमुखी और रामतिल) शामिल हैं। इनके अलावा 4 व्यावसायिक फसलें भी शामिल की गई
हैं: खोपरा,
गन्ना, कपास और पटसन।
एमएसपी का तर्क
अब यह देखते हैं कि एमएसपी क्या है और इसके पीछे तर्क क्या है। सरल शब्दों में
कहें तो एमएसपी सरकार द्वारा किसानों को प्रदान की गई सुरक्षा है। इसके माध्यम से
यह सुनिश्चित किया जाता है कि किसानों को कीमतों की गारंटी रहे और बाज़ार का आश्वासन
रहे। एमएसपी-आधारित खरीद प्रणाली का मकसद फसलों को कीमतों के उतार-चढ़ाव से महफूज़
रखना है। कीमतों में यह उतार-चढ़ाव कई अनपेक्षित कारणों से होता रहता है, जैसे मॉनसून,
बाज़ार में एकीकरण का अभाव, जानकारी
में असंतुलन वगैरह।
कृषि उत्पादों की कीमतें कई कारणों से प्रभावित होती हैं। जैसे यदि किसी फसल
का उत्पादन अच्छा हो, तो उसकी कीमतों में भारी गिरावट आ सकती है।
इसका परिणाम होगा कि किसान अगले वर्ष उस फसल को बोने से कतराएंगे, जिसका असर आपूर्ति पर पड़ेगा। इससे बचाव के लिए सरकार एमएसपी निर्धारित करती है
ताकि निवेश और फसल उत्पादन बढ़े। इससे यह सुनिश्चित होता है कि यदि बाज़ार में किसी
फसल उत्पाद की कीमतें गिरने लगें, तो भी सरकार किसानों से इसे
निर्धारित समर्थन मूल्य पर खरीद लेगी। इस तरह से उन्हें नुकसान से बचाया जाता है।
एमएसपी कैसे तय होता है?
एमएसपी का निर्धारण साल में दो बार कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की सिफारिश पर
किया जाता है। यह आयोग एक संवैधानिक निकाय है और खरीफ व रबी मौसम की अलग-अलग फसलों
के लिए अलग-अलग मूल्य नीति रिपोर्ट प्रस्तुत करता है।
रिपोर्ट पर विचार करके अंतिम निर्णय केंद्र सरकार लेती है। इससे पहले वह राज्य
सरकारों से सलाह-मशवरा करती है और देश में मांग-आपूर्ति की समग्र स्थिति पर भी
विचार करती है। एमएसपी की गणना जिस सूत्र के आधार पर की जाती है, उसे ‘A2+FL’ सूत्र कहते हैं और इसमें C2 लागत का भी ध्यान रखा
जाता है। A2 लागत में किसान द्वारा उठाए गए सारे खर्चों को शामिल किया जाता है – जैसे
बीज,
उर्वरक, रसायन, नियुक्त
मज़दूर,
र्इंधन, सिंचाई वगैरह। ‘A2+FL’ में ये सारी नगद लागतें और
अवैतनिक पारिवारिक श्रम की अनुमानित लागत (FL) जोड़ी जाती हैं। C2 लागत में A2+FL के अलावा किसान की अपनी भूमि तथा अचल सम्पत्ति का किराया
और फसल लगाने की वजह से ब्याज का जो नुकसान हुआ है वह भी जोड़ा जाता है।
कृषि लागत एवं मूल्य आयोग लाभ की गणना के लिए मात्र A2+FL को ध्यान में लेता है। बहरहाल, C2 लागतों का उपयोग एक संदर्भ के रूप में
किया जाता है ताकि यह फैसला हो सके कि आयोग द्वारा अनुशंसित एमएसपी कुछ प्रमुख राज्यों
में इन लागतों को शामिल कर रहा है। एमएसपी की गणना में कई बातों का ध्यान रखा जाता
है:
1. उत्पादन की लागत
2. मांग
3. आपूर्ति
4. कीमतों में उतार-चढ़ाव
5. बाज़ार में कीमतों के रुझान
6. विभिन्न लागतें
7. अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कीमतें
8. कृषि मज़दूरी की दरें
यदि हम A2, FL और C2 में शामिल किए गए मदों को देखें तो लगता है कि उक्त सूत्र में सब कुछ शामिल
हो गया है। लेकिन यह बात सच से कोसों दूर है। निर्धारित कीमतों में कुछ निहित
समस्याएं होती हैं, जिनका समाधान नहीं किया जा सकता, चाहे जितनी समग्र सूची बना ली जाए।
दूसरी समस्या क्रियांवयन की है। चाहे एमएसपी मौजूद है, लेकिन
मैदानी हकीकत यह है कि अधिकांश किसानों को अपनी उपज मजबूरन एमएसपी से कम दामों पर
बेचनी पड़ती है। आइए एमएसपी व्यवस्था की दिक्कतों पर एक नज़र डालते हैं – खरीद की एक
प्रणाली के रूप में भी और समर्थन की एक व्यवस्था के रूप में भी।
एमएसपी की सीमाएं
एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण की 2012-13 की रिपोर्ट के मुताबिक 10 प्रतिशत से भी कम
किसान अपनी उपज सरकार द्वारा निर्धारित एमएसपी पर बेचते हैं। दी हिंदू में
प्रकाशित एक विश्लेषण बताता है कि सितंबर 2020 में 68 प्रतिशत मामलों में फसलें
एमएसपी से कम कीमतों पर बेची गई थीं।
एमएसपी की प्रमुख समस्या है सरकार के पास गेहूं और चावल के अलावा शेष सारी
फसलों को खरीदने की व्यवस्था का अभाव। गेहूं और चावल की खरीद भारतीय खाद्य निगम
द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत की जाती है। एक सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए
कि क्या एमएसपी बढ़ाने से किसानों को उनकी उपज के बेहतर दाम मिलेंगे।
हालांकि यह नीति किसानों की भलाई के लिए लागू की गई है, लेकिन यह जानना ज़रूरी है कि क्या उन्हें वास्तव में लाभ मिला है। जब भी सरकार
एमएसपी बढ़ाती है,
तो दावा किया जाता है कि इससे देश के किसानों को बहुत लाभ
मिलेगा। लेकिन ये दावे सच्चाई से बहुत दूर हैं। जब भी एमएसपी बढ़ाया जाता है, किसान उससे कम दामों पर ही बेच पाते हैं, जिसकी
वजह से असंतोष बढ़ता है।
यदि हम एमएसपी को एक फिक्स्ड मूल्य व्यवस्था के रूप में देखें तो कई समस्याएं
नज़र आने लगती हैं।
केंद्र सरकार द्वारा घोषित मूल्य (एमएसपी) पूरे देश के लिए एक समान होता है
जबकि उत्पादन की लागतें राज्यों के बीच बहुत अलग-अलग होती हैं। कृषि लागत एवं
मूल्य आयोग की बात करें, तो 2016-17 में कर्नाटक के
किसानों का एक हैक्टर मक्का उत्पादन का खर्च लगभग 28,220 रुपए था। दूसरी ओर, बिहार के किसान का खर्च 32,662 रुपए था और झारखंड के किसान को एक हैक्टर मक्का
उगाने में 24,716 रुपए तथा महाराष्ट्र के किसानों को 51,408 रुपए खर्च करने पड़े
थे।
दूसरी बात यह है कि राज्यों के बीच उपज में बहुत अंतर होता है। उदाहरण के लिए
2017-18 में देश में मक्का
विभिन्न राज्यों में मज़दूरी की दरें
राज्य
मजदूरी
(रुपए प्रतिदिन)
आंध्र प्रदेश
312
आसाम
277
बिहार
264
गुजरात
236
हरियाणा
367
कर्नाटक
321
हिमाचल प्रदेश
439
केरल
691
मध्य प्रदेश
298
ओड़िसा
226
पंजाब
349
राजस्थान
267
तमिलनाड़ु
424
उत्तर प्रदेश
275
की औसत उपज 33 क्विंटल
प्रति हैक्टर थी। तुलना के लिए देखें कि तमिलनाड़ु में मक्का की प्रति हैक्टर औसत
उपज 65.5
क्विंटल और बिहार में मात्र 36.4 क्विंटल
रही थी।
एक समस्या यह भी है कि सभी राज्यों में मज़दूरी की दरें बहुत अलग-अलग हैं।
तालिका में जनवरी 2018 में विभिन्न राज्यों में मज़दूरी दरें दी गई हैं। गौरतलब है
कि इसी साल पूरे देश में औसत मज़दूरी 283 रुपए प्रतिदिन थी।
2020 में 68 प्रतिशत बिक्रियां मंडी में एमएसपी से कम दामों पर हुई थीं और
इसका प्रमुख कारण था कि सरकार पर एमएसपी पर फसल खरीदने की कानूनी बाध्यता नहीं है।
एमएसपी की दिक्कतों को समझने के लिए, आइए कुछ आंकड़ों और
अध्ययनों पर नज़र डालें। इनसे पता चलता है कि एमएसपी व्यवस्था सही तरीके से काम
नहीं कर रही है।
पुराने-नए आंकड़े
आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन तथा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (OECD-ICAIR) की
एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्पाद मूल्य निर्धारण की कोई उचित व्यवस्था न होने की वजह
से किसानों ने 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान उठाया।
भारतीय खाद्य निगम की पुनर्रचना के सुझाव देने हेतु 2015 में गठित शांता कुमार
समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि मात्र 6 प्रतिशत किसानों ने ही एमएसपी का
लाभ उठाया। अर्थात देश के 94 प्रतिशत किसान एमएसपी से लाभांवित नहीं हो रहे थे।
भारत सरकार के अनुसार देश में 14.5 करोड़ किसान हैं। यानी एमएसपी से लाभांवित किसान
मात्र 87 लाख हैं।
2016 में नीति आयोग की एक चौंकाने वाली रिपोर्ट से पता चला था कि 81 प्रतिशत
किसान जानते थे कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य देगी लेकिन इनमें से मात्र 10
प्रतिशत किसानों को ही बोवनी से पहले सही कीमत की जानकारी थी। तो सवाल यह उठता है
कि यदि किसान सबसे बड़ी उचित मूल्य की प्रणाली से इतनी दूर हैं तो उन्हें उचित दाम
कैसे मिल पाएंगे।
अब वर्ष 2019-20 के कुछ ताज़ा आंकड़े देखते हैं और यह समझने की कोशिश
करते हैं कि क्या एमएसपी ने कोई वास्तविक लाभ दिया है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार हालांकि धान और गेहूं की सर्वाधिक खरीद पंजाब और
हरियाणा में होती है लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ पाने वाले सबसे ज़्यादा
किसान तेलंगाना और मध्य प्रदेश के हैं। इसकी एक संभावित व्याख्या यह हो सकती है कि
पंजाब व हरियाणा में जोत के आकार बड़े हैं (जैसा कि इंडियन एक्सप्रेस में 2019 में
प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया था) और जोत के आकार के हिसाब से उनकी रैंक दूसरी
और तीसरी है,
लेकिन यह भी हो सकता है कि इन राज्यों में ज़्यादा किसानों
को हड़बड़ी में फसल बेचना पड़ती है और इसके चलते वे शोषण के शिकार हो जाते हैं।
उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय की एक
रिपोर्ट से पता चला था कि खरीफ के मौसम में सरकार द्वारा तेलंगाना के 198 लाख
किसानों से धान खरीद की गई थी। दूसरे नंबर पर
हरियाणा था जहां के 189 लाख किसानों ने धान बेची जबकि पंजाब पांचवे स्थान
पर था जहां के मात्र 116 लाख किसानों को धान के लिए एमएसपी दिया गया था (ये आंकड़े
भारतीय खाद्य निगम की एमएसपी रिपोर्ट से हैं)।
इन पांच उदाहरणों में आंकड़ों के आधार पर हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि एमएसपी
व्यवस्था भलीभांति काम नहीं कर रही है। इसके द्वारा किसानों की वास्तविक तकलीफ में
खास कमी नहीं आ रही है क्योंकि बहुत ही थोड़े किसानों को इस व्यवस्था का लाभ मिल पा
रहा है।
आगे हम देखेंगे कि एमएसपी व्यवस्था को लेकर विशेषज्ञों की राय क्या है। हम खास
तौर से एम.एस. स्वामिनाथन आयोग की रिपोर्ट पर ध्यान देंगे।
स्वामिनाथन रिपोर्ट
एम.एस. स्वामिनाथन आयोग का गठन 2004 में किया गया था। इसने पांच रिपोर्ट
प्रस्तुत की थीं जिनमें किसानों के कष्टों को कम करने तथा एक निर्वहनीय व लाभदायक
कृषि प्रणाली के लिए एक खाका प्रस्तुत किया गया था।
पांचवी व अंतिम रिपोर्ट में कई मुद्दों पर चर्चा की गई थी। इनमें भूमि सुधार, सिंचाई सुधार, उत्पादन वृद्धि, खाद्य
सुरक्षा,
ऋण एवं बीमा सुविधाएं तथा किसानों की आत्महत्याओं को रोकने
जैसे मुद्दे शामिल थे। लगभग 300 पृष्ठों की इस रिपोर्ट में एमएसपी तथा किसानों की
वित्तीय तरक्की सम्बंधी प्रमुख सिफारिशों की चर्चा यहां की गई है।
स्वामिनाथन आयोग ने व्यापारियों के बीच कार्टल गठन की समस्या को पहचाना था।
कार्टल का मतलब होता है कि व्यापारी लोग भावों को बढ़ने से रोकने के लिए गठबंधन कर
लेते हैं। ऐसे गठबंधन किसी विशेष कृषि उत्पाद या मवेशियों के बारे में किए जाते
हैं। इससे निपटने के लिए आयोग ने ‘एक देश एक बाज़ार’ की सिफारिश की थी। आयोग ने माल
के परिवहन को आसान बनाने के लिए रोड टैक्स और स्थानीय करों को समाप्त करने की
सिफारिश की थी। इसकी बजाय आयोग ने एक राष्ट्रीय परमिट का सुझाव दिया था जिसके आधार
पर वाहन देश में कहीं भी जा सकें। आयोग का विचार था कि ऐसा करने पर परिवहन की लागत
कम होगी और खेती में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी।
स्वामिनाथन आयोग ने अनुबंध कृषि की सिफारिश की थी ताकि किसानों को सीधे
उपभोक्ता से जोड़ा जा सके और सुझाव दिया था कि मूल्य-वर्धन तथा विपणन के लिए
संस्थागत समर्थन मिले। लेकिन चूंकि कोई कानून नहीं है, इसलिए
किसानों को यह शंका होना स्वाभाविक है कि इन उपायों से खेती का कार्पोरेटीकरण हो
जाएगा क्योंकि कृषि-व्यापार कंपनियां बाज़ार के रुझानों को निर्देशित करेंगी और
कीमतों को भी। इसके अलावा, यह डर भी है कि कंपनियां ही
अनुबंध की शर्तें तय करेंगी क्योंकि स्थानीय व छोटे-गरीब किसानों के पास सौदेबाज़ी
की ताकत नहीं है।
हालांकि आयोग ने अनुबंध कृषि का समर्थन किया था किंतु साथ ही यह टिप्पणी भी की
थी कि एक समग्र आदर्श अनुबंध का प्रारूप बनाया जाना चाहिए जिसका उपयोग किसानों के
खिलाफ न किया जा सके।
स्वामिनाथन आयोग ने एमएसपी की सिफारिश एक सुरक्षा चक्र के रूप में की थी ताकि
कृषि में उत्साह पैदा किया जा सके। आयोग की सिफारिश थी कि यह सुरक्षा चक्र उन
फसलों,
लोगों और क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी है जिनके वैश्वीकरण
की प्रक्रिया में प्रतिकूल प्रभावित होने की संभावना है।
एम. एस. स्वामिनाथन आयोग ने कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदु उठाए थे जो कृषि
क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा, गतिशीलता और वृद्धि को बढ़ावा
देंगे और साथ ही खेती को किसानों के लिए लाभदायक बनाएंगे और टिकाऊ भी। तो सवाल यह
है कि सरकारें स्वामिनाथन आयोग की सिफारिशों पर अमल क्यों नहीं कर रही हैं।
जवाब बहुत आसान है। ये सिफारिशें सरकार को दीर्घावधि में किसानों को उचित
मूल्य देने को बाध्य कर देंगी और सरकार यथासंभव इससे बचना चाहती हैं। तथ्य यह है
कि चाहे आज एमएसपी मौजूद है किंतु सरकार को बाध्य नहीं किया जा सकता कि वह
निर्धारित एमएसपी पर किसान की उपज खरीदे। सरकार के नज़रिए से देखें तो एमएसपी का
सख्ती से पालन किया जाए और आयोग की सिफारिशों को मान्य किया जाए तथा साथ ही
सार्वजनिक वितरण के लिए खाद्यान्न में रियायत दी जाए और इन खाद्य वस्तुओं की अंतिम
कीमतों पर नियंत्रण भी रखा जाए तो यह काफी महंगा मामला साबित होगा। ज़ाहिर है, सरकार यथासंभव इससे बचने की कोशिश करेगी।
क्या करने की ज़रूरत है?
