पिछले कई दशकों में हमने विकास के लिए जो कदम उठाए हैं, उसने हमें पर्यावरण संकट के दौर में लाकर खड़ा कर दिया है। पर्यावरण संकट के इस दौर में देश के पर्यावरण विनियमन में पिछले कुछ सालों में कई बड़े बदलाव किए गए हैं और पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) के नियमों में भी बदलाव की कोशिश जारी है। इन बदलावों से भारत की जैव-विविधता पर क्या असर होगा। इस तरह के मसलों पर रोशनी डालता प्रो. माधव गाडगिल का यह व्याख्यान।
पर्यावरणीय मसलों पर बहस तो कई सालों से छिड़ी हुई है लेकिन पिछले एक साल से पर्यावरण के संदर्भ में तीन विषयों पर काफी गंभीर बहस चल रही है। पहला विषय है पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना यानी पर्यावरण पर होने वाले असर का मूल्यांकन करने वाले मौजूदा नियमों में बदलाव करने के लिए जारी की गई अधिसूचना।
दूसरा, राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (NGT) में जैव-विविधता कानून के संदर्भ में दायर की गई याचिका। जैव विविधता कानून 2004 में लागू हुआ था। इस कानून के मुताबिक हर स्थानीय निकाय (पंचायत, नगर पालिका, नगर निगम) में एक जैव-विविधता प्रबंधन समिति स्थापित की जानी चाहिए। समिति के सदस्य वहां के स्थानीय लोग होंगे जो अपने क्षेत्र की पर्यावरण सम्बंधी समस्याओं और पर्यावरणीय स्थिति का अध्ययन करके एक दस्तावेज़ तैयार करेंगे। इसे पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर (लोक जैव विविधता पंजी) कहा गया। लेकिन वर्ष 2004 से 2020 तक, यानी 16 सालों की अवधि में इस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। इस कार्य को संपन्न कराने के अधिकार वन विभाग को दे दिए गए।
यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि वन विभाग स्थानीय लोगों के खिलाफ है। दस्तावेज़ीकरण जैसे कामों में स्थानीय लोगों को शामिल करने का मतलब है कि लोगों को इससे कुछ अधिकार प्राप्त हो जाएंगे, और विभाग यही तो नहीं चाहता। इसलिए 16 वर्षों तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।
इस सम्बंध में एक याचिका दायर की गई, लेकिन जब यह याचिका दायर हुई तो एक अजीब ही स्थिति बन गई। वन विभाग द्वारा पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर तैयार करने के लिए बाहर की कई एजेंसियों को ठेका दे दिया गया। ठेका एजेंसियों ने गांव वालों की जानकारी के बिना खुद ही ये दस्तावेज़ तैयार कर दिए और वन विभाग को सौंप दिए। वन विभाग ने इसे NGT को सौंप दिया और कहा कि हमने काम पूरा कर दिया। यह बिलकुल भी ठीक नहीं हुआ और इसी पर बहस चल रही है। यह भी जैव-विविधता से ही जुड़ा हुआ विषय है।
और बहस का तीसरा मुद्दा है कि कुछ दिनों पहले पता चला कि पूरे देश के कृषि महाविद्यालयों को कहा गया था कि वे इस बात का अध्ययन करके बताएं कि उनके अपने क्षेत्र के खाद्य पदार्थों, पेय पदार्थों या अन्य चीज़ों में कीटनाशक कितनी मात्रा में उपस्थित हैं। जब महाविद्यालय यह काम कर रहे थे तो उनको आदेश दिया गया कि इस जांच के जो भी निष्कर्ष मिलें उन्हें लोगों के सामने बिलकुल भी ज़ाहिर न होने दें, इन्हें गोपनीय रखा जाए। यानी लोगों को यह पता नहीं चलना चाहिए कि हमारे खाद्य और पेय पदार्थों में बड़े पैमाने पर कीटनाशक पहुंच गए हैं।
