अभी
तक सार्स-कोव-2 वायरस
लगभग 1.5 करोड़ लोगों को बीमार कर चुका है लेकिन
चमगादड़ों का ऐसे वायरसों के साथ जीने का काफी पुराना इतिहास रहा है। चमगादड़ परिवार
की छह प्रजातियों के हालिया अनुक्रमित जीनोम से पता चला है कि वे पिछले 6.5 करोड़ वर्षों से वायरस को बड़ी चालाकी से गच्चा दे रहे हैं।
गौरतलब
है कि विश्व में चमगादड़ों की 1400 से अधिक प्रजातियां
हैं। ये 2 ग्राम से लेकर 1 कि.ग्रा. से भी अधिक वज़न के
होते हैं। कुछ तो 41 वर्ष की उम्र तक जीते हैं जो उनके आकार के
हिसाब से काफी अधिक है। इनमें कोरोनावायरस सहित सभी प्रकार के वायरस बिना किसी
कुप्रभाव के पाए जाते हैं। चमगादड़ों के इस रहस्य की खोज करने के लिए वर्ष 2017 में एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने बैट 1k परियोजना की शुरुआत की थी। इस परियोजना के
तहत चमगादड़ों की समस्त प्रजातियों के जीनोम का अनुक्रमण करने का लक्ष्य है। नेचर
में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार अब तक छह जीनोम का अध्ययन पूरा हो गया है।
शोधकर्ताओं
द्वारा इन नव अनुक्रमित जीनोम की तुलना 42 विभिन्न
स्तनधारियों के जीनोम से की गई। उन्होंने पाया कि अनुमान के विपरीत चमगादड़ों के
सबसे करीबी रिश्तेदार छछूंदर, लीमर या चूहे नहीं बल्कि इनके पूर्वज उन
स्तनधारियों के भी पूर्वज हैं जो अंतत: घोड़े, पैंगोलिन, व्हेल और कुत्तों
में विकसित हुए।
आगे
विश्लेषण से पता चला है कि चमगादड़ कम से कम ऐसे 10 जीन्स
को निष्क्रिय कर चुके हैं जो अन्य स्तनधारियों में संक्रमण के खिलाफ शोथ (इन्फ्लेमेशन) प्रतिक्रिया उत्पन्न
करते हैं। इसके अलावा उनमें वायरस-रोधी जीन्स की अतिरिक्त
प्रतियां और परिवर्तित रूप भी पाए गए जो रोगों के प्रति उनकी उच्च सहनशीलता की
व्याख्या करते हैं। इसके साथ ही चमगादड़ों के जीनोम में पूर्व-वायरल
संक्रमण से प्राप्त डीएनए के टुकड़े पाए गए जो वायरस की प्रतिलिपियां बनते समय
चमगादड़ के जीनोम में जुड़ गए होंगे। वायरल डीएनए के इन टुकड़ों के अध्ययन के आधार पर
टीम का कहना है कि अन्य स्तनधारियों की तुलना में चमगादड़ों में अधिक वायरल संक्रमण
हुए हैं। इससे चमगादड़ों में वायरल संक्रमण को सहन करने और अधिक कुशलता से जीवित
रहने की क्षमता उजागर होती है।
यह विश्लेषण चमगादड़ों में शिकार करने के तरीके के रूप में प्रतिध्वनि की मदद से स्थान-निर्धारण (इकोलोकेशन) की वैकासिक उत्पत्ति का खुलासा करने में भी सहायक हो सकता है। अगले वर्ष तक बैट 1k परियोजना के तहत 27 अन्य जीनोम अनुक्रमित करने की योजना है जिनमें प्रत्येक प्रजाति के एक चमगादड़ को लिया जाएगा। इस परियोजना की सह-संस्थापक और युनिवर्सिटी कॉलेज डबलिन की जीव विज्ञानी एमा टीलिंग इस परियोजना को जारी रखने के लिए वित्तीय सहायता प्राप्त करने की कोशिश कर रही हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/bat_1280p.jpg?itok=JO6m6ZGy
हाल
ही में युरोपियन सदर्न ऑब्ज़र्वेटरी की विशालकाय दूरबीन की सहायता से सूर्य के समान
एक दूरस्थ तारे की परिक्रमा करते 2 ग्रहों को देखा गया।
पृथ्वी
से लगभग 300 प्रकाश वर्ष दूर यह तारा, TYC 8998-760-1,
दिखने में तो हमारे सूर्य के समान है लेकिन यह सूर्य से
लगभग साढ़े चार अरब वर्ष बाद पैदा हुआ था। मई में अध्ययन के दौरान खगोलविदों की टीम
ने पाया कि गैस का बना एक विशाल ग्रह इस तारे की परिक्रमा कर रहा है। उसूलन इसे TYC 8998-760-1बी नाम दिया गया। इसके सिर्फ 2 महीने बाद इसी टीम ने उसी तारे की परिक्रमा करते हुए एक और
ग्रह का पता लगाया जिसे TYC8998-760-1सी का नाम दिया गया।
यह ग्रह TYC8998-760-1 से और भी अधिक दूर
पाया गया।
इस खोज को एस्ट्रोफिज़िकल जर्नल लेटर्स में प्रकाशित किया गया है। क्योंकि पहली बार हमारे सूर्य के समान एक बहुग्रही सिस्टम को प्रत्यक्ष रूप से देखा गया है, इस खोज को ग्रह अध्ययन के लिए काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। केयू लेवेन, बेल्जियम की खगोलविद और इस अध्ययन की सह-लेखक मैडलिना रेजियानी और उनकी टीम गैस के बने इन दो विशाल ग्रहों की तस्वीर लेने में कामयाब रही है।(स्रोत फीचर्स)
