आजकल टेक्नॉलॉजी के बदलने की रफ्तार को देखकर आश्चर्य होता
है कि प्राचीन मनुष्य सात लाख वर्ष तक एक ही तकनीक से पत्थर के औज़ार बनाते रहे। अब
तक इसके कारण स्पष्ट नहीं थे लेकिन अब, केन्या स्थित एक प्राचीन झील की तलहटी से
प्राप्त डैटा से पता चला है कि लगभग चार लाख साल पहले जलवायु परिवर्तन, टेक्टॉनिक
हलचल और तेज़ी से बदलती पशु आबादी ने प्राचीन मनुष्यों में सामाजिक और तकनीकी
बदलावों को जन्म दिया था। इनमें नए किस्म के औज़ार और दूर-दूर तक व्यापार का फैलाव
शामिल थे।
लगभग 12 लाख साल पहले केन्या के ओलोरगेसेली
बेसिन में होमो प्रजातियों ने पत्थर के किनारों को तराशकर कुल्हाड़ियां बनाना शुरू
किया। ये कुल्हाड़ियां आकार में अंडाकार और नुकीली होती थीं। इनसे कई तरह के काम
किए जा सकते थे, जैसे जानवर मारना, खाल निकालना,
लकड़ी काटना और भूमि
से कंद निकालना। लगभग सात लाख सालों तक इसी एक्यूलीयन तकनीक से औज़ार बनते रहे। इस
दौरान जलवायु लगभग स्थिर बनी रही थी। लेकिन इसके बाद औज़ार बनाने की तकनीक में
अचानक परिवर्तन हुए। लेकिन इन परिवर्तनों के कारण अस्पष्ट थे।
2012 में नेशनल म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल
हिस्ट्री के रिक पॉट्स और उनके दल ने कूरा बेसिन के निकट एक प्राचीन झील की तलछट
से ड्रिल करके 139 मीटर लंबा कोर निकाला था। यह कोर लगभग 10 लाख सालों में जमा हुआ
था। कोर का अध्ययन कर शोधकर्ताओं ने इस क्षेत्र की जलवायु और पारिस्थितिकी की एक
समयरेखा खींची। डायटम और शैवाल की मौजूदगी से झील के जल स्तर और लवणता के बारे में
पता चला। पत्तियों के मोम से पता चला कि आसपास जंगल था या घास का मैदान।
पता चला कि कोर बनने के शुरुआती छ: लाख
वर्षों तक पर्यावरण स्थिर रहा। वहां प्रचुर मात्रा में मीठे पानी की झील और विशाल
घास का मैदान था जिसमें जिराफ, भैंस और हाथी जैसे बड़े जानवर पाए जाते थे।
फिर, लगभग चार लाख साल पहले स्थिति बिगड़ी। मीठे पानी की आपूर्ति
में उतार-चढ़ाव होने लगे, जिससे यह स्थान तेज़ी से घास के मैदान और
जंगलों में बदलता रहा। पिछले पांच लाख से तीन लाख साल के बीच कूरा बेसिन की झील आठ
बार सूखी थी। जीवाश्म रिकॉर्ड से पता चलता है कि तब घास का मैदान जगह-जगह सूखने
लगा और दूर से दिखाई देने वाले बड़े जानवरों की जगह चिंकारा, हिरण
जैसे छोटे और फुर्तीले जानवरों ने ले ली।
पूर्व अध्ययनों से भी शोधकर्ता जानते थे कि लगभग 5 लाख साल पहले ज्वालामुखी विस्फोट के कारण इस क्षेत्र में दरारें पड़ी थी जिससे बड़ी झील बह गई और छोटे बेसिन बने। इनमें बहुत जल्दी बाढ़ आती थी और वे उतनी ही जल्दी सूख भी जाते थे। साइंस एडवांसेस पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि कुल मिलाकर इस क्षेत्र के मनुष्यों ने अस्थिर वातावरण का सामना किया। जिससे उन्होंने लावा पत्थर से ऐसे औज़ार बनाने शुरू किए कि वे छोटे और फुर्तीले जानवरों का शिकार कर पाएं। इन ब्लेडनुमा औज़ारों को लकड़ी में बांधकर भाले की तरह इस्तेमाल किया जाता था। इन पत्थरों का स्रोत कई किलोमीटर दूर था, इसलिए उनका आवागमन क्षेत्र बढ़ा और संचार के अधिक जटिल तरीके विकसित हुए और सामाजिक नेटवर्क स्थापित हुए। वैसे एक मत यह है कि एक क्षेत्र के आधार पर निष्कर्ष को व्यापक स्तर पर लागू करने में सावधानी रखनी चाहिए।(स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/main_core_1280p.jpg?itok=kISHT_Tt
हाल ही में किए गए अध्ययनों से कोविड-19 से होने वाली मौतों
और वायु प्रदूषण के सम्बंध का पता चला है। शोधकर्ताओं के अनुसार वैश्विक स्तर पर
कोविड-19 से होने वाली 15 प्रतिशत मौतों का सम्बंध लंबे समय तक वायु प्रदूषण के
संपर्क में रहने से है। जर्मनी और साइप्रस के विशेषज्ञों ने संयुक्त राज्य अमेरिका
और चीन के वायु प्रदूषण, कोविड-19 और सार्स (कोविड-19 जैसी एक अन्य
सांस सम्बंधी बीमारी) के स्वास्थ्य एवं रोग के आकड़ों का विश्लेषण किया है। यह रिपोर्ट
कार्डियोवैस्कुलर रिसर्च नामक जर्नल में प्रकाशित हुई है।
इस डैटा में विशेषज्ञों ने वायु में
सूक्ष्म कणों की उपग्रह से प्राप्त जानकारी के साथ पृथ्वी पर उपस्थित प्रदूषण
निगरानी नेटवर्क का डैटा शामिल किया ताकि यह पता लगाया जा सके कि कोविड-19 से होने
वाली मौतों के पीछे वायु प्रदूषण का योगदान किस हद तक है। डैटा के आधार पर
विशेषज्ञों का अनुमान है कि पूर्वी एशिया,
जहां हानिकारक
प्रदूषण का स्तर सबसे अधिक है, में कोविड-19 से होने वाली 27 प्रतिशत
मौतों का दोष वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य पर हुए असर को दिया जा सकता है। यह असर
युरोप और उत्तरी अमेरिका में क्रमश: 19 और 17 प्रतिशत पाया गया। पेपर के लेखकों के
अनुसार कोविड-19 और वायु प्रदूषण के बीच का यह सम्बंध बताता है कि यदि हवा
साफ-सुथरी होती तो इन अतिरिक्त मौतों को टाला जा सकता था।
यदि कोविड-19 वायरस और वायु प्रदूषण से
लंबे समय तक संपर्क एक साथ आ जाएं तो स्वास्थ्य पर,
विशेष रूप से ह्रदय
और फेफड़ों पर, काफी हानिकारक प्रभाव पड़ सकते हैं। टीम ने यह भी बताया कि
सूक्ष्म-कणों के उपस्थित होने से फेफड़ों की सतह के ACE2 ग्राही की सक्रियता
बढ़ जाती है और ACE2 ही सार्स-कोव-2 के कोशिका में प्रवेश का ज़रिया है। यानी मामला दोहरे हमले का
है – वायु प्रदूषण फेफड़ों को सीधे नुकसान पहुंचाता है और ACE2 ग्राहियों को अधिक
सक्रिय कर देता है जिसकी वजह से वायरस का कोशिका-प्रवेश आसान हो जाता है।
अन्य वैज्ञानिकों का मत है कि हवा में
उपस्थित सूक्ष्म-कण इस रोग को बढ़ाने में एक सह-कारक के रूप में काम करते हैं। एक
अनुमान है कि कोरोनावायरस से होने वाली कुल मौतों में से यू.के. में 6100 और
अमेरिका में 40,000 मौतों के लिए वायु प्रदूषण को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।
देखने वाली बात यह है कि कोविड-19 के लिए तो टीका तैयार हो जाएगा लेकिन खराब वायु गुणवत्ता और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कोई टीका नहीं है। इनका उपाय तो केवल उत्सर्जन को नियंत्रित करना ही है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.aljazeera.com/wp-content/uploads/2020/10/000_8RT793.jpg?resize=770%2C513
मायोपिया (निकट-दृष्टिता) उस स्थिति को कहते हैं जब व्यक्ति
को दूर का देखने में कठिनाई होती है। यह पूरे भारत में महामारी का रूप लेता जा रहा
है; दक्षिण-पूर्वी एशिया में तो यह समस्या और भी गंभीर है।
मायोपिया किन्हीं हानिकारक कीटाणुओं के संक्रमण की वजह से नहीं बल्कि संभवत:
मायोपिक जीन्स की भूमिका और आसपास की परिस्थितियों (जैसे लंबे समय तक पास से देखने
वाले काम करना और/या धूप से कम संपर्क) के कारण होता है। कोविड-19 की तरह इसने अभी
वैश्विक महामारी का रूप नहीं लिया है लेकिन हमारी परिवर्तित जीवन शैली (कमरों में
सिमटी जीवन शैली) और खुली धूप में बिताए समय और स्तर में आई कमी के कारण यह एक वैश्विक
महामारी बन सकती है। वक्त आ गया है कि मायोपिया से मुकाबले के उपाय किए जाएं।
मायोपिया क्या है?
