भारत में विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति – स्नेहा सुधा कोमथ

भारत में विज्ञान के क्षेत्र में महिलाएं विषय पर अधिकांश साहित्य, विज्ञान में महिलाओं की ‘अनुपस्थिति’ ही दर्शाता है जबकि अब हालात ऐसे नहीं हैं। उपलब्ध प्रमाणों के व्यापक विश्लेषण के आधार पर यह आलेख बताता है कि विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है, हालांकि अलग-अलग विषयों में स्थिति काफी अलग-अलग है। अलबत्ता, विज्ञान के क्षेत्र में भले ही महिलाओं की संख्या बढ़ी है, लेकिन अब भी उन्हें रुकावटों का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार से लिंग-आधारित ढांचा बरकरार है और वैज्ञानिक संस्थानों को आकार देता है। आलेख का तर्क है कि संस्थानों-संगठनों के मौजूदा मानदंडों और मानसिकता में बदलाव लाए बिना महिला-समर्थक नीतियां शुरू करना प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।

साल 2017 की विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट बताती है कि 144 सर्वेक्षित देशों में से भारत, लैंगिक-असमानता के मामले में 87वें पायदान से गिरकर 108वें पायदान पर आ गया था। स्वास्थ्य और औसत आयु के मामले में भारत 141वें पायदान पर और आर्थिक अवसरों के मामले में 139वें पायदान पर था। यहां तक कि शिक्षा के मामले में भारत का स्थान 112वां था। कोई ताज्जुब नहीं कि भारत में वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में भी लैंगिक-अंतर काफी अधिक है। युनेस्को सांख्यिकी संस्थान (2017) के अनुसार वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में भले ही लोगों की संख्या में 37.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है लेकिन महिला शोधकर्ताओं की संख्या में मामूली कमी आई है, 2010 में महिला शोधकर्ताओं का प्रतिशत 14.3 था जो 2015 में गिरकर 13.9 प्रतिशत हो गया।

हो सकता है कि भारतीय मध्यम वर्ग इन आंकड़ों को ‘अन्य’ भारत से जोड़कर देखे, जैसे कि ये ग्रामीण इलाकों और शहरी झुग्गियों में रहने वाले हाशियाकृत और गरीब लोगों के हों। लेकिन भारतीय विज्ञान समुदाय, या सामाजिक-आर्थिक मध्यम वर्ग और शिक्षित वर्गों के लिए इन आंकड़ों के क्या मायने हैं? क्या भारतीय वैज्ञानिक अनुसंधान और शिक्षा में महिलाओं की स्थिति वाकई चिंतनीय है? यदि है, तो क्या इन आंकड़ों का महिलाओं की उच्च शिक्षा या विज्ञान अनुसंधान प्रशिक्षण तक पहुंच में कमी से है, या ये दर्शाते हैं कि कितनी महिलाएं इन क्षेत्रों को छोड़ देती हैं? क्या कोई ऐसे खास विषय या खास क्षेत्र हैं जिनमें महिलाओं की उपस्थिति बेहतर है और इसके क्या कारण हैं? क्या ढांचागत कारण विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं को बराबर भागीदारी से रोकते हैं? क्या विज्ञान अनुसंधान समुदाय में महिलाओं को मिलने वाली मान्यता, इन क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति से मेल खाती है? इस सम्बंध में उपलब्ध प्राथमिक और द्वितीयक जानकारी के आधार पर यहां ऐसे कुछ सवालों को जांचने का प्रयास है।

संक्षिप्त इतिहास और वर्तमान संदर्भ

स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारत सरकार ने 1948 में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की स्थापना की थी। अन्य उद्देश्यों के अलावा एक उद्देश्य यह था कि भारत में विश्वविद्यालयीन शिक्षा और शोध के उद्देश्यों व लक्ष्यों की छानबीन की जाए। स्पष्ट रूप से, नवनिर्मित राष्ट्र में ज़ोर सामाजिक परिवर्तन के लिए शिक्षा पर था। 1950 में आयोग द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट का एक पूरा हिस्सा महिला शिक्षा पर केंद्रित था। इसमें अनुशंसाओं के खंड में बताया गया था कि “कुछ क्षेत्र महिलाओं के लिए बहुत ही उपयुक्त हैं… जिनमें महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में महिलाओं को शिक्षा दी जा सकती है।” समिति द्वारा सुझाए गए विषय थे गृह अर्थशास्त्र, नर्सिंग, अध्यापन और ललित कलाएं। रिपोर्ट के इस हिस्से की प्रस्तावना में कई उत्कृष्ट नैतिक आदर्शों का प्रतिपादन किया गया था, जैसे:

हमें कई सुझाव मिले हैं जो कहते हैं कि महिलाओं की शिक्षा ड्राइंग, पेंटिंग या इसी तरह की अन्य सुंदर ‘उपलब्धियां’ हासिल करने के लिए होनी चाहिए ताकि जब उनके पति महत्वपूर्ण काम कर रहे हों तब सम्पन्न महिलाएं अपना वक्त बिना किसी नुकसान के काट सकें। यह सोच अब नहीं रहना चाहिए। महिलाएं पुरुषों के साथ जीवन और आज के ज़माने के विचार और रुचियों में बराबर की हिस्सेदार होनी चाहिए। वे पुरुषों के समान शैक्षणिक कार्य करने के योग्य हैं, उनमें विचारों और गुणवत्ता की कमी नहीं है। महिलाओं की क्षमताएं पुरुषों के समान हैं। (1950 में जारी विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की रिपोर्ट, अध्याय 12, पृ. 343-344)

हालांकि, इस दौर में कुशल महिला वैज्ञानिक बनाने पर ज़ोर नहीं था। यह बात शुरुआती वर्षों में विभिन्न कोर्स में हुए दाखिलों में भी झलकती है। वर्ष 1961-62 में ‘लड़कों और लड़कियों के पाठ्यक्रम में भेद’ पर राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद द्वारा गठित हंसा मेहता समिति की सिफारिश के साथ दोनों के लिए ‘समान पाठ्यक्रम’ के मुद्दे पर गंभीरता से चर्चा शुरू हुई। 1964-66 में कोठारी आयोग ने इससे एक कदम आगे बढ़कर आग्रह किया कि महिलाओं को भी विज्ञान पढ़ने के लिए सक्रिय रूप से प्रोत्साहित करना चाहिए।

कहने का मतलब यह नहीं है कि इस समय तक भारत में उच्च शिक्षा या विज्ञान शिक्षा से महिलाएं नदारद थीं। कई अध्ययनों ने भारत में औपनिवेशिक काल से आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान में महिलाओं की स्थिति की छानबीन की है। कई अध्ययन, ना केवल महिला वैज्ञानिकों के व्यक्तिगत संघर्ष बयां करती जीवनियां बताते हैं बल्कि उस समय के सामाजिक-राजनैतिक हालात के बारे में भी बताते हैं। कमला सोहोनी, आसीमा चटर्जी या जानकी अम्मल जैसी कई महिला वैज्ञानिकों ने नई ज़मीन तोड़ी थी और जाति और लिंग की दोहरी बाधाओं को पार करके प्रयोगशाला तक का रास्ता तय किया और तमाम पाबंदियों की कठोर परिस्थितियों में भी काम करती रहीं। लेकिन चूंकि इस समय तक इन क्षेत्रों में महिलाओं को शामिल करना राजकीय नीति का हिस्सा नहीं था इसलिए उस समय जिन महिलाओं ने मुकाम हासिल किया वे दरअसल एक ज़्यादा बड़ी लड़ाई लड़ रही थीं। जैसे कमला सोहोनी विज्ञान (जैव-रसायन शास्त्र) में पीएचडी की डिग्री हासिल करने वाली पहली महिला बनीं। ग्रेजुएशन में अव्वल आने के बावजूद उन्हें भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलौर में प्रवेश देने से इन्कार कर दिया गया था। और इन्कार करने वाले कोई और नहीं, नोबेल पुरस्कार विजेता सी. वी. रमन थे। अंतत: जब रमन ने प्रवेश दिया तो उन्होंने प्रवेश के साथ सख्त और अपमानजनक शर्तें रखीं – जैसे, पहले एक वर्ष में उन्हें नियमित छात्र नहीं माना जाएगा; उनके मार्गदर्शक दिन में जिस समय कहेंगे, उन्हें काम करना होगा, और उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि उनकी उपस्थिति अन्य छात्रों को विचलित ना करे। जिन महिलाओं ने इन क्षेत्रों में काम करना संभव बनाया, उन्होंने बहुत ही विषम परिस्थितियों में कार्य किया। लेकिन, इनमें से कई महिलाओं ने तो यह माना ही नहीं कि उन्हें हाशिए पर धकेला गया था और इसे लिंग-भेद की तरह देखने से इन्कार किया।

औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता और नए संविधान (जो सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है) को अपनाने के बाद खेल के नियमों में बुनियादी परिवर्तन हुए। लड़के और लड़कियों के लिए समान पाठ्यक्रम और आधुनिक गणित और विज्ञान का अध्ययन करने के लिए महिलाओं को सक्रिय रूप से प्रोत्साहन की सिफारिश करके हंसा मेहता समिति और कोठारी आयोग की रिपोर्टों ने इन परिवर्तनों की नींव रखी थी। लेकिन हम इस दिशा में कितना आगे बढ़ पाए हैं, और अभी मंज़िल और कितनी दूर है?

