स्थानीय
स्तर पर समुद्री अखरोट के नाम से विख्यात कंघे जैसे आकार वाली गिजगिजिया या कॉम्ब
जेली (Mnemiopsisleidyi) जीव मूलत: उत्तर-पश्चिमी अटलांटिक महासागर की वासी है। लेकिन हाल के दशकों
में मालवाहक जहाज़ों के बेलास्ट पानी (जहाजों को स्थिर
रखने के लिए भरे गए पानी) में सवार होकर ये
युरोपीय सागरों में फैल गई हैं। बाल्टिक सागर के पश्चिमी हिस्से में गर्मियों के
आखिर में इनकी आबादी में उछाल आता है और ये मछलियों के अंडे और लार्वा और छोटे
क्रस्टेशियन जीवों सहित समुद्री खाद्य शृंखला के आधार जीवों का खाकर सफाया कर
डालती है। लेकिन सर्दियों के लिए जमा करके रखने हेतु भी इन्हें ढेर सारा भोजन
चाहिए। कम्युनिकेशन बॉयोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार उस समय इनके
भोजन का सबसे बड़ा स्रोत उनकी अपनी संतानें होती हैं।
डेनमार्क
के नज़दीक फ्योर्ड क्षेत्र में इनके अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया था कि ज़रूरत
पड़ने पर वयस्क कॉम्ब जेली अपनी ही प्रजाति के लार्वा को खा लेते हैं। इन अवलोकनों
के बाद शोधकर्ताओं ने कॉम्ब जेली पर प्रयोगशाला में अध्ययन किया और वहां भी उन्हें
यही परिणाम मिले।
गर्मियों
में अपनी ही संतानों को खाने की उनकी यह प्रवृत्ति इस रहस्य को सुलझाने में मदद कर
सकती है कि क्यों गर्मियों के अंत में कॉम्ब जेली इतने अधिक लार्वा पैदा करती है, जबकि आने वाले जाड़े
में इन लार्वा के जीवित बचने की संभावना भी नहीं होती। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि
गर्मियों के अंत में बड़ी संख्या में लार्वा का भक्षण वयस्क कॉम्ब जेली को 2-3 हफ्ते का पोषण उपलब्ध कराता है। इस तरह उन्हें सर्दियों में
80 दिनों तक जीवित रहने के लिए पर्याप्त भोजन
का भंडार मिल जाता है।
हालांकि शोधकर्ताओं का कहना है कि वे पूरी तरह से इस ऊर्जा संतुलन को समझ नहीं पाए हैं। क्योंकि एक ओर तो वयस्क कॉम्ब जेली को लार्वा पैदा करने में बहुत ऊर्जा लगती है, और ये लार्वा सर्दियों में जीवित भी नहीं रह पाते। दूसरी ओर, ये लार्वा खाद्य शृंखला के निचले स्तर से काफी सारा भक्षण करके इन वयस्कों के लिए भोजन का स्रोत बन जाते हैं, जो वयस्कों को जाड़ों में काम आता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.particlenews.com/image.php?type=webp_1024x576&url=09UXls_0OzU6eLp00
कुछ
दिनों पहले राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा अभियान के केंद्रीय प्रभारी मंत्री ने भारतीय
चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) से
संपर्क करके यह सुझाव दिया था कि परिषद कोरोनावायरस के संक्रमण (कोविड-19) के इलाज में गंगाजल
के उपयोग पर शोध करे। इस पर भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने स्पष्ट किया कि इस
सम्बंध में उपलब्ध डैटा इतना पुख्ता नहीं है कि इसके नैदानिक परीक्षण शुरू किए जा
सकें और इस प्रस्ताव को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया – क्या
बात है!
लाखों
लोग गंगा नदी को दुनिया की सबसे पवित्र और पूजनीय नदी मानते हैं। समुद्र तल से 3.9 कि.मी. या 13,000 फीट की ऊंचाई पर
स्थित, हिमालय
के गंगोत्री ग्लेशियर के गौमुख से निकलने के बाद, रास्ते में कई
धाराओं का जल अपने में समाहित करते हुए, हरिद्वार के पास देवप्रयाग में आकर यह गंगा
नदी कहलाती है। गंगा उत्तर भारत के मैदानी इलाकों – उत्तर
प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम
बंगाल से होते हुए 2525 किलोमीटर की दूरी तय कर बंगाल की खाड़ी में
मिल जाती हैं। गंगा के किनारे बसे लोग (ज़्यादातर हिंदू, लेकिन कुछ अन्य भी) इसे पूजते हैं, इसमें स्नान करते हैं, और पूजा और अन्य
धार्मिक कार्यों के लिए इसका जल अपने घरों में रखते हैं (गंगाजल
विदेशों में बेचा भी जाता है जैसे कैलिफोर्निया की भारतीय दुकानों में मैंने खुद
देखा है)। गंगा मैया के प्रति लोगों की श्रद्धा और
भक्ति ऐसी ही है।
पवित्र
और अपवित्र
यह
दुर्भाग्य है कि सदियों से हरिद्वार क्षेत्र में ही मानव अवशिष्ट निपटान और
व्यवसायिक कारणों से गंगा का जल प्रदूषित होता जा रहा है। एप्लाइड वॉटर साइंस
पत्रिका में आर. भूटानिया और उनके साथियों ने 2016 में जल गुणवत्ता सूचकांक के संदर्भ में हरिद्वार में गंगा नदी
के पारिस्थितिकी तंत्र का आकलन शीर्षक से एक शोध पत्र प्रकाशित किया था, जिसे पढ़कर निराशा ही
होती है। गंगा के प्रदूषण पर सबसे ताज़ा अध्ययन न्यूयॉर्क टाइम्स के 23 दिसंबर 2019 के अंक में प्रकाशित
हुआ था। इस आलेख में आईआईटी दिल्ली के शोधकर्ताओं द्वारा गंगा के संदूषण और इसमें
हानिकारक बैक्टीरिया,
जो वर्तमान में उपयोग की जाने वाली एंटीबयोटिक दवाइयों के
प्रतिरोधी भी हैं,
की उपस्थिति के बारे में प्रस्तुत रिपोर्ट का सार प्रस्तुत
किया गया है। दूसरे शब्दों में, जहां से गंगा बहना शुरू होती है ठेठ वहीं
से इसका जल (गंगाजल) मानव और पशु स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। जैसे-जैसे यह आगे बहती है कारखानों से निकलने वाला औद्योगिक कचरा
इसमें डाल दिया जाता है,
जिससे इसके पानी की गुणवत्ता और सुरक्षा और भी कम हो जाती
है। और, हाल
ही में पुण्य नगरी वाराणसी की एक रिपोर्ट कहती है कि वर्तमान लॉकडाउन के दौरान
गंगा नदी के जल की गुणवत्ता में 40-50 प्रतिशत सुधार हुआ
है (इंडिया टुडे, 6 अप्रैल
2020)।
हमने
यह लौकिक अनाचार होने कैसे दिया? निश्चित रूप से, गंगा जल का उपयोग
करने वाले अधिकतर लोग श्रद्धालु हैं; यहां तक कि कई उद्योगों के प्रमुख या मालिक
भी गंगा को पवित्र मानते होंगे। और तो और, समय-समय पर इसके जल का
पूजा में उपयोग करते होंगे। लेकिन फिर भी वे इसे प्रदूषित करते हैं। (यहां यह ज़रूरी नहीं कि ‘लौकिक’ शब्द इन लोगों के विश्वास को नकारता है बल्कि यह लोगों के
सांसारिक सरोकार दर्शाता है,
और यह ‘अच्छाई बनाम बुराई’ या ‘देवता बनाम शैतान’ का मामला नहीं है)। दरअसल, ‘इससे मुझे क्या फायदा होगा’ वाला रवैया लोकाचार की दृष्टि से (और
शायद नैतिक रूप से भी) गलत है। इस दोहरेपन
के चलते लगता नहीं कि गंगा मैया का भविष्य स्वच्छ और सुरक्षित है।
डॉल्फिन–घड़ियाल से सीख
वापस
विज्ञान पर आते हैं। जैसा कि उल्लेख है गंगा में अत्यधिक ज़हरीले रोगाणु (और हानिकारक रासायनिक अपशिष्ट) मौजूद
हैं, लेकिन
आश्चर्य की बात है कि इसमें रहने वाली मछलियों की 140 प्रजातियां, उभयचरों की 90 प्रजातियां, सरीसृप, पक्षी, और गंगा नदी की प्रसिद्ध डॉल्फिन और घड़ियाल
(मछली खाने वाले मगरमच्छ) इस प्रदूषित पानी का सामना कर पाते हैं, खासकर अब, जब यह कोविड-19 वायरस से भी संदूषित है। क्या उनके पास विशेष प्रतिरक्षा है, और क्या वे ऐसे
रोगजनकों से लड़ने के लिए इनके खिलाफ एंटीबॉडी बनाते हैं? यह एक ऐसा मुद्दा है
जिसका ध्यानपूर्वक अध्ययन किया जाना चाहिए और इसे मानव की रक्षा के लिए अपनाया
जाना चाहिए।
ऐसे
ही कुछ दिलचस्प अवलोकन लामा,
ऊंट और शार्क जैसे जानवरों की प्रतिरक्षा के अध्ययनों में
सामने आए हैं। साइंस पत्रिका के 1 मई 2020 के अंक में मिच लेसली बताते हैं कि जीव विज्ञानियों ने लामा
के रक्त और आणविक सुपरग्लू की मदद से वायरस से लड़ने का एक नया तरीका खोजा है। यह
देखा गया है कि लामा,
ऊंट और शार्क की प्रतिरक्षा कोशिकाएं लघु एंटीबॉडी छोड़ती
हैं जो सामान्य एंटीबॉडी से लगभग आधी साइज़ की होती हैं। मुख्य बात यह है कि ये
जानवर लघु एंटीबॉडी बनाते हैं जिन्हें प्रयोगशाला में आसानी से संश्लेषित किया जा
सकता है और वायरस के खिलाफ हथियार के रूप में उपयोग किया जा सकता है। इस बारे में
विस्तार से बताता एक शोध पत्र हाल ही में सेल पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
डॉल्फिन के संदर्भ में सी. सेंटलेग और उनके
साथियों का पेपर अधिक प्रासंगिक है। यह अध्ययन भूमध्यसागर और अटलांटिक सागर के
केनेरी द्वीप के डॉल्फिन्स पर किया गया है। भूमध्य सागर अत्यधिक प्रदूषित है जबकि
केनरी द्वीप का पानी शुद्ध है।
मुझे
लगता है कि हम इन अध्ययनों से सीख सकते हैं। गंगा नदी की डॉल्फिन और घड़ियालों पर
शोध करके उनकी लघु-एंटीबॉडी की पहचान कर सकते हैं, उन्हें लैब में
संश्लेषित कर सकते हैं,
और इन्हें कोविड-19 और
ऐसे अन्य वायरसों से मनुष्य की सुरक्षा के लिए अपना सकते हैं। हैदराबाद स्थित
डिपार्टमेंट ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी प्रयोगशाला, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बायोटेक्नोलॉजी
में यह शोध किया सकता है।
संगम
कैसे हो
उपरोक्त
मंत्री के विपरीत आयुष मंत्रालय के प्रभारी मंत्री का अनुरोध है कि अश्वगंधा, मुलेठी, गिलोय और पॉलीहर्बल
औषधि (जिसे आयुष 64 कहते
हैं) की कोविड-19 के
खिलाफ रोग-निरोधन की प्रभाविता जांचने के लिए एक
नियंत्रित रैंडम अध्ययन करवाया जाए। यह अध्ययन किया जाना चाहिए क्योंकि पर्याप्त
