दीहिंदू के 19 जुलाई के अंक में प्रकाशित मेरे लेख गरीबों को महामारी के खिलाफ तैयार करना पर मिले सुझावों और समालोचना से प्रेरित होकर इस लेख का दूसरा परिवर्धित भाग लिखा गया है।
पहला अपडेट है फ्रंटियर्स इन एंडोक्रायनोलॉजी पत्रिका के 9 अगस्त 2019 के अंक में प्रकाशित सी.वी. हरिनारायण और एच. अखिला का एक विस्तृत और प्रमाणिक पेपर (आधुनिक भारत और जुड़वां पोषक तत्व – कैल्शियम और विटामिन डी – की कमी की कहानी – पिछले 50 वर्षों का पोषण सम्बंधी डैटा – जांच, आत्मनिरीक्षण और संभावना)। डॉ. हरिनारायण इस क्षेत्र में दशकों से काम कर रहे हैं, परीक्षण कर रहे हैं और तिरुपति और अन्य जगहों पर कैल्शियम और विटामिन डी के स्तर की तुलना ग्रामीण, शहरी, गरीब, थोड़ी बेहतर आर्थिक स्थिति वाले लोगों और सम्पन्न लोगों में कर रहे हैं। इस पेपर के संभावना वाले हिस्से में लेखकों ने कुछ आवश्यक कदम सुझाए हैं कि कैसे विशेषज्ञों की मदद और बड़े पैमाने पर पूरक पोषण के माध्यम से पोषण सम्बंधी कमियों को दूर किया जा सकता है, जिन्हें स्कूलों और कॉलेजों, और फोन, टीवी और रेडियो जैसे सोशल मीडिया के माध्यम से प्रचारित करना चाहिए। (मेरा सुझाव है कि सभी को यह महत्वपूर्ण पेपर पढ़ना चाहिए – https://doi.org/10.3389/fen-do.2019.00493)। हालांकि इनमें से कई सुझावों का पहले से ही क्रियान्वयन जा रहा है, लेकिन इससे अधिक करने की आवश्यकता है।
विटामिन डी की कमी
यह दिलचस्प है कि एक तरफ जब इस पेपर में लेखक (और 2017 के पेपर में सेल्वाराजन भी) यह सवाल पूछते हैं कि सूर्य के प्रकाश से भरपूर देश में अभी भी विटामिन डी की कमी क्यों दिखती है, अन्य रिपोर्ट इस ओर ध्यान दिलाती हैं कि ग्रेट ब्रिटेन में बसे भारतीय मूल के लोगों में भी इसी तरह की कमी दिखती है (इंटरनेशनल जर्नल ऑफ कार्डियोलॉजी में 2013 में पटेल द्वारा प्रकाशित पेपर, doi: 10.1016 / j.ijcard.2012.05.081)। इससे एक सवाल पैदा होता है कि क्या इस कमी के लिए कोई जेनेटिक कारक ज़िम्मेदार हैं। (त्वचा पर पड़ने वाला प्रकाश एक पूर्ववर्ती अणु बनाता है जिसे अंगों की कोशिकाओं में परिवर्तित कर विटामिन डी बनाया जाता है। यदि किसी आनुवंशिक या चयापचय त्रुटि के कारण यह विकृत हो जाता है, तो शरीर में विटामिन डी की कमी हो जाती है)। रोजर बूलोन नेचर रिव्यू एंडोक्रायनोलॉजी पत्रिका में लिखते हैं कि इस संदर्भ में कम से कम चार तरह की आनुवंशिक गड़बड़ियां हो सकती हैं। भारतीय आनुवांशिक विशेषज्ञों द्वारा देश के विटामिन डी की कमी वाले लोगों में इस संभावना की जांच-पड़ताल करना फायदेमंद होगा।
हरिनारायण और अखिला बताते हैं कि कैल्शियम की कमी ना केवल भारत के गरीबों लोगों में है बल्कि सम्पन्न लोगों में भी है। राष्ट्रीय पोषण निगरानी समिति (NNMB) के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले 50 वर्षों में औसत भारतीय आबादी में कैल्शियम का स्तर 700 युनिट प्रतिदिन से 300-400 युनिट प्रतिदिन तक गिर गया है जो कि सामान्य व आवश्यक स्तर (800-1000 युनिट प्रतिदिन) से काफी कम है। यह फिर एक सवाल पैदा करता है कि प्रतिदिन अधिकतम दूध उत्पादन करने वाले दुनिया के शीर्ष देश में यह स्थिति कैसे? दुग्ध उत्पाद कैल्शियम के समृद्ध रुाोत हैं। कैल्शियम की कमी से हड्डियां कमज़ोर होती हैं और रिकेट्स जैसी बीमारियां होती हैं। कैल्शियम विटामिन डी के कार्य के लिए भी आवश्यक है। कैल्शियम और विटामिन डी दोनों की कमी दोहरी बाधा है! इसलिए हरिनारायण और अखिला के पेपर में संभावना वाले हिस्से में सुझाव दिया गया है कि स्वस्थ भारत के लिए इन दोनों की पूरक खुराक आवश्यक है, साथ ही यह भी ज़रूरी है कि सभी स्कूल अपने छात्रों को प्रतिदिन 20-30 मिनट धूप में खड़ा करें, और एक घंटा शारीरिक व्यायाम और खेल करवाएं। इससे जो लाभ होगा वह सभी छात्रों (और शिक्षकों) को दिए जाने वाले दैनिक मध्यांह भोजन के अतिरिक्त होगा।
