कार्बन डाइऑक्साइड
के बढ़ते स्तर से बचाव का सबसे अच्छा साधन ऊष्णकटिबंधीय वन हैं। पेड़ वृद्धि के लिए वातावरण
से कार्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं। एक अनुमान के मुताबिक ऊष्णकटिबंध के जंगलों में इतना
कार्बन संचित है जितना इंसानों ने पिछले तीस वर्षों में कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस जलाकर वायुमंडल में उंडेला
है। लेकिन साइंस पत्रिका में वैज्ञानिकों ने यह चिंता व्यक्त की है कि बढ़ते तापमान
और सूखे के कारण एक हद के बाद ऊष्णकटिबंधीय वनों की कार्बन-सिंक भूमिका कमज़ोर हो जाएगी
और अंतत: वे बढ़ते वैश्विक तापमान में योगदान देंगे।
ऊष्णकटिबंधीय वन वायुमंडल
से कितना कार्बन सोखेंगे यह कार्बन डाईऑक्साइड बढ़ने से पेड़ों की वृद्धि में तेज़ी और
बढ़ते तापमान व सूखे के कारण पेड़ों के तनाव व मृत्यु के संतुलन पर निर्भर करता है। इसी
संतुलन को आंकने के लिए लीड्स युनिवर्सिटी के ओलिवर फिलिप्स की अगुवाई में 200 से अधिक शोधकर्ताओं ने 24 देशों के 813 वनों के लगभग 5 लाख से अधिक पेड़ों को मापा। प्रत्येक पेड़ की ऊंचाई, मोटाई और प्रजाति के आधार पर गणना की कि अलग-अलग वन अभी कितना
कार्बन संचित किए हुए हैं। भविष्य में कार्बन संचय कैसे बदल सकता है, इसका अनुमान लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने सबसे गर्म
वन को भविष्य के वन माना और विभिन्न जलवायु के वनों को विभिन्न काल के वन मानकर उनके
कार्बन संचय की तुलना की। तुलना के लिए उनके पास 590 दीर्घकालीन निरीक्षण प्लॉट्स के आंकड़े भी थे। वे यह देखना चाहते
थे कि तापमान और बारिश की मात्रा का कार्बन संचय क्षमता पर कैसा प्रभाव होता है।
पूर्व में हुए अध्ययन
बताते हैं कि रात का न्यूनतम तापमान वनों की दीर्घकालीन कार्बन संचय क्षमता पर सबसे
अधिक प्रभाव डालता है क्योंकि गर्म रातें पेड़ों की श्वसन दर बढ़ाती हैं। इसके चलते पेड़
अधिक कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं। लेकिन इस अध्ययन में पाया गया कि दिन का अधिकतम
तापमान पेड़ों की कार्बन संचय क्षमता को सबसे अधिक प्रभावित करता है क्योंकि शायद गर्म
दिनों में पत्तियां पानी के उत्सर्जन को कम रखने के लिए अपने छिद्रों को बंद रखती हैं,
जिसके चलते कार्बन डाईऑक्साइड ग्रहण करने की प्रक्रिया
भी धीमी पड़ जाती है।
अध्ययन में पाया गया
कि कुल मिलाकर वतर्मान में तो वन जितना कार्बन उत्सर्जित करते हैं उससे अधिक सोख रहे
हैं। लेकिन जब साल के सबसे गर्म महीने में दिन का औसत अधिकतम तापमान 32.2 डिग्री सेल्सियस होगा, वनों की दीर्घकालीन कार्बन संचय क्षमता तेज़ी से कम होगी और उनके
द्वारा छोड़े गए कार्बन की मात्रा बढ़ जाएगी। सूखे वनों में कार्बन संचय की क्षमता और
भी कम होगी क्योंकि पानी की कमी पेड़ों को अधिक तनाव और मृत्यु की ओर धकेलेगी।
टीम की गणना बताती
है कि विश्व के अधिकतम तापमान में प्रत्येक 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने पर ऊष्णकटिबंधीय वनों की कार्बन
भंडारण क्षमता में 7 अरब टन की कमी आती
है। यदि वैश्विक तापमान, पूर्व-औद्योगिक स्तर
से 2 डिग्री सेल्सियस अधिक हो
जाता है तो 71 प्रतिशत ऊष्णकटिबंधीय
वन इस हद को पार कर जाएंगे, जिससे पेड़ों द्वारा
कार्बन का उत्सर्जन चार गुना बढ़ जाएगा।
शोधकर्ता इन नतीजों को चेतावनी के रूप में देख रहे हैं। वैश्विक तापमान लगभग 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। जल्दी कुछ करना होगा, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0522NID_Researchers_Leaves_online.jpg?itok=d0VNJzPi
‘सिर में भूसा भरा
है क्या?’ ऐसे ताने अक्सर यह जताने वाले
होते हैं कि मस्तिष्क नहीं है। सही भी है अगर मस्तिष्क नहीं है तो शरीर मुर्दे के समान
बिस्तर पर पड़ा रहता है जैसा अक्सर ब्रोन डेथ के मामले में होता है। मस्तिष्क हमारी
चेतना, विचार, स्मृति, बोलचाल, हाथ-पैरों की गति
और हमारे शरीर के भीतर अनेक अंगों के कार्य को नियंत्रित करता है। कुछ लोगों को लगता
है कि उनका मस्तिष्क जानकारियों से ठूंस-ठूंस कर भरा है और उसका इंच भर हिस्सा भी निकालकर
अलग कर दिया जाए तो मस्तिष्क कार्य नहीं कर सकेगा। तो ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिए
जिसके पास आधा मस्तिष्क हो। तो क्या वह सामान्य क्रियाकलाप कर सकेगा या ज़िंदा भी बचेगा?