मायोपिया या निकट-दृष्टिता तब होती है जब
कॉर्निया और लेंस की फोकस करने की क्षमता के मुकाबले आंखों का नेत्रगोलक बड़ा हो
जाता है, जिससे फोकस रेटिना की सतह पर ना होकर उसके पहले कहीं होने
लगता है। इस कारण दूर की चीज़ें साफ दिखाई नहीं देतीं जबकि नज़दीक की चीज़ें स्पष्ट
दिखाई दे सकती हैं, जैसे पढ़ने या कंप्यूटर पर काम करने में कोई परेशानी नहीं
आती (allaboutvision.com)। वर्ष 2000 में दुनिया की लगभग 25
प्रतिशत आबादी निकट-दृष्टिता से पीड़ित थी। वर्ष 2050 तक (यानी अब से 30 वर्ष बाद)
50 प्रतिशत से अधिक लोगों के मायोपिया-पीड़ित होने की संभावना है।
वर्तमान में भारत में मायोपिया के बढ़ते
प्रसार के आधार पर एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों का अनुमान है कि
यदि मायोपिया को नियंत्रित करने के उपाय न किए गए तो वर्ष 2050 तक भारत के सिर्फ
शहरी क्षेत्रों में रहने वाले 5-15 वर्ष की उम्र के लगभग 6.4 करोड़ बच्चे मायोपिया
से पीड़ित होंगे।
इस समस्या की रोकथाम के कई उपायों के बारे
में हम पहले से ही जानते हैं। लेकिन हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता है कि बाहर या
खुले में कम समय बिताने से मायोपिया हो सकता है। दिन के समय अंदर की तुलना में
बाहर (खुले में) सूर्य का प्रकाश 10 से 100 गुना अधिक होता है। बाहर की रोशनी कई
तरह से आंखों को मायोपिक होने से बचाने में मदद करती है। जैसे: (1) यदि आप किसी
खुली जगह पर हैं और पास देखने वाला कोई काम नहीं कर रहे हैं तो आंखों पर ज़ोर कम
पड़ता है। (2) बाहरी वातावरण रेटिना के किनारों के विभिन्न भागों को एक समान प्रकाश
देता है और बाहर के परिवेश में इंद्रधनुष के सभी रंगों (तथाकथित vivgyor) से समान संपर्क होता है, जबकि अंदर के कृत्रिम प्रकाश में कुछ
विशिष्ट तरंगदैर्ध्य नहीं होतीं। (3) सूर्य के तेज़ प्रकाश में आंखों की पुतली छोटी
हो जाती है जो धुंधलापन कम करती है, और फोकस रेंज बढ़ाती है। (4) सूर्य के
प्रकाश के संपर्क से अधिक विटामिन डी बनाने में मदद मिलती है। (5) अधिक प्रकाश का
संपर्क डोपामाइन हार्मोन स्रावित करता है जो नेत्रगोलक की लंबाई नियंत्रित करता है; यह
छोटा रहेगा तो मायोपिया नहीं होगा। (इस सम्बंध में,
करंट साइंस में प्रकाशित रोहित ढकाल और पवन के.
वर्किचार्ला का पेपर देखें: बाहर रहने का वक्त बढ़ाकर भारत के स्कूली बच्चों में
मायोपिया के बढ़ते प्रसार को थामा जा सकता है)।
परिवार और शिक्षकों की तरफ से बच्चों पर
पढ़ाई में श्रेष्ठ प्रदर्शन का बढ़ता दबाव, अत्यधिक होमवर्क,
प्रवेश परीक्षाओं के
लिए देर शाम या स्कूल के पहले की कोचिंग क्लासेस हाई स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों
से सूरज की रोशनी छीन रहे हैं जिससे मायोपिया महामारी फैल रही है, और
मध्य और पूर्वी एशियाई उपमहाद्वीप में एक उप-वैश्विक महामारी का रूप ले रही है।
सुझाव
एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट में
मायोपिया का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं,
रोहित ढकाल और पवन
वर्किचार्ला, ने सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति के कुछ सुझाव दिए हैं। नई
राष्ट्रीय शिक्षा नीति के साथ इन सुझावों को अभी लागू किया जा सकता है। ये सुझाव हैं:
सभी स्कूलों में प्रायमरी से लेकर हाई स्कूल तक के सभी छात्रों के लिए हर दिन एक
घंटे का अवकाश (रेसेस) हो, जिस दौरान कक्षाओं के कमरे बंद कर दिए जाएं
ताकि बच्चे धूप के संपर्क में रह सकें। रेसेस पाठ्यक्रम का व्यवस्थित अंग हो।
स्कूलों में खेल का पर्याप्त मैदान अनिवार्य हो। पालकों में स्वस्थ दृष्टि के
महत्व और स्मार्टफोन जैसी पास से देखी जाने वाली डिवाइसेस के उपयोग पर नियंत्रण के
बारे में जागरूकता पैदा की जाए। प्रत्येक इलाके के सामुदायिक केंद्र के लिए सप्ताह
में एक बार या कम से कम महीने में दो बार बाहर के कार्यक्रम आयोजित करने की
सिफारिश की जाए/प्रचार किया जाए।
ये सभी बहुत सामान्य से सुझाव हैं मगर
आर्थिक, वित्तीय, भवन सम्बंधी और सामाजिक कारणों से अब तक इन
पर अमल नहीं किया गया है। लेकिन राज्य और केंद्र सरकारों के अधीन स्कूलों और
कॉलेजों में तो कम से कम ये प्रयास किए जाने चाहिए। भविष्य हमें निहार रहा है –
कहीं ऐसा ना हो कि हम एक से अधिक मायनों में दूरदर्शिता के अभाव से ग्रसित हो
जाएं।
हाल ही में साइंटिफिक रिपोर्ट्समें
एक्स. एन. लियू द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि चीन में स्कूल जाने वाले
बच्चों में देर से सोना मायोपिया का एक कारण हो सकता है। इस पेपर में शोधकर्ता
बताते हैं कि कई वर्षों के अध्ययन से मायोपिया के लिए ज़िम्मेदार कई कारकों के बारे
में पता चला है। जैसे, फैमिली हिस्ट्री, जेनेटिक कारण,
शहरी जीवन शैली या
परिवेश। अध्ययन यह भी बताता है कि सोने की कम अवधि और अच्छी नींद ना होना भी
मायोपिया को जन्म दे सकते हैं। ये शरीर की सर्केडियन लय (जैविक घड़ी) में बाधा
डालते हैं, खासकर मस्तिष्क में,
और रेटिना को तनाव
देते हैं। जल्दी सोना और गहरी नींद लेना मायोपिया की रोकथाम के उपाय हैं।
अंत में, हम जानते हैं कि वेब कक्षाओं के माध्यम से ऑनलाइन शिक्षण और टेलीविज़न के माध्यम से पढ़ाई मुश्किल हो रही है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब बच्चों के लिए जिनके पास स्मार्टफोन नहीं है। यह पद्धति लॉकडाउन के दिनों के लिए तो मुनासिब हो सकती है लेकिन हमेशा के लिए शिक्षण की पद्धति नहीं बनना चाहिए। स्कूल खोले जाने चाहिए और दिन में कक्षाएं लगना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/79ajco/article33048775.ece/ALTERNATES/FREE_660/08TH-SCIBOY-SPECSjpg
बिजली चालित वाहन यानी ऐसे दो या अधिक पहियों वाले वाहन जो
उनमें लगी बैटरी में संग्रहित विद्युत की शक्ति से चलते हैं। इन वाहनों को चलाने
के लिए पेट्रोल या डीज़ल की ज़रूरत नहीं होती। इस मायने में पर्यावरण पर इनका प्रभाव
और इनके पर्यावरणीय पदचिंह न्यूनतम होते हैं।
आज तक बैटरी ऐसे वाहनों में अंतर्निहित
होती थी और इनकी उम्र पूरी हो जाने (यानी जब इनमें पर्याप्त मात्रा में विद्युत
संग्रहित नहीं रह पाती) पर इनकी जगह उसी किस्म की बैटरी की व्यवस्था करनी होती थी।
इसका मतलब था कि वाहन निर्माता (मूल उपकरण निर्माता) को बैटरी बदलने में भी कमाई
की उम्मीद रहती थी। चूंकि बैटरी उसी निर्माता से खरीदनी होती थी, इसलिए
कीमतों को लेकर प्रतिस्पर्धा ज़्यादा नहीं होती थी। उपभोक्ता की दृष्टि से यह बहुत
लोकप्रिय नहीं था।