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कुत्ते
अपनी सूंघने की क्षमता के लिए प्रसिद्ध हैं लेकिन एक नए अध्ययन से पता चला है कि
उनमें चुंबकीय कम्पास जैसी संवेदी प्रतिभा भी होती है। यह क्षमता उन्हें अपरिचित
इलाकों में पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की मदद से छोटा रास्ता ढूंढने में मदद करती
है।
यह
तो पहले से अंदाज़ा था कि कुत्ते जैसे कई जानवर (और
शायद इंसान भी) पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र को महसूस कर
सकते हैं। 2013 में चेक युनिवर्सिटी ऑफ लाइफ साइंसेज़, प्राग के संवेदना
पारिस्थितिकीविद हाइनेक बर्डा और उनके साथियों ने बताया था कि कुत्ते मूत्र या मल
त्याग करते समय खुद को उत्तर-दक्षिण में उन्मुख
करते हैं। इससे उन्हें अपने इलाके को चिन्हित करने और पहचानने में मदद मिलती है।
लेकिन स्थिर अवस्था में दिशा ज्ञान और चलते-फिरते दिशा निर्धारण
में फर्क होता है।
इस
बारे में अधिक पड़ताल के लिए शोधकर्ताओं ने चार कुत्तों पर वीडियो कैमरा और जीपीएस
ट्रैकर्स लगाए और उन्हें जंगल की सैर कराने ले गए। कुत्ते किसी गंध का पीछा करते
हुए करीब 400 मीटर तक भागे। लौटकर आने में दो तरह के
व्यवहार दिखे। पहला व्यवहार डब्ड ट्रैकिंग था। इसमें कुत्तों ने संभवत: गंध का पीछा करते हुए वापसी के लिए वही रास्ता अपनाया जिससे
वे गए थे। दूसरा व्यवहार स्काउटिंग था जिसमें कुत्तों ने वापसी के लिए बिना मुड़े-पीछे देखे एकदम नया रास्ता लिया था।
अध्ययन
में शोधकर्ताओं का ध्यान इस बात पर गया कि कुत्तों के स्काउटिंग व्यवहार में वापस
आते समय कुत्ते बीच में रुके और रास्ता तय करने के पहले उत्तर-दक्षिण दिशा में लगभग 20 मीटर
दौड़े। लगता था कि इस तरह चुंबकीय क्षेत्र की सीध में आने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन इस बात को
पक्के तौर पर कहने के लिए शोधकर्ताओं के पास पर्याप्त डैटा नहीं था।
इसलिए
शोधकर्ताओं ने यही अध्ययन 27 कुत्तों के साथ
किया। लगभग 223 बार स्काउटिंग व्यवहार देखा गया। वापसी में
कुत्तों ने औसतन 1.1 किलोमीटर की दूरी तय की। 223 बार में से 170 में कुत्ते मुड़ने के
पहले रुके और उत्तर-दक्षिण दिशा में लगभग 20 मीटर तक दौड़े। जब कुत्तों ने ऐसा किया तो वे मालिक के पास
अधिक सीधे रास्ते से पहुंचे। ये नतीजे ईलाइफ में पत्रिका में प्रकाशित हुए
हैं।
अध्ययन
में कई सावधानियां बरती गई थीं। जैसे कुत्तों को किसी भी तरह मार्ग सम्बंधी संकेत
नहीं मिलने दिया गया। कुत्तों को जंगल के अपरिचित स्थानों पर ले जाया गया। उनके
मालिक कुत्तों के पलटने के पहले ही छिप गए। और वापसी के वक्त हवा का रुख उनके
मालिकों की ओर से नहीं था यानी वे गंध की मदद से रास्ता तलाश नहीं कर सकते थे।
शोधकर्ताओं का विचार है कि कुत्तों ने पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र से सीध के आधार
पर वापसी का मार्ग तय किया।
अन्य
शोधक्रताओं का कहना है कि यह तय करना बहुत मुश्किल है कि यहां 100 फीसदी चुंबकीय-संवेदना ही काम कर
रही है। अलबत्ता,
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी कि कुत्ते चुंबकीय क्षेत्र
का उपयोग कर सकते हैं। हो सकता है कि यह एक प्राचीन क्षमता है जो लंबी दूरी तय
करने वाले प्राणियों में पाई जाती है।
शोधकर्ता अब कुतों की कॉलर पर चुंबक बांध कर स्थानीय चुंबकीय क्षेत्र में बाधा पहुंचा कर फिर से इसी तरह के प्रयोग दोहराकर देखना चाहते हैं कि क्या इससे उनके मार्ग निर्धारण में बाधा आती है।(स्रोत फीचर्स)
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जब 2014 में संयुक्त अरब
अमीरात ने यह घोषणा की थी कि वह दिसंबर 2021 में देश के 50वें स्थापना दिवस के मौके पर मंगल ग्रह पर
अपना मिशन भेजेगा, तो खगोलीय बाधाओं को
देखते हुए यह एक मुश्किल बात लग रही थी। उस समय, अमीरात
के पास कोई अंतरिक्ष एजेंसी नहीं थी और ना ही खगोल वैज्ञानिक थे। उसने तब अपना
सिर्फ एक उपग्रह प्रक्षेपित किया था। युवा इंजीनियरों की तेज़ी से बनती टीम को
अक्सर एक ही बात सुनने को मिलती थी कि यह तो चिल्लर पार्टी है,
मंगल तक कैसे पहुंचेगी?
