कई अस्पताल, खास तौर से निजी व कार्पोरेट अस्पताल, अपने प्रवेश कक्ष और मरीज़ों के प्रतीक्षा कक्षों में आकर्षक तस्वीरें और कलाकृतियां रखते हैं। अधिकांश लोग, और वास्तव में कई अस्पताल मालिक भी सोचते हैं कि यह उनके कलाप्रेम का ढिंढोरा पीटने जैसा है। इसके विपरीत, अधिकांश सार्वजनिक या सरकारी अस्पताल ऐसा कुछ नहीं करते और अपनी दीवारों को सूना छोड़ देते हैं या उन पर तमाम सूचनाएं चस्पा कर देते हैं। इन अस्पतालों के कमरे और गलियारे भद्दे लगते हैं। यह बात देश भर के अत्यंत प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थानों पर भी लागू होती है। इसे देखते हुए, यह बात आपको (और शायद इन निजी अस्पतालों के मालिकों को भी) आश्चर्यजनक लगेगी कि अस्पतालों में मरीज़ों के प्रतीक्षा कक्षों और वाड्र्स में कलाकृतियों का प्रदर्शन मरीज़ों, डॉक्टरों, नर्सों और देखभाल करने वाले लोगों के लिए अच्छा होता है।
डेनमार्क के शोधकर्ताओं एस. एल. नीलसन व साथियों द्वारा इंटरनेशनल जर्नल ऑफ क्वालिटेटिव स्टडीज़ ऑन हेल्थ एंड वेल–बीइंग में प्रकाशित पर्चे ‘मरीज़ अस्पतालों में कला को कैसे महसूस करते हैं और उसका उपयोग करते है?’ में बताया गया था कि कैसे इससे मरीज़ों को सुलभता और देख-रेख का एहसास होता है। इस रिपोर्ट को कई जगह उद्धरित किया जाता है।
शोधकर्ताओं ने एक साझा देखभाल कक्ष में रखे गए मरीज़ों का कई सप्ताह तक अध्ययन किया था। पहले सप्ताह में कक्ष की दीवारें खाली और सूनी थीं। हर मरीज़ अपनी ही चिकित्सकीय हालत (तकलीफ) में डूबा था। मरीज़ कक्ष में किसी और से बात भी नहीं करते थे।
आठवें दिन देखभाल कक्ष की दीवारों पर कलाकृतियां – पेंटिंग, तस्वीरें, फोटोग्राफ्स – लगा दी गर्इं। अधिकांश मरीज़ों ने इन्हें देखा और इनका अध्ययन किया। पहले की आत्म-केंद्रिकता से उनका ध्यान बंटा और वे इन चीज़ों का विश्लेषण करने लगे और अपने ढंग से उनकी व्याख्या करने लगे। वे कक्ष के अन्य लोगों से बातचीत करने लगे और दोस्तियां बनार्इं, गैर-चिकित्सकीय विषयों पर चर्चा करने लगे, नुक्ताचीनी करने लगे और मेलजोल बढ़ा। यह भी देखा गया कि मरीज़ नर्सों, डॉक्टरों और देखभाल करने वाले अन्य लोगों की बातें ज़्यादा ध्यान से सुनने लगे और उनका उपचार बेहतर होता गया।
शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि कला एक ऐसा माहौल पैदा करती है जहां मरीज़ सुरक्षित महसूस करते हैं, मेलजोल बढ़ाते हैं और अस्पताल की चारदीवारी से बाहर की दुनिया से जुड़ते हैं। यह उनकी पहचान को भी सहारा देता है। कुल मिलाकर अस्पताल में दृश्य कला स्वास्थ्य सम्बंधी परिणामों में सुधार करती है। अपेक्षा तो यह की जानी चाहिए कि यह बात खास तौर से आईसीयू में बंद मरीज़ों पर ज़्यादा लागू होगी क्योंकि वहां तो पूरा परिवेश चिकित्सा उपकरणों से भरा होता है।
देखा जाए, तो यह अध्ययन युरोपीय समाज में किया गया था। क्या इसके परिणाम भारत के सार्वजनिक और सरकारी अस्पतालों के लिए भी सही होंगे? कोई कारण नहीं कि ऐसा नहीं होगा लेकिन इसका नियोजन व रणनीति स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप होनी चाहिए। लोग तो लोग होते हैं: वे बातचीत करना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि उन पर ध्यान दिया जाए, सिर्फ चिकित्सकीय ध्यान नहीं बल्कि व्यक्तियों के रूप में ध्यान दिया जाए।