भारत में विद्युत वाहनों के लोकप्रिय न
होने का एक कारण यह भी रहा है कि इनके भरोसे लंबी दूरी की यात्रा मुश्किल है।
पेट्रोल/डीज़ल वाहन में तो फिर से र्इंधन भरवाना आसान होता है क्योंकि देश भर में
पेट्रोल पंपों का जाल बिछा हुआ है और कदम-कदम पर पेट्रोल पंप मिल जाते हैं। बिजली
वाहनों के साथ यह संभव हो सकता था बशर्ते कि रिचार्ज-योग्य बैटरी को उपभोक्ता
स्वयं बदल सकते। ऐसा होता तो व्यक्ति अपने साथ एक से अधिक बैटरियां लेकर चलता और
ज़रूरत पड़ने पर बदल लेता। फिर मंज़िल तक पहुंचने के बाद उन सबको एक साथ चार्ज कर
लेता। लेकिन फिलहाल स्थिति यह है कि बैटरी बदली नहीं जा सकती, रीचार्ज
ही करना होता है।
इस आलेख में हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि
सड़क परिवहन व राजमार्ग मंत्रालय ने हाल ही में एक अधिसूचना जारी की है जो उपरोक्त
मसले को संबोधित करती है। हालांकि इस अधिसूचना से कुछ कंपनियां खुश हैं लेकिन अन्य
बहुत गदगद नहीं हैं।
अधिसूचना
13 अगस्त के दिन सड़क परिवहन व राजमार्ग
मंत्रालय ने एक अधिसूचना जारी करके बगैर बैटरी विद्युत वाहनों की बिक्री व पंजीयन
की अनुमति दे दी है। अधिसूचना के मुताबिक,
बैटरियां अब स्वतंत्र
रूप से बेची व पंजीकृत की जा सकेंगी। दिलचस्प बात इस अधिसूचना का वक्त है क्योंकि
कोविड-19 की वजह से ऑटो विक्रेताओं की उम्मीदों पर पानी फिर गया था और यह अधिसूचना
विद्युत वाहनों तथा यातायात के निजी उपायों में नई रुचि पैदा करेगी।
सवाल यह है कि विद्युत वाहनों के संदर्भ
में बैटरी कितनी महत्वपूर्ण है। कहा जा सकता है कि बैटरी के बिना कोई विद्युत वाहन
पहियों पर खड़ा एक ढांचा मात्र है। एक अच्छी बैटरी आपको अपने गंतव्य तक पहुंचाने के
अलावा लगातार कुशलतापूर्वक वाहन को शक्ति देती है और फीडबैक भी उपलब्ध कराती है।
उपभोक्ता की दृष्टि से देखें तो बगैर बैटरी के विद्युत वाहन खरीदना बेवकूफी होगी।
तो फिर सरकार ने ऐसी अधिसूचना क्यों जारी की?
भारत सरकार को उम्मीद है कि इस अधिसूचना से
बैटरियों की अदला-बदली को लेकर हिचक कम होगी। लेकिन इसने बैटरी के मानकों और
सुरक्षा को लेकर व्यापक बहस को जन्म दिया है। अधिसूचना के पीछे मुख्य रूप से दो
बातें हैं:
1. आशा है कि इससे बैटरियों की अदला-बदली
को प्रोत्साहन मिलेगा और इसके चलते चार्जिंग का टाइम घंटों से घटकर मिनटों में रह
जाएगा।
2. उम्मीद है कि इससे विद्युत वाहनों की
शुरुआती कीमतों में कमी आएगी और इनकी मांग बढ़ेगी। ज़ाहिर है ऐसे वाहनों का उपयोग
बढ़ने से प्रदूषण की समस्या से निपटने में मदद मिलेगी।
विद्युत वाहन व सम्बंधित क्षेत्रों के कुछ
लोगों ने अधिसूचना का स्वागत किया है। उनका कहना है कि विद्युत वाहनों में से
बैटरी को हटा देने से ऐसे वाहनों की शुरुआती कीमतों में जो कमी आएगी उससे व्यापार
के नए मॉडल्स के लिए रास्ते खुलेंगे। उद्योग के विशेषज्ञों का मत है कि रीचार्ज
करने की बजाय बैटरी की अदला-बदली से चार्जिंग का समय बहुत कम हो जाएगा और यह एक
बड़ा लाभ होगा।
विरोध
देखा जाए,
तो यह समझना मुश्किल
है कि क्यों विद्युत वाहन निर्माता इस विचार से खुश नहीं हैं क्योंकि बैटरी को अलग
करके वाहनों की कीमत में कमी से मांग में जो वृद्धि पैदा होगी, वह
उद्योग के लिए लाभदायक ही होगा। लेकिन लगता है कि मामला इतना सीधा-सादा भी नहीं
है। कम कीमत के साथ सुरक्षा और गारंटी के मुद्दे जुड़े हैं। विद्युत वाहनों से जुड़ी
बैटरियों पर 2-5 साल की गारंटी होती है। मूल उपकरण निर्माताओं का कहना है कि
अदला-बदली योग्य बैटरियां होंगी तो वे बैटरी के कामकाज और सुरक्षा के अलावा स्वयं
वाहन के लिए भी ऐसी गारंटी नहीं दे पाएंगे।
निर्माता अपने वाहन की सुरक्षा की जांच
अपनी पसंद की बैटरी के साथ करते हैं। इससे उन्हें बैटरी के पॉवर और एक बार चार्ज
करने पर तय किए गए फासले को लेकर वायदे करने में मदद मिलती है। लेकिन जब उपभोक्ता
को वाहन के लिए कोई भी बैटरी चुनने की छूट मिल जाएगी तो निर्माता वाहन के प्रदर्शन
को लेकर कोई वादा नहीं कर पाएंगे। स्वयं वाहन भी ठीक तरह से काम नहीं कर पाएगा
क्योंकि हो सकता है कुछ बैटरियां रीचार्जिंग किए बगैर वाहन को ज़्यादा दूरी तक ले
जाएं। कई बार ऐसा भी होता है कि निर्माता पूरे वाहन को किसी बैटरी-विशेष के हिसाब
से डिज़ाइन करते हैं ताकि वह उस बैटरी से अधिकतम शक्ति का दोहन कर सके। जब बैटरी को
वाहन से स्वतंत्र कर दिया जाएगा, तो किसी भी वाहन को इस तरह बनाना होगा कि
वह नाना प्रकार की बैटरियों पर चल सके। इसका मतलब होगा कि शायद वाहन बैटरी से
यथेष्ट शक्ति का दोहन न कर सके।
वर्तमान में,
बैटरी-संलग्न वाहनों
में निर्माता वाहन के साथ-साथ बैटरी की भी गारंटी देते हैं। यह उपभोक्ता के लिए एक
आश्वासन होता है कि जब पहली बैटरी अपना जीवन काल पूरा कर लेगी तो नई बैटरी लगाने
पर वाहन नए जैसा प्रदर्शन देगा। यह कारोबारी के लिए भी एक किस्म का आश्वासन होता
है कि बैटरी बदलने में भी उनकी कमाई होगी। यदि बैटरी वाहन में एकीकृत न हुई तो
वाहन निर्माता उसके लिए गारंटी नहीं दे सकेगा। और उपभोक्ता को किसी खामी के लिए
वाहन निर्माता तथा बैटरी निर्माता को अलग-अलग जवाबदेह ठहराना होगा। बैटरी और वाहन
के इस पृथक्करण के बाद शायद वाहन निर्माता वाहन के लिए भी पहले जैसी गारंटी न दे
पाएं।
वाहन निर्माताओं को बैटरी के व्यापार चक्र
से बाहर किया जाना भी रास नहीं आएगा क्योंकि ऐसा होने पर बैटरी बदलने में उनकी कोई
भूमिका नहीं रहेगी जबकि बैटरी ही सबसे महत्वपूर्ण और सबसे ज़्यादा बदला जाने वाले
घटक होगा।
कुछ लोग इस अधिसूचना का विरोध टैक्स नीति
के नज़रिए से भी कर रहे हैं। जहां विद्युत वाहनों पर जीएसटी 5 प्रतिशत है, वहीं
बैटरी पर 18 प्रतिशत जीएसटी आरोपित किया जाता है। इस तरह से उपभोक्ताओं और
काफिला-मालिकों के लिए बगैर बैटरी का वाहन खरीदने को लेकर कोई स्पष्ट प्रलोभन नहीं
है। यदि भारत सरकार चाहती है कि एक सेवा के रूप में बैटरी के कारोबार को बढ़ावा
मिले तो टैक्स पर फिर से विचार करना होगा। लेकिन इस अधिसूचना के बाद विद्युत
वाहनों और बैटरियों पर टैक्स के लिहाज़ से कोई संशोधन नहीं किया गया है। यानी नई
नीति में निजी उपभोक्ताओं और काफिला-मालिकों के लिए प्रोत्साहन का अभाव बना हुआ
है।
इसी सिलसिले में विद्युत वाहनों पर सबसिडी
का सवाल भी है। भारत सरकार विद्युत वाहनों की कीमतें कम रखने के लिए सबसिडी देती
है ताकि पर्यावरण-स्नेही यातायात को बढ़ावा मिले। लेकिन इस अधिसूचना ने वाहन और
बैटरी के बीच दरार उत्पन्न कर दी है। फिलहाल स्थिति यह है कि सबसिडी अंतिम उत्पाद
