मनुष्यों
में अनुभवों, जानकारियों और
आंकड़ों के आधार पर निर्णय लेने की क्षमता होती है। हाल के एक अध्ययन में सामने आया
है कि न्यूज़ीलैंड में पाए जाने वाले किआ तोते भी ऐसा कर सकते हैं। वानरों के अलावा
किसी अन्य प्रजाति में पहली बार इस तरह का संज्ञान देखा गया है।
जैतूनी
भूरे रंग के ये तोते अपनी हरकतों के लिए बदनाम हैं। अतीत में ये चोंच का छुरी की
तरह उपयोग कर भेड़ों की चमड़ी को भेदते हुए उनकी रीढ़ की हड्डी के इर्द-गिर्द जमा वसा तक
पहुंच जाते थे। आजकल ये खाने के सामान के लिए लोगों के पिट्ठू बैग को चीर देते हैं,
और कार के वाइपर निकाल देते हैं।
यह
देखने के लिए कि क्या किआ तोतों की शैतानी के साथ बुद्धिमत्ता जुड़ी है,
युनिवर्सिटी ऑफ ऑकलैंड की मनोविज्ञानी एमालिया बास्टोस और
उनके साथियों ने न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च के पास स्थित अभयारण्य के छह किआ
तोतों का अध्ययन किया। पहले तो शोधकर्ताओं ने तोतों को यह सिखाया कि काले रंग का
टोकन चुनने पर हमेशा स्वादिष्ट भोजन मिलता है जबकि नारंगी टोकन से कभी भोजन नहीं
मिलता। फिर उनके सामने पारदर्शी मर्तबानों में काले और नारंगी रंग के टोकन रखे गए।
जब शोधकर्ताओं ने बंद मुट्ठी में मर्तबान से टोकन निकाले तब किआ तोते ने अधिकतर उन
हाथों को चुना जिन्होंने उस मर्तबान से टोकन निकाले थे जिनमें नारंगी टोकन की
तुलना में काले टोकन अधिक थे। ऐसा उन्होंने तब भी किया जब मर्तबानों में काले और
नारंगी टोकन के बीच अंतर बहुत कम था (63 काले और 57 नारंगी)।
अगले
परीक्षण में शोधकर्ताओं ने किआ तोतों के सामने दो पारदर्शी मर्तबान में दोनों
रंगों के टोकन बराबर संख्या में रखे। लेकिन मर्तबानों को एक शीट की मदद से ऊपरी व
निचले दो हिस्सों में बांटा गया था। हालांकि दोनों मर्तबानों में काले व नारंगी
टोकन बराबर संख्या में थे लेकिन एक में ऊपर वाले खंड में ज़्यादा काले टोकन थे।
शोधकर्ता मात्र ऊपर वाले खंड में हाथ डाल सकता था। इस स्थिति में किआ ने उन हाथों
को चुना जिन्होंने उस मर्तबान से टोकन निकाले जिसके ऊपरी हिस्से में काले टोकन
अधिक थे। इसके बाद किए गए अंतिम परीक्षण में भी किआ तोते ने उस शोधकर्ता के हाथ से
टोकन लेना ज़्यादा पसंद किया जिसने काले टोकन अधिक बार निकाले थे।
इन
परीक्षणों के आधार पर नेचर कम्युनिकेशन पत्रिका में शोधकर्ताओं का कहना है
कि किआ तोतों में आंकड़ों के आधार पर अनुमान लगाने की क्षमता होती है। इससे लगता है
कि मनुष्यों की तरह किआ में भी कई किस्म की सूचनाओं को एकीकृत करने की बौद्धिक
क्षमता होती है। गौरतलब है कि पक्षियों और मनुष्यों के साझे पूर्वज लगभग 31 करोड़ वर्ष पूर्व थे,
और दोनों की मस्तिष्क की संरचना भी काफी अलग है। एक मत यह
रहा है कि इस तरह की बुद्धि के लिए भाषा की ज़रूरत होती है।
अलबत्ता, हार्वड युनिवर्सिटी की तोता संज्ञान विशेषज्ञ आइरीन पेपरबर्ग को लगता है कि किआ ने सहज ज्ञान का प्रदर्शन किया है ना कि सांख्यिकीय समझ का। लेकिन उन्हें यह भी लगता है यदि किआ में सांख्यिकीय अनुमान लगाने की क्षमता होती है तो इस तरह की क्षमता से लैस जानवर भोजन की मात्रा की उपलब्धता और प्रजनन-साथियों की संख्या का अंदाज़ा लगा पाएंगे जो फायदेमंद होगा। (स्रोत फीचर्स)
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ऐसा
कहते हैं कि तनाव के कारण लोगों के बालों का रंग उड़ जाता है,
बाल सफेद हो जाते हैं। कहा जाता है कि मुमताज़ महल की मृत्यु
के बाद शाहजहां के बाल एकाध हफ्ते में ही सफेद हो गए थे। इसी तरह फ्रांस की रानी
मैरी एंतोनिएट के बाल उस रात सफेद हो गए थे जिसके अगले दिन उनका सिरकलम किया जाना
था। तो क्या यह संभव है?
हारवर्ड
स्टेम सेल रिसर्च इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता मामले की तह तक पहुंचना चाहते थे। बात
को समझने के लिए या-चिए
ह्सू और उनके साथियों ने अपने सारे प्रयोग चूहों पर किए हैं लेकिन उन्हें लगता है
कि परिणाम मनुष्यों पर लागू होंगे।
सबसे
पहले उन्होंने उन स्टेम कोशिकाओं पर ध्यान केंद्रित किया जो मेलेनोसाइट (मेलेनीन रंजक युक्त
कोशिका) का
निर्माण करती हैं। ये मेलेनोसाइट प्रत्येक बाल में मेलेनीन पहुंचाती हैं जिसका रंग
काला होता है। मेलेनोसाइट बनानी वाली स्टेम कोशिकाओं पर ध्यान जाना स्वाभाविक था
क्योंकि मेलेनोसाइट स्टेम कोशिकाओं की तादाद में फर्क पड़ने से बालों के रंग पर असर
पड़ता है।
पहले
तो शोधकर्ताओं ने इन चूहों को उनके डील-डौल के हिसाब से तनाव दिया। जैसे उनके
पिंजड़ों को झुकाकर रखा गया या उनके सोने की जगह को गीला रखा गया या रात भर लाइटें
चालू रखी गर्इं। शोधकर्ताओं ने देखा कि तनाव के कारण वास्तव में चूहों के बाल सफेद
हो जाते हैं।
विचार
बना कि शायद इन चूहों में तनाव बढ़ने पर उनकी प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं
मेलेनोसाइट स्टेम कोशिकाओं पर आक्रमण कर रही हैं, जिसकी
वजह से इन स्टेम कोशिकाओं की संख्या कम होने लगी है। लेकिन जिन चूहों में
प्रतिरक्षा कोशिकाएं नहीं थीं, उनके भी बाल सफेद
हुए। निष्कर्ष: तनाव
के कारण बाल सफेद होने में प्रतिरक्षी कोशिकाओं का हाथ नहीं है।
अगला
विचार आया कि संभवत: इसमें
कॉर्टिसोल की भूमिका होगी। कॉर्टिसोल वह प्रमुख हारमोन है जो तनाव के समय बनता है।
यह बालों पर भी असर डालता है। लेकिन प्रयोगों में देखा गया कि बाल सफेद उन चूहों
में भी हुए जिनकी कॉर्टिसोल बनाने वाली ग्रंथि निकाल दी गई थी। तो अब क्या?