अब
छह साल बाद कंप्यूटर विज्ञानी सारा अल अमीरी के नेतृत्व में अल-अमल (यानी उम्मीद) ऑर्बाइटर जापान के
तानेगाशिमा स्पेस सेंटर से 19 जुलाई को प्रक्षेपित हो गया है। सात महीनों का सफर तय कर
फरवरी 2021 में
यह मंगल ग्रह की कक्षा में प्रवेश करेगा।
सारा
के अनुसार यह सफर आसान नहीं था। अमीरात सिर्फ 14 सालों से अंतरिक्ष कार्यक्रमों पर काम कर
रहा था और उसका काम पृथ्वी के उपग्रह बनाने और प्रक्षेपित करने तक सीमित था। अन्य
ग्रह पर भेजा जाने वाला अंतरिक्ष यान तैयार करना उसके लिए नया था। ‘इसलिए हम एकदम शून्य
से शुरू करने की बजाए दूसरों से सीख कर आगे बढ़े। मिशन को पूरा करने में हमें
युनिवर्सिटी ऑफ कोलोरेडो, एरिज़ोना स्टेट
युनिवर्सिटी और युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया टीम की मदद मिली। अल-अमल के साथ संपर्क
बनाए रखने में नासा का डीप स्पेस नेटवर्क मदद करेगा।’
अल-अमल ऑर्बाइटर मंगल
ग्रह के मौसम उपग्रह की तरह काम करेगा, जो
मंगल का पहला मौसम उपग्रह होगा। यह मंगल के निचले वायुमंडल के बारे में जानकारी
इकट्ठी करेगा, जिससे यह समझने में
मदद मिलेगी कि पूरे साल के दौरान मंगल पर मौसम कैसे बदलते हैं। इसकी मदद से मंगल
ग्रह पर चलने वाली धूल की आंधियों के बारे में समझने में भी मदद मिलेगी,
जो मंगल ग्रह को पूरी तरह ढंक देती हैं।
मंगल
के वायुमंडल की पड़ताल के लिए अल-अमल ऑर्बाइटर में तीन तरह के उपकरण हैं। दो उपकरण इंफ्रारेड
और अल्ट्रावायलेट प्रकाश में वायुमंडल की पड़ताल करेंगे और एक इमेजर मंगल की रंगीन
तस्वीरें लेगा।
अल-अमल का पथ दीर्घवृत्ताकार होगा। इस पर घूमते हुए वह हर 55 घंटे में सतह के करीब होगा। इससे वह एक ही जगह का अवलोकन विभिन्न समय पर कर सकेगा। बहरहाल अल-अमल के मंगल पर सुरक्षित पहुंचकर डैटा भेजने का इंतज़ार है।(स्रोत फीचर्स)
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मैकजी
एक सरिसृप जीव विज्ञानी यानी हर्पेटोलॉजिस्ट हैं। वे दक्षिण-पूर्वी युनाइटेड स्टेट्स में पाई जाने वाली
यैरोस कंटीली छिपकली का अध्ययन करती हैं। हर्पेटोलॉजिस्ट लोग छिपकली को पकड़ने के
लिए आम तौर पर जिस शब्द का उपयोग करते हैं वह है ‘नूसिंग’। लेकिन मैकजी,
जो कि एक अश्वेत वैज्ञानिक हैं,
को इस शब्द का उपयोग काफी बेचैन करता है।
वास्तव
में ‘नूसिंग’ शब्द का उपयोग
अमेरिका में 19वीं
और 20वीं
सदी में गोरे लोगों द्वारा अश्वेत लोगों को घेरकर मारने के लिए किया जाता था।
मैकजी अपने साथियों को समझाने की कोशिश कर रही हैं कि इस कार्य के लिए ‘लैसोइंग’ शब्द ज़्यादा माकूल
होगा। लैसो डोरी को कहते हैं और छिपकली-गिरगिटों को इसी की मदद से पकड़ा जाता है।
मैकजी
ही नहीं, कई अन्य शोधकर्ता भी
विज्ञान को ऐसे शब्दों व नामों से छुटकारा दिलाने की बात कर रहे हैं जो घिनौने
लगते हैं या नस्लवादी विचारों का महिमामंडन करते हैं। इसी सम्बंध में एक वैज्ञानिक
समिति एक शोध पत्रिका का नाम बदलने पर विचार कर रही है जो एक नस्लवादी वैज्ञानिक
के नाम पर रखा गया था। इसी तरह कोल्ड स्प्रिंग हार्बर लेबोरेटरी (सीएसएचएल) और अन्य संस्थान भी
अपने कैंपस की इमारतों का नाम बदलने पर विचार कर रहे हैं जो नस्लवादी सोच रखने
वाले लोगों के नाम पर रखे गए थे।
वास्तव
में मई माह में मिनियापोलिस के श्वेत पुलिस अधिकारी द्वारा एक अश्वेत व्यक्ति
जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या से पूरे अमेरिका में आक्रोश देखने को मिला। इसके
परिणामस्वरूप देश भर में संस्थागत नस्लवाद के विरोध में प्रदर्शन हुए। ऐसे में
विज्ञान क्षेत्र में भी श्वेत श्रेष्ठतावाद को खत्म करने की पहल की जा रही है।
इसके अंतर्गत ऐसी इमारतों, पत्रिकाओं,
पुरस्कारों तथा जीवों के नामों की छानबीन की जा रही है
जिनमें नस्लवाद झलकता है। यहां तक कि ऐसी बड़ी-बड़ी हस्तियों को भी जांच के दायरे में लाया
जा रहा है जिन्होंने अश्वेत लोगों की मनुष्यता को कमतर बताने के प्रयास किए और
वास्तविक भेदभाव, वंध्याकरण या
नरसंहार की वैचारिक बुनियाद तैयार की।
गौरतलब
है कि इस तरह की पहल नाज़ी जर्मनी और दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी शासन के पतन के