अलबत्ता,
किसानों की तकलीफों को दूर करने के लिए कुछ कदम उठाना ज़रूरी
है। दिक्कत यह है कि ये सुझाव ऐसे हैं जिन पर अमल करने से अर्थ व्यवस्था पर अन्य
असर होंगे और राज्य पर दबाव बढ़ेगा। यह सही है कि नागरिकों की खुशहाली राज्य का
दायित्व है,
लेकिन राज्य को राजस्व के प्रवाह की अन्य जटिलताओं का भी
ध्यान रखना होता है। बहरहाल कुछ ऐसे उपायों पर चर्चा करते हैं जो किसानों की आमदनी
बढ़ाने में मददगार हो सकते हैं।
लागत और मूल्य की नीति (जैसे एमएसपी जिसमें कीमतें तय करने के लिए किसानों
द्वारा वहन की गई लागत को ध्यान में रखा जाता है) से हटकर आमदनी नीति की ओर बढ़ना
ज़रूरी है क्योंकि वैसे भी अधिकांश किसान एमएसपी से लाभांवित नहीं हो रहे हैं। यदि
एमएसपी बना रहता है तो यह राज्य का वैधानिक दायित्व होना चाहिए। तभी किसान वास्तव
में इससे लाभांवित हो पाएंगे।
संसद एमएसपी को लेकर कानून बना सकती है ताकि कोई भी व्यापारी किसान की उपज को
एक निर्धारित मूल्य से कम पर न खरीद सके। ऐसा करने पर दंड का प्रावधान हो।
जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए ताकि किसानों को एमएसपी की जानकारी बोवनी
से पहले मिल सके।
इन समाधानों के साथ समस्या यह है कि एमएसपी निर्धारण का अधिकार केंद्र सरकार
के पास है क्योंकि यह सरकार पर है कि वह कितना स्टॉक रखना चाहती है और कितना बाज़ार
के लिए छोड़ना चाहती है। ये सारे निर्णय केंद्र द्वारा किए जाने होते हैं। फिर भी
इन्हें राज्यों के अनुसार क्रियांवित किया जाना असंभव नहीं है। उदाहरण के लिए, मान लेते हैं कि गेहूं की लागत 2500 रुपए प्रति Ïक्वटल आती है। तब भारतीय खाद्य निगम किसानों को 2500 रुपए का भुगतान करेगा और
यदि यही लागत बिहार के लिए 1500 रुपए निकलती है तो बिहार सरकार 1500 रुपए प्रति Ïक्वटल का भुगतान करेगी। इससे विभिन्न राज्यों के बीच एमएसपी
से मिलने वाले लाभ में समता आएगी। लेकिन ऐसा होता नहीं है क्योंकि किसानों में इसे
लेकर जागरूकता नहीं है। पूरी नीति में परिवर्तन की ज़रूरत है लेकिन सरकार इसकी
अनुमति नहीं देती क्योंकि अर्थ शास्त्री मानते हैं कि खाद्य वस्तुएं सस्ती होनी
चाहिए। यह मुद्रा स्फीती पर काबू रखने के लिए किया जाता है ताकि उद्योगों को कच्चा
माल और हमारे जैसे अंतिम उपभोक्ताओं को सस्ते दामों पर वस्तुएं मिल सके। सबसिडी
जैसी कृत्रिम व्यवस्थाओं के ज़रिए मुद्रास्फीती पर नियंत्रण रखा जाता है। सरकार को
लगता है कि सबसिडी तथा अन्य ऐसी व्यवस्थाएं एक बोझ हैं – अनिवार्य हैं लेकिन बोझ
तो हैं ही।
कई बार जब किसानों की आमदनी बढ़ाने की मांग होती है तो उसे यह कहकर दबा दिया
जाता है कि किसानों की आमदनी बढ़ेगी तो कीमतें बढ़ेंगी। इससे बचने का एक तरीका यह है
कि सरकार एमएसपी से कम बाज़ार भाव पर खरीदी करे और बाज़ार भाव और एमएसपी के बीच के
अंतर की राशि को सीधे प्रधान मंत्री जनधन खातों में जमा कर दे। इससे सरकार
उपभोक्ताओं के लिए कीमतों पर नियंत्रण रख सकती है और किसानों के हितों की भी रक्षा
कर सकती है। इससे बिचौलियों को दूर रखने में मदद मिलेगी।
स्पष्ट है कि एमएसपी की दिक्कतों से निपटने के तरीके हैं और उन स्थितियों से बचने के भी तरीके हैं जहां किसान नाखुश होते हैं। लेकिन इसके लिए दोनों ओर से प्रयास की ज़रूरत होगी। अन्यथा सारे समाधान नाकाम रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.indianexpress.com/2020/10/MSP.jpeg
वॉटर कॉनफ्लिकट फोरम देश में पानी के मुद्दों से सरोकार रखने वाली संस्थाओं और व्यक्तियों के लिए संवाद मंच है। पिछले लगभग 20 वर्षों से यह विभिन्न मुद्दों पर काम करता रहा है। उत्तराखंड की हाल की घटनाओं पर फोरम ने एक वक्तव्य जारी किया है और कई लोगों ने इस पर हस्ताक्षर करके अनुमोदन किया है ।
विगत 7 फरवरी 2021 को उत्तराखंड के ऋषि गंगा और धौली गंगा की
घटनाओं ने एक बार फिर इस बात की ओर ध्यान आकर्षित किया है कि हिमालय का
पारिस्थितिकी तंत्र बहुत दबाव में है और रोज़-ब-रोज़ दुर्बल होता जा रहा है। जलवायु
परिवर्तन और उसके असर अब बहस का विषय नहीं हैं। वर्तमान में इन परिवर्तनों ने
हिमालय जैसी नवोदित और बेचैन पर्वत शृंखला को और भी कमज़ोर बना दिया है। हिमालय के
अंतर्गत भी हिमनद, हिमनद झीलों, खड़ी घाटियों और विरल वनस्पतियों जैसे स्थान अन्य क्षेत्रों
की तुलना में अधिक संवेदनशील हैं। ये इलाके मामूली से मानव हस्तक्षेप से बड़ी आपदा
का रूप ले सकते हैं।
निर्मित, निर्माणाधीन या नियोजित बांधों और
जलविद्युत परियोजनाओं, बराजों, सुरंगों, चौड़ी
सड़कों और यहां तक कि रेल मार्ग जैसे मानव हस्तक्षेप पूरे हिमालय क्षेत्र में फैले
हुए हैं। अब तक वर्ष 2012, 2013, 2016 और 2021 की हालियां घटनाएं हमें निरंतर चेतावनी दे रही
हैं। इस परिस्थिति में हिमालय क्षेत्र में पहले से हो चुके नुकसान की भरपाई करने
के लिए अविलंब निवारक व निर्णायक कदम उठाने होंगे।
7 फरवरी की घटनाओं की सार्वजनिक स्तर पर उपलब्ध जानकारी संकेत देती है कि नदी
के मार्ग में निर्मित पनबिजली परियोजनाओं जैसे अवरोधों के चलते ऋषि गंगा घाटी में
एक हानिरहित प्राकृतिक घटना ने विनाशकारी रूप ले लिया जिसके चलते जान-माल का काफी
नुकसान हुआ। इस दौरान बाढ़ चेतावनी प्रणाली भी विफल रही।
इस घटना के मद्देनज़र, वॉटर
कॉनफ्लिक्ट फोरम देश के राजनीतिक और कार्यकारी प्रतिष्ठान से निम्नलिखित मांगें