इस देश को विषयुक्त बनाया जा रहा है और क्यों बनाया जा रहा है। विषयुक्त देश बनाए रखे जाने का भी इस अधिसूचना में समर्थन किया गया; इसके समर्थन में कहा गया कि यह सब भारत के संरक्षण के लिए बहुत ज़रूरी है। लेकिन पूरा देश विषाक्त करके भारत का संरक्षण किस तरह होगा, यह समझना बहुत मुश्किल है। इससे तो ऐसा ही लगता है कि जो भी प्रदूषण फैलाने वाले उद्यम हैं उनको बेधड़क प्रदूषण फैलाने की छूट देकर देश को खत्म करने की अनुमति दे दी गई है। एक तो पहले से ही देश का पर्यावरण संरक्षण पर नियंत्रण बहुत ही कमज़ोर था, अब तो इसे पूरी तरह से ध्वस्त करने की दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं।
इस तरह की शासन प्रणाली को हमें चुनौती ज़रूर देना चाहिए। हमें यह समझ लेना चाहिए कि चुनौती देने के लिए हमारे हाथ में अब कई बहुत शक्तिशाली साधन आ गए हैं। ये शक्तिशाली साधन हैं पूरे विश्व में तेज़ी से बदलती ज्ञान प्रणाली।
पहले बहुत थोड़े लोगों के हाथों में ज्ञान का एकाधिकार था। लेकिन अब यह एकाधिकार खत्म हो रहा है और आम व्यक्ति तक ज्ञान पहुंच रहा है। यह एक बहुत ही क्रांतिकारी और आशाजनक बदलाव है। एकलव्य द्वारा प्रकाशित मेरी किताब जीवन की बहार में अंत में एक विवेचना इसी विषय पर की गई है कि पृथ्वी पर जीवन की इस चार अरब साल की अवधि में जो प्रगति हुई है और हो रही है, वह है कि ज्ञान को अपनाने या हासिल करने के लिए जीवधारी अधिक से अधिक समर्थ बनते गए हैं। इस अवधि में हुए जो मुख्य बड़े परिवर्तन बताए गए हैं, उसमें सबसे आखिरी नौवां चरण है मनुष्य की सांकेतिक भाषा का निर्माण। इस सांकेतिक भाषा के आधार पर हम एक समझ और ज्ञान प्राप्त करने लगे। ज्ञान ऐसी अजब चीज़ है कि जो बांटने से कम नहीं होती, बल्कि बढ़ती है।
लेकिन ज्ञान अर्जन की जो भी प्रवृत्तियां थीं, इन प्रवृत्तियों का अंतिम स्वरूप क्या होगा? इस विषय में मैनार्ड स्मिथ ने बहुत ही अच्छी विवेचना करते हुए बताया है कि दसवां परिवर्तन होगा कि विश्व में सभी लोगों के हाथ में सारा ज्ञान आ जाएगा। कोई भी किसी तरह के ज्ञान से वंचित नहीं होगा और ज्ञान पर किसी का एकाधिकार नहीं रहेगा। लेकिन अफसोस कि हमारी शासन प्रणाली ज्ञान पर केवल चंद लोगों को एकाधिकार देकर बाकी लोगों को ज्ञान से वंचित करने का प्रयत्न कर रही है।
लेकिन अब हम शासन के इस प्रयत्न को बहुत ही अच्छे-से चुनौती दे सकते हैं। जिस तरह आम व्यक्ति के हाथ तक ज्ञान पहुंच रहा है उसकी मदद लेकर। इसका एक बहुत ही अच्छा उदाहरण देखने में आया था। स्थानीय लोगों को शामिल करके पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर बनाने का जो काम किया जाना था, उस पर शासन (वन विभाग) का कहना है कि स्थानीय लोग ये दस्तावेज़ बनाने में सक्षम में नहीं हैं, उनको अपने आसपास मिलने वाली वनस्पतियों, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, कीटों वगैरह के नाम तक पता नहीं होते। इनके बारे में जानकारी का आधार इनके वैज्ञानिक नाम ही हैं। जब वे ये नहीं जानते, तो दस्तावेज़ कैसे बना पाएंगे। इसीलिए, उनका तर्क था कि हमने बाहर के विशेषज्ञों को इन्हें तैयार करने का ठेका दे दिया।