बाद भी की गई थी। उस समय भी नाज़ी जर्मनी का समर्थन करने वाले वैज्ञानिकों के
पुरस्कार छीन कर उनको संस्थानों से भी बाहर कर दिया गया था। हालिया विरोध प्रदर्शन
के काफी पहले से ही नस्लवादी सोच वाले वैज्ञानिकों के नाम पर रखे गए इमारतों,
पत्रिकाओं के नाम आदि का निरंतर विरोध किया जा रहा है।
मिशिगन विश्वविद्यालय की इतिहासकार एलेक्ज़ेंड्रा मिन्ना स्टर्न के अनुसार अपने
कैंपस में विविध और सशक्त माहौल प्रदान करने वाले विश्वविद्यालयों ने अपनी इमारतों
के नामों पर पुन: विचार
करने का समर्थन किया है।
ऐसे
ही कुछ प्रयत्नों के तहत 20वीं
सदी के प्रमुख जेनेटिक विज्ञानी क्लेरेंस कुक लिटिल का नाम मिशिगन विश्वविद्यालय (यू.एम.) की साइंस बिल्डेंग
से हटा लिया गया है। लिटिल ने यूजेनिक्स जैसे विचार का समर्थन किया था और वे
तम्बाकू उद्योग को तंबाकू और कैंसर के सम्बंध के प्रमाणों को झुठलाने में मदद करते
रहे थे। इसी तरह साउथ कैरोलिना विश्वविद्यालय ने महिला चिकित्सक छात्रावास से जे. मैरियन सिम्स का नाम
नाम भी हटा दिया है। गौरतलब है कि सिम्स ने अपने शोध के दौरान गुलाम बनाई गई
महिलाओं पर बगैर एनेस्थेशिया के प्रयोग किए थे। सीएचएसएल ने तो नोबल विजेता जेम्स
वॉटसन के नाम पर रखे गए स्कूल ऑफ बायोलॉजिकल साइंस का नाम भी बदल दिया है। इस
संस्था के बोर्ड के 75 प्रतिशत
सदस्यों, 133 छात्रों और 1 भूतपूर्व छात्र ने वॉटसन को नस्लवाद से
जुड़ा पाया। वॉटसन ने एक समाचार पत्र के माध्यम से अश्वेत लोगों को बुद्धिहीन बताया
था। उस समय संस्थान ने वॉटसन को कुलपति के पद से हटाते हुए सभी पुरस्कार छीन लिए
थे और अब स्कूल का नाम भी बदल दिया है।
यू.के. के प्रसिद्ध कैंब्रिज
विश्वविद्यालय ने उस रंगीन कांच की खिड़की को हटा दिया है जिसका नाम मशहूर बायो-सांख्यिकीविद
रोनाल्ड फिशर के नाम पर था। फिशर 20वीं सदी के मशहूर सांख्यिकीविद रहे हैं और यूजेनिक्स के
मुख्य समर्थक रहे हैं। हालांकि विश्वविद्यालय ने उनके वैज्ञानिक आविष्कारों की
सराहना की है लेकिन विभिन्न समुदायों के बीच मज़बूती बनाए रखने के लिए उनके नाम को
हटा दिया गया है। युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के अधिकारी भी यूजेनिक्स के समर्थक
फ्रांसिस गाल्टन और गणितज्ञ कार्ल पियरसन के नाम पर रखे गए इमारतों के नाम बदलने
पर विचार कर रहे हैं।
यह
पहल केवल कैंपस तक ही सीमित नहीं है। जिनेवा के निवासियों ने नगर पालिका की ग्रैंड
कौंसिल को कार्ल वोग्ट के नाम पर रखे गए एक मोहल्ले का नाम बदलने का प्रस्ताव
सौंपा है। गौरतलब है कि कार्ल वोग्ट चार्ल्स डार्विन के विकासवादी सिद्धांत से
काफी प्रभावित थे लेकिन वे श्वेत और अश्वेत लोगों के बीच खोपड़ी की साइज़ में
अपरिवर्तनीय अंतर के मुखर समर्थक भी रहे हैं। वे अश्वेत लोगों को शारीरिक रूप से
मनुष्यों की तुलना में बंदरों के अधिक करीब मानते थे। अमेरिकन सोसाइटी ऑफ
इक्थियोलॉजिस्ट और हरपेटोलॉजिस्ट अपने प्रमुख जर्नल कोपिया का नाम बदलने पर
विचार कर रहे हैं। यह नाम नस्लवादी विचार रखने वाले वैज्ञानिक एडवर्ड कोप के नाम
पर रखा गया था। इसके अलावा कई प्रतियोगिताओं, जैसे
वार्षिक लीनियन गेम्स, का नाम भी बदला जा
रहा है जो कार्ल लिनियस के नाम पर आयोजित किए जाते हैं। कार्ल लीनियस ने जीवों के
वर्गीकरण की एक प्रणाली विकसित की थी। इसमें होमो सेपियन्स को नस्ल के आधार पर इस
तरह वर्गीकृत किया था कि अश्वेत लोगों को नकारात्मक सामाजिक गुणों से विभूषित किया
था। इसी पहल के चलते कुछ शोधकर्ता कई प्रजातियों के आपत्तिजनक नामकरण को भी बदलने
की कोशिश में हैं।
इन नामों को बदलने की प्रक्रिया का विरोध भी जारी है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि इस तरह से नाम बदलने से आमजन का विज्ञान में सार्वजनिक विश्वास कम होगा। वैज्ञानिक प्रगति का मूल्यांकन न केवल वैज्ञानिक उपलब्धि से होता है बल्कि सामाजिक स्वीकृति भी महत्वपूर्ण होती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Racist_names_1280x720.jpg?itok=iElJjbix
सरकार
ने हाल ही में पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) में बदलाव करने के