इसके
बाद उनका ध्यान अनुकंपी तंत्रिका तंत्र पर गया। यही तंत्रिका तंत्र हारमोन के
प्रभाव से तनाव जनित व्यवहारों और ‘लड़ो या भागो’ प्रतिक्रिया को अंजाम देता है। इन अनुकंपी तंत्रिकाओं के
सिरे हर रोम के आसपास लिपटे होते हैं। जब टीम ने चूहों में इन कनेक्शन को काट दिया
तो जल्दी ही चूहों के बाल सफेद हो गए।
अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या उम्र के साथ बाल सफेद होने की प्रक्रिया में भी अनुकंपी तंत्रिकाओं की भूमिका है लेकिन शोधकर्ताओं का ख्याल है कि सफेद बालों की समस्या के संदर्भ में कुछ तो आशा जगी है।(स्रोत फीचर्स)
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गंध से हमारा
बेहद करीबी रिश्ता रहा है। पकवानों की खुशबू से ही हम यह बता देते हैं कि पड़ोसी के
घर में क्या बना है। गरमा-गरम कचोरी, कढ़ाई से उतरती सेव व पकोड़े, पके आम व खरबूज़े की मीठी खुशबू हो या चंदन, गुलाब, मोगरा, चंपा आदि के
इत्र की मदहोश कर देने वाली गंध हमें दीवाना बनाने के लिए काफी है। अलबत्ता,
हममें से कुछ ऐसे भी हैं जो तपेली में जलते हुए दूध,
बासी दाल और हींग जैसी तेज़ गंध को भी नहीं सूंघ पाते।
स्वाद की तरह गंध भी एक रासायनिक संवेदना है। हमारे आसपास
का वातावरण गंध के वाष्पशील अणुओं से भरा हुआ है। जब हम नाक से सांस खींचते हैं तो
गंध के अणु नाक के भीतर रासायनिक ग्राहियों से क्रिया करके संदेश को मस्तिष्क में
पहुंचा देते हैं। अभी तक यही समझा जाता था कि मस्तिष्क के कुछ विशेष हिस्से (जैसे
घ्राण बल्ब) गंध संदेशों की विवेचना कर हमें गंध का बोध कराते हैं। लेकिन कुछ ही
समय पहले एक शोध टीम ने कुछ ऐसी महिलाओं की खोज की है जिनकी सूंघने की क्षमता तो
सामान्य है परन्तु उनके मस्तिष्क में घ्राण बल्ब नहीं है।
विभिन्न जंतुओं में गंध को पहचानने वाले जीन्स की संख्या
अलग-अलग होती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि अक्सर गंध के जीन्स की संख्या का
सीधा सम्बंध गंध संवेदना से है – ज़्यादा जीन्स मतलब सूंघने की बेहतर क्षमता। विभिन्न प्रजातियों पर किए गए एक
अध्ययन से निष्कर्ष निकला है कि हाथी, भालू और शार्क कुछ ऐसे जंतु हैं जिनमें सूंघने की क्षमता बहुत विकसित होती है।
भालू की सूंघने की क्षमता बेहद तगड़ी है। ये सुगंध का पीछा करते-करते जंगलों से
बाहर मानव आवास, कैम्प स्थल
तथा कूड़ेदानों तक पहुंच जाते हैं। हालांकि भालू का मस्तिष्क मानव मस्तिष्क का केवल
एक तिहाई ही होता है परन्तु अग्र मस्तिष्क में स्थित घ्राण बल्ब मनुष्यों के
मुकाबले पांच गुना बड़े होते हैं। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि मानव की तुलना
में भालू में गंध को ग्रहण करने की क्षमता 2000 गुना से भी बेहतर है। भालू न केवल
भोजन बल्कि यौन साथी की खोज, खतरे और शावकों पर नज़र रखने के लिए भी गंध का उपयोग करते हैं। कितने आश्चर्य
की बात है कि मादा भालू अपने बच्चों की निगरानी उन पर निगाह रखे बगैर भी कर सकती है।
मांसाहारी ध्रुवीय भालू बर्फ से ढंके विशाल भू-भाग में 150 कि.मी. की दूरी से
प्रणय को आतुर मादाओं की गंध पहचान लेते हैं। भारतीय जंगलों के भालू भी 30 कि.मी.
दूर से मृत जानवर की गंध पहचानकर उस ओर खिंचे चले आते हैं।
ग्रेट व्हाइट शार्क में घ्राण ग्रंथियां बेहद विकसित होती
हैं। कुत्तों के समान विकसित सूंघने की क्षमता के चलते इसे डॉग फिश भी कहा जाता
है। ग्रेट व्हाइट शार्क में तो मस्तिष्क का दो तिहाई हिस्सा गंध की संवेदनाओं के
लिए निर्धारित होता है। शार्क के नथुनों से लगातार पानी बहता रहता है और गंध के
अणु रिसेप्टर्स से जुड़कर संवेदना देते रहते हैं।
अफ्रीकन हाथियों में खुशबू लेने वाले जीन्स की संख्या 1948
होती है। गंध के जीन्स किस खूबी से हाथियों में कार्य करते हैं,
यह तब पता चलता है जब पानी को खोजते हुए हाथी 20 कि. मी.
दूर से आती गंध को पहचान कर उस स्थान पर पहुंच जाते हैं। बहु-उपयोगी सूंड में ही
गंध को पहचानने वाले रिसेप्टर्स पाए जाते हैं।
इरुााइल के वाइज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में शोधकर्ता ताली
वीस और नोआम सोबेल की टीम गंध एवं प्रजनन क्षमता के बीच सम्बंध की तलाश में
मस्तिष्क का एमआरआई देख रही थी। अनेक वालंटियर्स की जांच के दौरान उन्होंने पाया
कि एक महिला के मस्तिष्क में घ्राण बल्ब है ही नहीं। यह एक असामान्य घटना थी
परन्तु पूर्व के शोध भी बताते हैं कि 10,000 में से एकाध मनुष्य में घ्राण बल्ब
नहीं होता है और वे गंध नहीं सूंघ सकते।
उस महिला से पूछा गया कि क्या वह गंध नहीं पहचान सकती?