प्रमाण हैं कि पारंपरिक जड़ी-बूटियों और पादप
रसायनों में चिकित्सकीय गुण होते हैं, और दवा कंपनियां उनके सक्रिय रसायनों को
खोजकर, संश्लेषित
करके उपयोग करती हैं। बहुविद एम. एस. वलियाथन पिछले दो दशकों से आयुर्वेद चिकित्सकों, जैव रसायनविदों,कोशिका जीव
विज्ञानियों, आनुवंशिकीविदों
और नैनोप्रौद्योगिकीविदों के साथ मिलकर आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करके
पारंपरिक औषधियों के प्रभावों को परखने का काम कर रहे हैं। (जैसे
आप उनका 1 मार्च 2016 के प्रोसीडिंग्स
ऑफ दी इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी में प्रकाशित पदक व्याख्यान ‘आयुर्वेदिक जीव विज्ञान : पहला
दशक’ पढ़ सकते हैं। इसमें वे आधुनिक विज्ञान की
मदद से आयुर्वेद पर किए गए प्रयोगों, और उनके प्रमाणित परिणामों के बारे में
बताते हैं।) 2012 में प्लॉस वन पत्रिका में वी. द्विवेदी का ऐसा ही एक पेपर ड्रॉसोफिला मेलानोगास्टर मॉडल
पर पारंपरिक आयुर्वेदिक औषधियों के प्रभावों का चिकित्सीय अनुप्रयोगों से सम्बंध
प्रकाशित हुआ था। तो इस तरह से परंपरा और आज के विज्ञान का संगम संभव, वे साथ आ सकते हैं।
आयुष शायद कोविड-19 से लड़ सकता है, गंगा जल तो मात्र इसे धारण कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/cxc8i6/article31602048.ece/ALTERNATES/FREE_960/17TH-SCIGHARIAL
वैसे
तो कोई नहीं जानता कि कोविड-19 महामारी के अगले
अंकों में क्या होने वाला है लेकिन अधिकांश विशेषज्ञ सहमत हैं कि यह महामारी लगभग
दो साल जारी रहेगी। युनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा के शोधकर्ताओं द्वारा जारी की गई एक
रिपोर्ट में वर्ष 1700 से लेकर अब तक की 8 फ्लू
महामारियों की जानकारी के साथ कोविड-19 महामारी का डैटा भी
शामिल किया गया है।
इस
रिपोर्ट के अनुसार SARS-CoV-2 (नया कोरोनावायरस) इन्फ्लुएंज़ा के वायरस की एक किस्म तो नहीं है लेकिन इसमें
और फ्लू महामारी के वायरसों के बीच कुछ समानताएं हैं। दोनों ही श्वसन मार्ग के वायरस
हैं जिनकी लोगों में कोई पूर्व प्रतिरक्षा उपस्थित नहीं है। दोनों ही लक्षण-रहित लोगों से अन्य लोगों में फैल सकते हैं। लेकिन अंतर यह
है कि कोविड-19 वायरस अन्य फ्लू वायरस की तुलना में अधिक
आसानी से फैलता नज़र आ रहा है और SARS-CoV-2 संक्रमणों का एक ज़्यादा बड़ा हिस्सा लक्षण-रहित लोगों से फैलाव के कारण हो रहा है।
इसके
आसानी से फैलने की क्षमता को देखते हुए लगभग 60 प्रतिशत
से 70 प्रतिशत आबादी को प्रतिरक्षा विकसित करना
होगा, तभी
हम हर्ड इम्यूनिटी यानी झुंड प्रतिरक्षा से लाभांवित हो पाएंगे। हालांकि इसमें अभी
काफी समय लगेगा क्योंकि अभी कुल आबादी की तुलना में बहुत कम लोग इससे संक्रमित हुए
हैं।
रिपोर्ट
में कोविड-19 के भविष्य को लेकर तीन संभावित परिदृश्य
प्रस्तुत किए गए हैं।
परिदृश्य
1: इस परिदृश्य में, वर्तमान कोविड-19 तूफान के बाद कुछ छोटे-छोटे
सैलाबों की शृंखलाएं आएंगी। ये दो साल की अवधि तक निरंतर आती रहेंगी और धीरे-धीरे 2021 तक खत्म हो जाएंगी।
परिदृश्य
2: एक संभावना यह है कि 2020 के
वसंत में प्रारंभिक लहर के बाद सर्दियों के मौसम में एक बड़ा सैलाब उभरे, जैसा कि 1918 की फ्लू महामारी में हुआ था। हो सकता है इसके बाद एक-दो छोटी लहरें 2021 में भी सामने आएं।
परिदृश्य
3: कोविड-19 की
शुरुआती वसंती लहर के बाद इसके संक्रमण की रफ्तार कम हो जाए और आगे कोई विशेष
पैटर्न नज़र न आए।
रिपोर्ट के अनुसार नई लहरों का सामना करने के लिए समय-समय पर अलग-अलग क्षेत्रो में आवश्यकतानुसार नियंत्रण के उपाय करने होंगे और छूट देना होगा ताकि स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक बोझ न पड़े। फिलहाल जो भी परिदृश्य उभरकर आता हो, हमें कम से कम 18 से 24 महीनों तक कोविड-19 की सक्रियता के लिए तैयार रहना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)
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हमारा
मस्तिष्क अलग-अलग किस्म की स्मृतियों को मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्सों में सहेजता है। जैसे दृश्य सम्बंधी स्मृतियां
मस्तिष्क के दाएं हिस्से में सुरक्षित रहती हैं तो शब्दिक स्मृतियां मस्तिष्क के
बाएं हिस्से में। ऐसा ही स्मृति विभाजन हमें सॉन्ग बर्ड्स और ज़ेब्रा फिश में भी
देखने को मिलता है। और अब प्रोसिडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित
अध्ययन बताता है कि चींटियों का नन्हा-सा मस्तिष्क भी अलग-अलग तरह की स्मृतियां अलग-अलग
हिस्सों में सहेजता है। इस प्रक्रिया को पार्श्वीकरण कहते हैं।
यह
जानने के लिए कि क्या चींटियों का मस्तिष्क दृश्य स्मृतियों को मस्तिष्क के अलग
हिस्से में सहेजता है,
पहले तो शोधकर्ताओं ने जंगली चींटियों (फॉर्मिका रूफा) को ठीक उस तरह
प्रशिक्षित किया जैसे इवान पावलॉव ने कुत्तों को प्रशिक्षित किया था। उन्हें एक
संकेत दिया जाता और फिर उसके साथ भोजन मिलता था।
उन्होंने
दर्जनों चींटियों के साथ यह प्रयोग किया। प्रयोग यह था कि जब भी चींटियां नीले रंग
की वस्तु देखें तो या तो उनके दाएं एंटीना पर, या बाएं एंटीना पर, या दोनों एंटीना पर
मीठे पानी की एक बूंद लगाई गई। इस तरह उन्होंने चींटियों में नीले रंग की वस्तु से
प्यास का सम्बंध बनाया।
इसके
बाद शोधकर्ताओं ने 10 मिनट, 1 घंटे और 24 घंटे बाद उनकी स्मृति का परीक्षण किया। वे देखना चाहते थे
कि नीली वस्तु दिखाने पर क्या चींटियां मीठे पानी के लिए अपना मुंह खोलती हैं जो
प्यास का द्योतक होगा।
शोधकर्ताओं
ने पाया कि जिन चींटियों का दायां एंटीना छूकर प्रशिक्षित गया था उन्होंने 10 मिनट बाद के परीक्षण में मीठे पानी के लिए तुरंत
प्रतिक्रिया दी,
1 घंटे के बाद सुस्त प्रतिक्रिया दी लेकिन
उसके बाद कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी। और जिन चींटियों का बायां एंटीना छूकर
प्रशिक्षित किया गया था उन चींटियों ने 10 मिनट
और 1 घंटे बाद तो कोई प्रतिक्रिया नहीं दी लेकिन
24 घंटे बाद प्यास की प्रतिक्रिया दी। इससे तो
लगता है कि चींटियों के मस्तिष्क का एक हिस्सा अल्पकालीन स्मृतियों को और दूसरा
हिस्सा दीर्घकालीन स्मृतियों को सहेजता है।
कीटों में यह पहली बार देखा गया है कि अल्प और दीर्घकालीन दृश्य स्मृतियां मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्से में सहेजी जाती हैं। शोधकर्ताओं का कहना है यह कीटों की एक ऐसी विशेषता हो सकती है जो उन्हें ऊर्जा और स्मृति सहेजने की क्षमता की बचत करने में मदद करती हो।(स्रोत फीचर्स)
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प्रोफेशनल
बर्नऑउट यानी काम के बोझ से उपजे तनाव और काम के प्रति अरुचि से तो हम वाकिफ हैं।
लेकिन ऑटिज़्म इन एडल्टहुड पत्रिका में प्रकाशित एक ताज़ा शोध कहता है कि
ऑटिस्टिक लोगों को बर्नआउट महज़ अधिक काम के दबाव से नहीं होता बल्कि ऑफिस में गैर-ऑटिस्टिक लोगों के साथ काम करते वक्त अपने ऑटिस्टिक व्यवहार
को छिपाने का जो अभिनय करना पड़ता है वह एकदम थकाऊ होता है। इसके चलते उनमें ध्वनि
और प्रकाश को बर्दाश्त करने की क्षमता में कमी आती है और वे अपने हुनर भी गंवा
बैठते हैं।
पोर्टलैंड
स्टेट युनिवर्सिटी के डोरा रेमेकर और साथियों ने अपने अध्ययन में ऑटिस्टिक लोगों
के साक्षात्कार लिए और सोशल मीडिया पर लिखी टिप्पणियों का अध्ययन किया। उन्होंने
पाया कि हमें ऑटिस्टिक-हितैषी कार्यस्थलों
की ज़रूरत है जहां लोगों को अपने ऑटिस्टिक व्यवहार को छिपाना ना पड़े। रेमेकर बताते
हैं कि अक्सर ऑटिस्टिक व्यक्ति पर ही इस समस्या से निपटने का दबाव होता है। बल्कि कार्यस्थलों
पर ऐसे माहौल की ज़रूरत है जो ऑटिस्टिक व्यक्ति को उसी रूप में स्वीकार करें जैसे
वे हैं, और
काम में लचीलापन दें।
रेमेकर
ने ऑटिज़्म अध्ययन को एक नई दिशा दी है। ऑटिज़्म के परंपरागत अध्ययन ऑटिज़्म के कारण
और इलाज की पड़ताल करते हैं और बच्चों पर केंद्रित रहते हैं। इसके विपरीत इस अध्ययन
ने ऑटिज़्म की व्यवहारगत मुश्किलों की ओर ध्यान दिलाया है और इसमें ऑटिस्टिक
वयस्कों को शामिल किया गया है, जिन्होंने अपने अनुभव अध्ययन में जोड़े। ऐसे
ही एक अन्य अध्ययन में यह देखने की कोशिश की जा रही है कि कैसे शिक्षक और कर्मचारी
कॉलेज में ऑटिस्टिक छात्रों के अनुभवों को बेहतर बना सकते हैं।
वैसे
तो कई अध्ययन हाशिएकृत लोगों को ध्यान में रखकर किए जा रहे हैं लेकिन अब भी अध्ययन
में ऑटिस्टिक लोगों को शामिल करना आसान नहीं है। कुछ वैज्ञानिकों को लगता है कि
अध्ययन करने वालों में यदि ऑटिस्टिक व्यक्ति होंगे तो हो सकता है कि उनके
पूर्वाग्रहों के चलते अध्ययनों की वस्तुनिष्ठता में कमी आए। इस पर अध्ययन की सह-लेखिका निकोलेडिस का कहना है कि ऑटिस्टिक लोगों ने ही उनके
सर्वेक्षण उपकरणों में तब्दीली करने में मदद की। जैसे एक सवाल था: ‘आप इस गतिविधि को ____ प्रतिशत समय करते हैं।’ बौद्धिक