मगर इस तर्क के विपरीत एक बहुत ही उत्साहवर्धक उदाहरण मेरे देखने में आया। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली ज़िले में कई गांवों को सामूहिक वनाधिकार प्राप्त हुए। सामूहिक वनाधिकार प्राप्त होने के बाद वहां रहने वाले आदिवासी (अधिकतर गौंड) लोगों के लिए पहली बार ऐसा हुआ कि उनका घर के बाहर कदम रखना अपराध नहीं कहलाया। इसके पहले तक उनका घर से बाहर कदम रखना भी अपराध होता था क्योंकि जहां वे रहते हैं वह रिज़र्व फॉरेस्ट है, और रिज़र्व फॉरेस्ट में किसी का भी प्रवेश अपराध है। इसके पीछे वन विभाग की लोगों से रिश्वत लेने की मंशा थी। जीवनयापन के लिए उन लोगों को बाहर निकलने के बदले वन विभाग को विश्वत देनी पड़ती थी। आज भी यह स्थिति कई जगह बनी हुई है। लेकिन सौभाग्य से गढ़चिरौली में अच्छा नेतृत्व मिला और वहां के डिप्टी कलेक्टर द्वारा वनाधिकार कानून ठीक से लागू किया गया; इससे ग्यारह सौ गांवों को वन संसाधन और वन क्षेत्र पर अधिकार मिल गए। इस अधिकार के आधार पर वे वहां की गैर-काष्ठ वनोपज जैसे बांस, तेंदूपत्ता, औषधियों, वनस्पतियों वगैरह का दोहन कर सकते हैं और उनको बेच सकते हैं। इस तरह वे लोग सक्षम बन रहे हैं।
इन गांवों के युवक-युवतियों को सामूहिक वन संसाधन का ठीक से प्रबंधन करने में समर्थ बनाने के लिए उनको प्रशिक्षण भी दिया गया। इसमें हमने उनके गांव में ही उन्हें पांच महीनों का विस्तृत प्रशिक्षण दिया। कई युवक-युवतियों ने प्रशिक्षण लिया। हमने पाया कि इन युवक-युवतियों को उनके आसपास के पर्यावरण के बारे में बहुत ही गहरा ज्ञान था क्योंकि वे बचपन से ही वे वहां रह रहे थे और ठेकेदार के लिए तेंदूपत्ता, बांस आदि वनोपज एकत्र करके देते थे। इस प्रशिक्षण के बाद उनमें और भी जानने का कौतूहल जागा।
प्रशिक्षण में हमने युवक-युवतियों को स्मार्ट फोन के उपयोग के बारे में भी सिखाया था। कम से कम महाराष्ट्र के सारे गांवों में परिवार में एक स्मार्टफोन तो पहुंच गया है; इंटरनेट यदि गांव में ना उपलब्ध हो तो भी नज़दीकी बाज़ार वाले नगर में होता है। गांव वाले अक्सर बाज़ार के लिए जाते हैं तो वहां इंटरनेट उपयोग कर पाते हैं। काफी समय तक स्मार्टफोन को भारतीय भाषाओं में उपयोग करने में मुश्किल होती थी। हमारे यहां की कंपनियां और शासन की संस्थाओं (जैसे सी-डैक) को भारतीय भाषाओं में इसका उपयोग करने की प्रणाली बनाने का काम दिया गया था जो उन्होंने अब तक ठीक से नहीं किया है। दक्षिण कोरिया की कंपनी सैमसंग चाहती थी कि अधिक से अधिक लोग स्मार्टफोन का उपयोग करें ताकि मांग बढ़े। इसलिए सैमसंग कंपनी ने भारतीय भाषाओं में उपयोग की सुविधा उपलब्ध कराई, जो भारत इतने सालों में नहीं कर सका था। और अब गूगल में भी सारी भाषाओं में उपयोग सुविधा उपलब्ध है। गूगल कंपनी ने दो साल पहले एक सर्वे किया था जिसमें उन्होंने पाया था कि भारत की अस्सी प्रतिशत आबादी अपनी भाषा में स्मार्टफोन का उपयोग कर रही है, केवल 20 प्रतिशत लोग अंग्रेज़ी का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन भारत में ऐसी अजीब स्थिति बन गई है कि जब यहां के सुशिक्षित लोगों को यह बात बताई जाती है तो वे कहते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है।