जैसा कि यह आलेख दिखाने की कोशिश करता है, पहले की तुलना में आज स्थिति काफी बदल गई है। लेकिन आज भी, मंशाओं और कार्रवाई के बीच काफी अंतर हैं। उदाहरण के लिए प्रमुख विश्वविद्यालयों/कॉलेजों के स्नातक कार्यक्रमों में विज्ञान की अपेक्षा कला और मानविकी जैसे विषयों तक महिलाओं की पहुंच अधिक ‘आसान’ बनाई गई है। दिल्ली विश्वविद्यालय को ही देखें तो पता चलता है कि स्नातक स्तर पर समाजशास्त्र और मनोविज्ञान विषय मात्र ‘महिला’ कॉलेजों में चलाए जाते हैं, जबकि 22 महिला कॉलेजों में से सिर्फ 5 में स्नातक स्तर पर भौतिकी विषय उपलब्ध है। मुंबई के भी कई महिला कॉलेजों में से कुछ ही बुनियादी विज्ञान में स्नातक कोर्स चलाते हैं जबकि कई कॉलेजों में मनोविज्ञान और समाज शास्त्र विषय हैं। चेन्नई के कई महिला कॉलेजों में विज्ञान के कई विषय समूह के रूप में उपलब्ध हैं। जैसे, कुछ कॉलेजों में विज्ञान संकाय के नाम पर सिर्फ गणित के साथ नागरिक शास्त्र और मनोविज्ञान विषय पढ़ाए जाते हैं (हालांकि, गणित की प्रकृति दोहरी है – इसमें बीए और बीएससी दोनों कर सकते हैं)। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई में गृह विज्ञान के कोर्स अधिकांशत: महिला कॉलेजों में पढ़ाए जाते हैं। यहां तक कि होम साइंस पढ़ाने के लिए खास महिला कॉलेज भी

हैं। यही स्थिति नर्सिंग और शिक्षा में भी है, जिन्हें पारंपरिक रूप से महिलाओं के लिए उपयुक्त माना गया है।

तालिका – 1:वर्ष 2015-16 में विभिन्न विषयों में दाखिले
भौतिक विज्ञान पुरुष स्त्री कुल %पुरुष %स्त्री
गणित 50081 79523 129604 38.64 61.36
भौतिकी 25540 35349 60889 41.95 58.05
रसायन 44651 55237 99888 44.70 55.30
सांख्यिकी 3691 4618 8309 44.42 55.58
भू-भौतिकी 633 359 992 63.81 36.19
इलेक्ट्रॉनिक्स 2640 2055 4695 56.23 43.77
भूगर्भ शास्त्र 3518 2079 5597 62.86 37.14
जीव विज्ञान          
प्राणि विज्ञान 13811 27214 41025 33.66 66.34
वनस्पति विज्ञान 12021 24715 36736 32.72 67.28
जैव-रसायन 2137 4447 6584 32.46 67.54
बायोटेक्नॉलॉजी 4579 9955 14534 31.51 68.49
सूक्ष्मजीव विज्ञान 3457 8607 12064 28.66 71.34
लाइफ साइंस 2460 4633 7093 34.68 65.32
आनुवंशिकी 351 487 838 41.89 58.11
जैव-विज्ञान 1650 2950 4600 35.87 64.13

कॉलेज/होस्टल के भेदभाव पूर्ण नियमों और समय की पाबंदी को देखें, जिनका देश की अमूमन हर महिला छात्रा को कॉलेज और विश्वविद्यालय में पालन करना होता है। महिला सुरक्षा के नाम पर बने ये नियम-निर्देश पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं, व्याख्यानों, सार्वजनिक स्थानों और परिवहन तक महिलाओं की बराबर पहुंच के अधिकार को कुचल देते हैं। राजस्थान सरकार द्वारा 2008 में स्थापित ज्योति विद्यापीठ महिला विश्वविद्यालय ने होस्टल में रहने वाली छात्राओं के लिए अपनी वेबसाइट के ‘हॉस्टल लाइफ’ पेज पर कई सख्त पाबंदियां लिखी हैं। जैसे होस्टल कैम्पस के अंदर और बाहर उनकी गतिविधियों पर लगातार कड़ी नज़र रखी जाएगी जिसका ब्यौरा उनके अभिभावकों को दिया जाएगा, और मोबाइल फोन या अन्य ऐसे उपकरण, जिनमें सिम कार्ड हो या उससे इंटरनेट चलाया जा सकता हो, का उपयोग करते पाए जाने पर दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी। वनस्थली विद्यापीठ के नियम के मुताबिक विवाहित महिलाएं किसी भी कोर्स में प्रवेश का आवेदन नहीं कर सकतीं, सिवाय कुछ ‘विशेष परिस्थितियों’ में स्नातकोत्तर कार्यक्रमों में इसकी छूट है। 1983 में आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा तिरुपति में स्थापित श्री पद्मावती महिला विश्वविद्यालय में छात्राओं को ‘डीन द्वारा स्वीकृत साफ और सभ्य पोशाक’ पहनने की ही अनुमति है। इसके अलावा उन्हें कॉलेज या कॉलेज अधिकारियों की नीतियों और कार्यों की आलोचना सम्बंधी बैठक करने की अनुमति भी नहीं है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से सम्बद्ध एक महिला कॉलेज का ऐसा ही एक मामला सर्वोच्च नयायलय तक पहुंचा था। दायर की गई याचिका के अनुसार, छात्रावास नियम वहां रहने वाली महिलाओं/रहवासियों को रात 8 बजे के बाद बाहर जाने, यहां तक कि किसी कार्यक्रम में शामिल होने या विश्वविद्यालय परिसर की लायब्रेरी तक जाने की अनुमति नहीं देते। छात्रावास के नियम लड़कियों को रात 10 बजे के बाद टेलीफोन/मोबाइल फोन कॉल करने या सुनने की भी अनुमति नहीं देते हैं; उनके होस्टल के कमरों में मुफ्त वाई-फाई और इंटरनेट भी उपलब्ध नहीं कराया जाता है। जबकि पुरुष छात्रों पर इनमें से एक भी नियम लागू नहीं होता।

इन परिस्थितियों में जब हमें अखबारों में इस तरह खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि पीजी, एमफिल छात्रों में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक हैं, तो थोड़ा ठहर कर इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है। यह स्थिति सिर्फ सामाजिक विज्ञान और मानविकी विषयों में ही नहीं बल्कि बुनियादी विज्ञान विषयों में भी है, जो कि सराहनीय है। मेनपॉवर प्रोफाइल ईयर बुक के साल 2000-01 के आंकड़े बताते हैं कि 2000-01 में विज्ञान में स्नातकोत्तर स्तर पर प्रति 100 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 80.1 थी जो अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण (AISHE) के ऑनलाइन सर्वे के अनुसार साल 2011-12 में बढ़कर 113 हो गई थी, और साल 2015-16 में 157 तक पहुंच गई थी। यही नहीं, हर विषय में हमें इसी तरह के आंकड़े मिलते हैं। तालिका 1 में साल 2015-16 में भौतिक विज्ञानों और जीव विज्ञानों में पोस्ट ग्रेजुएशन में दाखिला लेने वालों की संख्या दर्शाई गई है। इसे देखें तो पता चलता है कि कई विषयों में महिलाएं पुरुषों की तुलना में काफी अधिक हैं। यह स्थिति ना सिर्फ जीव विज्ञान से जुड़े विषयों में है, बल्कि भौतिक विज्ञान के विषयों में भी है। ज़ाहिर है कि तमाम बाधाओं के बावजूद, भौतिक विज्ञान की उच्च शिक्षा को अब महिलाएं अपनी पहुंच से बाहर नहीं मानतीं। लेकिन आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि भौतिक विज्ञानों की तुलना में जीव विज्ञानों में दाखिला लेने वाली महिलाओं की संख्या काफी अधिक है, जो इस आम धारणा को मज़बूत करती है कि महिलाएं गणित आधारित विषयों की तुलना में जीव विज्ञान से सम्बंधित विषय लेना ज़्यादा पसंद करती हैं।

