दुनिया
भर में प्लास्टिक रिसाइक्लिंग एक बड़ी समस्या है। नेचर पत्रिका में प्रकाशित
शोध के मुताबिक इस समस्या के समाधान में शोधकर्ताओं ने हाल ही में एक ऐसा एंज़ाइम
तैयार किया है जो प्लास्टिक को 90 प्रतिशत तक रिसाइकल कर सकता है।
पॉलीएथिलीन
टेरेथेलेट (PET) दुनिया में सर्वाधिक
इस्तेमाल होने वाला प्लास्टिक है। इसका सालाना उत्पादन लगभग 7 करोड़ टन है। वैसे तो अभी भी PET का पुनर्चक्रण किया जाता है लेकिन इसमें समस्या यह है कि
पुनर्चक्रण के लिए कई रंग के प्लास्टिक जमा होते हैं। जब इनका पुनर्चक्रण किया
जाता है तो अंत में भूरे या काले रंग का प्लास्टिक मिलता है। यह पेकेजिंग के लिए आकर्षक
नहीं होता इसलिए इसे या तो चादर के रूप में या अन्य निम्न-श्रेणी के फाइबर प्लास्टिक में बदल दिया
जाता है। और अंतत: इसे
या तो जला दिया जाता है या लैंडफिल में फेंक दिया जाता है जिसे पुनर्चक्रण तो नहीं
कहा जा सकता।
इसी
समस्या के समाधान में वैज्ञानिक एक ऐसे एंज़ाइम की खोज में थे जो PET और अन्य प्लास्टिक का पुनर्चक्रण कर सके। 2012 में ओसाका विश्वविद्यालय
के शोधकर्ताओं को कम्पोस्ट के ढेर में LLC
नामक एक एंज़ाइम मिला था जो PET के
दो बिल्डिंग ब्लॉक, टेरेथेलेट और एथिलीन
ग्लायकॉल, के बीच के बंध को
तोड़ सकता है। प्रकृति में इस एंज़ाइम का काम है कि यह कई पत्तियों पर मौजूद मोमी
आवरण का विघटन करता है। LLC सिर्फ पीईटी बंधों को तोड़ सकता है और वह
भी धीमी गति से। लेकिन यदि तापमान 65 डिग्री सेल्सियस हो तो कुछ समय काम करने के बाद यह नष्ट हो
जाता है। इसी तापमान पर तो PET नरम होना शुरू होता है और तभी एंज़ाइम
आसानी से प्लास्टिक के बंध तक पहुंचकर उन्हें तोड़ सकेगा।
हालिया
शोध में प्लास्टिक कंपनी कारबायोस के एलैन मार्टी और उनके साथियों ने इस एंज़ाइम
में कुछ फेरबदल किए। उन्होंने उन अमिनो अम्लों का पता किया जिनकी मदद से यह एंज़ाइम
टेरेथेलेट और एथिलीन ग्लाइकॉल समूहों के रासायनिक बंध से जुड़ता है। उन्होंने इस
एंज़ाइम को उच्च तापमान पर काम करवाने के तरीके भी खोजे।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने ऐसे सैकड़ों परिवर्तित एंज़ाइम्स की मदद से PET प्लास्टिक का पुनर्चक्रण करके देखा। कई प्रयास के बाद उन्हें एक ऐसा परिवर्तित एंज़ाइम मिला जो मूल LLC की तुलना में 10,000 गुना अधिक कुशलता से PET बंध तोड़ सकता है। यह एंज़ाइम 72 डिग्री सेल्सियस पर भी काम करता है। प्रायोगिक तौर पर इस एंज़ाइम ने 10 घंटों में 90 प्रतिशत 200 ग्राम PET का पुनर्चक्रण किया। इस प्रक्रिया से प्राप्त टेरेथेलेट और एथिलीन ग्लायकॉल से PET और प्लास्टिक बोतल तैयार किए गए जो नए प्लास्टिक जितने मज़बूत थे। हालांकि अभी स्पष्ट नहीं है कि यह आर्थिक दृष्टि से कितना वहनीय होगा लेकिन इसकी खासियत यह है कि इससे जो प्लास्टिक मिलता है वह नए जैसा टिकाऊ और आकर्षक होता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.fastcompany.net/image/upload/w_937,ar_16:9,c_fill,g_auto,f_auto,q_auto,fl_lossy/wp-cms/uploads/2019/10/p-1-90412215-hitachi-wants-to-use-a-plastic-eating-enzyme-to-clean-up-plastic-pollution-1.jpg
क्या
आपको कभी ऐसा आभास हुआ है कि जो दृश्य आप अभी देख रहे हैं वह पहले भी देख चुके हैं
या जो घटना अभी आपके साथ घट रही है हू-ब-हू
वही घटना आपके साथ पहले भी घट चुकी है। यदि आपने ऐसा महसूस किया है तो इस आभास को देजा
वू कहते हैं। देजा वू फ्रेंच शब्द है जिसका मतलब है ‘पहले देखा गया’। लेकिन देजा वू
का एहसास होता क्यों है?
आम
तौर पर इस एहसास को रहस्यमयी और असामान्य माना जाता है। अलबत्ता,
इसे समझने के लिए वैज्ञानिकों ने कई अध्ययन किए हैं।
प्रायोगिक तौर पर सम्मोहन और आभासी यथार्थ के इस्तेमाल से ऐसी स्थितियां उत्पन्न
की गई हैं जिनमें देजा वू का एहसास हो।
इन
प्रयोगों से वैज्ञानिकों का अनुमान था कि देजा वू एक स्मृति आधारित घटना
है। यानी देजा वू में हम एक ऐसी स्थिति का सामना करते हैं जो हमारी किसी
वास्तविक समृति के समान होती है। लेकिन उस स्मृति को हम पूरी तरह याद नहीं कर पाते
हैं तो हमारा मस्तिष्क हमारे वर्तमान और अतीत के अनुभवों के बीच समानता पहचानता
है। और हमें एहसास होता है हम इस स्थिति से परिचित हैं। इस व्याख्या से इतर,
अन्य सिद्धांत भी हैं जो यह समझाने का प्रयास करते हैं कि
हमारी स्मृति ऐसा व्यवहार क्यों करती हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यह हमारे मस्तिष्क
के कनेक्शन में घालमेल का नतीजा है जो लघुकालीन स्मृति और दीर्घकालीन स्मृति के
बीच गड़बड़ पैदा कर देता है। इसके फलस्वरूप, बनने
वाली नई स्मृति लघुकालीन स्मृति में बने रहने की बजाय सीधे दीर्घकालीन समृति में
चली जाती है। जबकि कुछ लोगों का कहना है कि यह राइनल कॉर्टेक्स के कारण होता है जो
मस्तिष्क में किसी स्मृति के नदारद होने पर भी कभी-कभी इसके होने के संकेत देता है। राइनल
कॉर्टेक्स मस्तिष्क का वह हिस्सा है जो परिचित स्थिति महसूस होने के संकेत देता
है।
एक
अन्य सिद्धांत के अनुसार देजा वू झूठी यादों से जुड़ा मामला है,
ऐसी यादें जो वास्तविक महसूस होती हैं लेकिन होती नहीं। ठीक
सपने और वास्तविक घटना की तरह।
एक अन्य अध्ययन में 21 लोगों को देजा वू का एहसास कराया गया और उस समय उनके मस्तिष्क का fMRI की मदद से स्कैन किया गया। इस अध्ययन में दिलचस्प बात यह पता चली कि देजा वू के वक्त मस्तिष्क का स्मृति के लिए ज़िम्मेदार हिस्सा, हिप्पोकैम्पस, सक्रिय नहीं था बल्कि मस्तिष्क का निर्णय लेने वाला हिस्सा सक्रिय था। वैज्ञानिक अब तक देजा वू को स्मृति से जोड़कर देख रहे थे। इन परिणाम के आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि देजा वू हमारे मस्तिष्क में किसी तरह के विरोधाभास को सुलझाने के लिए उत्पन्न होता होगा।(स्रोत फीचर्स)
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कोविड-19 के लिए दो मलेरिया
रोधी दवाओं, क्लोरोक्वीन और
हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन, के उपयोग को लेकर
काफी राजनैतिक बहस हो रही है। राजनेताओं के दावों के परिणामस्वरूप,
फ्रांसीसी चिकित्सकों पर कोविड-19 के गंभीर रोगियों पर
हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन का उपयोग करने का दबाव बनाया जा रहा है। 4.6 लाख लोग एक याचिका
पर हस्ताक्षर भी कर चुके हैं कि इसे व्यापक रूप से उपलब्ध करवाया जाए। इसकी वकालत
की अगुआई करने वाले डिडिएर राउल्ट एक विवादास्पद और राजनीति से जुड़े सूक्ष्मजीव
विज्ञानी हैं।
हाल
ही में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों से राउल्ट की मुलाकात ने मामले को
हवा दी है। फ्रांसीसी जनमत संग्रह संस्थान के अनुसार फ्रांस की 59 प्रतिशत जनता
क्लोरोक्वीन को कोरोनावायरस के खिलाफ प्रभावी मानती है। यहां तक कि मैक्रों की
आर्थिक नीति का विरोध करने वाले समूह ‘येलो वेस्ट’ के 80 प्रतिशत लोग भी इसके समर्थन में हैं।
फ्रांस
के कई चिकित्सकों और विशेषज्ञों द्वारा इस दवा को नुस्खे में न लिखने पर निरंतर
धमकियां मिल रही हैं और इसे हासिल करने के लिए झूठी डॉक्टरी दवा पर्चियों का भी
उपयोग किया जा रहा है।
जहां
तक हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन का सवाल है, कोविड-19 के खिलाफ इसकी
प्रभाविता के कई अध्ययनों ने नकारात्मक या अस्पष्ट परिणाम दिए हैं। इसके सेवन से
ह्मदय गति में गड़बड़ सहित कई अन्य दुष्प्रभाव हो सकते हैं। राउल्ट के अध्ययनों में
