हाल ही में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने अस्पतालों को विशेष निर्देश दिए कि गैर-कोविड गंभीर मरीज़ों के समुचित इलाज की व्यवस्था इन दिनों भी बनाए रखी जाए और उसमें कोई कमी न आए। उनके इस निर्देश को इस संदर्भ में देखना चाहिए कि देश के विभिन्न भागों से कोविड-19 के दौर में गैर-कोविड मरीज़ों की बढ़ती समस्याओं के समाचार प्राप्त हो रहे हैं।
इतना ही नहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी दिशानिर्देश जारी किए थे कि सभी देशों में कोविड-19 के दौर में गैर-कोविड स्वास्थ्य समस्याओं व बीमारियों के इलाज के लिए सुचारु व्यवस्था बनाए रखना कितना ज़रूरी है। चेतावनी के तौर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह भी बताया कि 2014-15 के एबोला प्रकोप के दौरान पश्चिम अफ्रीका में जब पूरा स्वास्थ्य तंत्र एबोला का सामना करने में लगा था तो खसरा, मलेरिया, एचआईवी और तपेदिक से मौतों में इतनी वृद्धि हुई कि इन चार बीमारियों से होने वाली अतिरिक्त मौतें एबोला से भी अधिक थीं। अत: यदि गैर-कोविड गंभीर मरीज़ों की उपेक्षा हुई तो यह बहुत महंगा पड़ सकता है।
यदि हम आंकड़े देखें तो, जब से भारत में कोविड-19 की मौतों का सिलसिला शुरू हुआ तब से लेकर 1 जून तक कोविड-19 से लगभग 93 दिनों में 5500 मौतें हुर्इं। दूसरे शब्दों में तो कोविड-19 से प्रतिदिन औसतन 60 मौत हुर्इं। इसी दौरान अन्य कारणों से प्रतिदिन औसतन लगभग 27,000 मौतें हुर्इं। दूसरे शब्दों में इन मौतों की तुलना में कोविड-19 मौतें मात्र 0.2 प्रतिशत हैं। इन आंकड़ों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि स्वास्थ्य क्षेत्र की अन्य गंभीर समस्याओं पर समुचित ध्यान देते रहना कितना ज़रूरी है।
आज विश्व स्तर पर जो स्थिति है उसमें गैर-कोविड मरीज़ों की समस्याएं अनेक कारणों से बढ़ सकती हैं।
आजीविका अस्त-व्यस्त होने की समस्याओं के बीच कई मरीज़ों के पास सामान्य समय की तुलना में नकदी की अत्यधिक कमी है। सामान्य समय में दोस्त व रिश्तेदार प्राय: सहायता के लिए आपातकाल में एकत्र हो जाते थे पर अब लॉकडाउन के समय ऐसा संभव नहीं है।
आपातकालीन स्थिति में अस्पताल जाने के लिए किसी परिवहन के मिलने में लॉकडाउन के समय बहुत कठिनाई होती है और कर्फ्यू या लॉकडाउन पास बनवाने में अच्छा खासा समय लगता है। अब अगर जैसे-तैसे गैर-कोविड मरीज़ अस्पताल पहुंच भी जाता है तो कई बार पता लगता है कि कोविड-19 की प्राथमिकताओं के बीच अन्य स्वास्थ्य सेवाएं आधी-अधूरी हैं या चालू ही नहीं हैं। यहां तक कि कुछ गंभीर मरीज़ों को कोविड प्राथमिकताओं के कारण उपचार के बीच ही अस्पताल छोड़ने को कहा जाता है। कई मरीज़ों की गंभीर सर्जरी को या अन्य चिकित्सा प्रक्रियाओं को स्थगित कर दिया जाता है। निर्धनता, बेरोज़गारी, भूख एवं कुपोषण ने बीमार पड़ने की संभावना को वैसे ही और बढ़ा दिया है।
नौकरी खोने, अनिश्चित भविष्य, बढ़ती निर्धनता और भूख व साथ ही अपने दोस्तों व रिश्तेदारों से संपर्क न होने की स्थिति में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ती हैं और इसके कारण अन्य बीमारियों की संभावना बहुत बढ़ जाती है। ऐसी स्थितियों में हिंसक व्यवहार व आत्महत्या करने के प्रयास की संभावना भी बढ़ जाती है।
कुछ स्थानों पर आवश्यक जीवन रक्षक दवाइयों और चिकित्सा उपकरणों की आपूर्ति की शृंखला टूट जाती है। यहां तक कि जब दवाओं की ऐसी गंभीर कमी नहीं होती तब भी स्थानीय स्तर पर, विशेषकर दूर-दराज गांवों में मरीज़ों को दवाएं और चिकित्सा साज-सामान नहीं मिलते हैं।
कुछ अस्पतालों में बाह्य रोगी विभागों (ओपीडी) के बंद हो जाने के कारण गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित रोगियों को समय पर रोगों के निदान एवं उपचार मिलने की संभावना भी कम हो जाती है। इसके अतिरिक्त ब्लड बैंक में रक्त व रक्त दाताओं की कमी भी लॉकडाउन के कारण हो जाती है। लॉकडाउन के चलते प्रवासी मज़दूर परिवारों को बच्चों सहित दूर-दूर तक पैदल जाने की मजबूरी हुई। इस कारण उनमें स्वास्थ्य समस्याओं के बढ़ने की संभावना अधिक है।
इन समस्याओं से स्पष्ट है कि गैर-कोविड मरीज़ों पर ध्यान देना कितना ज़रूरी है। साथ में इस ओर भी ध्यान देना ज़रूरी है कि अस्पतालों, डाक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों द्वारा इस व्यापक ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए अनुकूल संसाधन और सुविधाएं बढ़ाना भी आवश्यक है। सामान्य समय में भी देश के अनेक भागों में स्वास्थ्य का ढांचा कमज़ोर होने के कारण गंभीर मरीज़ों को अनेक कठिनाइयां आती रही हैं जो कोविड के दौर में तो निश्चय ही बढ़ गई हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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