प्रशिक्षण में हमने यह भी सिखाया था कि गूगल के एक एप का उपयोग करके वे लोग अपने सामूहिक वनाधिकार की सीमा कैसे पता कर सकते हैं। स्थानीय लोगों द्वारा वन विभाग से काफी समय से सामूहिक सीमा का नक्शा मांगने के बावजूद विभाग नक्शा नहीं दे रहा था क्योंकि इससे लोग अपने सामूहिक वन क्षेत्र की सीमा निश्चित करके उसका ठीक से लाभ उठा सकते हैं। अब ये लोग गूगल एप की मदद से खुद ही नक्शा बना सकते हैं। गूगल एप से सीमांकन बहुत ही सटीक हो जाता है, सैकड़ों मीटर में 2-3 मीटर ही ऊपर-नीचे होता है।
हमने प्रशिक्षण समूह का एक व्हाट्सएप ग्रुप भी बनाया था जिसमें वे जानकारियों के लिए आपस में बात करते थे, एक-दूसरे से जानकारी साझा करते, सवाल करते थे। जब किसी भी फल, वनस्पति या जीव के बारे में उन्हें जानना होता वे उसकी फोटो ग्रुप में भेज देते थे। इस ग्रुप में 22-23 साल का एक बहुत ही होशियार लड़का था लेकिन अंग्रेज़ी ना आने के कारण वह दसवीं में फेल हो गया था। ग्रुप में जब भी कोई इस तरह की फोटो भेजता तो वह तुरंत ही उसका ठीक-ठीक वैज्ञानिक नाम बता देता। यदि किसी भी वनोपज का वैज्ञानिक नाम मालूम हो तो इससे उसके बारे में बहुत कुछ पता किया जा सकता है। जैसे उसके क्या-क्या उपयोग हैं, उसका व्यापार कहां है, उसका बाज़ार कहां अधिक है, किस प्रक्रिया से उस वनोपज का मूल्यवर्धन किया जा सकता है। इस युवक के तुरंत नाम बताने पर मुझे आश्चर्य हुआ तो मैंने उससे पूछा कि तुम यह कैसे पता कर रहे हो। तो उसने बताया कि प्रशिक्षण में जब स्मार्टफोन का उपयोग करना सिखाया गया तो हमने यह भी समझना शुरू किया कि अन्य गूगल एप्स क्या हैं। गूगल फोटो और गूगल लेंस एप के बारे में पता चला। इसमें किसी भी प्राणी या वनस्पति का फोटो डालो तो तुरंत ही उसका वैज्ञानिक नाम मिलने की संभावना होती है। आज से दस साल पहले तक गूगल के पास लगभग दस अरब फोटो संग्रहित थे, जो अब शायद कई अरब होंगे। इस संग्रह में हरेक किस्म की तस्वीरें हैं, जिनमें से शायद पांच से दस अरब चित्र पशु-पक्षियों, कीटों, वनस्पतियों वगैरह के होंगे।
एक नई ज्ञान प्रणाली का बड़े पैमाने पर विकास विकास हुआ है, जिसे कृत्रिम बुद्धि कहते हैं। तस्वीर डालने पर गूगल का शक्तिशाली सर्च इंजन अपने भंडार से सबसे नज़दीकी चित्र ढूंढकर उस तस्वीर सम्बंधी जानकारी, वैज्ञानिक नाम वगैरह बता देता है। इसके बारे में उस युवक ने खुद से सीख लिया था और जानकारियां व्हाट्सएप ग्रुप और अपने अन्य साथियों को दे रहा था। अब गढ़चिरौली के वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक भी उस युवक को किसी पौधे का नाम ढूंढकर बताने को कहते हैं। जैसा कि मैनार्ड स्मिथ कहते हैं, ऐसी नई ज्ञान प्रणाली लोगों के हाथों में आने से सारे लोगों के पास वि·ा का समस्त ज्ञान पहुंचने की ओर कदम बढ़ रहे हैं।