करता है:
1. जान-माल के नुकसान के लिए ज़िम्मेदारों की विभिन्न स्तरों पर स्वतंत्र और
निष्पक्ष जांच की जाए; दोषियों के विरुद्ध
कार्रवाई की जाए और ऐसे प्रोटोकॉल व प्रक्रियाएं स्थापित की जाएं ताकि भविष्य में
ऐसी प्राकृतिक घटनाएं आपदा में न बदलें।
2. दो क्षतिग्रस्त जलविद्युत परियोजनाओं, ऋषि गंगा और तपोवन, को तत्काल रद्द किया जाए
और नदी के रास्ते से मलबे को साफ किया जाए।
3. 2014 की उत्तराखंड आपदा के कारणों का विश्लेषण कर चुकी रवि चोपड़ा समिति की
सिफारिशों को जल्द से जल्द कार्यान्वित किया जाए और प्राथमिकता के आधार पर
उत्तराखंड राज्य में निर्माणाधीन जलविद्युत परियोजनाओं को रद्द किया जाए। यह ध्यान
देने वाली बात है कि इस विषय में उच्च स्तरीय न्यायिक और प्रशासनिक संस्थाओं यानी
सर्वोच्च न्यायलय और पीएमओ ने इस दिशा में कदम उठाए थे लेकिन अभी तक इन्हें लागू
नहीं किया गया है।
4. भविष्य में इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए न सिर्फ उत्तराखंड, बल्कि हिमालय क्षेत्र के सभी राज्यों में मौजूदा बांधों की
आपदा संभावना की स्वतंत्र विशेषज्ञ समीक्षा की जाए।
5. हिमालय एक नवीन पर्वत शृंखला है और यदि इसकी भूगर्भीय दुर्बलता और भूकंपीय
संवेदनशीलता को अनदेखा किया जाता है तो जलवायु परिवर्तन की घटनाएं इसे नए
परिवर्तनों के प्रति और अधिक संवेदनशील बना देंगी। इसलिए पश्चिमी घाट इकोलॉजी
एक्सपर्ट पैनल की तर्ज़ पर हिमालय क्षेत्र में वर्तमान विकास कार्यक्रमों और
परियोजनाओं की व्यापक समीक्षा के लिए एक स्वतंत्र बहु-विषयी विशेषज्ञ समूह का गठन
किया जाना चाहिए जो समयबद्ध तरीके से काम करे। यह समीक्षा परियोजना-आधारित समीक्षा
न होकर एक व्यापक, संचयी, क्षेत्रीय समीक्षा होनी चाहिए जो सभी परियोजनाओं (जिसमें
सड़क, रेलवे, बांध, सुरंग, पर्यटन केंद्र, कॉलोनी, टाउनशिप और तथाकथित वनरोपण शामिल हों) के संयुक्त प्रभावों
के साथ जलवायु परिवर्तन और भूकंपीयता के मौजूदा खतरों को भी ध्यान में रखे।
6. एक सहभागी प्रक्रिया की शुरुआत करते हुए हिमालयी नदियों और स्थानीय लोगों के पारिस्थितिकी तंत्र एवं आजीविका की सुरक्षा के लिए एक वैकल्पिक विकास नीति/रणनीति विकसित की जानी चाहिए। हिमालय क्षेत्र में बेलगाम विकास पर रोक लगानी चाहिए; इसकी बजाय हिमालय क्षेत्र में न्यूनतम मानव हस्तक्षेप के साथ उसे एक प्राकृतिक विरासत के रूप में संरक्षित किया जाना चाहिए। साथ ही जैविक और जैव-विविधता आधारित कृषि, टिकाऊ पशुपालन, विकेंद्रीकृत जल प्रणाली, स्थानीय वन और जैव-र्इंधन आधारित विनिर्माण, शिल्प और समुदाय द्वारा संचालित पारिस्थितिकी पर्यटन को बढ़ावा देना चाहिए। इसमें पारिस्थितिक रूप से हानिकारक कृषि, जन पर्यटन आदि जैसे कार्यों को हतोत्साहित करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/202102/PTI02_11_20uytraa_0_1200x768.jpeg?T.ZstHEjbqHWAgbKhylTLTuaDsXdZaH_&size=770:433
न्यूज़ीलैंड में 42,000 साल पुराने एक कौरी वृक्ष के तने ने
पृथ्वी के चुंबकीय इतिहास की चुगली कर दी है। दरअसल, कुछ
साल पहले बिजली संयंत्र के लिए खुदाई के दौरान प्राचीन समय के कौरी पेड़ का 60 टन
वज़नी तना मिला था। यह न्यूज़ीलैंड में पाई जाने वाली पेड़ों की सबसे बड़ी प्रजाति का
था। 42,000 साल पहले उगा यह पेड़ दलदल में परिरक्षित हो गया था। हालिया अध्ययन में
इसकी वार्षिक वलयों ने 1700 साल का इतिहास बताया है – उस समय पृथ्वी के चुंबकीय
ध्रुव पलट गए थे।
साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार कौरी पेड़ के तने
और अन्य लकड़ियों में रेडियोकार्बन का स्तर बताता है कि उन वर्षों में पृथ्वी का
सुरक्षात्मक चुंबकीय क्षेत्र कमज़ोर होने और चुंबकीय ध्रुवों की स्थिति पलटने के
कारण अंतरिक्ष से पृथ्वी पर पहुंचने वाले विकिरण में अचानक बढ़ोतरी हुई थी।
वायुमंडल पर इस विकिरण के प्रभाव की मॉडलिंग करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि इस
प्रभाव के चलते पृथ्वी को जलवायु परिवर्तन का सामना करना पड़ा था, जो संभवत: ऑस्ट्रेलिया के बड़े स्तनधारी जीवों और युरोप के निएंडरथल मनुष्यों
के विलुप्त होने का कारण बना।
पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र पृथ्वी के बाहरी कोर में पिघले हुए लोहे के प्रवाह
से बनता है। इस प्रवाह में बेतरतीब बदलाव पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र को कमज़ोर कर
सकता है और उसके ध्रुवों की स्थिति को बदल सकता है; कभी-कभी
तो स्थिति पूरी तरह पलट भी सकती है।
चट्टानों में उपस्थित खनिज में ध्रुवों में लंबे समय के लिए हुई उथल-पुथल तो
दर्ज हो जाती है लेकिन वे कम अवधि के लिए हुए परिवर्तनों को बारीकी से दर्ज नहीं
कर पाते। जैसे कि इस अध्ययन में 42,000 साल पुराने कौरी वृक्ष के तने में देखे गए
हैं।
रेडियोधर्मी कार्बन-14 की मदद से इन सूक्ष्म परिवर्तनों को पहचाना जा सकता है।
जब ब्रह्मण्डीय किरणें ग्रह के चुंबकीय क्षेत्र को भेदती हुई उसके वायुमंडल में
प्रवेश करती हैं तो कार्बन के इस समस्थानिक का निर्माण होता है। इसे सजीव ग्रहण कर
लेते हैं। इस समस्थानिक की अर्ध-आयु निश्चित है। यानी यह तय है कि कितने समय में
कुल कार्बन-14 का आधा हिस्सा अन्य परमाणुओं में बदल जाएगा। अत: कार्बन-14 के मापन
से किसी वस्तु की उम्र निर्धारित की जा सकती है। शोधकर्ताओं ने रेडियोकार्बन