महिला इस बात पर दृढ़ रही कि उसकी गंध सूंघने की क्षमता
बेहतरीन है। शंका से भरे वैज्ञानिकों ने महिला की गंध पहचानने की क्षमता पर अनेक
परीक्षण किए और आश्चर्यजनक रूप से महिला ने गंध पहचानने की उत्तम क्षमता का परिचय
दिया। आम तौर पर घ्राण बल्ब और उससे निकले न्यूरॉन्स गंध की पहचान में महत्वपूर्ण
माने जाते हैं। शोध के दौरान कुछ ही समय में एक और ऐसी महिला मिली जिसकी सूंघने की
क्षमता तो बेहतरीन थी परन्तु गंध के अणुओं को ज्ञात करने वाला मस्तिष्क का भाग
अनुपस्थित था।
शोधकर्ताओं ने शंका के समाधान के लिए ह्यूमन कनेक्टोम
प्रोजेक्ट की ओर रुख किया जो प्रतिभागियों के गंध स्कोर एकत्रित करता है। 600
महिलाओं और 500 पुरुषों से प्राप्त आंकड़ों में खोजबीन करने पर तीन महिलाएं ऐसी
निकलीं जिनकी सूंघने की शक्ति तो बहुत अच्छी थी परन्तु उन सबके मस्तिष्क में घ्राण
बल्ब का अभाव था। ऐसी महिलाओं का प्रतिशत केवल 0.6 था।
उपरोक्त तीनों महिलाओं में से एक लेफ्ट हेण्डेड थी। आंकड़े
और खंगालने तथा एमआरआई एवं गंध परीक्षण करने पर तीन और महिलाएं मिलीं जिनमें से एक
ऐसी थी जिसके मस्तिष्क में घ्राण बल्ब नहीं था और सूंघने की क्षमता भी नहीं थी।
बाकी दोनों अन्य सामान्य व्यक्तियों के समान ही अधिकांश गंधों को पहचान सकती थीं।
अब यह देखने की कोशिश की गई कि प्रतिभागी कौन-सी गंधों को पहचानते हैं। इसके लिए
लगभग समान आयु की 140 महिलाओं को दो गंध सुंघाकर यह पता लगाया गया कि क्या वे अंतर
कर पाती हैं? फिर बगैर
घ्राण बल्ब वाली महिलाओं और बाकी सभी सामान्य महिलाओं में सूंघने की क्षमता में
तुलनात्मक अंतर देखा गया। घ्राण बल्ब रहित महिलाएं बाकी सभी के विपरीत एक जैसी गंध
पहचानती थीं। पूरे शोध से दो निष्कर्ष प्राप्त हुए। एमआरआई के आंकड़ों में से केवल
महिलाएं ही ऐसी थीं जिनमें घ्राण बल्ब नहीं थे और वे भी ऐसी थी जो लेफ्ट हेण्डेड
(खब्बू) थीं। इस विषय पर शोध कार्य कर रहे वैज्ञानिक सोबेल ने पाया कि ब्रोन स्केन
के आंकड़े लेते समय लेफ्ट हेण्डेड महिलाओं को छोड़ ही दिया गया था क्योंकि उनकी वजह
से आंकड़ों में असमानता एवं भिन्नता उत्पन्न हो रही थी।
अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि बगैर घ्राण बल्ब के इन महिलाओं में गंध पहचानने की क्षमता कैसे विकसित हो गई। एक परिकल्पना के अनुसार घ्राण बल्ब के बगैर पैदा होने के बाद शैशवावस्था में ही मस्तिष्क ने गंध को पहचानने का अन्य तरीका निकाल लिया और उसका एक अन्य हिस्सा इस कार्य को करने लगा। या शायद हमें घ्राण बल्ब की आवश्यकता सूंघने, गंध पहचानने और गंध में अंतर करने में पड़ती ही नहीं है। तो शायद अभी तक हम जैसा समझते थे, घ्राण बल्ब वैसा सूंघने का कार्य करते ही नहीं है। यह भी हो सकता है कि वे घ्राण बल्ब बताते है कि गंध किस दिशा से आ रही है। इसलिए आप खाने की गंध कहां से आ रही है तुरंत बता देते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.brainfacts.org/thinking-sensing-and-behaving/smell/2015/making-sense-of-scents-smell-and-the-brain
भारत सरकार के आयुष मंत्रालय ने हाल में एक परामर्श पत्र जारी किया है जिसमें उसने लंबे समय से चले आ रहे एक अधिकारिक मत को दोहराया है: “आयुर्वेद के सिद्धांतों, अवधारणाओं और तरीकों की तुलना आधुनिक चिकित्सा प्रणाली से कदापि नहीं की जा सकती।” यह मत इन दो प्रणालियों के बीच स्पष्ट विभाजन को व्यक्त करता है और परोक्ष रूप से वैज्ञानिक पद्धति की सार्वभौमिकता पर सवाल खड़े करता है। इस आलेख में यह बताने की कोशिश की गई है कि आयुर्वेद की दुनिया में इस मत को व्यापक मान्यता कैसे मिली है।
अंधविश्वास
काफी दिलचस्प हो सकते हैं, खास तौर से तब जब वे
प्रभावशाली लोगों के दिमाग में बसे हों। यह कहानी एक ऐसे ही अंधविश्वास की है जो
बीसवीं सदी के सारे आयुर्वेदिक विचारकों पर हावी रहा है।
जिस अंधविश्वास की बात हो रही
है,
वह मोटे तौर पर निम्नानुसार है: प्राचीन भारतीय ऋषियों
(मनीषियों),
जिन्होंने विभिन्न दार्शनिक प्रणालियों का प्रतिपादन किया, के पास विशेष यौगिक शक्तियां थीं; इन विशेष शक्तियों ने
उन्हें प्रकृति को नज़दीक से जांचने-परखने तथा उसके रहस्यों को उजागर करने में
समर्थ बनाया था। इसके बाद इन रहस्यों को उन्होंने अपने दर्शन के ग्रंथों में
सूक्तियों के रूप में संहिताबद्ध किया। कहने का आशय यह है कि भारतीय ऋषियों ने
विज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए खोजबीन की बाह्र तकनीकों का सहारा न लेकर आंतरिक
यौगिक पद्धतियों का सहारा लिया, जो सिर्फ उन लोगों की पहुंच
में थीं जिन्होंने इनकी साधना की हो। अत: भारतीय दार्शनिक साहित्य उन्नत वैज्ञानिक
ज्ञान से भरा है जिसमें से काफी सारे की पुष्टि तो आधुनिक भौतिक शास्त्र की
विधियों से हो ही चुकी है। यदि किसी मामले में पुष्टि नहीं हुई है तो समझदारी इसी
में है कि प्रतीक्षा करें।
यह तो ज़ाहिर है कि यह अंधविश्वास
क्यों है। एक प्राचीन संस्कृत श्लोक (शांतारक्षिता का तत्वसंग्रह, अध्याय 26,
श्लोक 3149) इस विचारधारा की समस्या को बखूबी उभारता है:
सुगतो यदि सर्वज्ञ: कपिलो नेति का प्रमा।, अथोभावपि
सर्वज्ञौ मतभेदस्तयो: कथम।। (“यदि बुद्ध को सर्वज्ञाता माना गया है, तो कपिल को क्यों नहीं? यदि ये दोनों बराबर के
सर्वज्ञाता हैं,
तो ये आपस में असहमत क्यों हैं?”)
सीधा-सा तथ्य यह है कि एक ही
विषय को लेकर दार्शनिकों में अलग-अलग मत पाए जाते हैं। इससे यह स्वयंसिद्ध है कि
उनके निष्कर्ष अंतिम होने का दावा नहीं कर सकते। ऐसी स्थिति में, जब यौगिक पद्धति तक सबकी पहुंच आसान नहीं है, तो
किसी मत को मानना दार्शनिक विशेष के प्रति निजी प्रीति का मामला रह जाता है, न कि उसके दर्शन में सत्य का परिमाण।
ऐसे में, सहज बुद्धि का स्थान अथॉरिटी ले लेती है और प्रत्यक्ष खोजबीन का स्थान लिखित
शब्द ले लेते हैं। अटकलों को, यहां तक सुविचारित अटकलों को
भी यौगिक अंतज्र्ञान का जामा पहनाने की प्रवृत्ति का परिणाम सहज बुद्धि के निजीकरण