पर दी जाती है, उसके पुर्ज़ों पर नहीं। इसका मतलब यह हुआ कि मात्र वाहन पर
सबसिडी दी जाएगी, लेकिन बैटरी पर नहीं क्योंकि वह एक घटक है। इस संदर्भ में
सबसिडी के ढांचे पर भी पुनर्विचार की ज़रूरत होगी।
उपभोक्ता
हालांकि इन कारोबार के इन दो मॉडल्स पर
तनातनी चल रही है लेकिन अंतिम उपभोक्ता के लिहाज़ से कई फायदे नज़र आते हैं:
1. किसी परिवार के लिए विद्युत वाहन की
शुरुआती कीमत में उल्लेखनीय कमी आएगी।
2. उपभोक्ता अब एकाधिक विद्युत वाहन खरीद
सकेंगे और उन्हें उतनी ही संख्या में अलग-अलग बैटरियां नहीं खरीदनी होंगी।
3. बैटरी चार्ज करने की बजाय बैटरी बदलना
अधिक सुविधाजनक होगा। यात्रा पर निकलते समय आपको सिर्फ एक स्पेयर बैटरी रखना होगी।
4. उपभोक्ताओं को अब विभिन्न निर्माताओं
द्वारा बनाई गई बैटरियों में से चुनने की छूट होगी। वे अपनी ज़रूरत और क्रय क्षमता
के हिसाब से बैटरी चुन सकेंगे।
व्यापारिक दृष्टि से भी कई संभावित फायदे
हैं। काफिला-मालिक अब बैटरी निर्माताओं के साथ गठबंधन कर सकते हैं ताकि वे उन्हें
वाहन निर्माताओं की अपेक्षा बेहतर बैटरियां मुहैया करवाएं। इससे व्यापारिक वाहन
मालिक जहां बैटरी निर्माताओं को व्यापार के अवसर उपलब्ध कराएंगे, वहीं
उन्हें बैटरी की गुणवत्ता के लिए जवाबदेह भी बनाएंगे।
यहां एक सवाल यह भी उठता है कि बैटरी-मुक्त
होने से वाहन की शुरुआती कीमत में कमी कैसे आएगी। कहा जा रहा है कि उपभोक्ता अब
बाज़ार से अपनी ज़रूरत और क्रय क्षमता के हिसाब से कोई भी बैटरी खरीद सकेगा। इसका
मतलब है कि वह वाहन और बैटरी का ऐसा संयोजन चुन सकेगा जो उससे सस्ता होगा जब वाहन
निर्माता ही बैटरी चुनते थे। यह भी सही है कि बैटरी-रहित वाहन उस वाहन से तो सस्ता
ही होगा जो बैटरी के साथ आता है। इस स्थिति में यदि किसी परिवार के पास पहले से ही
कई सारे विद्युत वाहन हैं तो उसे एक नई बैटरी में निवेश करने की ज़रूरत नहीं होगी
क्योंकि वह पुराने वाहनों की बैटरी का उपयोग कर सकेगा। इस तरह से वाहन की कीमत और
भी कम हो जाएगी।
बैटरी बतौर सेवा
यह सही है कि यह अधिसूचना बैटरी को एक सेवा
के बाज़ार के रूप में उछाल दे सकती है लेकिन उद्योग के विशेषज्ञ कई खामियों और इसके
दुरुपयोग की संभावनाओं की ओर इशारा कर रहे हैं। जैसे,
हो सकता है कि कुछ
लोग ई-रिक्शा या ई-स्कूटर को सस्ता बनाने की जुगाड़ में सस्ती किंतु अस्थिर लेड-एसिड
बैटरी लगा दें। यह भी संभव है कि कंपनी या व्यक्ति को बैटरी की अदला-बदली के दौरान
घटिया बैटरी दे दी जाए। कुल मिलाकर चिंता मानकीकरण को लेकर है।
बहरहाल,
बैटरी-बतौर-सेवा के
मॉडल के लिए दो ही विकल्प हैं। या तो शहरों और कस्बों में बड़ी संख्या में
बैटरी-बदल स्टेशन हों या हर स्तर पर ज़बर्दस्त एकीकरण हो। इन दोनों ही विकल्पों के
लिए भारी मात्रा में पूंजीगत निवेश की ज़रूरत होगी।
इस संदर्भ में यह बताया जा सकता है कि चीन
में कई प्रांतीय सरकारें एनआईओ जैसे विशाल विद्युत वाहन निर्माताओं के साथ गठजोड़
कर रही हैं ताकि वे अधिक से अधिक स्टेशन स्थापित करें। एनआईओ ने एक योजना शुरू की
है कि कार खरीदते समय उपभोक्ता एक स्वतंत्र बैटरी-योजना के ग्राहक बन जाएं। भारतीय
विद्युत वाहन बाज़ार के लिए एक समाधान यह हो सकता है कि वाहन निर्माताओं, बैटरी-सेवा
प्रदाताओं, काफिला-मालिकों और बैटरी निर्माताओं का एक सहयोगी संघ बने।
लेकिन ऐसा कोई संघ निकट भविष्य में तो बनता नहीं दिखता क्योंकि वाहन निर्माता
बैटरी की अदला-बदली के स्थान पर त्वरित चार्जिंग टेक्नॉलॉजी पर काफी निवेश कर रहे
हैं।
भारत का विद्युत वाहन बाज़ार नाज़ुक स्थिति में है, जहां न तो वाहन निर्माताओं ने मुख्य भूमिका अपनाई है और न ही सरकार की कार्रवाई बात को आगे ले जा पा रही है। देश की विद्युत वाहन नीति अधकचरे उपायों और कदम पीछे खींचने के सिलसिले में अटक गई है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdni.autocarindia.com/Utils/ImageResizer.ashx?n=https%3A%2F%2Fcdni.autocarindia.com%2FExtraImages%2F20191007120422_Plug-n-Go-EV-charge-1.jpg&h=795&w=1200&c=0
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने अपनी
रिपोर्ट में कहा है कि हर साल लगभग 80 लाख टन प्लास्टिक कूड़ा-कचरा समुद्रों में
फेंका जाता है। समुद्री किनारों, उनकी सतहों और पेंदे में जो कूड़ा-कचरा
इकट्ठा होता है उसमें से 60 से 90 फीसदी हिस्सा प्लास्टिक होता है। यह समुद्री
कूड़ा-कचरा 800 से भी ज़्यादा समुद्री प्रजातियों के लिए खतरा है। इनमें से 15
प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं। पिछले 20 वर्षों से तो प्लास्टिक के बारीक
कणों (माइक्रोप्लास्टिक) और सिर्फ एक बार ही इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक को
फेंके जाने से समस्या और भी ज़्यादा गंभीर हो गई है। प्लास्टिक के बारीक कण बहुत
बड़ा खतरा पैदा करते हैं। चूंकि ये आंखों से दिखाई नहीं देते, इसलिए
इनकी तरफ किसी का ध्यान भी नहीं जाता है।
समुद्र व समुद्री जीवों को प्लास्टिक
प्रदूषण से बचाने के लिए विश्व भर के कई संगठन प्रयासरत हैं लेकिन समुद्र में
मौजूद प्लास्टिक कचरा कम होने की बजाय लगातार बढ़ता जा रहा है। इसी संदर्भ में हाल
ही में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि गहरे समुद्र में अनुमानित 1.4 करोड़ टन
माइक्रोप्लास्टिक मौजूद है। प्रति वर्ष महासागरों में बड़ी मात्रा में कचरा एकत्रित
होता है। ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय विज्ञान एजेंसी ने अध्ययन में बताया है कि
समुद्र में मौजूद छोटे प्रदूषकों की मात्रा पिछले साल किए गए एक स्थानीय अध्ययन की
तुलना में 25 गुना अधिक थी।
माइक्रोप्लास्टिक 5 मिलीमीटर से छोटे
प्लास्टिक के कण होते हैं जो जीवों के लिए हानिकारक हैं। प्लास्टिक सूक्ष्म कणों
में टूटता है जो सरलता से एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंच सकता है।
माइक्रोप्लास्टिक बनने का मुख्य स्रोत ओपन डंपिंग,
लैंडफिल साइट और
विनिर्माण इकाइयां है। माइक्रोप्लास्टिक जल प्रवाह के साथ भूजल प्रणाली में भी
पहुंच जाता है।
सामान्यत: घरेलू अपशिष्ट जल में
फाइबर/सिंथेटिक ऊन के कपड़े धोने से छोटे-छोटे कणों का प्रवाह होता है। विशेष रूप
से ऐसे एक्वीफर्स में जहां सतह का पानी और भूजल संपर्क में होते हैं।
माइक्रोब्लेड्स एक प्रकार का माइक्रोप्लास्टिक है,
जो पॉलीएथिलीन
प्लास्टिक के बहुत छोटे टुकड़े होते हैं, जिन्हें स्वास्थ्यवर्धक और सौंदर्य
उत्पादों (जैसे कुछ क्लींज़र और टूथपेस्ट) में मिलाया जाता है। ये छोटे कण आसानी से