लिए एक अधिसूचना जारी की है जिस पर जनता की राय और सार्वजनिक टिप्पणियां मांगी गई
हैं। यदि यह अधिसूचना लागू हो जाती है तो 2006 के बाद की सभी परियोजनाओं के लिए पूर्व में
लागू पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2006 निरस्त हो जाएगी।
भोपाल
गैस त्रासदी के बाद 1986
में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम लागू किया गया था ताकि यह
सुनिश्चित किया जा सके कि जीवन की इतनी बड़ी हानि फिर कभी ना हो। पर्यावरण प्रभाव
आकलन दरअसल पर्यावरण संरक्षण अधिनियम की एक प्रक्रिया है;
सभी प्रस्तावित परियोजनाओं को निर्माण शुरू करने से पहले इस
प्रक्रिया से गुज़रना होता है और उसके बाद ही उन्हें हरी झंडी मिलती है।
पर्यावरण
प्रभाव आकलन में सभी प्रस्तावित परियोजनाओं की उनके संभावित नकारात्मक प्रभावों और
पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों की जांच की जाती है और देखा जाता है कि प्रस्तावित
रूप में परियोजना शुरू की जा सकती है या नहीं। परियोजनाओं का आकलन विशेषज्ञ
मूल्यांकन समिति (EAC) करती है। यह समिति वैज्ञानिकों और परियोजना प्रबंधन विशेषज्ञों
से मिलकर बनी होती है। पर्यावरण प्रभाव आकलन के लिए विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति
द्वारा परियोजना की जांच करके प्रारंभिक रिपोर्ट तैयार की जाती है। समिति इस जांच
के दायरे को भी निर्धारित करती है।
इस
रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद, परियोजना पर
सार्वजनिक विचार-विमर्श
की प्रक्रिया शुरू हो जाती है जिसमें परियोजना से प्रभावित लोगों सहित अन्य लोगों
से आपत्तियां आमंत्रित की जाती हैं। इस प्रक्रिया के पूरी होने पर विशेषज्ञ
मूल्यांकन समिति परियोजना का अंतिम आकलन करती है और रिपोर्ट पर्यावरण और वन
मंत्रालय को सौंप देती है। सामान्यत: नियामक प्राधिकरण समिति द्वारा दिए गए निर्णय को स्वीकार
करने के लिए बाध्य होता है।
पर्यावरण
प्रभाव आकलन के वैश्विक पर्यावरण कानून का मकसद ऐहतियात बरतना है;
ऐहतियात इसलिए क्योंकि पर्यावरणीय नुकसान अक्सर अपरिवर्तनीय
होते हैं। जैसे वनों की कटाई के कारण हुए भू-क्षरण को ठीक नहीं किया जा सकता या वापस
पलटा नहीं जा सकता। आर्थिक और वित्तीय दृष्टि से देखें,
तो भी क्षति ना होने देना, उसे
ठीक करने की तुलना में बेहतर है। यही कारण है कि हम सुरक्षात्मक नीतियों की
अंतर्राष्ट्रीय संधियों और शर्तों और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को मानने के लिए
बाध्य हैं।
चूंकि
सभी पर्यावरणीय नियम पर्यावरण की क्षति और सतत विकास के बीच संतुलन रखने के लिए
हैं, इसलिए निष्पक्ष आकलन अनिवार्य है। यह उन
नौकरियों और इंफ्रास्ट्रक्चर के नुकसान से भी बचाएगा जो तब होगा जब किसी परियोजना को
निर्वहनीय साबित करने से पहले शुरू कर दिया जाएगा। अलबत्ता,
व्यवसाय और उद्योग हमेशा से पर्यावरण प्रभाव आकलन को नई
परियोजना शुरू करने की राह में एक रोड़ा मानते रहे हैं।
ऐसा
कहा जा रहा है कि पर्यावरण प्रभाव आकलन की नई अधिसूचना पर्यावरण प्रभाव आकलन की
प्रक्रिया को सुगम बनाती है और इसे हाल के फैसलों के अनुरूप करती है। यह भी दावा
किया जा रहा है कि इन नए परिवर्तनों से कारोबार करने में आसानी होगी। जबकि
वास्तविकता इससे काफी अलग है। पर्यावरण प्रभाव आकलन प्रक्रिया को सुगम बनाने की आड़
में तैयार नया मसौदा इसे कमज़ोर कर रहा है, इसके
दायरे को कम कर रहा है और इसकी शक्तियां छीन रहा है। अधिसूचना में कई बदलाव
प्रस्तावित हैं, यहां हम उनमें से
कुछ मुख्य संशोधनों पर एक नज़र डालेंगे।
पर्यावरण
प्रभाव आकलन के संशोधन में सबसे विनाशकारी संशोधन एक्स-पोस्ट-फेक्टो क्लीयरेंस (यानी कार्य पूर्ण हो जाने के बाद मंज़ूरी) का विकल्प देना है।
यानी इस संशोधन से उन परियोजनाओं को भी मंज़ूरी प्राप्त करने का मौका मिलेगा जो
पर्यावरण नियमों का उल्लंघन करती हैं। ऐसी स्थिति में यदि परियोजनाओं द्वारा
शुरुआत में पर्यावरण प्रभाव आकलन की मंजूरी नहीं मांगी गई और परियोजना शुरु कर दी
गई तो भी परियोजना अधिकारी बाद में आकलन प्रक्रिया करवा सकते हैं। इस उल्लंघन के
लिए कुछ हर्जाना भरकर, परियोजना के लिए