और संपूर्ण बौद्धिक अशक्तिकरण के रूप में सामने आता है। ये दोनों ही संजीदा
विज्ञान कर्म का गला घोंटने के लिए पर्याप्त हैं।
आयुर्वेद के क्षेत्र में इस
विज्ञान-निषेध विश्व दृष्टि की ऐतिहासिक जड़ों की खोज करना लाभप्रद होगा। कहानी
लगभग 100 वर्ष पहले की है। 1921 में मद्रास प्रेसिडेंसी की तत्कालीन सरकार ने एक
समिति का गठन किया था। इस समिति को देसी चिकित्सा प्रणाली को मान्यता तथा
प्रोत्साहन देने के सवाल पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने का काम सौंपा गया था। मुहम्मद
उस्मान की अध्यक्षता में इस समिति ने अनुकरणीय काम किया और एक विस्तृत रिपोर्ट
तैयार की,
जो आज भी आयुर्वेदिक कामकाज का एक जीवंत चित्र प्रस्तुत
करने की दृष्टि से मूल्यवान है। कैप्टन जी. श्रीनिवास मूर्ति समिति के सचिव थे। वे
आधुनिक चिकित्सा में प्रशिक्षित एक प्रतिष्ठित चिकित्सक थे। उनके द्वारा प्रस्तुत
मेमोरेंडम समिति की रिपोर्ट में संलग्न था। यह संभवत: आयुर्वेद को पाश्चात्य
चिकित्सा प्रणाली और आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति के रूबरू खड़ा करने का पहला औपचारिक
प्रयास था। विडंबना यह है कि यह उपरोक्त विज्ञान-विरोधी नज़रिए को संस्थागत स्वरूप
देने का भी प्रयास था। लगभग 100 साल पहले मूर्ति ने अनजाने में जो बात लिखी थी, वह आज आयुर्वेद जगत का प्रचलित नज़रिया बन गई है: “हिंदुओं ने जिस पद्धति से
चीज़ों को जानने की कोशिश की वह ज्ञानेंद्रियों के दायरे से परे है और वह पश्चिम के
तरीके से एक खास मायने में भिन्न है; आधुनिक विज्ञान में हम
अपनी ज्ञानेंद्रियों की सीमाओं से पार पाने के लिए सूक्ष्मदर्शी, दूरदर्शी और वर्णक्रमदर्शी जैसे बाह्र उपकरणों का सहारा लेते हैं; दूसरी ओर हिंदुओं ने वही प्रभाव प्राप्त करने के लिए अपनी ज्ञानेंद्रियों को
बाह्र साधनों का सहारा न देकर, अपने आंतरिक संवेदी अंगों को
उन्नत बनाने की कोशिश की, ताकि उनकी अनुभूति का दायरा
किसी भी वांछित सीमा तक बढ़ जाए; और यह उन्नति लाने का तरीका यह
था कि अपनी इंद्रियों का अभ्यास गुरू द्वारा शिष्य को बताए गए विशेष तरीके से किया
जाए।” भारतीय दार्शनिक विचारों और आधुनिक भौतिकी के बीच कुछ समानताएं बताने का
प्रयास करने के उपरांत वे उम्मीद जताते हैं कि “जब हम देखते हैं कि कैसे इनमें से
कई सिद्धांतों को आधुनिक विज्ञान की ताज़ा घटनाओं ने सही साबित कर दिया है, तो हम यह महसूस करने से इन्कार नहीं कर सकते कि जिस तरह से कुछ सिद्धांत सही
साबित हो चुके हैं, वही अन्य सिद्धांतों को लेकर भी होगा।”
इस बात को न तो संजीदा विज्ञान
का समर्थन हासिल है और न ही संजीदा दर्शन शास्त्र का, लेकिन
आयुर्वेद जगत में इसे पूरी स्वीकृति मिल गई है। अचंता लक्ष्मीपति और पंडित शिव
शर्मा जैसे नामी-गिरामी लोगों ने इस विचार का समर्थन किया है। आजकल के ज़माने का
नया ‘फितूर’ है कि क्वांटम भौतिकी के विचारों को भारतीय दार्शनिक साहित्य में
‘खोज’ निकाला जाए। इससे भी उपरोक्त धारणा को समर्थन मिला है।
और तो और, आयुर्वेद का पाठ¬क्रम
भी इसी आधार पर बनाया गया और इसके चलते उक्त धारणा आयुर्वेद का अधिकारिक नज़रिया बन
गई। इस धारणा का सबसे गंभीर परिणाम यह हुआ कि आयुर्वेदिक सिद्धांतों को वैज्ञानिक
छानबीन के दायरे से बाहर रखा गया और वह भी इस काल्पनिक उम्मीद में कि विज्ञान को
अभी पर्याप्त प्रगति करनी है, उसके बाद ही वह इन सिद्धांतों
की जांच के काबिल हो पाएगा। इस तरह से अधिकारिक आयुर्वेद वैज्ञानिक पद्धति की
सार्वभौमिकता के साथ बेमेल हो गया।
रिचर्ड फाइनमैन ने कहा था, “विशेषज्ञों की अज्ञानता में विश्वास का नाम विज्ञान है।” आयुर्वेद को संस्थागत अंधवि·ाास की जकड़न से मुक्त कराना इसी बात पर निर्भर है कि क्या आयुर्वेद के विद्यार्थी इस विश्वास में समर्थ हैं। आयुर्वेद का एक प्राक्विज्ञान से आगे बढ़कर एक पूर्ण विज्ञान बनना इसी बात पर निर्भर है कि इन संस्थागत अंधविश्वासों को कितने कारगर ढंग से चुनौती दी जाती है। यदि चुनौती नहीं दी गई तो यह महान चिकित्सकीय विरासत एक छद्म विज्ञान में विघटित हो जाएगी। हमें इस आसन्न खतरे के प्रति सचेत होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/201509/super-1_647_091215035412.jpg
पृथ्वी
के सबसे ऊंचे पहाड़ों के घास के मैदानों में विशेष प्रकार के भेड़िए पाए जाते हैं।
उत्तरी भारत,
नेपाल, और चीन में पाए जाने वाले ये
भेड़िए अपनी लंबी थूथन, हल्के रंग की ऊनी खाल और मोटी आवाज़ के लिए
जाने जाते हैं। लेकिन हालिया अध्ययन से पता चला है कि ये रंग-रूप में ही नहीं
बल्कि आसपास के इलाकों में पाए जाने वाले अन्य मटमैले भेड़ियों से जेनेटिक रूप से
भी अलग हैं। ये जेनेटिक परिवर्तन उनको 4000 मीटर ऊंचाई की विरल हवा में जीने में
मदद करते हैं।
इस अध्ययन के प्रमुख और
कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के कैनाइन विकास विशेषज्ञ बेन सैक्स के अनुसार यह इन
हिमालयी भेड़ियों को विशिष्ट बताने वाले प्रथम प्रमाण हैं। यह खोज इस बात का समर्थन करती है कि इन्हें एक अलग
प्रजाति के रूप में पहचाना जाना चाहिए। नए अध्ययन से यह भी पता चला है कि इस भेड़िए
का इलाका पहले के अनुमान से दुगना है।
हिमालयी भेड़िए अन्य मटमैले
भेड़ियों की तुलना में अधिक ऊंचाई पर रहते हैं और इनकी आदतें भी अलग हैं। ये पूर्वी
चीन,
मंगोलिया और किर्गिज़स्तान के इलाकों में पाए जाते हैं।
मटमैले भेड़िए जहां चूहे, गिलहरी आदि जीवों का शिकार
करते हैं वहीं हिमालयी भेड़िए इनके साथ कभी-कभी तिब्बती चिकारों का भी शिकार करते
हैं। इनकी गुर्राहट मटमैले भेड़ियों की तुलना में छोटी अवधि की और भारी आवाज़ वाली
होती है।
अब किर्गिज़स्तान, चीन के तिब्बतीय पठार और ताजीकस्तान के भेड़ियों के मल से प्राप्त नमूनों के
विश्लेषण से इनके एक अलग नस्ल होने का जेनेटिक प्रमाण मिला है। शोधकर्ताओं ने 86
हिमालयी भेड़ियों के मल में डीएनए का अध्ययन किया। विश्लेषण से पता चला कि मटमैले
