कोविड-19: कंटेनमेंट बनाम मेनेजमेंट – मिलिंद सोहोनी

कोविड-19 संकट से निपटने के लिए विभिन्न राष्ट्र अलग-अलग रणनीतियां बना रहे हैं। ये सभी रणनीतियां सम्बंधित राष्ट्र की क्षमता के अनुरूप तो हैं ही, साथ ही ये उनके समाज के विभिन्न तबकों के लिए लागत और अपेक्षित लाभ के प्रति चिंताओं को भी दर्शाती हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रचलित तरीका कंटेनमेंट और उन्मूलन का है।  

हमारे माननीय प्रधानमंत्री ने भी कोविड-19 उन्मूलन की वकालत की है और इसके लिए व्यवहार परिवर्तन और कंटेनमेंट का मार्ग बताया है। हम भी लॉकडाउन और ‘हॉट-स्पॉट्स’ में आक्रामक पद्धति को जारी रखेंगे। ‘हॉट-स्पॉट्स’ यानी सघन संक्रमण के इलाके। हॉट-स्पॉट्स में संक्रमित लोगों के मिलने-जुलने के इतिहास पर नज़र रखना और पूरे इलाके पर नियंत्रण शामिल है। उद्देश्य सभी स्थानों से बीमारी को खत्म करना है। अभी रोगग्रस्त लोगों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। हम प्रार्थना करते हैं कि यह प्लान ‘ए’ काम कर जाए।   

उन्मूलन, कंटेनमेंट और प्लान बी

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कंटेनमेंट के लिए दिया जाने वाला तर्क दो तथ्यों पर निर्भर है, जो कई देशों के लिए सही है। पहला तथ्य यह है कि ये देश बेहतर प्रशासित हैं और इसलिए यहां बीमारी को खत्म करना एक विकल्प है। इन देशों के पास तकनीकी क्षमता और संस्थागत अनुभव है। दूसरा, रोगियों की संभावित संख्या और अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या लगभग बराबर है। लॉकडाउन संक्रमण को एक लंबी अवधि में बिखरा देता है और सभी रोगियों के लिए अस्पताल में देखभाल सुनिश्चित की जा सकती है। इस तरह से जोखिम का समाजीकरण हो जाएगा। इसके चलते कंटेनमेंट और उन्मूलन का मार्ग खुल जाता है। लेकिन इस बात के प्रमाण बढ़ते जा रहे हैं कि लक्षण-रहित रोगियों की संख्या लाक्षणिक रोगियों से काफी अधिक है। इस तथ्य ने कंटेनमेंट के आधार को ही कमज़ोर कर दिया है और कई देश अब सर्वथा अपारंपरिक कंटेनमेंट-उपरांत रणनीतियां बना रहे हैं।       

हमारे लिए, कंटेनमेंट, जिसके साथ लॉकडाउन अपरिहार्य है, की वजह से काफी आर्थिक और कल्याण सम्बंधी नुकसान हो रहा है, और साथ में उपरोक्त लाभ मिल नहीं रहे हैं। गरिमा, और रोज़गार की हानि, आर्थिक झटका और प्रवासियों पर मानसिक आघात जैसे नुकसान के रिपोर्टें बखूबी दर्ज हुई हैं।

यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि हमारी आक्रामक कंटेनमेंट रणनीति लागत-लाभ विश्लेषण पर आधारित है भी या नहीं। यदि कंटेनमेंट विफल हो गया है तो इन तरीकों को जारी रखने का कारण मुख्य रूप से प्रशासनिक है न कि चिकित्सकीय। फिर भी आज तक हमारे पास संक्रमण, इसके भूगोल और इसकी गतिशीलता से सम्बंधित अन्य बुनियादी सवालों के जवाब देने के लिए कोई अनुभवजन्य प्रणाली नहीं है। या तो हमारे वैज्ञानिक संस्थानों ने इस तरह का डैटा मांगा नहीं या फिर हमारे नौकरशाहों ने प्रदान नहीं किया। इस तरह के विश्लेषण और मार्गदर्शन के अभाव में राज्य अपनी-अपनी कंटेनमेंट और उन्मूलन की योजनाएं बना रहे हैं। राज्यों द्वारा अलग-अलग दिशाओं में कार्य करने से काफी लंबे समय तक राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के सभी स्तरों के वियोजित और अव्यवस्थित होने की संभावना है।