हेनरी के जन्म के
कुछ ही घंटों के पश्चात मां मोनिका जोन्स यह समझ गई थी कि उनका नवजात बेटा एक दुर्लभ
और गंभीर न्यूरोलॉजिकल समस्या से पीड़ित है। हेनरी के मस्तिष्क का एक तरफ का हिस्सा
असामान्य रूप से बड़ा था और उसे प्रतिदिन सैकड़ों मिर्गी जैसे दौरे पड़ते थे। दवाएं भी
बेअसर लग रही थी। फिर डॉक्टरों के सुझाव से अनेक ऑपरेशन का दौर साढ़े तीन माह की उम्र
में प्रारंभ हुआ और 3 साल का होते-होते
हेनरी आधा मस्तिष्क विहीन हो गया।
मस्तिष्क के ऑपरेशन
की प्रक्रिया कोई नई नहीं है। 1920 में पहली बार मस्तिष्क
का ऑपरेशन किया गया था जिसमें मस्तिष्क का कैंसर युक्त हिस्सा निकालकर अलग कर दिया
गया था। उसके बाद कई ऑपरेशन किए जा चुके हैं। यह ज्ञात है कि यदि किसी बच्चे का आधा
मस्तिष्क बीमारियों के कारण ठीक से कार्य नहीं कर पाता है तो ऑपरेशन करके निकाल देने
पर भी वह भला चंगा होकर पढ़ना-लिखना, खेलना-कूदना जैसे सामान्य कार्य कर लेता है। आधे मस्तिष्क को सही तरीके से कार्य
करता देखकर वैज्ञानिक भी आश्चर्य चकित हैं।
मोटे तौर पर आधे मस्तिष्क
वाले ऐसे मरीज़ों में से 20 प्रतिशत तो वयस्क
होकर सामान्य रोज़गार भी प्राप्त कर लेते हैं। शोध पत्रिका सेल रिपोट्र्स में प्रकाशित
एक हालिया शोध से पता चलता है कि आधे मस्तिष्क में पुनर्गठन के कारण कुछ व्यक्ति पहले
की तरह ठीक हो जाते हैं।
कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट
ऑफ टेक्नोलॉजी में कार्यरत संज्ञान वैज्ञानिक डॉरिट किलमैन कहते हैं कि मस्तिष्क बहुत
ही लचीला यानी अपने कार्य को पुनर्गठित करने में सक्षम होता है। यह मस्तिष्क की संरचना
में अचानक उत्पन्न हुए नुकसान की भरपाई भी कर सकता है। कुछ मामलों में नेटवर्क खो चुके
हिस्से के कार्य को शेष मस्तिष्क पूरी तरह अपना लेता है।
उपरोक्त अध्ययन को
आंशिक रूप से एक गैर-लाभकारी संगठन द्वारा वित्त पोषित किया गया। श्रीमती जोन्स और
उनके पति ने यह संगठन ऐसे मरीज़ों की मदद के लिए बनाया था जो मिर्गी जैसे दौरे रोकने
के लिए ऑपरेशन कराने के इच्छुक थे। अध्ययन के निष्कर्ष बड़े बच्चों में भी आधा मस्तिष्क
निकालने के संदर्भ में उत्साहवर्धक हैं।
सेरेब्राम मस्तिष्क
का सबसे बड़ा भाग है। यह वाणि, विचार, भावनाएं, पढ़ने, लिखने और सीखने तथा
मांसपेशियों के कार्यों को नियंत्रित करता है। इसका दायां भाग शरीर के बार्इं ओर की
मांसपेशियों और बायां भाग शरीर के दार्इं ओर की मांसपेशियों को नियंत्रित करता है।
यद्यपि सेरेब्राम के दोनों भाग (हेमीस्फीयर) दिखने में एक जैसे दिखते हैं किन्तु कार्य
में एक-से नहीं होते। इसका बायां भाग उन कार्यों को भी करता है जिनमें तर्क लगते हैं
जैसे विज्ञान और गणित की समझ। जबकि दायां भाग अन्य कार्यों के अलावा रचनात्मक और कला
से सम्बंधित कार्यों को नियंत्रित करता है। सेरेब्राम के दोनों आधे भाग कार्पस केलोसम
से जुड़े हुए होते हैं। मस्तिष्क का यह भाग ऊपर से सपाट न होकर कई दरारों एवं उभारों
से मिलकर बनता है और अखरोट जैसी संरचना वाला होता है। राइट हेंडेड व्यक्तियों में सेरेब्राम
का बायां भाग प्रभावी होता है तथा मुख्य रूप से भाषा की समझ, बोलने को नियंत्रण करता है।
ऐसे लोग जिनका हेमिस्फेरोक्टोमी
(सेरेब्राम का आधा हिस्सा निकाल देने का ऑपरेशन) हुआ हो, सामान्य व्यक्ति की तरह ही दिखते और व्यवहार करते हैं। पर मेग्नेटिक
रेसोनेन्स इमेजिंग (एम.आर.आई.) की रिपोर्ट बताती है कि उनके मस्तिष्क का आधा भाग बचपन
में ही निकाल दिया गया था। यह ज्ञात होते ही ऐसा लगता है कि ऐसे व्यक्तियों का सामान्य
कार्य करना असंभव है। खास कर जब इसकी तुलना ह्मदय जैसे किसी अंग से की जाए।
क्या ह्मदय को दो
बराबर हिस्सों में बांटने पर वह कार्य कर पाएगा? बिलकुल नहीं। आप अपने मोबाइल को अगर दो हिस्सों में बांट दे
तो यह काम नहीं करेगा। इस प्रकार मस्तिष्क के बहुत से कार्य ऐसे हैं जहां सेरेब्राम
के दोनों भाग मिलकर कार्य करते हैं जैसे चेहरे की पहचान। परंतु हाथ हिलाने जैसे कार्य
मस्तिष्क के एक भाग से होते हैं। एक मधुर संगीत के लिए गायक और अनेक वाद्य यंत्रों
की जुगलबंदी ज़रूरी है। लगभग ऐसा ही मस्तिष्क के भागों का कार्य है। इस सबकी बजाय शोधकर्ताओं
ने पाया कि सामान्य कनेक्शन की तुलना में आधे बचे मस्तिष्क ने बचे हुए कनेक्शन को मज़बूत
किया और तंत्रिकाओं के बीच बेहतर तालमेल एवं संवाद बैठाया। यह बिल्कुल उस परिस्थिति
के जैसा था जहां युगल गीत के कार्यक्रम में जोड़ीदार की अनुपस्थिति में एक ही गायक ने
महिला एवं पुरुष दोनों की आवाज निकालकर गाना गाया हो। वैसे ही मस्तिष्क के भाग भी मल्टीटाÏस्कग यानी बहु-कार्य करने लगे थे।
शोधकर्ताओं के लिए
ये परिणाम उत्साहजनक हैं और वे अभी भी इस प्रक्रिया को समझने की कोशिश कर रहे हैं।
लगभग 200 बच्चों में मस्तिष्क के ऑपरेशन
करने वाले बाल न्यूरोलाजिस्ट डॉ. अजय गुप्ता कहते हैं कि मस्तिष्क परिस्थितियों के
अनुसार अपने को ढालने में बेहद कामयाब रहता है। अक्सर हेमिस्फेरेक्टोमी के ऑपरेशन्स
4 या 5 वर्ष की आयु के बच्चों में बेहद सफल रहे हैं क्योंकि
बड़े होने से पहले उनका मस्तिष्क कमियों की पूर्ति कर लेता है। यद्यपि दौरे पड़ने वाले
वयस्क मरीज़ों में मस्तिष्क का ऑपरेशन अंतिम उपाय ही माना जाता है।
बच्चों में भी ये ऑपरेशन बेहद गंभीर होते हैं। मस्तिष्क के निकले हुए हिस्से में तरल भरने से लगातार सिर दुखने जैसी अवस्था बनी रहती है। ऑपरेशन के बाद बच्चे कमज़ोर हो जाते हैं और एक तरफ के हाथ-पैर पर नियंत्रण नहीं रह पाता है। इसके अलावा एक तरफ का दिखना बंद हो सकता है तथा आवाज़ किस दिशा से आ रही है यह बोध भी नहीं हो पाता है। बच्चे की शिक्षा के दौरान पढ़ने, लिखने और गणित पर ज़्यादा ध्यान देना होता है। वयस्क होते-होते ऐसे बच्चे मस्तिष्क के द्वारा मल्टी टास्किंग अपनाने के कारण सामान्य हो जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/SRECiGdPSyaum7JeLPaQfQ-650-80.jpg
कोरोनावायरस को थामने
के लिए विश्व भर के लगभग 4 अरब लोग तालाबंदी
में हैं। इस विशाल संख्या को देखते हुए ग्रीनहाउस गैसों में कमी नगण्य जान पड़ रही है।
यदि यह माना जाए कि सकल घरेलू उत्पाद और कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के बीच समानुपाती
सम्बंध है तो वर्तमान अति-भयानक आर्थिक गिरावट के रूबरू कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन
में जिस कमी का अनुमान लगाया जा रहा है वह कुछ नहीं है।
भविष्यवेत्ताओं अनुसार
वर्ष 2020 में उत्सर्जन में 5 प्रतिशत से अधिक गिरावट की उम्मीद है लेकिन यह
लक्ष्य से काफी कम है। वैज्ञानिकों का मत है कि आने वाले दशक में पृथ्वी के तापमान
में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस
तक सीमित रखने के लिए यह दर कम से कम 7.6 प्रतिशत वार्षिक की होनी चाहिए। तो यह सवाल स्वाभाविक है कि इतिहास की सबसे भयानक
आर्थिक गिरावट के दौरान भी भविष्यवेत्ता कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर में काफी गिरावट
की भविष्यवाणी क्यों नहीं कर रहे हैं?