विकलांगता वाले ऑटिस्टिक लोगों ने प्रतिशत के साथ काम करने में असुविधा व्यक्त की
इसलिए उनकी टीम ने प्रतिशत के स्थान पर रंगभरे चित्रों का उपयोग किया। उनका कहना
है कि यदि ऑटिस्टिक लोगों के साथ किए गए अध्ययन में सामान्य साधन उपयोग किए होते
तो परिणाम सही नहीं आते।
इसी तरह की पहल पिछले वर्ष शुरू हुए जर्नल ऑटिज़्म इन एडल्टहुड ने की है, जिसकी मुख्य संपादक निकोलेडिस हैं और एक संपादक स्व-घोषित ऑटिस्टिक रेमेकर हैं। कई लोग इसकी नीतियों से हैरान हो सकते हैं। जैसे इसमें प्रकाशन के लिए आने वाले हर अध्ययन की कम से कम एक समीक्षा ऑटिस्टिक समीक्षक द्वारा की जाती है। ऑटिस्टिक समीक्षक शोध पत्र की भाषा और जानकारी की बोधगम्यता पर टिप्पणी करते हैं। यह पहली बार है कि ऑटिस्टिक लोगों की बात को सुना गया है, अहम माना गया है। ऑटिस्टिक वयस्कों का अपने लिए बोलने का अधिकार और कर्तव्य बनता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0501NID_Autism_Adulthood_online.jpg?itok=OuQloFzX
कोरोनावायरस
वुहान के नज़दीक पाए जाने वाले चमगादड़ की एक प्रजाति से किसी तरह एक अन्य मध्यवर्ती
प्रजाति से मनुष्यों में प्रवेश कर गया। लेकिन अभी तक किसी को नहीं पता कि यह
महामारी खत्म कैसे होगी। अलबत्ता, पूर्व की महामारियों से भविष्य के संकेत
मिलते हैं। युनिवर्सिटी ऑफ शिकागो की महामारीविद और जीवविज्ञानी सारा कोबे और अन्य
विशेषज्ञों के अनुसार पूर्व के अनुभवों से पता चलता है कि आने वाला समय इस बात पर
निर्भर करता है कि रोगाणु का विकास किस तरह होता है और उस पर मनुष्यों की जैविक और
सामाजिक दोनों तरह की प्रतिक्रिया क्या रहती है।
वास्तव
में वायरस निरंतर उत्परिवर्तित होते रहते हैं। किसी भी महामारी को शुरू करने वाले
वायरस में इतनी नवीनता होती है कि मानव प्रतिरक्षा प्रणाली उन्हें जल्दी पहचान
नहीं पाती। ऐसे में बहुत ही कम समय में बड़ी संख्या में लोग बीमार हो जाते हैं।
भीड़भाड़ और दवा की अनुपलब्धता जैसे कारणों के चलते इस संख्या में काफी तेज़ी से
वृद्धि होती है। अधिकतर मामलों में तो प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा विकसित एंटीबॉडीज़
लंबे समय तक बनी रहती हैं,
प्रतिरक्षा प्रदान करती हैं और व्यक्ति से व्यक्ति में
संक्रमण को रोक देती हैं। लेकिन इस तरह के परिवर्तनों में कई साल लग जाते हैं, तब तक वायरस तबाही
मचाता रहता है। पूर्व की महामारियों के कुछ उदाहरण देखते हैं।
रोग
के साथ जीवन
आधुनिक
इतिहास का एक उदाहरण 1918-1919 का एच1एन1 इन्फ्लुएंज़ा प्रकोप
है। उस समय डॉक्टरों और प्रशासकों के पास आज के समान साधन उपलब्ध नहीं थे और स्कूल
बंद करने जैसे नियंत्रण उपायों की प्रभावशीलता इस बात पर निर्भर करती थी कि उन्हें
कितनी जल्दी लागू किया जाता है। लगभग 2 वर्ष और महामारी की 3 लहरों ने 50 करोड़ लोगों को
संक्रमित किया था और लगभग 5 से 10 करोड़ लोग मारे गए थे। यह तब समाप्त हुआ था जब संक्रमण से
उबर गए लोगों में प्राकृतिक रूप से प्रतिरक्षा पैदा हो गई।
इसके
बाद भी एच1एन1 स्ट्रेन कुछ हल्के
स्तर पर 40 वर्षों तक मौसमी वायरस के रूप में मौजूद
रहा। और 1957 में एच2एन2 स्ट्रेन की एक महामारी ने 1918 के
अधिकांश स्ट्रेन को खत्म कर दिया। एक वायरस ने दूसरे को बाहर कर दिया। वैज्ञानिक
नहीं जानते कि ऐसा कैसे हुआ। प्रकृति कर सकती है, हम नहीं।
कंटेनमेंट
2003 की सार्स महामारी का कारण कोरोनावायरस SARS-CoV
था। यह वर्तमान महामारी के वायरस (SARS-CoV-2) से काफी निकटता से
सम्बंधित था। उस समय की आक्रामक रणनीतियों, जैसे रोगियों को आइसोलेट करने, उनसे संपर्क में आए
लोगों को क्वारेंटाइन करने और सामाजिक नियंत्रण से इस रोग को हांगकांग और टोरंटो
के कुछ इलाकों तक सीमित कर दिया गया था।
गौरतलब
है कि यह कंटेनमेंट इसलिए सफल रहा था क्योंकि इस वायरस के लक्षण काफी जल्दी नज़र
आते थे और यह वायरस केवल अधिक बीमार व्यक्ति से ही किसी अन्य व्यक्ति को संक्रमित
कर सकता था। अधिकांश मरीज़ लक्षण प्रकट होने के एक सप्ताह बाद ही संक्रामक होते थे।
यानी यदि लक्षण प्रकट होने के बाद उस व्यक्ति को अलग-थलग
कर दिया जाता तो संक्रमण आगे नहीं फैलता था। कंटेनमेंट का तरीका इतना कामयाब रहा
कि इसके मात्र 8098 मामले सामने आए और सिर्फ 774 लोगों की ही मौत हुई। 2004 से
लेकर आज तक इसका कोई और मामला सामने नहीं आया है।
टीका
विशेषज्ञों
के अनुसार 2009 में स्वाइन फ्लू का वायरस 1918 के एच1एन1 वायरस के समान ही था। हम काफी भाग्यशाली रहे कि इसकी
संक्रामक और रोगकारी क्षमता बहुत कम थी और छह माह के अंदर ही इसका टीका विकसित कर
लिया गया था।
गौरतलब
है कि खसरा या चेचक के टीके के विपरीत, फ्लू के टीके कुछ वर्षों तक ही सुरक्षा
प्रदान करते हैं। इन्फ्लुएंज़ा वायरस जल्दी-जल्दी उत्परिवर्तित
होते रहते हैं,
और इसलिए इनके टीकों को भी हर साल अद्यतन करने और नियमित
रूप से लगाने की ज़रूरत होती है।
वैसे
महामारी के दौरान अल्पकालिक टीके भी काफी महत्वपूर्ण होते हैं। 2009 के वायरस के खिलाफ विकसित टीके ने अगले जाड़ों में इसके पुन: प्रकोप को काफी कमज़ोर कर दिया था। टीके की बदौलत ही 2009 का वायरस ज़्यादा तेज़ी से 1918 के
वायरस की नियति को प्राप्त हो गया। जल्दी ही इसे मौसमी फ्लू के रूप में जाना जाने
लगा जिसके विरुद्ध अधिकतर लोग संरक्षित हैं – या
तो फ्लू के टीके से या पिछले संक्रमण से उत्पन्न एंटीबॉडी द्वारा।
वर्तमान
महामारी
वर्तमान
महामारी की समाप्ति को लेकर फिलहाल तो अटकलें ही हैं लेकिन अनुमान है कि इस बार
पूर्व की महामारियों में उपयोग किए गए सभी तरीकों की भूमिका होगी – मोहलत प्राप्त करने के लिए सामाजिक-नियंत्रण, लक्षणों से राहत
पाने के लिए नई एंटीवायरल दवाइयां और टीका।
सामाजिक
दूरी जैसे नियंत्रण के उपाय कब तक जारी रखने होंगे यह तो लोगों पर निर्भर करता है
कि वे कितनी सख्ती से इसका पालन करते हैं और सरकारों पर निर्भर करता है कि वे
कितनी मुस्तैदी से प्रतिक्रिया देती हैं। कोबे का कहना है कि इस महामारी का नाटक 50 प्रतिशत तो सामाजिक व राजनैतिक है। शेष आधा विज्ञान का है।
इस
महामारी के चलते पहली बार कई शोधकर्ता एक साथ मिलकर, कई मोर्चों पर इसका
उपचार विकसित करने पर काम कर रहे हैं। यदि जल्दी ही कोई एंटीवायरल दवा विकसित हो
जाती है तो गंभीर रूप से बीमार होने वाले लोगों या मृत्यु की संख्याओं को कम किया
जा सकेगा।
स्वस्थ
हो चुके रोगियों में SARS-CoV-2 को निष्क्रिय करने
वाली एंटीबॉडीज़ की जांच तकनीक से भी काफी फायदा मिल सकता है। इससे महामारी खत्म तो
नहीं होगी लेकिन गंभीर रूप से बीमार रोगियों के उपचार में एंटीबॉडी युक्त रक्त का
उपयोग किया जा सकता है। ऐसी जांच के बाद वे लोग काम पर लौट सकेंगे जो इस वायरस को
झेलकर प्रतिरक्षा विकसित कर पाए हैं।
संक्रमण
को रोकने के लिए टीके की आवश्यकता होगी जिसमें अभी भी लगभग 1 साल
का समय लग सकता है। एक बात स्पष्ट है कि टीका बनाना संभव है। और फ्लू के वायरस की
अपेक्षा SARS-CoV-2 का टीका बनाना आसान
होगा क्योंकि यह कोरोनावायरस है और इनके पास मानुष्य की कोशिकाओं के साथ संपर्क
करके अंदर घुसने के रास्ते बहुत कम होते हैं। वैसे यह खसरे के टीके की तरह
दीर्घकालिक प्रतिरक्षा प्रदान तो नहीं करेगा लकिन फिलहाल तो कोई भी टीका मददगार
होगा।
जब तक दुनिया के हर स्वस्थ व्यक्ति को टीका नहीं लग जाता, कोविड-19 स्थानीय महामारी बना रहेगा। यह निरंतर प्रसारित होता रहेगा और मौसमी तौर पर लोगों को बीमार भी करता रहेगा, कभी-कभार गंभीर रूप से। अधिक समय तक बना रहा तो यह बच्चों को छुटपन में ही संक्रमित करने लगेगा। बचपन में बहुत गंभीर लक्षण प्रकट नहीं होते और ऐसा देखा जाता है कि बचपन में संक्रमित बच्चे वयस्क अवस्था में फिर से संक्रमित होने पर उतने गंभीर बीमार नहीं होते। अधिकांश लोग टीकाकरण और प्राकृतिक प्रतिरक्षा के मिले-जुले प्रभाव से सुरक्षित रहेंगे। लेकिन अन्य वायरसों की तरह SARS-CoV-2 भी लंबे समय तक हमारे बीच रहेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/4B160AF6-5B13-4DEA-B8D20679284CC9FD_source.jpg?w=2000&h=1123&0E1A1816-14E4-40E9-87A1AF456A3FC538
लेख
की शुरुआत मैं एक गुज़ारिश के साथ करना चाहता हूं। हम अचानक ही मुश्किल और अनिश्चित
दौर से घिर गए हैं। अनजाने भविष्य का डर और आशंका बेचैनी पैदा कर रहे हैं। यह
सुनिश्चित करने के लिए कि इस डर को बढ़ाने में हमारा कोई योगदान ना हो,
हमें ध्यान देना चाहिए कि हम दूसरों के साथ कैसी जानकारी
साझा कर रहे हैं, खासकर सोशल मीडिया
और मैसेजिंग ऐप्स के ज़रिए। जब भी आप कुछ देखें या पढ़ें तो अपने आप से ये सवाल ज़रूर
करें: क्या
मुझे इस जानकारी पर भरोसा है? अगर यह जानकारी किसी
खास विषय से सम्बंधित है तो क्या मैं इसे परखने के लिए पर्याप्त जानकार हूं?