मंज़ूरी ली जा सकती है।
पहले
भी परियोजनाओं को इस तरह एक्स-पोस्ट-फेक्टो मंज़ूरियां दी जा रही थीं लेकिन अवैध होने के कारण
अदालतों ने उन पर शिकंजा कस दिया था। अब नई अधिसूचना में प्रस्तावित संशोधन अदालत
के इन फैसलों को दरकिनार करता है, हालांकि यह देखना
बाकी है कि दरकिनार करने का हथकंडा वैध है या नहीं।
यह
संशोधन नई परियोजना शुरु करने वालों को यह विकल्प देता है कि वे या तो परियोजना शुरू
करने के पहले पर्यावरण प्रभाव आकलन की प्रक्रिया से गुज़रें या पहले परियोजना शुरू
कर लें और फिर बाद में जुर्माना अदा कर अपनी परियोजना को मान्यता दिलवा लें। वे
कौन-सा
विकल्प चुनते हैं, यह इस बात पर निर्भर
करेगा कि दोनों में से कौन-सा विकल्प व्यवसाय या परियोजना के लिए वित्तीय रूप से बेहतर
है। यानी यदि विकल्पों का यह नियम बन जाता है, पर्यावरण
प्रभाव आकलन का उद्देश्य ही पराजित हो जाएगा।
परियोजना
की निगरानी की व्यवस्था में भी कुछ ढील दी गई है। पर्यावरण प्रभाव आकलन के नवीन
मसौदे में वार्षिक रिपोर्ट देने की बजाए द्विवार्षिक रिपोर्ट देने की छूट दी गई
है। और खनन जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लिए एक बार मिली मंज़ूरी की वैधता की अवधि
को बढ़ा दिया गया है। ये कदम ना केवल पर्यावरण को होने वाले नुकसान को बढ़ाएंगे,
बल्कि ऐसे मामलों में पर्यावरण प्रभाव आकलन की पहुंच को भी
बाधित करने का काम करेंगे।
पर्यावरण
प्रभाव आकलन के अन्य महत्वपूर्ण संशोधनों में से एक संशोधन श्रेणी-बी की परियोजनाओं के
सम्बंध में किया गया है। चूंकि पर्यावरण प्रभाव आकलन की अनिवार्यता की सीमा को बी-2 श्रेणी की
परियोजनाओं के नीचे ले आया गया है, इसलिए ये परियोजनाएं
अब पूरी तरह से पर्यावरण प्रभाव आकलन और सार्वजनिक परामर्श प्रक्रिया से मुक्त
होंगी। इसका मतलब है कि 25 मेगावॉट
से कम की सभी पनबिजली परियोजनाओं और 2,000-10,000 हैक्टर के बीच सिंचित क्षेत्र वाली सभी सिंचाई परियोजनाओं
को मंज़ूरी के लिए पर्यावरण प्रभाव आकलन करवाने या सार्वजनिक विमर्श की आवश्यकता
नहीं रहेगी।
पर्यावरण
प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2006 और वर्तमान में प्रस्तावित मसौदे में एक
अन्य महत्वपूर्ण अंतर है। 2006 की अधिसूचना में यदि श्रेणी-बी की किसी परियोजना का कुछ हिस्सा या पूरी
परियोजना संरक्षित क्षेत्र की सीमा, या
गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्र, या पर्यावरण की
दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र या अंतर-राज्य और अंतर्राष्ट्रीय सीमा के 10 किलोमीटर के दायरे में स्थित होती थी तो
ऐसी श्रेणी-बी
की परियोजना को श्रेणी-ए
की परियोजना की तरह देखा जाता था। नए मसौदे में संशोधन किया गया है कि उपरोक्त
शर्तों को पूरा करने वाली सभी बी-1 श्रेणी की परियोजनाओं का विशेषज्ञ आकलन समिति द्वारा आकलन
तो किया जाएगा लेकिन अब उन्हें श्रेणी-ए की परियोजनाओं के रूप में नहीं देखा जाएगा। नए मसौदे के
इस स्पष्टीकरण से लगता है कि इन परियोजनाओं की आकलन प्रक्रिया उतनी गहन नहीं
रहेगी।
यह
मसौदा परियोजना पर जनता की टिप्पणी या प्रतिक्रिया देने की समयावधि को भी कम करता
है। परियोजना प्रभावित अधिकतर लोग या तो जंगलों में रहते हैं या टेक्नॉलॉजी या
जानकारी तक उनकी पहुंच मुश्किल होती है। यह संशोधन उनके प्रतिनिधित्व को कम करता
है।
पर्यावरण
प्रभाव आकलन के दायरे में कमी की वजह से वह अपने उद्देश्य से इतना भटक गया है कि
शायद अप्रासंगिक ही हो जाए। वे उद्योग जो पहले संपूर्ण आकलन की आवश्यकता वाली
श्रेणी में आते थे, अब उस श्रेणी में
नहीं रहे। इसका सबसे बड़ा लाभ निर्माण उद्योग को होगा जहां केवल बहुत बड़ी
परियोजनाओं की ही पूरी जांच की जाएगी। रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा की परियाजनाओं
को तो हमेशा ही पर्यावरण प्रभाव आकलन से छूट रही है लेकिन अब परियोजनाओं की एक नई
श्रेणी प्रकट हुई है: ‘जिनमें
अन्य रणनीतिक आधार शामिल हों’। यह भी पर्यावरण प्रभाव आकलन से मुक्त होगी। तो सवाल यह
उठता है कि क्या परमाणु संयंत्र या पनबिजली परियोजनाएं ऐसी परियोजनाओं के अंतर्गत
आएंगे?
