तेज़ी
से फैल रहे कोविड-19 संक्रमण को रोकने के लिए वैज्ञानिक उपाय
खोजने में लगे हैं। हाल ही में भारत की शीर्ष संस्था आईसीएमआर ने कोविड-19 मरीज़ों के इलाज के लिए प्लाज़्मा उपचार के ट्रायल की अनुमति
दी है। चीन में कोविड-19 संक्रमण से ठीक हुए
रोगियों के रक्त में कोविड-19 के विरुद्ध
एंटीबॉडीज़ से रोगियों का इलाज करने की संभावना देखी जा रही है। भारत में आईसीएमआर
द्वारा विभिन्न संस्थाओं को क्लीनिकल ट्रायल्स प्रारंभ करने का आमंत्रण देने का
कारण यह जानना है कि कोविड-19 संक्रमण के विरुद्ध
बनी एंटीबॉडी रोगग्रस्त व्यक्तियों के इलाज में कितनी असरदार साबित होती हैं।
बैक्टीरिया, फफूंद, वायरस जैसे रोगाणुओं
के लिए हमारा शरीर एक आदर्श आवास है। सर्दी या फ्लू के वायरस पर तो हमारा शरीर
ज़्यादा ही मेहरबान प्रतीत होता है। जब रोगाणु हमारे शरीर में प्रवेश करते हैं तो
बी तथा टी प्रतिरक्षा कोशिकाएं उन्हें नष्ट करने में लग जाती हैं।
बी-प्रतिरक्षा कोशिकाएं रोगाणुओं पर उपस्थित एंटीजन से जुड़कर
प्लाज़्मा कोशिकाओं का निर्माण करती है। प्लाज़्मा कोशिकाएं विभाजित होकर असंख्य
प्लाज़्मा कोशिकाएं बनाती हैं जो तेज़ी से एंटीबॉडीज़ का निर्माण करने लगती है। चूंकि
ये एंटीबॉडी खास रोगाणुओं के विरुद्ध बनती हैं इसलिए दूसरी बीमारी के रोगाणुओं के
विरुद्ध कार्यवाही नहीं कर सकती है। जब शरीर में प्रतिरक्षा कोशिकाओं को एक
अपरिचित एंटीजन का पता लगता है तो प्लाज़्मा कोशिकाओं को पर्याप्त रूप में एंटीबॉडी
उत्पन्न करने में दो सप्ताह तक का समय लग सकता है। अत्यधिक मात्रा में निर्मित
एंटीबॉडीज़ को रक्त रोगाणुओं के आगमन स्थानों पर पहुंचाता है जहां एंटीबॉडीज़
रोगाणुओं को बांधकर उन्हें अक्रिय कर देती हैं जिन्हें भक्षी कोशिकाएं खा जाती
हैं।
एंटीबॉडीज़
एकत्रित के लिए पूरी तरह ठीक हो चुके व्यक्ति के शरीर से लगभग 800 मिलीलीटर रक्त निकाला जाता है और रक्त से प्लाज़्मा को अलग
किया जाता है। प्लाज़्मा अलग होने के बाद लाल रक्त कोशिकाओं को सलाइन में मिलाकर
वापस दानदाता के शरीर में डाल दिया जाता है। प्लाज़्मा में से खून का थक्का जमाने
वाले प्रोटीन फाइब्रिनोजन को अलग कर सिरम प्राप्त किया जाता है। सिरम में केवल
एंटीबॉडीज़ पाई जाती हैं। सिरम को अल्पकाल के लिए 40 डिग्री
सेल्सियस पर तथा ज़्यादा समय तक संग्रहित करने के लिए कुछ रसायन मिलाकर -60 डिग्री सेल्सियस पर रखा जाता है। एक व्यक्ति से प्राप्त
प्लाज़्मा में इतनी एंटीबॉडीज़ होती हैं कि 4 मरीज़ों का इलाज हो
सकता है।
गंभीर
संक्रमण से ग्रस्त रोगियों के प्लाज़्मा में अनेक प्रकार के सूजन पैदा करने वाले
रसायन भी पाए जाते हैं जो फेफड़ों को गंभीर क्षति पहुंचा सकते हैं। ऐसी अवस्था में
उनके प्लाज़्मा से अवांछित रसायनों को पृथक कर निकाल दिया जाता है। प्लाज़्मा उपचार
का उपयोग केवल मध्यम या गंभीर संक्रमण वाले रोगियों पर किया जाता है।
कारगर टीके या इलाज के अभाव में कोविड-19 रोगियों के लिए प्लाज़्मा उपचार तकनीक लड़ाई में आशा की किरण है। चीन, दक्षिण कोरिया, अमेरिका और ब्रिटेन जैसे कई देशों में प्लाज़्मा उपचार पर प्रयोग चल रहे हैं और भारत भी इस दौड़ में पीछे नहीं रहना चाहता।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://api.hub.jhu.edu/factory/sites/default/files/styles/hub_xlarge/public/antibody%20plasma%20final.jpg?itok=AAplqAv4
इन
दिनों कोरोनावायरस सुर्खियों में है। इसने लाखों लोगों को बीमार कर दिया है और ढाई
लाख से ज़्यादा लोगों की जान ले ली है।
लेकिन
तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि वायरसों ने जीव जगत में सहयोग व सहकार की भूमिका भी
अदा की है। और सहयोग व सहकार केवल थोड़े समय के लिए नहीं बल्कि हमेशा-हमेशा के लिए। उन्होंने जीवों में घुसपैठ कर उनकी कोशिकाओं
में अपने जींस छोड़ दिए हैं जिनकी बदौलत उन प्रजातियों के विकास की दिशा बदल गई।
दिलचस्प
बात है कि स्तनधारी अपने इस रूप में वायरस की बदौलत ही हैं। अगर वायरस स्तनधारियों
में घुसपैठ न करते तो शायद हम इस रूप में न होते। आज के स्तनधारी जो अपने बच्चे को
गर्भ में सहेजकर रखते हैं,
वे तो हरगिज नहीं होते। गर्भधारण के लिए ज़रूरी गर्भनाल (प्लेसेंटा) वायरस की ही देन
है।
हम
जानते हैं कि स्तनधारी समूह के एक बड़े वर्ग – चूहे, चमगादड़, व्हेल, हाथी, छछूंदर, कुत्ते, बिल्ली, भेड़, मवेशी, घोड़ा, कपि, बंदर व मनुष्य में
गर्भनाल पाई जाती है। गर्भनाल मांसल, रस्सीनुमा संरचना है जिसका एक सिरा गर्भाशय
से जुड़ा होता है और दूसरा बच्चे से।
गर्भनाल
एक ऐसी व्यवस्था है जो गर्भ में पल रहे बच्चे को वहां एक नियत अवधि तक टिके रहने
में अहम भूमिका अदा करती है। मनुष्य में बच्चा लगभग नौ माह तक मां के गर्भ में
रहता है। इस दौरान उसे नियमित ऑक्सीजन व पोषण चाहिए जो गर्भनाल के ज़रिए ही मां से
उपलब्ध होता है। गर्भनाल बच्चे के विकास को प्रेरित करती है। यह बच्चे को कई तरह
के संक्रमण से भी बचाती है। यह दिलचस्प है कि जो बीमारी गर्भावस्था के दौरान मां
को हो उससे गर्भ में पल रहा बच्चा सुरक्षित रहता है। गर्भनाल कई मायनों में बच्चे
व मां के बीच एक अवरोध का भी काम करती है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि गर्भनाल की
बदौलत ही मां का शरीर भ्रूण को पराया मानकर उस पर हमला नहीं करता।
सवाल
यह है कि मादा स्तनधारी में अंडे के निषेचन के बाद गर्भनाल के निर्माण के लिए कौन-से जींस ज़िम्मेदार हैं? इस सवाल का जवाब वे वायरस देते हैं
जिन्होंने सैकड़ों-लाखों साल पहले स्तनधारियों के पूर्वजों को
संक्रमित किया था। उन वायरसों ने संक्रमित जंतुओं को परेशान नहीं किया बल्कि उनके
शरीर में जाकर बैठ गए। मज़े की बात यह है कि वायरस मेज़बान की कोशिका के जीनोम का
हिस्सा बन गए व मेज़बान ने उनका फायदा उठाया।
बात
6.5 करोड़ बरस पहले की है। एक छोटा, मुलायम, छछूंदर जैसा निशाचर
जीव था। यह आधुनिक स्तनधारी जैसा ही दिखता था। अलबत्ता, उसमें गर्भनाल नहीं