भेड़ियों की तुलना में हिमालयी भेड़ियों में कुछ विशेष जीन होते हैं जो उन्हें
ऑक्सीजन की कमी से निपटने में मदद करते हैं। ये जीन उनके ह्मदय को भी मज़बूत करते
हैं और रक्त के ज़रिए ऑक्सीजन के प्रवाह को बढ़ाते हैं। जर्नल ऑफ बायोजियोग्राफी में
प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार इसी प्रकार के अनुकूलन तिब्बती लोगों और उनके पालतू
कुत्तों और याक में भी पाए जाते हैं।
शोधकर्ताओं के अनुसार ऊंचे इलाकों में रहने वाले इस जीव को एक अलग प्रजाति के रूप में देखा जाना चाहिए। कम से कम, इसे जैव विकास की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण इकाई तो माना ही जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/Himalayan_wolf_1280x720.jpg?itok=RMP6UctZ
हैंस लिपरशे द्वारा दूरबीन के
आविष्कार के बाद गैलीलियो ने स्वयं दूरबीन का पुनर्निर्माण करके पहली बार खगोलीय
अवलोकन में उपयोग किया था। तब से लगभग चार शताब्दियां बीत चुकी हैं। तब से अब तक
दूरबीनों ने खगोल विज्ञान में कई आकर्षक और पेचीदा खोजों को संभव बनाया है। इनमें
हमारे सूर्य से परे अन्य तारों की परिक्रमा कर रहे ग्रहों की खोज, ब्राहृांड
के फैलने की गति में तेज़ी के सबूत, डार्क मैटर और डार्क एनर्जी का अस्तित्व, क्षुद्र
ग्रहों और धूमकेतुओं वगैरह की खोज शामिल है।
आज
बहुत-सी विशालकाय दूरबीनों का निर्माण किया जा चुका है। इनमें कई धरती पर लगी हैं
तो कुछ अंतरिक्ष में भी स्थापित हैं। खगोलीय पिंड दृश्य प्रकाश के अलावा कई तरह के
विद्युत चुंबकीय विकिरण (इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक रेडिएशन) का भी उत्सर्जन करते हैं।
दूरस्थ खगोलीय पिंडों से उत्सर्जित विद्युत-चुंबकीय विकिरण का ज़्यादातर हिस्सा
पृथ्वी का वायुमंडल सोख लेता है और इस वजह से पृथ्वी पर स्थित विशाल प्रकाशीय
(ऑप्टिकल) दूरबीनों से उन खगोलीय पिंडों को भलीभांति नहीं देखा जा सकता है। पृथ्वी
की वायुमंडलीय बाधा को दूर करने एवं दूरस्थ खगोलीय पिंडों के सटीक प्रेक्षण के लिए
‘अंतरिक्ष दूरबीनों’ का निर्माण किया गया है। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने चार
बड़ी दूरबीनों या वेधशालाओं को अंतरिक्ष में उतारा है – हबल स्पेस टेलीस्कोप, कॉम्पटन
गामा रे आब्ज़र्वेटरी (सीजीआरओ), चंद्रा एक्स-रे टेलीस्कोप और आखरी स्पिट्ज़र
टेलीस्कोप।
30
जनवरी 2020 को अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने ‘स्पिट्ज़र टेलीस्कोप मिशन’ की
समाप्ति की घोषणा कर दी। हालांकि इसका निर्धारित जीवनकाल केवल ढाई वर्ष था फिर भी
इसने लगभग 16 वर्षों तक अपनी भूमिका दक्षतापूर्वक निभाई। गौरतलब है कि स्पिट्ज़र
स्पेस टेलीस्कोप 950 किलोग्राम वज़नी एक ऐसा खगोलीय टेलीस्कोप है जिसे अंतरिक्ष में
एक कृत्रिम उपग्रह के रूप में स्थापित किया गया है, इसलिए यह सूर्य के चारों ओर कक्षा में चक्कर लगाता
है। यह ब्राहृांड की विभिन्न वस्तुओं की इन्फ्रारेड प्रकाश में जांच करता है।
दरअसल, स्पिट्ज़र अंतरिक्ष में वह सब कुछ देखने में सक्षम था
जिसे प्रकाशीय दूरबीनों के जरिए नहीं देखा जा सकता है। अंतरिक्ष का ज़्यादातर
हिस्सा गैस और धूल के विशाल बादलों से भरा है जिसके पार देखने की क्षमता हमारे पास
नहीं हैं। मगर इन्फ्रारेड प्रकाश गैस और धूल के बादलों की बड़ी से बड़ी दीवारों को
भी भेद सकता है। स्पिट्ज़र अपने विशाल टेलीस्कोप और क्रायोजनिक सिस्टम से ठंडे रखे
जाने वाले तीन वैज्ञानिक उपकरणों के साथ अब तक का सबसे बड़ा इन्फ्रारेड टेलीस्कोप
है।
स्पिट्ज़र
को 25 अगस्त, 2003 को अमेरिका के केप कैनवरेल से डेल्टा रॉकेट के
जरिए अंतरिक्ष में भेजा गया था। शुरुआत में इसका नाम ‘स्पेस इन्फ्रारेड टेलीस्कोप
फेसिलिटी’ था लेकिन नासा की परंपरा के अनुसार ऑपरेशन के सफल प्रदर्शन के बाद
बीसवीं सदी के एक महान खगोलविद लिमन स्पिट्ज़र के सम्मान में ‘स्पिट्ज़र’ नाम दिया
गया। गौरतलब है कि लिमन स्पिट्ज़र 1940 के दशक में अंतरिक्ष दूरबीनों की अवधारणा को
बढ़ावा देने वाले अग्रणी व्यक्तियों में से एक थे। स्पिट्ज़र टेलीस्कोप में
इन्फ्रारेड ऐरे कैमरा, इन्फ्रारेड स्पेक्ट्रोग्राफ और मल्टीबैंड इमेजिंग
फोटोमीटर नामक तीन उपकरणों को रखा गया था। इन्फ्रारेड चूंकि एक तरह का गर्म विकिरण
होता है, इसलिए इन तीनों उपकरणों को विकिरण से भस्म होने से
बचाने और ठंडा रखने के लिए एब्सोल्यूट ज़ीरो यानी शून्य से 273 डिग्री सेल्सियस से
कुछ ही अधिक तापमान रखने के लिए तरल हीलियम का इस्तेमाल किया गया था। इसके अलावा
सौर विकिरण से बचाव के लिए स्पिट्ज़र को सौर कवच से भी सुसज्जित किया गया था।
यों
तो स्पिट्ज़र टेलीस्कोप द्वारा की गई खोजों की सूची काफी लंबी है, मगर
उसके ज़रिए की गई प्रमुख खोजों की चर्चा ज़रूरी है। इस टेलीस्कोप ने न केवल
ब्राहृांड की सबसे पुरानी निहारिकाओं के बारे में हमें जानकारी उपलब्ध कराई है
बल्कि शनि के चारों ओर मौजूद एक करोड़ तीस लाख किलोमीटर के दायरे में एक नए वलय का
भी खुलासा किया है। इसने धूल कणों के विशालकाय भंडार के माध्यम से नए तारों और
ब्लैक होल्स का भी अध्ययन किया। स्पिट्ज़र ने हमारे सौर मंडल से परे अन्य ग्रहों की
खोज में सहायता की, जिसमें पृथ्वी के आकार वाले सात ग्रह जो
ट्रैपिस्ट-1 नामक तारे के चारों ओर परिक्रमा कर रहे थे, के बारे में पता लगाना भी शामिल है। इसके अलावा
क्षुद्रग्रहों और ग्रहों के टुकड़ों, बेबी ब्लैक होल्स, तारों की नर्सरियों यानी नेब्युला (जहां नए तारों
का निर्माण होता है) की खोज, अंतरिक्ष में 60 कार्बन परमाणुओं से बनी त्रि-आयामी
और गोलाकार संरचनाओं यानी बकीबॉल्स की खोज, निहारिकाओं के विशाल समूहों की खोज, हमारी
आकाशगंगा (मिल्की-वे) का सबसे विस्तृत मानचित्रण आदि स्पिट्ज़र टेलीस्कोप की प्रमुख
उपलब्धियों में शामिल हैं।
स्पिट्ज़र
को ठंडा रखने के लिए तरल हीलियम बेहद ज़रूरी था, लेकिन 15 मई 2009 को इसका तरल हीलियम का टैंक खाली
हो गया। वर्तमान में इसके ज़्यादातर उपकरण खराब हो चुके हैं। अलबत्ता, इसके