डेटिंग की मदद से कौरी तने का काल निर्धारण किया, और इसकी तुलना उन्होंने चीन की गुफा से प्राप्त सटीक रेडियोकार्बन जानकारी के
साथ की। तने की अलग-अलग वलयों में कार्बन-14 के अंतर के आधार पर उन्होंने गणना की
कि कैसे 40-40 वर्ष की अवधि में चुंबकीय क्षेत्र की तीव्रता कम-ज़्यादा होती रही।
रेडियोकार्बन की मात्रा में वृद्धियां दर्शाती हैं कि वर्तमान की तुलना में
41,500 साल पहले चुंबकीय क्षेत्र की शक्ति में छह प्रतिशत की कमी आई थी। फिर
पृथ्वी के चुंबकीय ध्रुव पलट गए थे और चुंबकीय क्षेत्र की तीव्रता कुछ हद तक बहाल
हो गई थी। 500 साल बाद ध्रुव एक बार फिर पलटे थे।
शोधकर्ता बताते हैं कि न सिर्फ पृथ्वी का चुंबकीय रक्षा कवच कमज़ोर पड़ा था
बल्कि सूर्य में भी परिवर्तन हुए थे। हिम खण्ड से प्राप्त साक्ष्य बताते हैं कि
इसी समय के आसपास, सूर्य की चुंबकीय गतिविधियों में कमी आई
थी। परिणामस्वरूप आने वाली ब्रह्मण्डीय किरणों ने पृथ्वी के वातावरण को इतना आयनित
कर दिया होगा कि वह आजकल की बिजली लाइनों को ध्वस्त कर देता।
इस संभावना की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने एक जलवायु मॉडल बनाया, जिसने यह संभावना जताई कि ब्रह्मण्डीय किरणों की बौछार ने ओज़ोन परत को क्षति
पहुंचाई होगी,
जिससे पराबैंगनी किरणों की ऊष्मा अवशोषित करने की क्षमता कम
हो गई होगी। परिणामस्वरूप ऊंचे स्थान ठंडे होने लगे होंगे, और
हवाओं के बहने की दिशा बदल गई होगी। इस कारण पृथ्वी की जलवायु में कई बड़े परिवर्तन
हुए होंगे;
इनमें से एक परिवर्तन था कि उत्तरी अमेरिका अपेक्षाकृत ठंडा
हुआ और युरोप गर्म।
इन व्यापक निष्कर्षों पर अन्य वैज्ञानिक संदेह जताते हैं। ग्रीनलैंड और
अंटार्कटिका के पिछले 1,00,000 वर्ष पुराने हिम खण्डों से प्राप्त जानकारी बताती
है कि प्रत्येक कुछ हज़ार वर्षों के अंतराल पर तापमान में बदलाव होता था। लेकिन
इनमें 42,000 साल पूर्व कोई बदलाव पता नहीं चला है।
अध्ययन के शोधकर्ताओं का कहना कि उनके अध्ययन से लगता है कि 42,000 साल पहले जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित कई घटनाएं हुई होंगी। जैसे उस समय ऑस्ट्रेलिया से बड़े स्तनधारी जीव विलुप्त हो गए, निएंडरथल युरोप से गायब हो गए, और युरोप और एशिया में बड़े स्तर पर गुफा चित्र दिखाई देने लगे। बहरहाल अन्य शोधकर्ता मानते हैं कि उपरोक्त अध्ययन के आंकड़ों को बहुत खींचा जा रहा है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0219NID_Kauri_Tree_online.jpg?itok=rdmLLuH_
वर्ष 1907 में संश्लेषित प्लास्टिक के रूप में सबसे पहले
बैकेलाइट का उपयोग किया गया था। वज़न में हल्का, मज़बूत
और आसानी से किसी भी आकार में ढलने योग्य बैकेलाइट को विद्युत कुचालक के रूप में
उपयोग किया जाता था।
प्लास्टिक आधुनिक दुनिया में काफी उपयोगी चीज़ है। देखा जाए तो प्लास्टिक
उत्पादों की डिज़ाइन और निर्माण का एक प्रमुख घटक है। प्लास्टिक विशेष रूप से एकल
उपयोग की चीज़ें बनाने में काम आता है – जैसे पानी की बोतलें और खाद्य उत्पादों के
पैकेजिंग। फिलहाल प्रति वर्ष 38 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन होता है जो वर्ष
2050 तक 90 करोड़ टन होने की संभावना है।
लेकिन जिन जीवाश्म र्इंधनों से प्लास्टिक का निर्माण होता है उन्हीं की तरह
प्लास्टिक के भी नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभाव हो सकते हैं। एक अनुमान के मुताबिक
2050 तक 12 अरब टन प्लास्टिक लैंडफिल में पड़ा होगा और पर्यावरण को प्रदूषित कर रहा
होगा। 2015 में इसकी मात्रा 4.9 अरब टन थी।
कचरे से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए जो इंसिनरेटर उपयोग किए जाते हैं उनमें भी
प्रमुख रूप से प्लास्टिक ही जलाया जाता है। इनमें भी काफी मात्रा में कार्बन
उत्सर्जन होता है। कुछ वृत्त चित्रों में प्लास्टिक कचरे के कारण होने वाले
पर्यावरणीय प्रदूषण पर ध्यान आकर्षित किया गया है।
वैसे आजकल प्लास्टिक पुनर्चक्रण किया जाता है लेकिन एक तो यह प्रक्रिया काफी
खर्चीली है और पुनर्चक्रित प्लास्टिक कम गुणवत्ता वाले होते हैं और कमज़ोर भी होते
हैं। आजकल बाज़ार में जैव-विघटनशील प्लास्टिक का भी उपयोग किया जा रहा है। इनका
उत्पादन वनस्पति पदार्थों से किया जाता है या इनमें ऑक्सीजन या अन्य रसायन जोड़े
जाते हैं ताकि ये समय के साथ सड़ जाएं। लेकिन ये प्लास्टिक सामान्य प्लास्टिक के
पुनर्चक्रण में बाधा डालते हैं क्योंकि तब मिले-जुले पुनर्चक्रित प्लास्टिक की
गुणवत्ता और भी खराब होती है। इन्हें अलग करना भी संभव नहीं होता।
ऐसे में अधिक निर्वहनीय प्लास्टिक का निर्माण रसायन विज्ञान का एक महत्वपूर्ण
सवाल बन गया है। वर्तमान में शोधकर्ता प्लास्टिक कचरे को कम करने के प्रयास कर रहे
हैं और साथ ही ऐसे प्लास्टिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिनका बेहतर पुनर्चक्रण
किया जा सके।
ऐसा एक प्रयास नेचर में प्रकाशित हुआ है। जर्मनी स्थित युनिवर्सिटी ऑफ
कॉन्सटेंज़ के स्टीफन मेकिंग और उनके सहयोगियों ने एक नए प्रकार के पॉलिएथीलीन का
वर्णन किया है। पॉलीएथीलीन (या पोलीथीन) सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाला एकल-उपयोग
प्लास्टिक है। मेकिंग द्वारा निर्मित पोलीथीन ऐसा पदार्थ है जिसकी अधिकांश शुरुआती