चलिए, इस मुद्दे को अच्छे से समझने के लिए और आंकड़े देखते हैं। तालिका 2 में साल 2015-16 के भौतिक विज्ञान के विषयों और जीव विज्ञान के विषयों में स्नातकोत्तर और उच्चतर शिक्षा में दाखिला लेने वाले और उत्तीर्ण करने वाले लोगों की संख्या एक साथ रखी गई है। तुलना करें तो पता चलता है कि स्नातकोत्तर में महिलाएं पुरुषों की तुलना में काफी अधिक हैं, लेकिन जब शोध संस्थानों या शोध कार्यों में दाखिले की बात आती है तो भौतिक विज्ञान में लिंग-भेद बरकरार है। ध्यान दें कि शोध कार्यक्रमों में दाखिला लेने वालों की संख्या, स्नातकोत्तर उत्तीर्ण करने वालों की संख्या से बहुत कम (बीसवें हिस्से से दसवें हिस्से के बराबर) है। अर्थात, पात्र उम्मीदवारों की संख्या उपलब्ध सीटों की संख्या से 10-20 गुना है। लेकिन 2015-16 के AISHE आंकड़ों के अनुसार भौतिक विज्ञान विषयों के एमफिल और पीएचडी कार्यक्रम में 63 प्रतिशत पुरुष और सिर्फ 37 प्रतिशत महिला छात्र थे।

वर्ष 2011-12 में, हालांकि कुछ खास विषयों में लैंगिक-असमानता अधिक देखी गई थी, लेकिन भौतिक विज्ञान के विषयों में एमफिल में प्रवेश लेने वाले कुल छात्रों में से सिर्फ 41 प्रतिशत और पीएचडी में दाखिला लेने वाले कुल छात्रों में सिर्फ 33 प्रतिशत ही महिलाएं थीं। तुलना के लिए देखें कि साल 2015-16 में, जीव विज्ञान के विषयों में स्थिति इसके विपरीत थी: जीव विज्ञान में एमफिल में प्रवेश लेने वाले कुल छात्रों में सिर्फ 47 प्रतिशत पुरुष थे जबकि 53 प्रतिशत महिलाएं थीं और पीएचडी में प्रवेश लेने वालों में 54 प्रतिशत महिला और 43 प्रतिशत पुरुष छात्र थे। यही स्थिति 2011-12 में भी थी, जीव विज्ञान में एमफिल या पीएचडी में दाखिला लेने वाले छात्रों में से महिलाएं लगभग 60 प्रतिशत थीं।

पहले की तुलना में अब पीएचडी में अधिक महिलाओं के प्रवेश लेने से पीएचडी पूरी करने की वाली महिलाओं की संख्या बढ़ना चाहिए। AISHE वेबसाइट पर कुछ विशेष सालों के छात्रों का डैटा उपलब्ध नहीं है, साइट पर 2011 के बाद के विभिन्न वर्षों का उत्तीर्ण करने सम्बंधित डैटा उपलब्ध है। लेकिन इन आंकड़ों के अनुसार साल 2011-12 जीव विज्ञान में डॉक्टरेट हासिल करने वालों में से सिर्फ 41 प्रतिशत ही महिलाएं थीं और साल 2015-16 में लगभग 46 प्रतिशत महिलाएं थीं। कोई अचरज नहीं कि भौतिक विज्ञान में यह लैंगिक-अंतर और भी अधिक था। 2011-12 में, भौतिक विज्ञान में पीएचडी करने वालों में पुरुष 67 प्रतिशत और महिलाएं केवल 33 प्रतिशत थीं। और 2015-16 में, भौतिक विज्ञान में पीएचडी करने वालों में पुरुष 70 प्रतिशत और महिलाएं 30 प्रतिशत थीं।

शोध और शिक्षण में कार्यरत महिलाएं

आंकड़ों को देखें तो जीव विज्ञान की उच्च शिक्षा में लैंगिक-अंतर कम नज़र आता है लेकिन यह देखना उपयोगी होगा कि इन क्षेत्रों के रोज़गार में महिलाओं की स्थिति क्या है। इसके लिए हमने देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों और अनुसंधान/शोध संस्थानों के जीव विज्ञान विभागों में नियुक्ति के आंकड़े देखे। तीन केंद्रीय विश्वविद्यालयों को जानबूझकर शामिल किया गया था, क्योंकि ये ‘शोध विश्वविद्यालय’ हैं जहां फैकल्टी के सदस्य बड़ी तादाद में सक्रिय अनुसंधान कार्य में संलग्न रहते हैं। इन विश्वविद्यालयों में बाहर से वित्त पोषित शोध प्रोजेक्ट्स भी चलते हैं। यहां के वैज्ञानिक कमोबेश मात्र स्नातकोत्तर या एमफिल/पीएचडी स्तर के शिक्षण कार्य में लगे होते हैं। दरअसल, पीएचडी कार्यक्रम इन विश्वविद्यालयों का मुख्य फोकस है। कुछ शोध संस्थान या तो एकीकृत स्नातकोत्तर-पीएचडी प्रोग्राम या सिर्फ पीएचडी प्रोग्राम संचालित करते हैं, लेकिन उनमें भी इन कार्यक्रमों के तहत कक्षा-अध्यापन अनिवार्य है। अलबत्ता, जो लोग भारत के वैज्ञानिक अनुसंधान वित्तपोषण के परिदृश्य से परिचित हैं वे जानते हैं कि इन संस्थानों के बीच भी स्पष्ट ऊंच-नीच मौजूद है – अनुसंधान संस्थानों को बेहतर वित्तपोषण मिलता है और उनका बुनियादी ढांचा बेहतर है। इस तरह हमारे पास तुलना के लिए दो भिन्न व्यवस्थाओं के आंकड़े उपलब्ध थे। अध्ययन में शामिल संस्थानों में जीव विज्ञान विभागों में साल 2018 के पूर्व तक रहे लिंगानुपात का पता लगाने के लिए इन संस्थानों की वेबसाइट पर उपलब्ध डैटा का उपयोग किया। अध्ययन में शामिल शोध संस्थान/विश्वविद्यालय हैं :

  • जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से सम्बद्ध स्कूल ऑफ लाइफ साइंसेज़ (SLS), स्कूल ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी (SBT), स्पेशल सेंटर ऑफ मॉलीक्यूलर मेडिसिन (SCMM); हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय से सम्बद्ध, स्कूल ऑफ लाइफ साइंसेज़ का जैव-रसायन विभाग, पादप विज्ञान विभाग, प्राणि जीव विज्ञान, जैव प्रौद्योगिकी और जैव सूचना विज्ञान (बायोटेक) विभाग। दिल्ली विश्वविद्यालय का जैव-रसायन विभाग, जैव-भौतिकी विभाग, सूक्ष्मजीव विज्ञान विभाग, आनुवंशिकी विभाग और पादप आणविक जीव विज्ञान विभाग।
  • पुणे, कोलकाता, त्रिवेंद्रम और मोहाली स्थित भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (IISER) के जीव विज्ञान विभाग। प्रत्येक IISER एक स्वायत्त संस्थान है और भारतीय संसद द्वारा 2010 में पारित एनआईटी अधिनियम के अनुसार डिग्री प्रदान कर सकता है।
  • भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) का जैव रसायन विभाग, आणविक जैव-भौतिकी इकाई, आणविक प्रजनन, परिवर्धन एवं आनुवंशिकी विभाग, सूक्ष्मजीव विज्ञान और कोशिका जीव विज्ञान विभाग। IISc यूजीसी अधिनियम के अनुसार एक डीम्ड युनिवर्सिटी है।
  • वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) देश के अनुसंधान और विकास कार्यों में तेज़ी लाने के उद्देश्य से गठित किया गया था। एक समय में CSIR के संस्थान विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध होकर छात्रों को पीएचडी की उपाधि देते थे। 2010 के बाद से ये संस्थान एकेडमी फॉर साइंटिफिक एंड इनोवेटिव रिसर्च (AcSIR) से सम्बद्ध हैं। इस अध्ययन में CSIR द्वारा वित्त पोषित अनुसंधान संस्थानों में से कोलकाता स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल बायोलॉजी (IICB), चंडीगढ़ स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ माइक्रोबियल टेक्नोलॉजी (IMTech), हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी (CCMB), लखनऊ स्थित राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (NBRI), और दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी (IGIB) शामिल हैं।
  • DBT द्वारा वित्त पोषित अनुसंधान संस्थान भी इस अध्ययन में शामिल किए गए हैं: दिल्ली स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इम्यूनोलॉजी (NII), मानेसर स्थित नेशनल ब्रेन रिसर्च इंस्टीट्यूट (NBRC)।
  • मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) का जीव विज्ञान विभाग और बैंगलुरु स्थित नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज़ (NCBS)। इस अध्ययन में inSTtem और CCAMP संकाय के शिक्षकों को शामिल नहीं किया गया है।

इन संस्थानों से प्राप्त आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि TIFR और NCBS को छोड़कर बाकी अन्य संस्थानों में महिलाएं 30 प्रतिशत से अधिक नहीं हैं। इन संस्थानों में बतौर वैज्ञानिक/शिक्षक लगभग 27 प्रतिशत महिलाएं और 73 प्रतिशत पुरुष हैं।

