एक साल पहले तक बढ़ते पर्यावरण संकट को लेकर लोगों में काफी
चिंता थी;
ज़रूरी कदम उठाने सम्बंधी युवा आंदोलन काफी ज़ोर-शोर से हो
रहे थे। लेकिन कोविड-19 ने जलवायु संकट पर उठाए जा रहे कदमों और जागरूकता से लोगों
का ध्यान हटा दिया। हकीकत में कोविड-19 और पर्यावरणीय संकट में कुछ समानताएं हैं।
दोनों ही संकट मानव गतिविधि के चलते उत्पन्न हुए हैं, और
दोनों का आना अनपेक्षित नहीं था। इन दोनों ही संकटों को दूर करने या उनका सामना
करने में देरी से कदम उठाए गए, अपर्याप्त कदम या गलत कदम
उठाए गए,
जिसके कारण जीवन की अनावश्यक हानि हुई। अभी भी हमारे पास
मौका है कि हम सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को बेहतर करें, एक
टिकाऊ आर्थिक भविष्य बनाएं और पृथ्वी पर बचे-खुचे प्राकृतिक संसाधनों और जैव
विविधता की रक्षा करें।
यह तो जानी-मानी बात है कि स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन एक दूसरे से जुड़े हुए
हैं। पिछले पांच वर्षों से स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन के लैंसेट काउंटडाउन ने
जलवायु परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभावों को मापने वाले 40 से
अधिक संकेतकों का विवरण दिया है और उन पर नज़र रखी हुई है। साल 2020 में प्रकाशित
लैंसेट की रिपोर्ट में बढ़ती गर्मी से सम्बंधित मृत्यु दर, प्रवास
और लोगों का विस्थापन, शहरी हरित क्षेत्र में कमी, कम कार्बन आहार (यानी जिस भोजन के सेवन से पर्यावरण को कम से कम नुकसान हो) और
अत्यधिक तापमान के कारण श्रम क्षमता के नुकसान की आर्थिक लागत जैसे नए संकेतक भी
शामिल किए गए। जितने अधिक संकेतक होंगे जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य और स्वास्थ्य
तंत्र पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने में उतने ही मददगार होंगे। जैसे वायु
प्रदूषण के कारण होने वाला दमा, वैश्विक खाद्य सुरक्षा की
चुनौतियां और कृषि पैदावार में कमी के कारण अल्प आहार, हरित
क्षेत्र में कमी से बढ़ती मानसिक स्वास्थ्य सम्बंधी तकलीफों का जोखिम और 65 वर्ष से
अधिक आयु के लोगों में अधिक गर्मी का असर, जैसी
समस्याओं को ठीक करने का सामथ्र्य स्वास्थ्य प्रणालियों की क्षमता पर निर्भर करता
है,
और यह क्षमता स्वास्थ्य सेवाओं के लचीलेपन पर निर्भर करती
है। इन दो संकटों के कारण हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था पहले ही काफी दबाव में है।
लैंसेट काउंटडाउन में राष्ट्र-स्तरीय नीतियां दर्शाने वाले क्षेत्रीय डैटा को
भी शामिल किया है। इस संदर्भ में लैंसेट काउंटडाउन की दी लैंसेट पब्लिक हेल्थ में
एशिया की पहली क्षेत्रीय रिपोर्ट प्रकाशित हुई है, और
ऑस्ट्रेलियाई एमजेए-लैंसेट काउंटडाउन की तीसरी वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। विश्व
में सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जक और सर्वाधिक आबादी वाले देश के रूप में चीन की
जलवायु परिवर्तन पर प्रतिक्रिया, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय, दोनों स्तरों पर बहुत मायने रखती है। रिपोर्ट बताती है कि बढ़ते तापमान के कारण
बढ़ते स्वास्थ्य जोखिमों से निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कदम उठाए जाने की
ज़रूरत है। हालांकि 23 संकेतक बताते हैं कि कई क्षेत्रों में प्रभावशाली सुधार किए
गए हैं,
और जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास कर सार्वजनिक
स्वास्थ्य में सुधार करने की पहल भी देखी गई है। लेकिन इस पर चीन की प्रतिक्रिया
अभी भी ढीली है।
जलवायु परिवर्तन को बढ़ाने वाले कारकों पर अंकुश लगाकर ज़ूनोटिक (जंतु-जनित)
रोगों के उभरने और दोबारा उभरने को रोका जा सकता है। अधिकाधिक खेती, जानवरों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वन्य जीवों के प्राकृतिक आवासों में
बढ़ता मानव दखल ज़ूनोटिक रोगों से मानव संपर्क और उनके फैलने की संभावना को बढ़ाते
हैं। विदेशी यात्राओं में वृद्धि और शहरों में बढ़ती आबादी के कारण ज़ूनोटिक रोग
अधिक तेज़ी से फैलते हैं। जलवायु परिवर्तन के पर्यावरणीय स्वास्थ्य निर्धारकों के
रूप में इन कारकों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है।
कोविड-19 और जलवायु संकट, दोनों इस तथ्य को और भी
नुमाया करते हैं कि समाज के सबसे अधिक गरीब और हाशियाकृत लोग, जैसे प्रवासी और शरणार्थी लोग, हमेशा ही सर्वाधिक असुरक्षित
होते हैं और इसके प्रभावों की सबसे अधिक मार झेलते हैं। जलवायु परिवर्तन के संदर्भ
में देखें तो इस संकट से सर्वाधिक प्रभावित लोगों का योगदान इस संकट को बनाने में
सबसे कम है। इस वर्ष की काउंटडाउन रिपोर्ट के अनुसार कोई भी देश इस बढ़ती असमानता
के कारण होने वाली जीवन की क्षति को बचाने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई नहीं पड़ता।
कोविड-19 के प्रभावों से निपटना अब राष्ट्रों की वरीयता बन गया है और जलवायु संकट के मुद्दों से उनका ध्यान हट गया है। जिस तत्परता से राष्ट्रीय सरकारें कोविड-19 से हुई क्षति के लिए आर्थिक सुधार की योजनाएं बना रहीं हैं और उन पर अमल कर रही हैं, उतनी ही तत्परता से जलवायु परिवर्तन और सामाजिक समानता के मुद्दों पर काम करने की ज़रूरत है। अब इन दोनों तरह के संकटों से एक साथ निपटना लाज़मी और अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://dialogochino.net/wp-content/uploads/2020/04/GEF-Blue-Forests-1440×720.jpg
भारत के औषधि नियामक ने 3 जनवरी को दो कोविड-19 टीकों को
मंज़ूरी दी है। प्रधान मंत्री ने इस फैसले को महामारी के विरुद्ध लड़ाई में निर्णायक
बताया और भारतीय वैज्ञानिक समुदाय की आत्म निर्भरता के प्रमाण के रूप में देखा।
लेकिन कुछ वैज्ञानिकों ने इस फैसले की आलोचना की है। इसमें विशेष रूप से भारत
बायोटेक द्वारा निर्मित कोवैक्सीन पर आपत्ति ज़ाहिर की जा रही है जिसकी प्रभाविता
और सुरक्षा के तीसरे चरण के परिणामों की प्रतीक्षा किए बिना मंज़ूरी दी गई है।
भारत के औषधि महानियंत्रक वी.जी. सोमानी के अनुसार यह मंज़ूरी ‘पर्याप्त सावधानी’ के साथ प्रदान की गई है और इसका प्रभाविता
अध्ययन जारी रहेगा। उद्देश्य यह है कि सार्स-कोव-2 के परिवर्तित रूप के खिलाफ
बैक-अप सुरक्षा उपलब्ध रहे। युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड और एस्ट्राज़ेनेका द्वारा निर्मित
टीके को भी ‘सशर्त उपयोग’
की मंज़ूरी दी गई है और इसके भी क्लीनिकल परीक्षण जारी रखे
जाएंगे।
कई वैज्ञानिक तीसरे चरण के डैटा के बिना टीके की स्वीकृति को गलत मानते हैं।
केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) के दिशानिर्देशों के अनुसार किसी
भी टीके को मंज़ूरी मिलने के लिए तीसरे चरण के परीक्षणों में कम से कम 50 प्रतिशत
प्रभावी होना चाहिए। इस टीके को मंज़ूरी देने में इन दिशानिर्देशों को अनदेखा किया
गया है।
इसके अलावा एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफ़ोर्ड से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के तहत सीरम
इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा निर्मित कोवीशील्ड टीके को मंज़ूरी देने में भी
जल्दबाज़ी की गई है। कोविशील्ड को ब्राज़ील और यूके में तीसरे चरण के अध्ययन से
प्राप्त डैटा के आधार पर मंज़ूरी मिली है। लेकिन सीडीएससीओ के दिशानिर्देशों के
अनुसार यह जांच ज़रूरी है कि यह टीका भारतीय लोगों में कारगर है। ऐसा इसलिए आवश्यक
है क्योंकि पूर्व में भी पोलियो और टाइफाइड के टीके पश्चिमी आबादी की तुलना में
भारतीयों में कम असरदार साबित हुए हैं। सीरम इंस्टिट्यूट के अध्ययन के आंकड़ों का
अभी तक पूरी तरह विश्लेषण नहीं किया गया है।
फिलहाल स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने अगस्त तक जन स्वास्थ्य एवं
फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं से शुरू करते हुए देश की एक-चौथाई आबादी के टीकाकरण की
योजना बनाई है। इसमें सीरम इंस्टिट्यूट ने फरवरी तक 10 करोड़ टीके प्रति माह की
आपूर्ति करने का वादा किया है। इस बीच कोवैक्सीन को ‘बैकअप’ के तौर पर उपयोग करने की योजना है।
इसलिए दवा नियामक द्वारा कोवैक्सीन को मंज़ूरी देने में जल्दबाज़ी का कारण समझ
नहीं आता। गौरतलब है कि भारत बायोटेक ने जब आवेदन किया था तब वह तीसरे चरण के
परीक्षण में वालंटियर्स भर्ती कर ही रही थी। यह प्रक्रिया काफी धीमी है और फिलहाल
कंपनी इस स्थिति में भी नहीं पहुंची है कि अंतरिम प्रभाविता का विश्लेषण किया जा
सके।