हमें स्थिति ‘बी’ पर विचार करना चाहिए कि कंटेनमेंट विफल हो गया है। इसका एक संकेत है कि नए-नए संक्रमित समूह उभरते जा रहे हैं। या शायद यह बीमारी पहले से ही लक्षण-रहित संक्रमित व्यक्तियों (वाहकों) के माध्यम से फैल चुकी है। दोनों ही स्थितियों में गांवों, कस्बों और शहरों की एक बड़ी आबादी के देर-सबेर संक्रमित होने की आशंका है। इस नए तथ्य और भविष्य में लंबी लड़ाई के प्रबंधन के लिए एक योजना की आवश्यकता है। दुर्भाग्य से, इस संभावित परिणाम की तैयारी के लिए हमारे पास ठोस जानकारी की काफी कमी है।

तो चलिए, एक ख्याली प्रयोग की मदद से हम एक संभावित प्लान ‘बी’ की तैयारी करते हैं। इसके लिए सबसे पहला काम तो भोजन और आवश्यक सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना होगा जो प्लान ‘ए’ में भी है। अगला काम प्रतिबंधों की एक समयबद्ध योजना और भूगोल निर्धारित करना है ताकि स्वास्थ्य के जोखिमों को न्यूनतम किया जा सके। और अंतिम कार्य यह होगा कि पूरी उथल-पुथल का अर्थव्यवस्था पर और लोगों के कल्याण, खास कर कमज़ोर वर्ग के लोगों पर हानिकारक प्रभाव कम से कम रहे। इसके लिए यह सुनिश्चित करना होगा कि अर्थव्यवस्था के कुछ हिस्से कार्यशील रहें और वेतन अर्जित होता रहे। शुक्र है कि कम से कम ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए तो इसके बारे में सोचा गया है।              

स्वास्थ्य और कल्याण

यहां सिर्फ स्वास्थ्य और कल्याण पर ध्यान देते हैं। संक्रमण के प्रमुख संकेतक बहुत बुरे नहीं हैं। विभिन्न रिपोर्ट्स के अनुसार भारत की कुल आबादी के 8 से 30 प्रतिशत के बीच संक्रमित होने की संभावना है जो कई महीनों में फैले चक्रों में हो सकता है। यह प्रतिशत किसी समाज में व्यक्ति-से-व्यक्ति संपर्क की दर पर निर्भर करता है। ऐसे में घनी शहरी आबादियों की अपेक्षा ग्रामीण समुदाय फायदे में है। लॉकडाउन यानी संपर्क दरों में अस्थायी कटौती की मदद से, संक्रमण को स्थगित किया जा सकता है, कुल संक्रमणों की संख्या को कम नहीं किया जा सकता। किसी-किसी मामले में अधिकतम संक्रमण वाला हिस्सा (शिखर) अधिक फैला हुआ नज़र आता है। अर्थात अधिकतम संक्रमण वाली स्थिति एक लंबी अवधि में फैली होती है। अधिकांश संक्रमण हल्के-फुल्के होते हैं, और एक अनुमान के मुताबिक मात्र लगभग 10-15 प्रतिशत संक्रमित लोगों को ही अस्पताल में भर्ती करने की आवश्यकता होती है। यानी हमारी आबादी के लगभग 2 प्रतिशत लोगों को अस्पताल जाने की आवश्यकता हो सकती है। मृत्यु दर काफी कम रहने का अनुमान है – लगभग 5 प्रति 1000 जनसंख्या। तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो डब्ल्यूएचओ के अनुसार वर्ष 2018 में टी.बी. के 20 लाख नए मामले सामने आए थे (1.3 प्रति 1000 जनसंख्या) और 4 लाख लोगों की मृत्यु हुई थी।        