यह समझना महत्वपूर्ण था कि क्या इन संस्थानों किन्हीं खास पदों पर भिन्न स्थिति दिखती है। इसके लिए एक विश्लेषण हरेक संस्थान/विभाग के अलग-अलग स्तर के पदों का किया गया। यह देखते हुए कि पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं के प्रवेश लेने और उत्तीर्ण करने की संख्या में सुधार हुआ है, यह उम्मीद थी कि भले ही वरिष्ठ पदों पर लिंग-भेद काफी अधिक दिखे लेकिन प्रवेश स्तर की नौकरियों पर तो कम से कम लिंगानुपात की यह खाई कम हुई होगी। यानी CSIR संस्थानों में हमें सीनियर प्रिंसिपल साइंटिस्ट या चीफ साइंटिस्ट के पद की तुलना में सीनियर साइंटिस्ट और साइंटिस्ट के पदों पर लिंगानुपात में अंतर कम दिखना चाहिए। नियमित पदों के अलावा अध्ययन में शामिल, जे. सी. बोस फेलोशिप पाने वाले आम तौर पर सीनियर साइंटिस्ट होते हैं और ये सेवानिवृत्त वैज्ञानिक भी हो सकते हैं। चूंकि यह एक फेलोशिप है, इसलिए यह सभी संस्थानों में नहीं होती। एमेरिटस प्रोफेसर, सेवानिवृत्त वरिष्ठ शिक्षक होते हैं और वे भी हर संस्थान में नहीं होते। डीबीटी-वेलकम अर्ली कैरियर फैलोशिप (ECF), डीएसटी-इंस्पायर आदि एक निश्चित अवधि की फेलोशिप हैं, जो नियमित पद नहीं दर्शाते। हम इन फेलोशिप पर बाद में लौटेंगे।

प्राप्त आंकड़ों से पता चलता है कि CSIR संस्थानों में सभी पदों पर महिलाओं की उपस्थिति समान रूप से कम है। यहां तक कि साइंटिस्ट या सीनियर साइंटिस्ट जैसे प्रवेश स्तर के पदों पर भी महिलाओं की उपस्थिति 30 प्रतिशत से कम है।

क्या DST/DBT से वित्त पोषित संस्थानों में स्थिति अलग है? इसे जांचने के लिए हमने DST/DBT से वित्त पोषित दो संस्थानों, NII और NBRC, से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया। हमने पाया कि यहां भी वरिष्ठ पदों (VI-VII ग्रेड के वैज्ञानिक) पर महिला वैज्ञानिकों की तुलना में पुरुष वैज्ञानिक अधिक थे। और तो और, साइंटिस्ट पदों (IV-V ग्रेड के वैज्ञानिक) पर भी पुरुषों का पलड़ा भारी था।

जैसा कि पहले भी बताया गया है, DAE द्वारा संचालित TIFR और NCBS में स्थिति अलग है। यहां प्रवेश स्तर और मध्य स्तर के पदों पर महिलाओं की संख्या अधिक दिखती है।

क्या वे संस्थान जो मास्टर और पीएचडी कार्यक्रम भी चलाते हैं (और इस वजह से उनमें शिक्षण/अनुसंधान विभाग हैं) उनमें महिलाओं की स्थिति अलग है? यह देखना इसलिए भी दिलचस्प होगा क्योंकि शुरुआत में महिलाओं के लिए पहचाने गए ‘उपयुक्त’ कार्यों में से एक शिक्षण था। इस विश्लेषण में ना सिर्फ IISc और DU, JNU और HCU जैसे पुराने विश्वविद्यालय या संस्थान शामिल हैं बल्कि IISER जैसे नए संस्थान भी शामिल हैं। इन नए संस्थानों में भर्तियां भले ही वरिष्ठ पदों के लिए की गर्इं हों, लेकिन इन भर्तियों से हमें मौजूदा रुझानों का अंदाज़ा मिलेगा। गौरतलब है कि IISc और IISERs स्वयं को अनुसंधान संस्थान मानते हैं, ना कि विश्वविद्यालय। उनकी वेतन संरचना, शिक्षकों की स्वायत्तता और कार्य परिवेश केंद्रीय विश्वविद्यालयों से बहुत अलग है।

IISc में, जीव विज्ञान से सम्बंधित विभागों में महिलाओं की संख्या 20 प्रतिशत से कम है। जैसी कि उम्मीद थी प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर के पदों पर लिंग-अंतर अधिक था। लेकिन प्रवेश-स्तर के पद, असिस्टेंट प्रोफेसर, पर तो यह अंतर और भी अधिक था।

सबसे हाल में स्थापित हुए संस्थान IISER में प्रोफेसरों की संख्या कम है। IISER कोलकाता में सिर्फ एक महिला प्रोफेसर थी और इस पद पर पुरुष नियुक्तियां नहीं थी। अन्य तीन IISER संस्थानों में प्रोफेसर के पद पर सिर्फ पुरुष कार्यरत थे और एक भी महिला इस पद पर नहीं थी। सभी IISER संस्थानों में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर पुरुषों का ही वर्चस्व था। कोलकाता IISER को छोड़कर बाकी तीनों में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर भी महिलाओं की संख्या बहुत कम थीं। कोलकाता IISER में प्रवेश स्तर के पद (असिस्टेंट प्रोफेसर) के पद पर लिंगानुपात ठीक था।

JNU में प्रोफेसर के पद पर पुरुषों की ही भरमार थी और असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों पर भी झुकाव थोड़ा पुरुषों के प्रति था, हालांकि यह उतना अधिक नहीं था।

दिल्ली युनिवर्सिटी के लाइफ साइंस संकाय में प्रोफेसर व एसोसिएट प्रोफेसर पदों पर पुरुषों की अधिक संख्या दर्शाती है कि वहां भी यही स्थिति है। हालांकि असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर महिलाओं की स्थिति बेहतर दिखती है। यहां का डिपार्टमेंट ऑफ जेनेटिक्स एक अपवाद की तरह दिखता है जहां महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक हैं।

HCU में भी प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर पुरुषों का ही दबदबा दिखता है। बायोटेक्नॉलॉजी और बायोइंफॉरमेटिक्स विभाग को छोड़कर बाकी अन्य विभागों में अपवाद स्वरूप असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर लैंगिक-संतुलन बेहतर दिखता है। इनमें भौतिक विज्ञान विभाग के आंकड़ों को शामिल कर लिया जाए तो यह लैंगिक खाई और भी चौड़ी हो जाती है।

आंकड़े बताते हैं कि विज्ञान अध्ययन शालाओं में भौतिक विज्ञानों में महिलाओं की तुलना में पुरुष काफी अधिक हैं।

विभिन्न संस्थानों के जीव विज्ञान संकाय के शिक्षक सम्बंधी डैटा देखें पता चलता है कि –

  • TIFR और NCBS को छोड़कर शेष सभी शोध संस्थानों के वरिष्ठ पदों पर लिंग-भेद झलकता है।
  • इन शोध संस्थानों के प्रवेश स्तर और मध्य स्तर के पदों पर भी लिंग-भेद झलकता है, यहां भी TIFR और NCBS अपवाद हैं।
  • IISc और IISER दोनों संस्थानों के वरिष्ठ और प्रवेश स्तर, दोनों पदों पर लैंगिक अंतर काफी अधिक है। यह IISc जैसे पुराने संस्थान के जीव विज्ञान विभागों में भी झलकता है, और IISER जैसे नए संस्थानों में भी है। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया था, इन संस्थानों की पहचान शिक्षण संस्थान के रूप में होने के बावजूद इन संस्थानों की आत्म-छवि, वित्त व्यवस्था और शिक्षकों की स्वायत्तता शोध संस्थानों जैसी है, इसलिए हो सकता है कि इन संस्थानों में नियुक्तियों का पैटर्न भी शोध संस्थानों जैसा हो।
  • केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश-स्तर के पदों पर तो महिला-पुरुष की संख्या में बहुत कम अंतर दिखता है लेकिन वरिष्ठ पदों पर, उम्मीद के मुताबिक, पुरुष ही अधिक दिखते हैं। जबकि ये संस्थान ऐसे संस्थान हैं जहां स्पष्ट रूप से शोध या अनुसंधान कार्यों के साथ शिक्षण कार्य भी ज़रूरी है। इन संस्थानों में मुख्य ज़ोर शिक्षण कार्य पर  होता है।

नियुक्तियों में झलकने वाला यह लिंग-भेद क्या दर्शाता है? क्या यह वास्तव में समाज में व्याप्त लिंग पूर्वाग्रहों का परिणाम है, खासकर भारतीय परिवारों में, जहां माता-पिता अपनी बेटियों को कैरियर-उन्मुख विज्ञान कार्यक्रमों में दाखिला लेने की अनुमति नहीं देते या प्रोत्साहित नहीं करते? या, क्या यह इसलिए है क्योंकि महिलाएं पर्याप्त प्रतिभा नहीं रखतीं या कम महत्वाकांक्षी हैं? या, क्या महिलाएं ऐसे पदों को चुनती हैं जहां शोध कार्य की बजाय शिक्षण पर अधिक ज़ोर होता है? या, क्या उन्हें उन दरबानों और चयन प्रक्रियाओं का सामना करना पड़ता है जो पूर्वाग्रहों के चलते शोध या अनुसंधान पदों पर तो पुरुषों का चुनाव करते हैं लेकिन शिक्षण पदों पर महिलाओं के साथ कम भेदभाव करते हैं? या क्या यह इन सभी का मिला-जुला परिणाम है?