कुछ
लोग पर्यावरण प्रभाव आकलन के निशक्तीकरण को लोकतंत्र-विरोधी भी मान रहे हैं क्योंकि इससे
प्रभावित कुछ समुदायों के स्थानीय पर्यावरण में विनाशकारी बदलाव उनकी आजीविका को
नुकसान पहुंचा सकते हैं। सार्वजनिक विचार अस्तित्व-सम्बंधी खतरों पर एक जनमत संग्रह है।
सार्वजनिक विमर्श प्रक्रिया को कम या सीमित करना उसी तरह है जिस तरह उन लोगों की
आवाज़ को शांत करना जिनके पास बोलने के मौके पहले ही कम हैं।
सरकार
यह तर्क दे सकती है कि कोविड-19 महामारी के कारण अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ है और यह
अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने की दिशा में एक आवश्यक कदम है। लेकिन उसके कार्यों
से तो लगता है कि वह पर्यावरण नियमों को कारोबार करने की सुगमता में बाधा मानती
है। लॉकडाउन के दौरान, पर्यावरण और वन
मंत्रालय ने तेज़ी से परियोजनाओं को हरी झंडी देने का काम किया है। जब पर्यावरण व
वन मंत्री और भारी उद्योग मंत्री एक ही व्यक्ति हो तो हितों का टकराव होना तय है।
दो मंत्रालय जो सामान्यत: दूसरे
के विरोध में काम करते हैं, वे एक ही व्यक्ति के
पास हैं।
इस
ढिलाई के साथ और उदार तरीके से परियोजनाओं को मंज़ूरी देने का एक उदाहरण हाल ही में
देखने को मिला है। ऑयल इंडिया लिमिटेड के तेल के कुएं संरक्षित जंगलों से केवल कुछ
किलोमीटर की ही दूरी पर स्थित थे। पिछले दिनों जब इन तेल के कुओं से आग की लपटें उठीं,
तो नए सिरे से पर्यावरणीय मंजूरी की बजाय बहानेबाज़ी और
फेरबदल की नई प्रक्रियाएं शुरू कर दी गर्इं।
मंज़ूरी
ना लेने का एक अन्य उदाहरण विशाखापट्टनम स्थित एलजी पॉलीमर संयंत्र से घातक गैस
रिसाव के रूप में सामने आया, जिसमें बारह लोगों
की मौत हो गई और सैकड़ों लोगों को नुकसान पहुंचा। इस त्रासदी के बाद पता चला कि यह
संयंत्र एक दशक से भी अधिक समय से बिना पर्यावरणीय मंज़ूरी के काम कर रहा था।
यह स्पष्ट है कि पर्यावरणीय विनियमन एक संतुलन अधिनियम है जिसका उद्देश्य पर्यावरणीय और सामाजिक क्षति को कम करते हुए टिकाऊ वृद्धि और विकास की अनुमति देना है। लेकिन क्या लॉकडाउन के बाद अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के इरादे ने सरकार में औद्योगिक विकास का पक्ष लेने की आतुरता पैदा की, वह भी कारोबार को आसान बनाने के ढोंग और विदेशी निवेश आकर्षित करने के दावों के आधार पर? एक अन्य सवाल जो परेशान करता है कि जब तक पर्यावरण क्षति के परिणाम नज़र आने शुरू होंगे, तब तक क्या पर्यावरणीय क्षति को कम करने के हमारे प्रयासों में बहुत देरी नहीं हो जाएगी और क्या वे बहुत नाकाफी साबित नहीं होंगे?(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.indianexpress.com/2020/06/eia.jpg
कोविड-19 महामारी के इस दौर
में वैज्ञानिकों के बीच विटामिन डी की महत्ता पर काफी चर्चाएं हुर्इं। इसी साल युरोपियन
जर्नल ऑफ क्लीनिकल न्यूट्रिशन में मरियम एदाबी और एल्डो मोंटाना-लोज़ा का एक शोध पत्र
प्रकाशित हुआ था जिसका शीर्षक है दृष्टिकोण: कोविड-19 के प्रबंधन में विटामिन डी के स्तर में
सुधार की भूमिका। इसमें बताया गया है कि कैसे विटामिन डी
की कमी कोविड-19 के
गंभीर-जोखिम
वाले मरीज़ों को प्रभावित कर सकती है। खासकर उन मरीज़ों को जो मधुमेह,
ह्रदय की समस्या, निमोनिया,
मोटापे के शिकार हैं और धूम्रपान करते हैं। विटामिन डी की
कमी श्वांस मार्ग और फेफड़ों की क्षति से भी जुड़ी है। (लिंक: https://doi.org/10.1038/s41430-0200661)
इसके
इतर, विटामिन डी हड्डियों में कैल्शियम की सही
मात्रा बनाए रखता है, कोशिका झिल्ली को
क्षतिग्रस्त होने से बचाने की प्रक्रिया को उत्प्रेरित करता है,
ऊतकों में सूजन पैदा होने से रोकता है,
ऊतकों को फाइबर बनाने से रोकता है और हड्डियों को भुरभुरी
होकर कमज़ोर होने से बचाता है। इसलिए मनुष्यों (और जानवरों) में विटामिन डी (और कैल्शियम) के स्तर की जांच करते रहना ज़रूरी है। और
आवश्यकता पड़ने पर चिकित्सक द्वारा इसकी उचित खुराक, उचित
समय तक दी जानी चाहिए।
विटामिन
डी की कमी
एक
वेबसाइट (https://ods.od.nih.gov/factsheets/VitaminD-Consumer/) आसान शब्दों में विटामिन
डी के बारे में विस्तारपूर्वक बताती है। विटामिन डी शरीर में तब बनता है जब सूर्य
का प्रकाश या कृत्रिम प्रकाश (खासकर 190 से 400 नैनोमीटर तरंग लंबाई का पराबैंगनी प्रकाश) त्वचा पर पड़ता है।
इसके असर से कोलेस्ट्रॉल-आधारित
एक अणु की रासायनिक अभिक्रिया शुरू होती है, और
इसे लीवर में कैल्सीडाईओल (जिसे 2,5 (OH)Dकहते हैं) में तथा किडनी में कैल्सीट्राईओल (1,2,5 (OH)2D) में परिवर्तित कर दिया जाता है। यही वे दो अणु हैं जो
क्रियात्मक रूप से सक्रिय होते हैं। माना जाता है कि स्वस्थ शरीर के लिए 2,5-(OH)D का स्तर 30-100 नैनोग्राम प्रति मि.ली. के बीच पर्याप्त होता है;
21-29 नैनोग्राम
प्रति मि.ली. के बीच अपर्याप्त
माना जाता है, और 20 नैनोग्राम प्रति मि.ली. से कम स्तर व्यक्ति
में विटामिन की कमी दर्शाता है।
चूंकि
विटामिन डी के बनने के लिए सूर्य का प्रकाश आवश्यक है इसलिए उत्तरी देशों के
मुकाबले उष्णकटिबंधीय देश फायदे में हैं। भारत भी उष्णकटिबंधीय देश है,
तो इस नाते लगता है कि भारत में विटामिन डी का स्तर बेहतर
होगा। लेकिन ऐसा नहीं है!