ऐसा पहली बार हुआ है जब कोविड-19 के कारण भारत के शीर्ष 20 प्रतिशत को रुग्णता का सामना करना पड़ा जो निचले 80 प्रतिशत के लिए एक सामान्य बात है। इसके अलावा, इन दो वर्गों के जीवन के परस्पर सम्बंध और परस्पर विरोधी हितों को अभी भी पूरी तरह से समझा नहीं गया है। सबसे पहले तो इसके परिणामस्वरुप मलिन बस्तियों में लोगों की स्थिति तथा उनके कल्याण में यकायक रुचि पैदा हुई है और सामूहिक कार्यवाही के उपदेश दिए जा रहे हैं। अगली बात कि शीर्ष 20 प्रतिशत के लिए कंटेनमेंट और उन्मूलन सबसे पसंदीदा रणनीति है। यह रणनीति वैश्विक विचारों के अनुरूप है, यह टेक्नॉलॉजी-आधारित है और यह उन चिकित्सीय संसाधनों से मेल खाती है जो उस वर्ग की पहुंच में हैं। दूसरी ओर, निचले 80 प्रतिशत की प्राथमिक चिंता सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली और बुनियादी कल्याणकारी कार्यक्रमों के माध्यम से रोग का प्रबंधन करना है। दुर्भाग्य से, रोग प्रबंधन और उसकी तैयारी पर उतना ध्यान नहीं दिया गया है जितना रोग के विज्ञान, प्रसार के अनुमान और परीक्षण के तामझाम पर दिया गया।         

मान लेते हैं कि हम संक्रमण के शिखर को लंबी अवधि में फैलाने में सफल हो जाते हैं, लेकिन फिर भी कोविड-19 मरीज़ों के लिए प्रति 1000 जनसंख्या पर 1 या 2 बिस्तरों की ज़रूरत होगी। यदि हम यह मानें कि अन्य मौजूदा बीमारियों के मरीज़ों के लिए प्रति 1000 जनसंख्या 1 बिस्तर की ज़रूरत होगी तो हमें कुल 2 से 3 बिस्तर प्रति 1000 जनसंख्या की ज़रूरत होगी। यानी पूरे भारत के लिए लगभग 30 लाख अस्पताली बिस्तरों की ज़रूरत होगी। विश्व बैंक का अनुमान है कि हमारे पास 0.7 से 1.0 के बीच बिस्तर उपलब्ध हैं, यानी पूरे देश में केवल 9-13 लाख बिस्तर हैं जो देखभाल के अलग-अलग स्तर के हैं। कागज़ों पर हमारे पास लगभग 10 लाख डॉक्टर और 17 लाख नर्सें हैं। लेकिन विभिन्न राज्यों में इनका वितरण असमान है और ये प्राय: शहरों में केंद्रित है। ऐसे में इन सुविधाओं तक पहुंच एवं परिवहन काफी महत्वपूर्ण होगा। वेंटीलेटर के अलावा शेष उपचार काफी सरल है। वेंटीलेटर का निर्माण अब नवाचार का विषय बन गया है जबकि भारत में कई दशकों से गरीब लोग निमोनिया से मरते रहे हैं।            

स्थानीयता

संक्षेप में, संभावना यह है कि 80 प्रतिशत मामलों में इलाज घर या गांव या मोहल्ले के भीतर ही किया जाएगा, जब तक कि बाहरी मदद की ज़रूरत न पड़ें। उम्मीद की जानी चाहिए कि वे बहुत अधिक बीमार न हो जाएं। इसलिए परिवारों को सूचना, मार्गदर्शन और सहायता देने का काम बहुत महत्वपूर्ण है और इसके कई चरण हैं।