इस संदर्भ में उपलब्ध डैटा जटिल लग सकता है लेकिन इसे समझना मुश्किल नहीं है। इसे समझने के लिए हमने पिछले सात सालों में दो सबसे अधिक प्रतिस्पर्धी प्रारंभिक कैरियर रिसर्च फैलोशिप, DST-INSPIRE फैकल्टी स्कीम और भारत एलायंस डीबीटी-वेलकम अर्ली कैरियर फैलोशिप, पाने वालों के लैंगिक डैटा को खंगाला। ये फैलोशिप (पोस्ट-डॉक्टरल रिसर्च अवार्ड्स) 5 साल की निश्चित अवधि के लिए दी जाती हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि 2013 के बाद से इन्हें पाने वालों में महिलाओं की संख्या बढ़ी है और किन्हीं-किन्हीं सालों में तो यह पुरुषों से अधिक भी है। इसका एक संभावित कारण यह हो सकता है कि ये फैलोशिप एक नियमित पद प्रदान नहीं करतीं इसलिए ये पुरुषों को इतना आकर्षित नहीं करतीं। हालांकि, यह कारण असंभव सा जान पड़ता है क्योंकि इन फैलोशिप को पाना, कैरियर में उन्नति करने में मदद करता है और नियमित पदों पर दावेदारी की संभावना बढ़ाता है। इसकी ज़्यादा संभावित व्याख्या यह हो सकती है कि वर्तमान पीढ़ी में जीव विज्ञान में प्रवेश करने वाली महिलाएं शीर्ष पर पहुंचने के लिहाज़ से वाकई पर्याप्त सक्षम और महत्वाकांक्षी हैं।

सहकर्मी मान्यता और पुरस्कार

अब सवाल यह उठता है कि मान्यता और पुरस्कारों के मामले में महिलाएं कितना आगे बढ़ पाई हैं? यहां विशेषकर यह बताना उचित होगा कि 2000 के बाद से कई भारतीय विज्ञान अकादमियों ने लैंगिक समावेश के लिए कई अध्ययन, उच्च कोटि की कार्यशालाएं और जागरुकता सत्रों का आयोजन करवाया है। तो यही देखें कि विज्ञान अकादमियों में महिलाओं के चयन की क्या स्थिति है? उदाहरण के लिए भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (INSA) में विभिन्न विषयों में चयनित महिला सदस्यों (फेलो) के आंकड़ों को ही लें। हम पाते हैं कि अधिकांश विषयों में, लैंगिक-समानता ना केवल एक दूर का सपना है बल्कि सक्रिय दखल दिए बिना इस लैंगिक-खाई को पाटना शायद संभव ना होगा। वैसे, जीव विज्ञान में महिलाओं की स्थिति, अन्य विषयों से थोड़ी बेहतर दिखती है।

ऐसी ही निराशाजनक स्थिति प्रतिष्ठित पुरस्कारों में भी दिखती है। जैसे, वर्ष 1958 में शुरु किए गए शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार (जो विज्ञान के सात विषयों के लिए दिए जाते हैं) और हाल ही में शुरू किए गए इन्फोसिस पुरस्कार (जो साइंस और इंजीनियरिंग के 4 विषयों में दिए जाते हैं) की स्थिति पर गौर कीजिए। 2016 तक इन पुरस्कार को पाने वाले कुल 525 लोगों में सिर्फ 16 महिलाएं (यानी 3.04 प्रतिशत) थीं। 2017 में पुरस्कृत लोगों की कुल संख्या 535 हो चुकी थी लेकिन इनमें महिलाओं की संख्या 16 (यानी 2.99 प्रतिशत) रह गई थी। साल 2017 तक इंजीनियरिंग और कम्प्यूटर साइंस में इन्फोसिस पुरस्कार प्राप्त करने वाले आठ लोगों में से केवल एक महिला थी, लाइफ साइंस में पुरस्कृत नौ में 2 महिलाएं थीं और भौतिक विज्ञान में पुरस्कृत नौ लोगों में सिर्फ एक महिला थी।

पूरे विश्व में समकक्ष लोगों द्वारा मान्यता के रुझान बताते हैं कि दुर्भाग्यवश, यह समस्या वैश्विक है। साल 2017 में नेचर एस्ट्रोनॉमी में प्रकाशित एक शोध पत्र में केपलर और उनके साथियों ने इस बात का विश्लेषण किया था कि महिलाओं द्वारा लिखित शोध पत्रों और पुरुषों द्वारा लिखित शोध पत्रों को कितनी बार अन्य शोध पत्रों में उद्धरित किया जाता है। इसके लिए उन्होंने 1950 से 2015 के बीच 5 मुख्य एस्ट्रोनॉमी जर्नल्स में प्रकाशित 1,50,000 लेखों का विश्लेषण किया था। उन्होंने पाया कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं द्वारा लिखे गए पर्चों को लगभग 10 प्रतिशत कम उद्धरण प्राप्त हुए।

साल 2018 में प्लॉस बॉयोलॉजी में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में हॉलमैन और उनके साथियों ने इस बात की जांच की कि वैज्ञानिक शोध दलों की अगुवाई करने वालों में कितनी महिलाएं दिखती हैं। इसे जांचने के लिए उन्होंने वैज्ञानिक शोध पत्रों के मुख्य लेखक या पत्राचार करने वाले लेखक के जेंडर का विश्लेषण किया। उन्होंने साल 2002 से अब तक पबमेड में प्रकाशित लगभग 91.5 लाख शोध पत्रों के लगभग 3.5 करोड़ लेखकों और 1991 से अब तक arXiv preprints में प्रकाशित 5 लाख शोध पत्रों का विश्लेषण किया। उनका निष्कर्ष था कि भौतिकी विषय में लैंगिक समता लाने में अभी 258 साल और लगेंगे, और जीव विज्ञान में भी 75 साल से भी अधिक वक्त लगेगा। उन्होंने यह भी पाया कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं को शोध पत्र लिखने के लिए कम ‘आमंत्रित’ किया जाता है। जीव विज्ञान प्रबंधक विशेषज्ञ खोजने वाली एक कंपनी लिफ्टस्ट्रीम ने एक अध्ययन किया था और बताया था कि बायोटेक प्रबंधन समितियों में महिलाओं को इसलिए कम आंका जाता है क्योंकि वहां आसीन पुरातन-सोच वाले पुरुष मौजूद हैं जो इन पदों पर महिलाओं को शामिल नहीं करते, और यदि यहि रफ्तार रही तो साल 2056 तक इन स्थानों पर लैंगिक समानता नहीं आ सकेगी।

विज्ञान में लैंगिक ढांचा और पूर्वाग्रह

लिंग (जाति भी) सूक्ष्म और व्यापक दोनों स्तरों पर पारस्परिक सम्बंधों और संस्थागत ढांचों, दोनों को प्रभावित करता है। लैंगिक ताना-बाना सांस्कृतिक पूर्वाग्रह भी बनाता है कि किसी स्थिति में हम कैसी प्रतिक्रिया देंगे, या किसी अन्य व्यक्ति से कैसी प्रतिक्रिया की उम्मीद रखेंगे। इसके बाद संस्थागत सांस्कृतिक कायदे बनाए जाते हैं ताकि जेंडर आचार संहिता के उल्लंघन पर दंड दिया जा सके या उस व्यवहार को हतोत्साहित किया जा सके।

2012 में येल के मॉस-रेकुसिन और उनके साथियों का एक बहुत ही दिलचस्प डबल-ब्लाइंड अध्ययन प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज (पीएनएएस) में प्रकाशित हुआ था। इसमें नियुक्ति के समय वैज्ञानिकों की लैंगिक पहचान के प्रति ‘निष्पक्षता’ को जांचा गया था। 127 विज्ञान शिक्षकों (पुरुष और महिला दोनों) को लैब मैनेजर के पद के लिए लिखे गए दो में से एक आवेदन दिया गया था। दोनों आवेदन एकदम समान थे, एकमात्र अंतर लिंग (जॉन बनाम जेनिफर) का था। वैज्ञानिकों को योग्यता, नियुक्ति की पात्रता, संभावित वेतन और मार्गदर्शन करने की क्षमता के आधार पर आवेदकों को अंक देने के लिए कहा गया था। अध्ययन में उन्होंने पाया कि पुरुष आवेदक को ना केवल योग्यता, नियुक्ति की पात्रता और मार्गदर्शन करने की क्षमता के संदर्भ में उच्च आंका गया बल्कि उसे महिला आवेदक की तुलना में अधिक वेतन का भी प्रस्ताव दिया गया (30,238.10 डॉलर बनाम 26,507.94 डॉलर)। चयनकर्ता के महिला या पुरुष होने का उनके आकलन पर कोई असर नहीं दिखा; पुरुष चयनकर्ता की तरह महिला चयनकर्ता ने भी, पुरुष आवेदक को महिला आवेदक से अधिक आंका।