सामग्री को पुर्नप्राप्त करके फिर से काम में लाया जा सकता है। वर्तमान पदार्थों
और तकनीकों के साथ ऐसा कर पाना काफी मुश्किल है।
वैसे इस नए प्लास्टिक पर अभी और परीक्षण की आवश्यकता है। मौजूदा पुनर्चक्रण की
अधोरचना पर इसके प्रभावों का आकलन भी करना होगा। इसके लिए मौजूदा पुनर्चक्रण
केंद्रों में अलग प्रकार की तकनीक की आवश्यकता होगी। यदि इसके उपयोग को लेकर आम
सहमति बनती है और इसे बड़े पैमाने पर किया जा सके तो पुनर्चक्रित प्लास्टिक के
इस्तेमाल में वृद्धि होगी और शायद प्लास्टिक को पर्यावरण के लिए कम हानिकारक बनाया
जा सकेगा।
वास्तव में प्लास्टिक आणविक इकाइयों की शृंखला से बने होते हैं। जाता है।
पुन:उपयोग के लिए इस प्रक्रिया को उल्टा चलाकर शुरुआती पदार्थ प्राप्त करना कठिन
कार्य है। प्लास्टिक पुनर्चक्रण में मुख्य बाधा यह है कि इकाइयों को जोड़ने वाले
रासायनिक बंधनों को कम ऊर्जा खर्च करके इस तरह तोड़ा जाए कि मूल पदार्थों को
पुनप्र्राप्त किया जा सके और एक बार फिर अच्छी गुणवत्ता का प्लास्टिक बनाने में
इस्तेमाल किया जा सके।
वैसे तो इस तरीके की खोज में कई वैज्ञानिक समूह काम कर रहे थे लेकिन मेकिंग की
टीम ने मज़बूत पॉलीएथीलीन-नुमा एक ऐसा पदार्थ विकसित किया जिसके रासायनिक बंधनों को
आसानी से तोड़ा जा सकता है। इस प्रक्रिया में वैज्ञानिक लगभग सभी शुरुआती पदार्थ पुर्नप्राप्त
करने में सफल रहे।
गौरतलब है कि इसी तरह की खोज एक अन्य टीम द्वारा भी की गई है। युनिवर्सिटी ऑफ
कैलिफोर्निया की सुज़ाना स्कॉट और उनके सहयोगियों ने एक उत्प्रेरक की मदद से
पॉलीएथीलीन के अणुओं को तोड़कर अन्य किस्म की इकाइयां प्राप्त कीं जिनसे शुरू करके
एक अलग प्रकार का प्लास्टिक बनाया जा सकता है। यह एक महत्वपूर्ण शोध है। इसे
विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक और बड़े पैमाने पर उपयोग में लाना चाहिए।
अलबत्ता,
रसायन शास्त्र हमें यहीं तक ला सकता है। जब तक प्लास्टिक के
उपयोग में वृद्धि जारी है, केवल पुनर्चक्रण से प्लास्टिक
प्रदूषण को कम नहीं किया जा सकता है। प्लास्टिक को जलाने और इसे महासागरों या
लैंडफिल में भरने से रोकने के लिए प्लास्टिक निर्माण की दर को कम करना होगा।
कंपनियों को अपने प्लास्टिक उत्पादों के पूरी तरह से पुनर्चक्रण की ज़िम्मेदारी
लेनी होगी। और इसके लिए सरकारों को अधिक नियम-कायदे बनाने होंगे और संयुक्त
राष्ट्र की प्लास्टिक संधि को भी सफल बनाना होगा।
इसके लिए प्लास्टिक पैकेजिंग में शामिल 20 प्रतिशत कंपनियों ने न्यू
प्लास्टिक्स इकॉनॉमी ग्लोबल कमिटमेंट के तरह यह वादा किया है कि प्लास्टिक
पुनर्चक्रण में वृद्धि करेंगे। लेकिन हालिया रिपोर्ट दर्शाती है कि एकल-उपयोग
प्लास्टिक को कम करने और पूर्ण रूप से पुन:उपयोगी पैकेजिंग को अपनाने में प्रगति
उबड़-खाबड़ है।
ज़ाहिर है कि इस संदर्भ में कंपनियों को ठेलने की आवश्यकता है। यदि उन पर दबाव बनाया जाए कि उन्हें प्लास्टिक के पूरे जीवन चक्र की ज़िम्मेदारी लेनी होगी तो वे ऐसे पदार्थों का उपयोग करने को आगे आएंगी जिनका बार-बार उपयोग हो सके। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-00391-7/d41586-021-00391-7_18864090.jpg
विगत 9 फरवरी को वुहान में आयोजित पत्रकार वार्ता में विश्व
स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) की टीम ने कोरोनावायरस की उत्पत्ति पर महीने भर की
जांच के अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। अपनी रिपोर्ट में शोधकर्ताओं ने
प्रयोगशाला से वायरस के गलती से लीक होने के विवादास्पद सिद्धांत को निरस्त कर
दिया है। उनका अनुमान है कि सार्स-कोव-2 ने किसी जीव से मनुष्यों में प्रवेश किया
है। यह अन्य शोधकर्ताओं के निष्कर्षों से मेल खाता है। टीम ने अपनी रिपोर्ट में
चीन सरकार और मीडिया द्वारा प्रचारित दो अन्य परिकल्पनाएं भी प्रस्तुत की हैं: यह
वायरस या इसका कोई पूर्वज चीन के बाहर किसी जीव से आया और एक बार लोगों में फैलने
पर यह फ्रोज़न वन्य जीवों और अन्य कोल्ड पैकेज्ड सामान में भी फैल गया।
अलबत्ता,
रिपोर्ट पर अन्य शोधकर्ताओं की प्रतिक्रिया मिली-जुली रही
है। वाशिंगटन स्थित जॉर्जटाउन युनिवर्सिटी की वायरोलॉजिस्ट एंजेला रैसमुसेन के
अनुसार वायरस उत्पत्ति सम्बंधी निष्कर्ष दो सप्ताह में दे पाना संभव नहीं है।
हालांकि ये निष्कर्ष चीन सरकार के सहयोग से एक लंबी जांच का आधार तो बनाते ही हैं।
कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार चीनी और अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों की इस टीम ने गंभीर
सवाल उठाए हैं और व्यापक रूप से डैटा का भी अध्ययन किया है। आने वाले समय में अधिक
विस्तृत रिपोर्ट की उम्मीद की जा सकती है।
लेकिन कुछ अन्य वैज्ञानिकों के अनुसार यह जांच कोई नई जानकारी प्रदान नहीं
करती। इस रिपोर्ट में वायरस के किसी जंतु के माध्यम से फैलने के प्रचलित नज़रिए की
ही बात कही गई है। इसके अलावा रिपोर्ट में चीनी सरकार द्वारा प्रचारित दो
परिकल्पनाओं पर ज़ोर दिया गया है। साथ ही चीन में ‘कोल्ड फूड चेन’ के माध्यम से
शुरुआती संक्रमण फैलने का विचार भी सीमित साक्ष्यों पर आधारित है। हालांकि, वैज्ञानिकों का मानना है कि टीम के पास अभी भी ऐसी जानकारी हो सकती है जिसे
सार्वजनिक नहीं किया गया है। इस विषय में डबल्यूएचओ टीम के सदस्य और मेडिकल