इसका उत्तर उत्सर्जन
के पूर्वानुमान लगाने के तरीकों, हमारी ऊर्जा प्रणाली
की संरचना और इस बात में निहित है कि कैसे यह महामारी अन्य मंदियों से अलग ढंग की आर्थिक
गिरावट पैदा कर रही है।
कार्बन ब्राीफ नामक
एक शोध समूह के अनुसार चीन में शुरुआती कामबंदी के 4 हफ्तों के दौरान कार्बन उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की गिरावट आई थी लेकिन दोबारा से सामान्य
जीवन शुरू होने पर यह उत्सर्जन फिर से शुरू हो गया। इसी तरह रोडियम नामक संस्था के
मुताबिक अमेरिका में भी 15 मार्च से 14 अप्रैल 2020 के बीच पिछले वर्ष उसी अवधि की तुलना में उत्सर्जन में 15-20 प्रतिशत की कमी आई थी।
फिर भी वार्षिक अनुमानों
में किसी बड़ी कटौती की उम्मीद व्यक्त नहीं की जा रही है। अधिकांश भविष्यवेत्ताओं का
मानना है कि इस वर्ष के उत्तरार्ध में अर्थव्यवस्था में पुन: उछाल आएगा और उत्सर्जन
बढ़ सकता है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश (आईएमएफ) ने वैश्विक अर्थव्यवस्था में 3 प्रतिशत और अमेरिका के जीडीपी में 6 प्रतिशत की गिरावट की आशंका व्यक्त की है लेकिन
उसके अनुसार भी 2020 की दूसरी छमाही में
सुधार उम्मीद है।
हो सकता है कि यह
आशावादी हो। अनुमान है कि दुनिया के कुछ हिस्सों में तालाबंदी 2020 में पूरे साल जारी रहेगी लेकिन कार्बन डाईऑक्साइड
उत्सर्जन में मार्च-अप्रैल जैसी गिरावट शायद जारी न रहे।
ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट
के अनुसार 2010 से 2018 के बीच वैश्विक उत्सर्जन में औसत 0.9 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि हुई। अमेरिका में,
2005 से अब तक, उत्सर्जन में 0.9 प्रतिशत वार्षिक की कमी हुई है और 2019 में तो 2.1 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई। ऐसे में उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की गिरावट के परिदृश्य में भी तीन-चौथाई
वैश्विक कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन तो एक साल की तालाबंदी में भी जारी रहेगा।
रोडियम समूह के जलवायु
और ऊर्जा अनुसंधान के प्रमुख ट्रेवर हाउसर इस तालाबंदी और आर्थिक मंदी के बीच अंतर
स्पष्ट करते हैं। आम तौर पर आर्थिक मंदी में कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में गिरावट मैन्यूफेक्चरिंग (विनिर्माण) और शिपिंग में
गिरावट के कारण होती है। लेकिन वर्तमान में इसका विपरीत हुआ है। शिपिंग गतिविधियों
में तो कोई कमी नहीं आई और विनिर्माण कार्य काफी धीमा होने में वक्त लगा। तालाबंदी
के दौरान भी चीन में कई स्टील और कोयला संयंत्र कम स्तर पर जारी रहे।
उत्सर्जन में कमी
विशेष तौर पर भूतल परिवहन में रिकॉर्ड गिरावट के कारण आ रही है। यू.के. के यातायात
में 54 प्रतिशत, अमेरिका में 36 प्रतिशत और चीन में 19 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। इसके साथ ही चीन में कोविड-19 के प्रथम 500 मामले सामने आने के बाद हवाई यात्रा में 40 प्रतिशत की गिरावट आई जबकि युरोप में 10 में से 9 उड़ानों को रोक दिया गया।
इसके परिणामस्वरूप
जेट र्इंधन की मांग में 65 प्रतिशत की गिरावट
आई। डिपार्टमेंट ऑफ एनर्जी स्टेटिस्टिक्स के अनुसार अमेरिका में 4 हफ़्तों में गैसोलीन की मांग में 41 प्रतिशत की गिरावट हुई। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी
के अनुसार अप्रैल माह में प्रतिदिन गैसोलीन की मांग में 1.1 करोड़ बैरल और मई में 1 करोड़ बैरल की कमी आएगी। फिर भी वैश्विक अर्थव्यवस्था काफी अधिक
तेल का उपभोग कर रही है।
एजेंसी के अनुसार
पूरे वि·ा में इस वर्ष की
दूसरी तिमाही में 7.6 करोड़ बैरल प्रतिदिन
का उपयोग किया जाएगा। गैसोलीन और जेट र्इंधन की मांग में कमी के बाद भी अमेरिका की
तेल कंपनियों से पिछले 4 हफ्तों में 55 लाख बैरल तेल बाज़ार पहुंचाया गया। डीज़ल की मांग
में भी कमी आई है लेकिन शिपिंग और मालवाहक जहाज़ों में उपयोग जारी रहने से केवल 7 प्रतिशत की गिरावट ही दर्ज की गई है। पेट्रोकेमिकल
क्षेत्र में भी प्रभाव एकरूप नहीं हैं। ऑटो विनिर्माण में उपयोग होने वाले प्लास्टिक
में तो कमी आई है लेकिन खाद्य सामग्री की पैकेजिंग में इसका उपयोग जारी है। कुल मिलाकर
एजेंसी का मानना है कि ईथेन और नेफ्था जैसे प्लास्टिक फीडस्टॉक की मांग साल के अंत
तक कम हो जाएगी लेकिन गैसोलीन और डीज़ल के समान नहीं। .
ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट
के अनुसार 2019 में उत्सर्जन 0.6 प्रतिशत बढ़कर कुल 36.8 गीगाटन हो गया है। कुल उत्सर्जन में परिवहन का हिस्सा लगभग
20 प्रतिशत था, जिसमें से आधा सड़क परिवहन का है। वैसे यह 20 प्रतिशत काफी बड़ी संख्या है लेकिन बाकी के 80 प्रतिशत में अभी भी कोई भारी कमी नहीं आई है। इससे
पता चलता है कि तेल हमारी अर्थ व्यवस्था में किस कदर गूंथा हुआ है। सारी कारें खड़ी
हो जाएं, फिर भी तेल की खपत होती रहेगी।
इस महामारी में बड़ी
कमी मात्र परिवहन के क्षेत्र में आई है। कोयले के उपयोग में कमी तो आई है लेकिन दुनिया
भर में बिजली उत्पादन इसी पर निर्भर करता है। वैश्विक कार्बन डाईऑक्साइड का 40 प्रतिशत उत्सर्जन कोयले से होता है जो किसी अन्य
र्इंधन की तुलना में सबसे अधिक है। भारत में नेशनल ग्रिड संचालन के दैनिक आंकड़ों से
पता चलता है कि अप्रैल में कोयला-आधारित बिजली उत्पादन प्रतिदिन 1.9 गिगावॉट-घंटे था जबकि 24 मार्च (जिस दिन लॉकडाउन शुरू हुआ) के दिन 2.3 गिगावॉट-घंटे था। तेल की तरह यह भी आर्थिक उत्पादन
में केंद्रीय भूमिका निभाता है।
ब्रोकथ्रू इंस्टिट्यूट में जलवायु और उर्जा निदेशक ज़ेके हॉसफादर के अनुसार यह महामारी विश्व के विकासशील हिस्सों के लिए स्वच्छ उर्जा को सस्ती बनाने की आवश्यकता को रेखांकित करती है। अर्थव्यवस्था को कार्बन-मुक्त करने के लिए टेक्नॉलॉजी की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.assettype.com/bloombergquint/2019-12/465baac6-fc1d-4c49-a46b-0505d08499f1/1.jpg