लेकिन भारत बायोटेक के प्रमुख कृष्णा एला इसे असामान्य नहीं मानते; वे रूस द्वारा विकसित स्पुतनिक वी और चीन द्वारा विकसित सायनोफार्म का हवाला
देते हैं जिनको पहले और दूसरे चरण के पशु अध्ययन के आधार पर वितरित किया गया है।
उन्होंने सभी टीका प्राप्तकर्ताओं की सुरक्षा के लिए निगरानी करने का दावा किया
है। लेकिन यह दावा सिर्फ इस आधार पर है कि यह टीका निष्क्रिय वायरस से विकसित किया
गया है जिसके सुरक्षित उपयोग का लंबा इतिहास है। कृष्णा के अनुसार पशुओं और
मनुष्यों पर दूसरे चरण के परीक्षण के आधार पर टीके के प्रभावी होने की संभावना है।
इन सब के बाद भी कोवैक्सीन की सुरक्षा पर सवाल बना हुआ है। इसमें प्रतिरक्षा
प्रक्रिया को बढ़ावा देने वाले घटक, एल्युमिनियम हायड्रॉक्साइड और
इमिडाज़ोक्विनोलिनोन का उपयोग किया गया है जिन्हें पहले कभी इस्तेमाल नहीं किया गया
है। ऐसे में इसकी सुरक्षा संदेहास्पद है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि
वैज्ञानिक दूसरे चरण में मापी गई प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं के आधार पर किसी टीके
की प्रभाविता का अनुमान नहीं लगा सकते हैं।
कोवीशील्ड के तीसरे चरण के परिणामों के अंतरिम विश्लेषण में प्रभाविता 62 प्रतिशत पाई गई है। हालांकि कुछ अस्पष्टता के बाद भी इसे यूके और अर्जेन्टाइना में उपयोग के लिए अधिकृत किया गया है। भारत में सीरम इंस्टिट्यूट ने एस्ट्राज़ेनेका के टीके से कोवीशील्ड की प्रतिरक्षा प्रक्रिया की तुलना करने के लिए 400 भारतीयों और सुरक्षा का परीक्षण करने के लिए 1200 भारतीयों पर अध्ययन करने का डिज़ाइन तैयार किया है। यह अंतरिम विश्लेषण सीडीएससीओ को संतुष्ट करने के लिए तो पर्याप्त है लेकिन इसके परिणाम सार्वजनिक नहीं किए गए हैं। ऐसे में सम्मिलित लोगों की संख्या स्पष्ट नहीं है। यह भारतीय नियामक द्वारा नियम बनाने और स्वयं उन्हें तोड़ने का स्पष्ट उदाहरण है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/astrazeneca_1280p.jpg?itok=FNLOFVd4
नए साल
में सार्स-कोव-2 का नया संस्करण, ए.1.1.7, वैज्ञानिकों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। पिछले महीने दक्षिण-पूर्वी
इंग्लैंड में पहली बार पहचाना गया यह संस्करण संभवत: इस महामारी को एक भयावह रूप
में आगे बढ़ा सकता है।
वेलकम ट्रस्ट के प्रमुख जेरेमी फेरार चिंता जताते हैं कि
अधिक तेज़ी से फैलने की क्षमता के कारण शायद ए.1.1.7 संस्करण विश्व स्तर पर इस
महामारी का प्रमुख संस्करण बन जाएगा। उनको लगता है कि यह बीमारी की एक खतरनाक लहर
पैदा करेगा। साल 2020 में थोड़ा अंदाज़ा मिलने लगा था कि यह महामारी किस दिशा में
आगे बढ़ेगी लेकिन वायरस के इस नए संस्करण के फैलने से अब इस बारे में ठीक-ठीक कुछ
कहना मुश्किल हो गया है।
इस चिंता ने कुछ देशों में टीके की मंज़ूरी प्रक्रिया या
टीके देने के तरीके को निश्चित करने की चर्चा को गति दे दी है ताकि जल्द से जल्द
अधिकाधिक लोगों को सुरक्षा दी जा सके। लेकिन जिस तरह नया संस्करण अन्य देशों में
प्रवेश कर रहा है, वैज्ञानिकों ने देश की सरकारों को मौजूदा
नियंत्रण उपायों को भी मज़बूत करने की सलाह दी है। यू.के. ने तो और भी सख्त
प्रतिबंध लगाने की घोषणा भी कर दी है जिसमें स्कूलों को बंद रखने और अत्यावश्यक
परिस्थितियों में ही लोगों को घर से बाहर निकलने की अपील की गई है। अलबत्ता, कई देश अभी इस तरह के कदम उठाने में हिचक रहे हैं।
प्रतिबंध लगाते समय यू.के. के प्रधानमंत्री ने कहा था कि यह
नया संस्करण 50-70 प्रतिशत अधिक तेज़ी से फैलता है, लेकिन
शोधकर्ता इस बारे में कुछ भी कहने में सावधानी बरत रहे हैं। पिछले एक महीने में
यू.के. में संक्रमण के मामले बढ़े तो हैं लेकिन देखा जाए तो मामले तब बढ़े हैं जब
यू.के. के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न स्तर का प्रतिबंध लगा था, और लोगों के व्यवहार में बदलाव और क्रिसमस के समय क्षेत्रीय संक्रमण दर के
कारण बनीजटिल स्थिति में नए संस्करण के प्रभाव को ठीक-ठीक पहचानना कठिन है।
फिर भी साक्ष्य बताते हैं कि ए.1.1.7 के स्पाइक प्रोटीन में
हुए आठ परिवर्तनों सहित कई परिवर्तन इस वायरस की संक्रामकता को बढ़ाते हैं। पब्लिक
हेल्थ इंग्लैंड द्वारा किए गए एक विश्लेषण में पता चला है कि इंग्लैंड में ए.1.1.7
संस्करण से संक्रमित लोगों के संपर्क में आए कुल लोगों में से लगभग 15 प्रतिशत लोग
कोविड-19 पॉज़िटिव पाए गए जबकि अन्य संस्करणों से संक्रमित लोगों के संपर्क में आए
कुल लोगों में से 10 प्रतिशत लोग ही कोविड-19 पॉज़िटिव पाए गए।
जिन अन्य देशों में ए.1.1.7 संस्करण देखा गया है, यदि वहां भी इस संस्करण की लहर आती है तो यह इसका एक पुख्ता प्रमाण हो सकता है
कि यह संस्करण तेज़ी से फैलता है। आयरलैंड में, जहां
तेज़ी से संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं, वहां डीएनए अनुक्रमित
किए गए एक चौथाई मामलों में संक्रमण के लिए यही नया संस्करण ज़िम्मेदार पाया गया
है। लेकिन युरोपीय संघ में सर्वाधिक अनुक्रमण करने वाले देश डेनमार्क ने अभी इस
बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा है। यहां नियमित जांच में दर्जनों बार यह
संस्करण दिखा है;
दिसंबर की शुरुआत में अनुक्रमित जीनोम में इसकी आवृत्ति 0.2
प्रतिशत थी जो तीन सप्ताह बाद से 2.3 प्रतिशत हो गई। यदि अन्य देशों में भी मामले
बढ़ने की प्रवृत्ति इसी तरह बनी रहती है तो यह एक स्पष्ट संकेत होगा कि यू.के. की
तरह वहां भी इस संस्करण की लहर उभर सकती है जिसका सामना करने के लिए हमें तैयार
रहना चाहिए।
अब तक इस संदर्भ में कुछ साक्ष्य मिले हैं कि नया संस्करण
लोगों को कम बीमार करता है लेकिन यह कोई तसल्ली की बात नहीं है। किसी वायरस की
प्रसार क्षमता में वृद्धि उसकी घातकता में वृद्धि की तुलना में अधिक चिंताजनक है
क्योंकि इसके प्रभाव तेज़ी से बढ़ते हैं। मसलन, यदि
किसी रोग की मृत्यु दर एक प्रतिशत है और वह लोगों में अधिक तेज़ी से फैलता है जिससे
अधिक लोग प्रभावित होते हैं तो इस स्थिति में अधिक लोग मरेंगे बनिस्बत उस स्थिति
के जिसमें किसी रोग की मृत्यु दर तो दो प्रतिशत हो लेकिन फैलता कम हो।
यदि वास्तव यू.के. में वायरस की प्रसार दर में 50-75
प्रतिशत की वृद्धि हुई है तो वायरस को
फैलने से रोकना बहुत कठिन होगा। संक्रमितों को अलग करके, उनके
संपर्क में आए लोगों को पहचान कर क्वारेंटाइन करके और उनका परीक्षण करने जैसे उपाय
कर वायरस की प्रसार दर को 2 से 1 पर लाया जा सकता है। लेकिन यदि मामले एक सीमा तक
पहुंच जाते हैं और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर अधिक भार पड़ता है तो ये कदम
नाकाम जाएंगे। यानी सख्त उपाय ही नए संस्करण के प्रसार को रोकने में मदद कर सकते
हैं।
पहले ही सार्स-कोव-2 के कई संस्करण उभर चुके हैं। अब, संक्रमण फैलने से रोककर हम वायरस के लिए और अधिक विकसित होने के अवसर भी कम कर सकते हैं। वायरस में कोई उत्परिवर्तन टीकों की प्रभाविता को भी खतरे में डाल सकता है। महामारी के पहले जैसी दुनिया, दिनचर्या के अनुभव के लिए हमें इस वायरस को रोकना होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/glasgow_1280p.jpg?itok=obBUnq7-
यू.एस. व भारत के बाद कोविड-19 के सबसे अधिक मामलों वाले ब्राज़ील
में जल्द ही पहला टीका अधिकृत होने जा रहा है। ब्राज़ीली शोधकर्ताओं के अनुसार
12,000 स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं पर किए गए अध्ययन में चीनी कंपनी सायनोवैक द्वारा
निर्मित टीका,
कोरोनावैक, सुरक्षित तथा कोविड-19 के
हल्के मामलों की रोकथाम में 78 प्रतिशत प्रभावकारी पाया गया। यह मध्यम और गंभीर
बीमारी को पूरी तरह से रोकने के सक्षम पाया गया।
इस परीक्षण के प्रायोजक, सरकारी टीका निर्माता बुटानन
इंस्टीट्यूट ने सभी दस्तावेज़ जमा कर दिए हैं और जल्द ही स्वीकृति की उम्मीद करते
हैं। गौरतलब है कि ब्राज़ील में एस्ट्राज़ेनेका और युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड द्वारा
निर्मित कोविड-19 टीके के प्रभाविता परीक्षण भी चल रहे हैं और जल्द ही स्वीकृति
मिलने की संभावना है।
लेकिन कोरोनावैक टीके की अच्छी खबरों के बीच सम्बंधित डैटा की कमी ने ब्राज़ील
के सहयोगियों को असमंजस में डाल दिया है। इससे पहले भी ब्राज़ील के शोधकर्ताओं ने
टीके की सफलता की घोषणा तो की थी लेकिन तब भी उन्हें सटीक प्रभाविता डैटा प्रदान
करने की अनुमति नहीं थी।
गौरतलब है कि कई देशों में अधिकृत अधिकांश टीके उन्नत तकनीक (जैसे mRNA या