किसी खाद्य पदार्थ में या हमारे आसपास कीटनाशकों की कितनी मात्रा मौजूद है यह जानकारी भी शासन द्वारा लोगों को नहीं दी जा रही है। अब तक, किसी भी चीज़ में कीटनाशक की मात्रा पता लगाने के लिए स्पेक्ट्रोफोटोमीटर चाहिए होता था। स्पेक्ट्रोफोटोमीटर तो कुछ ही आधुनिक प्रयोगशालाओं में उपलब्ध था, जैसे किसी कृषि महाविद्यालय या इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में। लेकिन यह आम लोगों की पहुंच में नहीं था। इसलिए पर्यावरण में मौजूद कीटनाशक की मात्रा पता करना आम लोगों के लिए मुश्किल था। कीटनाशकों से काफी बड़े स्तर पर जैव-विविधता की हानि हुई है। इस सम्बंध में मेरा अपना एक अनुभव है। मुझे और मेरे पिताजी को पक्षी निरीक्षण का शौक था। तो मैंने बचपन (लगभग 1947) में ही पक्षियों की पहचान करना सीख लिया था। तब हमारे यहां कीटनाशक बिलकुल नहीं थे और उस वक्त (1947-1960) हमारे घर के बगीचे और पास की छोटी-छोटी पहाड़ियों पर प्रचुर जैव-विविधता थी और काफी संख्या में पक्षी थे। जैसे-जैसे कीटनाशक भारत में फैले, पक्षी बुरी तरह तबाह हुए। उस समय की अपेक्षा अब उस पहाड़ी पर पांच-दस प्रतिशत ही प्रजातियां दिखाई पड़ती हैं, बाकी सारी समाप्त हो गई हैं या उनकी संख्या बहुत कम हो गई है।
सवाल है कि कीटनाशक कितनी मात्रा में है यह कैसे जानें? शासन तो लोगों को इसकी जानकारी ना मिले इसके लिए कार्यरत है। 1975-76 में मैसूर के सेंट्रल फूड टेक्नॉलॉजी रिसर्च इंस्टीट्यूट में जीवन के उद्विकास व्याख्यान के लिए मेरा जाना हुआ। उनका कीटनाशक सम्बंधी एक विभाग था। वहां के प्रमुख ने बताया कि मैसूर के बाज़ार में जो खाद्य पदार्थ मिलते हैं उनमें कितनी मात्रा में कीटनाशक हैं हम इसका तो पता करते हैं, लेकिन हमें कहा गया है कि इन नतीजों को लोगों को बिलकुल नहीं बताना है। आज तक शासन लोगों से इस जानकारी को छुपाना चाहता है।
लेकिन अब, कीटनाशक की मात्रा पता लगाने वाले स्पेक्ट्रोफोटोमीटर जैसा एक यंत्र बाज़ार में उपलब्ध है जिसे खरीदा जा सकता है। हालांकि इसकी कीमत (20-25 हज़ार रुपए) के चलते आम लोग अब भी इसे नहीं खरीद सकते लेकिन एक समूह मिलकर या कोई संस्था इसे खरीद सकती है और कई लोग मिलकर उपयोग कर सकते हैं। बैंगलुरु के तुमकुर ज़िले में शाला शिक्षकों का एक संगठन है तुमकुर साइंस फोरम। इस फोरम के एक प्रोजेक्ट के तहत वे इस यंत्र की मदद से कई स्थानों, खाद्य व पेय पदार्थों में कीटनाशकों का पता लगा रहे हैं। यह जानकारी वे लोगों के लिए उपलब्ध करा देंगे। आजकल इंटरनेट आर्काइव्स नामक एक वेबसाइट पर तमाम तरह की जानकारियां अपलोड की जा सकती हैं, जिसे कोई भी देख-पढ़ सकता है। इस तरह इस नई ज्ञान प्रणाली से कुछ लोगों का ही ज्ञान पर एकाधिकार खत्म हो रहा है। लोग इस तरह की पड़ताल खुद कर सकते हैं।
अब तक यह स्पष्ट हो गया है कि जो कुछ शासन की मंशा है वह पर्यावरण संरक्षण पूरा नष्ट करेगी। इसका असर जैव-विविधता पर भी होगा। लेकिन जैसा कि अब तक की बातों में झलकता है, हमारे पास भारत की जैव-विविधता सम्बंधी डैटा बहुत सीमित है। इसका एक बेहतर डैटाबेस बन सकता था यदि पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर बनाने का काम ठीक से किया जाता, लेकिन अफसोस, यह ठीक से नहीं किया गया। इसलिए हमारे पास बहुत ही सीमित जानकारी है, जो चुनिंदा अच्छे शोध संस्थाओं ने अपने खुद के अध्ययन करके शोध पत्रों के माध्यम से लोगों को उपलब्ध कराई है। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के अध्ययनों में सामने आया है कि जैव-विविधता कम हो रही है। इस संदर्भ में यह अधिसूचना और भी खतरनाक है, लेकिन यह भी सीमित रूप से ही कहा जा सकता है क्योंकि हमारी जैव-विविधता के बारे में जानकारी ही अधूरी है।