सकारात्मक परिणामों को लेकर उनके अध्ययनों की सीमाओं और पद्धति सम्बंधी समस्याओं
की व्यापक रूप से आलोचना की जा रही है। इसमें उन्होंने केवल 42 रोगियों को शामिल किया और उसमें से भी
उन्होंने खुद चुना कि किसको दवा देनी है किसका प्लेसिबो से काम चलाना है। ऐसे
अध्ययन का नैदानिक शोध में कोई महत्व नहीं है। इंटरनेशनल सोसायटी फॉर माइक्रोबियल
कीमोथेरपी की शोध पत्रिका इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एंटीमाइक्रोबियल एजेंट्स में
प्रकशित इस पेपर से स्वयं सोसायटी ने असहमति जताई है। उनका दूसरा पेपर बिना समकक्ष
समीक्षा के प्रकाशित हुआ था।
राउल्ट
के अनुसार अस्पताल में सभी कोविड-19 रोगियों को हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन और एज़िथ्रोमाइसिन का
मिश्रण दिया गया और मृत्यु दर में काफी कमी आई थी।
ऐसे
में यह बात तो तय है कि राउल्ट को अपने राजनीतिक सम्बंधों से काफी फायदा मिला है।
फ्रांस के पूर्व उद्योग मंत्री ने भी एक टीवी साक्षात्कार में राउल्ट का समर्थन
किया है। इसके अलवा उनको चिकित्सा जगत में भी उच्च-स्तरीय समर्थन मिला है। उनके द्वारा चलाई
गई ऑनलाइन याचिका में चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों,
चिकित्सा अकादमियों के प्रमुख चिकित्सकों और यहां तक कि
फ्रांस के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री के हस्ताक्षर भी शामिल हैं।
लेकिन फ्रांस के कई वैज्ञानिक इस हानिकारक दवा की प्रभाविता के अल्प प्रमाण के बावजूद उपयोग को लेकर चिंतित हैं। 7 युरोपीय देशों में हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन और कई अन्य उपचारों की प्रभाविता का अध्ययन करने के लिए एक रैंडम परीक्षण शुरू किया गया है। पेरिस स्थित सेंट लुइस अस्पताल में संक्रामक रोग विभाग के पूर्व अध्यक्ष बर्गमन के अनुसार इस परीक्षण के लिए उनको लोग नहीं मिल रहे हैं चूंकि वे हायड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के अलावा कोई और उपचार लेना ही नहीं चाहते। बर्गमन का मानना है कि यह ‘चिकित्सा भीड़तंत्र’ है जो सत्य की खोज को मुश्किल कर रहा है।(स्रोत फीचर्स)
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जिस
समय सम्पूर्ण विश्व का ध्यान कोविड-19 से लोगों को बचाने पर केंद्रित है,
उस समय पश्चिमी अफ्रीका में वर्ष 2014-15 में उभरे इबोला संक्रमण प्रकोप के समय
समाधान के लिए उठाए गए कदमों को याद कर उनसे महत्त्वपूर्ण सबक लेने की आवश्यकता
है।
उस
समय स्वास्थ्य व्यवस्था के केंद्र में इबोला प्रकोप होने के कारण अन्य बीमारियों
की उपेक्षा हुई थी व उसके कारण होने वाली मौतों की संख्या में अच्छा-खासा इजाफा हो गया
था और यह आंकड़ा इबोला सम्बंधी मौतों से ज़्यादा था। अत: स्वास्थ्य व्यवस्था के प्रयासों को इबोला
पर आवश्यकता से अधिक केंद्रित करने पर प्रश्न चिंह लग गया था। इस सबक को याद करने
की ज़रूरत है क्योंकि कई देशों की पहले से कमज़ोर स्वास्थ्य व्यवस्था को कोविड-19 पर ही केंद्रित किया
जा रहा है।
विश्व
स्वास्थ्य संगठन ने इबोला अनुभवों को साझा करते हुए 30 मार्च 2020 को अपने बयान में कहा कि जब स्वास्थ्य
व्यवस्थाओं पर बोझ बढ़ता है तो वैक्सीन से रोकी जा सकने वाली एवं अन्य उपचार योग्य
बीमारियों से होने वाली मौतों का आंकड़ा अत्यधिक बढ़ता है। वर्ष 2014-15 में इबोला प्रकोप के
कारण स्वास्थ्य व्यवस्थाएं बहुत दबाव में आ गर्इं थीं और इस दौरान खसरा,
मलेरिया, एड्स और तपेदिक से
होने वाली मौतों का आंकड़ा बहुत तेज़ी से बढ़ गया था और इन कारणों से जो अतिरिक्त
मौतें हुर्इं वे इबोला के कारण हुर्इं मौतों से अधिक थी।
विश्व
स्वास्थ्य संगठन ने जिन अध्ययनों का हवाला दिया है उनमें जे. डब्ल्यू एल्सटॉन और उनके द्वारा किया
अध्ययन प्रमुख है। 2017 के दी
हैल्थ इम्पैक्ट्स ऑफ 2014-15 इबोला आऊटब्रेक
शीर्षक से प्रकाशित अध्ययन के अनुसार इबोला प्रकोप का प्रभाव गहरा और बहुआयामी था।
बढ़ते दबाव के कारण स्वास्थ्य व्यवस्था बुरी तरह चरमरा गई थी,
जिसका प्रभाव स्वास्थ्यकर्मियों की मौतों,
उपलब्ध संसाधनों को सिर्फ एक ओर मोड़ देने और कुछ स्वास्थ्य
सेवाओं को बंद कर देने में स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था।
इबोला
प्रभावित क्षेत्रों में मातृ प्रसव देखभाल में 80 प्रतिशत की कमी आ गई थी और छोटे बच्चों की
मलेरिया की स्थिति में संस्थागत देखभाल में 40 प्रतिशत तक की कमी आई थी। टीकाकरण
कार्यक्रम बुरी तरह प्रभावित हुए थे और बाल सुरक्षा में काफी कमी आई थी। रोगियों
की संख्या में वृद्धि और मृत्यु दर बढ़ गई थी और औसत आयु में काफी कमी आई। इस
अध्ययन में यह भी कहा गया था कि लोगों को शीघ्रता से ज़रूरी स्वास्थ्य सुविधाएं
उपलब्ध करवाने के लिए एवं स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को पुनस्र्थापित करने के लिए
अंतर्राष्ट्रीय समर्थन की आवश्यकता थी।
विश्व
स्वास्थ्य संगठन द्वारा जिस दूसरे अध्ययन का ज़िक्र किया गया वह ए. एस. पार्पिया और उनके
साथियों का वर्ष 2016 में
इफेक्ट ऑफ रिस्पांस टू 2014-15 इबोला आऊटब्रेक ऑन डेथ्स फ्रॉम मलेरिया,
एचआईवी–एड्स एंड ट्यूबरोक्लोसिस: वेस्ट अफ्रीका शीर्षक से प्रकाशित
अध्ययन था। इस अध्ययन के अनुसार पश्चिमी अफ्रीका में वर्ष 2014-15 में इबोला से निबटने के लिए स्वास्थ्य
व्यवस्थाओं पर इतना बोझ डाल दिया गया कि गुयाना, लाइबेरिया
और सिएरा लियोन में मलेरिया, एचआईवी/एड्स और टीबी जैसी
गंभीर बीमारियों के निदान एवं उपचार सम्बंधी स्वास्थ्य सेवाओं में बहुत कमी आ गई
थी।
इस
अध्ययन ने पाया था कि इबोला प्रकोप के दौरान स्वास्थ्य देखभाल में 50 प्रतिशत की कमी के
कारण इन तीन देशों में मलेरिया, एचआईवी/एड्स व तपेदिक से
होने वाली मौतों की संख्या मे बहुत वृद्धि हुई।
लैंसेट
इन्फेक्शियस डीसीज़ में प्रकाशित मैथ्यू वैक्समेन एवं साथियों
के अध्ययन में बताया गया है कि जो मरीज़ इबोला संक्रमण से प्रभावित नहीं थे पर तीन
इबोला उपचार इकाइयों में दाखिल किए गए थे उनकी मृत्यु दर 8.1 प्रतिशत यानी बहुत अधिक पाई गई।
इस
अध्ययन पर अपनी टिप्पणी देते हुए रोबर्ट कोलेबुंडर्स और उनके साथियों ने कहा कि
उनके द्वारा किए गए शोध से भी यही सत्यापित हुआ है कि गुयाना में इबोला उपचार इकाई
में भर्ती गैर इबोला संक्रमित मरीज़ों में 6.4 प्रतिशत की उच्च मृत्यु दर पाई गई थी।
उन्होंने इसके लिए ज़िम्मेदार कई कठिनाइयों की ओर ध्यान दिलाया। किन मरीज़ों में
इबोला संक्रमण का प्रभाव नहीं है यह परीक्षण करने में बहुत लंबा समय लगा और मरीज़ों
को बिना उपचार के लंबे वक्त तक रहना पड़ा। इस दौरान इबोला के प्रकोप के चलते
स्वास्थ्य व्यवस्थाओं पर बढ़ते बोझ के कारण कई सामान्य चिकित्सा सेवाएं रोक दी गई
जिसके चलते मरीज़ों को दूसरी जगहों पर स्थानांतरित करना भी असंभव हो गया।
कोलेबुंडर्स
और उनके साथियों ने लैंसेट इन्फेक्शियस डीसीज़ेस में प्रकाशित अध्ययन में
सिफारिश की थी कि इबोला प्रकोप के दौरान अन्य गंभीर बीमारियों से ग्रसित (इबोला संक्रमित
मरीज़ों के अतिरिक्त) मरीज़ों
की देखभाल के लिए समुचित मानदंडों के अनुसार स्वास्थ्य सेवाएं सुनिश्चित की जानी
चाहिए जिससे इबोला ट्रीटमेंट सेंटर से मरीज़ों को स्थानांतरित करने की आवश्यकता
पड़ने पर उनके लिए समुचित देखभाल की व्यवस्था संभव हो सके।
इस
प्रकार विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि इबोला प्रकोप के दौरान एक ओर बहुत से
व्यक्ति गैर-इबोला