हानिरहित वायरल वेक्टर) पर आधारित हैं। एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड द्वारा भी ऐसी ही
तकनीक का उपयोग किया गया है जबकि सायनोवैक ने अधिक स्थापित तकनीक का उपयोग किया है।
सायनोवैक द्वारा निर्मित टीका समूचे मगर दुर्बलीकृत कोरोनावायरस पर निर्भर है ताकि
यह बीमारी का कारण न बने। दो mRNA आधारित टीकों ने हल्के रोग के विरुद्ध 95
प्रतिशत प्रभाविता दर्ज की है। लेकिन एक मत यह है कि टीके का मुख्य काम लोगों को
गंभीर रोग से बचाने का होना चाहिए। मध्य पूर्वी देशों में किए गए परीक्षणों में
सायनोफार्म के टीके ने भी लगभग ऐसे ही परिणाम दर्शाए हैं।
लेकिन सायनोवैक और सायनोफार्म ने अपने साझेदारों को बहुत कम जानकारी सार्वजनिक
करने की अनुमति दी है। ब्राज़ीली शोधकर्ता केवल यह बता पाए कि कोरोनावैक की
प्रभाविता 50 प्रतिशत से अधिक है, जो किसी भी टीके की स्वीकृति
का अंतर्राष्ट्रीय मानक है। इसके अलावा संख्याओं के बारे में कोई जानकारी प्रदान
नहीं की गई। पत्रकारों द्वारा सवाल करने पर मात्र यह बताया गया कि हल्की बीमारी के
218 मामले हैं लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि इनमें से कितने प्लेसिबो समूह के हैं और
कितने टीका-प्राप्त समूह के। यह कहा गया कि टीका सभी आयु समूहों में प्रभावी है।
डैटा की कमी से काफी संदेह उत्पन्न होता है। अन्य कोविड-19 टीका निर्माताओं द्वारा भी प्रारंभिक प्रभाविता परीक्षण सम्बंधी घोषणाओं में कम ही जानकारी प्रदान की गई। परीक्षण आयोजित करने वाले शोधकर्ता एस्पर कैलस के अनुसार जांचकर्ताओं के पास भी पूरा डैटा उपलब्ध नहीं था। कैलस के अनुसार ब्राज़ील की टीम और टीका निर्माता के बीच विवाद का कारण यह है कि क्या किसी मामले के पुष्ट मानने के लिए पीसीआर परीक्षण के अलावा कोविड-19 के एक-दो लक्षण भी दिखना चाहिए। तुर्की में कोरोनावैक का परीक्षण करने वाले शोधकर्ताओं को इस तरह की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। क्योंकि डैटा जारी करने के बारे में सायनोवैक से कोई अनुबंध नहीं था। उनके डैटा में प्लेसिबो प्राप्त 570 प्रतिभागियों में से 26 और टीका प्राप्त 752 में से 3 कोविड-19 के मामले सामने आए (प्रभाविता 91.25 प्रतिशत)। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/sinovac_1280p_0.jpg?itok=S9pv2Ku3
पिछले कई दशकों में हमने विकास के लिए जो कदम उठाए हैं, उसने हमें पर्यावरण संकट के दौर में लाकर खड़ा कर दिया है। पर्यावरण संकट के इस दौर में देश के पर्यावरण विनियमन में पिछले कुछ सालों में कई बड़े बदलाव किए गए हैं और पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) के नियमों में भी बदलाव की कोशिश जारी है। इन बदलावों से भारत की जैव-विविधता पर क्या असर होगा। इस तरह के मसलों पर रोशनी डालता प्रो. माधव गाडगिल का यह व्याख्यान।
पर्यावरणीय मसलों पर बहस तो कई सालों से छिड़ी हुई है लेकिन
पिछले एक साल से पर्यावरण के संदर्भ में तीन विषयों पर काफी गंभीर बहस चल रही है।
पहला विषय है पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना यानी पर्यावरण पर होने वाले असर का
मूल्यांकन करने वाले मौजूदा नियमों में बदलाव करने के लिए जारी की गई अधिसूचना।
दूसरा,
राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (NGT) में जैव-विविधता कानून के
संदर्भ में दायर की गई याचिका। जैव विविधता कानून 2004 में लागू हुआ था। इस कानून
के मुताबिक हर स्थानीय निकाय (पंचायत, नगर पालिका, नगर निगम) में एक जैव-विविधता प्रबंधन समिति स्थापित की जानी चाहिए। समिति के
सदस्य वहां के स्थानीय लोग होंगे जो अपने क्षेत्र की पर्यावरण सम्बंधी समस्याओं और
पर्यावरणीय स्थिति का अध्ययन करके एक दस्तावेज़ तैयार करेंगे। इसे पीपुल्स
बायोडायवर्सिटी रजिस्टर (लोक जैव विविधता पंजी) कहा गया। लेकिन वर्ष 2004 से 2020
तक,
यानी 16 सालों की अवधि में इस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई।
इस कार्य को संपन्न कराने के अधिकार वन विभाग को दे दिए गए।
यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि वन विभाग स्थानीय लोगों के खिलाफ है।
दस्तावेज़ीकरण जैसे कामों में स्थानीय लोगों को शामिल करने का मतलब है कि लोगों को
इससे कुछ अधिकार प्राप्त हो जाएंगे, और विभाग यही तो नहीं चाहता।
इसलिए 16 वर्षों तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।
इस सम्बंध में एक याचिका दायर की गई, लेकिन जब यह याचिका
दायर हुई तो एक अजीब ही स्थिति बन गई। वन विभाग द्वारा पीपुल्स बायोडायवर्सिटी
रजिस्टर तैयार करने के लिए बाहर की कई एजेंसियों को ठेका दे दिया गया। ठेका
एजेंसियों ने गांव वालों की जानकारी के बिना खुद ही ये दस्तावेज़ तैयार कर दिए और
वन विभाग को सौंप दिए। वन विभाग ने इसे NGT को सौंप दिया और कहा कि हमने काम पूरा
कर दिया। यह बिलकुल भी ठीक नहीं हुआ और इसी पर बहस चल रही है। यह भी जैव-विविधता
से ही जुड़ा हुआ विषय है।
और बहस का तीसरा मुद्दा है कि कुछ दिनों पहले पता चला कि पूरे देश के कृषि
महाविद्यालयों को कहा गया था कि वे इस बात का अध्ययन करके बताएं कि उनके अपने
क्षेत्र के खाद्य पदार्थों, पेय पदार्थों या अन्य चीज़ों
में कीटनाशक कितनी मात्रा में उपस्थित हैं। जब महाविद्यालय यह काम कर रहे थे तो
उनको आदेश दिया गया कि इस जांच के जो भी निष्कर्ष मिलें उन्हें लोगों के सामने
बिलकुल भी ज़ाहिर न होने दें, इन्हें गोपनीय रखा जाए। यानी
लोगों को यह पता नहीं चलना चाहिए कि हमारे खाद्य और पेय पदार्थों में बड़े पैमाने
पर कीटनाशक पहुंच गए हैं।
इस देश को विषयुक्त बनाया जा रहा है और क्यों बनाया जा रहा है। विषयुक्त देश
बनाए रखे जाने का भी इस अधिसूचना में समर्थन किया गया; इसके
समर्थन में कहा गया कि यह सब भारत के संरक्षण के लिए बहुत ज़रूरी है। लेकिन पूरा
देश विषाक्त करके भारत का संरक्षण किस तरह होगा, यह
समझना बहुत मुश्किल है। इससे तो ऐसा ही लगता है कि जो भी प्रदूषण फैलाने वाले
उद्यम हैं उनको बेधड़क प्रदूषण फैलाने की छूट देकर देश को खत्म करने की अनुमति दे
दी गई है। एक तो पहले से ही देश का पर्यावरण संरक्षण पर नियंत्रण बहुत ही कमज़ोर था, अब तो इसे पूरी तरह से ध्वस्त करने की दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं।
इस तरह की शासन प्रणाली को हमें चुनौती ज़रूर देना चाहिए। हमें यह समझ लेना
चाहिए कि चुनौती देने के लिए हमारे हाथ में अब कई बहुत शक्तिशाली साधन आ गए हैं।
ये शक्तिशाली साधन हैं पूरे विश्व में तेज़ी से बदलती ज्ञान प्रणाली।
पहले बहुत थोड़े लोगों के हाथों में ज्ञान का एकाधिकार था। लेकिन अब यह
एकाधिकार खत्म हो रहा है और आम व्यक्ति तक ज्ञान पहुंच रहा है। यह एक बहुत ही
क्रांतिकारी और आशाजनक बदलाव है। एकलव्य द्वारा प्रकाशित मेरी किताब जीवन की बहार
में अंत में एक विवेचना इसी विषय पर की गई है कि पृथ्वी पर जीवन की इस चार अरब साल
की अवधि में जो प्रगति हुई है और हो रही है, वह है
कि ज्ञान को अपनाने या हासिल करने के लिए जीवधारी अधिक से अधिक समर्थ बनते गए हैं।
इस अवधि में हुए जो मुख्य बड़े परिवर्तन बताए गए हैं, उसमें
सबसे आखिरी नौवां चरण है मनुष्य की सांकेतिक भाषा का निर्माण। इस सांकेतिक भाषा के
आधार पर हम एक समझ और ज्ञान प्राप्त करने लगे। ज्ञान ऐसी अजब चीज़ है कि जो बांटने
से कम नहीं होती,
बल्कि बढ़ती है।
लेकिन ज्ञान अर्जन की जो भी प्रवृत्तियां थीं, इन
प्रवृत्तियों का अंतिम स्वरूप क्या होगा? इस विषय में मैनार्ड
स्मिथ ने बहुत ही अच्छी विवेचना करते हुए बताया है कि दसवां परिवर्तन होगा कि विश्व
में सभी लोगों के हाथ में सारा ज्ञान आ जाएगा। कोई भी किसी तरह के ज्ञान से वंचित
नहीं होगा और ज्ञान पर किसी का एकाधिकार नहीं रहेगा। लेकिन अफसोस कि हमारी शासन
प्रणाली ज्ञान पर केवल चंद लोगों को एकाधिकार देकर बाकी लोगों को ज्ञान से वंचित
करने का प्रयत्न कर रही है।
लेकिन अब हम शासन के इस प्रयत्न को बहुत ही अच्छे-से चुनौती दे सकते हैं। जिस
तरह आम व्यक्ति के हाथ तक ज्ञान पहुंच रहा है उसकी मदद लेकर। इसका एक बहुत ही
अच्छा उदाहरण देखने में आया था। स्थानीय लोगों को शामिल करके पीपुल्स
बायोडायवर्सिटी रजिस्टर बनाने का जो काम किया जाना था, उस पर
शासन (वन विभाग) का कहना है कि स्थानीय लोग ये दस्तावेज़ बनाने में सक्षम में नहीं
हैं,
उनको अपने आसपास मिलने वाली वनस्पतियों, पेड़-पौधों,
पशु-पक्षियों, कीटों वगैरह के नाम तक
पता नहीं होते। इनके बारे में जानकारी का आधार इनके वैज्ञानिक नाम ही हैं। जब वे
ये नहीं जानते,