दो कैमरे अभी भी काम कर रहे हैं और स्पिट्ज़र सूर्य की परिक्रमा कर रहा है। नासा ने
स्पिट्ज़र मिशन की हालिया समीक्षा की और पाया कि इसके कैमरे अभी भी काम कर रहे हैं।
मगर इस टेलीस्कोप को अब संचालन के योग्य नहीं पाया गया, तो इसे रिटायर करने का फैसला लिया। नासा डीप स्पेस
नेटवर्क के जरिए प्राप्त स्पिट्ज़र के सभी आंकड़ों के विश्लेषण में लगा हुआ है।
नासा
में खगोल भौतिकी विभाग के निदेशक पॉल हर्ट्ज़ कहना है कि “अच्छा होगा अगर हमारे सभी
टेलीस्कोप हमेशा के लिए कार्य करने में सक्षम होते, लेकिन यह संभव नहीं है। 16 साल से अधिक समय तक
स्पिट्ज़र ने खगोलविदों को अपनी सीमाओं से आगे बढ़कर अंतरिक्ष में काम करने का मौका
दिया।” कुल मिलाकर, स्पिट्ज़र ने अपने 140 करोड़ डॉलर के मिशन के तहत 8
लाख आकाशीय लक्ष्यों की छानबीन की।
बहरहाल, ब्राहृांड की गहराइयों में झांकने के लिए और खोजों के इस सिलसिले को जारी रखने के लिए स्पिट्ज़र की जगह लेने को तैयार है लंबे समय से प्रतीक्षित इसका उत्तराधिकारी बेहद शक्तिशाली ‘जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप’। हालांकि जेम्स वेब और स्पिट्ज़र की कार्यप्रणाली में ज़मीन-आसमान का अंतर होगा, मगर जेम्स वेब भी स्पिट्ज़र की भांति इन्फ्रारेड की खिड़की का इस्तेमाल करके ब्राहृांड के अध्ययन में सक्षम होगा। अलविदा स्पिट्ज़र! (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://solarsystem.nasa.gov/system/news_items/main_images/513_TOP-SpitzerPlanets_ArtistConcept.jpg
वैज्ञानिकों को
समझ नहीं आता था कि तमाम किस्म की व्हेल – हम्पबैक, ब्लू व्हेल, स्पर्म व्हेल और किलर व्हेल – हर साल हज़ारों किलोमीटर की प्रवास यात्राएं
क्यों करती हैं। ये व्हेल आर्कटिक और अंटार्कटिक के अपने सामान्य भोजन स्थल से कई
हज़ार कि.मी. दूर गर्म समुद्रों में प्रवास करती हैं। आने-जाने में यह यात्रा करीब
18,000 कि.मी. की होती है।
पहले कुछ वैज्ञानिकों ने सुझाया था कि शायद ये व्हेल प्रजनन
हेतु प्रवास करती हैं। उनका कहना था कि आर्कटिक और अंटार्कटिक में कई शिकारी पाए
जाते हैं, जिसकी वजह से
यहां बच्चे पैदा करना खतरे से खाली नहीं है। लेकिन इनके प्रवास के सही कारण का पता
करने हेतु हाल ही में किए गए अध्ययन से पता चला है कि ये व्हेल प्रजनन हेतु नहीं
बल्कि अपनी त्वचा को स्वस्थ रखने हेतु प्रवास करती हैं।
ओरेगन विश्वविद्यालय के मरीन मैमल्स इंस्टिट्यूट के रॉबर्ट
पिटमैन और उनके साथियों ने चार किस्म की किलर व्हेल पर 62 उपग्रह बिल्ले चस्पा कर
दिए जिनकी मदद से वे इनकी गतिविधियों पर नज़र रख सकते थे। दक्षिणी गोलार्ध की 8
गर्मियों तक नज़र रखने के बाद शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि ये व्हेल पश्चिमी
दक्षिण अटलांटिक महासागर तक 9400 कि.मी. की यात्रा करती हैं। लेकिन वे यह यात्रा
प्रजनन के लिए नहीं करतीं क्योंकि तस्वीरों में साफ दिख रहा था कि उनके नवजात शिशु
तो अंटार्कटिक महासागर में अठखेलियां कर रहे थे। यानी प्रजनन हेतु प्रवास की
परिकल्पना सही नहीं है।
शोधकर्ता जानते थे कि मनुष्यों के समान व्हेल की त्वचा की कोशिकाएं भी लगातार झड़ती रहती हैं। यह झड़ना इतना अधिक होता है कि आप सिर्फ झड़ी हुई कोशिकाओं की लकीर देखकर पता कर सकते हैं कि व्हेल किस ओर गई है। लेकिन व्हेल के सामान्य निवास अंटार्कटिक का पानी बहुत ठंडा होता है जिसकी वजह से शायद व्हेल की त्वचा की कोशिकाएं झड़ नहीं पाती हैं। इन कोशिकाओं पर डायटम नामक सूक्ष्मजीवों की मोटी परत बन जाती है जहां बैक्टीरिया वगैरह घर बना लेते हैं। यह व्हेल के लिए हानिकारक होता है। पिटमैन का कहना है कि व्हेल इतनी लंबी यात्रा गर्म समुद्रों में कोशिकाओं की इस परत और बैक्टीरिया से छुटकारा पाने के लिए करती हैं। वैसे कुछ शोधकर्ताओं ने 2012 में सुझाया था कि अंटार्कटिक के ठंडे पानी में शरीर की गर्मी को बचाने के लिए किलर व्हेल खून का प्रवाह चमड़ी से थोड़ा दूर अंदर की ओर कर देती हैं। इसकी वजह से त्वचा की कोशिकाओं का पुनर्निर्माण रुक-सा जाता है। इसी वजह से अंतत: व्हेल गर्म पानी की ओर चल पड़ती हैं जहां उनकी शरीर क्रियाएं और त्वचा का झड़ना और पुनर्निर्माण तेज़ हो जाता है। मरीन मैमल साइन्स में प्रकाशित नए अध्ययन के आधार पर सुझाया गया है कि सिर्फ किलर व्हेल ही नहीं बल्कि तमाम किस्म की व्हेल त्वचा-मोचन के लिए यात्रा करती हैं। वैसे देखा जाए तो यह भी अभी एक परिकल्पना ही है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/Yellow_killer_whales_1280x720.jpg?itok=mushZ04Z
एथनोलॉग पूरे विश्व की भाषाओं के बारे
में जानकारी उपलब्ध कराने वाला एक विशाल ऑनलाइन डैटाबेस है। इसमें ऐसी तमाम
जानकारी उपलब्ध है जैसे विश्व में कितनी भाषाएं हैं, किसी
भाषा (हिब्रू से लेकर हौसा और हाक्का तक) को दुनिया में कितने लोग बोलते हैं या
किसी भाषा के विलुप्त होने की संभावना कितनी है (1 से 10 के पैमाने पर)। यह
भाषाविदों के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन रहा है। लेकिन कुछ समय पहले इस संसाधन तक
शोधकर्ताओं की पहुंच महंगी कर दी गई है।
दरअसल एथनोलॉग को लंबे समय तक समर इंस्टीट्यूट ऑफ लिंग्विस्टिक्स (SIL) ने संचालित किया। लेकिन 2015 में जब SIL की फंडिंग खत्म होने लगी तब एथनोलॉग के संचालक गैरी
साइमन्स को इसके संचालन के ढंग को बदलने की ज़रूरत महसूस हुई। एथनोलॉग को
चलाने में सालाना लगभग दस लाख डॉलर का खर्च आता है। इसलिए 2015 के अंत में पहली
बार एथनोलॉग के उपयोगकर्ताओं से सदस्यता शुल्क लेना शुरू किया गया। यह
शुल्क अब बढ़कर 480 डॉलर से शुरू होता है।
इस पर मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट फॉर दी साइंस ऑफ ह्युमन हिस्ट्री के भाषाविद
साइमन ग्रीनहिल कहना है कि पिछले कुछ सालों में एथनोलॉग तेज़ी से महंगा हुआ
है और इस पर पहुंच भी बाधित हुई है, जो बहुत दुखद है। उनका कहना है
