चीन के दुर्लभ पक्षियों के बदलते इलाके

चीन में शौकिया पक्षी प्रेमियों की बढ़ती संख्या ने जलवायु परिवर्तन के नए पहलू को उजागर किया है। एक नए अध्ययन में पिछले 2 दशकों से अधिक समय से चीन के नागरिक-वैज्ञानिकों द्वारा एकत्रित डैटा की मदद से पक्षियों की लगभग 1400 प्रजातियों का एक नक्शा तैयार किया गया है। इसमें लुप्तप्राय रेड-क्राउन क्रेन से लेकर पाइड फाल्कोनेट प्रजातियां शामिल हैं। इस डैटा के आधार पर शोधकर्ताओं ने 2070 तक के हालात का अनुमान लगाया गया है। इस नक्शे में प्रकृति संरक्षण के लिहाज़ से 14 क्षेत्रों को प्राथमिकता की श्रेणी में रखा गया है।    

गौरतलब है कि पक्षी प्रेमी नागरिकों द्वारा उपलब्ध कराए गए वैज्ञानिक डैटा का पहले भी शोधकर्ताओं ने उपयोग किया है लेकिन चीन में पहली बार इसका उपयोग राष्ट्रव्यापी स्तर पर किया जा रहा है। देखा जाए तो चीन में पिछले 20 वर्षों में पक्षी प्रेमियों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है। कई विश्वविद्यालयों में भी इनकी टीमें तैयार की गई हैं। पक्षी प्रेमी अपने अनुभवों को bird report नामक वेबसाइट पर दर्ज करते हैं, जिसकी सटीकता और प्रामाणिकता की जांच अनुभवी पक्षी विशेषज्ञ करते हैं।

इस डैटा का उपयोग करते हुए पेकिंग युनिवर्सिटी के रुओचेंग हू और उनके सहयोगियों ने 1000 से अधिक प्रजातियों के फैलाव क्षेत्र के नक्शे तैयार किए। इसके बाद उन्होंने दो परिदृश्यों, वर्ष 2100 तक 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि और 3.7 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक की वृद्धि, के साथ उनके फैलाव में आने वाले बदलाव को देखने के लिए एक मॉडल तैयार किया। इस मॉडल में उन्होंने दैनिक और मासिक तापमान, मौसमी वर्षा और ऊंचाई जैसे परिवर्तियों को शामिल किया है। प्लॉस वन पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार तापमान में अधिक वृद्धि होने से कई पक्षी उत्तर की ओर या अधिक ऊंचे क्षेत्रों की ओर प्रवास कर जाएंगे। हालांकि लगभग 800 प्रजातियां ऐसी होंगी जिनके इलाके में विस्तार होगा, लेकिन इनमें से अधिकांश क्षेत्र सघन आबादी वाले और औद्योगिक क्षेत्र होंगे जो पक्षियों के लिए पूरी तरह से अनुपयुक्त हैं। मोटे तौर पर 240 प्रजातियों के इलाके में कमी आएगी।

ऐसे में सबसे अधिक प्रवासी पक्षी और सिर्फ चीन में पाए जाने वाली पक्षी प्रभावित होंगे। इस पेपर के लेखकों के अनुसार प्रतिष्ठित रेड-क्राउन क्रेन का इलाका भी सिमटकर आधा रह जाएगा। चीन के मौजूदा राष्ट्रीय आरक्षित क्षेत्र इन पक्षियों के प्राकृत वासों की रक्षा के लिए पर्याप्त नहीं है। इस विनाश से बचने के लिए अध्ययन में इंगित 14 प्राथमिकता वाले क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

नए आरक्षित क्षेत्रों के विकास में भी काफी चुनौतियों का सामना करना होगा। इसके लिए स्थानीय हितधारकों को आश्वस्त करना होगा और भीड़-भाड़ वाले क्षेत्रों में सीमाओं को तय करना होगा। विशेषकर ऐसे नए तरीकों का पता लगाना होगा जिससे शहरी उद्यानों और कृषि क्षेत्रों को पक्षियों के अनुकूल बनाया जा सके।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रसायन शास्त्र का नोबेल जेनेटिक कैंची के लिए – डॉ. सुशील जोशी