थी। आधुनिक स्तनधारियों की गर्भनाल उस छछूंदर के साथ एक रेट्रोवायरस की मुठभेड़ का
नतीजा है।
वायरस
की खासियत होती है कि यह किसी सजीव कोशिका में पहुंचकर उसके केंद्रक में अपना
न्यूक्लिक अम्ल डाल देता है। वायरस का न्यूक्लिक अम्ल मेज़बान कोशिका के न्यूक्लिक
अम्ल को निष्क्रिय कर देता है और खुद कोशिका पर नियंत्रण कर लेता है। अब उस सजीव
की कोशिका पर वायरस की ही सल्तनत होती है। वायरस उस कोशिका में अपनी प्रतिलिपियां
बनाने लगता है।
रेट्रोवायरस
एक प्रकार के वायरस हैं जो आरएनए को आनुवंशिक सामग्री के रूप में इस्तेमाल करते
हैं। कोशिका को संक्रमित करने के बाद रेट्रोवायरस अपने आरएनए को डीएनए में बदलने
के लिए रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेज़ नामक एंज़ाइम का इस्तेमाल करते हैं। रेट्रोवायरस तब
अपने वायरल डीएनए को मेज़बान कोशिका के डीएनए में एकीकृत करता है। एड्स वायरस
रेट्रोवायरस ही है।
आज
के स्तनधारियों के पूर्वज के शुक्राणु या अंडाणुओं में वायरस के जींस पहुंच गए और
फिर हर पीढ़ी में पहुंचने में कामयाब हो गए। इस तरह से वायरस पूरी तरह से मेज़बान के
जीनोम का हिस्सा बन गए। जीनोम अध्ययन से पता चलता है कि मानव के जीनोम में वायरस
के लगभग 1 लाख ज्ञात अंश हैं जो हमारे कुल डीएनए का
आठ फीसदी से अधिक है। यानी हम आठ फीसदी वायरस से बने हुए हैं।
जब
कोई वायरस अपने जीनोम को मेज़बान के साथ एकीकृत करता है तो नए संकर जीनोम बनते हैं
तथा वह कोशिका मर जाती है। लेकिन कभी-कभी कुछ दुर्लभ घटना
घट सकती है। मसलन शुक्राणु या अंडाणु अगर वायरस से संक्रमित होकर निषेचित हो जाए
तो अगली पीढ़ियों की संतानों में वायरल जीनोम की एक प्रति होगी। इसे वैज्ञानिक
अंतर्जात रेट्रोवायरस कहते हैं।
प्रारंभिक
स्तनधारियों में वायरस के उन कबाड़ में पड़े हुए जींस का इस्तेमाल गर्भनाल बनाने में
किया जाने लगा जो आज भी जारी है। सिंसिटिन जो कि रेट्रोवायरस के जीनोम का हिस्सा
था वह लाखों बरस पहले स्तनधारी के पूर्वजों में घुसपैठ कर चुका है। यह स्तनधारियों
में गर्भधारण के लिए बेहद अहम है। मूल रूप से सिंसिटिन नामक प्रोटीन वायरस को
मेज़बान कोशिका के साथ जुड़ने में मदद करता है। सामान्य हालात में वायरस के संक्रमण
की स्थिति में सिंसिटिन का संश्लेषण मेज़बान की जीन मशीनरी के माध्यम से होता है और
ये एक कोशिका से दूसरी में स्थानांतरित होते रहते हैं। बेशक, सिंसिटिन प्राचीन
वायरस की देन है जो गर्भावस्था के दौरान गर्भनाल की कोशिकाओं में प्रकट होता है।
सिंसिटिन बनाने वाली कोशिकाएं केवल वहीं होती है जहां गर्भनाल से गर्भाशय का
संपर्क बनता है। ये एकल कोशिकीय परत बनाने के लिए एक साथ जुड़ती हैं व भ्रूण अपनी
मां से इसके ज़रिए आवश्यक पोषण प्राप्त करता है। वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि इस
जुड़ाव के लिए सिंसिटिन का बनना अनिवार्य है। सिंसिटिन का जीन तो वायरस में ही पाया
जाता है।
यह
दिलचस्प है कि सिंसिटिन प्रोटीन का जीन विकासक्रम में स्तनधारियों के जीनोम में
बना रहा। सिंसिटिन तब प्रकट होता है जब कोई पराई चीज़ आक्रमण करे। स्वाभाविक है कि
अंडाणु को निषेचित करने वाला नर का शुक्राणु मादा के लिए पराया होता है। जब
निषेचित अंडा गर्भाशय में आता है, तब सिंसिटिन प्रोटीन का निर्माण गर्भाशय की
कोशिकाएं करती है व भ्रूण को गर्भाशय की दीवार से चिपकने का रास्ता आसान बनाती है।
स्तनधारियों
में सिंसिटिन का निर्माण करने वाले जीन आम तौर पर सुप्तावस्था में पड़े रहते हैं।
जब गर्भधारण की स्थिति बनती है तब ये जागते हैं और सिंसिटिन के निर्माण का सिलसिला
शुरू होता है। प्लेसेंटा में सिंसिटिन का निर्माण करने वाली कोशिकाएं होती हैं।
सिंसिटिन नामक यह पदार्थ प्लेसेंटा व मातृ-कोशिका के बीच
सीमाओं को निर्धारित करता है। अंड कोशिका के निषेचन के लगभग एक सप्ताह बाद भ्रूण
गोल खोखली गेंदनुमा रचना (ब्लास्टोसिस्ट) में विकसित हो जाता है व गर्भाशय में रोपित होकर गर्भनाल के
निर्माण को उकसाता है। यही गर्भनाल भ्रूण को ऑक्सीजन और पोषण उपलब्ध कराती है।
ब्लोस्टोसिस्ट की बाहरी परत की कोशिकाएं गर्भनाल की बाहरी परत का निर्माण करती है
और गर्भाशय से जो सीधे संपर्क में कोशिकाएं होती हैं वे सिंसिटिन का निर्माण करती
है।
कोशिकाओं में कबाड़ के रूप में पड़े डीएनए में ज़्यादातर हिस्सा सहजीवी वायरस का है। मनुष्यों के हालिया विकास में अंतर्जात रेट्रोवायरस की भूमिका का खुलासा करने वाले नए अध्ययनों से पता चलता है कि डीएनए के ये टुकड़े मानव और वायरस के बीच की सीमा को धुंधला करते हैं। इस दृष्टि से देखा जाए, तो मनुष्य आंशिक रूप वायरस ही हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.mdpi.com/viruses/viruses-12-00005/article_deploy/html/images/viruses-12-00005-g001.png
चिकित्सक
जोशुआ डेन्सन ने आईसीयू के रोगियों में विचित्र समानता देखी। इनमें से कई रोगी श्वसन
सम्बंधी परेशानी का सामना कर रहे थे और कुछ के गुर्दे तेज़ी से खराब हो रहे थे। इस
दौरान जोशुआ की टीम एक युवा महिला को बचाने में भी असफल रही थी जिसके ह्रदय ने काम
करना बंद कर दिया था। यह काफी आश्चर्य की बात थी कि ये सभी रोगी कोविड पॉज़िटिव थे।
अब
तक विश्व भर में कोविड-19 के 25 लाख से अधिक मामले सामने आ चुके हैं और 2.5 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है। चिकित्सक और रोग
विज्ञानी इस नए कोरोनावायरस द्वारा शरीर पर होने वाले नुकसान को समझने में लगे
हैं। हालांकि इस बात से तो वे अवगत हैं कि इसकी शुरुआत फेफड़ों से होती है लेकिन अब
ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी पहुंच ह्रदय, रक्त वाहिकाओं, गुर्दों, आंत और मस्तिष्क
सहित कई अंगों तक हो सकती है।
वायरस
के इस प्रभाव को समझकर चिकित्सक कुछ लोगों का सही दिशा में इलाज कर सकते हैं। क्या
हाल ही में देखी गई रक्त के थक्के बनने की प्रवृत्ति कुछ हल्के मामलों को जानलेवा
बना सकती है? क्या
मज़बूत प्रतिरक्षा प्रक्रिया सबसे खराब मामलों के लिए ज़िम्मेदार है, क्या प्रतिरक्षा को
कम करके फायदा होगा?