गंभीर रोगों की वजह से मौत के मुंह में चले गए क्योंकि उन्हें आधुनिक या औपचारिक
स्वास्थ्य देखभाल उपलब्ध नहीं हो सकी। दूसरी ओर, बहुत
से गैर-इबोला
संक्रमित मरीज़ इबोला उपचार केंद्रों में पंहुच भी गए तो उन्हें वहां कई कारणों से
समुचित स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हुर्इं जिसके कारण ऐसे मरीज़ों की मृत्यु दर
में अनावश्यक वृद्धि हुई।
वर्तमान कोविड-19 के सकंट के समय विभिन्न देश तपेदिक, कैंसर, ह्मदय रोग जैसी गंभीर बीमारियों के मरीज़ों और विभिन्न चोटों, मानसिक रोगियों और प्रसव सम्बंधी आपात सेवाओं की ज़रूरत को सामान्य समय की तरह पूरा करने में असमर्थ हैं। ज़रूरी नियमित दवाइयों की अनुपलब्धता भी एक गंभीर संकट है जो बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है। अत: इन चुनौतियां से लड़ने के लिए शीघ्र ही उचित रणनीति व कदमों की आवश्यकता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.guim.co.uk/img/media/767de2cc65170b025e5625f578955fc0b050d93a/0_132_3743_2247/master/3743.jpg?width=620&quality=85&auto=format&fit=max&s=4e84124899858b5fbfc7c5f4019d1e58
20वीं शताब्दी की
शुरुआत तक लगभग 5 लाख
गैंडे एशिया और अफ्रीका में घूमते थे। कई दशकों से लगातार हो रहे शिकार और
प्राकृतिक आवास के नष्ट होने से सभी राष्ट्रीय उद्यानों में भी गैंडों की संख्या
बेहद कम हो चुकी है।
अफ्रीका
के पश्चिमी काले गैंडे और उत्तरी सफेद गैंडे हाल के वर्षों में जंगल से विलुप्त हो
गए हैं। गैंडों के संरक्षण में जुटे वैज्ञानिकों और अन्य कार्यकर्ताओं को तब झटका
लगा जब केन्या के एक संरक्षण स्थल पर 24 घंटे गार्ड की निगरानी में रखे गए अंतिम तीन उत्तरी सफेद
गैंडों में से एक 44 वर्ष
की आयु में मर गया। शोधकर्ताओं की अंतर्राष्ट्रीय टीम अनेक वर्षों से इन गैंडों को
प्रजनन कराने का भरसक प्रयास कर रही थी। कुछ समय पहले ही इन विट्रो-निषेचन की तकनीक से
गैंडे के दो अंडाणुओं को प्रयोगशाला में सफलता पूर्वक निषेचित करने से वैज्ञानिकों
ने गैंडों को बचाने के लिए एक बार फिर उम्मीद जगा दी है।
ऐसा
माना जाता है कि अफ्रीका के उत्तरी सफेद गैंडे 2007-08 में जंगलों से विलुप्त हो चुके थे। इन
गैंडों की एक छोटी-सी
आबादी चिड़ियाघरों में ही शेष बची थी। परंतु समस्या यह थी कि चिड़ियाघर में बचे
गैंडे किसी कारण से प्रजनन करने में सक्षम नहीं थे। 2014 में बचे शेष तीन उम्रदराज़ गैंडों में से
अकेला नर भी मर गया। नर के मर जाने के पूर्व भी दोनों मादाओं को प्राकृतिक तथा
कृत्रिम तरीके से गर्भधारण करने के लिए प्रोत्साहित किया गया पर नतीजा शून्य रहा।
इसी वर्ष अगस्त माह में वैज्ञानिकों ने दोनों बची हुई मादाओं से 10 अंडाणु शरीर के बाहर
निकालने में सफलता प्राप्त की। मरने के पूर्व नरों से एकत्रित किए गए शुक्राणुओं
के द्वारा अंडों को निषेचित किया जा सकता है। योजना के अनुसार दोनों मादा गैंडों
से कुल 10 अंडाणु
प्राप्त किए गए।
क्रेमोना, इटली में स्थित एवांटिया प्रयोगशाला के इस
कार्य से जुड़े एक वैज्ञानिक ने बताया कि 10 में से केवल 7 अंडाणु ही शुक्राणु द्वारा निषेचन के लिए
उपयुक्त पाए गए। अंत में केवल दो अंडाणु भ्रूण में बदले। दोनों भ्रूणों को भविष्य
में उपयुक्त मादा गैंडों में प्रत्यारोपित करने के पूर्व बर्फ में जमा कर संरक्षित
कर लिया गया है।
यद्यपि
भ्रूण को सरोगेट मां में स्थापित कर जन्म तक देखभाल करने की तकनीक मनुष्यों में
बेहद सामान्य हो गई है परंतु गैंडे में इस प्रकार के प्रयोग पहली बार किए जा रहे
हैं। वैज्ञानिक सरोगेट मां के रूप में स्वस्थ दक्षिणी सफेद मादा को भी खोज रहे
हैं। वैज्ञानिकों के पास दो भ्रूण संरक्षित हैं।
गैंडों में भ्रूण प्रत्यारोपण एक बेहद कठिन कार्य है। आशा करते हैं कि वैज्ञानिकों के प्रयास से गैंडे की प्रजाति को बचाया जा सकेगा। यद्यपि उत्तरी सफेद गैंडों की पूरी तरह वापसी के लिए उपरोक्त प्रयोगों को कई बार दोहराने की ज़रूरत होगी। वैज्ञानिकों के पास केवल दो बूढ़ी गैंडा मादाएं शेष हैं जिनसे अभी और अंडाणु प्राप्त किए जा सकते हैं। केवल चार नरों से प्राप्त शुक्राणुओं की उपलब्धि के कारण आनुवंशिक विविधता बहुत कम रह गई है। यदि मृत गैंडों की जमी हुई (फ्रोज़न) कायिक कोशिकाओं के जीन्स को भी मिला लिया जाए तो जीन समूह 12 गैंडों का हो जाता है। अगर इन मृत गैंडों की संग्रहित जीवित स्टेम कोशिकाओं को प्रेरित कर अंडाणुओं और शुक्राणुओं में बदल दिया जाए तो काम और आसान हो जाएगा। वैज्ञानिक जुटे हुए हैं और आशा करें कि एक दिन उत्तरी सफेद गैंडे का शिशु पुन: दौड़ता दिखेगा।(स्रोत फीचर्स)
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रोज़ाना
हमें कोविड-19 के
बारे में कुछ ना कुछ पता चलता रहता है: यह कितनी आसानी से लोगों को संक्रमित कर रहा है और व्यक्ति
से व्यक्ति में फैल रहा है, और कैसे वैज्ञानिकों
और चिकित्सा विशेषज्ञों ने इसके प्रसार के खिलाफ जंग छेड़ रखी है। हम यह भी सुनते
हैं कि कैसे यह बैक्टीरिया से अलग है और क्यों एंटीबायोटिक दवाइयां इसका सफाया करने
में कारगर नहीं हो सकतीं।
आखिर
वायरस और बैक्टीरिया में अंतर क्या है? बैक्टीरिया
सजीव होता है। हर बैक्टीरिया कोशिका में पुनर्जनन करने की प्रणाली होती है। यदि आप
एक बैक्टीरिया कोशिका को लें और उसे पोषक तत्वों से युक्त घोल में डालें तो यह
उसमें स्वयं वृद्धि कर सकता है, और विभाजित होकर
अपनी संख्या वृद्धि कर सकता है। कोशिकाओं में मौजूद जीन (जीनोम, जो
डीएनए अणुओं से बना होता है और जिसमें निहित जानकारी संदेशवाहक अणु आरएनए के लिए
एक संदेश के रूप में लिखी होती है) में निहित संदेश प्रोटीन नामक कार्यकारी अणु में परिवर्तित
हो जाता है जो बैक्टीरिया को पनपने और संख्या वृद्धि करने में मदद करता है।
कोरोनावायरस में डीएनए नहीं होता लेकिन आरएनए होता है;
दूसरे शब्दों में कहें तो वे केवल संदेश पढ़ सकते हैं,
संदेश लिख नहीं सकते। इसलिए ये ‘मृतप्राय’ होते हैं जो स्वयं वृद्धि और पुनर्जनन नहीं
कर सकते, इसके लिए उन्हें
सहायता की दरकार होती है। यह सहायता वे ‘मेज़बान कोशिकाओं’ को संक्रमित करके लेते हैं और लाखों की
संख्या में वृद्धि करते हैं। बिना सहायक मेज़बान कोशिका के वायरस एक बेकार वस्तु के
समान है।
पॉलीप्रोटीन
रणनीति
संक्रमण
होने पर इस आरएनए की 33,000
क्षारों की शृंखला अमीनो अम्लों की एक लंबी शृंखला में
तब्दील हो जाती है। चूंकि इस लंबी शृंखला में कई प्रोटीन होते हैं इसलिए इसे ‘पॉलीप्रोटीन’ अनुक्रम कहा जाता
है। तो हमें इस पूरी पॉलीप्रोटीन शृंखला का विश्लेषण करना होता है,
संक्रमण के लिए ज़िम्मेदार प्रोटीन पता करना होता है,
उसे अलग करना होता है और संक्रमण में इन प्रोटीन की भूमिका
पता करना होता है। (वैज्ञानिक
पॉलीप्रोटीन को सिंगल रीडिंग फ्रेम कहते हैं जिसमें कई ओपन रीडिंग फ्रेम होते हैं।
ये फ्रेम एक स्टार्ट कोड के साथ शुरु और एक स्टॉप कोड के साथ समाप्त होते हैं। और
इनमें से प्रत्येक में वह प्रोटीन होता है जिसे मेज़बान कोशिका द्वारा व्यक्त किया
जाना है)।
यह युक्ति वायरल जीनोम को सघन रखती है और आवश्यकता पड़ने पर ही प्रोटीन व्यक्त करती
है। यह कुछ हद तक उस किफायती व्यक्ति की तरह है जो बैंक में अपना पैसा फिक्स्ड
डिपॉज़िट करके रखता है और वक्त पर ज़रूरत के हिसाब से पैसा निकालता है। वायरस की
ज़रूरत मेज़बान को संक्रमित करके अपनी संख्या बढ़ाने की है। यदि कोई ज़रूरत नहीं,
तो कुछ खर्च नहीं, तो
कोई संक्रमण नहीं, और संख्या में
वृद्धि नहीं!