पिछले कुछ वर्षों में रसायन शास्त्र के नोबेल पुरस्कार कई बार ऐसी खोजों/आविष्कारों के लिए दिए गए हैं जिनका सम्बंध जीव विज्ञान से है। जैसे वर्ष 2018 का नोबेल एंज़ाइमों के निर्देशित विकास, 2017 का नोबेल जैविक अणुओं की संरचना पता करने के लिए इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी की तकनीक में परिष्कार तथा 2014 का फ्लोरेसेंस सूक्ष्मदर्शी तकनीक के विकास के लिए, 2015 का डीएनए की मरम्मत की क्रियाविधि की खोज के लिए दिए गए थे। इसी सिलसिले में इस वर्ष का रसायन नोबेल जीनोम संपादन (सरल शब्दों में काट-छांट) की नई तकनीक के विकास के लिए दिया गया। दिलचस्प बात है कि दोनों विजेता महिलाएं हैं – एमैनुएल शारपेंटिए और जेनिफर डाउडना।

तो इस वर्ष के नोबेल की विषयवस्तु पर आते हैं। सबसे पहली बात तो यह बताना ज़रूरी है कि उक्त दोनों शोधकर्ता जेनेटिक कैंची की खोज में नहीं निकले थे बल्कि वे तो बैक्टीरिया की इम्यून सिस्टम को बेहतर समझना चाहते थे। इस मायने में कहा जा सकता है कि उनकी खोज आकस्मिक संयोग का परिणाम थी, लेकिन साथ ही यह भी कहना होगा कि संयोग का फलित होना शोधकर्ता की दिमागी तैयारी के बगैर संभव नहीं है। अन्यथा सेब तो रोज़ गिरते रहते हैं।

दरअसल जेनेटिक कैंची की खोज करीब 8 वर्ष पहले हुई थी और तब से यह जीव वैज्ञानिकों का महत्वपूर्ण औज़ार बन चुकी है। इसके उपयोग के कई उदाहरण हैं। उनकी बात बाद में करेंगे।

शारपेंटिए वर्ष 2002 से स्ट्रेप्टोकॉकस प्योजेंस का अध्ययन करती रही हैं। यह बैक्टीरिया मनुष्यों में कई रोग पैदा करता है: टॉन्सिलाइटिस और इम्पेटिगो जैसी उपचार-योग्य बीमारियों से लेकर सेप्सिस व शरीर के मुलायम ऊतकों का नाश जैसी जानलेवा स्थितियां। शारपेंटिए समझना चाहती थीं कि रोगजनक बैक्टीरिया इतने संक्रामक क्यों होते हैं और वे एंटीबायोटिक दवाइयों के खिलाफ प्रतिरोध कैसे हासिल कर लेते हैं।

शारपेंटिए ने सबसे पहले तो यह देखा कि इस बैक्टीरिया में जीन्स का नियमन कैसे होता है यानी कब कौन-सा जीन चालू या बंद होगा, इसका निर्णय कैसे होता है।

इसी दौरान जेनिफर डाउडना का अनुभव आरएनए पर काम करने का था। आम तौर पर वैज्ञानिक मानते थे कि वे आरएनए की भूमिका व कामकाज को भली-भांति समझते हैं। लेकिन तभी अचानक पता चला कि कोशिकाओं में छोटे-छोटे आरएनए अणु होते हैं जो जीन्स की गतिविधि का नियमन करते हैं। इस प्रक्रिया को आरएनए दखलंदाज़ी (आरएनए इंटरफरेंस) कहते हैं। आरएनए के क्षेत्र में अपने अनुभव के साथ डाउडना आरएनए दखलंदाज़ी के नए क्षेत्र में काम करने लगीं।