क्या दी गई जानकारी के पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत हुए हैं?
क्या कहीं और भी यह बात कही गई है?
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) या स्वास्थ्य मंत्रालय इस बारे में क्या कहता है?
क्या आपने व्हाट्सएप पर प्राप्त सरकारी आदेश का उनकी
आधिकारिक वेबसाइट पर जारी आदेश से मिलान किया है? यदि
थोड़ी भी शंका हो तो हमें संदेश साझा करने और आगे बढ़ाने से बचना चाहिए। वरना हम
लोगों को गलत जानकारी देंगे जो उन्हें जोखिम में डाल सकती है।
कोविड-19 महामारी कई लोगों के
लिए एक वरदान के रूप में आई है कि वे अपने अज्ञान को समझ व ज्ञान रूपी हथियार का
रूप देकर, प्राय: सांस्कृतिक गर्व का
मुलम्मा चढ़ाकर दुनिया के समक्ष पेश कर सकें। डिजिटल टेक्नॉलॉजी ने कई लोगों को
विशेषज्ञ, विद्वान,
डॉक्टर और सर्वज्ञ बना दिया है। मोबाइल फोन और कुछ अन्य
माध्यमों के ज़रिए वे इंटरनेट और सोशल मीडिया का उपयोग बेतुकी और भ्रामक जानकारी
फैलाने में कर रहे हैं। इनमें कई बार ऐसी बकवास भी शामिल होती है जो आज़माने वालों
के लिए घातक हो सकती है।
कोरोनोवायरस
(SARS-CoV-2), कोविड-19 की शारीरिक महामारी
के साथ जुड़ी जानकारी की महामारी के बारे में काफी कुछ लिखा गया है। सबसे अधिक
बेतुकी बातें संक्रमण के इलाज और इससे बचाव के उपायों के बारे में कही जा रही हैं।
जिससे एक सवाल यह उठता है: गड़बड़
क्या है और ऐसा क्यों हो रहा है? सरल स्तर पर देखें
तो, सनसनीखेज़ सामग्रियां डर और उम्मीद के चलते
फैल रही हैं, और जीवित रहने के
लिए हमारे दिमाग की एक प्रवृत्ति खतरों को बड़े रूप में देखने की है। ऐसा अक्सर
महामारी, आपदाओं और युद्ध के
समय होता है। पर इस समय हालात को अधिक जटिल और खतरनाक बनाने वाले तीन कारक हैं: पहला,
इंटरनेट पर मौजूद असत्यापित अथाह ‘ज्ञान’ के भंडार तक आसान पहुंच;
दूसरा, डिजिटल मीडिया की
बदौलत प्रसार की तीव्र गति और आसान पहुंच; और
तीसरा, सामाजिक और राजनैतिक
ध्रुवीकरण जो साज़िश की परिकल्पनाओं को तथा भयंकर पक्षपाती अभिमान से भरे छद्म
वैज्ञानिक कथनों को जन्म देता है।
इनमें
सबसे प्रचलित हैं खांसी और ज़ुकाम या सामान्य प्रतिरक्षा को बढ़ाने के लिए आज़माए
जाने वाले घरेलू नुस्खों का विस्तार। इनमें से कुछ उपाय तो गर्म पानी से गरारे
करने और गर्मागरम रसम पीने जैसे साधारण सुझाव हैं। इनका एक अन्य स्तर है स्व-परीक्षण;
जैसे एक संदेश कहता है कि यदि आप 10 सेकंड के लिए अपनी सांस रोक सकते हैं तो आप
संक्रमित नहीं हैं। इंटरनेट गलत सूचनाओं से भरा पड़ा है,
जिनसे आप चलते-चलते टकरा जाएंगे। गलत सूचनाओं तक संयोगवश पहुंचना कहीं
आसान है बनिस्बत प्रामाणिक जानकारी तक पहुंचने के, जिसे
खोजना पड़ता है और प्रामाणिकता को परखने के लिए प्रयास करने पड़ते हैं।
गलत
सूचनाएं अक्सर आधिकारिक दिखने वाले दस्तावेज़ों और सील-ठप्पों के साथ पेश की जाती हैं। इनमें से
कुछ नामी पेशेवरों के हवाले से आती हैं; जैसे
एक प्रसिद्ध कार्डियोलॉजिस्ट को यह कहते सुना गया था कि जिन व्यक्तियों में
संक्रमण के लक्षण दिख रहे हैं उन्हें, परीक्षण
किट की कमी के चलते, आठ दिनों के बाद ही
परीक्षण के लिए जाना चाहिए। इसके अलावा फेसबुक, ट्विटर
और सबसे कुख्यात व्हाट्सएप पर कई हास्यास्पद चीज़ें चल रही हैं। जैसे लहसुन
कोरोनावायरस को ठीक कर सकता है, या हर 15 मिनट में गर्म पानी
पीने से संक्रमण से बचा जा सकता है। सबसे अधिक रोमांचक सलाह शराब और गांजा का सेवन
करने की है; दावा है कि दोनों ही
वायरस को मार सकते हैं। अमेरिका में काफी प्रचलित सलाह है कि ‘चमत्कारी मिनरल घोल’ यानी ब्लीच वायरस का
सफाया कर सकता है। प्रसंगवश बता दें कि यह आपका भी सफाया हमेशा के लिए कर देगा।
मेसेजेस
ने इस विचार को भी बढ़ावा दिया है कि मास्क लगाने से वायरस से पूरी तरह सुरक्षित
रहा जा सकता है – यह
एक खतरनाक विचार है क्योंकि यह विचार एक मिथ्या आत्मविश्वास पैदा करता है और फिर
आपसे मूर्खतापूर्ण व्यवहार करवाता है। इसके चलते उन लोगों के लिए मास्क की कमी भी
हो गई जिन्हें इनकी वाकई ज़रूरत थी। और अंत में, निश्चित
ही यह झूठी घोषणा थी कि सरकार ने पूरे इलाके में छिड़काव करके हवा में ही वायरस के
खात्मे का इंतजाम किया है।
यह
तब और भी चिंताजनक हो जाता है जब ये मूर्खतापूर्ण बातें आधिकारिक नीति बन जाती हैं: स्वास्थ्य मंत्रालय
सलाह देता है कि आयुर्वेदिक, यूनानी और
होम्योपैथिक उपचार कोरोनोवायरस के ‘लक्षणों से निपटने’ में मददगार हैं! जबकि इस तरह के दावों का रत्ती भर
वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। फिर भी ये सरकार की ओर से ज़ारी किए गए हैं। विशेषज्ञों
द्वारा इस पर आपत्ति उठाने पर मंत्रालय ने ‘स्पष्टीकरण’ दिया है कि यह सलाह ‘सामान्य’ वायरस संक्रमण के संदर्भ में जारी की गर्इं
है।
यदि
कोई इन ‘उपचारों’ को अपना ले तो
परिणाम भयावह होंगे। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कोरोनोवायरस के इलाज के
लिए क्लोरोक्वीन और हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के उपयोग की वकालत की है। जब उनसे इस
बारे में सवाल किया गया तो उन्होंने जवाब दिया कि “मैं एक ऐसा आदमी हूं जो बहुत सकारात्मक सोच
रखता हूं, विशेष रूप से इन
दवाओं के मामले में। यह सिर्फ एक एहसास है, सिर्फ
एक एहसास है। मैं एक स्मार्ट आदमी हूं।”
इन
दवाओं की प्रभाविता के बारे में केवल कहे-सुने प्रमाण उपलब्ध हैं और इन्हें लेकर
परीक्षण चल रहे हैं लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा पहले ही इस ‘उपचार’ की पैरवी ने मुश्किल
खड़ी कर दी है: इन
दवाओं की जमाखोरी से इनकी उपलब्धता उन लोगों के लिए कम हो गई है जिन्हें अन्य
बीमारियों के इलाज में इनकी ज़रूरत है। लोग कोरोनोवायरस से अपने को बचाने के लिए अब
खुद ही इन अत्यधिक ज़हरीली दवाओं का सेवन रहे हैं, जिसके
कारण एरिज़ोना और नाइजीरिया में मौतें भी हो चुकी हैं। इसी तरह के हालात भारत में
भी बन सकते हैं।
साज़िश
परिकल्पनाओं की भी कोई कमी नहीं है। एक प्रचलित बयान यह है कि कोरोनावायरस 5-जी मोबाइल तकनीक के
परिणामस्वरूप उपजा है; यह वायरस के माध्यम
से लोगों को बीमार करता है। मलेशियाई सरकार को अपने नागरिकों को आश्वस्त करना पड़ा
कि यह वायरस लोगों को रक्त-पिपासु दैत्य में नहीं बदलेगा। संयुक्त राज्य अमेरिका में
दक्षिणपंथी लोगों ने सोशल मीडिया पर इस तरह की पोस्ट की बाढ़ लगा दी है कि
कोरोनावायरस ट्रम्प विरोधी हिस्टीरिया पैदा करने की और ‘देश को अस्थिर करने’ की साज़िश है। इस डर को हवा दी जा रही है कि
डब्लूएचओ ‘राष्ट्रों
को नियंत्रित कर रहा है और कई लोगों को मारने के लिए जबरन टीके लगाए जाएंगे।’ इसका एक परिणाम इस
रूप में सामने आ रहा है कि दक्षिण-पंथी रुझान वाले नागरिक इस महामारी को गंभीरता से नहीं ले
रहे हैं, और लापरवाही भरा
व्यवहार कर रहे हैं, जैसे बाहर खाना खाना
या हाथ मिलाना (यह
साबित करने के लिए कि वे सख्त हैं)।
ज़्यादा
गहरे स्तर पर दक्षिणपंथी लोग “वायरस के कारण और उसकी उत्पत्ति के बारे में साज़िश-सिद्धांत पेश कर रहे
हैं, और इन मनगढ़ंत कहानियों का उपयोग
आप्रवासियों, अल्पसंख्यकों या
उदारवादी लोगों को बलि का बकरा बनाने हेतु कर रहे हैं।” चीनी मूल के अमेरिकी नागरिकों के साथ
दुव्र्यवहार की खबरें तो सामने आ भी चुकी हैं क्योंकि ट्रम्प ने “चीनी वायरस” शब्द प्रचलित कर
दिया है। भारत में भी, पूर्वोत्तर राज्यों
के नागरिकों पर इसी तरह के नस्लवादी हमले किए गए हैं। चीन को एक दैत्य साबित करने
के लिए कहा जा रहा है कि वह अपने ही नागरिकों के प्रति अमानवीय और क्रूर व्यवहार
कर रहा है, और ऐसी (झूठी) रिपोर्टें पेश की जा
रही हैं कि चीन संक्रमित लोगों को मार रहा है।
लेकिन
यह पुराना सवाल बरकरार है: लोग
इन बकवास बातों में क्यों आ जाते हैं? एक
अन्य लेख में इस बात की चर्चा की गई है कि कैसे क्राउडसोर्सिंग द्वारा बकवास भी ‘ज्ञान’ बन जाता है। मोटे
तौर पर कहा जाए तो विभिन्न कारणों से आबादी के एक बड़े हिस्से के लोगों में
समीक्षात्मक कौशल की कमी के चलते कितनी भी हास्यास्पद या बकवास बात ‘विश्वसनीय’ बन जाती है। सही
शिक्षा तक लोगों की पहुंच के अभाव और आधारभूत वैज्ञानिक सिद्धांतों की जानकारी की
कमी के कारण उनके पास लगातार मिल रही इन सूचनाओं की वैधता जांचने का कोई तरीका