जल फिल्टरेशन प्रणालियों से गुजर जाते हैं। कुछ सफाई और सौंदर्य प्रसाधन उत्पादों
के उपयोग के बाद ये अपशिष्ट जल के साथ मिल सकते हैं,
जो कुछ समय बाद
मिट्टी-भूजल प्रणाली में मिल जाते हैं और पर्यावरण प्रदूषित करते हैं।
ऑस्ट्रेलिया में वैज्ञानिक शोध की सरकारी
एजेंसी – कॉमनवेल्थ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च ऑर्गनाइज़ेशन – के शोधकर्ताओं
ने दक्षिण ऑस्ट्रेलियाई तट से 380 कि.मी. की दूरी तक 3,000 मीटर गहराई तक के नमूने
इकट्ठे किए। इस कार्य के लिए लिए उन्होंने एक रोबोटिक पनडुब्बी का उपयोग किया।
नमूनों में, एक ग्राम सूखी समुद्री तलछट में 14 प्लास्टिक कण तक देखे
गए। इसके आधार पर वैज्ञानिकों ने गणना की कि समुद्र तल पर माइक्रोप्लास्टिक्स की
कुल वैश्विक मात्रा 1.4 करोड़ टन है। एजेंसी ने इसे सी-फ्लोर माइक्रोप्लास्टिक्स का
पहला वैश्विक अनुमान माना है।
फ्रंटियर इन मरीन साइंस पत्रिका में प्रकाशित इस शोध के वैज्ञानिकों
ने कहा है कि जहां तैरते हुए कचरे की मात्रा ज़्यादा थी,
उस क्षेत्र में
समुद्र के पेंदे में माइक्रोप्लास्टिक के टुकड़े अधिक पाए गए। अध्ययन का नेतृत्व
करने वाले जस्टिन बैरेट ने कहा, जो प्लास्टिक कचरा समुद्र में जाता है उसी
से माइक्रोप्लास्टिक बनता है। समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के लिए तत्काल
समाधान खोजने की ज़रूरत है क्योंकि इससे पारिस्थितिकी तंत्र, वन्य
जीव और वन्य जीवन के साथ मानव स्वास्थ्य भी बुरी तरह प्रभावित होता है।
प्लास्टिक से समुद्री जीवों के शरीर पर
प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। क्वीन्स युनिवर्सिटी,
बेलफास्ट और लिवरपूल
जॉन मूर्स युनिवर्सिटी द्वारा किया गया शोध जर्नल बायोलॉजी लेटर्स में
प्रकाशित हुआ है, जिसमें हर्मिट केंकड़ों पर प्लास्टिक के प्रभाव का अध्ययन
किया गया है। ये केंकड़े समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र का एक अहम हिस्सा होते हैं।
ये केंकड़े स्वयं के लिए कवच विकसित नहीं
करते, बल्कि अपने शरीर को बचाने के लिए घोंघे की कवच का उपयोग
करते हैं। एक हर्मिट केंकड़े को बढ़ने में सालों लग जाते हैं। जैसे-जैसे यह बढ़ता
जाता है, उसे अपने लिए नए बड़े कवच की आवश्यकता होती है। यह कवच इन
केंकड़ों को बढ़ने, प्रजनन करने और सुरक्षा देने में मदद करते हैं। पर इस नए
अध्ययन से पता चला है कि जैसे ही ये केंकड़े माइक्रोप्लास्टिक के संपर्क में आते
हैं, उनके द्वारा शैलों को पहचानने और उनमें घुसने की क्षमता
कमज़ोर होती जाती है।
इससे स्पष्ट है कि माइक्रोप्लास्टिक जैव
विवधता को हमारे अनुमान से कहीं ज़्यादा नुकसान पहुंचा रहा है। इसलिए यह अत्यंत
आवश्यक हो गया है कि माइक्रोप्लास्टिक से हो रहे प्रदूषण पर रोक लगाई जाए।
एक शोध से ज्ञात हुआ है कि पानी और नमक में
माइक्रोप्लास्टिक्स मौजूद होते हैं। शायद आप सिर्फ नमक के साथ ही हर साल 100 माइक्रोग्राम
से अधिक माइक्रोप्लास्टिक्स खा रहे हों। यह जानकारी हाल ही में आईआईटी, मुंबई
के शोध में सामने आई है।
आईआईटी,
मुंबई के सेंटर फॉर
एन्वॉयरमेंट साइंस एंड इंजीनियरिंग के दो सदस्यों द्वारा किए गए शोध में नमक के
शीर्ष 8 ब्रांड्स की जांच की गई। जांच के नमूनों में प्रति किलोग्राम नमक में
63.76 माइक्रोग्राम माइक्रोप्लास्टिक पाया गया। लोकप्रिय नमक ब्रांड्स के सैंपल
में जो कण निकले, उनमें 63 फीसदी प्लास्टिक और 37 फीसदी प्लास्टिक फाइबर्स
थे। विशेषज्ञों के अनुसार माइक्रोप्लास्टिक के कुछ कण 5 माइक्रॉन से भी छोटे होते
हैं जो नमक उत्पादकों के ट्रीटमेंट से भी आसानी से पार निकल जाते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देशों
के आधार पर एक व्यस्क आदमी को प्रतिदिन कम से कम 5 ग्राम नमक खाना चाहिए। इस आधार
पर साल भर में सिर्फ नमक के ज़रिए हम करीब 100 माइक्रोग्राम माइक्रोप्लास्टिक्स खा
रहे हैं। और तो और, हमारे शरीर में माइक्रोप्लास्टिक्स पहुंचने का यह एकमात्र
रास्ता नहीं है।
माइक्रोप्लास्टिक से बचने का कोई रास्ता नहीं है। कॉन्टेमिनेशन ऑफ इंडियन सी साल्ट्स विद माइक्रोप्लास्टिक्स एंड ए पोटेंशियल प्रिवेंशन स्ट्रेटजी में पाया गया कि यह वैश्विक परिघटना है एवं सूचना के अभाव के कारण अभी इससे बचाव की कोई रणनीति उपलब्ध नहीं है। सभी समुद्री जल स्रोत प्रदूषित हो रहे हैं। जब इस प्रदूषित जल को किसी भी सामग्री के उत्पादन में प्रयोग किया जाता है, तब ये माइक्रोप्लास्टिक उसमें आ जाते हैं। परंतु यदि हम प्लास्टिक का उपयोग कम से कम से करें और कम कचरा पैदा करें और साथ ही इसे समुद्र में न फेंका जाए, तो काफी हद तक इससे बचा जा सकता है। इसके अतिरिक्त सामान्य रेत फिल्टरेशन के ज़रिए समुद्री नमक में माइक्रोप्लास्टिक्स के ट्रांसफर को कम किया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.shopify.com/s/files/1/1094/4634/articles/Microplastic-Pollution_1400x.progressive.jpg?v=1561410999
हाल ही में दी लैंसेट पत्रिका में शोधकर्ताओं के एक
समूह ने आगाह किया है कि कोविड-19 के कुछ टीकों से लोगों में एड्स वायरस (एचआईवी)
के प्रति संवेदनशीलता बढ़ सकती है।
दरअसल साल 2007 में एडिनोवायरस-5 (Ad5)
वेक्टर का उपयोग करके एचआईवी के लिए एक टीका बनाया गया था,
जिसका
प्लेसिबो-नियंत्रित परीक्षण किया गया था। परीक्षण में यह टीका असफल रहा और पाया
गया कि जिन लोगों में एचआईवी संक्रमण की उच्च संभावना थी,
टीका दिए जाने के बाद
वे लोग एड्स के वायरस की चपेट में अधिक आए। इन नतीजों को देखते हुए दक्षिण अफ्रीका
में चल रहे इसी टीके के अन्य अध्ययन को भी रोक दिया गया था।
अब,
कोविड-19 की रोकथाम
के लिए जो टीके बनाए जा रहे हैं उनमें से कुछ टीकों को बनाने में अलग-अलग
एडिनोवायरस का उपयोग किया जा रहा है। विभिन्न एडिनोवायरस मामूली सर्दी-जुकाम, बुखार, डायरिया
से लेकर तंत्रिका सम्बंधी समस्याओं तक के लिए ज़िम्मेदार हो सकते हैं। लेकिन
कोविड-19 के चार प्रत्याशित टीकों में वेक्टर के रूप में एडिनोवायरस-5 का उपयोग
किया गया है। इनमें से एक टीका चीन की केनसाइनो कंपनी द्वारा बनाया गया है, जिसका
परीक्षण रूस और पाकिस्तान में लगभग 40,000 लोगों पर चल रहा है। इसके अलावा सऊदी
अरब, ब्राज़ील, चिली और मेक्सिको में भी इसका परीक्षण करने
का विचार है। एक अन्य टीका रूस के गेमालेया रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा तैयार किया
गया है जिसमें उन्होंने Ad5 और Ad26 वेक्टर के संयोजन
का उपयोग किया है। इम्यूनिटीबायो नामक कंपनी द्वारा बनाए गए Ad5
