वॉटर कॉनफ्लिकट फोरम देश में पानी के मुद्दों से सरोकार रखने वाली संस्थाओं और व्यक्तियों के लिए संवाद मंच है। पिछले लगभग 20 वर्षों से यह विभिन्न मुद्दों पर काम करता रहा है। उत्तराखंड की हाल की घटनाओं पर फोरम ने एक वक्तव्य जारी किया है और कई लोगों ने इस पर हस्ताक्षर करके अनुमोदन किया है ।
विगत 7 फरवरी 2021 को उत्तराखंड के ऋषि गंगा और धौली गंगा की घटनाओं ने एक बार फिर इस बात की ओर ध्यान आकर्षित किया है कि हिमालय का पारिस्थितिकी तंत्र बहुत दबाव में है और रोज़-ब-रोज़ दुर्बल होता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन और उसके असर अब बहस का विषय नहीं हैं। वर्तमान में इन परिवर्तनों ने हिमालय जैसी नवोदित और बेचैन पर्वत शृंखला को और भी कमज़ोर बना दिया है। हिमालय के अंतर्गत भी हिमनद, हिमनद झीलों, खड़ी घाटियों और विरल वनस्पतियों जैसे स्थान अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक संवेदनशील हैं। ये इलाके मामूली से मानव हस्तक्षेप से बड़ी आपदा का रूप ले सकते हैं।
निर्मित, निर्माणाधीन या नियोजित बांधों और जलविद्युत परियोजनाओं, बराजों, सुरंगों, चौड़ी सड़कों और यहां तक कि रेल मार्ग जैसे मानव हस्तक्षेप पूरे हिमालय क्षेत्र में फैले हुए हैं। अब तक वर्ष 2012, 2013, 2016 और 2021 की हालियां घटनाएं हमें निरंतर चेतावनी दे रही हैं। इस परिस्थिति में हिमालय क्षेत्र में पहले से हो चुके नुकसान की भरपाई करने के लिए अविलंब निवारक व निर्णायक कदम उठाने होंगे।
7 फरवरी की घटनाओं की सार्वजनिक स्तर पर उपलब्ध जानकारी संकेत देती है कि नदी के मार्ग में निर्मित पनबिजली परियोजनाओं जैसे अवरोधों के चलते ऋषि गंगा घाटी में एक हानिरहित प्राकृतिक घटना ने विनाशकारी रूप ले लिया जिसके चलते जान-माल का काफी नुकसान हुआ। इस दौरान बाढ़ चेतावनी प्रणाली भी विफल रही।
इस घटना के मद्देनज़र, वॉटर कॉनफ्लिक्ट फोरम देश के राजनीतिक और कार्यकारी प्रतिष्ठान से निम्नलिखित मांगें करता है:
1. जान-माल के नुकसान के लिए ज़िम्मेदारों की विभिन्न स्तरों पर स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच की जाए; दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई की जाए और ऐसे प्रोटोकॉल व प्रक्रियाएं स्थापित की जाएं ताकि भविष्य में ऐसी प्राकृतिक घटनाएं आपदा में न बदलें।
2. दो क्षतिग्रस्त जलविद्युत परियोजनाओं, ऋषि गंगा और तपोवन, को तत्काल रद्द किया जाए और नदी के रास्ते से मलबे को साफ किया जाए।
3. 2014 की उत्तराखंड आपदा के कारणों का विश्लेषण कर चुकी रवि चोपड़ा समिति की सिफारिशों को जल्द से जल्द कार्यान्वित किया जाए और प्राथमिकता के आधार पर उत्तराखंड राज्य में निर्माणाधीन जलविद्युत परियोजनाओं को रद्द किया जाए। यह ध्यान देने वाली बात है कि इस विषय में उच्च स्तरीय न्यायिक और प्रशासनिक संस्थाओं यानी सर्वोच्च न्यायलय और पीएमओ ने इस दिशा में कदम उठाए थे लेकिन अभी तक इन्हें लागू नहीं किया गया है।
4. भविष्य में इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए न सिर्फ उत्तराखंड, बल्कि हिमालय क्षेत्र के सभी राज्यों में मौजूदा बांधों की आपदा संभावना की स्वतंत्र विशेषज्ञ समीक्षा की जाए।
5. हिमालय एक नवीन पर्वत शृंखला है और यदि इसकी भूगर्भीय दुर्बलता और भूकंपीय संवेदनशीलता को अनदेखा किया जाता है तो जलवायु परिवर्तन की घटनाएं इसे नए परिवर्तनों के प्रति और अधिक संवेदनशील बना देंगी। इसलिए पश्चिमी घाट इकोलॉजी एक्सपर्ट पैनल की तर्ज़ पर हिमालय क्षेत्र में वर्तमान विकास कार्यक्रमों और परियोजनाओं की व्यापक समीक्षा के लिए एक स्वतंत्र बहु-विषयी विशेषज्ञ समूह का गठन किया जाना चाहिए जो समयबद्ध तरीके से काम करे। यह समीक्षा परियोजना-आधारित समीक्षा न होकर एक व्यापक, संचयी, क्षेत्रीय समीक्षा होनी चाहिए जो सभी परियोजनाओं (जिसमें सड़क, रेलवे, बांध, सुरंग, पर्यटन केंद्र, कॉलोनी, टाउनशिप और तथाकथित वनरोपण शामिल हों) के संयुक्त प्रभावों के साथ जलवायु परिवर्तन और भूकंपीयता के मौजूदा खतरों को भी ध्यान में रखे।
6. एक सहभागी प्रक्रिया की शुरुआत करते हुए हिमालयी नदियों और स्थानीय लोगों के पारिस्थितिकी तंत्र एवं आजीविका की सुरक्षा के लिए एक वैकल्पिक विकास नीति/रणनीति विकसित की जानी चाहिए। हिमालय क्षेत्र में बेलगाम विकास पर रोक लगानी चाहिए; इसकी बजाय हिमालय क्षेत्र में न्यूनतम मानव हस्तक्षेप के साथ उसे एक प्राकृतिक विरासत के रूप में संरक्षित किया जाना चाहिए। साथ ही जैविक और जैव-विविधता आधारित कृषि, टिकाऊ पशुपालन, विकेंद्रीकृत जल प्रणाली, स्थानीय वन और जैव-र्इंधन आधारित विनिर्माण, शिल्प और समुदाय द्वारा संचालित पारिस्थितिकी पर्यटन को बढ़ावा देना चाहिए। इसमें पारिस्थितिक रूप से हानिकारक कृषि, जन पर्यटन आदि जैसे कार्यों को हतोत्साहित करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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