प्रथम औद्योगिक क्रांति (वर्ष 1870) के समय से अब तक वैश्विक तापमान में लगभग 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। तापमान में बढ़ोतरी पेट्रोल, प्राकृतिक गैस, कोयला जैसे जीवाश्म र्इंधनों के दहन का परिणाम है, और इसी वजह से वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड (CO2) का स्तर 280 पीपीएम (पार्ट्स पर मिलियन) से बढ़कर 400 पीपीएम हो गया। गर्म होती जलवायु के कारण हिमनद (ग्लेशियर) पिघलने लगे और समुद्रों का जल स्तर बढ़ गया है। नेशनल जियोग्राफिक पत्रिका के 2 अक्टूबर के अंक में डेनियल ग्लिक आगाह करते हैं कि 2035 तक गढ़वाल (उत्तराखंड) के ग्लेशियर लगभग गायब हो सकते हैं!
कार्बन डाईऑक्साइड के बढ़ते स्तर से सागर अम्लीय भी हो गए हैं, जिससे समुद्री जीवों के खोल और कंकाल कमज़ोर पड़ रहे हैं (climate.org)। और भू-स्थल पर, कार्बन डाईऑक्साइड के बढ़ते स्तर के सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों तरह के प्रभाव पड़े हैं। कार्बन डाइऑक्साइड एक ‘ग्रीन हाउस गैस’ है जो वायुमंडल में सूर्य की गर्मी को रोक कर रखती है और तापमान बढ़ाती है। यह पौधों के प्रकाश संश्लेषण में सहायक होती है और पौधे अधिक वृद्धि करते हैं, लेकिन साथ ही यह पौधे की नाइट्रोजन अवशोषित करने की क्षमता को कम कर देती है जिससे फसलों की वृद्धि बाधित होती है (phys.org)।
लेकिन आने वाले सालों में बढ़ते कार्बन डाईऑक्साइड स्तर की वजह से से बढ़ी हुई गर्मी खाद्य सुरक्षा को कैसे प्रभावित करेगी? डी. एस. बेटिस्टी और आर. एल. नेलॉर ने वर्ष 2009 में साइंस पत्रिका में प्रकाशित अपने पेपर में इसी बारे में आगाह किया था। पर्चे का शीर्षक था: अप्रत्याशित मौसमी गर्मी से भविष्य की खाद्य असुरक्षा की ऐतिहासिक चेतावनी (DOI:10.1126/science.1164363)। पेपर में उन्होंने चेताया है कि उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों (जैसे भारत और उसके पड़ोसी देश, सहारा और उप-सहारा अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के कुछ हिस्सों) में फसलों की वृद्धि के मौसम में इतना अधिक तापमान फसलों की उत्पादकता को बहुत प्रभावित करेगा, और यही ‘सामान्य’ हो जाएगा। समुद्री जीवन और खाद्य सुरक्षा दोनों पर इस दोहरे हमले को देखते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और ब्राज़ील के राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो की नीतियां अक्षम्य हैं जिनमें जलवायु परिवर्तन को अनदेखा करके उद्योगों को बढ़ावा देने की बात है।
प्रायोगिक परीक्षण
वैश्विक तापमान और कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर में वृद्धि पौधों की वृद्धि और पैदावार को कैसे प्रभावित करते हैं? क्या ये पैदावार को बढ़ाते हैं, या क्या चयापचय प्रक्रिया में बाधा डालते हैं और उसे नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं? क्या हम प्रयोगशाला में कुछ मॉडल पौधों पर प्रयोग करके यह देख सकते हैं कि वर्तमान (सामान्य) तापमान और भावी उच्च तापमान पर पौधों में क्या होता है; इसी तरह क्या प्रायोगिक रूप से कार्बन डाईऑक्साइड के वर्तमान सामान्य स्तर और भावी उच्च स्तर का प्रभाव देखा जा सकता है?