सबसे पहले क्षेत्र-अनुसार कोविड-19 दवाइयों और अन्य सामग्री (जैसे थर्मामीटर और मास्क) के पैकेट तथा देखभाल करने के निर्देश तैयार करना होगा। इसमें महत्वपूर्ण बिंदुओं और कार्यों को शामिल किया जाना चाहिए, जैसे रोगी को निकटतम अस्पताल तक ले जाना। इनमें से कुछ परिवार वैज्ञानिक शोघ हेतु डैटा भी दे सकते हैं।

इसके बाद हमें यह निर्णय लेना चाहिए गांव और वार्ड स्तर के स्वास्थ्य कार्यकर्ता किस तरह की मदद प्रदान कर सकते हैं। इसके आधार पर ऑक्सीजन मापन उपकरण और अन्य सहायक उपकरणों के लिए उपयुक्त किट और प्रशिक्षण की व्यवस्था की जा सकती है। इसमें संक्रमण के समय क्वारेंटाइन और सामुदायिक संसाधनों को साझा करने सम्बंधी दिशा-निर्देश भी शामिल होना चाहिए। उपकरणों, सुविधाओं और सामग्री के मामलों में ज़िला और उप-ज़िला अस्पतालों की तैयारियों का एक स्वतंत्र मूल्यांकन किया जाना चाहिए।

अंत में, बिस्तरों और सुविधाओं की उपलब्धता पर लाइव अपडेट प्रदान किए जाने चाहिए। कई गंभीर रोगियों की मौत समय पर उपयुक्त अस्पताल न मिलने के कारण हुई है। स्थानीय स्तर पर इन जानकारियों या तैयारियों का एक सामान्य विश्लेषण अभी भी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है। जैसे, महाराष्ट्र में उच्च मृत्यु दर और केरल या पंजाब में कम मृत्यु दर, और स्वास्थ्य प्रबंधन के तौर-तरीकों का कोई विश्लेषण उपलब्ध नहीं है।   

इस सब में निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा निरीक्षण काफी महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही स्थानीय वैज्ञानिक और सामाजिक एजेंसियों और संस्थानों की सहायता और जुड़ाव काफी मददगार होगा। संकट की इस घड़ी में लंबे समय तक समन्वय, पेशेवर कौशल और संवेदना की आवश्यकता होगी। यह केवल इन्हीं वैज्ञानिक और सामाजिक एजेंसियों और संस्थाओं के पास उपलब्ध है। इस तरह की लामबंदी कई देशों में उपयोगी साबित हुई है। दुर्भाग्यवश, भारत में स्थानीय एजेंसियों की भूमिका को दोषपूर्ण विशेषज्ञ-शाही और उसके समर्थक राजनीतिक सिद्धांतों द्वारा बाधित कर दिया गया है।     

शहरी क्षेत्रों का प्रबंधन प्रशासनिक दुस्वप्न से कम नहीं है। अंधाधुंध लॉकडाउन से शायद अपेक्षित स्वास्थ्य सम्बंधी परिणाम न मिलें। कुछ लोगों के लिए तो शहरी चाल में रहने से बेहतर तो अपने ग्रामीण इलाकों में रहना होगा बशर्ते कि वे संक्रमण अपने साथ न ले जाएं। इसलिए नियंत्रित प्रवास की अनुमति देते हुए यातायात प्रतिबंधों में ढील देने पर विचार किया जाना चाहिए। सार्वजनिक परिवहन को नियंत्रित तरीके और नई सारणी के साथ शुरू किया जाना चाहिए। शहर, तालुका और गांवों को प्रवासियों के परीक्षण और क्वारेंटाइन सम्बंधी निर्देश दिए जाने चाहिए।      