सौरमंडल में मंगल
ही इकलौता ऐसा ग्रह है जो पृथ्वी से कई समानताएं दर्शाता है। भविष्य में पृथ्वी से
बाहर मानव कॉलोनी बसाने के लिए यही ग्रह सबसे उपयुक्त नज़र आता है। इसके बारे में जानकारी
में वृद्धि के साथ वैज्ञानिकों और आम लोगों में इसके प्रति रुचि बढ़ी है।
लेकिन अभी भी इससे
जुड़े कई अहम सवालों के जवाब मिलने बाकी हैं। जैसे, क्या कभी मंगल पर जीवन था, और अगर था तो किस रूप में था? क्या मंगल पर कभी पृथ्वी की तरह नदियां और सागर हिलोरे लेते
थे? एक लंबे अरसे से इस आखरी सवाल
का वैज्ञानिकों का जवाब ‘हां’
रहा है। और अब नेचर कम्यूनिकेशन में प्रकाशित शोध
पत्र के मुताबिक वैज्ञानिकों की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम को मंगल ग्रह पर एक अरब साल
पहले नदियों की मौजूदगी के नए और पुख्ता संकेत मिले हैं।
वैज्ञानिकों ने नासा
की दूरबीन से प्राप्त तस्वीरों का विश्लेषण कर यह निष्कर्ष निकाला है। वैज्ञानिकों
ने तस्वीरों की सहायता से मंगल ग्रह के हेलास बेसिन नामक एक बहुत बड़े गड्ढे का एक 3-डी स्थलाकृति नक्शा बनाया। वैज्ञानिकों को एक पथरीले
पहाड़ की चोटी के पास गहरी तलछट जमा मिली है जो तकरीबन 200 मीटर ऊंची है। यह तलछट तेज़ बहती नदी की वजह से जमा हुई होगी।
इसकी चौड़ाई करीब डेढ़ किलोमीटर है। वैज्ञानिकों का कहना है कि हम फिलहाल वहां जाकर विस्तृत
जानकारी नहीं ले सकते मगर पृथ्वी की तलछटी चट्टानों (सेडीमेंटरी रॉक्स) से समानता के
चलते संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। इतने ऊंचे तलछटी निक्षेप बनने के लिए ज़रूरी है
कि वहां बड़ी मात्रा में तरल पानी बहता रहा हो।
इस शोध पत्र के प्रमुख
लेखक फ्रांसेस्को सेलेस का कहना है कि “यह वर्षों से पता है कि मंगल ग्रह पर अरबों वर्ष पहले बहुत-सी झीलें, नदियां और संभवत: महासागर भी रहे होंगे जो जीवन
के शुरुआती स्तर के अनुकूल रहे होंगे। आज मंगल के ध्रुवों पर बर्फ जमा है और उसमें
बहुत ज़्यादा धूल के तूफान आते हैं। लेकिन वहां की सतह पर तरल पानी की मौजूदगी के कोई
संकेत नहीं हैं। मगर 3.7 अरब साल पहले हालात
इतने विषम नहीं थे और हो सकता है कि तब वहां जीवन के अनुकूल परिस्थितियां मौजूद रही
हों। पृथ्वी पर तलछटी चट्टानों के अध्ययन से हम लाखों-अरबों साल पहले की स्थितियों
के बारे में जानने में सफल हुए हैं। अब हम मंगल ग्रह का अध्ययन कर पा रहे हैं जहां
पृथ्वी से भी पहले के समय की तलछटी चट्टानें पाई गई हैं।”
वैज्ञानिकों ने यह
भी पाया है कि इन तेज़ बहती नदियों ने इन चट्टानों को हजारों-लाखों साल पहले बनाया होगा।
इन चट्टानों में सूक्ष्मजीवी जीवन के प्रमाण हो सकते हैं और मंगल ग्रह के इतिहास के
बारे में बहुत-सी जानकारी हासिल हो सकती है।
बहरहाल, मंगल की खोजबीन निरंतर जारी है। नासा का इनसाइट लैंडर मंगल पर सफलतापूर्वक उतर चुका है और मंगल की भूगर्भीय बनावट का अध्ययन कर रहा है। वहीं क्यूरियोसिटी रोवर छह साल से अधिक समय से गेल क्रेटर की खोजबीन कर रहा है। और नासा का भावी मार्स 2020 रोवर और युरोपियन स्पेस एजेंसी का एक्समर्स रोवर, दोनों लॉन्च होने के बाद ऐसे रोवर मिशन बन जाएंगे, जिन्हें मुख्य रूप से लाल ग्रह पर अतीत के सूक्ष्मजीवी जीवन और नदियों, सागरों की मौजूदगी के संकेतों की तलाश के लिए बनाया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.newscientist.com/wp-content/uploads/2019/03/27153622/osuga-valles.jpg?width=778
कैलिफोर्निया इंस्टिट्यूट
ऑफ टेक्नॉलॉजी के भूकंप विज्ञानी जोंगवेन ज़ान ने नववर्ष एक विचित्र अंदाज़ में मनाया।
उन्होंने नववर्ष के जश्न के दौरान बैंड की तेज़ ध्वनि से उत्पन्न कंपन को ज़मीन के नीचे
दबे प्रकाशीय तंतुओं की मदद से रिकॉर्ड किया।
गौरतलब है कि टीवी,
फोन और इंटरनेट के लिए प्रकाशीय तंतु केबल का उपयोग
होता है। इन महीन तारों का नेटवर्क शहरों में किसी पेड़ की जड़ों की तरह फैला है। इन
तारों के भीतर कांच के कई अत्यंत बारीक तंतुओं में प्रकाश की मदद से डैटा प्रसारित
किया जाता है। एक समय पर सारे तंतुओं का उपयोग नहीं होता। ऐसे ‘निष्क्रिय तंतुओं’
का उपयोग सस्ते भूकंप संवेदी के रूप में किया जा
सकता है।
ज़ान की टीम ने स्थानीय
अधिकारियों से 37 किलोमीटर लंबे केबल
के दो स्ट्रैंड उपयोग करने की अनुमति ली हुई थी। उन्होंने दोनों स्ट्रैंड के एक-एक
छोर पर लेज़र लगा दिया जो अवरक्त प्रकाश छोड़ता था। इनमें से अधिकांश प्रकाश तो फाइबर
के रास्ते आगे बढ़ा लेकिन कुछ हिस्सा फाइबर में नुक्स के कारण परावर्तित हो गया। शोधकर्ताओं
ने इस परावर्तित प्रकाश के वापिस पहुंचने के समय को भी अपने उपकरणों में दर्ज किया।
ज़ान के अनुसार फाइबर में खराबी के कारण प्रतिध्वनि सुनाई देती है।
कई बार मापन करके
शोधकर्ताओं ने प्रतिध्वनि के पहुंचने के समय में अंतर को देखा। इसके आधार पर वे बता
पा रहे थे कि कंपन कब प्रकाशीय तंतु के उस खंड को खींचकर थोड़ा लंबा कर देते हैं। उपकरणों
की मदद से फाइबर में एक मीटर खंड की लंबाई में एक अरबवें हिस्से के फैलाव का पता लगाया
सकता है। तो आपके पास हज़ारों संवेदी उपकरण मौजूद हैं।
इस तकनीक को डिस्ट्रिब्यूटेड
एकूस्टिक सेंसिंग कहते हैं और पूर्व में इसका उपयोग सेना द्वारा पनडुब्बियों को ताड़ने
में किया जाता था। अब इनका उपयोग हर उस काम में किया जा सकता जहां कंपन शामिल हैं,
जैसे भूकंप की निगरानी में।
अलबत्ता, ज़ान और अन्य शोधकर्ता भविष्य में इसके व्यापक उपयोग को लेकर चर्चा कर रहे हैं। इसका उपयोग न केवल भूकंपों की निगरानी के लिए किया जा सकता है बल्कि ट्रैफिक पैटर्न को रिकॉर्ड करने, ज़मीन के नीचे दबी पाइप लाइन में रिसाव का पता लगाने और अनधिकृत प्रवेश का पता लगाने के लिए किया जा सकता है। ज़ान का मानना है कि इस प्रणाली को लॉस एंजिलिस जैसे बड़े शहरों में निकट भविष्य में अपनाया जा सकता है जहां पहले से हज़ारों किलोमीटर का फाइबर नेटवर्क मौजूद है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/horns_1280p.jpg?itok=1OZ0bjDn