क्या ऑक्सीजन की कम मात्रा इसके लिए ज़िम्मेदार है? ऐसा क्या है जो यह
वायरस पूरे शरीर की कोशिकाओं पर हमला करके विशेष रूप से 5 प्रतिशत
रोगियों को गंभीर रूप से बीमार कर देता है। इस विषय में 1000 से
अधिक पेपर प्रकाशित होने के बाद भी कोई स्पष्ट तस्वीर सामने नहीं है।
संक्रमित
व्यक्ति छींकने पर वायरस की फुहार हवा में छोड़ता है और अन्य व्यक्ति की सांस के
साथ वे नाक और गले में प्रवेश करते हैं जहां इस वायरस को पनपने के लिए एक अनुकूल
माहौल मिलता है। श्वसन मार्ग में उपस्थित कोशिकाओं में ACE-2 ग्राही होते हैं। जो वायरस को कोशिका में
घुसने में मदद करते हैं। वैसे तो ACE-2 शरीर
में रक्तचाप को नियमित करता है लेकिन साथ ही इसकी उपस्थिति उन ऊतकों को चिन्हित
करती है जो वायरस की घुसपैठ के प्रति कमज़ोर हैं। अंदर घुसकर वायरस कोशिका को वश
में करके अपनी प्रतिलिपियां बनाकर अन्य कोशिकाओं में घुसने को तैयार हो जाता है।
जैसे-जैसे वायरस की संख्या बढ़ती है, संक्रमित व्यक्ति
काफी मात्रा में वायरस छोड़ता है। इस दौरान रोग के लक्षण नहीं होते या बुखार, सूखी खांसी, गले में खराश, गंध और स्वाद का
खत्म होना, सिरदर्द
और बदनदर्द जैसे लक्षण हो सकते हैं।
इस
दौरान यदि प्रतिरक्षा प्रणाली वायरस पर काबू नहीं पाती है तो यह श्वसन मार्ग से
बढ़कर फेफड़ों तक पहुंच जाता है जहां यह जानलेवा हो सकता है। फेफड़ों में प्रत्येक
कोशिका की सतह पर भी ACE-2 ग्राही पाए जाते
हैं।
आम
तौर पर ऑक्सीजन फेफड़ों की कोशिकाओं की परत को पार करके रक्त वाहिकाओं में और फिर
पूरे शरीर में पहुंचती है। लेकिन प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा इस वायरस से लड़ते हुए
ऑक्सीजन का यह स्वस्थ स्थानांतरण बाधित हो जाता है। ऐसे में श्वेत रक्त कोशिकाएं
केमोकाइन्स नामक अणु छोड़ती हैं जो फिर और अधिक प्रतिरक्षी कोशिकाओं को वहां
आकर्षित करता है ताकि वायरस से संक्रमित कोशिकाओं को खत्म किया जा सके। इस
प्रक्रिया में मवाद बनता है जो निमोनिया का कारण बनता है। कुछ रोगी केवल ऑक्सीजन
की सहायता से ठीक हो जाते हैं।
लेकिन कई अन्य लोगों में यह गंभीर रूप ले लेती है। ऐसे में रक्त नलिकाओं में ऑक्सीजन का स्तर अचानक से गिरने लगता है और सांस लेने में परेशानी होने लगती है। आम तौर पर ऐसे रोगियों को वेंटीलेटर की ज़रूरत पड़ती है और कई तो ऐसी स्थिति में पहुंचकर दम तोड़ देते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://pulitzercenter.org/sites/default/files/styles/node_images_768x510/public/covid-19_graphic.png?itok=RtStRPEJ
पुराने
समय में जब घर में कोई बीमार पड़ता था तो उसका इलाज करने के लिए पारिवारिक चिकित्सक
को घर बुलाया जाता था। चिकित्सक सबसे पहले मरीज़ के चेहरे, कनपटी और छाती की
त्वचा छूकर देखते थे। यह उन्हें जल्दी बीमारी पता लगाने में मदद करता था। त्वचा
छूने पर यदि सामान्य से अधिक गर्म लगती है तो मरीज़ को बुखार है; यदि त्वचा का रंग
सामान्य से अधिक फीका है,
तो मरीज़ को डिहाइड्रशेन (पानी
की कमी) है और उसे अधिक पानी पीने की आवश्यकता है; अगर त्वचा नीली पड़
गई है तो मरीज़ को अधिक ऑक्सीजन की ज़रूरत है; और अगर त्वचा गीली लगती है तो मरीज़ को
व्यायाम या शारीरिक श्रम कम करने की ज़रूरत है। फिर वे मरीज़ को उपयुक्त औषधि के रूप
में गोलियां, घुटी
या इंजेक्शन देते थे।
इसके
विपरीत, अब
हम मरीज़ को दिखाने के लिए डॉक्टर के क्लीनिक जाते हैं, जहां रोग का पता
लगाने के लिए वे मरीज़ को नैदानिक केंद्र (पैथॉलॉजी) भेजते हैं और उसकी रिपोर्ट के आधार पर दवा देते हैं। त्वचा
देख-छूकर रोग का पता करना अब बीते ज़माने की बात
हो गई है।
वैसे
इस समय त्वचा विशेषज्ञ एक दिलचस्प तरीके का उपयोग कर रहे हैं। इस तरीके में वे एक
महीन बहुलक-आधारित पट्टी में वांछित औषधि डालते हैं
जिसे मरीज़ की बांह या छाती की त्वचा पर चिपका दिया जाता है। फिर इस पट्टी में बहुत
हल्का विद्युत प्रवाह किया जाता है, और पसीने के माध्यम से दवा सीधे शरीर में
चली जाती है। इस प्रकार यह पहनी जा सकने वाली व्यक्तिगत चिकित्सा तकनीक है जिसमें
गोलियां या औषधि नहीं खानी पड़ती। माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक और जैव-संगत
पोलीमर के आने से आज हमारे पास “इलेक्ट्रॉनिक त्वचा” (ई-त्वचा) है,
नैनोवायर की मदद से इसे त्वचा पर जोड़ा जा सकता है और
माइक्रो बैटरी की मदद से इसमें विद्युत प्रवाहित की जा सकती है।
पसीने
की भूमिका
गौर
करेंगे तो देखेंगे कि इसमें हमारे शरीर के सक्रिय तरल यानी पसीने को नज़रअंदाज कर
दिया गया है या इसे महज एक अक्रिय वाहक के रूप में देखा जा रहा है जिसकी कोई अन्य
भूमिका नहीं है। यह हाल ही में हुआ है कि हमारे शरीर में पसीने की भूमिका और इसमें
मौजूद रसायनों के बारे में हमारी समझ और इसका इस्तेमाल बढ़ा है। पसीना हमारी पूरी
त्वचा में वितरित तीन प्रकार की ग्रंथियों से निकलता है। ये ग्रंथियां पानी और कई
अन्य पदार्थों को स्रावित करके हमारे शरीर के तापमान को 37 डिग्री
सेल्सियस (या 98.4 डिग्री
फैरनहाइट) बनाए रखने में मदद करती हैं। हमारे
मस्तिष्क में तापमान-संवेदी तंत्रिकाएं (न्यूरॉन्स) होती हैं, जो शरीर के तापमान
और चयापचय गतिविधि का आकलन करके पसीना स्रावित करने वाली ग्रंथियों को नियंत्रित
करती हैं। इस तरह पसीना हमारे शरीर के तापमान को नियंत्रित रखता है।
पसीने
में क्या होता है?