वायरोलॉजिस्ट डोमिनिक डायर का अनुमान है कि कोरोनावायरस का संक्रमण चीनी बाज़ारों
में दूषित मछली और मांस के कारण फैला है जिसकी अधिक जानकारी लिखित रिपोर्ट में
प्रस्तुत की जाएगी।
डबल्यूएचओ ने वायरस के प्रयोगशाला से लीक होने के विचार पर भी अध्ययन किया है।
इस बारे में अध्ययन के प्रमुख और खाद्य-सुरक्षा एवं ज़ूनोसिस विशेषज्ञ पीटर बेन
एम्बरेक ने इस संभावना को खारिज किया है। क्योंकि वैज्ञानिकों के पास दिसंबर 2019
के पहले इस वायरस की कोई जानकारी नहीं थी इसलिए प्रयोगशाला से लीक होने का विचार
बेतुका है। इसके साथ ही टीम को प्रयोगशाला में किसी प्रकार की दुर्घटना के भी कोई
साक्ष्य नहीं मिले हैं। हालांकि टीम ने प्रयोगशाला की फॉरेंसिक जांच नहीं की
है।
कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार यह निष्कर्ष वुहान में हुई घटनाओं को तो ठीक तरह से
प्रस्तुत करते हैं लेकिन महामारी के बढ़ने और इसके राजनीतिकरण होने की वजह से
प्रयोगशाला से वायरस के लीक होने और प्राकृतिक उत्पत्ति के सिद्धांतों के बीच
टकराव अधिक गहरा हो गया है और टीम इसे सुलझाने में नाकाम रही है।
गौरतलब है कि टीम द्वारा अधिकांश जांच वुहान में वायरस के फैलने के शुरुआती
दिनों पर केंद्रित है और रिपोर्ट में शहर के शुरुआती संक्रमण के समय को चित्रित
करने का प्रयास किया गया है। टीम ने वर्ष 2019 की दूसरी छमाही में वुहान शहर और
हुबेई प्रांत के स्वास्थ्य रिकॉर्ड का अध्ययन किया है। इसमें इन्फ्लुएंज़ा जैसी
बीमारियों के असामान्य उतार-चढ़ावों पर ध्यान दिया गया है और यह देखा गया कि वहां
खांसी-जुकाम की औषधियों की बिक्री में किस तरह के बदलाव आए थे। विशेष रूप से
निमोनिया से सम्बंधित मौतों की तलाश की गई है। इसके अलावा टीम ने सार्स-कोव-2
वायरल आरएनए का पता लगाने के लिए 4500 रोगियों के नमूनों की जांच की और वायरस के
विरुद्ध एंटीबॉडी के लिए रक्त के नमूनों का विश्लेषण किया। इन सभी जांचों में
शोधकर्ताओं को वायरस के दिसंबर 2019 के पहले फैलने के कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं।
फिर भी डायर का मानना है कि संक्रमण के स्पष्ट संकेतों की कमी का मतलब यह नहीं
कि वायरस समुदाय में पहले ही फैल नहीं चुका था। देखा जाए तो टीम का विश्लेषण सीमित
डैटा और एक ऐसी निगरानी प्रणाली पर आधारित था जो किसी नए वायरस के फैलाव को पकड़
पाने के लिए तैयार नहीं की गई थी। वायरस के फैलाव का सही तरह से आकलन करने के लिए
शोधकर्ताओं को न केवल स्वास्थ्य केंद्रों में, बल्कि
समुदाय स्तर पर अध्ययन करना होगा।
इसके अलावा टीम ने इस वायरस के पीछे एक जंतु को ज़िम्मेदार तो ठहराया है लेकिन
संभावित जंतुओं की पहचान नहीं कर पाई है। चीनी शोधकर्ताओं ने देश के कई घरेलू, पालतू और जंगली जीवों का परीक्षण किया था लेकिन ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिल पाया
था कि इन प्रजातियों में वायरस मौजूद है। लेकिन यदि इस महामारी को प्राकृतिक संचरण
की घटना मानते हैं तो भविष्य में भी जीवों से मनुष्यों में वायरस संचरण की घटनाओं
की संभावना बनी रहेगी।
टीम ने कहा है कि वुहान और आसपास के क्षेत्रों में जांच जारी रखना चाहिए।
इसमें विशेष रूप से शुरुआती मामलों को ट्रैक करने का प्रयास करना चाहिए ताकि
महामारी की शुरुआत का पता लगाने में मदद मिले। टीम के मुताबिक, ज़रूरत इस बात की है कि वुहान प्रांत और अन्य क्षेत्रों में ब्लड बैंक से
पुराने नमूनों का विशेषण किया जाए जिनमें संक्रमण का पता लगाने के लिए एंटीबॉडी
परीक्षण भी शामिल हों। इसके साथ ही फ्रोज़न वन्य जीवों की संभावित भूमिका का पता
लगाने के लिए और अधिक अध्ययन करने की ज़रूरत है। जंतु स्रोत की संभावना का पता
लगाने के लिए भी व्यापक परीक्षण करना होंगे।
हाल ही में जापान, कंबोडिया और थाईलैंड के चमगादड़ों में
सार्स-कोव-2 से सम्बंधित कोरोनावायरस के मिलने की खबर है। ऐसे में डबल्यूएचओ की
टीम ने चीन के बाहर वायरस उत्पत्ति की खोज करने की भी सिफारिश की है। इस विषय पर नेचर
कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जून 2020 में थाईलैंड की गुफाओं
में पाए जाने वाले हॉर्सशू चमगादड़ में नया कोरोनावायरस मिला है जिसे RaTG203 नाम दिया गया है। इस वायरस
का 91.5 प्रतिशत जीनोम सार्स-कोव-2 से मेल खाता है। इसी तरह के नज़दीक से सम्बंधित
अन्य वायरसों का पता चला है। इससे यह कहा जा सकता है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया में
इस महामारी वायरस के करीबी सम्बंधी अभी भी उपस्थित है।
इसके अलावा शोधकर्ताओं ने कंबोडिया और जापान में संग्रहित फ्रोज़न चमगादड़ों के नमूनों में सार्स-कोव-2 से सम्बंधित कई अन्य कोरोनावायरस की पहचान की है। सार्स-कोव-2 का सबसे करीबी सम्बंधी RaTG13 चीन में पाया गया है। इसका लगभग 96 प्रतिशत जीनोम सार्स-कोव-2 से मेल खाता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि चीन में किए गए अध्ययन जितना पैसा और मेहनत दक्षिण-पूर्वी एशिया में लगाए जाएं तो वायरस का और अधिक गहराई से पता लगाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://image.thanhnien.vn/768/uploaded/minhhung/2021_02_09/000_92k3xe_gpdo.jpg
वर्ष 2010 में क्रिस्टोफर नोलन द्वारा निर्देशित एक फिल्म आई
थी इंसेप्शन। इसमें लियोनार्डो डीकैप्रियो दूसरों के सपनों में जाकर, उनसे बातचीत कर उनसे खुफिया जानकारी उगलवाते दिखते हैं। और यह फिल्मी कल्पना