फास्ट फूड हमारी भूख
शांत करने में मदद करता है। ऐसा ही जुगाड़ भंवरे भी करते हैं। जब मादा भंवरे शीतनिद्रा
(हाइबरनेशन) से जागते हैं तो उन्हें अपनी नई कॉलोनी बनाने के लिए ढेर सारे पराग और
मकरंद की ज़रूरत होती है। यदि भंवरे समय से पूर्व शीतनिद्रा से जाग जाते हैं तो पर्याप्त
मात्रा में पराग जमा करने के लिए आसपास पर्याप्त फूल नहीं खिले होते हैं। साइंस पत्रिका
में प्रकाशित शोध बताता है कि भंवरों ने इस समस्या का विचित्र समाधान खोजा है – वे
फूलों को जल्दी खिलाने के लिए पौधों की पत्तियों में छेद कर देते हैं और फूल वास्तव
में निर्धारित समय से कुछ सप्ताह पहले ही खिल उठते हैं।
ईटीएच ज़्यूरिच के
शोधकर्ताओं ने भंवरों में पौधों की गंध के प्रति प्रतिक्रिया सम्बंधी एक अध्ययन के
दौरान गौर किया था कि भंवरे पौधों की पत्तियों पर अर्ध-चंद्राकार छेद कर रहे हैं। पहले
तो शोधकर्ताओं को लगा कि वे पत्तियों का रस चूस रहे हैं। लेकिन भंवरे पत्तियों पर इतनी
देर नहीं ठहरे कि पर्याप्त रस ले सकें और ना ही वे पत्तियों का कोई हिस्सा अपनी कॉलोनी
में ले गए।
विचित्र अवलोकन यह
था कि जिन भंवरों की कॉलोनियों में कम भोजन उपलब्ध था उन्होंने पत्तियों में अधिक छेद
किए थे। इसके आधार पर शोधकर्ता सोचने लगे कि कहीं ये छेद फूलों को जल्दी खिलाने के
लिए तो नहीं किए जा रहे? यह तो पहले से पता
है कि कुछ पौधों में क्षति या तनाव के चलते फूल जल्दी खिलते हैं। लेकिन किसी ने यह
नहीं सोचा था कोई परागणकर्ता इस तरह से क्षति पहुंचाएगा।
माजरे को समझने के
लिए वैकासिक जीव विज्ञानी मार्क मेशर और उनके साथियों ने ग्रीनहाउस में प्रयोग किया।
पहले उन्होंने 3 तीन दिन से पराग
से वंचित भंवरों को राई (ब्रौसिका निग्रा) के दस पौधों पर छोड़ा। उन्होंने पाया कि भवंरों
ने हर पौधे में 5-10 छेद किए और इन पौधों
में औसतन 17 दिन बाद फूल खिल गए जबकि
जो पौधे भंवरों के संपर्क में नहीं आए थे उनमें औसतन 33 दिन बाद फूल खिले। टमाटर के पौधों पर दोहराने पर उनमें फूल
सामान्य से 30 दिन पहले खिल गए।
इसी कड़ी के अगले अध्ययन
के आधार पर लगता है कि भूख भवरों को पत्तियों में छेद करने को प्रेरित करती है क्योंकि
पराग ले चुके भंवरों की तुलना में पराग से वंचित भंवरों ने पत्तियों में चार गुना अधिक
छेद किए। और वसंत की शुरुआत में फूलों के खिलने के पहले, भंवरों ने पत्तियों में अधिक छेद किए लेकिन जैसे-जैसे वसंत आगे
बढ़ा और अधिक पराग मिलने लगा तो भंवरों ने पत्तियों में कम छेद किए। यह विचित्र व्यवहार
भंवरों की दो जंगली प्रजातियों में देखा गया।
क्या पत्तियों को
होने वाली क्षति-मात्र ही पौधों को जल्दी पुष्पन के लिए प्रेरित करती है? यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने एक और अध्ययन किया
जिसमें उन्होंने पत्तियों में हू-ब-हू वैसे ही छेद बनाए जैसे भंवरे बनाते हैं। उन्होंने
पाया कि सामान्य पौधों की तुलना में इन पौधों में जल्दी फूल आ गए, लेकिन भंवरों द्वारा छेद किए गए पौधों की तुलना
में देर से फूल आए। इससे लगता है कि भंवरों की लार में ऐसे रसायन होते होंगे जो पौधे
को जल्दी पुष्पन के लिए प्रेरित करते हैं।
बहरहाल शोधकर्ता इस बात पर हैरान हैं कि भंवरों में यह व्यवहार कैसे विकसित हुआ होगा। ऐसा लगता नहीं कि भंवरे यह युक्ति सीखते होंगे क्योंकि उनका कुल जीवन बहुत छोटा होता है। और यदि यह जन्मजात है तो समझना मुश्किल है कि उनमें यह शुरू कैसे हुआ। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.newscientist.com/wp-content/uploads/2020/05/21145522/bee-piercing-leaf_web.jpg?width=778
किसी
पौधे में मांस का चस्का विकसित होना काफी अजीब लगता है। लेकिन हाल ही में
मांसाहारी पौधों की तीन नज़दीकी प्रजातियों पर किए गए अध्ययन से पता चला है कि कुशल
आनुवंशिक फेरबदल ने उन्हें प्रोटीन युक्त भोजन को प्राप्त करने और पचाने की क्षमता
विकसित करने में मदद की है।
मांसाहारी
पौधों ने शिकार के लिए कई कुटिल तरीके विकसित किए हैं। जैसे कलश पादप (पिचर प्लांट) तो एक फिसलन भरे कलश
की मदद से कीड़ों को पकड़ता है जिसमें प्रोटीन को पचाने वाले एंज़ाइम होते हैं।
मांसाहारी पौधों की कुछ अन्य प्रजातियां हैं: वीनस
फ्लाईट्रैप (Dionaea
muscipula),
जलीय वॉटरव्हील प्लांट (Aldrovandavesiculosa), और
सनड्यू (Droseraspatulata)। ये गतिशील ट्रैप का उपयोग करते हैं। जैसे सनड्यू पर जब
कोई मच्छर बैठता है तो उस जगह को लपेट लिया जाता है। वीनस फ्लायट्रैप में विशेष
पत्तियां होती हैं जो कीड़े के बैठने पर बंद हो जाती हैं।
इन
गतिशील ट्रैप्स के विकास की खोजबीन के लिए युनिवर्सिटी ऑफ वुर्ज़बर्ग के
कम्प्यूटेशनल वैकासिक जीव विज्ञानी जोर्ग शुल्ट्ज़ और वनस्पति विज्ञानी रेनर
हेड्रिक व अन्य शोधकर्ताओं ने इन तीनों प्रजातियों के जीनोम की तुलना नौ पौधों के
जीनोम से की जिनमें मांसाहारी पिचर प्लांट के अलावा चुकंदर एवं पपीते जैसे साधारण
पौधे शामिल थे।
करंट
बायोलॉजी में प्रकाशित एक रिपोर्ट में उन्होंने बताया है कि मांस भक्षण करने वाली
इन प्रजातियों के जीनोम में लगभग 6 करोड़ वर्ष पुराने एक
साझा पूर्वज के जीनोम में दोहराव हुआ है। इस दोहराव ने जड़ों, पत्तियों और संवेदी
प्रणाली में उपयोग किए जाने वाले जीन की प्रतियों को मुक्त किया जो शिकार की पहचान
पचाने में काम आने लगीं। उदाहरण के लिए, मांसाहारी पौधों ने कुछ जीन्स, जिनका उपयोग जड़ों
द्वारा पोषक पदार्थों के अवशोषण के लिए होता था, को नए काम के लिए
तैनात किया – पचे हुए कीट से पोषक तत्व सोखने में।
शोधकर्ताओं के मुताबिक,
यह रोचक बात है कि जड़ों के जीन्स पत्तियों में अभिव्यक्त हो
रहे हैं।