यह 99 प्रतिशत पानी होता
है जिसमें सोडियम,
पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम और
क्लोराइड आयन, अमोनियम
आयन, यूरिया, लैक्टिक एसिड, ग्लूकोज़ जैसे अन्य
पदार्थ होते हैं। किसी मरीज़ के पसीने में मौजूद पदार्थों के विश्लेषण और इसकी
तुलना एक सामान्य व्यक्ति के पसीने करें, तो पसीना एक नैदानिक तरल हो सकता है (ठीक उसी तरह जिस तरह शरीर के अन्य तरल पदार्थ होते हैं)। जैसे, सिस्टिक फाइब्रोसिस बीमारी में मरीज़ के
पसीने में सोडियम और क्लोराइड आयनों का अनुपात और सामान्य व्यक्ति के पसीने में
सोडियम और क्लोराइड आयनों का अनुपात अलग-अलग होता है। इसी
तरह डायबिटीज़ के रोगी के पसीने में ग्लूकोज़ की मात्रा सामान्य व्यक्ति से अधिक
होती है। लेकिन इन नैदानिक तरीकों में समस्या पसीने की मात्रा की है।
ई–त्वचा आधारित निदान
यहां
आधुनिक तकनीक का महत्व सामने आता है। अब माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक और ई-त्वचा पट्टी दोनों उपलब्ध हैं। वैज्ञानिक इनका उपयोग पट्टी
में लगे उपयुक्त संवेदियों की मदद से, पसीना निकलने के वक्त ही उसमें मौजूद में
कुछ चुनिंदा पदार्थों की मात्रा का पता लगाने में कर रहे हैं। लेकिन क्या यह बेहतर
नहीं होगा कि हम ई-त्वचा पट्टी पर एक की बजाए कई पदार्थों की
जांच के लिए सेंसर लगाकर,
एक साथ कई जांच कर पाएं?
इस
बारे में कैलिफोर्निया के जीव विज्ञानी, भौतिक विज्ञानी, कंप्यूटर विशेषज्ञ
और इलेक्ट्रिकल इंजीनियरों द्वारा एक महत्वपूर्ण अध्ययन 2016 में
नेचर पत्रिका प्रकाशित हुआ था। इसमें उन्होंने ई-त्वचा
पट्टी पर एक नहीं बल्कि छह सेंसर जोड़े थे जो सोडियम, पोटेशियम, क्लोराइड आयन, लैक्टेट और ग्लूकोज़
की मात्रा और पसीने का तापमान पता करते हैं। ये सेंसर इस तरह लगाए गए थे कि सेंसर
और त्वचा के बीच हमेशा संपर्क बना रहे। प्रत्येक सेंसर से आने वाले विद्युत
संकेतों को डिजिटल संकेतों में परिवर्तित किया जाता है और माइक्रो-नियंत्रक को भेजा जाता है। इन संकेतों को ब्लूटूथ की मदद से
मोबाइल फोन या अन्य स्क्रीन पर पढ़ा जा सकता है, या एसएमएस, ईमेल के ज़रिए किसी
को भेजा जा सकता है या क्लाउड इंटरफेस पर अपलोड भी किया जा सकता है।
2017 में इन्हीं शोधकर्ताओं ने प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल
एकेडमी ऑफ साइंसेस में एक और पेपर प्रकाशित किया था। चूंकि एक जगह स्थिर रहने
वाले (या गतिहीन) लोगों
में प्राकृतिक रूप से पसीना बहुत कम निकलता है इसलिए शोधकर्ताओं ने आयनटोफोरेसिस
नामक तरीके का उपयोग किया। इसमें वांछित स्थान को पसीना स्रावित करने के लिए
उत्तेजित किया जा सकता है और पर्याप्त मात्रा में पसीना प्राप्त किया जा सकता है।
फिर किसी सामान्य व्यक्ति और सिस्टिक फाइब्रोसिस वाले व्यक्तियों में सम्बंधित
पदार्थों का विश्लेषण किया और पसीने में ग्लूकोज के स्तर को भी देखा। जांच के लिए
प्रयुक्त शीट उनके द्वारा पूर्व में उपयोग की गई एकीकृत शीट जैसी थी। अध्ययन में
उन्होंने पाया कि एक सामान्य व्यक्ति में प्रति लीटर 26.7 मिली
मोल सोडियम आयन और 21.2 मिली मोल क्लोराइड आयन होते हैं (ध्यान दें कि यहां सोडियम आयन का स्तर क्लोराइड आयन के स्तर
से अधिक है),
जबकि सिस्टिक फाइब्रोसिस के रोगी में सोडियम आयन का स्तर 2.3 मिली मोल और क्लोराइड आयन का स्तर 95.7 मिली
मोल था (जो सोडियम आयन की अपेक्षा कहीं अधिक है)। ध्यान रहे कि सिस्टिक फाइब्रोसिस विशेषज्ञों द्वारा किए
जाने वाली सामान्य जांच में भी यही नतीजे मिलते हैं। शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि
उपवास के दौरान ग्लूकोज़ पीने पर पसीने और रक्त में ग्लूकोज का स्तर बढ़ जाता है।
गौरतलब
है कि इन सब परीक्षणों में,
प्रोब और सेंसरों को संचालित करने के लिए माइक्रोबैटरी की
मदद से विद्युत प्रवाहित करने की आवश्यकता पड़ती है। यदि इन ई-त्वचा
का रोबोटिक्स और अन्य उपकरणों में उपयोग करना है, तो क्या हम इन
बैटरियों से निजात पा सकते हैं, और पसीने में मौजूद पदार्थों का उपयोग
विद्युत उत्पन्न करने वाले जैव र्इंधन के रूप में कर सकते है?
कुछ
दिनों पहले साइंस रोबोटिक्स में प्रकाशित शोध इसी सवाल का जवाब देता है। इस
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने लोगों की ई-त्वचा पट्टी पर
लॉक्स एंज़ाइम जोड़ा। यह लॉक्स एंज़ाइम पसीने में मौजूद लैक्टेट के साथ क्रिया करता
है और इसे एक बायोएनोड (जैविक धनाग्र) पर पायरुवेट में ऑक्सीकृत कर देता है, और एक बायोकेथोड (जैविक ऋणाग्र) पर ऑक्सीजन को पानी
में अवकृत कर देता है। इस प्रकार उत्पन्न विद्युत ऊर्जा, बिना किसी बाहरी स्रोत
के, ई-त्वचा पट्टी को संचालित करने के लिए पर्याप्त होती है – क्या शानदार तरीका है!