यू
चेन और उनके साथी जर्नल ऑफ मेडिकल वायरोलॉजी में प्रकाशित अपनी हालिया
समीक्षा में बताते हैं कि कोविड-19 की पॉलीप्रोटीन शृंखला में आरएनए-आधारित जीनोम और उप-जीनोम होते हैं,
जो स्पाइक प्रोटीन (S),
झिल्ली प्रोटीन (M),
आवरण प्रोटीन (E) और
न्यूक्लियोकैप्सिड प्रोटीन (N, जो वायरस की कोशिका
के केन्द्रक की सामग्री का आवरण होता है) के लिए कोड करते हैं। ये सभी प्रोटीन वायरस
के निर्माण के लिए आवश्यक होते हैं। इसके अलावा, खास
संरचना के लिए ज़िम्मेदार प्रोटीन और अतिरिक्त सहायक प्रोटीन भी होते हैं जिन्हें
गैर-निर्माणकारी
प्रोटीन (NSP) कहा
जाता है। इनमें से 16 प्रोटीन
वायरस के संक्रमण और वृद्धि में मदद करते हैं।
इस
तरह हमारे पास वायरस के प्रोटीन्स की एक खासी तादाद उपलब्ध है,
जिनके निर्माण को बाधित करने या रोकने के लिए हम कई संभावित
अणुओं और दवाइयों का परीक्षण कर सकते है। वास्तव में,
पिछले महीने प्रकाशित हुए कई अध्ययनों में ऐसा ही करने की
कोशिश की गई है।
इनमें
से एक अध्ययन में वायरस के प्रमुख एंज़ाइम RDRp के निर्माण को
लक्ष्य करने का प्रयास किया था, जिसका निर्माण रेमेडेसेविर
दवा द्वारा रोका गया था। अमेरिका, जर्मनी और चीन के
तीन अध्ययनों में वायरस के स्पाइक (S) प्रोटीन
को बनाने वाले एंज़ाइम (जिसे
3CLpro या
Mpro
कहा जाता है) का
निर्माण रोकने के तरीकों का विवरण है। और यू चेन ने उपरोक्त पेपर में वायरस के
पॉलीप्रोटीन के 16 से
अधिक गैर-निर्माणकारी
प्रोटीन (NSP) सूचीबद्ध
किए हैं, जिनका निर्माण
संभावित दवाइयों द्वारा रोका जा सकता है। (बोस्टन के डॉ. पांडुरंगाराव का मत है कि इनमें से भी
एंज़ाइम NSP12 एक
महत्वपूर्ण व लाभदायक लक्ष्य होगा)।
इस
संदर्भ में यहां भारतीय शोधकर्ता तनीगैमलाई पिल्लैयार के काम का उल्लेख महत्वपूर्ण
होगा। पिल्लैयार 2013 से
जर्मनी स्थित युनिवर्सिटी ऑफ बॉन में औषधी रसायनज्ञ के रूप में कार्यरत हैं। साल 2016 में जर्नल ऑफ
मेडिसिनल केमिस्ट्री में प्रकाशित शोध पत्र में उन्होंने SARS-CoV के
मुख्य एंज़ाइम कीमोट्रिप्सीन-नुमा सिस्टीन प्रोटीएज़ (3CLpro या
Mpro) की 3-डी मॉडलिंग करके
सम्बंधित वायरस TGEV (ट्रांसमिसेबल गैस्ट्रोएंटेराइटिस वायरस) का पता लगाया और
उसके एक्स-रे
क्रिस्टल संरचना की मदद से उन्होंने पता लगाया कि यह एंज़ाइम वायरस की संरचना में
ताला-चाभी
तरीके से जुड़ता है। इस आणविक मॉडलिंग के बाद उन्होंने ऐसी दवा की पड़ताल की जो इस
बंधन को निष्क्रिय कर सके और SARS-CoV को संक्रमित करने से रोक सके। अनुमान था
कि लगभग 160 ज्ञात
दवाएं यह कार्य करने में विभिन्न दक्षता के साथ कारगर हो सकती हैं। दवाओं की यह
सूची क्रिस्टल संरचना की जानकारी के 3-4 साल पहले सुझाई गई थी, जिसे
पिल्लैयार और उनके साथियों ने जनवरी 2020 में ड्रग डिस्कवरी टुडे में प्रकाशित,
अपने हालिया शोध पत्र में अपडेट किया है।
भारत
को पिछले 90 वर्षों
से कार्बनिक और औषधीय रसायन के क्षेत्र में खासा अनुभव हासिल है। भारत
गुणवत्तापूर्ण औषधि निर्माण, और 1970 पेटेंट अधिनियम के
बाद से निर्यात में कुशलता पूर्वक कार्य कर रहा है। आज हमारी दक्षता सार्वजनिक और
निजी दोनों क्षेत्रों में न केवल ज़रूरत के मुताबिक अणुओं को संश्लेषित करने की है
बल्कि कंप्यूटर मॉडलिंग की मदद से बैक्टीरिया और वायरस के प्रोटीन को लक्ष्य करने
में, होमोलॉजी मॉडलिंग,
ड्रग डिज़ाइन, दवाओं
के नए उपयोग खोजने वगैरह में भी है।
CSIR ने इस जानलेवा वायरस का मुकाबला करने वाले रसायन और तरीकों को विकसित करने की ज़िम्मेदारी ली है, और हमें पूरी उम्मीद है कि वे निकट भविष्य में अवश्य सफल होंगे! (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/xaced1/article31375821.ece/ALTERNATES/FREE_960/19TH-SCICORONAVIRUS
किसी
प्रजाति के लिए हानिकारक बैक्टीरिया और वायरस किसी अन्य प्रजाति को संक्रमित करने
के लिए काफी तेज़ी से विकसित हो सकते हैं। कोरोनावायरस इसका सबसे नवीन उदाहरण है।
एक जानलेवा बीमारी का जनक यह वायरस जानवरों से मनुष्यों में आ पहुंचा है और शायद
मनुष्यों से जानवरों में भी पहुंच रहा है।
इस
तरह के प्रजाति-पार
संक्रमण पशु पालन के स्थानों पर या बाज़ार में शुरू हो सकते हैं जहां संक्रामक
जीवों के संपर्क को बढ़ावा मिलता है। ऐसी परिस्थिति में विभिन्न रोगजनक
सूक्ष्मजीवों के बीच जीन्स का लेन-देन हो सकता है। ऐसा भी हो सकता है सामान्य जंतु-मनुष्य संपर्क के
दौरान कोई सूक्ष्मजीव प्रजाति की सीमा-रेखा पार कर जाए।
जंतुओं
से मनुष्यों में पहुंचने वाले रोगों को ज़ुऑनोसेस कहा जाता है। इनमें 3 दर्ज़न से अधिक रोग
तो ऐसे हैं जो सिर्फ स्पर्श से हमें संक्रमित कर सकते हैं जबकि 4 दर्ज़न से अधिक ऐसे
हैं जो जीवों के काटने से हमें मिलते हैं। इनमें कुछ रोग ऐसे भी हैं जो मनुष्यों
से जीवों में पहुंचते हैं। यहां एक से दूसरी प्रजातियों में फैलने वाली कुछ
जानलेवा बीमारियों पर चर्चा की गई है।
नया
कोरोनावायरस
नए
कोरोनावायरस (SARS-CoV-2) की पहचान दिसंबर 2019 में चीन के वुहान प्रांत के सी-फूड बाज़ार में हुई
थी। आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला कि यह चमगादड़ से आया है। उस बाज़ार में चमगादड़
नहीं बेचे जाते थे, इसलिए वैज्ञानिकों
ने माना कि इस वायरस के मानवों में संक्रमण के पीछे एक अज्ञात तीसरा जीव होना
चाहिए। कुछ अध्ययनों के आधार पर कहा जा रहा है कि यह मध्यवर्ती जीव पैंगोलिन हो
सकता है। लेकिन नेचर पत्रिका के अनुसार अवैध रूप से तस्करी किए गए पैंगोलिन से
प्राप्त नमूने SARS-CoV-2 से इतना मेल नहीं
खाते हैं जिससे इसकी पुष्टि एक मध्यवर्ती जीव के रूप में की जा सके। इसके पूर्व के
अध्ययनों में सांपों को इसका संभावित स्रोत माना गया था लेकिन सांपों में
कोरोनावायरस के संक्रमण की पुष्टि नहीं की गई है।
इन्फ्लुएंज़ा
महामारियां
वर्ष
1918 में
इन्फ्लुएंज़ा ने कुछ ही महीनों में 5 करोड़ लोगों की जान ली थी। विश्व की एक-तिहाई आबादी को संक्रमित करने वाला यह
इन्फ्लुएंज़ा वायरस (H1N1) पक्षी-मूल का था। मुख्य रूप से बुज़ुर्गों और
कमज़ोर प्रतिरक्षा तंत्र वाले लोगों की जान लेने वाले साधारण फ्लू के विपरीत H1N1 ने युवा व्यस्कों
को अपना शिकार बनाया था। ऐसा लगता है कि बुज़ुर्गों में पिछले किसी H1N1 संक्रमण के कारण
प्रतिरक्षा उत्पन्न हुई थी, और इस वजह से 1918 की महामारी में उन
पर ज़्यादा असर नहीं हुआ।
H1N1 वायरस (H1N1pdm09) का नवीनतम हमला 2009 में हुआ था जिसमें
अमेरिका में 6.08 करोड़
मामले सामने आए थे और 12,496