तो दस्तावेज़ कैसे बना पाएंगे। इसीलिए, उनका तर्क था कि हमने बाहर के विशेषज्ञों को इन्हें तैयार करने का ठेका दे
दिया।
मगर इस तर्क के विपरीत एक बहुत ही उत्साहवर्धक उदाहरण मेरे देखने में आया।
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली ज़िले में कई गांवों को सामूहिक वनाधिकार प्राप्त हुए।
सामूहिक वनाधिकार प्राप्त होने के बाद वहां रहने वाले आदिवासी (अधिकतर गौंड) लोगों
के लिए पहली बार ऐसा हुआ कि उनका घर के बाहर कदम रखना अपराध नहीं कहलाया। इसके
पहले तक उनका घर से बाहर कदम रखना भी अपराध होता था क्योंकि जहां वे रहते हैं वह
रिज़र्व फॉरेस्ट है, और रिज़र्व फॉरेस्ट में किसी का भी प्रवेश
अपराध है। इसके पीछे वन विभाग की लोगों से रिश्वत लेने की मंशा थी। जीवनयापन के
लिए उन लोगों को बाहर निकलने के बदले वन विभाग को विश्वत देनी पड़ती थी। आज भी यह
स्थिति कई जगह बनी हुई है। लेकिन सौभाग्य से गढ़चिरौली में अच्छा नेतृत्व मिला और
वहां के डिप्टी कलेक्टर द्वारा वनाधिकार कानून ठीक से लागू किया गया; इससे ग्यारह सौ गांवों को वन संसाधन और वन क्षेत्र पर अधिकार मिल गए। इस
अधिकार के आधार पर वे वहां की गैर-काष्ठ वनोपज जैसे बांस, तेंदूपत्ता, औषधियों,
वनस्पतियों वगैरह का दोहन कर सकते हैं और उनको बेच सकते
हैं। इस तरह वे लोग सक्षम बन रहे हैं।
इन गांवों के युवक-युवतियों को सामूहिक वन संसाधन का ठीक से प्रबंधन करने में
समर्थ बनाने के लिए उनको प्रशिक्षण भी दिया गया। इसमें हमने उनके गांव में ही उन्हें
पांच महीनों का विस्तृत प्रशिक्षण दिया। कई युवक-युवतियों ने प्रशिक्षण लिया। हमने
पाया कि इन युवक-युवतियों को उनके आसपास के पर्यावरण के बारे में बहुत ही गहरा
ज्ञान था क्योंकि वे बचपन से ही वे वहां रह रहे थे और ठेकेदार के लिए तेंदूपत्ता, बांस आदि वनोपज एकत्र करके देते थे। इस प्रशिक्षण के बाद उनमें और भी जानने का
कौतूहल जागा।
प्रशिक्षण में हमने युवक-युवतियों को स्मार्ट फोन के उपयोग के बारे में भी
सिखाया था। कम से कम महाराष्ट्र के सारे गांवों में परिवार में एक स्मार्टफोन तो
पहुंच गया है;
इंटरनेट यदि गांव में ना उपलब्ध हो तो भी नज़दीकी बाज़ार वाले
नगर में होता है। गांव वाले अक्सर बाज़ार के लिए जाते हैं तो वहां इंटरनेट उपयोग कर
पाते हैं। काफी समय तक स्मार्टफोन को भारतीय भाषाओं में उपयोग करने में मुश्किल
होती थी। हमारे यहां की कंपनियां और शासन की संस्थाओं (जैसे सी-डैक) को भारतीय
भाषाओं में इसका उपयोग करने की प्रणाली बनाने का काम दिया गया था जो उन्होंने अब
तक ठीक से नहीं किया है। दक्षिण कोरिया की कंपनी सैमसंग चाहती थी कि अधिक से अधिक
लोग स्मार्टफोन का उपयोग करें ताकि मांग बढ़े। इसलिए सैमसंग कंपनी ने भारतीय भाषाओं
में उपयोग की सुविधा उपलब्ध कराई, जो भारत इतने सालों में नहीं
कर सका था। और अब गूगल में भी सारी भाषाओं में उपयोग सुविधा उपलब्ध है। गूगल कंपनी
ने दो साल पहले एक सर्वे किया था जिसमें उन्होंने पाया था कि भारत की अस्सी
प्रतिशत आबादी अपनी भाषा में स्मार्टफोन का उपयोग कर रही है, केवल 20 प्रतिशत लोग अंग्रेज़ी का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन भारत में ऐसी
अजीब स्थिति बन गई है कि जब यहां के सुशिक्षित लोगों को यह बात बताई जाती है तो वे
कहते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है।
प्रशिक्षण में हमने यह भी सिखाया था कि गूगल के एक एप का उपयोग करके वे लोग
अपने सामूहिक वनाधिकार की सीमा कैसे पता कर सकते हैं। स्थानीय लोगों द्वारा वन
विभाग से काफी समय से सामूहिक सीमा का नक्शा मांगने के बावजूद विभाग नक्शा नहीं दे
रहा था क्योंकि इससे लोग अपने सामूहिक वन क्षेत्र की सीमा निश्चित करके उसका ठीक
से लाभ उठा सकते हैं। अब ये लोग गूगल एप की मदद से खुद ही नक्शा बना सकते हैं।
गूगल एप से सीमांकन बहुत ही सटीक हो जाता है, सैकड़ों
मीटर में 2-3 मीटर ही ऊपर-नीचे होता है।
हमने प्रशिक्षण समूह का एक व्हाट्सएप ग्रुप भी बनाया था जिसमें वे जानकारियों
के लिए आपस में बात करते थे, एक-दूसरे से जानकारी साझा
करते,
सवाल करते थे। जब किसी भी फल, वनस्पति
या जीव के बारे में उन्हें जानना होता वे उसकी फोटो ग्रुप में भेज देते थे। इस
ग्रुप में 22-23 साल का एक बहुत ही होशियार लड़का था लेकिन अंग्रेज़ी ना आने के कारण
वह दसवीं में फेल हो गया था। ग्रुप में जब भी कोई इस तरह की फोटो भेजता तो वह
तुरंत ही उसका ठीक-ठीक वैज्ञानिक नाम बता देता। यदि किसी भी वनोपज का वैज्ञानिक
नाम मालूम हो तो इससे उसके बारे में बहुत कुछ पता किया जा सकता है। जैसे उसके
क्या-क्या उपयोग हैं, उसका व्यापार कहां है, उसका बाज़ार कहां अधिक है, किस प्रक्रिया से उस वनोपज का
मूल्यवर्धन किया जा सकता है। इस युवक के तुरंत नाम बताने पर मुझे आश्चर्य हुआ तो
मैंने उससे पूछा कि तुम यह कैसे पता कर रहे हो। तो उसने बताया कि प्रशिक्षण में जब
स्मार्टफोन का उपयोग करना सिखाया गया तो हमने यह भी समझना शुरू किया कि अन्य गूगल
एप्स क्या हैं। गूगल फोटो और गूगल लेंस एप के बारे में पता चला। इसमें किसी भी
प्राणी या वनस्पति का फोटो डालो तो तुरंत ही उसका वैज्ञानिक नाम मिलने की संभावना
होती है। आज से दस साल पहले तक गूगल के पास लगभग दस अरब फोटो संग्रहित थे, जो अब शायद कई अरब होंगे। इस संग्रह में हरेक किस्म की तस्वीरें हैं, जिनमें से शायद पांच से दस अरब चित्र पशु-पक्षियों, कीटों, वनस्पतियों वगैरह के होंगे।
एक नई ज्ञान प्रणाली का बड़े पैमाने पर विकास विकास हुआ है, जिसे कृत्रिम बुद्धि कहते हैं। तस्वीर डालने पर गूगल का शक्तिशाली सर्च इंजन
अपने भंडार से सबसे नज़दीकी चित्र ढूंढकर उस तस्वीर सम्बंधी जानकारी, वैज्ञानिक नाम वगैरह बता देता है। इसके बारे में उस युवक ने खुद से सीख लिया
था और जानकारियां व्हाट्सएप ग्रुप और अपने अन्य साथियों को दे रहा था। अब गढ़चिरौली
के वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक भी उस युवक को किसी पौधे का नाम ढूंढकर बताने को
कहते हैं। जैसा कि मैनार्ड स्मिथ कहते हैं, ऐसी
नई ज्ञान प्रणाली लोगों के हाथों में आने से सारे लोगों के पास वि·ा का समस्त ज्ञान पहुंचने की ओर कदम बढ़ रहे हैं।
किसी खाद्य पदार्थ में या हमारे आसपास कीटनाशकों की कितनी मात्रा मौजूद है यह
जानकारी भी शासन द्वारा लोगों को नहीं दी जा रही है। अब तक, किसी भी चीज़ में कीटनाशक की मात्रा पता लगाने के लिए स्पेक्ट्रोफोटोमीटर चाहिए
होता था। स्पेक्ट्रोफोटोमीटर तो कुछ ही आधुनिक प्रयोगशालाओं में उपलब्ध था, जैसे किसी कृषि महाविद्यालय या इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में। लेकिन यह आम
लोगों की पहुंच में नहीं था। इसलिए पर्यावरण में मौजूद कीटनाशक की मात्रा पता करना
आम लोगों के लिए मुश्किल था। कीटनाशकों से काफी बड़े स्तर पर जैव-विविधता की हानि
हुई है। इस सम्बंध में मेरा अपना एक अनुभव है। मुझे और मेरे पिताजी को पक्षी
निरीक्षण का शौक था। तो मैंने बचपन (लगभग 1947) में ही पक्षियों की पहचान करना सीख
लिया था। तब हमारे यहां कीटनाशक बिलकुल नहीं थे और उस वक्त (1947-1960) हमारे घर
के बगीचे और पास की छोटी-छोटी पहाड़ियों पर प्रचुर जैव-विविधता थी और काफी संख्या
में पक्षी थे। जैसे-जैसे कीटनाशक भारत में फैले, पक्षी
बुरी तरह तबाह हुए। उस समय की अपेक्षा अब उस पहाड़ी पर पांच-दस प्रतिशत ही
प्रजातियां दिखाई पड़ती हैं, बाकी सारी समाप्त हो गई हैं
या उनकी संख्या बहुत कम हो गई है।
सवाल है कि कीटनाशक कितनी मात्रा में है यह कैसे जानें? शासन तो लोगों को इसकी जानकारी ना मिले इसके लिए कार्यरत है। 1975-76 में
मैसूर के सेंट्रल फूड टेक्नॉलॉजी रिसर्च इंस्टीट्यूट में जीवन के उद्विकास
व्याख्यान के लिए मेरा जाना हुआ। उनका कीटनाशक सम्बंधी एक विभाग था। वहां के प्रमुख
ने बताया कि मैसूर के बाज़ार में जो खाद्य पदार्थ मिलते हैं उनमें कितनी मात्रा में
कीटनाशक हैं हम इसका तो पता करते हैं, लेकिन हमें कहा गया है
कि इन नतीजों को लोगों को बिलकुल नहीं बताना है। आज तक शासन लोगों से इस जानकारी
को छुपाना चाहता है।
लेकिन अब,
कीटनाशक की मात्रा पता लगाने वाले स्पेक्ट्रोफोटोमीटर जैसा
एक यंत्र बाज़ार में उपलब्ध है जिसे खरीदा जा सकता है। हालांकि इसकी कीमत (20-25
हज़ार रुपए) के चलते आम लोग अब भी इसे नहीं खरीद सकते लेकिन एक समूह मिलकर या कोई
संस्था इसे खरीद सकती है और कई लोग मिलकर उपयोग कर सकते हैं। बैंगलुरु के तुमकुर
ज़िले में शाला शिक्षकों का एक संगठन है तुमकुर साइंस फोरम। इस फोरम के एक