जे. यू और उनके साथियों ने 2017 में फ्रंटियर्स इन प्लांट साइंस पत्रिका में प्रकाशित अपने शोध में ऐसे ही प्रयोग करके देखे थे, जिसका शीर्षक था: बढ़ी हुई कार्बन डाईऑक्साइड से बरमुडा घास में गर्मी में वृद्धि को सहन करने के चयापचयी तरीके (https://doi.org/10.3389/fpls.2017.01506)। उन्होंने पाया कि पौधे की ताप सहिष्णुता बेहतर हुई थी, और गर्मी के कारण होने वाले नुकसान में कमी आई थी। ये परिणाम दिलचस्प हैं लेकिन घास खरगोशों और मवेशियों जैसे जानवरों के लिए अच्छी है, हम मनुष्यों के लिए नहीं जिनके पास ना तो घास को पचाने वाला पेट है और ना ही लगातार बढ़ने वाले दांत।
वनस्पति शास्त्री घासों को C4 पौधे कहते हैं और खाद्यान्न (हमारे मुख्य भोजन) को C3 पौधे। दोनों तरह के पौधों में प्रकाश संश्लेषण अलग-अलग तरह से होता है। इसलिए उपरोक्त प्रयोग यदि सेम और फलीदार पौधों (जैसे चना, काबुली चना) और इसी तरह के अन्य अनाज पर किए जाएं तो उपयोगी होगा।
इस दिशा में, अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी इंटरनेशनल क्रॉप रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर दी सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स (ICRISAT) के हैदराबाद सेंटर के एक समूह ने प्रयोग करने का सोचा। उन्होंने देखा कि दो प्रकार के चने (देसी या बंगाली चना और काबुली चना जो मूल रूप से अफगानिस्तान से आया है) कार्बन डाईऑक्साइड के अलग-अलग स्तरों – 380 पीपीएम का वर्तमान स्तर, और 550 पीपीएम और 700 पीपीएम के उच्च स्तर – पर किस तरह व्यवहार करेंगे? उन्होंने इन परिस्थितियों में पौधे बोए, और वर्धी अवस्था में और पुष्पन अवस्था में (यानी अंकुरण के 15 दिन और 30 दिन बाद) इन्हें काट लिया गया। परमिता पालित द्वारा प्लांट एंड सेल फिज़ियोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन का शीर्षक है: बढ़े हुए कार्बन डाईऑक्साइड स्तर पर चनों में आणविक और भौतिक परिवर्तन (https: //academy.oup/pcp)।
पूर्व में वार्षनेय और उनका समूह नेचरबायोटेक्नॉलॉजी पत्रिका में चने के पूरे जीनोम का अनुक्रम प्रकाशित कर चुका था। शोधकर्ताओं ने इस संदर्भ में कम से कम 138 चयापचय तरीके पहचाने थे। इनमें मुख्य हैं शर्करा/स्टार्च चयापचय, क्लोरोफिल और द्वितीयक मेटाबोलाइट्स का जैव संश्लेषण। इनका अध्ययन करके वे उन तरीकों के बारे में पता कर सकते थे कि कैसे कार्बन डाईऑक्साइड का उच्च स्तर चने के पौधों की वृद्धि को प्रभावित करता है। उन्होंने पौधों की जड़ और तने की लंबाई (या पौधे की ऊंचाई) में उल्लेखनीय वृद्धि पाई। इसके अलावा कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर अधिक होने पर जड़ों की गठानों (जहां नाइट्रोजन को स्थिर करने वाले बैक्टीरिया रहते हैं) की संख्या भी प्रभावित हुई थी। गौरतलब है कि क्लोरोफिल संश्लेषण में कमी से पत्तियां जल्दी पीली हो जाती हैं और पौधे बूढ़े होने लगते हैं।
विभिन्न प्रतिक्रियाएं
शोधकर्ताओं ने एक दिलचस्प बात यह भी पाई कि कार्बन डाईऑक्साइड के उच्च स्तर के प्रति देसी चना और काबुली चना दोनों ने अलग-अलग तरह से प्रतिक्रिया दी। इस पर और अधिक विस्तार से अध्ययन की ज़रूरत है।
और अब, पहचाने गए 138 चयापचय तरीकों की जानकारी के आधार पर इस बात का गहराई से पता लगाया जा सकता है कि हम अणुओं या एजेंटों का उपयोग किस तरह करें कि किसी विशिष्ट प्रणाली को बढ़ावा देकर या बाधित करके, पौधों की वृद्धि और पैदावार बढ़ाई जा सके, और उन फलीदार पौधों के बारे में पता लगाया जा सके जो स्थानीय परिस्थितियों के लिए सबसे उपयुक्त हों। अब, जब नोबेल विजेता जे. डाउडना और ई. शारपेंटिए ने बताया है कि जीन को कैसे संपादित किया जा सकता है, तो यह समय है कि जीन संपादन को खास स्थानीय फलीदार पौधों पर आज़माया जाए!(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/omn6pb/article32882138.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_615/18TH-SCIGLOWARMjpg