अच्छी विज्ञान शिक्षा के प्रयास में हम सारे लोग काफी कुछ कर सकते हैं। इस दिशा में शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे लोग अपने-अपने स्थानों की पंचायत, नगर पालिका या नगर निगम में प्रयत्न करके उपरोक्त जैव-विविधता प्रबंधन समिति का प्रस्ताव रख सकते हैं और जैव-विविधता रजिस्टर बना सकते हैं। इससे जैव-विविधता के बारे में बहुत ही समृद्ध जानकारी उपलब्ध होगी। और यह बनाना आसान है। गूगल फोटो या गूगल लेंस की मदद से किसी भी जगह की वनस्पति या जीव के नाम और जानकारी पता चल सकती है। इस तरह अब तक अर्जित ज्ञान को फैलाने के साथ-साथ बच्चे-युवा खुद अपने ज्ञान का निर्माण कर सकते हैं। स्कूल के स्तर पर भी शालाएं पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर बनाने में सहयोग कर सकती हैं और बना सकती हैं। गढ़चिरौली ज़िले और कई अन्य जगहों पर कई स्कूलों में इस तरह का काम किया जा रहा है, कई स्कूलों ने बहुत अच्छे से रजिस्टर बनाए हैं। इससे बच्चे दस्तावेज़ीकरण की प्रक्रिया भी सीख सकते हैं। और इन दस्तावेज़ों के आधार पर जैव-विविधता का संरक्षण कैसे किया जाए इसके बारे में पता कर सकते हैं।
अफसोस की बात है कि भारत को छोड़कर बाकि सभी देश ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से निपटने के लिए कुछ ना कुछ कर रहे हैं। अधिक मात्रा में कोयले जैसे र्इंधनों का उपयोग करने वाले देश चीन ने भी अब साल 2050 तक कोयला जलाना बंद करना तय किया है। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प के जाने और बाइडेन के आने से अमरीका में कोयला और पेट्रोलियम जैसे र्इंधन का इस्तेमाल कम होने की आशा है। केवल भारत ही कोयले-पेट्रोलियम का उपयोग बढ़ाता जा रहा है। माना कि हमें भी विकास और बदलाव की ओर जाना है, लेकिन किस कीमत पर। इस बारे में हमें स्वयं ही ज्ञान संपन्न होकर कदम उठाने होंगे।
लोगों में एक बड़ी गलतफहमी व्याप्त है कि विकास (या उत्पादन) और पर्यावरण इन दो के बीच प्रतिकूल (या विरोधाभासी) सम्बंध है। एक को बढ़ाने से दूसरा प्रभावित होगा। हमारे सामने कई ऐसे राष्ट्रों के उदाहरण हैं जो बहुत उच्छा उत्पादन कर रहे हैं और उतनी ही अच्छी तरह से पर्यावरण की देखभाल भी कर रहे हैं। जैसे जर्मनी, स्विटज़रलैंड, डैनमार्क, स्वीडन। ये राष्ट्र उद्योगों के मामले में विश्व में अग्रणी हैं। आज भारत यह बातें करता है कि हमने उत्पादन बढ़ाया है लेकिन जिन देशों को हम पिछड़ा मानते थे (जैसे बांग्लादेश) उनका उत्पादन भारत से ज़्यादा है। भारत में जो हो रहा है, वह केवल पर्यावरण नष्ट करने वाले कई बहुत ही चुनिंदा लोगों के हित में हो रहा है। वियतनाम, जिसका आबादी घनत्व भारत से ज़्यादा है, जो कई युद्धों के कारण बर्बाद हुआ, जहां अमरीका और फ्रांस ने मिलकर 1955-75 के दौरान विनाश किया, आज वह उद्योग में भारत से थोड़ा आगे ही है और पर्यावरण सम्बंधी सूचकांक में भी हमसे आगे है।
इन नई ज्ञान प्रणाली का उपयोग कर लोग सक्षम हो सकते हैं और शासन को चुनौती देने के लिए तैयार हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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