इस
बारे में इंडियन जर्नल ऑफ एंडोक्रायनोलॉजी एंड मेटाबॉलिज़्म में सितंबर 2017 में संध्या सेल्वराजन
और उनके साथियों का एक पेपर प्रकाशित हुआ था, जिसका
शीर्षक था भारत की स्वस्थ दिखने वाली आबादी में विटामिन डी के स्तर की व्यवस्थित
समीक्षा और इसके कारकों का विश्लेषण (लिंक: http://www.ijem.in/text.asp?2017/21/5/7652/21/5/765/214773)। शोधकर्ताओं ने 2998 से अधिक प्रकाशित
शोध पत्रों और रिपोर्टों का, और भारत के विभिन्न
राज्यों में किए गए अध्ययनों के डैटा का गहन और विस्तृत विश्लेषण किया। इन 40 अध्ययनों में कुल 19,761 व्यक्तियों के नमूने
शामिल थे। इन सभी अध्ययनों में शामिल लोगों में विटामिन डी का स्तर 3.15 नैनोग्राम प्रति मि.ली. से 52.9 नैनोग्राम प्रति मि.ली. के बीच था। और
दक्षिण भारतीय लोगों में विटामिन डी का स्तर 20 नैनोग्राम प्रति मि.ली. से कम (15.74 नैनोग्राम प्रति मि.ली. से 19.16 नैनोग्राम प्रति मि.ली. के बीच) था। इसके अलावा,
पुरुषों की तुलना महिलाओं में विटामिन डी की कमी अधिक देखी
गई।
लेखक
अपने निष्कर्ष में कहते हैं कि भारत सूर्य के प्रकाश से भरपूर देश है,
फिर भी यहां आश्चर्यजनक रूप से लोगों में विटामिन डी की
भारी कमी दिखती है। यह कमी सभी तरह के लोगों, चाहे
वे शहरी हों या ग्रामीण, हर उम्र या हर लिंग,
गरीब हों या अमीर, में
दिखती है। इसलिए यह तो स्पष्ट है कि अधिकांश भारतीय लोगों में इस कमी को दूर करने
के लिए विटामिन डी की पूरक खुराक की ज़रूरत है।
पौष्टिक
भोजन
केंद्र
और राज्य सरकारें, समाज के लिए समर्पित
फाउंडेशन, कंपनियां और यहां तक
कि सह्रदय लोग लाखों-करोड़ों
गरीब लोगों, खासकर प्रवासी
मज़दूरों के लिए मुफ्त भोजन मुहैया करा रहे हैं। इनमें से अधिकतर लोग बेहद गरीब भी
हैं और उन्हें इसी तरह के भोजन पर निर्भर रहना पड़ा है। उनका विटामिन डी का स्तर
निश्चित रूप से 10 नैनोग्राम
प्रति मि.ली. से कम (बहुत कम) होगा। आम तौर पर इन
लोगों को दी जाने वाली खाद्य आपूर्ति में गेहूं या चावल जैसे अनाज,
दालें (जैसे चना, उड़द वगैरह) और कुछ अत्यधिक
सब्सिडी वाली चीज़ें (जैसे
शक्कर, दूध वगैरह) होते हैं। सब्ज़ियां
किसी भी रूप में (पकी
या बिना पकी) नहीं
दी जाती हालांकि शहरों और कस्बों में राज्य सरकार और कुछ निजी संस्थाओं द्वारा पका
भोजन लोगों को सस्ती कीमत पर उपलब्ध कराया जाता है। इसके अलावा,
सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों के लिए मुफ्त
मध्यान्ह भोजन की योजना है और एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम के तहत आंगनवाड़ी में आने
वाले बच्चों और गर्भवती महिलाओं को भोजन दिया जाता है। ये सभी उपयोगी रहे हैं।
विटामिन डी की (वास्तव में कई अन्य विटामिनों और कैल्शियम की भी) कमी को देखते हुए सरकार को चाहिए कि (1) वह पोषण विशेषज्ञों और संस्थानों से सलाह और सुझाव ले कि वर्तमान में गरीबों को उपलब्ध कराए जा रहे राशन में और स्कूली बच्चों को दिए जा रहे भोजन में किस तरह के अन्य पोषक तत्व शामिल किए जा सकते हैं, (2) नि:शुल्क मुहैया कराए जा रहे विटामिन डी, अन्य विटामिन और कैल्शियम की आपूर्ति में इनकी उचित खुराक, दिए जाने की अवधि और अन्य जानकारी चिकित्सा और जन स्वास्थ्य विशेषज्ञों के परामर्श के मुताबिक हो। कई उत्कृष्ट भारतीय कंपनियां हैं जो इनका निर्माण करती हैं। इस तरह के कदम उठाकर, भारत अपने मुल्क के गरीब लोगों को न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य की महामारियों के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार कर सकेगा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/cvaiwg/article32125403.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_1200/19TH-SCISUNSHINEjpg