आधारित टीके को भी अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन द्वारा मानव परीक्षण की मंज़ूरी
मिल गई है। दक्षिण अफ्रीका में भी इसका परीक्षण होने की संभावना है।
चूंकि पूर्व में Ad5 आधारित टीके से
लोगों में एचआईवी संक्रमण का जोखिम बढ़ गया था और अब कोविड-19 के लिए बने Ad5
आधारित टीकों का परीक्षण जल्द ही दक्षिण अफ्रीका जैसी उन जगहों पर भी शुरू होने की
संभावना है जहां एचआईवी का प्रसार अधिक है,
इसलिए एचआईवी टीके के
अध्ययन में शामिल शोधकर्ताओं ने कोविड-19 के इन टीकों से एचआईवी संक्रमण का जोखिम
बढ़ने की चेतावनी दी है। कोविड-19 रोकथाम नेटवर्क में शामिल लॉरेंस कोरे का मत है
कि यदि कोविड-19 टीके के अन्य विकल्प हैं तो एचआईवी के जोखिम वाली जगहों पर ऐसे
टीके नहीं चुनना चाहिए जिनसे एचआईवी का जोखिम और बढ़े। हालांकि यह तो पूरी तरह
स्पष्ट नहीं है कि Ad5 आधारित टीका कैसे एचआईवी का जोखिम बढ़ाता है लेकिन लैंसेट
में बताया गया है शायद यह एचआईवी इम्यूनिटी कम कर देता है,
एड्स वायरस की
प्रतियां बनाना बढ़ा देता है या अधिक कोशिकाएं मार गिराता है।
वहीं, इम्यूनिटीबायो कंपनी का कहना है कि पूर्व अध्ययन के परिणाम अस्पष्ट थे। नए टीके में Ad5 वायरस से चार ऐसे जीन्स हटा दिए गए हैं जो इस संभावना को ट्रिगर कर सकते हैं। उपयुक्त Ad5 वायरस 90 प्रतिशत उत्परिवर्तित है। इम्यूनिटीबायो ने दक्षिण अफ्रीका के वैज्ञानिकों और नियामकों के साथ वहां अपने टीके का परीक्षण करने के जोखिमों पर चर्चा की है। और उन्हें लगता है कि कम जोखिम वाले लोगों पर इसका परीक्षण किया जा सकता है। हो सकता है टीका वास्तव में प्रभावी हो।(स्रोत फीचर्स)
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दो जंतुओं में भोजन एवं प्रजनन के लिए झगड़ा होना आम बात है
परंतु झगड़े से पूरे समुदाय का दो पक्षों में बंटवारा और गुटों का निर्माण जंतुओं
के समाज में कम ही देखा गया है। कठफोड़वा (मेलानिर्पस फार्मिसिवोरस) समूह
में रहने और प्रजनन करने वाले पक्षी हैं। शरद ऋतु के आगमन पर ये मेवे (नट्स)
एकत्रित कर, पेड़ों में बनाए गए छेदों (भंडार) में रख देते हैं। इससे
भीषण ठंड के समय भोजन की उपलब्धता उनके जीवित रहने की संभावना और प्रजननशीलता
दोनों को बढ़ाती है। प्रजननकारी सदस्य की असामयिक मृत्यु और उसके इलाके को हथियाने
के लिए नर या मादाओं के बीच सत्ता संघर्ष प्रारंभ हो जाता है। पड़ोसी दल भी इस
गुटबाज़ी में शरीक हो जाते हैं।
हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक स्वचालित
रेडियो-टेलीमेट्री प्रणाली का उपयोग कर कठफोड़वों में भोजन तथा प्रजनन के लिए
संघर्ष, सत्ता परिवर्तन और सामाजिक ढांचे को बेहतर तरीके से समझा
है। ओल्ड डोमेनियन युनिवर्सिटी के बायोलॉजिकल साइंस विभाग में कार्यरत डॉ. सहस
बर्वे का शोध करंट बायोलॉजी नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। डॉ.
बर्वे और उनकी टीम ने अपना शोध कार्य कैलिफोर्निया और दक्षिण-पश्चिम संयुक्त राज्य
अमेरिका के तटीय जंगलों में किया।
कठफोड़वा का समाज जटिल होता है। प्रत्येक
परिवार में अधिकतम 7 वयस्क नर होते हैं जो रिश्ते में भाई होते हैं। पूरा परिवार
लगभग 15 एकड़ के शाहबलूत (ओक) पेड़ों के इलाके की रखवाली करके एक साथ रहता है।
प्रत्येक नर एक से तीन मादाओं से प्रजनन करता है जो अक्सर दूर के रिश्ते की बहनें
होती हैं। इनके परिवार में बाद में जन्मे सदस्य भी होते हैं जिन्हें हेल्पर या
मददगार कहते हैं। मददगार सदस्य अपने मूल परिवार के साथ 5-6 वर्षों तक बने रहकर
अपने सहोदरों के लिए दाई मां यानी पालन-पोषण का कार्य करते हैं। जब वे खुद का
परिवार बनाने जितने बड़े हो जाते हैं तो नए इलाके खोजकर मूल परिवार से दूर चले जाते
हैं। यदि हेल्पर दाई मां के कार्य छोड़कर उसी समूह में प्रजनन का प्रयास करते हैं
तो सत्ता संघर्ष प्रारंभ हो जाता है। ऐसी परिस्थितियां तब निर्मित होती हैं जब
मुखिया और उसकी मादाएं वृद्ध और कमज़ोर हो जाते हैं।
डॉ. बर्वे और उनकी शोध टीम ने 2018 से 2019
के बीच मादाओं के अभाव के कारण तीन कठफोड़वा परिवारों के सत्ता संघर्ष का नज़दीकी से
अध्ययन किया। इलाके पर अपना अधिकार जमाने के लिए बलशाली मादा या नर कठफोड़वों के
बीच आपस में युद्ध होता है। प्रतिदिन युद्ध प्रारंभ होने के पहले ही सभी कठफोड़वों
को संदेश मिल जाता है और तमाशा-ए-युद्ध को देखने के लिए एक ही घंटे में दूर-दूर से
अनेक तमाशबीन कठफोड़वा जमा हो जाते हैं। प्रत्येक कठफोड़वा पंख फैलाकर तथा चोंच से
हमले कर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करता है और प्रतिद्वंदी को खून से लथपथ, अंधा
तथा अपंग कर देता है। विजेता कठफोड़वा को दर्जन भर परिवारों की लगभग 50 मददगार
मादाओं का साथ मिलता हैं।
नई वयस्क कठफोड़वा मादाएं प्रतिदिन आसपास के इलाकों से आकर युद्ध करती थीं और वापस अपने आवास में लौट जाती थीं। मादाएं कई बार चार दिनों तक लगातार दस-दस घंटों तक युद्ध करती थीं। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि इस दौरान सभी तमाशबीन कठफोड़वा अपने समाज के सदस्यों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं। दर्शकों के रूप में मौजूद रहने से उनके लिए सहोदरों के साथ नए गठजोड़, नए इलाके, योद्धाओं का स्वास्थ्य, इलाकों की संपन्नता आदि का आकलन करना संभव होता हैं। दर्शक के रूप में आए कठफोड़वा अपने अनाज के भंडार, इलाकों की रखवाली, रोज़मर्रा के कार्य और युद्ध-स्थल तक पहुंचने की थकान जैसे जोखिम भी मोल ले लेते हैं। ऐसा लगता है कि इतने जोखिम लेने के फायदे भी होंगे। वैज्ञानिकों को लगता है कि कठफोड़वा समाज के प्रत्येक सदस्य का व्यवहार पूरे समाज को प्रभावित करता है।(स्रोत फीचर्स)
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प्रथम औद्योगिक क्रांति (वर्ष 1870) के समय से अब तक वैश्विक
तापमान में लगभग 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। तापमान में बढ़ोतरी पेट्रोल, प्राकृतिक
गैस, कोयला जैसे जीवाश्म र्इंधनों के दहन का परिणाम है, और
इसी वजह से वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड (CO2) का स्तर 280 पीपीएम (पार्ट्स पर मिलियन) से बढ़कर 400 पीपीएम हो गया। गर्म होती जलवायु के कारण हिमनद
(ग्लेशियर) पिघलने लगे और समुद्रों का जल स्तर बढ़ गया है। नेशनल जियोग्राफिक
पत्रिका के 2 अक्टूबर के अंक में डेनियल ग्लिक आगाह करते हैं कि 2035 तक गढ़वाल
(उत्तराखंड) के ग्लेशियर लगभग गायब हो सकते हैं!