कि शोधकर्ता अब अन्य सस्ते या मुफ्त विकल्प खोज रहे हैं। उन्होंने खुद अपने अध्ययन,
भूगोलभाषा की विविधता को कैसे प्रभावित करता है, के लिए एथनोलॉग के पुराने डैटा का उपयोग किया जिसके लिए वे पहले भुगतान
कर चुके थे,
क्योंकि ताज़ा डैटा हासिल करने में कई हज़ार डॉलर का शुल्क
आता।
साइमन्स समझते हैं कि भाषाविद क्यों परेशान हैं। लेकिन उनका कहना है कि आर्थिक
हालात बदलने तक वे शुल्क में राहत नहीं दे सकते। 2013 के बाद से साइमन्स और SIL के मुख्य नवाचार विकास अधिकारी स्टीफन मोइतोजो एथनोलॉग को विकसित करने
और इसे आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
मोइतोजो का कहना है कि उन्हें लगता था कि एथनोलॉग का उपयोग करने वाले अधिकतर
लोग अकादमिक शोधकर्ता हैं लेकिन वेबलॉग ट्रैफिक के अनुसार एथनोलॉग का उपयोग
करने वालों में सिर्फ 26 प्रतिशत ही अकादमिक शोधकर्ता हैं। अन्य उपयोगकर्ताओं में
हाई स्कूल छात्रों और सलाहकारों के अलावा, अदालतों, अस्पतालों और आप्रवास कार्यालयों के लिए दुभाषिया तलाशने वाले हैं। बहुत सारे
संगठन अपने दैनिक कार्य के लिए एथनोलॉग पर निर्भर हैं।
साइमन्स स्वतंत्र शोधकर्ताओं और जिन छात्रों के संस्थानों के पास एथनोलॉग की सदस्यता नहीं है, उनके लिए बेहतर विकल्प लाने की उम्मीद रखते हैं। वे सोचते हैं कि अगर हम इसे इस तरह बना पाए कि जिन लोगों का काम वास्तव में एथनोलॉग पर निर्भर है वे इसकी वाजिब सदस्यता लें, तब उन लोगों के बारे में सोच सकते हैं जो यह शुल्क वहन नहीं कर सकते। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.ethnologue.com/sites/default/files/inline-images/how-many-languages-map-hires-title.png
नींद की उत्पत्ति को समझते हुए वैज्ञानिकों ने ऑस्ट्रेलिया की
एक छिपकली में कुछ महत्वपूर्ण सुराग हासिल किए हैं। ऑस्ट्रेलियन दढ़ियल ड्रेगन (Pogona
vitticeps) में नींद से जुड़े तंत्रिका संकेतों को देखकर शोधकर्ताओं
ने निष्कर्ष निकाला है कि जटिल नींद का विकास शायद पक्षियों और स्तनधारियों से
बहुत पहले हो चुका था। और उनका मानना है कि यह अनुसंधान मनुष्यों को चैन की नींद
सुलाने में मददगार साबित होगा।
गौरतलब है कि पक्षियों और स्तनधारियों में नींद दो प्रकार की होती है। एक है
रैपिड आई मूवमेंट (REM) नींद जिसके दौरान आंखें
फड़फड़ाती हैं,
विद्युत गतिविधि मस्तिष्क में गति करती है और मनुष्यों में
सपने आते हैं। ङकग् नींद के बीच-बीच में ‘धीमी तरंग’ नींद होती है। इस दौरान
मस्तिष्क की क्रियाएं धीमी पड़ जाती हैं और विद्युत सक्रियता एक लय में चलती हैं।
कुछ अध्ययनों से पता चला है कि इस हल्की-फुल्की नींद के दौरान स्मृतियों का
निर्माण होता है और उन्हें सहेजा जाता है।
2016 में मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट फॉर ब्रेन रिसर्च के गिल्स लॉरेन्ट ने खोज
की थी कि सरिसृपों में भी दो तरह की नींद पाई जाती है। हर 40 सेकंड में दढ़ियल
ड्रेगन इन दो नींद के बीच डोलता है। लेकिन यह पता नहीं लग पाया था कि मस्तिष्क का
कौन-सा हिस्सा इन दो तरह की नींदों का संचालन करता है। लॉरेन्ट की टीम ने दढ़ियल
ड्रेगन के मस्तिष्क की पतली कटानों में इलेक्ट्रोड्स की मदद से देखने की कोशिश की
कि कौन-सी विद्युतीय गतिविधि धीमी तरंग नींद से सम्बंधित है। गौरतलब है कि ऐसी
विद्युतीय सक्रियता मृत्यु के बाद भी जारी रह सकती है।
पता चला कि ड्रेगन के मस्तिष्क के अगले भाग में विद्युत क्रिया होती है। यह एक
हिस्सा है जिसका कार्य अज्ञात था। और इसके बाद एक अनपेक्षित मददगार बात सामने आई।
लॉरेन्ट के कुछ शोध छात्र छिपकली के मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों में जीन्स की
सक्रियता की तुलना चूहों के मस्तिष्क में जीन अभिव्यक्ति से करने की कोशिश कर रहे
थे। उन्होंने पाया कि छिपकली के मस्तिष्क का जो हिस्सा धीमी तरंग नींद पैदा करने
के लिए ज़िम्मेदार है उसमें जीन्स की सक्रियता चूहों के दिमाग के उस हिस्से से मेल
खाती है जिसे क्लॉस्ट्रम कहते हैं। जीन अभिव्यक्ति में इस समानता से संकेत मिला कि
संभवत: सरिसृपों में भी क्लॉस्ट्रम पाया जाता है। लॉरेन्ट का कहना है कि
क्लॉस्ट्रम नींद को शुरू या खत्म नहीं करता बल्कि मस्तिष्क में नींद के केंद्र से
संकेत ग्रहण करता है और फिर पूरे दिमाग में धीमी तरंगें प्रसारित करता है।
चूंकि सरिसृपों में भी क्लॉस्ट्रम पाया गया है, इसलिए ये जंतु नींद के अध्ययन के लिए अच्छे मॉडल का काम कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/1/18/Bartagame_fcm.jpg
हाल ही में आईआईटी खड़गपुर के शोधकर्ताओं का एक अध्ययन
प्रकाशित हुआ है: मानवजनित गतिविधियां भारत में गर्मी के शहरी टापू जैसे हालात
पैदा रही हैं। इसमें कहा गया है कि उपनगरों की तुलना में शहरों का तापमान अधिक
रहता है,
जिससे प्रदूषण के अलावा गर्म हवा के थपेड़ों (लू) से भी
स्वास्थ्य को खतरा हो सकता है। अध्ययन के एक लेखक अरुण चक्रवर्ती बताते हैं कि
“हमारा शोध भारत के गर्म शहरी टापुओं का एक विस्तृत और सावधानीपूर्वक किया गया
विश्लेषण है। हमने अपने अध्ययन में 2001 से 2017 तक सभी मौसमों के दौरान भारत के
44 प्रमुख शहरों और उनके आसपास के ग्रामीण इलाकों की भू-सतह के तापमान में अंतर का
अध्ययन किया है।” वे आगे बताते हैं कि “पहली बार हमें इसे बात के प्रमाण मिले हैं
कि मानसून के दौरान और मानसून के बाद अधिकतर शहरों का दिन का सतही तापमान आसपास के
उपनगरों की अपेक्षा औसतन 2 डिग्री सेल्सियस तक ज़्यादा होता है। इस अध्ययन के लिए
आंकड़े उपग्रहों द्वारा प्राप्त हुए हैं।” अन्य शोधकर्ताओं द्वारा भी दिल्ली, मुंबई,
बैंगलुरू, हैदराबाद और चेन्नई जैसे शहरों
के दिन के तापमान में इसी तरह की वृद्धि देखी गई है।
शहरी गर्म टापू के प्रभाव
हम भोपाल,
हैदराबाद, बैंगलुरू या श्रीनगर स्थित
शहरी झीलों के बारे में तो जानते हैं जो शहरों को खुशनुमा माहौल और शीतलता प्रदान
करती हैं। लेकिन शहरी गर्म टापू क्या चीज़ है? शहरी
गर्म टापू (urban