अब यह बात व्यापक रूप से स्वीकार कर ली गई है कि विज्ञान के क्षेत्र में विभिन्न लिंगों के छात्रों में रूढ़ छवियां (स्टीरियोटाइप) और अनजाने में बने लैंगिक पूर्वाग्रह होते हैं। इस बारे में गंभीर खोजबीन जारी है कि ये काम कैसे करते हैं। साल 2015 में हैंडले द्वारा पीएनएएस में प्रकाशित एक अध्ययन में यह विचार किया गया था कि विज्ञान में लैंगिक पूर्वाग्रह के प्रमाणों का मूल्यांकन महिला और पुरुष कैसे अलग-अलग करते हैं। उन्होंने कुल तीन डबल-ब्लाइंड अध्ययन किए – दो समूह आम लोगों के थे जबकि एक समूह विश्वविद्यालय फैकल्टी का था जिसमें STEM (साइंस, टेक्नॉलॉजी, इंजीनियरिंग और मेथेमेटिक्स) और non-STEM दोनों विषयों के लोग थे। यहां हम सिर्फ यह देखेंगे कि STEM और non-STEM विषय के 205 लोगों को जब मॉस-रेकुसिन के शोध पत्र का सारांश मूल्यांकन के लिए दिया गया तो उनकी क्या प्रतिक्रिया रही। उन्हें non-STEM विषयों के पुरुष और महिला शिक्षकों की प्रतिक्रियाओं में कोई खास अंतर नहीं दिखा। दूसरी ओर, STEM विषय की महिलाओं की तुलना में STEMसंकाय के पुरुषों ने सारांश को कमतर आंका। non-STEM विषय के सारे लोगों द्वारा किए गए मूल्यांकन और STEM विषय की महिलाओं द्वारा किए गए मूल्याकंन में भी कोई खास अंतर नहीं था। इन नतीजों के आधार पर शोधकर्ताओं का निष्कर्ष था कि यह इस वजह से नहीं है कि STEM विषय की महिलाओं ने अतिशयोक्ति पूर्ण आकलन दिया बल्कि इसलिए है कि STEM विषय के पुरुष अपने कार्यक्षेत्र में लिंग पूर्वाग्रह की संभावना को स्वीकार करने के इच्छुक नहीं होते; यदि वे इसे स्वीकार करेंगे तो हो सकता है कि उन्हें प्राप्त विशेष दर्जे पर सवाल उठ जाएं।

2010 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज़ के सहयोग से इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज़ की अनीता कुरुप और उनके साथियों द्वारा किए गए प्रशिक्षित वैज्ञानिक महिला कर्मियों के सर्वेक्षण में कुछ चौंकाने वाले निष्कर्ष सामने आए थे। उनके अध्ययन में 794 पीएचडी कर चुके लोग शामिल थे, जिसमें लगभग 40 प्रतिशत पुरुष थे। शोधकर्ताओं ने इन लोगों को चार श्रेणियों में बांटा था: अनुसंधान में संलग्न महिलाएं (WIR), अनुसंधान ना करने वाली महिलाएं (WNR), काम ना करने वाली महिलाएं (WNW) और अनुसंधान में संलग्न पुरुष (MIR)। पता चला कि पीएचडी करने वाली 87 प्रतिशत महिलाओं ने विज्ञान में काम करना जारी रखा, लेकिन इनमें से लगभग 63 प्रतिशत महिलाएं ही शोध कार्य (WIR) कर रहीं थीं। बाकी महिलाओं का शोध कार्य में ना होने का सबसे प्रमुख कारण था नौकरी ना मिलना। काम ना करने वाली महिलाएं (WNW) नियमित पद ना मिलने या केवल अस्थायी पद मिलने के कारण विज्ञान के क्षेत्र में कैरियर बनाने से पीछे हट गई थीं। यह स्थिति विशेष रूप से उन महिलाओं के साथ थी जिनके पति उसी या उसके प्रतिस्पर्धी वैज्ञानिक क्षेत्रों में पीएचडी थे, या वैज्ञानिक अनुसंधान में संलग्न थे। इन महिलाओं को मिलने वाली नौकरी की अस्थायी प्रकृति ने अक्सर परिवार की ज़रूरतों, जैसे बुज़ुर्र्ग या बच्चों की देखभाल, के लिए इन्हें ही घर पर रहने को मजबूर किया। दिलचस्प बात यह है कि शोधकार्य करने वाली महिलाओं में से 14 प्रतिशत महिलाओं ने शादी नहीं की थी जबकि शोधकार्य करने वाले केवल 2.5 प्रतिशत पुरुषों ने शादी नहीं की थी। यह भी पता चला कि प्रति सप्ताह प्रयोगशाला में 40-60 घंटे बिताने वालों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं (WIR) की संख्या अधिक थी। और कई पुरुषों ने उनके बच्चे बड़े होने पर प्रयोगशाला में सप्ताह में 40 घंटे से भी कम समय बिताया। फिर भी महिलाओं के प्रति यह रूढ़िवादी सोच बनी हुई है कि महिलाएं शोध के लिए प्रतिबद्ध नहीं होती या उनमें परिवार और कैरियर की प्राथमिकता को लेकर द्वंद्व चलता रहता है।

विज्ञान अकादमियों और वित्त पोषण एजेंसियों की पहल

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया था, सदी की शुरुआत में भारत की कई विज्ञान अकादमियों ने विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की अनुपस्थिति, उनको मान्यता में कमी जैसे मुद्दों को पहचाना, और यथास्थिति को बदलने के लिए आवश्यक कदम उठाने की शुरुआत कर दी थी। लेकिन ये कदम कितने प्रभावी रहे? 2004 में भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (INSA) की रिपोर्ट के बाद नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (NAS) और इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (IAS) ने कार्यशालाएं आयोजित की और विज्ञान में महिलाओं को शामिल करने के लिए कई पहल की। साल 2005 में DST ने विज्ञान में महिलाओं के लिए एक राष्ट्रीय टास्क फोर्स की स्थापना की। ये ठोस कदम विज्ञान में महिला मुद्दों को सामने लाए और इनसे इन क्षेत्रों में महिलाओं के दाखिले और नियुक्ति के बीच की खाई (यानी तथाकथित रिसाव की समस्या) को पहचानने में मदद मिली। अकादमियों ने नियुक्ति प्रक्रियाओं की दिक्कतों, पारंपरिक घरेलू व्यवस्था में महिलाओं के ऊपर पड़ने वाले दोहरे बोझ और वरिष्ठ पदों या निर्णायक पदों पर महिलाओं की अनुपस्थिति पहचानी। महिलाएं विज्ञान क्षेत्र को बतौर पेशा चुनें, इसे प्रोत्साहित करने के लिए DST ने, इस क्षेत्र में काम करने की परिस्थितियों में सुधार की सिफारिशें की हैं। जैसे, उनके लिए लचीली समय व्यवस्था, बच्चों के लिए झूलाघर, सुरक्षित परिवहन, कैंपस आवास, फेलोशिप, और जागरूकता कार्यक्रम आदि।

लागू करने के लिए इनमें से सबसे आसान सुझाव था फेलोशिप योजनाएं, जो किसी भी तरह से यथास्थिति को चुनौती नहीं देतीं। उदाहरण के लिए DST की महिला वैज्ञानिक योजना को ही लें। यह कार्यक्रम उन पीएचडी धारी महिलाओं को अनुसंधान कार्यों में वापस जोड़ने के लिए चलाया गया था जिनके कैरियर में किन्हीं कारणों से अंतराल आ गया था। लेकिन उनके लिए नियमित रोज़गार के अवसर प्रदान करने की योजना के बिना, ऐसी अधिकांश योजनाएं सिर्फ एक, अनिश्चित वादे के साथ, पोस्ट-डॉक्टरल फेलोशिप भर बनकर रह गर्इं। कई साल पहले 1984 में, UGC ने तकनीकी रूप से प्रशिक्षित लोगों को आकर्षित करने और इस क्षेत्र में बनाए रखने के लिए रिसर्च साइंटिस्ट स्कीम शुरू की थी। विदेश में अच्छे पदों पर कार्यरत कई लोग इस स्कीम का लाभ पाने के लिए देश लौट आए थे। 1999 आते-आते UGC इस योजना को जारी रखने का इच्छुक नहीं था, और इस योजना से सम्बंधित मेज़बान संस्थान इन शोध वैज्ञानिकों को अपने यहां लेने के लिए तैयार नहीं थे। कई UGC-शोध वैज्ञानिक कानूनी कार्रवाइयों की मदद से सेवानिवृत्ति तक अपने पद पर बने रह सके जबकि कई लोगों ने इन संस्थानों में वैमनस्य का सामना किया। यही हश्र 2008 में शुरू हुए DST-INSPIRE फैकल्टी प्रोग्राम या 2013 में शुरू हुए यूजीसी फैकल्टी रिचार्ज प्रोग्राम का भी होता दिख रहा है, यदि मेज़बान संस्थान इन कार्यक्रमों के तहत नियुक्त किए गए शिक्षकों को फंडिंग खत्म होने के बाद भी अपने संस्थानों में रखने का कोई तरीका नहीं निकाल लेते।