प्रोजेक्ट के तहत वे इस यंत्र की मदद से कई स्थानों, खाद्य
व पेय पदार्थों में कीटनाशकों का पता लगा रहे हैं। यह जानकारी वे लोगों के लिए
उपलब्ध करा देंगे। आजकल इंटरनेट आर्काइव्स नामक एक वेबसाइट पर तमाम तरह की
जानकारियां अपलोड की जा सकती हैं, जिसे कोई भी देख-पढ़ सकता है।
इस तरह इस नई ज्ञान प्रणाली से कुछ लोगों का ही ज्ञान पर एकाधिकार खत्म हो रहा है।
लोग इस तरह की पड़ताल खुद कर सकते हैं।
अब तक यह स्पष्ट हो गया है कि जो कुछ
शासन की मंशा है वह पर्यावरण संरक्षण पूरा नष्ट करेगी। इसका असर जैव-विविधता पर भी
होगा। लेकिन जैसा कि अब तक की बातों में झलकता है, हमारे
पास भारत की जैव-विविधता सम्बंधी डैटा बहुत सीमित है। इसका एक बेहतर डैटाबेस बन
सकता था यदि पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर बनाने का काम ठीक से किया जाता, लेकिन अफसोस,
यह ठीक से नहीं किया गया। इसलिए हमारे पास बहुत ही सीमित
जानकारी है,
जो चुनिंदा अच्छे शोध संस्थाओं ने अपने खुद के अध्ययन करके
शोध पत्रों के माध्यम से लोगों को उपलब्ध कराई है। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के
अध्ययनों में सामने आया है कि जैव-विविधता कम हो रही है। इस संदर्भ में यह
अधिसूचना और भी खतरनाक है, लेकिन यह भी सीमित रूप से ही
कहा जा सकता है क्योंकि हमारी जैव-विविधता के बारे में जानकारी ही अधूरी है।
अच्छी विज्ञान शिक्षा के प्रयास में हम सारे लोग काफी कुछ कर सकते हैं। इस
दिशा में शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे लोग अपने-अपने स्थानों की पंचायत, नगर पालिका या नगर निगम में प्रयत्न करके उपरोक्त जैव-विविधता प्रबंधन समिति
का प्रस्ताव रख सकते हैं और जैव-विविधता रजिस्टर बना सकते हैं। इससे जैव-विविधता
के बारे में बहुत ही समृद्ध जानकारी उपलब्ध होगी। और यह बनाना आसान है। गूगल फोटो
या गूगल लेंस की मदद से किसी भी जगह की वनस्पति या जीव के नाम और जानकारी पता चल
सकती है। इस तरह अब तक अर्जित ज्ञान को फैलाने के साथ-साथ बच्चे-युवा खुद अपने
ज्ञान का निर्माण कर सकते हैं। स्कूल के स्तर पर भी शालाएं पीपुल्स बायोडायवर्सिटी
रजिस्टर बनाने में सहयोग कर सकती हैं और बना सकती हैं। गढ़चिरौली ज़िले और कई अन्य
जगहों पर कई स्कूलों में इस तरह का काम किया जा रहा है, कई
स्कूलों ने बहुत अच्छे से रजिस्टर बनाए हैं। इससे बच्चे दस्तावेज़ीकरण की प्रक्रिया
भी सीख सकते हैं। और इन दस्तावेज़ों के आधार पर जैव-विविधता का संरक्षण कैसे किया
जाए इसके बारे में पता कर सकते हैं।
अफसोस की बात है कि भारत को छोड़कर
बाकि सभी देश ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से निपटने के लिए कुछ ना कुछ कर रहे हैं।
अधिक मात्रा में कोयले जैसे र्इंधनों का उपयोग करने वाले देश चीन ने भी अब साल
2050 तक कोयला जलाना बंद करना तय किया है। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प के जाने
और बाइडेन के आने से अमरीका में कोयला और पेट्रोलियम जैसे र्इंधन का इस्तेमाल कम
होने की आशा है। केवल भारत ही कोयले-पेट्रोलियम का उपयोग बढ़ाता जा रहा है। माना कि
हमें भी विकास और बदलाव की ओर जाना है, लेकिन किस कीमत पर। इस
बारे में हमें स्वयं ही ज्ञान संपन्न होकर कदम उठाने होंगे।
लोगों में एक बड़ी गलतफहमी व्याप्त है कि विकास (या उत्पादन) और पर्यावरण इन दो
के बीच प्रतिकूल (या विरोधाभासी) सम्बंध है। एक को बढ़ाने से दूसरा प्रभावित होगा।
हमारे सामने कई ऐसे राष्ट्रों के उदाहरण हैं जो बहुत उच्छा उत्पादन कर रहे हैं और
उतनी ही अच्छी तरह से पर्यावरण की देखभाल भी कर रहे हैं। जैसे जर्मनी, स्विटज़रलैंड,
डैनमार्क, स्वीडन। ये राष्ट्र उद्योगों
के मामले में विश्व में अग्रणी हैं। आज भारत यह बातें करता है कि हमने उत्पादन
बढ़ाया है लेकिन जिन देशों को हम पिछड़ा मानते थे (जैसे बांग्लादेश) उनका उत्पादन
भारत से ज़्यादा है। भारत में जो हो रहा है, वह
केवल पर्यावरण नष्ट करने वाले कई बहुत ही चुनिंदा लोगों के हित में हो रहा
है। वियतनाम, जिसका
आबादी घनत्व भारत से ज़्यादा है, जो कई युद्धों के कारण बर्बाद
हुआ,
जहां अमरीका और फ्रांस ने मिलकर 1955-75 के दौरान विनाश
किया,
आज वह उद्योग में भारत से थोड़ा आगे ही है और पर्यावरण
सम्बंधी सूचकांक में भी हमसे आगे है।
इन नई ज्ञान प्रणाली का उपयोग कर लोग सक्षम हो सकते हैं और शासन को चुनौती देने के लिए तैयार हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.toiimg.com/thumb/msid-77882423,width-1200,height-900,resizemode-4/.jpg
नोवावैक्स कंपनी ने कोविड-19 के खिलाफ बनाए अपने टीके की
प्रभाविता जांचने के लिए लंबे समय से प्रतीक्षित तृतीय चरण के मानव परीक्षण को
यू.एस में जल्द ही शुरू करने की घोषणा की है। इसका तृतीय चरण का मानव परीक्षण
युनाइटेड किंगडम में भी किया जाना है, जिसके लिए 15,000 से अधिक प्रतिभागियों ने
नामांकन भी कर दिया है। यूके के परीक्षण परिणामों के आधार पर नोवावैक्स युरोपीय
नियामक से अनुमोदन का आवेदन करेगी। अध्ययन के परिणाम अभी प्रतीक्षित हैं।
पर्याप्त मात्रा में टीका ना बना पाने के
कारण कंपनी ने अमेरिका में बड़े स्तर पर प्रस्तावित अपना तृतीय चरण का मानव परीक्षण
कई बार स्थगित किया था, लेकिन अब इसे शुरू करने की तैयारी में हैं। गौरतलब है कि
नोवावैक्स कंपनी एक समय काफी संकट में थी,
और नोवावैक्स को टीका
तैयार करने के लिए अमरीकी सरकार और कोलीशन फॉर एपिडेमिक प्रीपेयर्डनेस इनोवेशन ने
दो अरब डॉलर की राहत राशि दी है। द्वितीय चरण के परीक्षण में इस टीके के परिणाम
आशाजनक थे। लेकिन कंपनी के टीका बनाने के इतिहास को देखें तो पिछले 30 सालों में
कंपनी को किसी भी टीके के लिए अनुमोदन नहीं मिला है। तो क्या इस महामारी के टीके
के लिए कंपनी अनुमोदन ले पाएगी?
नोवावैक्स द्वारा तैयार टीका प्रोटीन
आधारित उन दो टीकों में से एक है जिस पर अमेरिकी सरकार ने अरबों डॉलर खर्च किए हैं, और
जो प्रभाविता परीक्षण के चरण में पहुंचा है। इस टीके में सार्स-कोव-2 के स्पाइक
प्रोटीन की प्रतिलिपियों के साथ सूक्ष्म लिपिड कण हैं। कोविड-19 के अन्य टीकों की
तरह इस टीके के लिपिड में पॉलीमर पॉलीएथिलीन ग्लाइकॉल नहीं है, जो
एलर्जी की होने की संभावना को हटाता है। इसकी बजाय इसमें प्रतिरक्षा बढ़ाने वाला
यौगिक सैपोनिन है।
नोवावैक्स का यह प्लेसिबो-नियंत्रित
परीक्षण अमेरिका के 108 स्थानों और मैक्सिको के सात स्थानों पर करने की योजना है
जिसमें 30,000 प्रतिभागियों में से दो तिहाई प्रतिभागियों को वास्तविक टीके दिए
जाएंगे।
कंपनी यह मानती है कि जब फाइज़र और
बायोएनटेक द्वारा तैयार दो ऐसे टीके उपलब्ध हैं जिनकी प्रभाविता 90 प्रतिशत से
अधिक पाई गई है और जिन्हें खाद्य और औषधि प्रशासन द्वारा आपातकालीन उपयोग के लिए
मंज़ूरी भी प्राप्त है, तो संभव है कि लोग इस परीक्षण में नामांकन करने में हिचकें।
कारण है कि लोग प्लेसिबो नियंत्रित परीक्षण में प्लेसिबो मिलने की संभावना का या
नोवावैक्स के कम सुरक्षित होने की संभावना का जोखिम क्यों लेंगे।
वैसे नोवावैक्स की तैयारी है कि यदि किसी जगह पर प्रतिभागी ना मिलें तो वे परीक्षण दूसरे स्थान पर शुरू कर लें। हालांकि वे स्वीकारते हैं कि 30,000 प्रतिभागियों का नामांकन हासिल करना मुश्किल है। लेकिन कई परोपकारी लोग हैं जो बेहतर टीका तैयार करने में योगदान देना चाहते हैं। तो वे लोग तो इस परीक्षण में शामिल होंगे ही। ऐसे कई लोग नामांकन कर भी चुके हैं। लेकिन जैसे-जैसे समय निकलता जाएगा लोगों को शामिल करना और मुश्किल होता जाएगा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Novavax_vaccine_update_1280x720.jpg?itok=g9kFd7ca
साल 2020 में, लगभग आठ लाख भारतीयों समेत दुनिया भर में
एक करोड़ सत्तर लाख से भी अधिक लोगों की मौत का कारण कैंसर होगा। भारत में, हर
सत्रह महिलाओं में से एक महिला और हर पंद्रह पुरुषों में से एक पुरुष को कैंसर
होने की संभावना है। भारत में लगभग हर दसवीं मौत और दुनिया भर में हर पांचवीं मौत
कैंसर के कारण होती है।
कैंसर एक ऐसी बीमारी है जिसमें व्यक्ति की
कोशिकाएं अनियंत्रित रूप से लगातार विभाजन कर वृद्धि करने लगती हैं। ऐसा क्यों
होता है, यह समझने के लिए हमें दो प्रकार के जीन्स के बारे में जानना
ज़रूरी है। पहला ओन्कोजीन और दूसरा ट्यूमर सप्रेसर जीन। ये दोनों किसी भी सामान्य
मानव शरीर की हर कोशिका में मौजूद होते हैं। ओन्कोजीन हमारे शरीर की वृद्धि और