टीम का निष्कर्ष है कि इन तीन प्रजातियों में और कलश पादप में मांस भक्षण की प्रवृत्ति का विकास स्वतंत्र रूप से हुआ है। दरअसल, उनका कहना है कि पौधों में मांस भक्षण की उत्पत्ति कम से कम छह बार स्वतंत्र रूप से हुई है। वैसे, युनिवर्सिटी ऑफ बफैलो के पादप जीव विज्ञानी विक्टर अल्बर्ट इन दो स्वतंत्र उत्पत्तियों के पक्ष में डैटा को अपर्याप्त बताते हैं। उनके अनुसार शिकार के लिए कुछ आवश्यक जीन तो कलश पादप और इन तीन पौधों के साझा पूर्वज में उपस्थित थे। उनकी टीम अब अन्य दो सनड्यू पौधों का अनुक्रमण कर रही है ताकि स्थित को स्पष्ट किया जा सके। हेड्रिक को यह भी लगता है कि मांसाहार के जीन कई पौधों में पाए जाते हैं। अत: मांसाहार का मार्ग सबके लिए खुला है।(स्रोत फीचर्स)
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कुछ
लोगों का अनुभव है कि जब उनके कुत्ते किशोरावस्था में पहुंचते हैं तो वे अचानक
उनके हुक्म मानना बंद कर देते हैं। यह भी कहा जाता है कि किशोर उम्र के कुत्तों का
व्यवहार शिशु, वयस्क
या वृद्ध कुत्तों से भिन्न होता है। और अब बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित एक
ताज़ा अध्ययन बताता है कि मानव किशोरों की तरह कुत्ते भी किशोरावस्था के दौरान अति
संवेदनशील होते हैं।
न्यू
कासल युनिवर्सिटी की जीव व्यवहार विज्ञानी लुसी एशर बताती हैं कि मनुष्यों के साथ
कुत्तों के पिल्लों का लगाव बिल्कुल मानव शिशु जैसा होता है। लेकिन अधिकांश
मालिकों को लगता है कि कुत्तों की उम्र 8 महीने की (श्वान-किशोरावस्था) होने पर उनके कुत्तों का व्यवहार बदल जाता है। मानव किशोरों
की तरह किशोर कुत्ते भी अपने मालिकों की उपेक्षा और अवज्ञा करने लगते हैं। इस
व्यवहार पर मालिक तरह-तरह की प्रतिक्रिया
देते हैं: कुछ उन्हें सज़ा देते हैं, कुछ उपेक्षा करते
हैं, तो
कुछ उन्हें दूर भेज देते हैं।
किशोरावस्था
कैसे कुत्तों का व्यवहार बदलती है, यह जानने के लिए एशर और उनकी टीम ने 70 कुत्तों पर नज़र रखी। अध्ययनकर्ताओं ने उनके मालिकों को उनके
साथ लगाव और ध्यान खींचने वाले व्यवहार (जैसे मालिक से सटकर
बैठना या किसी व्यक्ति के प्रति विशेष लगाव) और उपेक्षित होने पर
व्यवहार (जैसे पीछे छूट जाने पर सिहरन या कंपकंपी) के आधार पर अंक देने को कहा। ये दोनों तरह के व्यवहार चिंता
और भय के द्योतक हैं।जिन पिल्लों को दोनों में से किसी भी एक पैमाने पर अधिक अंक
मिले थे उनकी किशोरावस्था भी जल्दी शुरू हुई (लगभग
5 माह की उम्र में) जबकि
कम अंक वाले पिल्लों की किशोरावस्था 8 माह की उम्र यानी
देर से शुरू हुई। यह देखा गया है कि जिन लड़कियों के अपने अभिभावकों से रिश्ते
अच्छे नहीं होते उनकी किशोरावस्था जल्दी शुरू हो जाती है। मनुष्यों की तरह, जिन कुत्तों के
उन्हें पालने वालों के साथ सम्बंध अच्छे नहीं थे उनके प्रजनन चक्र में अंतर आया।
यह भी देखा गया कि जो किशोर कुत्ते अपने पालकों के विछोह से दुखी थे उन्होंने अपने
पालकों की बात नहीं मानी जबकि अन्य व्यक्ति की बात मानी। यह व्यवहार मानव किशोरों
की असुरक्षा की भावना से मेल खाता है।
एक
अन्य अध्ययन में अध्ययनकर्ताओं ने अन्य 69 गाइड
कुत्तों का 5 महीने और 8 महीने
की उम्र के दौरान अध्ययन किया। उन्होंने उनके मालिक और एक अजनबी को उन्हें ‘बैठने’ का आदेश देने को
कहा। सभी पिल्ले जब पूर्व-किशोरावस्था में थे, तब वे दोनों
व्यक्तियों के आदेश पर तुरंत बैठ गए। लेकिन जब यही पिल्ले किशोरावस्था में पहुंचे
तो ‘बार-बार’ उन्होंने अपने पालक का आदेश मानने से इन्कार किया जबकि
अनजान व्यक्ति की बात मान ली। जिन कुत्तों का अपने मालिकों से सुरक्षात्मक रूप से
लगाव नहीं था उन्होंने अजनबियों के आदेश अधिक माने। यह व्यवहार भी मानव किशोरों की
याद दिलाता है।
285 गाइड कुत्तों पर किए गए एक अध्ययन के डैटा के आधार पर
शोधकर्ताओं का कहना है कि अन्य उम्र की तुलना में किशोर कुत्तों को ‘प्रशिक्षित’ करना अधिक मुश्किल
होता है।
टीम का मानना है कि किशोर कुत्तों और मानव किशोरों के व्यवहार में समानता को देखते हुए मनुष्यों में किशोरावस्था के अध्ययन के लिए कुत्ते अच्छे मॉडल हो सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)
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सांडा
पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तान में पाई जाने वाली छिपकली है, जो मरुस्थलीय खाद्य शृंखला
में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। परंतु आज अंधविश्वास और अवैध शिकार के चलते
यह घोर संकट का सामना कर रही है।
सांडे
का तेल, भारत
के विभिन्न हिस्सों मे यौनशक्ति वर्धक एवं शारीरिक दर्द के उपचार के लिए अत्यधिक
प्रचलित औषधि है। वैसे,
इस तेल का कारगर होना एक अंधविश्वास मात्र है एवं इस तेल के
रासायनिक गुण किसी भी अन्य जीव की चरबी के तेल के समान ही पाए गए हैं। इस अंधविश्वास
के कारण इस जीव का बड़ी संख्या में अवैध शिकार किया जाता है, जिसके परिणाम स्वरूप
सांडों की आबादी तेज़ी से घट रही है।
सांडा
के नाम से जाना जाने वाला यह सरीसृप वास्तव में भारतीय उपमहाद्वीप के शुष्क
प्रदेशों में पाई जाने वाली एक छिपकली है। यह मरुस्थलीय छिपकली Agamidae
वर्ग की एक सदस्य है तथा अपने मज़बूत एवं बड़े पिछले पैरों के लिए जानी जाती है।
सांडा का अंग्रेजी नाम Spiny-tailed
lizard है जो इसे इसकी पूंछ पर पाए जाने वाले कांटेदार शल्क के
अनेक छल्लों की शृंखला के कारण मिला है।
विश्व
भर में सांडे की 20 प्रजातियां पाई जाती हैं। यह उत्तरी
अफ्रीका से लेकर मध्य-पूर्व के देशों एवं
उत्तरी-पश्चिमी भारत के शुष्क तथा अर्धशुष्क
प्रदेशों के घास के मैदानों में वितरित हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली
इस प्रजाति का वैज्ञानिक नाम Saarahardiwickii है। यह मुख्यत: अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा भारत में उत्तर-पश्चिमी राजस्थान, हरियाणा एवं गुजरात के कच्छ ज़िले के शुष्क
घास के मैदानों में पाई जाती है। कुछ शोध पत्रों के अनुसार सांडे की कुछ छोटी
