हर साल, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में किसान कृषि अपशिष्ट, खासकर गेहूं की कटाई के बाद बची नरवाई (या पराली) जला देते हैं, जो पर्यावरण के लिए संकट बन जाता है। इसके चलते हवा में धुआं और महीन कण फैल जाते हैं और हवा सांस लेने के लिहाज़ से बेहद ज़हरीली हो जाती है। इन इलाकों के लोग ‘स्मॉग’ (धुआं और कोहरा) की समस्या का सामना करते हैं। स्मॉग के कारण हवा की गुणवत्ता सांस लेने के लायक नहीं बचती। दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों का वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) गंभीर स्तर तक, 400 के ऊपर, पहुंच जाता है। प्रसंगवश बता दें कि AQI का आकलन हवा में मौजूद कणीय प्रदूषण की मात्रा के अलावा ओज़ोन, नाइट्रोजन डाईऑक्साइड, सल्फर डाईऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड की मात्रा के आधार पर किया जाता है। इन्हें सांस में लेना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। वायु गुणवत्ता सूचकांक जब 50 इकाई से कम हो तब सबसे अच्छा होता है; यह स्थिति मैसूर, कोच्चि, कोझीकोड और शिलांग में होती है। 51-100 के बीच यह मध्यम होता है जबकि 151-200 के बीच स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह होता है, यह स्तर इन दिनों हैदराबाद का है। 201-300 के बीच का स्तर स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होता है। 300-400 के बीच स्तर खतरनाक होता है और 400 से अधिक स्तर गंभीर स्थिति का द्योतक होता है, जो आजकल दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में है, जहां नरवाई या पराली जलाई जा रही है।
व्यावहारिक समाधान
दिल्ली सरकार ने हाल ही में दिल्ली स्थित पूसा भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के साथ मिलकर नरवाई या कृषि अपशिष्ट जलाने की इस समस्या से निपटने का एक व्यावहारिक समाधान निकाला है, जिसे पूसा डीकंपोज़र कहते हैं। पूसा डीकंपोज़र कुछ कैप्सूल्स हैं जिनमें आठ तरह के सूक्ष्मजीव (फफूंद) होते हैं। इनमें जैव पदार्थ को अपघटित करने के लिए ज़रूरी एंज़ाइम होते हैं। इन कैप्सूल्स को गुड़, बेसन मिले पानी में घोल दिया जाता है। कैप्सूल को पानी में घोलकर, तीन से चार दिनों तक किण्वित किया जाता है। इस तरह तैयार घोल का छिड़काव किसान खेत में बचे अपशिष्ट को विघटित करने के लिए कर सकते हैं। 25 लीटर घोल बनाने के लिए चार कैप्सूल पर्याप्त होते हैं। इतने घोल से एक हैक्टर क्षेत्र के फसल अपशिष्ट को सड़ाया जा सकता है और यह अपशिष्ट बढ़िया खाद बन जाता है।
पूसा डीकंपोज़र इस समस्या को हल करने में सफल रहा है, और देश भर में बड़े पैमाने पर इसके उपयोग का मार्ग प्रशस्त हुआ है। गौरव विवेक भटनागर ने दी वायर में इस समस्या और समाधान का विस्तृत विश्लेषण किया है।