लोगों की मौत हुई थी। विश्व भर में मौतों की संख्या डेढ़ से
पौने छ: लाख
के बीच थी। यह वायरस सूअरों के झुंड में उत्पन्न हुआ था जहां आनुवंशिक पदार्थ की
अदला-बदली
के दौरान इन्फ्लुएंज़ा वायरसों का पुनर्गठन हुआ। यह प्रक्रिया उत्तरी अमेरिकी और
यूरेशियन सूअरों में प्राकृतिक रूप से होती रहती है।
प्लेग
14वीं सदी में ब्लैक
डेथ के नाम से मशहूर इस एक बीमारी के सामने कई सभ्यताओं ने घुटने टेक दिए थे।
युरोप से लेकर मिस्र और एशिया तक अनगिनत लोग मारे गए थे। उस समय 36 करोड़ की आबादी वाले
विश्व में 7.5 करोड़
लोग मारे गए थे। प्लेग एक बैक्टीरिया-जनित रोग है जो यर्सिनिया पेस्टिस नामक बैक्टीरिया
के कारण होता है। यह बैक्टीरिया चूहों (और शायद बिल्लियों) में रहता है और संक्रमित पिस्सुओं के काटने
से मनुष्यों में फैल जाता है। यह एक जानलेवा रोग है और आज भी यदि इसका इलाज न किया
जाए तो जानलेवा होता है।
14वीं शताब्दी का
प्लेग जिस बैक्टीरिया के कारण फैला था वह गोबी रेगिस्तान में वर्षों तक निष्क्रिय
रहने के बाद चीन के व्यापार मार्गों के माध्यम से युरोप,
एशिया और अन्य देशों में फैल गया। इसके लक्षणों में बुखार,
ठण्ड लगना, कमज़ोरी,
लसिका ग्रंथियों में सूजन और दर्द शामिल हैं। कई समाजों को
इससे उबरने में सदियां लगी थीं।
दंश
से फैलते रोग
कई
जंतु-वाहित
बीमारियां जानवरों द्वारा काटने से फैलती हैं। मच्छरों द्वारा मानव शरीर में
परजीवी के संक्रमण से मलेरिया रोग काफी जानलेवा सिद्ध होता है। एक रिपोर्ट के
अनुसार मच्छरों के काटने से वर्ष 2018 में लगभग 22.8 करोड़ लोग संक्रमित हुए जबकि 40 लाख से अधिक लोगों की मौत हो गई। इनमें
सबसे अधिक संख्या अफ्रीकी देशों में रहने वाले बच्चों की थी।
मच्छरों
से फैलने वाले डेंगू बुखार से सालाना 40 करोड़ लोग संक्रमित होते हैं, जिनमें
से 10 करोड़
लोग बीमार होते हैं और 22,000
लोग मारे जाते हैं। यह रोग एडीज़ वंश के मच्छर द्वारा काटने
से होता है।
पालतू
प्राणि और चूहे
पालतू
प्राणियों से होने वाली बीमारियों में रेबीज़ सबसे जानी-मानी है। इससे हर वर्ष लगभग 55,000 लोगों की मृत्यु
होती है। इनकी सबसे अधिक संख्या एशिया और अफ्रीका के देशों में होती है। आम तौर पर
यह रोग संक्रमित पालतू कुत्ते के काटने से होता है हालांकि जंगली जानवरों में
रैबीज़ के वायरस पाए जाते हैं।
एक
और बीमारी है जो जानवर के काटे बगैर भी हो जाती है। चूहों जैसे प्राणियों में
मौजूद हैन्टावायरस उनके मल, मूत्र वगैरह में
होता है और यदि ये पदार्थ कण रूप में हवा में फैल जाएं तो वायरस सांस के साथ
मनुष्यों में पहुंच जाता है। यह मुख्य रूप से डीयर माइस से फैलता है। यह वायरस एक
व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संचरण नहीं करता है। इसके मुख्य लक्षणों में ठण्ड
लगना, बुखार, सिरदर्द
आदि शामिल हैं। वैसे तो यह बीमारी बिरली है लेकिन इसकी मृत्यु दर 36 प्रतिशत है।
एचआईवी./एड्स
सीडीसी
के अनुसार एड्स का वायरस (एचआईवी) मध्य अफ्रीका के एक
चिम्पैंज़ी से आया है। यह वायरस (मूलत: एसआईवी) मनुष्यों में इन जीवों के शिकार ज़रिए पहुंचा है। यह
मनुष्यों में इन जीवों के संक्रमित खून से आया जिसने मानवों में विकसित होकर
एचआईवी का रूप ले लिया। अध्ययनों के अनुसार यह मनुष्यों में 18वीं सदी से मौजूद है।
एचआईवी
प्रतिरक्षा तंत्र को तहस-नहस
कर देता है जिससे जानलेवा बीमारियों और कैंसर का रास्ता खुल जाता है। विश्व
स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक वर्ष 2018 में 7.7 लाख लोगों की मृत्यु एचआईवी के कारण हुई जबकि इसी वर्ष के
अंत तक 3.7 करोड़
लोग इससे संक्रमित पाए गए। एचआईवी संक्रमित लोगों में टीबी से मृत्यु दर काफी अधिक
होती है। यह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में शारीरिक तरल पदार्थ (जैसे खून,
स्तनपान, वीर्य,
योनि स्राव आदि) के आदान प्रदान से पहुंचता है।
मस्तिष्क
पर नियंत्रण
एक
विचित्र परजीवी टोक्सोप्लाज़्मा गोंडाई ने विश्व भर में लगभग 2 अरब लोगों को अपना शिकार बनाया है। यह
परजीवी शीज़ोफ्रीनिया का कारण होता है। इसका प्राथमिक मेज़बान बिल्लियां हैं। यह
रोगाणु बिल्ली की आंत में विकसित होते हैं। इसके अंडे बिल्ली के मल के साथ बाहर
आते हैं और इनके छोटे-छोटे
कण हवा के माध्यम से नाक के ज़रिए मनुष्यों में प्रवेश कर जाते हैं।
मनुष्य
में प्रवेश करने के बाद ये अंडे शरीर के उन अंगों में छिप जाते हैं जहां
प्रतिरक्षा तंत्र का अभाव होता है, जैसे मस्तिष्क,
ह्मदय, और कंकाल की
मांसपेशियां। इन अंगों में अंडे सक्रिय परजीवी टैकीज़ोइट में तबदील हो जाते हैं और
अन्य अंगों में फैलने व संख्यावृद्धि करने लगते हैं।
इनको
मस्तिष्क पर नियंत्रण करने वाला जीव इसलिए कहा जाता है क्योंकि इससे संक्रमित
चूहों में बिल्लियों का डर खत्म हो जाता है और वे बिल्लियों के मूत्र की गंध की ओर
आकर्षित होने लगते हैं। ऐसे में वे बिल्ली का आसान शिकार बन जाते हैं और परजीवी को
बिल्ली की आंत में पहुंचने का एक आसान रास्ता मिल जाता है।
मनुष्यों
में इनके संक्रमण का कोई खास लक्षण दिखाई नहीं देता है। हालांकि कुछ मामलों में
सामान्य फ्लू और लसिका नोड्स पर सूजन की शिकायत होती है जो कुछ हफ्तों से लेकर
महीनों तक रहती है। कभी-कभार
दृष्टि गंवाने से लेकर मस्तिष्क क्षति जैसी गंभार समस्याएं हो सकती हैं।
सिस्टीसर्कोसिस
सिस्टीसर्कोसिस
की समस्या फीता कृमि (टीनिया
सोलियम) के
अण्डों के शरीर में प्रवेश करने से होती है। इसका लार्वा मांसपेशियों और मस्तिष्क
में पहुंच कर गठान बना देता है। मनुष्यों में यह सूअर के मांस का सेवन करने से भी
पहुंचता है। यह छोटी आंत के अस्तर से जुड़कर दो महीनों में एक व्यस्क कृमि में
विकसित हो जाता है। इसका सबसे खतरनाक रूप मस्तिष्क में गठान के रूप में सामने आता
है। इसके लक्षणों में सिरदर्द, दौरे,
भ्रमित होना, मस्तिष्क
में सूजन, संतुलन बनाने में
समस्या, स्ट्रोक या मृत्यु
शामिल हैं।
एबोला
यह
रोग एबोला वायरस के पांच में से एक प्रकार के कारण होता है। यह मध्य अफ्रीका में
गोरिल्ला और चिम्पैंज़ियों के लिए एक बड़ा खतरा है। सीडीसी के अनुसार मनुष्यों में
यह चमगादड़ या गैर-मानव
प्राइमेट्स के द्वारा फैली है। इसकी पहचान पहली बार कांगो में एबोला नदी के किनारे
हुई थी। यह वायरस संक्रमित प्राणियों के रक्त या शरीर के अन्य तरल पदार्थों से
फैलता है। मनुष्यों के बीच यह निकट संपर्क से फैलता है।
इसके
लक्षण काफी भयानक होते हैं। अचानक बुखार, कमज़ोरी,
मांसपेशियों में दर्द, सिरदर्द,