कार्बन डाईऑक्साइड के बढ़ते स्तर से सागर
अम्लीय भी हो गए हैं, जिससे समुद्री जीवों के खोल और कंकाल कमज़ोर पड़ रहे हैं (climate.org)। और भू-स्थल पर, कार्बन डाईऑक्साइड के बढ़ते स्तर के
सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों तरह के प्रभाव पड़े हैं। कार्बन
डाइऑक्साइड एक ‘ग्रीन हाउस गैस’ है जो वायुमंडल में सूर्य की गर्मी को रोक कर रखती
है और तापमान बढ़ाती है। यह पौधों के प्रकाश संश्लेषण में सहायक होती है और पौधे
अधिक वृद्धि करते हैं, लेकिन साथ ही यह पौधे की नाइट्रोजन अवशोषित करने की क्षमता
को कम कर देती है जिससे फसलों की वृद्धि बाधित होती है (phys.org)।
लेकिन आने वाले सालों में बढ़ते कार्बन
डाईऑक्साइड स्तर की वजह से से बढ़ी हुई गर्मी खाद्य सुरक्षा को कैसे प्रभावित करेगी? डी.
एस. बेटिस्टी और आर. एल. नेलॉर ने वर्ष 2009 में साइंस पत्रिका में
प्रकाशित अपने पेपर में इसी बारे में आगाह किया था। पर्चे का शीर्षक था: अप्रत्याशित
मौसमी गर्मी से भविष्य की खाद्य असुरक्षा की ऐतिहासिक चेतावनी (DOI:10.1126/science.1164363)। पेपर में
उन्होंने चेताया है कि उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों (जैसे भारत और
उसके पड़ोसी देश, सहारा और उप-सहारा अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के कुछ
हिस्सों) में फसलों की वृद्धि के मौसम में इतना अधिक तापमान फसलों की उत्पादकता को
बहुत प्रभावित करेगा, और यही ‘सामान्य’ हो जाएगा। समुद्री जीवन और खाद्य सुरक्षा
दोनों पर इस दोहरे हमले को देखते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और ब्राज़ील
के राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो की नीतियां अक्षम्य हैं जिनमें जलवायु परिवर्तन को
अनदेखा करके उद्योगों को बढ़ावा देने की बात है।
प्रायोगिक परीक्षण
वैश्विक तापमान और कार्बन डाईऑक्साइड के
स्तर में वृद्धि पौधों की वृद्धि और पैदावार को कैसे प्रभावित करते हैं? क्या
ये पैदावार को बढ़ाते हैं, या क्या चयापचय प्रक्रिया में बाधा डालते
हैं और उसे नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं?
क्या हम प्रयोगशाला
में कुछ मॉडल पौधों पर प्रयोग करके यह देख सकते हैं कि वर्तमान (सामान्य) तापमान
और भावी उच्च तापमान पर पौधों में क्या होता है;
इसी तरह क्या
प्रायोगिक रूप से कार्बन डाईऑक्साइड के वर्तमान सामान्य स्तर और भावी उच्च स्तर का
प्रभाव देखा जा सकता है?
जे. यू और उनके साथियों ने 2017 में फ्रंटियर्स
इन प्लांट साइंस पत्रिका में प्रकाशित अपने शोध में ऐसे ही प्रयोग करके देखे
थे, जिसका शीर्षक था: बढ़ी हुई कार्बन डाईऑक्साइड से बरमुडा
घास में गर्मी में वृद्धि को सहन करने के चयापचयी तरीके (https://doi.org/10.3389/fpls.2017.01506)। उन्होंने पाया कि पौधे की ताप सहिष्णुता
बेहतर हुई थी, और गर्मी के कारण होने वाले नुकसान में कमी आई थी। ये
परिणाम दिलचस्प हैं लेकिन घास खरगोशों और मवेशियों जैसे जानवरों के लिए अच्छी है, हम
मनुष्यों के लिए नहीं जिनके पास ना तो घास को पचाने वाला पेट है और ना ही लगातार
बढ़ने वाले दांत।
वनस्पति शास्त्री घासों को C4 पौधे कहते हैं और खाद्यान्न (हमारे मुख्य भोजन) को C3 पौधे। दोनों तरह के पौधों में प्रकाश संश्लेषण अलग-अलग
तरह से होता है। इसलिए उपरोक्त प्रयोग यदि सेम और फलीदार पौधों (जैसे चना, काबुली
चना) और इसी तरह के अन्य अनाज पर किए जाएं तो उपयोगी होगा।
इस दिशा में,
अंतर्राष्ट्रीय
एजेंसी इंटरनेशनल क्रॉप रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर दी सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स (ICRISAT) के हैदराबाद सेंटर के एक समूह ने प्रयोग करने का सोचा।
उन्होंने देखा कि दो प्रकार के चने (देसी या बंगाली चना और काबुली चना जो मूल रूप
से अफगानिस्तान से आया है) कार्बन डाईऑक्साइड के अलग-अलग स्तरों – 380 पीपीएम का
वर्तमान स्तर, और 550 पीपीएम और 700 पीपीएम के उच्च स्तर – पर किस तरह
व्यवहार करेंगे? उन्होंने इन परिस्थितियों में पौधे बोए, और
वर्धी अवस्था में और पुष्पन अवस्था में (यानी अंकुरण के 15 दिन और 30 दिन बाद)
इन्हें काट लिया गया। परमिता पालित द्वारा प्लांट एंड सेल फिज़ियोलॉजी पत्रिका
में प्रकाशित इस अध्ययन का शीर्षक है: बढ़े हुए कार्बन डाईऑक्साइड स्तर पर चनों
में आणविक और भौतिक परिवर्तन (https: //academy.oup/pcp)।
पूर्व में वार्षनेय और उनका समूह नेचरबायोटेक्नॉलॉजी
पत्रिका में चने के पूरे जीनोम का अनुक्रम प्रकाशित कर चुका था। शोधकर्ताओं ने इस
संदर्भ में कम से कम 138 चयापचय तरीके पहचाने थे। इनमें मुख्य हैं शर्करा/स्टार्च
चयापचय, क्लोरोफिल और द्वितीयक मेटाबोलाइट्स का जैव संश्लेषण। इनका
अध्ययन करके वे उन तरीकों के बारे में पता कर सकते थे कि कैसे कार्बन डाईऑक्साइड
का उच्च स्तर चने के पौधों की वृद्धि को प्रभावित करता है। उन्होंने पौधों की जड़
और तने की लंबाई (या पौधे की ऊंचाई) में उल्लेखनीय वृद्धि पाई। इसके अलावा कार्बन
डाइऑक्साइड का स्तर अधिक होने पर जड़ों की गठानों (जहां नाइट्रोजन को स्थिर करने
वाले बैक्टीरिया रहते हैं) की संख्या भी प्रभावित हुई थी। गौरतलब है कि क्लोरोफिल
संश्लेषण में कमी से पत्तियां जल्दी पीली हो जाती हैं और पौधे बूढ़े होने लगते हैं।
विभिन्न प्रतिक्रियाएं
शोधकर्ताओं ने एक दिलचस्प बात यह भी पाई कि
कार्बन डाईऑक्साइड के उच्च स्तर के प्रति देसी चना और काबुली चना दोनों ने अलग-अलग
तरह से प्रतिक्रिया दी। इस पर और अधिक विस्तार से अध्ययन की ज़रूरत है।
और अब, पहचाने गए 138 चयापचय तरीकों की जानकारी के आधार पर इस बात का गहराई से पता लगाया जा सकता है कि हम अणुओं या एजेंटों का उपयोग किस तरह करें कि किसी विशिष्ट प्रणाली को बढ़ावा देकर या बाधित करके, पौधों की वृद्धि और पैदावार बढ़ाई जा सके, और उन फलीदार पौधों के बारे में पता लगाया जा सके जो स्थानीय परिस्थितियों के लिए सबसे उपयुक्त हों। अब, जब नोबेल विजेता जे. डाउडना और ई. शारपेंटिए ने बताया है कि जीन को कैसे संपादित किया जा सकता है, तो यह समय है कि जीन संपादन को खास स्थानीय फलीदार पौधों पर आज़माया जाए!(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/omn6pb/article32882138.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_615/18TH-SCIGLOWARMjpg