और अंत में, कोविड-19 संक्रमण के दिनों में यह जानना लाभप्रद है कि पसीने में कोई भी रोगजनक (बैक्टीरिया या वायरस) नहीं होता; इसके उलट इसमें एक कीटाणु-नाशक प्रोटीन होता है जिसे डर्मसीडिन कहते हैं। हो सकता है कि डर्मसीडिन या इसका संशोधित रूप एंटी-वायरस की तरह काम कर जाए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.allaboutcircuits.com/uploads/thumbnails/Perspiration-powered_electronic_skin.jpg
चीन
में नए कोरोनावायरस के शुरुआती मामलों के आधार पर डॉक्टरों को पता था कि यह वायरस
फेफड़ों पर हमला करता है। लेकिन हाल ही में गंभीर लक्षण वाले ऐसे रोगियों के मामले
सामने आए हैं जहां गुर्दे और ह्रदय जैसे अन्य अंगों को भी क्षति पहुंची है।
स्टेटन
आइलैंड स्थित कोरोनावायरस उपचार अस्पताल के सह-निदेशक डॉ. एरिक सियो-पेना के अनुसार किसी रोगी में कमज़ोर
प्रतिरक्षा के कारण जब फेफड़ों पर इस वायरस का अत्यधिक दबाव बनता है तो यह शरीर के
दूसरे हिस्सों में फैलने लगता है। कोरोनावायरस सांस नली के माध्यम से फेफड़ों तक और
फिर शरीर में पहुंचता है। यह श्वसन कोशिकाओं की सतह पर पाए जाने वाले एंज़ाइम से
जुड़कर किसी व्यक्ति को संक्रमित करता है। शरीर में पहुंचने के बाद यह रक्तप्रवाह
में मिलकर शरीर के अन्य अंगों तक पहुंचकर उन्हें क्षति पहुंचाने लगता है।
कोविड-19 के गंभीर रोगियों के
इलाज के दौरान उनके ह्रदय की मांसपेशियों में संक्रमण पाया गया। जर्नल ऑफ
अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन – कार्डियोलॉजी में प्रकाशित एक
अध्ययन के अनुसार वुहान में हर 5 कोविड-19 ग्रस्त रोगियों में से 1 में ह्रदय क्षति के प्रमाण सामने आए हैं।
ह्रदय
और फेफड़ों की सतह पर उपस्थित ACE2 नामक प्रोटीन इस वायरस को कोशिकाओं में प्रवेश करने में मदद
करता है। इसी तरह का एंज़ाइम अन्य अंगों जैसे आहार नाल में भी होता है। यानी यह
वायरस अन्य अंगों पर भी ह्रदय और फेफड़ों के समान हमला कर सकता है। एरिक के अनुसार
जिन रोगियों में श्वसन सम्बंधी लक्षण नहीं पाए जाते उनमें इसके लक्षण आहार नाल में
मिलने की संभावना होती है।
इसके
अलावा, कुछ सामान्य मामलों
में लीवर में एंज़ाइम का उच्च स्तर भी इस वायरस की घुसपैठ का द्योतक हो सकता है। जब
लीवर की कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं तो ये एंज़ाइम रक्तप्रवाह में मिल जाते हैं।
अच्छी बात है कि लीवर खुद को पुनर्निर्मित कर सकता है इसलिए इसमें वायरस के कारण
कोई दीर्घकालिक क्षति नहीं होती है।
वैसे
वायरस द्वारा किसी अंग को प्रत्यक्ष क्षति पहुंचने के अलावा व्यक्ति का प्रतिरक्षा
तंत्र भी क्षति के लिए ज़िम्मेदार होता है। इस स्थिति में प्रतिरक्षा कोशिकाओं का
एक झुंड, जिसे सायटोकाइन
तूफान कहते हैं, रक्तप्रवाह में जारी
होता है और पूरे शरीर के स्वस्थ ऊतकों को नष्ट करने लगता है। ऐसे में फेफड़ों को
गंभीर क्षति पहुंचती है और कई अंगों के खराब होने का खतरा रहता है। कुछ कोविड-19 रोगियों के
मस्तिष्क को भी सायटोकाइन तूफान ने प्रभावित किया है। इसके अलावा कई अन्य लक्षणों
में गंध और स्वाद संवेदना का नष्ट होना भी देखा गया।
वैसे
एरिक के अनुसार सिर्फ अत्यधिक गंभीर मामलों में ही स्थायी नुकसान की संभावना होती
है। अपने काम के दौरान उनके सामने कई ऐसे मामले आए हैं जिनमें रोगी पूरी तरह से
ठीक भी हुए हैं। विशेष रूप से लीवर और गुर्दे कुछ समय के लिए अपना काम बंद करने के
बाद वापस सामान्य स्थिति में आ सकते हैं। लगभग इसी तरह का प्रभाव निमोनिया के
दौरान फेफड़ों में भी देखा गया है।
यह तो अभी तक मालूम नहीं है कि वायरस से उबरने वाले लोगों ने कितनी प्रतिरक्षा विकसित की है लेकिन वे पूर्ण प्रतिरक्षा विकसित नहीं भी करते हैं तो भी संक्रमण से बचे रहने का मतलब यह होगा कि अगली बार यदि संक्रमण होता है तो कई अंगों पर पड़ने वाला प्रभाव कम होगा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/5NqxBhCCfAhEx4t6HVHWiQ-650-80.jpg
दुनिया
भर में तेज़ी से फैलते कोविड-19 के कारण हम सब घरों में कैद होकर रह गए हैं। कोरोना वायरस
के संक्रमण के प्रारंभ में यूनाइटेड किंगडम ने लोगों के एकत्रित होने पर रोक तथा
कठोर सोशल डिस्टेंसिंग लागू नहीं किया था। यद्यपि चिकित्सा समुदाय के अनेक लोग रोक
न लगाने से आश्चर्यचकित थे, फिर भी अधिकारियों
की योजना पूरी तरह बंद की बजाय क्रमिक प्रतिबंधों के माध्यम से वायरस को दबाने की
थी। प्रयास था कि प्राकृतिक तरीके से झुंड प्रतिरक्षा विकसित की जाए। झुंड
प्रतिरक्षा को सामुदायिक प्रतिरक्षा भी कहते हैं क्योंकि इस में पूरे समुदाय में
प्रतिरक्षा क्षमता विकसित होती है।
क्या
है झुंड प्रतिरक्षा?
झुंड
प्रतिरक्षा तब होती है जब एक समुदाय के अनेक लोग एक संक्रमणकारी बीमारी के
प्रतिरोधी हो जाते हैं जिसके कारण रोग फैलने से रुक जाता है। झुंड प्रतिरक्षा दो
प्रकार से प्राप्त हो सकती है – प्रथम, जब समुदाय के अनेक
व्यक्ति बीमारी से संक्रमित हो जाते हैं और कुछ समय में प्रतिरक्षा तंत्र बगैर
किसी दवाई या वैक्सीन के बीमारी को हराकर व्यक्ति को ठीक कर देता है।
झुंड
प्रतिरक्षा प्राप्त करने का दूसरा तरीका है टीकाकरण यानी वैक्सिनेशन। इस तरीके में
रोगजनक परजीवी को प्रयोगशाला में रसायनों या अन्य तरीकों से इतना कमज़ोर कर दिया
जाता है कि वह प्रजनन और रोग उत्पन्न करने में असमर्थ हो जाता है। फिर उसे पोषक के
शरीर में डाला जाता है। परजीवी के रसायन (प्रोटीन) पोषक के शरीर में प्रतिरक्षा तंत्र को
एंटीबॉडी बनाने के लिए उत्तेजित तो करते हैं पर बीमार नहीं कर पाते। इस प्रकार