और गले में खराश शुरुआती लक्षण हैं,
जिसके बाद उल्टी, दस्त,
शरीर पर दाने, गुर्दों
और लीवर की तकलीफ और कुछ मामलों में आंतरिक और बाहरी रक्तस्राव। मृत्यु दर 90 प्रतिशत तक हो सकती
है।
लाइम
रोग
यह रोग एक काली टांग वाले पिस्सू द्वारा मनुष्यों में बैक्टीरिया संक्रमण के कारण होता है। यह रोग मुख्य रूप से बोरेलिया बर्गडोरफेरी प्रजाति और कभी कभी एक अन्य प्रजाति बी. मेयोनाई से भी होता है। इसके लक्षणों में बुखार, सिरदर्द, थकान और त्वचा पर चकत्ते शामिल हैं। उपचार न किया जाए तो यह शरीर के जोड़ों से ह्मदय और तंत्रिका तंत्र तक फैल जाता है। हर वर्ष इसके लगभग 30,000 मामले सामने आते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.cdc.gov/onehealth/images/zoonotic-diseases-spread-between-animals-and-people.jpg
पिछले
कुछ महीनों में कई समूहों ने इस संदर्भ में कई दिलचस्प शोध प्रकाशित किए हैं कि
संगीत मन/मस्तिष्क
को कैसे प्रभावित करता है।
पहला
शोध पत्र है 1 मार्च
को अमेरिका की इंडियाना युनिवर्सिटी के एक समूह द्वारा प्रकाशित अध्ययन। इसमें
बताया गया है कि गंभीर रूप से बीमार मरीज़ों को संगीत की मदद से सन्निपात (डेलिरियम) से उबारा जा सकता है
(https://doi.org/10.4037/ajcc2020175)। सन्निपात ग्रसित
मरीज़ तीव्र मानसिक अशांति, वाणि सम्बंधी दिक्कत
और मतिभ्रम का सामना करते हैं। शोधकर्ताओं ने ऐसे 117 रोगियों पर गैर-औषधीय उपचार के रूप में संगीत को आज़माया।
उन्होंने इन 117 मरीज़ों
में से आधे मरीज़ों को, या तो स्वयं उनके
द्वारा चुना गया उनका पसंदीदा संगीत (पीएम), या सुकूनदायक मंद
गति का संगीत (एसटीएम) सुनाया। इस
प्रायोगिक समूह को एक हफ्ते तक दिन में दो बार एक-एक घंटे के लिए संगीत सुनाया गया और उनके
सुधार को दर्ज किया गया। इसकी तुलना उन्होंने तुलना के लिए रखे गए समूह (कंट्रोल समूह) के मरीज़ों से की
जिन्हें कोई संगीत नहीं सुनाया गया था।
पाया
गया कि जिन मरीज़ों को संगीत (पीएम या एसटीएम, दोनों
में से कोई भी) सुनाया
गया था उनमें बेहोशी में बड़बड़ाने (सन्निपात) में कमी आई थी। वहीं जब संगीत की बजाय ऑडियो-किताबें सुनाई गर्इं
तो इनसे किसी तरह की मदद नहीं मिली! शोधकर्ताओं ने जो सुकूनदायक संगीत (एसटीएम) चुना था वह या तो 60-80 बीट्स प्रति मिनट वाला शास्त्रीय संगीत था,
या मूल अमेरिकी बांसुरी की धुन,
या सुकूनदायक पियानो का संगीत था। संगीत का चयन बोर्ड-प्रमाणित संगीत
चिकित्सक द्वारा किया गया था। नतीजों के आधार पर उन्होंने पाया कि गंभीर रूप से
बीमार मरीज़ों के लिए संगीत एक उपयोगी गैर-औषधीय मदद है।
इससे
कुछ समय पहले चेन्नई के एसएसएन कॉलेज की डॉ. बी. गीतांजलि और उनके सहयोगियों ने करंट
साइंस में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसका
शीर्षक था ‘उच्च
रक्तचाप में संगीत सुनने के असर का मूल्यांकन’। उन्होंने उच्च-रक्तचाप के 200 रोगियों की बेतरतीबी से जांच की,
जिसमें उनकी ह्मदय गति, श्वसन
दर और औसत रक्तचाप मापे गए। एक महीने तक संगीत सुनाने के बाद मरीज़ों की ह्मदय गति,
श्वसन दर, और औसत रक्तचाप में
कमी देखी गई। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने संगीत के साथ-साथ नियमित उपचार जारी रखा था। और राग मालकौंस
सुनाया गया था जो कि ओढ़व जाति का राग है (यानी वह राग जिसमें पांच सुर होते हैं), यह
शांति का एहसास कराने वाला और मधुर संगीत था। (जैसा कि हम सभी अपने अनुभव से जानते हैं
ऊंचा या तेज़ संगीत और ताल जोश-भरी होती हैं और उत्तेजित करती हैं)।
लगभग
इसी समय हैदराबाद के जाने-माने
संगीत चिकित्सक राजम शंकर ने एक पठनीय व अच्छे शोध पर आधारित मोनोग्राफ,
‘संगीत की चिकित्सा शक्ति’, तैयार किया है। इस
मोनोग्राफ में चिकित्सा के लिए इस्तेमाल किए जा सकने वाले रागों का विवरण और
कर्नाटक संगीत के 35 से
अधिक जाने-माने
रागों की विस्तार में जानकारी और कुछ केस स्टडी हैं। इनमें से कुछ राग हिंदुस्तानी
संगीत में भी मिलते हैं।
एकरूप
रसास्वादन
इस
बात पर गौर करें कि अमेरिका की इंडियाना युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन
में शामिल ‘पश्चिमी’ सभ्यता के मरीज़ों को
वह संगीत सुनाया जिससे वे परिचित थे, और
चेन्नई के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में मरीज़ों को वह संगीत सुनाया जिससे दक्षिण
भारत के लोग परिचित थे। तो सवाल यह उठता है कि क्या भावनाओं को जगाने की संगीत की
क्षमता सांस्कृतिक अंतर के परे जा सकती है? मानेसर
स्थित नेशनल ब्रेन रिसर्च सेंटर की मस्तिष्क विज्ञानी नंदिनी चटर्जी सिंह ने अपने
अध्ययन में इसी सवाल का जवाब खोजने का प्रयास किया है। उनके अध्ययन के नतीजे छह
महीने पहले प्लॉस वन पत्रिका में प्रकाशित हुए थे (विस्तार से पढ़ने के लिए देखें https://doi.org/10.1371/journal.pone.0222380)।
चटर्जी
सिंह ने अपने अध्ययन में भारत के विभिन्न शहरों के 144 लोगों और अन्य देशों (अमेरिका, ब्रिटेन,
युरोप, जापान,
कोरिया) के 112 लोगों को हिंदुस्तानी संगीत के 12 रागों के कुछ टुकड़े ऑनलाइन सुनाए। इसमें
उन्होंने सरोद पर रागों के आलाप और उसके बाद गत (जिसे बंदिश भी कहते हैं) सुनाई। (आलाप यानी ताल के
बिना राग के सुरों और उसकी सप्तक का धीमी गति में परिचय,
और गत यानी किसी ताल वाद्य (आम तौर पर तबला) की संगत पर इसी क्रम में राग के सुरों को
तीव्र गति से बजाना)।
अध्ययन में जब हंसध्वनि जैसे राग बजाए गए तो ‘भारतीय संस्कृति से परिचित’ भारतीय श्रोताओं और ‘भारतीय संस्कृति से
अनजान’ विदेशी
श्रोताओं, दोनों ने ‘आनंदित’ या ‘रोमांटिक’ महसूस किया,
और जब राग मारवा बजाया गया तो दोनों समूहों ने ‘उदासी’ की भावना महसूस करना
बताया।
संस्कृति
से अपरिचित समूह के लोगों ने लयबद्ध हिस्से, गत,
पर अधिक सरलता से प्रतिक्रिया दी। शोधकर्ताओं का कहना है कि
ये नतीजे कुछ अन्य अध्ययन रिपोर्ट से मेल खाते हैं जिनमें कहा गया है कि अमेरिकी
प्रेक्षकों ने तब अधिक प्रतिक्रिया दी जब उन्होंने पारंपरिक भारतीय शास्त्रीय
नृत्य देखा। तो ऐसा लगता है कि ‘श्रवण’ के मामले में एक ‘सार्वभौमिकता’ है। वे आगे कहते हैं कि जब विदेशियों को
जावानी लोगों का संगीत सुनने के लिए आमंत्रित किया गया था तब भी इसी तरह की
प्रतिक्रिया मिली थी।
पैतृक
उपहार
तो
सवाल यह उठता है कि यह सार्वभौमिकता कैसे आई, और
कैसे दुनिया भर के संगीत उन्हीं मूल सुरों और धुनों का उपयोग करते हैं। तो क्या यह
डीएनए की तरह हमें जैव-विकास
के उपहार स्वरूप मिला है? हम मनुष्यों में
संगीत की उत्पत्ति का स्रोत क्या है?