इसी समय शोधकर्ताओं ने एक मज़ेदार बात पता की थी – जब काफी अलग-अलग बैक्टीरिया तथा एक अन्य किस्म के सूक्ष्मजीव आर्किया की जेनेटिक सामग्री की तुलना की गई तो समझ में आया कि उनमें डीएनए के कुछ अनुक्रम बार-बार दोहराए जाते हैं और काफी संरक्षित रखे जाते हैं। एक ही कोड बार-बार आता है।

बारंबार प्रकट होने वाले इन अनुक्रमों की शृंखला को क्लस्टर्ड रेग्यूलरली इंटरस्पस्पर्ड शॉर्ट पैलिंड्रॉमिक रिपीट्स (संक्षेप में CRISPR – क्रिस्पर) कहते हैं। यानी ये ऐसे अनुक्रम हैं जो सामान्य जेनेटिक कोड में बीच-बीच में कई बार प्रकट होते हैं। और उससे भी ज़्यादा हैरत की बात तो यह थी कि क्रिस्पर में मौजूद ये अनुक्रम विभिन्न वायरसों के जेनेटिक कोड से मेल खाते हैं। फिलहाल ऐसा माना जाता है कि जब कोई बैक्टीरिया वायरस संक्रमण के बाद जीवित रह पाता है, तो वह वायरस के जीनोम का एक टुकड़ा अपने जीनोम में जोड़ लेता है – यह भविष्य में उस संक्रमण को याद रखने में मदद करता है। यानी यह बैक्टीरिया की इम्यून सिस्टम का हिस्सा है। यह काम कैसे करती है?

बैक्टीरिया में इम्यून सिस्टम की बात ने जीव विज्ञान में तहलका मचा दिया। यह बात डाउडना को उत्साहित करने को पर्याप्त थी। साथ ही शोधकर्ताओं ने यह भी पता किया था कि बैक्टीरिया में कुछ ऐसे जीन्स भी होते हैं जो क्रिस्पर से सम्बद्ध होते हैं जिन्हें नाम दिया गया क्रिस्पर-सम्बद्ध यानी क्रिस्पर-एसोसिएटेड (कास) जीन्स। डाउडना यह देखकर रोमांचित हुर्इं कि ये कास जीन्स उन जीन्स जैसे ही हैं जो डीएनए को खोलने व काटने में माहिर होते हैं। तो उन्होंने कई सारे कास जीन्स खोज निकाले। क्रिस्पर-कास सिस्टम इतनी रोमांचक थी कि कई शोधकर्ता इस पर काम कर रहे थे। धीरे-धीरे स्पष्ट हुआ कि बैक्टीरिया की इम्यून सिस्टम कई रूपों में होती है। डाउडना ने जिस सिस्टम पर काम किया था वह वर्ग 1 की सिस्टम थी और काफी जटिल थी। इसमें वायरस को पछाड़ने के लिए कई प्रोटीन्स का उपयोग होता है।

दूसरी ओर, वर्ग 2 की सिस्टम अपेक्षाकृत सरल थी और उसमें मात्र एक प्रोटीन की ज़रूरत होती है। शारपेंटिए इसी पर शोध कर रही थीं। उन्होंने स्ट्रेप्टोकॉकस प्योजेंस का अध्ययन करते हुए पता किया था कि इस बैक्टीरिया में एक छोटा आरएनए अणु काफी मात्रा में पाया जाता है और इस आरएनए का जेनेटिक कोड बैक्टीरिया के जीनोम में पाए गए क्रिस्पर अनुक्रम से बहुत मेल खाता है। इनकी समानता को देखते हुए शारपेंटिए को लगा कि हो न हो, इनमें कुछ सम्बंध है। आगे विश्लेषण से पता चला कि अज्ञात आरएनए का एक हिस्सा क्रिस्पर के उस हिस्से से मेल खाता है जो दोहराया जाता है। दिक्कत यह थी कि शारपेंटिए ने इससे पहले क्रिस्पर सिस्टम पर काम नहीं किया था लेकिन अब उनके समूह ने स्ट्रेप्टोकॉकस प्योजेंस पर गहन शोध आरंभ कर दिया। इस बैक्टीरिया की सिस्टम वर्ग 2 की होती है और इसमें वायरस डीएनए को काटने के लिए सिर्फ एक प्रोटीन (कास-9) की आवश्यकता होती है। इस अज्ञात आरएनए अणु को नाम दिया गया है ट्रांस-एक्टिवेटिंग क्रिस्पर आरएनए और इसकी भूमिका निर्णायक होती है। इसी मोड़ पर शारपेंटिए और डाउडना के बीच सहयोग शुरू हुआ। सहयोग का आधार स्पष्ट था – स्ट्रेप्टोकॉकस प्योजेंस की अपेक्षाकृत सरल सिस्टम में कास-9 प्रोटीन की भूमिका अध्ययन।