इसके लिए डिज़ाइनर्स, समाज वैज्ञानिकों और संवेदनशील कलाकारों को डॉक्टरों के साथ मिलकर उपलब्ध जगह के आधार पर कलाकृतियों का चयन करना होगा। मरीज़ों के लिए उपलब्ध जगह और भीड़भाड़, काम के बोझ से दबे डॉक्टर्स और देखभालकर्ता, स्थानीय संस्कृति तथा अन्य कारकों का ध्यान रखना होगा। लेकिन यह किया जा सकता है। और यह किया जाना चाहिए क्योंकि जैसा कि ऊपर कहा गया था, कला स्वास्थ्य सम्बंधी परिणामों में योगदान देती है और इसे स्वास्थ्य देखभाल का ही एक विस्तार माना जाना चाहिए।
सवाल यह है कि क्या अस्पताल में कला डॉक्टरों और नर्सों की मदद करती है? कलाकृतियों को देखकर वे क्या सीख सकते हैं? क्या इससे उन्हें बेहतर पेशेवर बनने में मदद मिलती है? दरअसल ऐसा ही है। एन स्लोअन डेवलिन की पुस्तक Transforming the Doctor’s office: Principles from Evidence-Based Design (डॉक्टर के दफ्तर में तबदीली: प्रमाण-आधारित डिज़ाइन से कुछ सिद्धांत) में कुछ सुराग मिलते हैं। और डॉक्टर रॉबर्ट ग्लैटर का आलेख Can studying art help medical students become better doctors? (क्या कला का अध्ययन चिकित्सा छात्रों को बेहतर डॉक्टर बनने में मदद करता है?) इस बात के पक्ष में पुख्ता तर्क पेश करता है कि चिकित्सा विद्यार्थियों के लिए ग्रे की एनाटॉमी से आगे जाकर कला का पाठ¬क्रम रखा जाना चाहिए। और वास्तव में कुछ चिकित्सा अध्ययन शालाओं में ऐसा कोर्स जोड़ा गया है और नौजवान छात्रों ने इसे पसंद भी किया है और उन्हें लगता है कि इससे उनकी नैदानिक कुशलता बेहतर हुई है। एक छात्र का कहना था: “अब तक मैं चित्र के मध्य भाग को मुख्य हिस्सा मानकर चल रहा था, लेकिन मुझे समझ में आया है कि हाशियों पर जानकारी का खजाना है।”
तो, हमारे मेडिकल कॉलेज इसे आज़मा सकते हैं और समय-समय पर कलाकारों को आमंत्रित करके उनसे अपनी कला के बारे में बात करने को कह सकते हैं और छात्रों से उनकी प्रतिक्रिया बताने को कहा जा सकता है। समय-समय पर ऐसे सम्मेलन, चाहे वे पाठ¬क्रम का हिस्सा न हों, दिमाग को विस्तार देंगे और मशीनों से मिलने वाले चित्रों की व्याख्या करने और उनसे और अधिक जानकारी प्राप्त करने में मददगार होंगे। हैदराबाद के एक निजी मेडिकल कॉलेज ने अपने चिकित्सा व शोध सदस्यों तथा डॉक्टरों के लिए इस पर अमल भी किया है। कॉलेज ने मरीज़ों के प्रतीक्षा कक्ष में, हर मंज़िल की दीवारों पर, बच्चों के देखभाल केंद्र में, दृष्टि सहायता चिकित्सालयों में पेंटिंग्स व अन्य कलाकृतियां रखी हैं। इस प्रकार से उन्होंने डेनमार्क के समूह द्वारा 2017 में सुझाए गए उपायों को अपनाया है। अस्पताल ने एक पूरी मंज़िल का बड़ा हिस्सा तो कला दीर्घा को समर्पित कर दिया है यहां कलाकारों, संगीतज्ञों, लेखकों, गैर-सरकारी संगठनों और अन्य विद्वानों को व्याख्यान देने तथा डॉक्टरों व वैज्ञानिकों के अलावा आम नागरिकों से भी बातचीत करने हेतु आमंत्रित किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/ntrq3b/article30951554.ece/ALTERNATES/FREE_960/01TH-SCIHOSPITAL-ART1