1990 के दशक से ‘बायोम्युज़िकेलिटी’ नामक एक समूचा विषय उभरा है, जिसमें संगीत की उत्पत्ति का अध्ययन किया जाता है। इसमें यह जानने की कोशिश की जाती है कि संगीत के प्रोसेसिंग में मस्तिष्क का कौन-सा हिस्सा शामिल होता है, और संगीत बनाने की जैविक लागत और उपयोग, और विभिन्न संस्कृतियों के संगीत की साझा विशेषताओं के बारे में पता लगाया जाता है। कुछ शोधकर्ता बताते हैं कि प्रागैतिहासिक काल के मनुष्य उस समय की उपयुक्त सामग्री से ड्रम बजाते थे, जिसे जैव विकास की प्रक्रिया में हमने अपने प्राइमेट बंधुओं से उधार लिया था। कुछ पुरातत्वविदों ने लगभग 4000-5000 साल पहले के प्रागैतिहासिक, पुरा-पाषाण युग के मनुष्यों (निएंडरथल) के संगीत की पड़ताल की है। प्रागैतिहासिक काल का पहला वाद्ययंत्र था बांसुरी जिसे एक युवा भालू की हड्डी से बनाया गया था; स्लोवेनिया में प्राप्त इस खोखली हड्डी से बनी बांसुरी में कम से कम तीन सुराख थे। हो सकता है, ज़्यादा सुराख रहे हों। एक और बांसुरी चीन के जियाहू क्षेत्र में मिली थी, जिसके आइसोटोप डेटिंग से पता चला था कि यह प्रागैतिहासिक काल की उक्त बांसुरी से भी अधिक पुरानी (7000-8000 साल पहले की) है। और जब शोधकर्ताओं ने इसे बजाया (शहनाई की तरह खड़ा रख कर) तो जो संगीत पैदा हुआ उसने उन्हें पारंपरिक डो, रे, पा, सो, ला, टी (या सा, रे, गा, मा पा..) की याद दिला दी!(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/28u8uw/article31129213.ece/ALTERNATES/FREE_960/22TH-SCITAMBURA
दिन-ब-दिन कोरोनोवायरस
संक्रमितों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। अच्छी बात यह है कि कोरोनावायरस से
संक्रमित अधिकांश मरीज़ इस संक्रमण से उबर जाते हैं। लेकिन संक्रमण से उबरना मात्र
बेहतर महसूस करने की तुलना में थोड़ा पेचीदा मामला है।
जब
कोई व्यक्ति वायरस के संपर्क में आता है तो शरीर संक्रमण से लड़ने के लिए एंटीबॉडी
बनाना शुरु करता है। ये एंटीबॉडी वायरस को नियंत्रित करती हैं और उसे अपनी
प्रतिलिपियां बनाने से रोकती हैं। जब एंटीबॉडी वायरस को रोकने में सफल हो जाती हैं,
तो मरीज़ में रोग के लक्षण दिखना कम होने लगते हैं और
व्यक्ति बेहतर महसूस करने लगता है। यदि सब ठीक-ठाक चले तो शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली
सारे वायरसों को पूरी तरह से नष्ट कर देती है। जब कोई संक्रमित व्यक्ति स्वास्थ्य
पर बगैर किसी दूरगामी प्रभाव या अक्षमता के ठीक हो जाता है तो कहते हैं कि वह उबर
गया है।
सामान्य
तौर पर एक बार जब कोई व्यक्ति वायरस के संक्रमण से उबर जाता हैं तो शरीर की
प्रतिरक्षा प्रणाली इस वायरस को याद रखती है। यदि यही वायरस दोबारा हमला करता है
तो एंटीबॉडीज़ शुरुआत में ही इस वायरस का सफाया शुरू कर देती हैं। यानी व्यक्ति में
उस वायरस के विरुद्ध प्रतिरक्षा विकसित हो जाती है; टीके
इसी सिद्धांत पर काम करते हैं।
लेकिन
अफसोस कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र एकदम सटीक नहीं होता। मम्स (गलसुआ) जैसे कई रोगों के वायरस के खिलाफ
प्रतिरक्षा समय के साथ खत्म हो जाती है और भविष्य में फिर संक्रमण की संभावना बन
जाती है। चूंकि यह कोरोनावायरस नया है इसलिए वैज्ञानिक अभी नहीं जानते कि जो लोग कोरोनावायरस
के संक्रमण से उबर गए हैं उनके शरीर में प्रतिरक्षा कितने समय तक टिकी रहेगी।
लेकिन
सवाल यह है कि ठीक-ठीक
कब माना जाएगा कि कोई मरीज़ कोरोनावायरस के संक्रमण से ठीक हो चुका है। सीडीसी के
अनुसार किसी व्यक्ति को कोरोनावायरस के संक्रमण से उबरा हुआ तब माना जाएगा जब वह
शारीरिक रूप से और जांच, दोनों मानदंडों पर
खरा उतरेगा। शारीरिक स्तर पर, बुखार कम करने वाली
दवाएं बंद करने के बाद लगातार तीन दिन तक मरीज़ को बुखार नहीं आना चाहिए,
खांसी और सांस की तकलीफ सहित अन्य लक्षणों में सुधार दिखना
चाहिए, और लक्षण दिखना शुरू
होने के बाद कम से कम सात दिन बीत जाने चाहिए। सीडीसी के अनुसार इसके अलावा,
मरीज़ के 24 घंटे के अंतराल में दो बार किए गए परीक्षण के नतीजे
नकारात्मक होना चाहिए। जब शारीरिक रूप से और परीक्षण दोनों स्थितियां इस बात की
पुष्टि करें कि व्यक्ति कोरोनावायरस से संक्रमित नहीं हैं तभी किसी व्यक्ति को
आधिकारिक तौर पर इस संक्रमण से उबरा हुआ माना जाएगा।
यहां एक और सवाल उठता है कि क्या इस संक्रमण से उबर चुके मरीज़ आगे मददगार साबित हो सकते हैं? जैसा कि डॉक्टर कह रहे हैं कि इस संक्रमण से ठीक हो चुके लोगों में इस बात का पता लगाया जाए कि क्या उनमें इसके विरुद्ध प्रतिरक्षा विकसित हुई है? यदि उनमें कोरोनावायरस के विरुद्ध प्रतिरक्षा विकसित हुई है तो ये लोग अन्य संक्रमित व्यक्तियों की देखभाल में मदद कर सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://assets.weforum.org/article/image/large_L7wDCoqUlPFbYMpFU0EU8pBJPwKks78dDS4mQSb3wgI.jpg
दुनिया
के रंगमंच पर एक वायरस इन दिनों खलनायक की भूमिका में है! SARS-CoV-2 नामक वायरस की वजह से इंसानी दुनिया के पहिए थम चुके हैं।
और
वायरस की हैसियत क्या है। पूरी तरह से सजीव की पदवी भी नहीं मिल सकी इसे। यह सजीव
व निर्जीव के बीच की दहलीज़ पर है। इस पार वह एक निर्जीव,
निस्तेज कण मात्र होता है, वहीं
किसी कोशिका में घुसपैठ कर जाए तो जी उठता है।
वायरस
एक सरल-सा
कण है जिसमें न्यूक्लिक अम्ल का मामूली-सा धागा व चारों ओर प्रोटीन का आवरण होता
है। सूक्ष्म इतना कि नग्न आंखों से दिखाई ही न दे। मिलीमीटर या सेंटीमीटर तो इसके
सामने विशाल हैं। यह महज़ कुछ नैनोमीटर (एक मिलीमीटर का दस लाखवां हिस्सा) का होता है। लेकिन
इस अति सूक्ष्म कण ने दुनिया को हिलाकर रख दिया है। यह सच है कि कुछ वायरस अपने
मेज़बान के साथ रोगजनक सम्बंध रखते हैं – सर्दी-ज़ुकाम, गंभीर
श्वसन रोग से लगाकर मृत्यु शैय्या तक पहुंचा देते हैं।
वायरस
को सक्रिय होने के लिए कोई सजीव शरीर चाहिए। वायरस जैसे ही सजीव कोशिकाओं में
प्रवेश करता है, कोशिका की
कार्यप्रणाली पर अपना कब्ज़ा जमा लेता है और फिर अपने हिसाब से कोशिका को संचालित