दुर्भाग्य से, अक्सर फंडिंग योजनाओं की घोषणा शीर्ष स्तर से की जाती है। पुरानी योजनाओं के सटीक आकलन करने वालों और संस्थानों के बीच इस पर चर्चा की कमी रहती है। यहां, विभिन्न फंडिंग एजेंसियों द्वारा शुरु किए गए पीएचडी अनुसंधान योजनाओं के हितधारकों के साथ बमुश्किल ही कोई उचित चर्चा होती है, और नौकरशाह अक्सर इन कार्यक्रमों को अपने नियंत्रण में रखते हैं और हितधारकों के हाथ में कुछ नहीं होता।  

इससे भी अधिक मुश्किल है ऐसे कार्यक्रमों या समाधानों को लागू करना जो स्थापित एकछत्र सत्ता को चुनौती देते हैं। इस देश में कई वर्ष एक छात्र के रूप में और अलग-अलग संस्थानों में एक शिक्षक के रूप में बिताने के बाद, आज भी मैं ऐसे किसी लैंगिक संवेदीकरण कार्यक्रम के बारे में नहीं जानती जो विज्ञान-कर्मियों, छात्रों या शिक्षकों के लिए स्वैच्छिक या अनिवार्य रूप से चलाया जाता हो। मैंने ऐसे कई कार्यक्रमों में भाग लिया है, जिनका उद्देश्य विज्ञान में कैरियर के लिए अधिक महिलाओं को आकर्षित करना है, लेकिन इनमें से एक भी कार्यक्रम ऐसा नहीं रहा जो गंभीरता से विज्ञान के विभागों या संस्थानों को ज़्यादा समावेशी, ज़्यादा विषमांगी बनाने पर मंथन करता है। मैंने शायद ही कभी किसी संस्थान को इन कार्यशाला की सिफारिशों को अपनाते देखा है, और आकलन करते देखा है कि ये कदम कितने सफल रहे? अधिकांश संस्थानों/विभागों में, यहां तक कि जीव विज्ञान विभाग में (जहां पीएचडी प्रवेश में लैंगिक-अनुपात अब उलट चुका है) आज भी औसतन केवल 25 प्रतिशत महिला शिक्षक हैं। कुछ संस्थान महिलाओं को शिक्षकों के तौर पर नियमित करने वाली नीतियों की वकालत करते हैं, या लचीले समय की सुविधा या आवास सुविधा देने का वायदा करते हैं। लेकिन इस सबके बावजूद, अनीता कुरुप और उनके साथियों का अध्ययन बताता है कि ये सब महिलाओं में उनके कैरियर के प्रति प्रतिबद्धता में कमी नहीं लाती हैं। इनमें से अधिकांश महिलाएं विवाहित थीं और अपने परिवार के साथ रहती थीं जहां बच्चों या बुज़ुर्गों की देखभाल उनकी ही ज़िम्मेदारी रहती है। इनके लिए कुछेक संस्थान ही अच्छे झूलाघर या सुरक्षित परिवहन जैसी सहायता मुहैया करा सके। इनमें से अधिकांश संस्थानों में आज भी यही स्थिति है। लचीले समय की सुविधा देने की बजाय कई संस्थाओं ने अधिक बाज़ारोन्मुख, और मुनाफा केंद्रित तरीके अपनाएं हैं जिसके चलते कार्यस्थल पर उपस्थिति के अधिक कठोर नियम बने हैं। जैसे आधार-लिंक्ड बायोमेट्रिक्स प्रणाली, जिससे महिला वैज्ञानिकों को और भी मुश्किल हालात का सामना करना पड़ता है।

यह हमारे सामने एक बड़ा सवाल खड़ा करता है कि क्या इस बात से कोई फर्क पड़ता है कि ये नीतियां कौन बनाता है? क्या इससे फर्क पड़ता है कि हितधारक कौन है? या क्या ‘स्थान’ (location) पूरी तरह अप्रासंगिक है? इसे समझने के लिए हम UGC की महिलाओं को विज्ञान अनुसंधान कार्यों की ओर आकर्षित करने के लिए बनाई हालिया नीति को देखते हैं। यूजीसी नियमन 2016 के अनुच्छेद 4.4 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “महिलाओं और 40 प्रतिशत से अधिक विकलांगता वाले उम्मीदवारों को एमफिल पूरी करने के लिए अधिकतम एक साल और पीएचडी पूरी करने के लिए अधिकतम दो साल की अवधि की छूट दी जा सकती है। इसके अलावा, महिला उम्मीदवारों को एमफिल/पीएचडी के दौरान एक बार 240 दिनों का मातृत्व अवकाश या बाल देखभाल अवकाश दिया जा सकता है।” पहली नज़र में, यह पहल महिलाओं को उनकी पीएचडी पूरी करने में मदद करने की नज़र से बहुत ही उदार लगती है, इससे हमारे पास नियुक्त करने के लिए प्रशिक्षित लोगों का एक बड़ा पूल तैयार होगा। सभी महिलाएं, चाहे वे विवाहित हों या ना हों, अपनी पीएचडी पूरी करने के लिए दो अतिरिक्त वर्षों की हकदार हैं। यदि महिलाओं को 40 प्रतिशत विकलांग लोगों के समकक्ष देखना अपमानजनक ना भी लगे तो जिन लोगों ने इस नीति को बनाया है उन्होंने इससे एक कदम आगे जाकर बच्चों की देखभाल का सारा बोझ महिलाओं के कंधों पर डाल दिया है। और तो और, शादी और उससे जुड़े समझौतों का सारा बोझ भी महिलाओं पर डाल दिया है। यूजीसी रेग्यूलेशन 2016 का अनुच्छेद 6.6 कहता है कि “विवाह या अन्य किसी कारण से यदि महिला को एमफिल/पीएचडी स्थानांतरण करना पड़े तो, रेग्यूलेशन में उल्लेखित सभी सुविधाओं/शर्तों के साथ अनुसंधान डैटा उस युनिवर्सिटी को हस्तांतरित करने की अनुमति होगी जिसमें वे जाने का इरादा रखती हैं, और यह अनुसंधान मूल संस्थान या मार्गदर्शक का नहीं कहलाएगा। हालांकि, पीएचडी करने वाले को मूल मार्गदर्शक और शोध संस्था को उचित श्रेय देना होगा।” इन नियमों को देखते हुए, क्या यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि विज्ञान में शोध पर्यवेक्षक (चाहे पुरुष हो या महिला) अपनी प्रयोगशाला में पुरुष की बजाय किसी महिला शोधार्थी को पीएचडी के लिए वरीयता देंगे?

जैसा कि पहले ही बताया गया था कि विज्ञान क्षेत्र में महिलाओं की कमी, प्रशिक्षित महिलाओं की कमी के कारण नहीं है। इस क्षेत्र में बाधाएं अक्सर इसके बाद आती हैं – रोज़गार के अवसरों की कमी, बुनियादी सुविधाओं की कमी और संस्थानों द्वारा सहयोग में कमी, ये सब मिलकर महिलाओं को इस क्षेत्र से बाहर रखते हैं। ऐसी नीतियां जो उन्हीं लोगों को शामिल नहीं करतीं जिनके लिए वे बनाई जा रही हैं, तो अंतत: अक्सर उन लोगों के जीवन और अनुभवों में कोई खास परिवर्तन नहीं आता है जिन्हें ध्यान में रखकर वे बनाई गई थीं। लेकिन बात तो तब बिगड़ जाएगी जब अंत में कोई नीति उनके लिए ही विनाशकारी या अहितकारी साबित हो जिनके हित में यह बनाई गई है।