नहीं होता। इसके अलावा सवाल करने की मानसिकता की अनुपस्थिति,
जो वैज्ञानिक स्वभाव का अंतर्निहित हिस्सा है,
के कारण वे जो भी देखते, पढ़ते
और सुनते हैं उसकी गहन पड़ताल नहीं कर पाते।
यहां
स्पष्ट रूप से दो तरह के परिदृश्य हैं
पहली
श्रेणी उन लोगों की है जो तार्किकता से शुरुआत तो करते हैं लेकिन एक समय बाद
प्रामाणिक से दिखने वाले नकली दस्तावेज़ों या वैज्ञानिक लगने वाले तर्कों में फंस
जाते हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण यह बयान है कि होम्योपैथी कोरोनोवायरस से लड़ने के
लिए सभी अद्भुत दवाएं उपलब्ध करा रही है। इस तरह के दावे वैसी ही भाषा शैली का
उपयोग करते हैं जैसी कि आधुनिक चिकित्सा में उपयोग की जाती है,
जिससे होम्योपैथी चिकित्सा बिल्कुल इसके समान और इसका
विकल्प लगने लगती है। यह उस छद्म विज्ञान को ढंक देती है जिस पर होम्योपैथी आधारित
है। कोरोनोवायरस महामारी के इलाज और उसके टीके सम्बंधी ये दावे इस संक्रमण के
खिलाफ अजेयता का भ्रम पैदा कर सकते हैं।
‘जनता कर्फ्यू’ के मामले में सोशल
मीडिया पर एक छद्म वैज्ञानिक व्याख्या काफी प्रचलित है: किसी एक स्थान पर कोरोनोवायरस 12 घंटे जीवित रहता है
और जनता कर्फ्यू 14 घंटे
का है। इसलिए सार्वजनिक स्थलों या बिंदुओं को, जहां
कोरोनावायरस पड़ा रह गया होगा, यदि 14 घंटे तक छुआ नहीं
जाएगा तो इससे कोरोनावायरस की शृंखला टूट जाएगी। यह ना केवल अजीबो-गरीब तर्क है बल्कि
यह वायरस के जीवन काल के तथ्य के आधार पर भी गलत है। इस प्रकार के कर्फ्यू वायरस
के संपर्क में आने में कमी ला सकते हैं, और
आपातकालीन उपायों के हिसाब से यह एक अच्छा कदम हो सकता है,
लेकिन यह नहीं होगा कि ‘कोरोनावायरस की शृंखला टूट जाएगी’।
व्हाट्सएप
पर एक और बेतुका तर्क दिया जा रहा है कि भारत के 130 करोड़ लोग यदि एक समय,
एक साथ ताली और शंख बजाएंगे तो इतना कंपन पैदा होगा कि
वायरस अपनी सारी शक्ति खो देगा। यदि कुछ ट्वीट्स की मानें तो ऐसा करके हमें पहले
ही बड़ी सफलता मिल चुकी है क्योंकि “नासा SD13 तरंग डिटेक्टर ने ब्राहृाण्ड स्तरीय ध्वनि
तरंग डिटेक्ट की हैं और हाल ही में बनाए गए बायो-सैटेलाइट ने दिखाया है कि कोविड-19 स्ट्रेन घट रहा है
और कमज़ोर हो रहा है” और
वह भी सामूहिक शंखनाद के कुछ मिनटों बाद।
इससे
ज़्यादा ऊटपटांग बात कोई हो नहीं सकती। दूसरी ओर, सामाजिक
दूरी का विचार, जिसे सरकारें जी-जान से बढ़ावा देने
में जुटी हैं, तब हवा में उड़ गया
जब कई लोग राजनेताओं के आव्हान से उत्साहित होकर संक्रमण से लड़ने वाले
कार्यकर्ताओं के सम्मान में लोग ताली-थाली बजाने के लिए अपने-अपने घरों से बाहर निकल कर एक साथ जमा हो
गए। लेकिन ज़मीनी हकीकत बिल्कुल अलग है, हम
वास्तव में अपने आसपास इन कार्यकर्ताओं को नहीं चाहते क्योंकि इनके संक्रमित होने
की संभावना है। मकान मालिकों ने एयरलाइन कर्मचारियों और यहां तक कि चिकित्सा
पेशेवरों को घर खाली करने को कहा है – यह काफी निराशाजनक स्थिति दिखती है कि हम दूसरों की ज़िंदगी
को महत्व नहीं देते हैं, उनकी भी जो संकट के
समय हमारी सेवा करते हैं। जिन लोगों को क्वारेंटाइन किया गया है उनके प्रति
सहानुभूति में कमी और उनकी निजता पर आक्रमण और भी शर्मनाक है।
हम
वास्तव में सबसे भौंडा इतिहास बनते देख रहे हैं
दूसरा,
हमारे यहां कई ऐसे लोग हैं जो निहित रूप से अंधविश्वासों और
अतार्किक विश्वासों के प्रति संवेदी हैं। इसके लिए विचित्र धार्मिकता से लेकर इन
विश्वासों को मानने वाली संस्कृति में परवरिश जैसे कई कारण ज़िम्मेदार हैं। इन
मामलों में ज्ञान और जानकारी बुज़ुर्गों, समुदाय
प्रमुखों और धार्मिक गुरुओं से आंख मूंदकर प्राप्त की जाती है,
उस पर सवाल नहीं उठाए जाते; दिमागों
को सवाल उठाने या प्रमाण खोजने के लिए तैयार नहीं किया जाता। इसलिए इन लोगों को जो
कुछ भी सूचनाएं मिलती हैं, उसे मान लेते हैं,
और इससे भी अधिक तत्परता से उन सूचनाओं को मान लेते हैं जो
किसी भी किस्म के अधिकारियों – राजनीतिक नेताओं, धार्मिक
हस्तियों – से
प्राप्त हुई हैं। ‘गो
कोरोना गो’ का
एक वीडियो बीमारी से लड़ने में एक आशावादी मनोस्थिति बनाने का अच्छा साधन हो सकता
है लेकिन यह वीडियो एक मुगालता भी पैदा करता है कि कोरोनोवायरस को जाप से,
खासकर सामूहिक जाप से भगाया जा सकता है।
कोरोनावायरस
सम्बंधी इस तरह की बेतुकी बयानबाज़ी करने वाले अधिकतर वे लोग हैं जो धार्मिक और
राष्ट्रवादी गौरव से भरे होते हैं। यह वक्त, जो
महान राजनीतिक ध्रुवीकरण और तीव्र सामाजिक आक्रोश का गवाह है,
ने सांस्कृतिक श्रेष्ठता के आख्यानों से पूर्ण दंभ के
उग्रवादी रूप को जन्म दिया है।
इसी
के चलते, गोमूत्र का उपयोग
कीटाणुनाशक के रूप में किया जा रहा है और बिना सोचे-समझे लोगों पर इसका छिड़काव किया जा रहा है।
दक्षिणपंथी राजनेताओं का दावा है कि गोमूत्र और गोबर कोरोनोवायरस का इलाज कर सकते
हैं, और हवन वायरस को मार सकता है। इनमें से कुछ
ने विशेष सभाओं का आयोजन किया जहां आमंत्रित लोगों को गोमूत्र पीने के लिए दिया
गया। कई ज्योतिष हमें बताते हैं कि हम अस्तित्व के संकट का सामना क्यों कर रहे हैं,
और यह कब दूर होगा। एक अन्य दावा कहता है कि प्राचीन भारतीय
योग के श्वसन का तरीका कोरोनावायरस के संक्रमण से बचा सकता है,
और यह भी कि आयुर्वेदिक चिकित्सा में प्रयुक्त अश्वगंधा ‘मानव प्रोटीन से
कोरोना प्रोटीन को जुड़ने नहीं देगी।’ इंडोनेशिया में मीडिया पोस्ट्स में दावा किया गया है कि वजू
करना वायरस को मार सकता है।
जो
लोग इनमें से किसी भी कथन को गंभीरता से लेते हैं और मानते हैं कि उनके पास
कोरोनोवायरस से लड़ने के लिए उपाय है तो हो सकता है कि वे खुद को और दूसरों को
गंभीर खतरे में डाल रहे हैं।
हमें
घेरती जा रही इस अज्ञानता के और भी अधिक भयावह और दीर्घकालिक प्रभाव हैं। आक्रामक
शाकाहार-श्रेष्ठता
के उन्माद में स्वनामधन्य ज्ञान उड़ेला जा रहा है: कोरोनावायरस की उत्पत्ति चीन के ‘मांस बाज़ार’ से हुई,
जहां मारे गए जंगली जानवरों की विभिन्न प्रजातियां एक साथ
होती हैं, जिससे वायरस एक
प्रजाति से होते हुए दूसरी प्रजाति और अंतत: मनुष्य में आ गया। यह बात मांसाहार की कटु
आलोचना के रूप में इस्तेमाल की जा रही है। मांस खाने वालों को दोष देते हुए कतिपय
सभ्यता की श्रेष्ठता के दावे किए जा रहे हैं और सभ्यता के घोर अनुयायी मांग कर रहे
हैं कि चीनी राष्ट्रपति कोरोनावायरस की प्रतिमा से क्षमा याचना करें कि उन्होंने
मांस खाया। संक्रमित मटन बाज़ार दिखाने वाले वीडियो भावनाओं को और भड़का रहे हैं। इस
प्रकार कोरोनावायरस मांस खाने वालों के खिलाफ प्रकृति का प्रतिशोध बन गया है। इससे
भारत में मुर्गियों की कीमत बहुत कम हो गई है, और
यह उद्योग आर्थिक संकट झेल रहा है।
सिर्फ
अनुशंसित वेबसाइटों (जैसे
डब्ल्यूएचओ) से
जानकारी प्राप्त करने की सलाह और गुज़ारिश किसी भी तरह से लोगों को गलत सूचना मानने
और आगे बढ़ाने से रोक नहीं रही है। हमें यह याद रखना चाहिए कि बहुत सी गलत सूचनाएं
जानबूझकर बरगलाने के लिए प्रचारित की जाती हैं, अक्सर
दक्षिणपंथी सांस्कृतिक लोगों द्वारा। जब तक हम इस सूचना की महामारी के “प्रसार की शृंखला” को नहीं तोड़ेंगे तब
तक यह जारी रहेगी।
लिहाज़ा,
डिजिटल मीडिया कई मायनों में उन मासूम लोगों के लिए एक
उपहार है जो उनको बताई गई किसी भी बकवास पर, और
उसे रचने वालों पर यकीन कर लेते हैं। फेसबुक से लेकर यूट्यूब तक के तमाम
प्लोटफार्म, जिन पर कोई भी कुछ
भी कह या लिख सकता है, वास्तव में इन्हें
उपयोग करने वाले सर्वज्ञाताओें (चाहें नादान हों या किसी मत के) के लिए मुफ्त में उपलब्ध हथियार की तरह है
जिसे किसी पर भी चलाया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि पहले के ज़माने में दुनिया में
किसी तरह की मूर्खता नहीं थी लेकिन मूर्खता को सर्वव्यापी बनाने के साधन अनुपस्थित
थे, जिससे किसी बेतुकेपन के निर्माण और प्रसार
की गति सीमित थी।