सूक्ष्मजीव टार्डिग्रेड (या जलीय भालू) के बारे में अब तक
हमें यह तो पता था कि ये जीवन के लिए घातक परिस्थितियों जैसे अत्यधिक गर्मी, विकिरण
और अंतरिक्ष के निर्वात में भी जीवित रह सकते हैं। और अब,
वैज्ञानिकों को
टार्डिग्रेड की एक ऐसी प्रजाति मिली है जो इतने घातक अल्ट्रावायलेट विकिरण को भी
झेल सकती जिनका उपयोग उन वायरस और बैक्टीरिया को मारने के लिए किया जाता है जिनका
खात्मा आसानी से नहीं किया जा सकता।
दरअसल बैंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट
ऑफ साइंस के शोधकर्ता टार्डिग्रेड्स पर अत्यंत कठोर परिस्थितियों के प्रभाव देख
रहे थे। ये टार्डिग्रेड्स उन्होंने इंस्टीट्यूट के परिसर से ही एकत्रित किए थे।
उनकी प्रयोगशाला में कीटाणुओं को नष्ट करने के लिए अल्ट्रावायलेट (यूवी) लैंप भी
था। तो उन्होंने टार्डिग्रेड्स पर इसका प्रभाव भी देखा। उन्होंने पाया कि प्रति
वर्ग मीटर एक किलोजूल यूवी विकिरण से लगातार 15 मिनट का संपर्क बैक्टीरिया और गोल
कृमि को सिर्फ पांच मिनट में मार देता है और हिप्सिबियस एग्ज़ेमप्लेरिस
प्रजाति के अधिकांश टार्डिग्रेड्स भी 15 मिनट के संपर्क से मारे गए। लेकिन जब
विकिरण की इतनी ही मात्रा टार्डिग्रेड्स की लाल-भूरे रंग की एक अज्ञात प्रजाति पर
डाली गई तो सब के सब जीवित बचे रहे। और तो और,
जब विकिरण की मात्रा
चार गुना बढ़ा दी तब भी लगभग 60 प्रतिशत से अधिक लाल-भूरे टार्डिग्रेड्स 30 दिन से
अधिक समय तक जीवित रहे।
इस परिणाम के आधार पर शोधकर्ताओं ने
निष्कर्ष निकाला कि उन्हें टार्डिग्रेड्स की एक नई प्रजाति मिली है। यह पैरामैक्रोबायोटस
जीनस की सदस्य है। शोधकर्ता समझना चाहते थे कि दीवार पर लगी काई में रहने वाली
टार्डिग्रेड्स की यह नई प्रजाति इतने घातक यूवी विकिरण के बाद भी जीवित कैसे रह
पाती है। इसकी जांच के लिए उन्होंने इंवर्टेड फ्लोरेसेंट माइक्रोस्कोप का उपयोग
किया। देखा गया कि लाल-भूरे रंग के ये टार्डिग्रेड यूवी प्रकाश में नीले रंग के हो
गए थे। बायोलॉजी लैटर्स में शोधकर्ता बताते हैं कि टार्डिग्रेड्स की त्वचा
के नीचे मौजूद फ्लोरेसेंट रंजक यूवी प्रकाश को हानिरहित नीली रोशनी में बदल देते
हैं। और जिन पैरामैक्रोबायोटस टार्डिग्रेड्स में कम फ्लोरोसेंट रंजक थे
उनकी यूवी प्रकाश के संपर्क में आने के लगभग 20 दिन बाद मृत्यु हो गई।
इसके बाद, शोधकर्ताओं ने टार्डिग्रेड्स से फ्लोरोसेंट रंजक निकाले और एच. एग्ज़ेमप्लेरिस टार्डिग्रेड्स और कई सीनोरेब्डाइटिस एलिगेंस कृमियों पर इन रंजकों का लेप किया और फिर इन्हें यूवी प्रकाश में रखा। पाया गया कि जिन जीवों को फ्लोरेसेंट रंजक का सुरक्षा कवच चढ़ाया गया था वे ऐसे सुरक्षा कवच रहित जीवों की तुलना में यूवी प्रकाश में दोगुना समय तक जीवित रहे। इन परिणामों से शोधकर्ता संभावना जताते हैं कि दक्षिण भारत के गर्म दिनों के तीव्र यूवी विकिरण से बचने के लिए टार्डिग्रेड्स में फ्लोरेसेंस सुरक्षा विकसित हुई होगी।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/jDHPuqg9TRfsVUbgy8LCwk-970-80.jpg.webp
एक समय मैडागास्कर में एलीफैंट बर्ड,
विशाल कछुए और यहां
तक कि विशालकाय लीमर रहा करते थे। लेकिन आज इस क्षेत्र में सिर्फ छोटे जीव ही पाए
जाते हैं। शोधकर्ताओं के बीच इस बात को लेकर काफी बहस होती रही है कि दोष मनुष्यों
का है या जलवायु परिवर्तन का। लेकिन हाल ही में हिंद महासागर के एक द्वीप की गुफाओं
से प्राप्त तलछट से इसके जवाब के संकेत मिले हैं: सूखे की परिस्थितियों ने
विशालकाय जीवों के लिए जीवन काफी कठिन ज़रूर बना दिया था लेकिन एलीफैंट बर्ड के
ताबूत में आखरी कील तो मनुष्यों ने ही ठोंकी है।
अफ्रीका के दक्षिण-पूर्वी तट से 425
किलोमीटर दूर मैडागास्कर मनुष्यों द्वारा बसाया गया सबसे आखिरी स्थान माना जाता
था। लेकिन दो वर्ष पहले शोधकर्ताओं को 10,500 वर्ष पुरानी हाथियों की हड्डियां
मिलीं हैं जिनकी हत्या की गई थी। यह इस बात का संकेत है कि मनुष्य और विशालकाय जीव
हज़ारों वर्षों साथ-साथ रहे थे लेकिन ये विशाल जीव लगभग 1500 वर्ष पहले विलुप्त हो
गए।
इस क्षेत्र की जलवायु का इतिहास समझने के
लिए शियान जियाटोंग युनिवर्सिटी के भू-वैज्ञानिक हई चेंग और उनके स्नातक छात्र हांग्लिंग
ली ने मैडागास्कर से 1600 किलोमीटर दूर स्थित एक छोटे टापू रॉड्रिग्स पर गुफाओं का
रुख किया। यह टापू काफी दूर और अलग-थलग स्थित है,
जिसकी वजह से यह
प्राचीन जलवायु की जानकारी एकत्रित करने के लिए बढ़िया स्थान था। मानव गतिविधियां न
होने से अभी भी यहां स्टैलैक्टाइट तथा स्टैलैग्माइट सलामत थे।
सबसे पहले शोधकर्ताओं ने तलछट के खंडों का
काल निर्धारण किया। कई जगहों पर तो वे पिछले 8000 वर्षों के लिए दशक-दशक तक की
परिशुद्धता से काल निर्धारण कर पाए। इसके बाद उन्होंने परत-दर-परत ऑक्सीजन और
कार्बन के भारी समस्थानिकों तथा सूक्ष्म मात्रा में पाए गए तत्वों का विश्लेषण
किया जिससे अतीत में जलवायु में नमी के स्तर का पता लगाया जा सके। साइंस
एडवांसेस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण-पश्चिमी हिंद महासागर ने इस
दौरान चार बड़े सूखों का सामना किया था। इनमें से सूखे की एक घटना 1500 वर्ष पूर्व
बड़े स्तर पर विलुप्तिकरण की घटना के साथ भी मेल खाती है। चेंग का मानना है कि इसके
पूर्व में होने वाली सूखे की घटनाओं से भी ये जीव बच निकले थे। इससे ऐसा लगता है
कि मनुष्यों द्वारा अत्यधिक शिकार और आवास स्थल नष्ट करना निर्णायक रहा।
इस अध्ययन से अन्य शोधकर्ताओं को मैडागास्कर और आसपास के क्षेत्र में हो रहे परिवर्तनों के बारे में स्पष्ट जानकारी प्राप्त हुई है। लेकिन अध्ययन मात्र एक छोटे टापू पर किया गया है जबकि यह क्षेत्र काफी विशाल है और यहां अलग-अलग भौगोलिक स्थितियों के अलावा अलग-अलग मानव सभ्यताएं भी मौजूद रही होंगी। ऐसे में विभिन्न स्थानों में विलुप्त होने की परिस्थितियां भी काफी अलग-अलग हो सकती हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/main_bird_1280p.jpg?itok=kKh54kSa