अब हकीकत बनने की ओर कदम बढ़ाती दिखती है।
शोधकर्ताओं ने पहली बार सवालों के माध्यम से सपना देखने वाले उन लोगों के साथ
सपनों में संवाद साधा है जिन्हें ये पता होता है कि वे सपना देख रहे हैं। ऐसे
लोगों को ल्यूसिड ड्रीमर कहते हैं। चार अलग-अलग प्रयोगशालाओं में 36 प्रतिभागियों
पर किए गए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि लोग सोते समय बाहरी परिवेश से संकेत
ग्रहण कर सकते हैं और उन पर प्रतिक्रिया दे सकते हैं।
यह अध्ययन नींद की मूलभूत परिभाषा को भी चुनौती देता है, जो कहती है कि नींद एक ऐसी अवस्था है जिसमें मस्तिष्क का बाहरी परिवेश से
संपर्क नहीं रहता और नींद में मस्तिष्क अपने आस-पास के परिवेश से अनभिज्ञ रहता है।
ल्यूसिड ड्रीमिंग एक ऐसी अवस्था है जिसमें सपने में व्यक्ति को एहसास होता है
कि वह सपना देख रहा है, और अपने सपनों पर उसका कुछ हद तक नियंत्रण
भी होता है। ल्यूसिड ड्रीमिंग का उल्लेख सबसे पहले चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में
ग्रीक दार्शनिक अरस्तू के लेखन में मिलता है। और 1970 के बाद से वैज्ञानिक इस पर
अध्ययन करते रहे हैं। देखा गया है कि प्रत्येक दो में से एक व्यक्ति को कम से कम
एक बार तो ल्यूसिड ड्रीमिंग का अनुभव होता है, और
लगभग 10 प्रतिशत लोगों को महीने में एक या उससे अधिक बार ल्यूसिड ड्रीमिंग अनुभव
होता है। हालांकि ल्यूसिड ड्रीमिंग दुर्लभ है लेकिन प्रशिक्षण देकर इसके अनुभव को
बढ़ाया जा सकता है।
पूर्व में कुछ अध्ययनों में रोशनी, बिजली के झटकों और
ध्वनियों के माध्यम से लोगों के सपनों में प्रवेश कर उनसे संवाद करने की कोशिश की
गई थी,
लेकिन उनमें संपर्क करने पर लोगों की तरफ से बहुत कम
प्रतिक्रिया मिली थी, और उनसे जटिल जानकारियां या सूचनाएं भी
नहीं हासिल हो सकी थीं।
फ्रांस,
जर्मनी, नीदरलैंड और संयुक्त राज्य
अमेरिका स्थित चार प्रयोगशालाओं के दल ने पूर्व में हुए इन अध्ययनों को आगे बढ़ाने
की सोची,
जिसमें उन्होंने सवालों-संकेतों की मदद से सपनों में लोगों
से दो-तरफा संवाद स्थापित किया। इसके लिए उन्होंने 36 प्रतिभागी चुने। इनमें से
कुछ प्रतिभागियों को पहले ही ल्यूसिड ड्रीमिंग का अनुभव था, और कुछ को नहीं लेकिन उन्हें हफ्ते में कम से कम एक सपना याद रहता था।
शोधकर्ताओं ने सभी प्रतिभागियों को ल्यूसिड ड्रीमिंग से परिचित कराया और
ध्वनियों,
रोशनियों या उंगली की थाप के माध्यम प्रतिभागियों को सपना
देखने के एहसास से वाकिफ होने के लिए प्रशिक्षित किया।
अध्ययन में अलग-अलग समय पर नींद के सत्र रखे गए थे। कुछ सत्र रात के थे और तो
कुछ सत्र अल-सुबह रखे गए थे। प्रतिभागियों के साथ सपनों में संवाद करने के लिए
चारों प्रयोगशालाओं ने अलग-अलग तरीकों का इस्तेमाल किया। प्रतिभागियों को कहा गया
कि जब उन्हें एहसास हो जाए कि वे सपनों में प्रवेश कर गए हैं तो तय संकेतों (जैसे
आंखो को बार्इं ओर तीन बार घुमाकर, चेहरा घुमाकर) के माध्यम से
इसका संकेत दे दें।
प्रतिभागियों के नींद में पहुंचने पर वैज्ञानिकों ने उनके मस्तिष्क की गतिविधि, आंखों की गति और चेहरे की मांसपेशियों के संकुचन की निगरानी ईईजी हेलमेट की
मदद से की। नींद के कुल 57 सत्रों में से, छह
लोगों ने 15 बार यह संकेत दिए कि वे सपनों में प्रवेश कर गए हैं। इसके बाद
शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों से कुछ सवाल किए जिनके जवाब या तो हां या ना में दिए
जा सकते थे,
या गणित के कुछ सवाल पूछे, जैसे
आठ में से छह गए तो कितने बचे। इनका जवाब प्रतिभागियों को कुछ तय संकेतों के
माध्यम से देना था – जैसे मुस्कराकर या त्यौरियां चढ़ा कर, या
गणित का सवाल हल करने पर आए जवाब के बराबर संख्या में आंखों को हिलाकर वगैरह।
शोधकर्ताओं ने कुल 158 सवाल पूछे। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित निष्कर्ष
बताते हैं कि शोधकर्ताओं को 18.6 प्रतिशत सही जवाब मिले। 3.2 प्रतिशत सवालों के
गलत जवाब मिले;
17.7 प्रतिशत जवाब स्पष्ट नहीं थे और 60.8 प्रतिशत सवालों
के कोई जवाब नहीं मिले। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह संख्या दर्शाती है कि मुश्किल
ही सही,
लेकिन नींद में किसी व्यक्ति से संपर्क साधा जा सकता है, और दो-तरफा संवाद किया जा सकता है।
प्रतिभागियों के जागने के बाद उनसे उनके सपनों का वर्णन भी पूछा गया। कुछ
प्रतिभागियों को पूछे गए सवाल उनके सपनों के हिस्से के रूप में याद रहे थे। एक
प्रतिभागी को लगा था कि सपने में सवाल कोई कार रेडियो पूछ रहा है, तो एक अन्य प्रतिभागी को सवाल किसी सूत्रधार की आवाज़ में सुनाई पड़ा।
शोधकर्ताओं का कहना है कि यह प्रयोग सपनों का अध्ययन करने का एक बेहतर तरीका प्रदान करता है। अब तक सपनों के बारे में जानने का आधार सपना देखने वाले द्वारा दिए गए विवरण थे, जिनमें गड़बड़ की उम्मीद रहती थी। उम्मीद है कि भविष्य में इस तकनीक से सदमे, अवसाद से गुज़र रहे लोगों के सपनों को प्रभावित कर इस स्थिति से उबरने में उनकी मदद की जा सकेगी। इसके अलावा सपनों में ‘संवाद’ कर लोगों की समस्याओं को हल करने, नए कौशल सीखने या किसी रचनात्मक विचार को लाने में भी मदद मिल सकेगी। वैसे यह तकनीक व्यक्ति द्वारा दिए गए विवरण की पूरक ही है। (स्रोत फीचर्स)
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