बड़ी टेक कंपनियां गलत सूचना के प्रसार को रोकने की कोशिश कर रही हैं लेकिन इस बात की संभावना बहुत कम है कि वे खुद के बनाए गए विशालकाय जाल को नियंत्रित कर पाएंगी। आधुनिक तकनीक और दुनिया के असमीक्षात्मक, रूढ़िवादी सोच की जुगलबंदी हमें यह याद दिलाती है कि जो समाज अंधविश्वास को बढ़ावा देता है वह छद्म विज्ञान में लौट जाता है और तार्किकता को कम करता है। इस परिस्थिति का उपयोग सांस्कृतिक और राजनीतिक लड़ाई में हथियार के रूप में किया जाता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://specials-images.forbesimg.com/imageserve/5ea89d09b67f3800075cd1ab/960×0.jpg?fit=scale
कोविड-19 संकट से निपटने के
लिए विभिन्न राष्ट्र अलग-अलग
रणनीतियां बना रहे हैं। ये सभी रणनीतियां सम्बंधित राष्ट्र की क्षमता के अनुरूप तो
हैं ही, साथ ही ये उनके समाज
के विभिन्न तबकों के लिए लागत और अपेक्षित लाभ के प्रति चिंताओं को भी दर्शाती
हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रचलित तरीका कंटेनमेंट और उन्मूलन का है।
हमारे
माननीय प्रधानमंत्री ने भी कोविड-19 उन्मूलन की वकालत की है और इसके लिए व्यवहार परिवर्तन और
कंटेनमेंट का मार्ग बताया है। हम भी लॉकडाउन और ‘हॉट-स्पॉट्स’ में आक्रामक पद्धति को जारी रखेंगे। ‘हॉट-स्पॉट्स’ यानी सघन संक्रमण के
इलाके। हॉट-स्पॉट्स
में संक्रमित लोगों के मिलने-जुलने के इतिहास पर नज़र रखना और पूरे इलाके पर नियंत्रण
शामिल है। उद्देश्य सभी स्थानों से बीमारी को खत्म करना है। अभी रोगग्रस्त लोगों
की संख्या अपेक्षाकृत कम है। हम प्रार्थना करते हैं कि यह प्लान ‘ए’ काम कर जाए।
उन्मूलन,
कंटेनमेंट और प्लान ‘बी’
अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर कंटेनमेंट के लिए दिया जाने वाला तर्क दो तथ्यों पर निर्भर है,
जो कई देशों के लिए सही है। पहला तथ्य यह है कि ये देश
बेहतर प्रशासित हैं और इसलिए यहां बीमारी को खत्म करना एक विकल्प है। इन देशों के
पास तकनीकी क्षमता और संस्थागत अनुभव है। दूसरा, रोगियों
की संभावित संख्या और अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या लगभग बराबर है। लॉकडाउन
संक्रमण को एक लंबी अवधि में बिखरा देता है और सभी रोगियों के लिए अस्पताल में
देखभाल सुनिश्चित की जा सकती है। इस तरह से जोखिम का समाजीकरण हो जाएगा। इसके चलते
कंटेनमेंट और उन्मूलन का मार्ग खुल जाता है। लेकिन इस बात के प्रमाण बढ़ते जा रहे
हैं कि लक्षण-रहित
रोगियों की संख्या लाक्षणिक रोगियों से काफी अधिक है। इस तथ्य ने कंटेनमेंट के
आधार को ही कमज़ोर कर दिया है और कई देश अब सर्वथा अपारंपरिक कंटेनमेंट-उपरांत रणनीतियां
बना रहे हैं।
हमारे
लिए, कंटेनमेंट, जिसके
साथ लॉकडाउन अपरिहार्य है, की वजह से काफी
आर्थिक और कल्याण सम्बंधी नुकसान हो रहा है, और
साथ में उपरोक्त लाभ मिल नहीं रहे हैं। गरिमा, और
रोज़गार की हानि, आर्थिक झटका और
प्रवासियों पर मानसिक आघात जैसे नुकसान के रिपोर्टें बखूबी दर्ज हुई हैं।
यह
अभी तक स्पष्ट नहीं है कि हमारी आक्रामक कंटेनमेंट रणनीति लागत-लाभ विश्लेषण पर
आधारित है भी या नहीं। यदि कंटेनमेंट विफल हो गया है तो इन तरीकों को जारी रखने का
कारण मुख्य रूप से प्रशासनिक है न कि चिकित्सकीय। फिर भी आज तक हमारे पास संक्रमण,
इसके भूगोल और इसकी गतिशीलता से सम्बंधित अन्य बुनियादी
सवालों के जवाब देने के लिए कोई अनुभवजन्य प्रणाली नहीं है। या तो हमारे वैज्ञानिक
संस्थानों ने इस तरह का डैटा मांगा नहीं या फिर हमारे नौकरशाहों ने प्रदान नहीं
किया। इस तरह के विश्लेषण और मार्गदर्शन के अभाव में राज्य अपनी-अपनी कंटेनमेंट और
उन्मूलन की योजनाएं बना रहे हैं। राज्यों द्वारा अलग-अलग दिशाओं में कार्य करने से काफी लंबे
समय तक राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के सभी स्तरों के वियोजित और अव्यवस्थित होने की
संभावना है।
हमें
स्थिति ‘बी’ पर विचार करना चाहिए
कि कंटेनमेंट विफल हो गया है। इसका एक संकेत है कि नए-नए संक्रमित समूह उभरते जा रहे हैं। या
शायद यह बीमारी पहले से ही लक्षण-रहित संक्रमित व्यक्तियों (वाहकों) के माध्यम से फैल चुकी है। दोनों ही
स्थितियों में गांवों, कस्बों और शहरों की
एक बड़ी आबादी के देर-सबेर
संक्रमित होने की आशंका है। इस नए तथ्य और भविष्य में लंबी लड़ाई के प्रबंधन के लिए
एक योजना की आवश्यकता है। दुर्भाग्य से, इस
संभावित परिणाम की तैयारी के लिए हमारे पास ठोस जानकारी की काफी कमी है।
तो
चलिए, एक ख्याली प्रयोग की मदद से हम एक संभावित
प्लान ‘बी’ की तैयारी करते हैं।
इसके लिए सबसे पहला काम तो भोजन और आवश्यक सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना होगा
जो प्लान ‘ए’ में भी है। अगला काम
प्रतिबंधों की एक समयबद्ध योजना और भूगोल निर्धारित करना है ताकि स्वास्थ्य के
जोखिमों को न्यूनतम किया जा सके। और अंतिम कार्य यह होगा कि पूरी उथल-पुथल का
अर्थव्यवस्था पर और लोगों के कल्याण, खास
कर कमज़ोर वर्ग के लोगों पर हानिकारक प्रभाव कम से कम रहे। इसके लिए यह सुनिश्चित
करना होगा कि अर्थव्यवस्था के कुछ हिस्से कार्यशील रहें और वेतन अर्जित होता रहे।
शुक्र है कि कम से कम ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए तो इसके बारे में सोचा गया
है।
स्वास्थ्य
और कल्याण
यहां
सिर्फ स्वास्थ्य और कल्याण पर ध्यान देते हैं। संक्रमण के प्रमुख संकेतक बहुत बुरे
नहीं हैं। विभिन्न रिपोर्ट्स के अनुसार भारत की कुल आबादी के 8 से 30 प्रतिशत के बीच
संक्रमित होने की संभावना है जो कई महीनों में फैले चक्रों में हो सकता है। यह
प्रतिशत किसी समाज में व्यक्ति-से-व्यक्ति
संपर्क की दर पर निर्भर करता है। ऐसे में घनी शहरी आबादियों की अपेक्षा ग्रामीण
समुदाय फायदे में है। लॉकडाउन यानी संपर्क दरों में अस्थायी कटौती की मदद से,
संक्रमण को स्थगित किया जा सकता है,
कुल संक्रमणों की संख्या को कम नहीं किया जा सकता। किसी-किसी मामले में
अधिकतम संक्रमण वाला हिस्सा (शिखर) अधिक फैला हुआ नज़र आता है। अर्थात अधिकतम संक्रमण वाली
स्थिति एक लंबी अवधि में फैली होती है। अधिकांश संक्रमण हल्के-फुल्के होते हैं,
और एक अनुमान के मुताबिक मात्र लगभग 10-15 प्रतिशत संक्रमित लोगों को ही अस्पताल में
भर्ती करने की आवश्यकता होती है। यानी हमारी आबादी के लगभग 2 प्रतिशत लोगों को अस्पताल जाने की आवश्यकता
हो सकती है। मृत्यु दर काफी कम रहने का अनुमान है – लगभग 5 प्रति 1000 जनसंख्या। तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो
डब्ल्यूएचओ के अनुसार वर्ष 2018 में टी.बी. के 20 लाख नए मामले सामने
आए थे (1.3 प्रति
1000 जनसंख्या) और 4 लाख लोगों की मृत्यु
हुई थी।
ऐसा
पहली बार हुआ है जब कोविड-19 के
कारण भारत के शीर्ष 20 प्रतिशत
को रुग्णता का सामना करना पड़ा जो निचले 80 प्रतिशत के लिए एक सामान्य बात है। इसके
अलावा, इन दो वर्गों के
जीवन के परस्पर सम्बंध और परस्पर विरोधी हितों को अभी भी पूरी तरह से समझा नहीं
गया है। सबसे पहले तो इसके परिणामस्वरुप मलिन बस्तियों में लोगों की स्थिति तथा
उनके कल्याण में यकायक रुचि पैदा हुई है और सामूहिक कार्यवाही के उपदेश दिए जा रहे
हैं। अगली बात कि शीर्ष 20 प्रतिशत
के लिए कंटेनमेंट और उन्मूलन सबसे पसंदीदा रणनीति है। यह रणनीति वैश्विक विचारों
के अनुरूप है, यह टेक्नॉलॉजी-आधारित है और यह उन
चिकित्सीय संसाधनों से मेल खाती है जो उस वर्ग की पहुंच में हैं। दूसरी ओर,
निचले 80 प्रतिशत की प्राथमिक चिंता सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली और
बुनियादी कल्याणकारी कार्यक्रमों के माध्यम से रोग का प्रबंधन करना है। दुर्भाग्य
से, रोग प्रबंधन और उसकी तैयारी पर उतना ध्यान
नहीं दिया गया है जितना रोग के विज्ञान, प्रसार
के अनुमान और परीक्षण के तामझाम पर दिया गया।
मान
लेते हैं कि हम संक्रमण के शिखर को लंबी अवधि में फैलाने में सफल हो जाते हैं,
लेकिन फिर भी कोविड-19 मरीज़ों के लिए प्रति 1000 जनसंख्या पर 1 या 2 बिस्तरों की ज़रूरत होगी। यदि हम यह मानें
कि अन्य मौजूदा बीमारियों के मरीज़ों के लिए प्रति 1000 जनसंख्या 1 बिस्तर की ज़रूरत होगी तो हमें कुल 2 से 3 बिस्तर प्रति 1000 जनसंख्या की ज़रूरत
होगी। यानी पूरे भारत के लिए लगभग 30 लाख अस्पताली बिस्तरों की ज़रूरत होगी। विश्व बैंक का अनुमान
है कि हमारे पास 0.7 से 1.0 के बीच बिस्तर
उपलब्ध हैं, यानी पूरे देश में
केवल 9-13 लाख
बिस्तर हैं जो देखभाल के अलग-अलग स्तर के हैं। कागज़ों पर हमारे पास लगभग 10 लाख डॉक्टर और 17 लाख नर्सें हैं।