ऐसे कई लोग होंगे जिनके पास भोजन, काम, पैसा या उचित कागज़ात तक नहीं हैं। पीडीएस और अन्य कल्याणकारी योजनाओं को संशोधित प्रक्रियाओं के तहत आवश्यक सामग्री वितरित करना चाहिए। गर्मी का मौसम नज़दीक है और ऐसे में पेयजल की समस्या शुरू हो जाएगी। संक्रमण को नियंत्रण में रखने के लिए इन मूलभूत सुविधाओं का सुचारु संचालन आवश्यक है। इसके लिए, सभी स्तरों पर आवश्यकतानुसार राज्य सरकार के कर्मचारियों को विभिन्न विभागों में तैनात किया जाना चाहिए और साथ ही इसमें ज़िम्मेदारी सौंपने सम्बंधी प्रोटोकॉल का पालन किया जाना चाहिए। हाल ही के वर्षों में सरकारी कर्मचारियों ने एक सुरक्षित जीवन व्यतीत किया है और अब उनके लिए एक आदर्श कार्य करके दिखाने का अवसर है।

प्लान बी की स्थिति

इस प्रकार, निचले 80 प्रतिशत लोगों के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए सुशासन, अनुमेयता और तैयारी काफी महत्वपूर्ण हैं। ये उतने ही मापन और विश्लेषण-योग्य हैं जितने रोग के मापदंड। लॉकडाउन सीमित उद्देश्य पूरे करते हैं, और वह भी केवल तब जब वे तैयारियों में सुधार की अवधि बनें। अन्यथा, इससे केवल वेतन तथा आजीविका में बाधा आएगी और अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी। ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि सभी सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों (कारखानों, दफ्तरों, संस्थानों, बस डिपो, बाज़ारों, रेस्तरां तथा होटल और सम्मेलनों में) में दीर्घकालिक रूप से संपर्क दर में कमी हो। शुक्र है कि इस तरह के दिशानिर्देश अब सामने आ रहे हैं। ये सभी दिशानिर्देश प्लान बी का निर्माण करते हैं। इसके बिना कई लोगों के अनिश्चित जीवन पर भयानक प्रभाव होंगे।       

लोगों को सामाजिक दूरी सीखना चाहिए, व्यवहार परिवर्तन को अपनाना चाहिए और समुदायों को बातचीत में एक नई शब्दावली अपनाना चाहिए। यह रोग इसी की मांग करता है। इसके साथ ही यह मांग करता है कि शासन उच्चतर स्तर का हो। इस नई सामान्य स्थिति को बनाने और बनाए रखने में हमारे वरिष्ठ नौकरशाह और वैज्ञानिक और उनका टीमवर्क निर्णायक कारक होगा। प्लान बी की सफलता इस सामाजिक समझ और हमारे नेताओं द्वारा प्रमुख विचारों को संप्रेषित करने की क्षमता तथा इस प्रणाली में विश्वास बनाए रखने पर निर्भर करती है।      

संक्षेप में प्लान बी, राज्य की तैयारियों के रूबरू व्यक्तिगत और सामुदायिक स्तर पर व्यवहार परिवर्तन का एक नपा-तुला प्रयोग है। यह स्वीकार करना होगा कि विभिन्न रणनीतियों के लिए लागत, लाभ और जोखिम अलग-अलग होते हैं और रोग की जनांकिकी और सुशासन को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। इसके अलावा, रोग की गतिशीलता स्वास्थ्य सम्बंधी उद्देश्यों, आर्थिक और सामाजिक व्यवधानों और समग्र कल्याण के बीच संतुलन की कई दिशाओं या कार्यक्रमों की अनुमति देती है। प्रत्येक देश को अपनी क्षमताओं और प्राथमिकताओं के आधार पर अपनी रणनीति तैयार करना चाहिए और हमें भी ऐसा ही करना चाहिए। ये सभी रणनीतियां ज़मीनी यथार्थ के अनुकूल होनी चाहिए अन्यथा अधिकांश कष्ट बेकार जाएंगे। अक्सर दक्षिण कोरिया या सिंगापुर की मिसाल दी जाती है, लेकिन हमारी स्थिति इंडोनेशिया या थाईलैंड या जर्मनी के संतुलित दृष्टिकोण के अधिक करीब है।      