शरीर परजीवी से लड़ने के तरीके विकसित कर लेता है और बीमार भी नहीं होता है। कुछ
प्रकार के वैक्सीन में बीमारी के बेहद हल्के लक्षण (जैसे बुखार वगैरह) दिख सकते हैं। जब जनसंख्या के बड़े भाग में
वैक्सिनेशन हो जाता है तो बीमारी पूर्ण रूप से खत्म हो जाती है क्योंकि परजीवी को
कोई संवेदी पोषक नहीं मिलता और हमें झुंड प्रतिरक्षा मिल चुकी होती है।
कुछ
बीमारियों के खिलाफ झुंड प्रतिरक्षा बेहतर कार्य करती है तो कुछ के लिए यह तरीका
फेल हो जाता है। चेचक को मानव इतिहास की सबसे भयानक बीमारियों में से एक माना जाता
है। वैक्सिनेशन से चेचक के सफाए के बारे में एडवर्ड जेनर के शोध प्रकाशन के लगभग 200 वर्षों बाद 1980 में विश्व स्वास्थ
संगठन ने विश्व को चेचक मुक्त घोषित किया क्योंकि विश्व की जनसंख्या का बहुत बड़ा
भाग वैक्सिनेट हो गया था।
अनेक
प्रकार के वायरल एवं बैक्टीरियल इन्फेक्शन एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलते
हैं। यह शृंखला तब टूटती है जब अधिकांश लोग संक्रमित नहीं होते या संक्रमण नहीं फैलाते।
यह उन लोगों की रक्षा करने में मदद करता है जो वैक्सिनेशन नहीं करवाते हैं या
जिनका प्रतिरक्षा तंत्र कमज़ोर है या वे आसानी से संक्रमित हो जाते हैं। आसानी से
संक्रमित होने वाले व्यक्तियों में – बूढ़े, बच्चे,
नवजात शिशु, गर्भवती महिलाएं,
कमज़ोर प्रतिरक्षा या कुछ गंभीर स्वास्थ्य स्थितियों वाले
लोग हो सकते हैं।
झुंड
प्रतिरक्षा के आंकड़े
कुछ
बीमारियों के लिए झुंड प्रतिरक्षा तब प्रभावी हो सकती है जब किसी आबादी में 40 प्रतिशत लोग रोग के
लिए प्रतिरोधी हो जाएं। लेकिन ज़्यादातर मामलों में आबादी के 80-95 प्रतिशत लोग प्रतिरोधी होने पर ही बीमारी
को फैलने को रोका जा सकता है।
उदाहरण
के लिए खसरा (मीज़ल्स) की प्रभावी झुंड
प्रतिरक्षा विकसित करने के लिए 20 में से 19 व्यक्तियों को खसरे का टीका लगना चाहिए। इसका मतलब यह हुआ
कि अगर एक बच्चे को खसरा होता है तो उसके आसपास की आबादी में सभी को वैक्सिनेट
करना होगा ताकि बीमारी को फैलने से रोका जा सके। यदि खसरे से पीड़ित बच्चे के आसपास
अधिक लोग बगैर वैक्सिनेशन के होंगे तो बीमारी अधिक आसानी से फैल सकती है क्योंकि
कोई झुंड प्रतिरक्षा नहीं है। यानी एक निश्चित प्रतिशत ऐसे लोगों का होना चाहिए जो
बीमारी को आगे फैलने से रोकेंगे। इस प्रतिशत को झुंड प्रतिरक्षा का न्यूनतम स्तर
या थ्रेशोल्ड कहते हैं।
झुंड
प्रतिरक्षा कुछ बीमारियों के लिए काम करती है। नार्वे के लोगों ने वैक्सिनेशन एवं
प्राकृतिक प्रतिरक्षा के तरीके से स्वाइन फ्लू के लिए आंशिक झुंड प्रतिरक्षा
विकसित कर ली है। 2010 तथा
2011 में
नार्वे में यह देखा गया कि इन्फ्लूएंज़ा के कारण कम मौतें हुई थीं क्योंकि आबादी का
बड़ा हिस्सा इसके प्रति प्रतिरोधी हो गया था।
हम
कुछ बीमारियों के लिए वैक्सीन लगाकर झुंड प्रतिरक्षा विकसित करने में मदद कर सकते
हैं। झुंड प्रतिरक्षा हमेशा समुदाय के प्रत्येक व्यक्ति की रक्षा नहीं कर सकती है
लेकिन बीमारी फैलने से रोकने में मदद कर सकती है।
कोविड-19 व
झुंड प्रतिरक्षा
सोशल
डिस्टेंसिंग और बार-बार
हाथ धोना ही वर्तमान में स्वयं के परिवार और आसपास के लोगों में कोविड-19 बीमारी के वायरस के
संक्रमण को रोकने का तरीका है। ऐसे अनेक कारण हैं जिनसे कोविड-19 के विरुद्ध झुंड
प्रतिरक्षा फिलहाल तुरंत विकसित नहीं की जा सकती –
1. कोविड-19 के लिए वैक्सीन बनने
में एक साल लगने की संभावना है। तो झुंड प्रतिरक्षा के लिए वैक्सिन का उपयोग
फिलहाल संभव नहीं है।
2. कोविड-19 के उपचार के लिए
एंटीवायरल और अन्य दवाओं की खोज के लिए वैज्ञानिक प्रयासरत है।
3. वैज्ञानिकों को
पक्के तौर पर यह ज्ञात नहीं है कि कोविड-19 बीमारी से ठीक हो गए व्यक्ति को फिर से यही
बीमारी हो सकती है या नहीं।
4. गंभीर संक्रमण में
व्यक्ति मर भी सकते हैं।
5. कोरोना वायरस से कुछ
तो बीमार पड़ जाते हैं जबकि अन्य व्यक्तियों को कुछ नहीं होता इसका कारण क्या है यह
हमें पक्के तौर पर नहीं पता।
6. एक साथ अनेक लोग
संक्रमित होने से अस्पताल एवं स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा सकती हैं।
वैज्ञानिक कोरोना वायरस के विरुद्ध वैक्सीन बनाने के लिए शोध कर रहे हैं। यदि हमारे पास वैक्सीन आ जाता है तो हम भविष्य में इस वायरस के विरुद्ध झुंड प्रतिरक्षा विकसित करने में सक्षम हो सकते हैं। यह तभी संभव होगा जब विश्व की अधिकांश आबादी वैक्सिनेट हो जाए। केवल वे व्यक्ति जो चिकित्सकीय कारणों से वैक्सिनेट नहीं हो सकते उन्हें छोड़कर जवानों, बच्चों सभी को वैक्सिनेट होना होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdnuploads.aa.com.tr/uploads/Contents/2020/04/09/thumbs_b_c_9432041c6f70b29a7d33ba5e2393a9bd.jpg?v=034644
रोएंदार
पूंछ और पूंछ पर काले-भूरे
छल्लों की खासियत वाले लीमर अपने नर प्रतिद्वंदी को दूर रखने के लिए पूंछ झटकने की
अजीबो-गरीब
आदत के लिए जाने जाते हैं। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित एक ताज़ा अध्ययन
बताता है कि प्रजनन काल में नर लीमर पूंछ झटककर अपनी संभावित मादा साथी को आमंत्रण
देने के लिए गंध फैलाते हैं।
वैसे
तो अधिकांश कीट मादा को रिझाने या आकर्षित करने के लिए गंध युक्त रसायन स्रावित
करते हैं जिन्हें फेरोमोन कहते हैं। ऐसा ही व्यवहार चूहों में भी देखा गया है।
लेकिन टोक्यो युनिवर्सिटी के बायोकेमिस्ट काज़ुशिगे तोहारा जानना चाहते थे कि क्या
प्राइमेट्स (जिसमें
मनुष्य भी शामिल हैं) भी
ऐसा ही व्यवहार करते हैं?