करने लगता है। वायरस खुद अपने न्यूक्लिक अम्ल की प्रतिलिपियां बनाने लगता है।
लेकिन
सभी वायरस खलनायक नहीं होते। कई वायरस तो वाकई में उन बैक्टीरिया को अपना शिकार
बनाते हैं जिनके मारे दुनिया में महामारियां आई हैं। प्लेग,
तपेदिक, कोढ़,
टायफाइड, बैक्टीरियल
मेनिन्जाइटिस, निमोनिया इत्यादि
प्रमुख बैक्टीरिया-जनित
रोग हैं। एक ज़माना था जब इन बीमारियों की वजह से लोग जान गंवा देते थे। अब इन
बीमारियों के लिए एंटीबायोटिक दवाइयां उपलब्ध हैं।
लेकिन
पिछले कुछ वर्षों में एंटीबायोटिक दवाओं को लेकर समस्याएं बढ़ी हैं। बैक्टीरिया
एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधी हुए हैं। बैक्टीरिया इन दवाओं के प्रति
प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर चुके हैं। टीबी के जीवाणु बहु-औषधि प्रतिरोधी हो चुके हैं। ऐसे मरीज़ों का
इलाज करना एक बड़ी चुनौती साबित हो रही है।
दुनिया
भर में चिंता व्याप्त है कि एंटीबायोटिक के खिलाफ बढ़ते प्रतिरोध के चलते कहीं हम
उस दौर में न लौट जाएं जब एंटीबायोटिक थे ही नहीं।
वायरस
की दुनिया में एक किस्म के वायरसों को बैक्टीरियोफेज (बैक्टीरिया-भक्षी) कहते हैं। दरअसल,
बैक्टीरियोफेज बैक्टीरिया को संक्रमित करते हैं। ये
बैक्टीरिया की कोशिका में घुस जाते हैं और उससे अपनी प्रतिलिपियां बनवाते हैं।
इसका परिणाम होता है बैक्टीरिया कोशिका की मृत्यु। ये बैक्टीरियोफेज वायरस मुक्त
हो जाते हैं और फिर से किसी बैक्टीरिया में घुसते हैं। यह प्रक्रिया चलती रहती है।
हज़ारों
प्रकार के बैक्टीरियोफेज मौजूद हैं जिनमें से प्रत्येक प्रकार केवल एक या कुछ ही
प्रकार के बैक्टीरिया को संक्रमित कर सकता है। अन्य वायरसों के समान इनकी आकृति भी
सरल होती है। इनमें न्यूक्लिक अम्ल होता है जो कैप्सिड नामक आवरण से घिरा होता है।
बैक्टीरियोेफेज
की खोज 1915 में
फ्रेडरिक विलियम ट्वॉर्ट द्वारा चेचक का टीका बनाने की कोशिश के दौरान की गई थी।
वे दरअसल, एक प्लेट पर
वैक्सिनिया बैक्टीरिया का कल्चर करने में मुश्किल का सामना कर रहे थे क्योंकि
प्लेट में बैक्टीरिया वायरस से संक्रमित होकर मर रहे थे। ट्वॉर्ट के ये अवलोकन
प्रकाशित हुए मगर प्रथम विश्व युद्ध व वित्तीय बाधाओं के चलते वे आगे इस दिशा में
काम नहीं कर सके। 1917 में
इस काम को सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक फेलिक्स डी हेरेल ने पेरिस के पाश्चर संस्थान में
आगे बढ़ाया। उन्होंने पेचिश के रोगियों को ठीक करने के लिए ‘बैक्टीरियोफेज’ का उपयोग किया था।
पेरिस
के एक अस्पताल में चार मरीज़ शिगेला बैक्टीरिया के संक्रमण के कारण पेचिश से पीड़ित
थे। इस बीमारी में खूनी दस्त, पेट में ऐंठन व
बुखार आता है। उन मरीज़ों को शिगेला बैक्टीरिया का भक्षण करने वाले बैक्टीरियोफेज
वायरस की खुराक दी गई। आश्चर्यजनक रूप से, एक
ही दिन में उन मरीज़ों में बीमारी से उबरने के संकेत मिले।
हेरेल
के निष्कर्ष प्रकाशित होने के बाद चिकित्सक रिचर्ड ब्रइनोगे और उनके छात्र मैसिन
ने एक बैक्टीरिया की वजह से होने वाले चमड़ी के रोग के उपचार में बैक्टीरियोफेज का
उपयोग किया और 48 घंटों
के भीतर ठीक होने के स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत किए।
1925 में हेरेल ने प्लेग-पीड़ित चार मरीज़ों का
इलाज किया। प्लेग यर्सिनिया पेस्टिस नामक बैक्टीरिया की वजह से होता है। जब
इसका भक्षण करने वाले बैक्टीरियोफेज का इंजेक्शन लगाया गया तो चारों मरीज़ स्वस्थ
हो गए।
जीवाणु
संक्रमण से उबरने की सफलता की कहानी ने मिस्र में क्वारेंटाइन बोर्ड के ब्रिटिश
प्रतिनिधि मॉरिसन का ध्यान खींचा। मॉरिसन ने हेरेल को फेज उपचार पर काम करने के
लिए जुड़ने का अनुरोध किया। हेरेल को 1926 में कई अस्पतालों व अनुसंधान संस्थानों के सहयोग से भारत
में, इंडियन रिसर्च फंड एसोसिएशन (आईआरएफए) द्वारा फेज उपचार
करने के लिए जोड़ा गया। 1927
में यह काम शुरू होकर नौ साल तक चला और 1936 में पूरा किया गया।
जो काम था वह प्रदूषित पानी की वजह से हैजे में फेज उपचार के प्रभाव का अध्ययन
करना था। अध्ययन के नतीजे उम्मीद जगाने वाले थे। 1927 में एसोसिएशन ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन के
सातवें सम्मेलन में फेज उपचार ने खासा ध्यान आकर्षित किया।
पिछले
कुछ वर्षों में बैक्टीरियोफेज पर काफी अनुसंधान हुआ है। बैक्टीरियोफेज बहुकोशिकीय
जंतुओं या वनस्पतियों में कोई बीमारी नहीं फैलाते। ऐसे वायरस न केवल मनुष्यों में
बल्कि फसलों की बैक्टीरिया-जनित बीमारियों के उपचार में उपयोगी हो सकते हैं।
बैक्टीरिया-जनित बीमारियों में
दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता एक आम समस्या है। हाल ही में युनाइटेड किंगडम में
एक बैक्टीरिया-जनित
बीमारी में एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो जाने की वजह से
एक किशोर मौत की कगार पर था। उसका इलाज बैक्टीरियोफेज की मदद से सफलतापूर्वक किया
जा सका।
इन
दिनों बैक्टीरियोफेज को जेनेटिक इंजीनियरींग के जरिए इस तरह से बनाया जा रहा है कि
वह विशिष्ट बैक्टीरिया को निशाना बना सके।
उपचार
के लिए बैक्टीरियोफेज का डोज़ सुविधानुसार या तो मुंह से दिया जा सकता है या फिर
घाव पर लगाया जा सकता है या फिर संक्रमित हिस्से पर स्प्रे किया जा सकता है।
इंजेक्शन के ज़रिए फेज की खुराक को कैसे दी जाए इस पर परीक्षण चल रहे हैं।
बैक्टीरियोफेज उपचार को लेकर कुछ आस बनती दिखाई दे रही है। कुछ अस्पतालों में वायरस-उपचार के सफल उपयोग के समाचार मिले हैं। बैक्टीरियोफेज वायरसों को पहचानना व एकत्रित करना और उन्हें सहेजकर रखना अब आसान हुआ है। एक समय पर एंटीबायोटिक दवाओं ने संक्रामक रोगों से बचने में अहम भूमिका अदा की थी और आज भी कर रहे हैं। अब उम्मीद की जानी चाहिए कि बैक्टीरियोफेज से बैक्टीरिया जनित बीमारियों का उपचार इस दिशा में क्रांतिकारी साबित होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.cancer.gov/sites/g/files/xnrzdm211/files/styles/cgov_article/public/cgov_image/media_image/100/600/6/files/polio-virus-article.jpg?h=b26af281&itok=awKDstU0