मरम्मत में मदद करते हैं और ट्यूमर सप्रेसर जीन अन्य कार्य करने के साथ ही यह
सुनिश्चित करते हैं कि ओन्कोजीन द्वारा होने वाली वृद्धि नियंत्रण में रहे।
अगर किसी उत्परिवर्तन के कारण ओन्कोजीन
शरीर को ज़रूरत से ज़्यादा कोशिका वृद्धि करने का आदेश देने लगे या फिर ट्यूमर
सप्रेसर जीन इसे नियंत्रित न कर सके तो कोशिकाओं की यही अनियंत्रित वृद्धि कैंसर
का रूप ले लेती है। मज़े की बात तो यह है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र भी इन कैंसर
कोशिकाओं को नष्ट करने में असमर्थ रहता है।
अब ऐसी निराली पर भयंकर बीमारी का क्या
उपचार हो सकता है? कैंसर का पता चलने पर चिकित्सक कीमोथेरपी की सलाह देते हैं।
कीमोथेरपी में कैंसर कोशिकाओं को मारने के लिए रसायनों का उपयोग किया जाता है।
कीमोथेरपी का उद्देश्य कैंसर कोशिकाओं के प्रसार को नियंत्रित करना और किसी भी
मौजूदा ट्यूमर को नष्ट करना है। यह अक्सर सर्जरी या विकिरण के साथ उपयोग किया जाता
है। आम तौर पर सूई की मदद से नसों में रसायन डाला जाता है,
लेकिन परिस्थिति
अनुसार गोली के रूप में भी दिया जा सकता है।
कैंसर रोगी को प्राप्त होने वाले उपचारों
का एक निर्धारित क्रम होता है। यह पूरी तरह से कैंसर के प्रकार और रोगी के
स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। कीमोथेरपी व्यक्तिगत परिस्थितियों के आधार पर दैनिक, साप्ताहिक
या मासिक अंतराल पर दी जा सकती है। कई कैंसर ऐसे हैं जो कीमोथेरपी की बेहतर
प्रतिक्रिया देते हैं। उदाहरण के लिए हॉजकिन लिम्फोमा और लिम्फोसाइटिक ल्यूकेमिया।
ये बचपन में होने वाले कैंसर हैं।
कैंसर जितना ज़्यादा फैला होता है अक्सर
उसका इलाज उतना ही अधिक कठिन होता है। कीमोथेरपी से कैंसर से ठीक होने की कोई
गारंटी नहीं है। अलबत्ता, कई लोगों का जीवनकाल कीमोथेरपी और अपनी
विशिष्ट परिस्थितियों के कारण बढ़ा है और कुछ तो कैंसर मुक्त भी हुए हैं। चिकित्सक
अपने रोगियों के लिए व्यक्तिश: कीमो उपचार भी बनाते हैं जिससे प्रभावशीलता ज़्यादा
से ज़्यादा हो सके।
कीमोथेरपी न केवल तेज़ी से बढ़ती कैंसर
कोशिकाओं को मारती है, बल्कि तेज़ी से बढ़ने व विभाजित होने वाली स्वस्थ कोशिकाओं
(जैसे आपके मुंह और आंतों के ऊपरी सतह की कोशिकाएं) के विकास को भी धीमा कर देती
है और कई बार तो इन स्वस्थ कोशिकाओं की मौत भी हो जाती है। स्वस्थ कोशिकाओं के
नुकसान के कारण मुंह के घाव, उल्टी होना और बाल झड़ने जैसे लक्षण पैदा
होते हैं। नाक, मुंह और जीभ की ऊपरी सतह पर मौजूद तंत्रिकाओं पर भी
कीमोथेरपी का बुरा असर पड़ता है और कई शोधों ने यह भी दिखाया है कि कीमो से होने
वाले इस नुकसान के कारण व्यक्ति की सूंघने और स्वाद लेने की क्षमता पर भी असर पड़ता
है। आपने देखा ही होगा कि सर्दी-ज़ुकाम के कारण आपके सूंघने और स्वाद लेने की
क्षमता खत्म या कम हो जाती है। ऐसा लंबे समय तक रहे और कुछ भी खाने का मन ना करे
और ये सब भी तब जब शरीर कैंसर जैसी भयंकर बीमारी से लड़ रहा हो,तो कितना मुश्किल
होता होगा उस इंसान का कैंसर से लड़ना। कीमोथेरपी में हुए शोध में यह भी देखा गया
है कि कीमो की कुछ खुराकों के बाद रोगी की संज्ञान क्षमताओं (जैसे याददाश्त, एकाग्रता, पढ़ने-लिखने
की क्षमता) पर भी बड़ा कुप्रभाव पड़ा। महिलाओं में मासिक धर्म के जल्दी बंद होने
जैसे लक्षण भी देखे गए हैं।
अब आते हैं कीमोथेरपी के आर्थिक पक्ष पर।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा जुलाई 2017-जून 2018 के दौरान किए गए
सर्वेक्षण के अनुसार भारत में कैंसर की देखभाल से जुड़ी तस्वीर चिंताजनक है।
सर्वेक्षण में कैंसर के विभिन्न चरणों में 1200 रोगियों को या तो ज्ञात या फिर
संदिग्ध लक्षणों के आधार पर शामिल किया गया। राष्ट्र स्तर पर एक कैंसर रोगी की
देखभाल का औसत कुल खर्च 1,16,218 रुपए के आसपास था (निजी अस्पतालों में 1,41,774
रुपए जबकि सार्वजनिक अस्पतालों में 72,092 रुपए)। राज्यवार देखें तो भारत में
कैंसर रोगी की देखभाल की कुल लागत ओडिशा में 74,699 रुपए से लेकर झारखंड में
2,39,974 रुपए तक है। ओडिशा, तमिलनाडु,
आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम
बंगाल, छत्तीसगढ़, बिहार और हरियाणा में इलाज का कुल खर्च एक
लाख रुपए से कम था। कैंसर के मरीज़ों को पंजाब,
कर्नाटक, गुजरात,केरल, मध्य
प्रदेश और महाराष्ट्र में इलाज पर एक से डेढ़ लाख रुपए के बीच खर्च करना पड़ा।
जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, राजस्थान,
असम, हिमाचल
प्रदेश और झारखंड में कैंसर के इलाज में डेढ़ लाख से अधिक खर्चा दिखा।
ध्यान देने की बात यह है कि इस खर्च का
ज़्यादातर हिस्सा रोगी या उसके परिवार को ही उठाना पड़ता है। इस खर्च का बड़ा हिस्सा
दवा कंपनियों को जाता है। यानी यदि किसी को कैंसर हुआ तो वह किसी न किसी तरीके से
कम से कम लाख रुपए तो दवा कंपनियों को दे ही देता है। लेकिन इतना दुख सहने और
खर्चा करने के बाद कैंसर रोगी के ठीक होने की कितनी संभावना है? कुछ
प्रचलित कैंसरों में कीमोथेरपी की सफलता दर तालिका में दी गई है।
आप देख सकते है कि यदि कैंसर का पहले चरण में पता चल जाए तब तो इतना कष्ट झेलकर और पैसे खर्च करके शायद जान बचाई जा सकती है, लेकिन कैंसर जितनी देर से पता चलता है, कीमोथेरपी उतनी ही बेअसर होने लगती है और रोगी की जान बचने की संभावना काफी कम हो जाती है और दुख-दर्द उतना ही बढ़ता है। लेकिन इसके अलावा कैंसर का और कोई ठोस उपचार भी नहीं है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://nci-media.cancer.gov/pdq/media/images/755978-571.jpg
कोविड-19 का टीका आने से कोरोना महामारी के परिदृश्य में काफी
परिवर्तन आया है। टीकाकरण की प्रक्रिया शुरू होने से जहां एक उम्मीद जागी है वहीं
असमंजस की स्थिति भी बनी हुई है।
सबसे पहले,
चाइना नेशनल बायोटेक
ग्रुप (सीएनबीजी) के प्रभाग बीजिंग बायोलॉजिकल प्रोडक्ट्स इंस्टीट्यूट ने अपने
टीके के तीसरे चरण के परीक्षण में 79.34 प्रतिशत प्रभाविता का दावा किया और इसे
पूरी तरह सुरक्षित बताया। कंपनी ने चीन की नियामक एजेंसियों से अनुमोदन की मांग की
है। लेकिन इस दावे पर वैज्ञानिकों ने गंभीर आपत्ति जताई है। इसमें न तो
प्रतिभागियों की संख्या के बारे में बताया गया है और न ही टीकाकृत एवं प्लेसिबो
समूहों में कोविड-19 के प्रकोप के बारे में कोई जानकारी है। इसके अलावा परीक्षणों
के स्थान के बारे में भी कोई चर्चा नहीं की गई है। तीन सप्ताह बाद संयुक्त अरब
अमीरात (यूएई) में हुए परीक्षण के बाद 86 प्रतिशत प्रभाविता का दावा किया गया है।
इसके बाद,
यूके ने
एस्ट्राज़ेनेका और युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड द्वारा बनाए गए टीके के आपात उपयोग को
मंज़ूरी दी। इस पर असमंजस ज़ाहिर किया गया क्योंकि शोधकर्ताओं ने विभिन्न जनसंख्या
समूहों, टीकों की अलग-अलग खुराक और मुख्य एवं बूस्टर टीके के बीच
अलग-अलग अंतराल के आंकड़े मिला दिए थे। आश्चर्य की बात थी कि यूके मेडिसिन एंड
प्रोडक्ट्स रेगुलेटरी एजेंसी (एमएचआरए) ने कहा कि मुख्य खुराक के बाद बूस्टर 12
सप्ताह बाद भी दिया जा सकता है। कहा गया कि टीके की एक पूर्ण खुराक 73 प्रतिशत
प्रभावी है। जबकि पूर्व में दी लैंसेट में प्रकाशित अध्ययन में दो खुराकों
की प्रभाविता मात्र 62 प्रतिशत बताई गई थी। वैज्ञानिकों ने यह सवाल भी उठाया है कि
एक खुराक से वास्तव में कितनी सुरक्षा मिलती है। इस संदर्भ में एमएचआरए के फैसले
पर भी सवाल उठे हैं। युनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा की डीन और जैव सांख्यिकीविद के
अनुसार एमएचआरए द्वार यह फैसला जल्दबाज़ी में बिना किसी स्पष्टीकरण के लिया गया है।
फिर भी टीकों की दो खुराक के बीच में अंतराल अधिक रहा तो अधिक लोगों को मुख्य
खुराक तो मिल ही जाएगी। इससे गंभीर स्थिति और मृत्यु दर को कम किया जा सकेगा।
सायनोफार्म तथा एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड दोनों टीकों के मामले में आंकड़ों का अभाव
पारदर्शिता पर सवाल खड़े करता है।
कोविड-19 टीकों की कमी तो है ही और संभावना
है कि सायनोफार्म और एमएचआरए दोनों टीकाकरण की प्रक्रिया को गति देने का प्रयास
करेंगे। गौरतलब है कि एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड के सहयोग से इस वर्ष एक अरब टीकों
की खुराक विकसित होने की उम्मीद है। इसके अलावा सायनोफार्म के पास वर्तमान में 10
करोड़ खुराक उपलब्ध हैं और इस वर्ष एक अरब खुराकों के उत्पादन की संभावना भी है।
कई देशों में टीके की केवल एक खुराक देने