नए युग के लिए सबक

अलबत्ता यहां सीखने के लिए और भी बहुत कुछ है। अब यहां एथ्रोपोसीन युग की दुर्बलता बिलकुल स्पष्ट है: हमारा वैश्विक समाज, विशाल विज्ञान पर उसकी निर्भरता और उस तक पहुंच में भारी असमानता। और भविष्य में हालात और बदतर हो सकते हैं। वैश्विक आर्थिक नेतृत्व तो अब वायरस द्वारा निर्मित जोखिम का प्रबंधन करने के लिए एक ‘पासपोर्ट’ प्रणाली का प्रस्ताव दे रहा है। इसमें राष्ट्रों के लिए पहला कदम होगा अपनी अर्थव्यवस्था के भीतर ‘सुरक्षित’ और ‘असुरक्षित’ क्षेत्रों का एक वर्गीकरण तैयार करना, जिससे ‘लौटने के लिए सुरक्षित’ श्रमिक एक सुरक्षित वातावरण में काम कर सकेंगे। कहा जा रहा है कि यह एक नई और सुरक्षित वैश्विक अर्थव्यवस्था के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करेगा। ‘सुरक्षित’ अर्थव्यवस्था में पदार्पण इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से व्यक्ति के संपर्कों का इतिहास खोजने, उन्नत परीक्षण तकनीकों और उच्च तकनीक वाले गैजेट्स पर आधारित हो सकता है। इनमें कई खामियां हैं और यह स्पष्ट नहीं है कि नई वैश्विक अर्थव्यवस्थाएं इन लागतों को वहन कर पाएंगी या नहीं। लेकिन यह निश्चित रूप से श्रमिक वर्ग के लिए आर्थिक विकल्पों को सीमित कर देगा। राजनीतिक रूप से भी यह भारत सहित कई देशों को एक निगरानी-अधीन राज्य के करीब ले जाएगा।           

इस बात की पूरी संभावना है कि भारतीय अभिजात्य वर्ग इस प्रणाली में स्वयं तो शामिल होगा ही और हमें भी घसीट लेगा। इसके लिए भारत को अपनी मौजूदा प्रणाली को इसके अनुकूल ढालना होगा और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के भीतर इस वर्गीकरण को विकसित करना होगा। हमारे, औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों को अपने खर्चे से शायद यह साबित करना पड़े कि वे नौकरी पाने के लिए ‘सुरक्षित’ हैं। यह तो जोखिमों के समाजीकरण के सर्वथा विपरीत है। निश्चित रूप से भारतीय अनौपचारिक अर्थव्यवस्था हमारी उच्च शिक्षा प्रणाली का प्रतिरूप है जिसमें हम यह चुनते हैं कि किस चीज़ का औपचारिक रूप से अध्ययन करेंगे और किसको अनदेखा कर देंगे। हमारी सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियां शायद अर्थव्यवस्था के निचले छोर पर और अधिक अनौपचारिकरण और विखंडन पैदा करेंगी।  

कोविड-19 संकट भारतीय वैज्ञानिक प्रतिष्ठान के लिए एक और चेतावनी है     

यह संकट याद दिलाता है कि आसपास के क्षेत्र की समस्याओं पर ध्यान देने और बुनियादी सेवाओं की वितरण प्रणालियों का निरीक्षण करने से भी विज्ञान के उद्देश्य की पूर्ति होती है। ये वास्तव में नई तकनीकों के, नवाचार के, अपने समाज को नए ढंग से संगठित करने और अपने हितों को पूरा करने के स्थल हैं। लेकिन इसके लिए विज्ञान करने के हमारे तरीकों में व्यापक परिवर्तन की ज़रूरत है। कई दशकों से हम नए टीकों और नई गाड़ियों का मुफ्त में लुत्फ उठा रहे हैं, यह जाने बिना कि इनके उत्पादन में किस तरह के अनुशासन, रचनात्मकता और सामाजिक समझ बूझ की आवश्यकता होती है। हम काफी लंबे समय से उधार के विज्ञान पर गुज़ारा कर रहे हैं, अब उधार की बीमारी का सामना करने की भी तैयारी कर लेनी चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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