heat island या UHI) यानी घनी आबादी वाले
ऐसे शहर जिनका तापमान अपने आसपास के उपनगर या ग्रामीण इलाकों की तुलना में 2
डिग्री तक अधिक होता है। लेकिन ऐसा क्यों होता है? ऐसा
इसलिए होता है क्योंकि अधिक खुली जगह, पेड़-पौधों और अधिक घास
से परिपूर्ण गांवों की तुलना में शहरों में फुटपाथ, सड़क और
छत बनाने में कॉन्क्रीट, डामर (टार) और र्इंट जैसी
सामग्रियों का उपयोग होता है जो अपारदर्शी होती हैं और अपने से प्रकाश को गुज़रने
नहीं देती,
लेकिन इनकी ऊष्मा धारिता और ऊष्मा चालकता अधिक होती है।
पेड़-पौधों का एक गुण है वाष्पोत्सर्जन। वाष्पोत्सर्जन का मतलब है पौधों में से
पानी का वाष्प बनकर आसपास के वायुमंडल में निकास। उपनगरों और ग्रामीण इलाकों में
घास और पेड़-पौधे यह कार्य करते हैं और तापमान को कम करते हैं। लेकिन शहरों में
वाष्पोत्सर्जन कम होता है जिसके कारण शहर का तापमान, आसपास
के इलाकों के तापमान की तुलना में अधिक हो जाता है।
शहरी गर्म टापुओं में उद्योगों और वाहनों से होने वाले प्रदूषण वहां की हवा की
गुणवत्ता भी कम करते हैं और उपनगरों की तुलना में यहां पदार्थों के महीन कण और धूल
भी अधिक होती है। शहरी गर्म टापुओं का अधिक तापमान गर्म स्थानों में रहना पसंद
करने वाली प्रजातियों, जैसे छिपकली और गेको की आबादी में इजाफा
करता है। ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में यहां चींटियों जैसे कीट अधिक पाए जाते
हैं। ये ऐसे जीव हैं जिनके शरीर का तापमान वातावरण के साथ घटता-बढ़ता है। इन्हें
एक्टोथर्म कहते हैं।
इसके अलावा,
शहरों में गर्म हवा के थपेड़े (लू) अधिक चलते हैं जो मानव और
पशु स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं, जिससे ऊष्मा-जनित मरोड़, नींद ना आना और मृत्यु दर में वृद्धि होती है। छक्तक्ष् आसपास के जल स्रोतों
को भी प्रभावित करता है। शहर के नाले-नालियों के ज़रिए शहर का गर्म पानी पास की
झीलों और नदियों में छोड़ा जाता है जो पानी की गुणवत्ता को प्रभावित करता है।
यह सोचकर तकलीफ होती है कि बैंगलुरू जैसे शहर में आज कई शहरी गर्म टापू हैं
जबकि यह कभी अपनी स्वस्थ जलवायु के लिए जाना जाता था। यहां तक कि कोरामंडल और
जयनगर जैसी जगहों में भी गर्मी के टापू बन गए हैं। इमारतें, औद्योगिक क्षेत्र और उनसे लगे हुए उपनगरों में गगनचुंबी इमारतों (जैसे
इलेक्ट्रॉनिक सिटी और व्हाइटफील्ड) के तेज़ी से होते विस्तार ने शहर को अस्वस्थ बना
दिया है। शहर की कुछ साफ-सुथरी झीलें अब गंदी और रूग्ण हो गर्इं हैं।
इसी प्रकार से, 1977 में जब मैं और मेरा परिवार हैदराबाद
आए थे तब हमें बताया गया था कि रात में एयर कंडीशनर तो क्या, छत के पंखे तक की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। और अब हमारे पास, इन्हीं औद्योगिक पार्कों, कारखानों और सटी-सटाई इमारतों
के विस्तार की बदौलत शहरी गर्म टापू हैं। ये इलाके अब यह एक तीसरे शहर, साइबराबाद के नाम से जाने जाते हैं। इनके कारण शहर ना केवल शहरी गर्म टापू में
तबदील हुआ है बल्कि उद्योगों और ऑटोमोबाइल से होने वाले प्रदूषण की वजह से वायु
गुणवत्ता सूचकांक भी काफी बिगड़ गया है। सुरक्षित वायु गुणवत्ता सूचकांक 61-90 के
बीच माना जाता है (जब हवा के माध्यम से कण मानव और जानवरों के शरीर में प्रवेश
करते हैं जो असहजता और बीमारी पैदा करते हैं)। लेकिन दिल्ली जैसे शहरों में एयर
क्वालिटी इंडेक्स का स्तर खराब-से-खतरनाक, 323, स्तर तक पहुंच गया है। शुक्र है, हैदराबाद और बैंगलुरू
अभी भी सुरक्षित हैं, लेकिन गुणवत्ता बनाए रखने के लिए ज़रूरी कदम
उठाने की आवश्यकता है।
औद्योगीकरण और आर्थिक विकास देश के लिए महत्वपूर्ण हैं, लेकिन शहरी गर्म टापुओं को नियंत्रित करना और उनमें कमी लाना भी उतना ही
महत्वपूर्ण है। इसके लिए कई तरीके अपनाए जा रहे हैं और अपनाए जा सकते हैं। इनमें
से एक है छतों पर हरियाली बनाना, हल्के रंग के कॉन्क्रीट उपयोग
करना (जैसे डामर या टार के साथ चूना पत्थर का उपयोग करके सड़क की सतह का रंग भूरा
या गुलाबी किया जा सकता है जैसा कि अमेरिका के कुछ स्थानों पर किया गया है); चूंकि हल्के रंग कम ऊष्मा अवशोषित करते हैं और अधिक प्रकाश परावर्तित कर देते
हैं इसलिए काले रंग की तुलना में हल्के रंग के कॉन्क्रीट 50 प्रतिशत तक बेहतर हैं।
इसी तरह हमें छतों पर हरियाली लगानी चाहिए, और इस
हरी पृष्ठभूमि में सौर पैनल लगाने चाहिए।
इसके अलावा अधिक से अधिक पेड़-पौधे लगाना चाहिए। यह समझना काफी दिलचस्प होगा कि पेड़ हमारे लिए कितने फायदेमंद हैं। ट्रीपीपल नामक संस्था ने पेड़-पौधों से होने वाले ऐसे 22 फायदे गिनाए हैं (Tree people.org/tree-benefits)। मौजूदा समय की बात करें तो पेड़: जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करते हैं; नाइट्रोजन ऑक्साइड्स, ओज़ोन, अमोनिया, सल्फर ऑक्साइड्स जैसी प्रदूषक गैसों को सोखते हैं और अपने पत्तों और छाल पर महीन कणों को जमा कर हमारे आसपास का वातावरण स्वच्छ बनाते हैं; शहरों और सड़कों को ठंडा रखते हैं; ऊर्जा की बचत करते हैं (एयर कंडीशनिंग के खर्चे में 50 प्रतिशत तक कटौती करके); पानी बचाते हैं और जल प्रदूषण रोकने में मदद करते हैं; मिट्टी के कटाव को रोकते हैं; लोगों और बच्चों का अल्ट्रावॉयलेट किरणों से बचाव करते हैं; आर्थिक लाभ के मौके देते हैं; विभिन्न समूह के लोगों को साथ लाते हैं; बस्तियों को एक नई पहचान देकर नागरिक गौरव को प्रोत्साहित करते हैं; कॉन्क्रीट की दीवारों को ढंक देते हैं और इस तरह ये सड़कों और राजमार्गों से आने वाले शोर को भी कम कर देते हैं और आंखों को सुकूनदायक हरा-भरा नज़ारा देते हैं; व्यापारिक जगहों पर जितने अधिक पेड़ होंगे उतना अधिक व्यवसाय होगा। इसलिए भवनों, स्कूलों, घरों और परिसरों में और उनके आसपास अधिक से पेड़-पौधे लगाएं। लेकिन सिर्फ पेड़ लगाने से काम नहीं बनेगा, इनकी देखभाल भी ज़रूरी है! (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.skepticalscience.com/graphics/UrbanHeatIsland_med.jpg