विचार यह बना कि संभवत: क्रिस्पर आरएनए तो वायरस के डीएनए को पहचानने का काम करता है और कास-9 वह कैंची है जो डीएनए को काटती है। लेकिन जब इसके आधार पर परखनलियों में प्रयोग किए गए तो ऐसा कुछ नहीं हुआ। तो क्या प्रयोग की परिस्थितियों में कुछ खामी है या क्या कास-9 की भूमिका कुछ और ही है?

तमाम प्रयोगों और दिमाग खपाने के बाद इन दो शोधकर्ताओं ने तय किया कि वे प्रयोग में ट्रांस-एक्टिवेटेड आरएनए में मिलाकर देखेंगे। जैसे ही यह मिलाया गया डीएनए दो टुकड़ों में बंट गया। इसके साथ ही शारपेंटिए और डाउडना ने बैक्टीरिया में एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया की खोज कर ली थी।

अगला काम यह किया गया कि क्रिस्पर आरएनए और ट्रांस-एक्टिवेटेड आरएनए को जोड़कर एक ही अणु बना दिया। इसे उन्होंने गाइड-आरएनए नाम दिया। तो अब जेनेटिक कैंची का एक सरलीकृत रूप मिल चुका था।

इस कैंची की मदद से शोधकर्ता विभिन्न जीवों में जीनोम को मनचाहे स्थानों पर काट सकते हैं। यानी वे किसी भी जीव के डीएनए में से कोई जीन काटकर अलग कर सकते हैं। डाउडना और शारपेंटिए ने यह करके भी दिखा दिया। 2012 में इस जेनेटिक कैंची की खोज जीव वैज्ञानिकों के लिए एक महत्वपूर्ण औज़ार बन गई। सिर्फ बैक्टीरिया नहीं, मनुष्य जैसे विकसित जीव की कोशिकाओं में भी इसकी मदद से जेनेटिक परिवर्तन करना संभव हो गया।

आप देख ही सकते हैं कि यह जीव वैज्ञानिकों के हाथों में एक ऐसा औज़ार है जिसके दुरुपयोग की काफी संभावनाएं हैं। फसल सुधार, जेनेटिक उपचार जैसे क्षेत्रों में इसके उपयोग ज़ाहिर हैं। आनुवंशिक रोगों के संदर्भ में भी इसके उपयोग पर विचार किया जा रहा है। लेकिन इसकी मदद से कई ऐसे परिवर्तन भी किए जा सकते हैं, जिनके साथ नैतिक सवाल उठेंगे। चीन के एक शोध समूह ने क्रिस्पर-कास-9 का उपयोग करके जेनेटिक रूप से परिवर्तित बच्चे पैदा करने का दावा किया था। इस तकनीक ने जैव नैतिकता के नए सवाल प्रस्तुत किए हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र से मधुमेह के उपचार की संभावना