छिपी भूख से लड़ना
केंद्र और राज्य सरकारें, कई एनजीओ और सह्मदय लोग मुफ्त गेहूं/चावल और दाल देकर गरीबों की मदद कर रहे हैं। इसके अलावा वे चीनी, दूध और सब्ज़ियों जैसे अत्यधिक सब्सिडी वाले खाद्य पदार्थ भी दे रहे हैं। लेकिन पका हुआ भोजन नहीं देते। भारत के पोषण विशेषज्ञ इस बात पर ज़ोर देते हैं कि विटामिन डी और कैल्शियम के अलावा सूक्ष्म पोषक तत्वों (जैसे, बी कॉम्प्लेक्स विटामिन, कैल्शियम प्लस, आयरन, ज़िंक, आयोडीन, सेलेनियम) से युक्त भोजन भी दिया जाना चाहिए, ताकि किसी भी संक्रमण के खिलाफ प्रतिरक्षा हासिल की जा सके। ये पूरक पोषण, पोषक तत्वों की कमी वाले लोगों की ‘छिपी भूख’ को भी शांत करेंगे। जिन कई राज्यों की आंगनवाड़ियों और स्कूलों में पका हुआ भोजन दिया जाता है, वहां वे चीज़ें भी शामिल होना चाहिए जो सब्ज़ियों के तत्वों या घटकों का बेहतर संयोजन देते हों। कई पोषण विशेषज्ञ सुझाव देते हैं कि दाल (या सांबर) के अलावा भोजन में पालक और अन्य हरी पत्तेदार सब्ज़ियां, फलियां, मटर, गाजर, टमाटर, आलू, दूध या दही और केले जैसे फल के अलावा ओमेगा 3 और 6 फैटी एसिड (और अंडा) शामिल होना चाहिए। इसी तरह वे यह भी बताते हैं कि संतुलित मांसाहारी भोजन कैसा हो सकता हो, जो पौष्टिक और किफायती हो।
किफायती क्या है? MSSRF की मधुरा स्वामीनाथन के अनुसार, एफएओ की खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति रिपोर्ट के अनुसार पर्याप्त पोषण से युक्त भोजन की कीमत 25 रुपए प्रति व्यक्ति प्रति भोजन पड़ती है या दो वक्त के लिए 50 रुपए प्रति व्यक्ति पड़ती है। और एक ‘तंदुरुस्त आहार’ की कीमत 100 रुपए प्रति व्यक्ति प्रतिदिन पड़ती है। 37 करोड़ से अधिक गरीब लोगों वाले भारत देश के लिए यह एक बड़ा आंकड़ा है! यह स्पष्ट है कि केंद्र और राज्य सरकारों के सराहनीय प्रयासों के अलावा निजी संस्थाओं (भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय), बड़े उद्योगों और व्यक्तिगत दाताओं से योगदान मिलना चाहिए, ताकि हम 100 रुपए प्रतिदिन भोजन का खर्च वहन कर सकें। यह किया जा सकता है।
समुद्री शैवाल से पोषण
दैनिक भोजन के पोषण में समुद्री शैवाल शामिल कर सकते हैं। भारत के मुख्य भू-भाग की समुद्री तटरेखा 7500 किलोमीटर लंबी है, और इसके द्वीपों की समुद्री तटरेखा 5500 किलोमीटर लंबी है। जहां भोजन सहित अन्य उपयोग के लिए समुद्री शैवाल उगाई जाती हैं। जापान, कोरिया, चीन और अधिकांश दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश इन्हें खाते हैं। ये शाकाहारी हैं। और विटामिन, खनिज, आयोडीन और ओमेगा 3 फैटी एसिड से भरपूर हैं। भावनगर स्थित केंद्रीय नमक और समुद्री रसायन अनुसंधान संस्थान के डी.सी. दीक्षित द्वारा जर्नल ऑफ एक्वेटिक फूड प्रोडक्ट टेक्नॉलॉजी में एक पेपर प्रकाशित किया गया है जिसका शीर्षक है मानव भोजन के रूप में कच्छ तट के पास उगने वाली आठ उष्णकटिबंधीय मैक्रो शैवाल के पोषक, जैव रासायनिक, एंटीऑक्सिडेंट और जीवाणुरोधी क्षमता का आकलन। अब समय है कि हम भारतीय भी अपने भोजन में समुद्री शैवाल शामिल करें।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/60y33q/article32248980.ece/alternates/FREE_615/02TH-SCIFOODjpg