इसके अलावा, इसमें शामिल संस्थाओं के ढांचे में बदलाव किए बिना इन नीतियों को लागू करना, विपरीत परिणाम दे सकता है और परिणामस्वरूप व्याप्त रूढ़ियों और पूर्वाग्रहों को मज़बूत कर सकता है। यह स्पष्ट है कि क्यों कई महिलाएं लिंग आधारित आरक्षण को लेकर शंका व्यक्त करती हैं, या कई महिलाएं लचीली समय सुविधा लेने में या प्रतिस्पर्धात्मक माहौल में जहां पुरुषों की अधिकता है वहां घर से काम करने की सुविधा लेने में हिचकती हैं। अंतर्निहित लैंगिक सोच संस्था के ढांचे में झलकता है। इस प्रकार, इन संस्थाओं के ढांचे में सक्रिय बदलाए किए बिना, हम उन्हीं को दोहराने की संभावना बनाते हैं। जैसा कि IISERs जैसे संस्थान को देख कर समझ आता है कि क्यों इन नए संस्थानों में भी पुराने संस्थानों जैसा ही लैंगिक असंतुलन दिखाई देता है।

निष्कर्ष के तौर पर

पिछले सत्तर सालों में भारत के विज्ञान परिदृश्य में बहुत कुछ बदला है। आज़ादी के बाद, भारत ने विज्ञान शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए काफी संसाधन लगाए हैं। साठ के दशक के मध्य से विज्ञान में लिंग समानता बढ़ाना भी इसके उद्देश्यों में से एक है। वैश्विक और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर ही विज्ञान के विभिन्न कामों और वैज्ञानिक संस्थानों की आंतरिक प्रक्रियाओं में भी काफी बदलाव आए हैं। शायद इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण सकारात्मक उपलब्धि है कि विज्ञान में अध्ययन और शोध में प्रवेश लेने वाली महिलाओं की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। और यह केवल विज्ञान के कुछ विषयों या देश के कुछ हिस्सों तक ही सीमित नहीं है। पुरुषों की तुलना मे उच्च शिक्षा के हर क्षेत्र में लगातार महिलाओं के दाखिला लेने और उत्तीर्ण होने की संख्या बढ़ रही है। साठ के दशक में विज्ञान के अधिकांश विषयों में महिलाओं की पूर्ण अनुपस्थिति को देखें तो वर्तमान स्थिति तक आना सराहनीय बात है। जैसा कि कई लोगों ने कहा है, बीसवीं शताब्दी के सामाजिक सुधार और उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष, दोनों ने एक ऐसा इतिहास रचा जहां महिलाओं की शिक्षा की एक सकारात्मक छवि बनी। हालांकि, उनका यह कदम लिंग भेद पर टिका था – उद्देश्य महिलाओं को इसलिए शिक्षित करना नहीं था कि वे एक कुशल पेशेवर की तरह सार्वजनिक जीवन का हिस्सा बनें बल्कि इसलिए था कि वे भावी पीढ़ी के लिए सक्षम माताएं बन सकें। हालांकि इन प्रयासों ने महिलाओं के लिए उन आधुनिक औपचारिक शिक्षा स्थानों को खोल दिया जिनके दरवाज़े उनके लिए बंद थे। यह खास तौर से उन वर्गों के लिए खुले, जो खुद को सक्रिय रूप से नए राष्ट्र निर्माता के रूप में देख रहे थे, यानी नवोदित मध्यम वर्ग। खुद को नए राष्ट्र के संरक्षक के रूप में देखते हुए उन्होंने माना कि यह नया राष्ट्र एक गरिमामयी इतिहास और उत्कृष्ट आध्यात्मिक सभ्यता का वाहक है जिसमें आधुनिकमूल्यों का समावेश करना है। इनमें से पहली और दूसरी पीढ़ी के कई शिक्षित अभिजात्य वर्ग ने भी शिक्षा को आध्यात्मिकता और तपस्या के बराबर माना था। इस प्रकार, भारतीय संस्कृति के संदर्भ में समय के साथ शिक्षा ने अधिक वैधता हासिल की।

बहरहाल, वैज्ञानिक कार्यस्थलों में खासकर वैज्ञानिक संस्थानों और उच्च पदों पर पर्याप्त संख्या में महिलाओं की मौजूदगी होने में अभी भी काफी लंबा वक्त लगेगा। विज्ञान अकादमियों और पुरस्कार पाने वालों में भी महिलाएं कम संख्या में है। वर्तमान व्यवस्था जिस तरह बनी है, यह एक ऐसी बिसात की तरह है जिसे महिलाएं कभी नहीं जीत सकतीं। कॉर्पोरेट अर्थ व्यवस्था की तरह वैज्ञानिक संस्थानों में भी लैंगिक ढांचे के तहत ‘जान-पहचान’ के आधार पर काम होता है। यह तो सर्वविदित है कि भारत में ऐसे नेटवर्क या जान-पहचान द्वारा ही नियुक्तियां,चुनाव, नामांकन, पुरस्कार के पात्र चुने जाते हैं, जिन तक महिलाओं की आसान पहुंच नहीं होती है।

इससे भी महत्वपूर्ण है कि यह सिर्फ गतिशीलता या काबिल महिला वैज्ञानिकों को मान्यता की बात नहीं है। विज्ञान की दुनिया में प्रवेश करने वाले युवा शोधकर्ताओं को अनुकरणीय उदाहरणों के रूप में पर्याप्त महिलाएं नहीं दिखतीं, जो इस रूढ़ि को बल देता है कि वैज्ञानिक तो पुरुष ही होते हैं और इस तरह एक नकारात्मक छवि का चक्र चलता रहता है और विज्ञान में महिलाओं के लिए आत्म-पराजय की स्थिति बनाता है। सार्वजनिक दायरे में महिलाओं की बढ़ती उपस्थिति इन स्थानों को अन्य महिलाओं के लिए अधिक सुलभ और सुरक्षित बनाएगी। यह वैज्ञानिक प्रतिष्ठान में सभी पदों पर महिलाओं की मौजूदगी को भी बढ़ाएगा, इसके अलावा उच्च पदों पर महिलाओं की मौजूदगी प्रयोगशाला और कक्षाओं में युवा महिला शोधार्थी को सहज करेगी, और उनके उत्साह और वैज्ञानिक क्षमता दोनों को बढ़ाएंगी। हालांकि, सांकेतिकता इसका जवाब नहीं होना चाहिए। सांकेतिक अल्पसंख्यक, चाहे जाति के मामले में हो या लिंग के, अक्सर बहुसंख्यकों की राय को मज़बूत करता है और समितियों में इस बात का दिखावा भर करता है कि ये समितियां सामाजिक पूर्वाग्रहों से मुक्त है। जैसा कि कोठारी समिति का आव्हान था, लगातार विविधता को प्रोत्साहित करना मात्र सामाजिक न्याय का तकाज़ा नहीं है, बल्कि यह विज्ञान के लिए अनिवार्य है और उसकी प्रगति के अग्रदूत वाली आत्म-छवि का भी सवाल है। जिन देशों और संस्थानों ने विविधता को सक्रिय रूप से प्रोत्साहित किया है, उन्हें इसके साथ आने वाले ज्ञान, अनुभवों और विचारों की विविधता का लाभ मिला है।

वैज्ञानिक संस्थानों के लिए इन सहज तथ्यों को पहचानना इतना कठिन क्यों है? विज्ञान और तार्किकता का मज़बूत रिश्ता होते हुए भी वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों को अपने कामकाज के तरीकों या कार्यप्रणाली में ‘लिंग-आधारित समस्याएं’ पहचानने में मुश्किल आती है। तार्किकता के मुद्दे पर वैज्ञानिकों को कैसे चुनौती दी जा सकती है? वैज्ञानिकों को तो तार्किक रूप से सोचने और कार्य करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, तो वे इसके विपरीत कैसे हो सकते हैं? चूंकि वे ज़्यादातर जिन विषयों पर शोध करते हैं उन विषयों का सम्बंध जेंडर से कम होता है, उनके पाठ्यक्रम/प्रशिक्षण में एक विषय के रूप में ‘जेंडर’ को शामिल करना अक्सर एक बड़ी चुनौती होती है। थोड़ा उकसाने वाले अंदाज़ में कहें, तो वैज्ञानिकों में लैंगिक-अंधत्व स्वाभाविक रूप से होता है। फिर भी जैसे-जैसे इसके ‘वैज्ञानिक साक्ष्य’ सामने आते जाते हैं तो यह ज़रूरी होता जाता है कि वैज्ञानिक अपने अंदर के घोषित-अघोषित दोनों पूर्वाग्रहों की जांच करें, उन नीतियों पर चर्चा करें जो वास्तव में अधिक महिला समावेशी हैं, वरिष्ठ और निर्णायक पदों के साथ शिक्षकों के तौर पर महिलाओं को शामिल करने के बेहतर और अधिक पारदर्शी तरीके खोजें। महिलाओं की मौजूदगी बढ़ाना, निष्पक्षता बढ़ाने और विज्ञान में उत्पादकता और उत्कृष्टता बढ़ाने जैसा है। यह दोनों हाथों में लड्डू का खेल है!(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://indiabioscience.org/media/articles/IndianWomeninScience.jpg

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