मैडागास्कर
में पाए जाने वाले लीमर (Lemur catta) अन्य प्राइमेट्स से
थोड़े भिन्न होते हैं। नर लीमर की कलाई पर ग्रंथियां पाई जाती हैं जो फेरोमोन की
तरह गंधयुक्त रसायन स्रावित करती हैं। ये रसायन हवा के संपर्क में आने पर वाष्प बन
कर उड़ जाते हैं। गंध के वाष्प बन कर उड़ने के पहले ही लीमर अपनी पूंछ को कलाई से
रगड़ लेते हैं और फिर पूंछ झटककर अपनी गंध फैलाते हैं। साल के अधिकांश समय तो लीमर
कड़वी व चमड़े जैसी गंध वाले रसायन स्रावित करते हैं ताकि अन्य नर इनसे दूर रहें।
लेकिन प्रजनन काल में ये एक मीठी-सी महक छोड़ते हैं।
अपने
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने लीमर्स की कलाई की ग्रंथियों से स्रावित रसायन को
एकत्रित किया और उसमें मौजूद घटकों का पता लगाया। विश्लेषण में उन्होंने पाया कि स्रावित
रसायन में मादा को आकर्षित करने के लिए तीन घटक ज़िम्मेदार हैं और तीनों ही घटक
एल्डिहाइड हैं, जो कई तरह की गंध के
लिए ज़िम्मेदार होते हैं। इनमें से एक घटक कीटों द्वारा मादा को आमंत्रित करने के
लिए स्रावित किया जाने वाला फेरोमोन है और दूसरे घटक की गंध नाशपाती जैसी है।
शोधकर्ताओं
ने यह भी पाया कि मादाएं सिर्फ प्रजनन काल में और तीनों रसायन के उपस्थित होने पर
ही इन गंध के स्थान को सूंघती या चाटती हैं। जिससे लगता है कि यह गंध प्रजनन काल
में लीमर को साथी ढूंढने में मदद करती है। इसके अलावा शोधकर्ताओं ने देखा कि जिस
नर में जितना अधिक टेस्टोस्टेरोन होता है, गंध
उतनी अधिक मीठी होती है।
युनिवर्सिटी
ऑफ विस्कॉन्सिन के मनोवैज्ञानिक चार्ल्स स्नोडाउन बताते हैं कि इसमें खास बात यह
है कि अधिकतर फेरोमोन में एक ही रसायन होता है जबकि लीमर्स द्वारा उत्सर्जित
फेरोमोन में तीन तरह के रसायन मौजूद हैं और महत्व तीनों के मिश्रण का है।
हालांकि
यह अध्ययन बहुत सीमित समूह पर किया गया है और अध्ययन का अधिकांश डैटा एक ही नर
लीमर से प्राप्त हुआ है इसलिए इसका सम्बंध प्रजनन से पक्का नहीं है।
बहरहाल यह अध्ययन इस सवाल की ओर ध्यान दिलाता है कि क्या गंध प्राइमेट्स में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.immediate.co.uk/production/volatile/sites/4/2020/04/228863-crop-cff2fc6.jpg?quality=90&resize=960%2C413
हाल
ही में फ्रांस के वायरस वैज्ञानिक और एड्स-वायरस (एच.आई.वी.) की खोज के लिए 2008 में चिकित्सा के नोबेल पुरस्कार विजेता
ल्यूक मॉन्टेनियर ने दावा किया है कि सार्स-सीओवी-2 वायरस मानव निर्मित है। उनके अनुसार यह वायरस
चीन की प्रयोगशाला में एड्स वायरस के खिलाफ वैक्सीन बनाने के प्रयास के दौरान
असावधानीवश लीक हुआ है।
ल्यूक
ने यह दावा कर पूरी दुनिया के विज्ञान और राजनीतिक खेमों में हलचल मचा दी है।
ल्यूक ने एक फ्रेंच चैनल के साथ इंटरव्यू में कहा है कि “कोरोना वायरस के जीनोम में एचआईवी सहित
मलेरिया के कीटाणु के तत्व पाए गए हैं, जिससे
शक होता है कि यह वायरस प्राकृतिक रूप से पैदा नहीं हो सकता। चूंकि वुहान की
बायोसेफ्टी लैब साल 2000
के आसपास से ही कोरोना वायरसों को लेकर विशेषज्ञता के साथ
रिसर्च कर रही है इसलिए यह नया कोरोना वायरस एक तरह के औद्योगिक हादसे का नतीजा हो
सकता है।”
ल्यूक
आगे कहते हैं कि “अगर
हम इस वायरस के जीनोम (आनुवंशिक
संरचना) को
देखें तो यह आरएनए की एक लंबी शृंखला है। इस शृंखला में चीन के आणविक जीव
वैज्ञानिकों ने एचआईवी की कुछ छोटी-छोटी कड़ियां जोड़ दी हैं। और इन्हें छोटा रखने का एक
महत्वपूर्ण उद्देश्य है। इससे एंटीजेन साइट्स (वायरस की बाहरी सतह जिससे इसका मुकाबला
करने वाली हमारे शरीर की एंटीबॉडीज़ जुड़ती हैं) में बदलाव किया जा सकता है जिससे वैक्सीन
बनाने में मदद मिलती है। यह काम बहुत सटीक है। किसी घड़ीसाज़ के काम जैसा बारीक!”
गौरतलब
है कि ल्यूक जीव विज्ञानी जेम्स वाटसन की तरह एक विवादित शख्सियत रहे हैं। इससे
पहले उनके दो शोध पत्रों पर काफी विवाद हुआ था। एक में उन्होंने डीएनए से विद्युत-चुंबकीय तरंगें
निकलने और दूसरे में एड्स और पार्किंसन रोग को ठीक करने में पपीते के फायदे पर बात
की थी। उनके इन शोध पत्रों की वैज्ञानिक समुदाय में काफी आलोचना हुई थी। इसी तरह
वे होम्योपैथी के बड़े हिमायती माने जाते हैं जबकि वास्तविकता में होम्योपैथी
छद्मवैज्ञानिक चिकित्सा प्रणाली है। ल्यूक यह भी मानते हैं कि बचपन में लगाए जाने
वाले टीकों से ऑटिज़्म होता है जबकि इस धारणा के विरुद्ध काफी पुख्ता वैज्ञानिक
प्रमाण मौजूद हैं।
दुनिया
भर के कई वैज्ञानिकों ने ल्यूक के दावे का खण्डन किया है और कहा है कि ऐसे
अवैज्ञानिक दावों से उनकी वैज्ञानिक साख तेज़ी से नीचे गिर रही है। यह देखकर
आश्चर्य होता है कि आज ल्यूक जैसे वैज्ञानिक विज्ञान के मूल आधारों – तर्क,
युक्ति, विवेक,
अनुसंधान, प्रयोग और परीक्षण – को नष्ट करने का काम
कर रहे हैं। इसे विवेक पर विवेकहीनता का हमला भी कह सकते हैं।
विश्व
स्वास्थ्य संगठन कह चुका है इस बात का कोई सबूत नहीं है कि यह वायरस किसी लैब में
तैयार किया गया है। इससे पहले प्रतिष्ठित पत्रिका नेचर मेडिसिन में
प्रकाशित एक शोध पत्र से यह पता चलता है कि यह वायरस कोई जैविक हथियार न होकर
प्राकृतिक है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर यह वायरस लैब निर्मित होता तो सिर्फ-और-सिर्फ इंसानों की
जानकारी में आज तक पाए जाने वाले कोरोना वायरस की जीनोम शृंखला से ही इसका निर्माण
किया जा सकता, मगर वैज्ञानिकों
द्वारा जब कोविड-19 के
जीनोम को अब तक की ज्ञात जीनोम शृंखलाओं से मैच किया गया तब वह एक पूर्णतया
प्राकृतिक और अलग वायरस के तौर पर सामने आया है। नॉवेल कोरोना वायरस का जीनोम
चमगादड़ और पैंगोलिन में पाए जाने वाले बीटाकोरोना वायरस के समान है।
ल्यूक
की पूरी थ्योरी एक ही आधार पर टिकी है कि सार्स-सीओवी-2 नामक वायरस के पूरे जीनोम में एचआईवी-1 के कुछ
न्यूक्लिओटाइड अनुक्रम पाए गए हैं। बाकी का बयान इसी आधार पर ल्यूक की परिकल्पना
है। अब इस आधार को कैसे समझा जाए?