आबादियां उत्तर प्रदेश,
उत्तरी कर्नाटक तथा पूर्वी राजस्थान में भी पाई जाती हैं।
वन्य जीव विशेषज्ञों के अनुसार सांडे का मरुस्थलीय आवास से बाहर वितरण मानवीय
गतिविधियों का परिणाम हो सकता है क्योंकि वन्य जीव व्यापार में अनेकों जीवों को
उनकी स्थानीय सीमाओं से बाहर ले जाया जाता है।
सांडे
की भारतीय प्रजाति में नर (40 से 49 से.मी.) सामान्यत: आकार में मादा (34 से 40 से.मी.) से बड़े होते हैं तथा
अपनी लंबी पूंछ के कारण आसानी से पहचाने जा सकते हैं। नर की पूंछ उसके शरीर की
लंबाई के बराबर या अधिक एवं छोर पर नुकीली होती है जबकि मादा की पूंछ शरीर की
लंबाई से छोटी तथा सिरे पर मोटी होती हैं।
पश्चिमी
राजस्थान के रेगिस्तान एवं कच्छ के नमक के मैदानों में पाई जाने वाली सांडे की
आबादी में त्वचा के रंग में एक अंतर देखने को मिलता हैं। अक्सर पश्चिमी राजस्थान
की आबादी में पूंछ के दोनों तरफ के शल्क में तथा पिछले पैरों की जांघों के दोनों
ओर हल्का चमकीला नीला रंग देखा जाता है, परंतु कच्छ के नमक मैदानों की आबादी में
ऐसा नहीं होता।
भारतीय
सांडे को भारत में पाई जाने वाली एकमात्र शाकाहारी छिपकली माना जाता है। इनके मल
के नमूनों की जांच के अनुसार वयस्क का आहार मुख्यत: वनस्पति, घास, एवं पत्तियों तक
सीमित रहता है लेकिन शिशु सांडा वनस्पति के साथ कीटों, मुख्यत: भृंग,
चींटी, दीमक, एवं टिड्डों, का सेवन भी करते
हैं। बारिश में एकत्रित किए गए कुछ वयस्क सांडों के मल में भी कीटों का मिलना इनकी
अवसरवादिता को दर्शाता है।
मरुस्थल
में भीषण गर्मी के प्रभाव से बचने के लिए सांडे भी अन्य मरुस्थलीय जीवों के समान
भूमिगत मांद में रहते हैं। सांडे की मांद का प्रवेश द्वार बढ़ते चंद्रमा के आकार
समान होता है तथा यह अन्य मरुस्थलीय जीवों की मांद से अलग दिखाई पड़ती है। मांद
अक्सर टेढ़ी-मेढ़ी, सर्पिलाकार तथा 2 से 3 मीटर गहरी होती है। मांद का आंतरिक तापमान बाहर की तुलना
में काफी कम होता है।
यह
छिपकली दिनचर होती है तथा मांद में आराम करते समय अपनी कांटेदार पूंछ से प्रवेश
द्वार को बंद रखती हैं। रात के समय में अन्य जानवरों, विशेषकर परभक्षी
जीवों, को
रोकने के लिए प्रवेश द्वार को मिट्टी से बंद भी कर देती है।
मांद
बनाना रेगिस्तान की कठोर जलवायु में जीवित रहने के लिए एक आवश्यक कौशल है। पैदा
होने के कुछ ही समय बाद सांडे के शिशु मादा के साथ भोजन की तलाश के साथ-साथ मांद की खुदाई सीखना भी शुरू कर देते हैं। अन्य
सरीसृपों के समान सांडे भी अत्यधिक सर्दी के समय दीर्घकाल के लिए शीतनिद्रा में
चले जाते हैं। इस दौरान ये अपनी शरीर की चयापचय क्रिया को धीमी कर शरीर में संचित
वसा पर ही जीवित रहते हैं। वैसे कच्छ के घास के मैदानों में शिशु सांडों को
दिसम्बर-जनवरी में भी सक्रिय देखा गया हैं। इसका
कारण कच्छ में सर्दियों में तापमान की गिरावट में अनियमितता हो सकता है।
सांडों
का प्रजनन काल फरवरी से शुरू होता है और छोटे शिशुओं को जून-जुलाई
तक घास के मैदानों में उछल-कूद करते देखा जा
सकता है। वर्ष के सबसे गर्म समय में भी ये छिपकलियां दिनचर बनी रहती हैं। गर्मी के
दिनों में तेज़ धूप खिलने पर ये दोपहर तक ही सक्रिय रहते हैं। यदि किसी दिन बादल
छाए रहें तो शाम तक भी सक्रिय रहते हैं।
सांडा
मरुस्थलीय खाद्य शृंखला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है तथा यह खाद्य पिरामिड के सबसे
निचले स्तर पर आता हैं। शरीर में ग्लायकोजन और वसा की अधिक मात्रा के चलते ये
रेगिस्तान में कई परभक्षी जीवों का प्रमुख भोजन हैं। सांडे को भूमि तथा हवा दोनों
तरफ से परभक्षी खतरों का सामना करना पड़ता है। मरुस्थल में पाए जाने वाले परभक्षी
जीवों की विविधता सांडों की बड़ी आबादी का ही परिणाम है। हैरियर और फाल्कन जैसे
शिकारी पक्षियों को अक्सर इन छिपकलियों का शिकार करते देखा जा सकता है। बड़े शिकारी
पक्षी ही नहीं,
किंगफिशर जैसे छोटे पक्षी भी नवजात सांडों का शिकार करने से
नहीं चूकते।
पक्षियों
के अलावा अनेकों सरीसृप भी रेगिस्तान में इस उच्च ऊर्जावान खाद्य स्रोत को प्राप्त
करने का अवसर नहीं गंवाते। थार रेगिस्तान में विषहीन दोमुंहा सांप (Red
sand-boa) अक्सर सांडे को मांद से बाहर खदेड़ते हुए
देखा जा सकता है। दोमुंहे द्वारा मांद में हमला करने पर सांडे के पास अपने पंजों
से ज़मीन पर मज़बूत पकड़ बनाने एवं मांद के संकरेपन के अलावा अन्य कोई सुरक्षा उपाय
नहीं होता। हालांकि सांडे को मांद से बाहर निकालना बिना हाथ पैर वाले जीव के लिए
आसान काम नहीं होता लेकिन यह प्रयास व्यर्थ नहीं है क्योंकि एक सफल शिकार का इनाम
ऊर्जा युक्त भोजन होता है। शाम को सक्रिय होने वाली मरु-लोमड़ी
भी अक्सर सांडे को मांद से खोदकर शिकार करते देखी जा सकती है।
परभक्षी
जीवों की ऐसी विविधता के कारण सांडे ने भी जीवित रहने के लिए सुरक्षा के कई तरीके
विकसित किए हैं। हालांकि इसके पास कोई आक्रामक सुरक्षा प्रणाली तो नहीं हैं परंतु
इसका छलावरण, फुर्ती
एवं सतर्कता इसके प्रमुख सुरक्षा उपाय हैं। इसकी त्वचा का रंग रेत एवं सूखी घास के
समान होता है जो आसपास के परिवेश में अच्छी तरह घुल-मिल
जाता है।
यदि
छलावरण काम नहीं करता,
तो शिकारियों से बचने के लिए यह अपनी गति पर निर्भर रहता
है। सांडा की पीछे की टांगें मज़बूत तथा उंगलियां लंबी होती हैं जो इसे उच्च गति
प्राप्त करने में मदद करती है। इसके अलावा, यह छिपकली भोजन की तलाश के दौरान बेहद
सतर्क रहती है,
विशेष रूप से जब शिशुओं के साथ हो। वयस्क छिपकली आगे के
पैरों के बल सर को ऊपर उठाकर, धनुषाकार पूंछ के साथ आसपास की हलचल पर नज़र
रखती है। सांडा अक्सर अपने बिल के निकट ही खाना ढूंढते हैं और मामूली-सी हलचल से ही खतरा भांप कर निकट की मांद मे भाग जाते हैं।
सांडे
अक्सर समूहो में रहते हैं तथा अपनी मांद एक-दूसरे से निश्चित
दूरी पर ही बनाते हैं। प्रजनन काल में अक्सर नरों को मादाओं के लिए मुकाबला करते