लेकिन विभिन्न राज्यों में इनका वितरण असमान है और ये प्राय: शहरों में केंद्रित है। ऐसे में इन
सुविधाओं तक पहुंच एवं परिवहन काफी महत्वपूर्ण होगा। वेंटीलेटर के अलावा शेष उपचार
काफी सरल है। वेंटीलेटर का निर्माण अब नवाचार का विषय बन गया है जबकि भारत में कई
दशकों से गरीब लोग निमोनिया से मरते रहे हैं।
स्थानीयता
संक्षेप
में, संभावना यह है कि 80 प्रतिशत मामलों में इलाज घर या गांव या
मोहल्ले के भीतर ही किया जाएगा, जब तक कि बाहरी मदद
की ज़रूरत न पड़ें। उम्मीद की जानी चाहिए कि वे बहुत अधिक बीमार न हो जाएं। इसलिए
परिवारों को सूचना, मार्गदर्शन और
सहायता देने का काम बहुत महत्वपूर्ण है और इसके कई चरण हैं।
सबसे
पहले क्षेत्र-अनुसार
कोविड-19 दवाइयों
और अन्य सामग्री (जैसे
थर्मामीटर और मास्क) के
पैकेट तथा देखभाल करने के निर्देश तैयार करना होगा। इसमें महत्वपूर्ण बिंदुओं और
कार्यों को शामिल किया जाना चाहिए, जैसे रोगी को निकटतम
अस्पताल तक ले जाना। इनमें से कुछ परिवार वैज्ञानिक शोघ हेतु डैटा भी दे सकते हैं।
इसके
बाद हमें यह निर्णय लेना चाहिए गांव और वार्ड स्तर के स्वास्थ्य कार्यकर्ता किस
तरह की मदद प्रदान कर सकते हैं। इसके आधार पर ऑक्सीजन मापन उपकरण और अन्य सहायक
उपकरणों के लिए उपयुक्त किट और प्रशिक्षण की व्यवस्था की जा सकती है। इसमें
संक्रमण के समय क्वारेंटाइन और सामुदायिक संसाधनों को साझा करने सम्बंधी दिशा-निर्देश भी शामिल
होना चाहिए। उपकरणों, सुविधाओं और सामग्री
के मामलों में ज़िला और उप-ज़िला
अस्पतालों की तैयारियों का एक स्वतंत्र मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
अंत
में, बिस्तरों और सुविधाओं की उपलब्धता पर लाइव
अपडेट प्रदान किए जाने चाहिए। कई गंभीर रोगियों की मौत समय पर उपयुक्त अस्पताल न
मिलने के कारण हुई है। स्थानीय स्तर पर इन जानकारियों या तैयारियों का एक सामान्य
विश्लेषण अभी भी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है। जैसे,
महाराष्ट्र में उच्च मृत्यु दर और केरल या पंजाब में कम
मृत्यु दर, और स्वास्थ्य
प्रबंधन के तौर-तरीकों
का कोई विश्लेषण उपलब्ध नहीं है।
इस
सब में निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा निरीक्षण काफी महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही
स्थानीय वैज्ञानिक और सामाजिक एजेंसियों और संस्थानों की सहायता और जुड़ाव काफी
मददगार होगा। संकट की इस घड़ी में लंबे समय तक समन्वय,
पेशेवर कौशल और संवेदना की आवश्यकता होगी। यह केवल इन्हीं
वैज्ञानिक और सामाजिक एजेंसियों और संस्थाओं के पास उपलब्ध है। इस तरह की लामबंदी
कई देशों में उपयोगी साबित हुई है। दुर्भाग्यवश, भारत
में स्थानीय एजेंसियों की भूमिका को दोषपूर्ण विशेषज्ञ-शाही और उसके समर्थक राजनीतिक सिद्धांतों
द्वारा बाधित कर दिया गया है।
शहरी
क्षेत्रों का प्रबंधन प्रशासनिक दुस्वप्न से कम नहीं है। अंधाधुंध लॉकडाउन से शायद
अपेक्षित स्वास्थ्य सम्बंधी परिणाम न मिलें। कुछ लोगों के लिए तो शहरी चाल में
रहने से बेहतर तो अपने ग्रामीण इलाकों में रहना होगा बशर्ते कि वे संक्रमण अपने
साथ न ले जाएं। इसलिए नियंत्रित प्रवास की अनुमति देते हुए यातायात प्रतिबंधों में
ढील देने पर विचार किया जाना चाहिए। सार्वजनिक परिवहन को नियंत्रित तरीके और नई
सारणी के साथ शुरू किया जाना चाहिए। शहर, तालुका
और गांवों को प्रवासियों के परीक्षण और क्वारेंटाइन सम्बंधी निर्देश दिए जाने
चाहिए।
ऐसे
कई लोग होंगे जिनके पास भोजन, काम,
पैसा या उचित कागज़ात तक नहीं हैं। पीडीएस और अन्य
कल्याणकारी योजनाओं को संशोधित प्रक्रियाओं के तहत आवश्यक सामग्री वितरित करना
चाहिए। गर्मी का मौसम नज़दीक है और ऐसे में पेयजल की समस्या शुरू हो जाएगी। संक्रमण
को नियंत्रण में रखने के लिए इन मूलभूत सुविधाओं का सुचारु संचालन आवश्यक है। इसके
लिए, सभी स्तरों पर आवश्यकतानुसार राज्य सरकार
के कर्मचारियों को विभिन्न विभागों में तैनात किया जाना चाहिए और साथ ही इसमें
ज़िम्मेदारी सौंपने सम्बंधी प्रोटोकॉल का पालन किया जाना चाहिए। हाल ही के वर्षों
में सरकारी कर्मचारियों ने एक सुरक्षित जीवन व्यतीत किया है और अब उनके लिए एक
आदर्श कार्य करके दिखाने का अवसर है।
प्लान
बी की स्थिति
इस
प्रकार, निचले 80 प्रतिशत लोगों के
स्वास्थ्य और कल्याण के लिए सुशासन, अनुमेयता
और तैयारी काफी महत्वपूर्ण हैं। ये उतने ही मापन और विश्लेषण-योग्य हैं जितने रोग के मापदंड। लॉकडाउन
सीमित उद्देश्य पूरे करते हैं, और वह भी केवल तब जब
वे तैयारियों में सुधार की अवधि बनें। अन्यथा, इससे
केवल वेतन तथा आजीविका में बाधा आएगी और अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी। ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है
कि सभी सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों (कारखानों, दफ्तरों,
संस्थानों, बस डिपो,
बाज़ारों, रेस्तरां तथा होटल
और सम्मेलनों में) में
दीर्घकालिक रूप से संपर्क दर में कमी हो। शुक्र है कि इस तरह के दिशानिर्देश अब
सामने आ रहे हैं। ये सभी दिशानिर्देश प्लान बी का निर्माण करते हैं। इसके बिना कई
लोगों के अनिश्चित जीवन पर भयानक प्रभाव होंगे।
लोगों
को सामाजिक दूरी सीखना चाहिए, व्यवहार परिवर्तन को
अपनाना चाहिए और समुदायों को बातचीत में एक नई शब्दावली अपनाना चाहिए। यह रोग इसी
की मांग करता है। इसके साथ ही यह मांग करता है कि शासन उच्चतर स्तर का हो। इस नई
सामान्य स्थिति को बनाने और बनाए रखने में हमारे वरिष्ठ नौकरशाह और वैज्ञानिक और
उनका टीमवर्क निर्णायक कारक होगा। प्लान बी की सफलता इस सामाजिक समझ और हमारे
नेताओं द्वारा प्रमुख विचारों को संप्रेषित करने की क्षमता तथा इस प्रणाली में विश्वास
बनाए रखने पर निर्भर करती है।
संक्षेप
में प्लान बी, राज्य की तैयारियों
के रूबरू व्यक्तिगत और सामुदायिक स्तर पर व्यवहार परिवर्तन का एक नपा-तुला प्रयोग है। यह
स्वीकार करना होगा कि विभिन्न रणनीतियों के लिए लागत,
लाभ और जोखिम अलग-अलग होते हैं और रोग की जनांकिकी और सुशासन
को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। इसके अलावा, रोग
की गतिशीलता स्वास्थ्य सम्बंधी उद्देश्यों, आर्थिक
और सामाजिक व्यवधानों और समग्र कल्याण के बीच संतुलन की कई दिशाओं या कार्यक्रमों
की अनुमति देती है। प्रत्येक देश को अपनी क्षमताओं और प्राथमिकताओं के आधार पर
अपनी रणनीति तैयार करना चाहिए और हमें भी ऐसा ही करना चाहिए। ये सभी रणनीतियां
ज़मीनी यथार्थ के अनुकूल होनी चाहिए अन्यथा अधिकांश कष्ट बेकार जाएंगे। अक्सर
दक्षिण कोरिया या सिंगापुर की मिसाल दी जाती है, लेकिन
हमारी स्थिति इंडोनेशिया या थाईलैंड या जर्मनी के संतुलित दृष्टिकोण के अधिक करीब
है।
नए
युग के लिए सबक
अलबत्ता
यहां सीखने के लिए और भी बहुत कुछ है। अब यहां एथ्रोपोसीन युग की दुर्बलता बिलकुल
स्पष्ट है: हमारा
वैश्विक समाज, विशाल विज्ञान पर
उसकी निर्भरता और उस तक पहुंच में भारी असमानता। और भविष्य में हालात और बदतर हो
सकते हैं। वैश्विक आर्थिक नेतृत्व तो अब वायरस द्वारा निर्मित जोखिम का प्रबंधन
करने के लिए एक ‘पासपोर्ट’ प्रणाली का प्रस्ताव
दे रहा है। इसमें राष्ट्रों के लिए पहला कदम होगा अपनी अर्थव्यवस्था के भीतर ‘सुरक्षित’ और ‘असुरक्षित’ क्षेत्रों का एक
वर्गीकरण तैयार करना, जिससे ‘लौटने के लिए
सुरक्षित’ श्रमिक
एक सुरक्षित वातावरण में काम कर सकेंगे। कहा जा रहा है कि यह एक नई और सुरक्षित वैश्विक
अर्थव्यवस्था के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करेगा। ‘सुरक्षित’ अर्थव्यवस्था में पदार्पण इलेक्ट्रॉनिक
माध्यम से व्यक्ति के संपर्कों का इतिहास खोजने, उन्नत
परीक्षण तकनीकों और उच्च तकनीक वाले गैजेट्स पर आधारित हो सकता है। इनमें कई
खामियां हैं और यह स्पष्ट नहीं है कि नई वैश्विक अर्थव्यवस्थाएं इन लागतों को वहन
कर पाएंगी या नहीं। लेकिन यह निश्चित रूप से श्रमिक वर्ग के लिए आर्थिक विकल्पों
को सीमित कर देगा। राजनीतिक रूप से भी यह भारत सहित कई देशों को एक निगरानी-अधीन राज्य के करीब
ले जाएगा।
इस
बात की पूरी संभावना है कि भारतीय अभिजात्य वर्ग इस प्रणाली में स्वयं तो शामिल
होगा ही और हमें भी घसीट लेगा। इसके लिए भारत को अपनी मौजूदा प्रणाली को इसके