युरोपियन
साइंटिस्ट में प्रकाशित एक लेख में ल्यूक की इस थ्योरी का पूरा
विश्लेषण करते हुए नॉवेल कोरोना वायरस यानी सार्स-सीओवी-2 और एचआईवी-1 के जेनेटिक कोड्स बताकर समझाया गया है कि
दोनों में कोई सीधी समानता नहीं है। कहा गया है कि सार्स-सीओवी-2 में एचआईवी का कोई भी अंश नहीं मिला है। तमाम
वैज्ञानिक बारीकियों के ज़रिए समझाने के बाद इस विश्लेषण में लिखा गया है कि नॉवेल
कोरोना वायरस कहां से पैदा हुआ, इसके बारे में
संभावित और तार्किक परिकल्पनाएं पहले ही आ चुकी हैं।
लगातार
कई भ्रामक थ्योरीज़ सामने आ रही हैं लेकिन अगर आप सच्चाई जानना चाहते हैं तो नेचर
पत्रिका के उस लेख को पढ़ें जिसमें नए कोरोना वायरस के जीनोम को लेकर विस्तार से
चर्चा है और दूसरे कोरोना वायरसों के साथ इसके अंतर को स्पष्ट रूप से समझाया गया
है।
अमेरिका के सर्वोच्च चिकित्सा विशेषज्ञों में शामिल डॉ. एंथनी फॉकी कह चुके हैं कि “यह वायरस जानवरों की प्रजातियों से मनुष्यों में पहुंचा है।” दूसरी ओर, विश्व स्वास्थ्य संगठन के रीजनल इमरजेंसी डायरेक्टर रिचर्ड ब्रेनन ने कहा था कि ‘यह वायरस प्रथम दृष्ट्या ज़ुओनोटिक है यानी जंतु प्रजातियों से फैला है।” पेरिस के वायरस वैज्ञानिक इटियेन सिमोन लॉरियर ने ल्यूक के दावे को खारिज करते हुए कहा है कि “नोबेल विजेता ल्यूक का दावा तार्किक नहीं है क्योंकि अगर बहुत सूक्ष्म तत्व समान हैं भी तो ये तत्व पिछले कोरोना वायरसों में भी मिले हैं। यानी अगर किताब से हम कोई शब्द लें, जो किसी दूसरे शब्द से मिलता-जुलता हो तो क्या यह कहा जा सकता है कि किसी ने उस शब्द की नकल करके दूसरा शब्द बनाया है। यह अनर्गल प्रलाप है।” संक्षेप में ल्यूक के दावों का कोई वैज्ञानिक आधार नही है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.etimg.com/thumb/msid-74870568,width-640,resizemode-4,imgsize-950962/the-biggest-humanitarian-crisis.jpg
कोरोना
वायरस को रोकने के लिए फिलहाल उपलब्ध दवाइयां काम नहीं आ रही हैं। वैज्ञानिक इस
वायरस का इलाज निकालने तथा संक्रमण को रोकने के लिए दिन-रात शोध कार्यों में लगे हुए हैं। हाल ही
में कुछ सकारात्मक खबरें देश और दुनिया से प्राप्त हुई हैं जिसमें शोध के
सकारात्मक परिणाम प्राप्त हुए हैं।
ऑस्ट्रेलिया
के वैज्ञानिकों को एक परजीवी-रोधी दवा आइवरमेक्टिन से कोरोना वायरस को खत्म करने में
कामयाबी मिली है। ऑस्ट्रेलिया के मोनाश विश्वविद्यालय की काइली वागस्टाफ और उनके
साथियों ने रिसर्च में पाया है कि पहले से मौजूद यह दवा कोरोना वायरस को खत्म कर
सकती है। वैज्ञानिकों ने इस दवा से कोरोना से संक्रमित कोशिका से इस घातक वायरस को
48 घंटे
में खत्म किया है। इससे अब क्लीनिकल ट्रायल का रास्ता साफ हो गया है। काइली
वागस्टाफ का कहना है कि आइवरमेक्टिन का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है और यह
सुरक्षित दवा मानी जाती है। अब हमें यह देखने की ज़रूरत है कि इसका डोज़ इंसानों में
(कोरोना
वायरस के खिलाफ) कारगर
है या नहीं।
कोरोना
वायरस से स्वास्थ्य कर्मियों की सुरक्षा के लिए बॉयोसूट बनाने के बाद रक्षा
अनुसंधान एवं विकास संगठन ने पूरे शरीर को विषाणु मुक्त करने वाला पर्सनल सैनिटाइज़ेशन
एन्क्लोज़र चैम्बर बनाया है। इसे कीटाणुशोधन कह सकते हैं। अभी इसकी डिजाइन तैयार की
गई है। डीआरडीओ की अहमदनगर प्रयोगशाला वीआरडीई ने इसका डिज़ाइन तैयार किया है। यह
फैक्ट्रियों व बड़े संस्थानों के लिए उपयोगी होगा, जहां
ज़्यादा संख्या में लोग काम करते हैं। यह एक पोर्टेबल सिस्टम है। इसमें एक समय में
एक व्यक्ति प्रवेश करेगा और एक पैडल का उपयोग करके इसे चालू करेगा। बिजली से चलने
वाला सैनिटाइज़र पंप चालू हो जाएगा जो हाइपो सोडियम क्लोराइड की धुंध बनाता है। यह
स्प्रे 25 सेकंड
के लिए चालू होगा। इस अवधि में व्यक्ति के शरीर पर मौजूद विषाणु खत्म हो जाएंगे।
दुबई
में रहने वाले भारतवंशी 7वीं
कक्षा में पढ़ने वाले छात्र सिद्ध सांघवी ने रोबोट सैनेटाइज़र बनाया है जो आधा सें.मी. से भी कम दूरी पर
हाथों की पहचान कर उन्हें सैनिटाइज़ कर देता है। इस सैनिटाइज़र को बार-बार छूना नहीं
पड़ेगा।
अमेरिका
में कोरोना वायरस संक्रमण को रोकने के लिए प्लाज़्मा थैरपी का सहारा लिया जा रहा
है। वहां शोधकर्ता कोरोना वायरस से ठीक हुए लोगों से ब्लड डोनेट करवा रहे हैं। वे
उनके रक्त से उन एंटीबॉडी को ढूंढने का प्रयास कर रहे हैं जिनकी बदौलत वे कोरोना
वायरस से ठीक हुए हैं। इस अभियान को माउंट सिनाई हॉस्पिटल के प्रेसिडेंट डेविड रीच
ने शुरू किया है।
सरकारी स्तर पर कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए सभी ज़रूरी प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन दिन-ब-दिन संक्रमण के केस बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे में इन सकारात्मक खबरों के आने से भविष्य में कुछ राहत मिलने के आसार लग रहे हैं। उम्मीद है ये प्रयास जल्द ही सफलता में बदलेंगे और पूरी दुनिया को कोरोना वायरस के आतंक से मुक्ति मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thailandmedical.news/uploads/editor/files/COVID-19-Ivermectin.jpg
अल्बर्ट
आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत ने एक और परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है।
शोधकर्ता लगभग 3 दशकों
से आकाशगंगा के बीच स्थित विशालकाय ब्लैक होल (Sagittarius
A*) के
सबसे निकटतम ज्ञात तारे की कक्षा का अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने इस तारे की कक्षा
में मामूली से परिवर्तन का पता लगाया है और यह परिवर्तन पूरी तरह आइंस्टाइन के
सिद्धांत से मेल खाता है।
एस2 नाम का यह तारा 16 वर्ष में अपनी
दीर्घवृत्ताकार कक्षा का एक चक्कर पूरा करता है। यह पिछले वर्ष ब्लैक होल के सबसे
नज़दीक, 20 अरब किलोमीटर की दूरी,
से गुज़रा था। यदि ऐसे में न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत
को माना जाए तो इसे अपनी कक्षा में पहले जैसे कायम रहना था लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
बल्कि इसके पथ में मामूली सा परिवर्तन देखने को मिला। टीम ने यह अध्ययन युरोपियन
सदर्न ऑब्ज़र्वेटरी के एक विशाल टेलिस्कोप की मदद से किया है। इसकी रिपोर्ट को एस्ट्रोनॉमी
एंड एस्ट्रोफिज़िक्स में प्रकाशित किया है। इस घटना को श्वार्ज़स्चाइल्ड
पुरस्सरण का नाम दिया है। सामान्य सापेक्षता की भविष्यवाणी के अनुसार आने वाले समय
में यह अंतरिक्ष में स्पाइरोग्राफ नुमा फूल का पैटर्न अपनाएगा।
शोधकर्ताओं का मानना है कि एस2 की विस्तृत ट्रैकिंग की मदद से सापेक्षता के कई अन्य परीक्षण करने में मदद मिलेगी। इसकी सहायता से ब्लैक होल के आसपास उपस्थित डार्क मैटर और छोटे ब्लैक होल सहित अन्य अध्ययन किए जा सकेंगे। इससे यह समझा जा सकेगा कि इस तरह के विशालकाय पिंड कैसे बनते और विकसित होते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://hips.hearstapps.com/hmg-prod.s3.amazonaws.com/images/041520-ec-einstein-feat-1028×579-1587052498.jpg?crop=0.5632295719844358xw:1xh;center,top&resize=768:*