गौरतलब है कि पूसा संस्थान ने कृषि अपशिष्ट के शीघ्र अपघटन के लिए पूसा डीकंपोजर में तकरीबन आठ तरह की फफूंद का उपयोग किया है। डा कोस्टा और उनके साथियों द्वारा मार्च 2018 में एप्लाइड एंड एनवायरनमेंटल माइक्रोबायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि दीमकों में कृषि अपशिष्ट के विघटन में फफूंद की तीन प्रजातियों के एंज़ाइम्स की भूमिका होती है। इसलिए इस कार्य के लिए आवश्यक फंफूद दीमक से प्राप्त की जाती है। दीमक खुद फसलों की भारी बर्बादी करती हैं। तो बेहतर यही होगा कि दीमकों से उन फफूंदों को अलग कर लो जो कृषि अपशिष्ट को विघटित करने के लिए आवश्यक एंज़ाइम बनाती हैं। इसी विचार के आधार पर संस्थान ने पूसा डीकंपोज़र फार्मूला तैयार किया है और इसने बखूबी काम भी किया है।
प्रसंगवश यह जानना दिलचस्प होगा कि पूसा डीकंपोज़र से हुई खाद्यान्न उपज जैविक खेती के समान हैं। क्योंकि ना तो इसमें वृद्धि कराने वाले हार्मोन हैं, ना एंटीबायोटिक्स, ना कोई जेनेटिक रूप से परिवर्तित जीव, और ना ही इससे सतह के पानी या भूजल का संदूषण होता है।
जोंग्यू का तरीका
वास्तव में, यदि हम हज़ारों साल पहले के पौधों और खाद्यान्नों की खेती के मूल तरीके और उसके विकास को देखें तो तब से अठारहवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति आने तक खेती करने का तरीका जैविक था। रसायन विज्ञान की तरक्की से उर्वरकों की खोज हुई और पैदावार बढ़ाने वाले रसायन बने। इस सम्बंध में स्टेफनी हैनेस का 2008 में क्रिश्चियन साइंस मॉनीटर में प्रकाशित लेख पढ़ना दिलचस्प होगा (https: csmonitor.com/Environment/2008/0430/p13s01-sten.html)। वे बताती हैं कि परम्परागत पद्धति झूम खेती (स्लैश एंड बर्न) की रही (जो अभी हम गेहूं की फसल में अपनाते हैं)। लेकिन पूर्वी अफ्रीका के मोज़ाम्बिक में रहने वाला जोंग्यू नाम का किसान अपने मक्के के खेत को जलाता नहीं था, बल्कि कटाई के बाद ठूंठों को सड़ने के लिए छोड़ देता था। खेत के एक हिस्से को जलाने की बजाय वह उसमें सड़ने के लिए टमाटर और मूंगफली डाल देता था। फिर खेतों में चूहे आने देता था ताकि वे सड़ा हुआ अपशिष्ट खा लें, यह अपशिष्ट हटाने का एक प्राकृतिक तरीका था। (यदि चूहों की आबादी बहुत ज़्यादा हो जाती, तो उनके नियंत्रण के लिए वह बिल्लियां छोड़ देता!) उसने इसी तरह ज्वार की फसल भी सफलतापूर्वक उगाई। इसे जैविक खेती कह सकते हैं। बाज़ार में बेचने के लिहाज़ से मक्के और ज्वार की मात्रा और गुणवत्ता दोनों काफी अच्छी थी।
उसकी जैविक खेती चूहों पर निर्भर थी जो कवक या फफूंद जैसे आवश्यक आणविक घटकों के स्रोत थे, इसके अलावा और कुछ नहीं डाला गया। एक तरह से पूसा डीकंपोज़र गुड़, बेसन और स्वाभाविक रूप से पनपने वाली फफूंद के साथ जोंग्यू के तरीके का आधुनिक स्वरूप ही है!
दिल्ली, हरियाणा के खेतों में हुए परीक्षण में पूसा डीकंपोज़र सफल रहा है। संस्थान को पूसा डीकंपोज़र का परीक्षण पूर्वोत्तर भारत, जैसे त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश और मेघालय में भी करके देखना चाहिए, जहां आज भी स्लैश और बर्न (जिसे स्थानीय भाषा में झूम खेती कहते हैं) खेती की जाती है। यह इन क्षेत्रों के वायु गुणवत्ता के स्तर में भी सुधार करेगा (वर्तमान में त्रिपुरा के अगरतला का वायु गुणवत्ता स्तर मध्यम से अस्वस्थ के बीच है)।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/3ntfzw/article33150540.ece/ALTERNATES/FREE_660/22TH-SCIJHUM