पर चर्चा हो रही है जबकि टीकों का परीक्षण दो खुराकों के लिए किया गया है। एक ही
खुराक देने के पीछे तर्क यह है कि काफी सारे लोगों में कुछ प्रतिरक्षा तो उत्पन्न
हो जाए। ऑपरेशन वार्प स्पीड के प्रमुख वैज्ञानिक मोनसेफ सलोई बताते हैं कि
एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड टीके की पहली खुराक प्राप्त करने वालों ने मज़बूत
प्रतिरक्षा विकसित नहीं की है। ऐसे में एक खुराक का फैसला जोखिम भरा हो सकता है।
अमेरिका में भी फाइज़र-बायोएनटेक और मॉडर्ना
द्वारा निर्मित और स्वीकृत थ्र्ङग़्ॠ आधारित दो टीकों के संदर्भ में भी मुख्य व
बूस्टर खुराक के बीच के अंतराल बढ़ाकर ज़्यादा लोगों को टीका देने की चर्चा हो रही
है। वार्प स्पीड के तहत mRNA टीकों का आधा स्टॉक
ही वितरित किया जा रहा है ताकि बूस्टर खुराक के लिए पर्याप्त मात्रा में टीके
उपलब्ध रहें। वैज्ञानिकों ने अमेरिकी अधिकारियों को एकल खुराक को जल्द से जल्द
शुरू करने का सुझाव दिया है। इसमें प्राथमिकता के आधार पर अतिसंवेदनशील लोगों को
तय कार्यक्रम के तहत दो खुराक दिए जाने का प्रस्ताव है लेकिन सामान्य लोगों के
टीकाकरण मानकों में ढील दी जा सकती है। वैज्ञानिक समुदाय की ओर से इस प्रस्ताव पर
गंभीरतापूर्वक विचार करने का आग्रह किया गया है।
कुछ वैज्ञानिक दो खुराकों के बीच के अंतराल
को इच्छाधीन मानते हैं। महामारी के दबाव के कारण mRNA टीकों की खुराकों के अंतराल को अधिक सख्ती से लागू किया जा रहा था। सलोई के
अनुसार एक तरीका यह है कि लोगों को आधी मात्रा ही दी जाए। मॉडर्ना टीके के डैटा से
लगता है कि 55 वर्ष से कम उम्र के लोगों में आधी खुराक देने से ही मज़बूत प्रतिरक्षा
प्रतिक्रिया उत्पन्न हो जाती है। उम्मीद है कि इस आयु वर्ग के लोगों के लिए टीके
की आधी खुराक निर्धारित करके समय और टीकों दोनों की बचत की जा सकती है।
फिलहाल सीएनबीजी ने टीके का मूल्य निर्धारण
नहीं किया है लेकिन चीनी अधिकारियों ने उचित मूल्य पर टीका उपलब्ध कराने का वादा
किया है। एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड ने एक गैर-लाभकारी संस्था के ज़रिए प्रति खुराक
तीन डॉलर (लगभग 220 रुपए) में बेचने की योजना बनाई है। हाल ही में स्वीकृत
फाइज़र-बायोएनटेक और मॉडर्ना टीकों की लागत लगभग 10 गुना से भी अधिक है और ये
कंपनियां इस वर्ष के अंत तक दो अरब खुराकों का उत्पादन करेंगी।
दोनों टीके mRNA आधारित टीके हैं जिनको शून्य से भी कम तापमान पर रखना और परिवहन करना अनिवार्य है। इसके विपरीत एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड टीका हानिरहित एडेनोवायरस आधारित है, जबकि सायनोफार्म टीके में वायरस का निष्क्रिय संस्करण है इसलिए इनको सामान्य रेफ्रीजरेटर में भी रखा जा सकता है। वर्तमान में हज़ारों चीनी फ्रंट लाइन जन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, शिक्षकों और सार्वजनिक परिवहन कर्मचारियों को आपात उपयोग के तहत सायनोफार्म टीके की खुराक मिल चुकी है। इसको यूएई और बाहरीन ने भी आपात उपयोग की अनुमति दी है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/sinopharm_1280p_0.jpg?itok=oiDhXP7B
उन्नीसवीं सदी में किए गए एक दावे पर अब बहस छिड़ गई है कि वैश्विक
तापमान में वृद्धि जानवरों के रंग-रूप में किस तरह के बदलाव लाएगी।
1800 के दशक की शुरुआत में जीव विज्ञानियों
ने इस सम्बंध में कुछ नियम दिए थे कि बदलते तापमान का पारिस्थितिकी और जैव विकास
पर किस तरह प्रभाव पड़ेगा। इनमें से एक नियम था कि गर्म वातावरण में जानवरों के
शरीर के उपांग (जैसे कान, चोंच) बड़े होंगे,
ये शरीर की ऊष्मा को
बाहर निकालने में मददगार होते हैं। एक अन्य नियम के अनुसार बड़े शरीर वाले जीव आम
तौर पर ध्रुवों के आसपास रहते हैं, क्योंकि बड़ा शरीर ऊष्मा के संरक्षण में मदद
करता है। और साल 1833 में जर्मन जीव विज्ञानी कॉन्स्टेंटिन ग्लोगर ने बताया था कि
गर्म इलाकों में रहने वाले जीवों का बाहरी आवरण आम तौर पर गहरे रंग का होता है, जबकि
ठंडे इलाकों में रहने वाले जीवों का बाहरी आवरण हल्के रंग का। स्तनधारियों में
गहरे रंग की त्वचा और बाल हानिकारक पराबैंगनी किरणों से सुरक्षा देते हैं, इसलिए
सूर्य के प्रकाश से भरपूर इलाकों में गहरा रंग फायदेमंद होता है। पक्षियों में भी
गहरे रंग के पंखों में मौजूद विशिष्ट मेलेनिन रंजक बैक्टीरियल संक्रमण से सुरक्षा
देते हैं।
जुलाई में,
चाइना युनिवर्सिटी ऑफ
जियोसाइंसेज़ के ली तियान और युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल के माइकल बेंटन ने इन नियमों
का उपयोग कर पूर्वानुमान लगाया कि भविष्य में जलवायु परिवर्तन (तापमान में वृद्धि)
जीवों के शरीर में किस तरह के बदलाव ला सकता है। इनके आधार पर उन्होंने बताया कि
पृथ्वी के तापमान में बढ़ोतरी होने पर अधिकांश जानवर गहरे रंग के हो जाएंगे।
लेकिन इस पर अन्य जीव विज्ञानियों का कहना
है कि मामला इतना भर नहीं है। मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर ऑर्निथोलॉजी के पक्षी
विज्ञानी कैस्पर डेल्हे पिछले कुछ वर्षों से ग्लोगर के नियम की जगह एक अधिक सटीक
नियम देने की कोशिश में हैं। तियान और बेंटन के इस अध्ययन पर डेल्हे और उनके
साथियों ने करंट बायलॉजी में अपनी प्रतिक्रिया दी है। इसमें वे कहते हैं कि
ग्लोगर ने अपने नियम में तापमान और आर्द्रता दोनों कारकों को मिश्रित कर दिया है। आर्द्रता
या नमी के बढ़ने पर पौधे हरे-भरे होते हैं,
जो जीवों को
शिकारियों से छिपने में मदद करते हैं। इसलिए नमी बढ़ने पर आसपास के परिवेश में
घुलने-मिलने के लिए जीवों के शरीर का रंग गहरा होता है। कई गर्म स्थान वाष्प युक्त
होते हैं, लेकिन तस्मानिया जैसे ठंडे वर्षा वनों में पक्षियों का रंग
गहरा होगा।
डेल्हे कहते हैं यदि तापमान बढ़ने के
साथ-साथ आर्द्रता नहीं बढ़ती यानी आर्द्रता नियंत्रित रहती है तो ग्लोगर के नियम के
बिल्कुल उलट स्थिति बनेगी – गर्म वातावरण में जीवों का रंग हल्का होगा, खासकर
ठंडे रक्त वाले जीवों का (यानी ऐसे जीव जिनके शरीर का तापमान बाह्य वातावरण पर
निर्भर है)। कीट और सरीसृप गर्मी के लिए बाहरी स्रोत (सूर्य के प्रकाश) पर निर्भर
होते हैं। ठंडी जगहों पर, इनकी त्वचा का रंग गहरा होता है जो उन्हें
पर्याप्त मात्रा में ऊष्मा सोखने में मदद करता है। यदि जलवायु गर्म हुई तो उनके
शरीर का रंग हल्का पड़ जाएगा। इसे डेल्हे ‘थर्मल मेलानिज़्म परिकल्पना’ कहते हैं।
तियान और बेंटन डेल्हे के स्पष्टीकरण को
स्वीकार करते हैं। लेकिन फिर भी वे कुछ ऐसे स्थानों के उदाहरण देते हैं जहां गर्म
जलवायु होने पर जीवों के रंग के बारे में की गई उनकी भविष्वाणी सही होगी। फिनलैंड
में टावनी उल्लू दो तरह के रंग में पाए जाते हैं – गहरे कत्थई रंग में या सफेदी
लिए हुए हल्के स्लेटी रंग में। हल्का स्लेटी रंग उल्लुओं को बर्फ की पृष्ठभूमि में
छिपे रहने में मदद करता है। लेकिन फिनलैंड में हिमाच्छादन कम होने के साथ कत्थई
रंग के उल्लुओं की संख्या बढ़ी है। 1960 के आसपास वहां गहरे रंग के उल्लुओं की आबादी
लगभग 12 प्रतिशत थी जो 2010 में बढ़कर 40 प्रतिशत तक हो गई।
शोधकर्ता यह भी मानते हैं कि यदि तापमान और
आर्द्रता दोनों ही बदलती है तो जीवों में होने वाले जलवायु सम्बंधी रंग परिवर्तन
को समझना थोड़ा पेचीदा होगा। मसलन, कुछ जलवायु मॉडल यह भविष्यवाणी करते हैं कि
अमेज़ॉन के जंगल भविष्य में गर्म और शुष्क होते जाएंगे जिससे जीवों का रंग हल्का हो
जाएगा, लेकिन साइबेरिया के बोरियल जंगल गर्म और नम होंगे तो वहां
ये पूर्वानुमान ठीक नहीं बैठेंगे। बेंटन का कहना है कि भौतिकी या रसायन विज्ञान के
विपरीत जीव विज्ञान में कोई भी नियम एकटम सटीक या निरपेक्ष नहीं हो सकता। यह
गुरुत्वाकर्षण की तरह नहीं है, जो सभी जगह लागू होगा।
यदि किसी तरह के सामान्य रुझान दिखते भी
हैं तब भी यह कहना मुश्किल ही होगा कि कोई विशिष्ट प्रजाति किसी परिवर्तन पर किस
तरह प्रतिक्रिया देगी। वाशिंगटन विश्वविद्यालय की जीव विज्ञानी लॉरेन बकले ने अधिक
ऊंचाई वाले क्षेत्रों में तितली के रंग पर अध्ययन किया है। वे बताती हैं कि
तितलियां धूप तापते हुए ऊष्मा सोखती हैं, लेकिन उनके पूरे पंखों की बजाए पंखों की
निचली सतह पर मौजूद मात्र एक छोटे से हिस्से से ऊष्मा सोखी जाती है। इस स्थिति में
तितलियों के पंखों का रंग चाहे कुछ भी रहे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि ऊष्मा तो
पंखों के एक छोटे हिस्से से सोखी जा रही है।
अगर हम यह नहीं जानते कि कोई जीव अपने
आसपास के पर्यावरण से वास्तव में किस तरह संपर्क करता है,