देखा जा सकता है। नर अपने इलाके को लेकर सख्त क्षेत्रीयता प्रदर्शित करते हैं तथा
अन्य नर के प्रवेश पर आक्रामक व्यवहार दिखाते हैं।
अवैध
शिकार एवं खतरे
अलबत्ता, मनुष्यों से सांडा
को बचाने में छलावरण,
गति और सतर्कता पर्याप्त प्रतीत नहीं होती हैं। सांडे के
इलाकों में इनके अंधाधुंध शिकार की घटनाएं अक्सर सामने आती रहती हैं। इस छिपकली को
पकड़ने के लिए शिकारी भी कई तरीके इस्तेमाल करते हैं। सबसे सामान्य तरीके में सांडे
की मांद में गरम पानी भरकर या मांद को खोदकर उसे बाहर आने के लिए मजबूर किया जाता
है।
एक
अन्य तरीके में शिकारी सांडे की मांद के प्रवेश द्वार पर एक रस्सी का फंदा लगा
देते हैं तथा उसके दूसरे छोर को छोटी लकड़ी के सहारे ज़मीन में गाड़ देते हैं। जब
सांडा अपनी मांद से बाहर निकलता है तो फंदा उसके सिर से निकलते हुए पैरों तक आ
जाता हैं तथा जैसे ही सांडा वापस मांद में जाने की कोशिश करता है, फंदा उसके शरीर पर
कस जाता है। फिर सांडे को पकड़कर उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी जाती है ताकि वह भाग न
सके।
सांडे
को भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची 2 में रखा गया है, जो इसके शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है।
यह जंगली वनस्पतियों और जीवों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार
की संधि के परिशिष्ट द्वितीय में शामिल है। हालांकि वन्य जीवों के व्यापार के
मुद्दे पर कार्यरत संस्था ट्राफिक की एक रिपोर्ट के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय व्यापार
में 1997 से 2001 के
बीच सांडों की सभी प्रजातियों के कुल व्यापार में भारतीय सांडे का हिस्सा का मात्र
दो प्रतिशत था,
लेकिन इस प्रजाति को क्षेत्रीय स्तर पर शिकार के गंभीर खतरों
का सामना करना पड़ रहा है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भारतीय सांडे का छोटा हिस्सा
इसके कम शिकार का द्योतक नहीं है, अपितु इसकी अधिक स्थानीय खपत दर्शाता है।
हाल ही में बैंगलुरु के कोरमंगला क्षेत्र से पकड़े गए कुछ शिकारियों के अनुसार सांडे के मांस एवं रक्त की स्थानीय स्तर पर यौनशक्ति वर्धक के रूप में अत्यधिक मांग है। पकड़े गए गिरोह का सम्बंध राजस्थान के जैसलमेर ज़िले से था, जहां पर सांडे अभी भी बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। इस तरह के गिरोहों का नेटवर्क कितना फैला हुआ है, कोई नहीं जानता। आम जन में जागरूकता की कमी एवं अंधविश्वास के कारण सांडों को अक्सर कई स्थानीय बाज़ारों में खुले बिकते भी देखा जाता है। प्रशासन की सख्ती के साथ-साथ आम जनता में जागरूकता सांडों के सुरक्षित भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। अन्यथा भारतीय चीते के समान यह अनोखा प्राणी भी जल्द ही किताबों व डॉक्यूमेंटरी में सिमटकर रह जाएगा। (स्रोत फीचर्स)
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अक्सर
चींटियां खाने के सामान में चुपके से घुस जाती हैं और उसका नाश कर डालती हैं।
लेकिन चींटियों के घर में भी चोरी होती है। खसखस के आकार की चोरनी चींटी (थीफ एंट), अपने से बड़ी
चींटियों के बच्चों को अपना भोजन बनाती है। इकॉलॉजी पत्रिका में प्रकाशित
एक अध्ययन बताता है कि अन्य चींटी प्रजातियों को चोरनी चींटियों की इस हरकत की
इतनी भारी कीमत चुकानी पड़ती है, कि पूरी खाद्य शृंखला तहस-नहस हो जाती है।
उत्तरी
व दक्षिणी अमेरिका में चोरनी चींटियों की कई प्रजातियां हैं। अधिकांश भूमिगत रहती
हैं। ये चींटियां बड़ी चींटियों की बांबी में सुरंग बनाती हैं और अपने से 24 गुना तक बड़ी अन्य चींटियों के बच्चे चुराकर खा जाती हैं। वे
वयस्क चींटियों को दूर रखने के लिए उन पर ज़हरीला विष छिड़क देती हैं।
चोरनी
चींटियों के काफी संख्या में मौजूद होने के बावजूद, उनके छोटे आकार और
भूमिगत रहने के कारण वे अधिकतर वैज्ञानिकों के द्वारा उपेक्षित ही रही हैं।
युनिवर्सिटी ऑफ सेंट्रल फ्लोरिडा के छात्र लियो ओहयामा देखना चाहते थे कि जब ये
चोरनी चींटियां न हों तो क्या होगा? इसके लिए उन्होंने स्टेट पार्क की रेतीली
मिट्टी में 18-18 वर्ग मीटर के 20 प्लॉट
तैयार किए। इनमें से 10 प्लॉटों में 14 महीनों तक हर महीने प्लास्टिक ट्यूब में कीटनाशक युक्त चारा
रखा। इस ट्यूब के निचले भाग में ऐसी जाली लगाई गई थी कि बड़ी चींटियां इस छेद से
अंदर ना जा पाएं।
उन्होंने
पाया कि कीटनाशक युक्त भोजन रखने से चोरनी चींटियों की संख्या में 71 प्रतिशत की कमी आई और बड़ी चींटियों की संख्या में 35 प्रतिशत की वृद्धि हुई। उन्होंने यह भी पाया कि अध्ययन के
दूसरे वर्ष में मई और जून के दौरान, जब चींटियों की संख्या सबसे अधिक होती है, चोरनी चींटियों की
संख्या में 82 प्रतिशत की कमी आई और बड़ी चींटियों में 65 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
ऐसा
लगता है कि चोरनी चींटियां कुछ ही प्रजातियों को अधिक लक्ष्य करती हैं। क्योंकि जब
चोरनी चींटियों की संख्या में कमी आई थी तब पिरामिड चींटी (Dorymyrmexbureni) की संख्या लगभग दुगनी हो गई थी, जबकि निशाचर
चींटियों (Nylanderiaarenivaga) की श्रमिक चींटियों की संख्या में 98 प्रतिशत
वृद्धि हुई थी। ओहयामा का कहना है कि ये नतीजे बताते हैं कि ये शिकार की
गतिविधियां अत्यधिक जटिल हैं और लंबे समय में विकसित हुई होंगी और इस दौरान कुछ
चींटियों ने बचाव के तरीके भी विकसित किए होंगे।
युनिवर्सिटी ऑफ कॉनकॉरिडा के समुदाय पारिस्थितिकीविद ज़्यां-फिलिप लेसार्ड का सुझाव है कि इस प्रयोग को लंबे समय तक करके देखना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ये प्रभाव लंबे समय तक बने रहते हैं। इसके अलावा अध्ययन में सिर्फ चींटियों की संख्या, जो काफी बदलती रहती है, की बजाय कॉलोनी के घनत्व को देखना चाहिए था।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ant_1200p.jpg?itok=s91Y9nyU