अनुकूल ढालना होगा और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के भीतर इस वर्गीकरण को विकसित करना
होगा। हमारे, औपचारिक और
अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों को अपने खर्चे से शायद यह साबित करना पड़े कि वे
नौकरी पाने के लिए ‘सुरक्षित’ हैं। यह तो जोखिमों
के समाजीकरण के सर्वथा विपरीत है। निश्चित रूप से भारतीय अनौपचारिक अर्थव्यवस्था
हमारी उच्च शिक्षा प्रणाली का प्रतिरूप है जिसमें हम यह चुनते हैं कि किस चीज़ का
औपचारिक रूप से अध्ययन करेंगे और किसको अनदेखा कर देंगे। हमारी सार्वजनिक
स्वास्थ्य नीतियां शायद अर्थव्यवस्था के निचले छोर पर और अधिक अनौपचारिकरण और
विखंडन पैदा करेंगी।
कोविड-19 संकट
भारतीय वैज्ञानिक प्रतिष्ठान के लिए एक और चेतावनी है
यह संकट याद दिलाता है कि आसपास के क्षेत्र की समस्याओं पर ध्यान देने और बुनियादी सेवाओं की वितरण प्रणालियों का निरीक्षण करने से भी विज्ञान के उद्देश्य की पूर्ति होती है। ये वास्तव में नई तकनीकों के, नवाचार के, अपने समाज को नए ढंग से संगठित करने और अपने हितों को पूरा करने के स्थल हैं। लेकिन इसके लिए विज्ञान करने के हमारे तरीकों में व्यापक परिवर्तन की ज़रूरत है। कई दशकों से हम नए टीकों और नई गाड़ियों का मुफ्त में लुत्फ उठा रहे हैं, यह जाने बिना कि इनके उत्पादन में किस तरह के अनुशासन, रचनात्मकता और सामाजिक समझ बूझ की आवश्यकता होती है। हम काफी लंबे समय से उधार के विज्ञान पर गुज़ारा कर रहे हैं, अब उधार की बीमारी का सामना करने की भी तैयारी कर लेनी चाहिए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.meed.com/Uploads/NewsArticle/7852720/main.gif
आज
जलवायु परिवर्तन और बढ़ते वैश्विक तापमान की समस्या और इसके कारणों से हम वाकिफ हैं
और इसे नियंत्रित करने के प्रयास में लगे हैं। अब तक इस समस्या के कारण को समझने
का श्रेय जॉन टिंडल को दिया जाता है। लेकिन युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के
विज्ञान इतिहासकार जॉन पर्लिन का कहना है कि जलवायु परिवर्तन की हमारी समझ की नींव
रखने का श्रेय युनिस फुट को जाता है। फुट ने कार्बन डाईऑक्साइड के ऊष्मीय प्रभाव
का अध्ययन किया था जो वर्ष 1856 में सूर्य की
किरणों की ऊष्मा को प्रभावित करने वाली परिस्थितियां शीर्षक से प्रकाशित हुआ
था। जॉन टिंडल का कार्य तीन वर्ष बाद प्रकाशित हुआ था।
पर्लिन
बताते हैं कि 1856 में न्यूयॉर्क में अमेरिकन एसोसिएशन फॉर
एडवांसमेंट ऑफ साइन्स की 10वीं वार्षिक बैठक
में फुट का पेपर प्रस्तुत किया गया था। तब महिलाओं को अपना काम प्रस्तुत करने की
अनुमति नहीं थी इसलिए उनके पेपर को एक अन्य वैज्ञानिक ने प्रस्तुत किया था। इसे
बैठक की कार्यावाही में नहीं बल्कि अमेरिकन जर्नल ऑफ साइंस एंड आर्ट्स में
एक लघु लेख के रूप में प्रकाशित किया गया था। अपने इस अध्ययन में उन्होंने नम और
शुष्क वायु, और
कार्बन डाईऑक्साइड,
हाइड्रोजन और ऑक्सीजन गैसों पर सूर्य के प्रकाश का प्रभाव
देखा था। अध्ययन में फुट ने पाया कि सूर्य के प्रकाश का सर्वाधिक प्रभाव कार्बोनिक
एसिड गैस पर होता है। उनके अनुसार वायुमंडल में मौजूद इस गैस के कारण हमारी पृथ्वी
के तापमान में वृद्धि हुई होगी।
इस
बारे में 13 सितंबर के साइंटिफिक अमेरिकन के अंक
में वैज्ञानिक महिलाएं – संघनित
गैसों के साथ प्रयोग शीर्षक से एक लेख भी प्रकाशित हुआ था।
इसके एक साल बाद अगस्त 1857 में उन्होंने एक
अन्य अध्ययन प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने वायु पर बदलते दाब, ताप और नमी के
प्रभावों का अध्ययन किया और इसे वायुमंडलीय दाब और तापमान में होने वाले
परिवर्तनों से जोड़ा।
उन्होंने
कई आविष्कारों के पेटेंट के लिए आवेदन किए। अमेरिकी महिलाओं के मताधिकार और बंधुआ
मज़दूरी के खिलाफ आंदोलन में भी उनकी सक्रिय भागीदारी रही।
फुट के काम के बारे में पता चलने के बाद एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि क्या लंदन के रॉयल इंस्टीट्यूशन में काम कर रहे टिंडल अपने शोध प्रकाशन के समय फुट के काम से वाकिफ थे? पर्लिन का मत है कि टिंडल वाकिफ थे क्योंकि फुट के शोधपत्र की रिपोर्ट और सारांश कई युरोपीय पत्रिकाओं में पुन: प्रकाशित किए गए थे। रॉयल इंस्टीट्यूशन में अमेरिकन जर्नल ऑफ साइंस एंड आर्ट्स पत्रिका पहुंचती थी और नवंबर 1856 के जिस अंक में फुट का लेख प्रकाशित हुआ था, उसी में वर्णांधता पर टिंडल का भी एक लेख छपा था। दी फिलॉसॉफिकल मैगज़ीन में भी फुट का लेख प्रकाशित हुआ था, जिसके संपादक टिंडल थे। इसके अलावा, फुट के लेख का सार जर्मन भाषा में साल की महत्वपूर्ण खोज के संकलन के रूप में प्रकाशित हुआ था। टिंडल जर्मन भाषा के जानकार थे। पर्लिन का कहना है कि फुट को उनके काम का श्रेय ना मिलने की पहली वजह तो यह हो सकती है कि वे ये प्रयोग शौकिया तौर पर करती थीं; दूसरा, उस वक्त तक अंग्रेज़ अपने को अमरीकियों से श्रेष्ठ मानते थे; और तीसरा, कि वह एक महिला थीं। टिंडल खुद महिलाओं के मताधिकार के विरोधी थे और महिलाओं का बौद्धिक स्तर पुरुषों से कम मानते थे। बहरहाल, पर्लिन का मत है कि फुट को जलवायु परिवर्तन की समझ की जननी के रूप में जाना जाए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://rosslandtelegraph.com/sites/default/files/newsimages/rosslandtelegraphcom/mar/eunice_newton_foote_climatescience.png
कोविड-19 से निपटने के लिए दुनिया भर में तरह-तरह
के प्रयास किए जा रहे हैं। और अब हाल ही में शोधकर्ता इससे निपटने के लिए मानव
चुनौती अध्ययन करना चाहते हैं।
मानव
चुनौती अध्ययन में किसी रोग के लिए दवा, टीके वगैरह की प्रभाविता जांचने के लिए
जानबूझर कर लोगों को उस रोग से संक्रमित किया जाता है और फिर उन पर अध्ययन किया
जाता है। इसलिए यह अध्ययन जोखिम पूर्ण हो सकता है, और साथ में लोगों की
सुरक्षा और नैतिकता का सवाल भी पैदा करता है।
कई
चिकित्सा समूह और कंपनिया कोरोनावायरस का टीका विकसित करने के प्रयास में लगी हुई
हैं। इन प्रयासों में पहले तो हज़ारों स्वस्थ लोगों को या तो टीका या प्लेसिबो (छद्म-टीका) लगाया जाता है और फिर नज़र रखी जाती है कि इनमें से कौन से
व्यक्ति संक्रमित हुए। लेकिन इस प्रक्रिया में काफी वक्त लगता है, इसलिए वेटलिस्ट ज़ीरो
नामक अंगदान समूह के कार्यकारी निदेशक जोश मॉरिसन वन डे सूनर नामक मानव
चुनौती अध्ययन करना चाहते हैं जिसमें वे स्वस्थ व युवा वालंटियर्स को जानबूझ कर
कोविड-19 से संक्रमित कर टीके की कारगरता जांचना चाहते
हैं। सैद्धांतिक रूप से मानव चुनौती परीक्षण में कम वक्त लगता है। गौरतलब है कि वन
डे सूनर कोरोना वायरस के लिए टीका तैयार करने वाले किसी समूह, कंपनी या वित्तीय
संस्थान से सम्बद्ध नहीं है।
मॉरिसन
का कहना है कि हम अपने अध्ययन में अधिक से अधिक वालंटियर शामिल करना चाहते हैं। और
अध्ययन में उन्हीं वालंटियर्स को शामिल किया जाएगा जो परीक्षण के लिए स्वस्थ होंगे।
वैसे इस अध्ययन के लिए लगभग 1500 वालंटियर्स समाने आए
हैं। जो लोग इस परीक्षण का हिस्सा बनने के लिए तैयार हैं वे युवा हैं और शहरी
क्षेत्रों में रहते हैं,
और कोरोनोवायरस महामारी से निपटने के लिए कुछ कर गुज़रने की
ख्वाहिश रखते हैं। इनमें से कई लोगों का कहना है कि वे इस अध्ययन के जोखिमों से
परिचित है लेकिन यदि इससे टीका जल्दी उपलब्ध हो सकता है तो वे इतना जोखिम उठा सकते
हैं। वैसे इसके पहले भी इन्फ्लूएंज़ा और मलेरिया जैसी बीमारियों के लिए मानव चुनौती
अध्ययन किए जा चुके हैं।
लंदन स्थित वेलकम की टीका कार्यक्रम प्रमुख चार्ली वेलेर का कहना है कि कोरोनावायरस के खिलाफ टीका विकसित करने के लिए मानव चुनौती परीक्षण की नैतिकता और क्रियांवयन पर चर्चा चल रही है। लेकिन अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि मानव चुनौती परीक्षण से वास्तव में टीका जल्दी तैयार करने में मदद मिलेगी। बहरहाल शोधकर्ताओं को पहले यह निर्धारित करने की आवश्यकता है कि कैसे सुरक्षित तरीके से लोगों को वायरस से संक्रमित किया जाएगा, और कैसे और किस हद तक अध्ययन को नैतिक तरीके से किया जाएगा ताकि वालंटियर्स के स्वास्थ्य को कोई खतरा न हो।(स्रोत फीचर्स)
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