तो हम उसके बारे में
किसी भी तरह के ठीक-ठाक अनुमान नहीं लगा पाएंगे। जीवों पर पर्यावरण के प्रभावों को
समझने के लिए हमें यह भी समझने की ज़रूरत है कि कोई जीव अपने वातावरण के साथ किस
प्रकार संपर्क करता है।
जीवों में रंग परिवर्तन जीवों की अपनी
तापमान-नियंत्रक प्रणाली पर भी निर्भर करता है। आम तौर पर असमतापी जीवों का रंग
हल्का होता जा रहा है, और पक्षियों और स्तनधारियों में विभिन्न तरह के प्रभाव
दिखाई दिए हैं। बकले सुझाव देती हैं कि अपने अनुमानों को बेहतर करने के लिए हम
संग्रहालय में रखे नमूनों का उपयोग कर सकते हैं क्योंकि ये लंबी अवधि में आए
परिवर्तनों का अंदाज़ा दे सकते हैं। हालांकि समय के साथ इनके रंग बदलने की भी
संभावना है। शोधकर्ताओं की अब भृंग और घोंघों को गर्म टैंकों में रखकर रंग
परिवर्तन सम्बंधी अध्ययन करने की योजना है।
लेकिन जिस तेज़ी से पृथ्वी गर्म होती जा रही है उससे वैज्ञानिकों के पास जल्द ही इस विषय पर व्यापक डैटा उपलब्ध होगा। और यदि जीवों के प्राकृतिक आवास ही नष्ट हो गए और प्रजातियां विलुप्त हो गईं तो जीवों के बदलते स्वरूपों पर लगाए गए हमारे सारे पूर्वानुमान धरे के धरे रहे जाएंगे।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0108NID_Tawny_Owl_online.jpg?itok=jYCr7luj
पिछले दिनों
देश में राष्ट्रीय तितली के चयन के लिए मतदान किया गया था,
जब मैंने अन्य राष्ट्रीय प्रतीकों के बारे
में जानना चाहा तो पता चला कि हमारे राष्ट्रीय पेड़ बरगद,
राष्ट्रीय फूल कमल और राष्ट्रीय फल आम के
अलावा एक राष्ट्रीय सब्ज़ी भी है – कद्दू – तो मेरी खुशी का ठिकाना ना रहा क्योंकि
यह मेरी पसंदीदा सब्ज़ी है।
परंतु मेरी खुशी तब काफूर हो गई जब एक मित्र ने बताया कि कद्दू के राष्ट्रीय सब्ज़ी
होने का भारत सरकार की वेबसाइट पर कोई ज़िक्र नहीं है। वैसे नेट पर सर्च करेंगे तो
आपको राष्ट्रीय सब्ज़ी के नाम पर पंपकिन अर्थात कद्दू का नाम मिल जाएगा। मुझे लगा
कि जब हमारा राष्ट्रीय फल (आम) है, फूल (कमल) है, पक्षी (मोर) है, जलीय जंतु (गंगा डॉल्फिन) है और यहां तक कि हमारा एक
राष्ट्रीय सूक्ष्मजीव (लैक्टोबैसिलस डेलब्रुकी,
जिसे बगैर सूक्ष्मदर्शी के देखा भी नहीं जा
सकता) भी है, तो राष्ट्रीय
सब्ज़ी तो बनती है।
राष्ट्रीय सब्ज़ी कई देशों में घोषित है। जैसे जापान में
डॉइकॉन (एक किस्म की मूली), पाकिस्तान में भिंडी,
चीन में एक प्रकार का पत्ता गोभी और
अमेरिका में आर्टीचोक और यूके में मटर। गौरतलब है कि मेंडल ने अपने आनुवंशिकी
सम्बंधी महत्वपूर्ण प्रयोग मटर पर ही किए थे।
तो जब इतने सारे देशों की अपनी-अपनी राष्ट्रीय सब्ज़ी है तो
हमारी भी एक राष्ट्रीय सब्ज़ी होनी चाहिए। मेरे ख्याल से कद्दू को राष्ट्रीय सब्ज़ी
घोषित किया जाना चाहिए। वैसे इस कार्य में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए
भारत सरकार के डिपार्टमेंट ऑॅफ हार्टिकल्चर और कृषि अनुसंधान परिषद को आगे आना
चाहिए।
देखते हैं कि कद्दू में ऐसे क्या गुण हैं जो इसे राष्ट्रीय
सब्ज़ी का दर्जा दिला सकते हैं। आगे बढ़ने से पहले जरा कद्दू से जान-पहचान कर लें –
यह कद्दू है क्या? कहां से आया? भारतीय
संस्कृति में, लोक रिवाज़ों
में, पर्व-त्योहारों
में इसका क्या महत्व है?
कहां से आया कद्दू
उत्तरी अमेरिका का मूल निवासी कद्दू सबसे पुराने पालतू बनाए
गए पौधों में से एक है। इसका उपयोग 7500 से 5000 ईसा पूर्व से किया जा रहा है।
कुकरबिटेसी कुल का कद्दू हर मौसम की फसल है। आम तौर पर हमारे यहां कद्दू जुलाई की
शुरुआत में लगाया जाता है। यह एक बड़े-बड़े पत्तों वाली कमज़ोर बेल होती है जो ज़मीन
पर रेंगकर आगे बढ़ती है। कद्दू में बड़े-बड़े नर और मादा फूल अलग-अलग खिलते हैं और
इनका परागण आम तौर पर मधुमक्खियों द्वारा होता है। इन परागणकर्ताओं की कमी हो तो
कृत्रिम परागण करना पड़ता है। अपरागित फूलों में लगता तो है कि फल बढ़ने लगे हैं
लेकिन जल्दी ही खिर जाते हैं। इस प्राकृतिक घटना से जुड़ा रामचरितमानस का एक प्रसंग
मुझे याद आ रहा है। बालकांड में शिवजी का धनुष टूटा देख परशुराम जी क्रोध से पूछते
हैं कि यह धनुष किसने तोड़ा है। तब लक्ष्मण बोले हमें ना डराओ, बार-बार फरसा ना
दिखाओ। यहां कोई कुम्हड़ की बतियां (छोटा कच्चा फल) नहीं है जो तर्जनी देखकर ही मर
जाएगा।
ईहां कुम्महड़ बतियां कोऊ नाहीं।
जे तर्जनी देख मरि जाहीं।
बचपन में बुज़ुर्ग कहा करते थे कि फूलों को तर्जनी उंगली मत
दिखाओ, नहीं तो वह
खिर जाएगी, दिखाना ही है
तो उंगली मोड़ कर दिखाओ। इसके मूल में रामचरित मानस की इसी चौपाई की भूमिका लगती
है।
सबसे बड़ा अंडाशय
कद्दू के विशाल आकार को लेकर कई देशों में पंपकिन फेस्टिवल
मनाया जाता है जहां सबसे बड़े कद्दू उत्पादक को पुरस्कृत किया जाता है। लगभग 1 टन
वजन के भी कद्दू देखे गए हैं। दुनिया के सबसे भारी कद्दू (1190.5 किलोग्राम) का
रिकॉर्ड 2016 में बेल्जियम में स्थापित हुआ था।
इतने बड़े फल उगाने के लिए इसके खोखले कमज़ोर तने में बड़ी-बड़ी
पत्तियों द्वारा बनाए जाने वाले भोजन को फलों तक ले जाने वाले सवंहन बंडल में
दूसरे पौधों की तुलना में दुगनी मात्रा में फ्लोएम नामक ऊतक पाया जाता है।
पौष्टिक कद्दू
पोषक तत्वों से भरपूर इस सब्ज़ी को हमारे यहां 30,600 हैक्टर
में उगाया जाता है और इसका उत्पादन 35 लाख टन है। उत्पादन की दृष्टि से पूरी
दुनिया में चीन के बाद दूसरा नंबर भारत का ही है। इसे सभी प्रांतों में उगाया जाता
है। उत्पादन के लिहाज़ से उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश क्रमश: प्रथम,द्वितीय और तृतीय स्थान पर हैं,चौथे नंबर पर छत्तीसगढ़ है।
कद्दू बहुत ही पौष्टिक सब्ज़ी है। अन्य तत्वों के अलावा, यह प्रो-विटामिन ए,बीटा कैरोटीन और विटामिन ए का बढ़िया स्रोत
है। विटामिन सी मध्यम मात्रा में पाया जाता है। इसके अलावा इसमें विटामिन ए,
विटामिन के,
विभिन्न विटामिन बी और कैल्शियम, लौह, मैग्नीशियम, मैंग्नीज़, फॉस्फोरस, पोटेशियम तथा जस्ता
जैसे महत्वपूर्ण खनिज तत्व पाए जाते हैं।
बहु उपयोगी कद्दू
कद्दू एक बहु उपयोगी पौधा है। कद्दू का हर भाग खाने योग्य
है। इसकी मांसल खोल, इसके बीज, पत्ते और
यहां तक कि फूल भी खाने योग्य हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में कद्दू
लोकप्रिय थैंक्सगिविंग सामग्री के रूप में जाना जाता है। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप
में कद्दू मक्खन, चीनी और
मसालों के साथ पकाया जाता है। कद्दू का हलवा एक स्वादिष्ट मिठाई है। सांभर बनाने
में भी कद्दू का उपयोग किया जाता है।
क्यों राष्ट्रीय सब्ज़ी?
यह आसानी से पहचाने जाने वाली एक बड़ी सब्ज़ी है। भारतीय
संस्कृति में इसका बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक पकाया-खाया
जाता है। उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम सभी राज्यों
में उपयोग किया जाता है। उत्तर भारत में मनाए जाने वाले छठ त्यौहार में पहले दिन
कद्दू की सब्ज़ी और भात विशेष रूप से पकाया जाता है। भारत के विभिन्न भागों में
इसकी पत्तियों और फूलों का साग और कचोरी पकौड़ा भी तैयार किया जाता है। कद्दू की
सब्ज़ी भी तरह-तरह से बनाई जाती है। इसकी शेल्फ लाइफ 6 से 8 महीने तक होती है। और
कोई सब्जी ऐसी नहीं है जो तोड़ने के बाद इतने लंबे समय तक बिना किसी विशेष व्यवस्था
के सलामत रहे। इसमें कीड़ा भी नहीं लगता। श्राद्ध में कद्दू का भरपूर उपयोग होता
है। सस्ता भी है और कद्दू को लेकर सख्त पसंद-नापसंद की बात भी नहीं है।
कद्दू के बीज
कद्दू के बीज को पेपिटस कहते हैं,
जो खाद्य एवं पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं।
एक-डेढ़ सेंटीमीटर लंबे, चपटे, अंडाकार, हल्के हरे रंग के
होते हैं कद्दू के बीज। इन्हें भूनकर खाया जाता है और मैग्नीशियम, तांबा व जस्ता के
अच्छे स्रोत हैं। इसके बीजों में सेलेनियम भी पाया गया है जो फ्री रेडिकल को रोकने
में मददगार है। इसके साथ ही इस में फॉस्फोरस विटामिन ए,
बी 6,
सी और विटामिन के भी हैं। कद्दू के कई नाम
हैं – काशीफल, कद्दू, कोहरा, कुमड़ा, कोला, ग्रामीण कुष्मांड और
कदीमा।
यानी कद्दू देश के साहित्य, रीति-रिवाज़ों, त्योहारों में काम आता है। बरसात से लेकर गर्मी तक उगाया जाता है। साल भर उपलब्ध उपलब्ध रहता है। और क्या चाहिए कद्दू को राष्ट्रीय सब्ज़ी घोषित करने के लिए?(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.static-collegedunia.com/public/image/420482e81a8659b111bd45f30359c395.webp?tr=w-700,h-400,c-force