ब तक मधुमेह के उपचार में औषधियों का या इंसुलिन का उपयोग किया जाता है। लेकिन अब सेल मेटाबॉलिज़्म पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन एक अन्य तरीके से मधुमेह के उपचार की संभावना जताता है। शोधकर्ताओं ने पाया है कि टाइप-2 मधुमेह से पीड़ित चूहों को स्थिर विद्युत और चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में लाने पर उनमें इंसुलिन संवेदनशीलता बढ़ गई और रक्त शर्करा के स्तर में कमी आई। टाइप-2 मधुमेह वह स्थिति होती है जब शरीर में इंसुलिन बनता तो है लेकिन कोशिकाएं उसका ठीक तरह से उपयोग नहीं कर पातीं। दूसरे शब्दों में कोशिकाएं इंसुलिन-प्रतिरोधी हो जाती हैं, इंसुलिन के प्रति उनकी संवेदनशीलता कम हो जाती है।

आयोवा युनिवर्सिटी की वाल शेफील्ड लैब में कार्यरत केल्विन कार्टर कुछ समय पूर्व शरीर पर ऊर्जा क्षेत्र के प्रभाव का अध्ययन कर रहे थे। इसके लिए उन्होंने ऐसे उपकरण बनाए जो ऐसा चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करें जो पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र से 10 से 100 गुना अधिक शक्तिशाली और एमआरआई के चुम्बकीय क्षेत्र के हज़ारवें हिस्से के बीच का हो। चूहे इन धातु-मुक्त पिंजरों में उछलते-कूदते और वहां एक स्थिर विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र बना रहता। इस तरह चूहों को प्रतिदिन 7 या 24 घंटे चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में रखा गया।

एक अन्य शोधकर्ता सनी हुआंग को मधुमेह पर काम करते हुए चूहों में रक्त शर्करा का स्तर मापने की ज़रूरत थी। इसलिए कार्टर ने अपने अध्ययन के कुछ चूहे, जिनमें टाइप-2 मधुमेह पीड़ित चूहे भी शामिल थे, हुआंग को अध्ययन के लिए दे दिए। हुआंग ने जब चूहों में रक्त शर्करा का स्तर मापा तो पाया कि जिन चूहों को विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में रखा गया था उन चूहों के रक्त में अन्य चूहों की तुलना में ग्लूकोज़ स्तर आधा था।

कार्टर को आंकड़ों पर यकीन नहीं आया। तब शोधकर्ताओं ने चूहों में शर्करा स्तर दोबारा जांचा। लेकिन इस बार भी मधुमेह पीड़ित चूहों की रक्त शर्करा का स्तर सामान्य निकला। इसके बाद हुआंग और उनके साथियों ने मधुमेह से पीड़ित तीन चूहा मॉडल्स में विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र का प्रभाव देखा। तीनों में रक्त शर्करा का स्तर कम था और वे इंसुलिन के प्रति अधिक संवेदनशील थे। और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा कि चूहे विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में सात घंटे रहे या 24 घंटे।

पूर्व में हुए अध्ययनों से यह पता था कि कोशिकाएं प्रवास के दौरान विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र का उपयोग करती हैं, जिसमें सुपरऑक्साइड नामक एक अणु की भूमिका होती है। सुपरऑक्साइड आणविक एंटीना की तरह कार्य करता है और विद्युत व चुंबकीय संकेतों को पकड़ता है। देखा गया है कि टाइप-2 डायबिटीज़ के मरीज़ों में सुपरऑक्साइड का स्तर अधिक होता है और इसका सम्बंध रक्त वाहिनी सम्बंधी समस्याओं और मधुमेह जनित रेटिनोपैथी से है।

आगे जांच में शोधकर्ताओं ने चूहों के लीवर से सुपरऑक्साइड खत्म करके उन्हें विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र में रखा। इस समय उनके रक्त शर्करा के स्तर और इंसुलिन की संवेदनशीलता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इससे लगता है कि सुपरऑक्साइड कोशिका-प्रवास के अलावा कई अन्य भूमिकाएं निभाता है।

शोधकर्ताओं की योजना मनुष्यों सहित बड़े जानवरों पर अध्ययन करने और इसके हानिकारक प्रभाव जांचने की है। यदि कारगर रहता है तो यह एक सरल उपचार साबित होगा।(स्रोत फीचर्स)

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