वर्षा ऋतु में प्रकृति सजीव हो उठती है। कीट-पतंगे, मकडि़यां और नाना प्रकार के जीव जंतु दिखाई पड़ने लगते हैं। मेंढकों का भी यह प्रजनन काल होता है। नर मेंढक ज़ोर-ज़ोर से टर्रा कर मादा को आमंत्रित करते हैं। और मादा भी उनके प्रणय निवेदन को स्वीकार कर खिंची चली आती है।प्रजनन के दौरान मादा मेंढक पानी में अंडे देती है और नर अपने शुक्राणु उनपर छिड़क देता है। अंडों से टैडपोल बनता है और उसके बाद मेंढक। संरचना और स्वभाव में टैडपोल मेंढक से काफी भिन्न होते हैं। टैडपोल पानी में रहते हैं, गलफड़ों से श्वसन करते हैं, शाकाहारी होते हैं और काई कुतर कर खाते हैं। इनकी आंत बहुत लंबी होती है और तैरने के लिए इनमें पूंछ भी होती है। दूसरी ओर, मेंढक पानी और ज़मीन दोनों जगह रहते हैं। त्वचा और फेफड़ों से श्वसन करते हैं। मांसाहारी होते हैं, छोटे-मोटे जीव जंतुओं का शिकार करते हैं। इनकी आंत भी छोटी होती है, पूंछ नहीं होती लेकिन चलने और तैरने के लिए इनके पास बढि़या अनुकूलित टांगें होती हैं।
जब टैडपोल से वयस्क मेंढक बनता है तो उसकी पूंछ और गलफड़े कहां चले जाते हैं? ये टूट कर गिरते नहीं बल्कि अवशोषित कर लिए जाते हैं।
टैडपोल से मेंढक बनने जैसा ही कुछ-कुछ तितली के जीवन में भी घटता है। इनके अंडों से कैटरपिलर (इल्ली) निकलते हैं। कैटरपिलर खूब फूल-पत्तियां खाते हैं। उसके बाद वे एक प्यूपा (शंखी) में बदल जाते हैं। और फिर एक दिन प्यूपा में से तितली निकलती है। तितली कैटरपिलर से बिल्कुल अलग होती है। जहां लंबे कैटरपिलर में चलने के लिए अनेक टांगों जैसी रचनाएं होती हैं, पत्तियों को कुतर-कुतर कर खाने के लिए मज़बूत जबड़े होते हैं वहीं तितलियों में फूल का रस पीने के लिए लंबी स्ट्रॉ के समान सूंड (प्रोबोसिस) नाम की नली होती है, चलने के लिए 3 जोड़ी टांगें और उड़ने के लिए पंख होते हैं।
टैडपोल और कैटरपिलर दोनों में ही अनेक अंग वयस्क होने पर बदल जाते हैं। पुराने अंग नष्ट होकर अवशोषित हो जाते हैं और नए अंगों का निर्माण होता है। अर्थात प्रत्येक प्राणी में विकास के दौरान अनेक पुरानी और टूटी-फूटी कोशिकाएं बेकार हो जाने पर निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार नष्ट हो जाती हैं। कोशिका के नष्ट होने की इस प्रक्रिया को एपोप्टोसिस या तयशुदा कोशिका मृत्यु (प्रोग्राम्ड सेल डेथ) कहते हैं।
हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका की निश्चित आयु होती है। जैसे रक्त में पाई जाने वाली लाल रक्त कोशिकाएं मात्र 120 दिन जीवित रहती हैं। इनकी भरपाई के लिए कोशिका विभाजन द्वारा निरंतर नई कोशिकाएं बनती रहती हैं।
प्राय: कोशिकाओं की मृत्यु चोट, संक्रमण, विकिरण या रसायनों आदि के कारण होती हैं। यह आत्मघात नहीं है। इसे नेक्रोसिस कहते हैं। इसमें कोशिकाएं स्वेच्छा से नहीं मरतीं, उनकी हत्या होती है। किन्तु एपोप्टोसिस आंतरिक या बाह्य कारणों से, शरीर के हित में स्वैच्छिक आत्म बलिदान है, मृत्यु का वरण है। शरीर के रोगों से और दर्द से बचाने का तरीका है।
नेक्रोसिस और एपोप्टोसिस में कोशिकाएं भिन्न प्रकार से नष्ट होती हैं। कोशिका मृत्यु के दोनों प्रकार नेक्रोसिस और एपोप्टोसिस की विधियों में भिन्नता आसानी से पहचानी जा सकती है।
नेक्रोसिस के प्रारंभ में प्राय: कोशिकाओं में सूजन आ जाती है और सूजन के सभी लक्षण परिलक्षित होते हैं। दर्द महसूस होता है। कोशिकाएं फूल जाती है और उनका ढांचा और उनकी अखंडता नष्ट हो जाती है। कोशिकांग फूल कर फूटने लगते हैं। यह सब अव्यवस्थित ढंग से होता है।
एपोप्टोसिस में कोशिकाएं फूलने के बजाए सूखने और सिकुड़ने लगती हैं, छोटी हो जाती हैं। कोशिका झिल्ली की बाहरी सतह पर बुलबुलों के समान रचनाएं (ब्लेब) बनने लगती हैं। कोशिका द्रव्य और केन्द्रक सिकुड़ने लगते हैं। क्रोमेटिन यानी डीएनए और प्रोटीन नष्ट होने लगते हैं और अन्तत: कोशिका छोटे-छोटे पैकेट्स में टूट जाती हैं जिन्हें भक्षी कोशिकाएं (फेगोसाइट्स) अपने अंदर लेकर नष्ट कर देते हैं।
कोशिकाएं आत्मघात क्यों करती हैं? शरीर की वृद्धि के लिए जिस प्रकार कोशिका विभाजन आवश्यक है उसी प्रकार स्थान बनाने के लिए आत्मघात भी आवश्यक है। कुछ कोशिकाएं विशेष कार्य के लिए बनती हैं। कार्य की समाप्ति पर ये अनावश्यक और शरीर पर अवांछित बोझ हो जाती हैं। जैसे मेंढक की पूंछ, गलफड़े और लंबी आंत।
इसी प्रकार नए अंगों के निर्माण में भी आत्मघात महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए मानव भ्रूण में हाथ-पैर चप्पू जैसे होते हैं। उंगलियों के बीच में जाल होने के कारण उंगलियां पकड़ के लिए स्वतंत्र नहीं होती। अंगूठा भी उंगलियों से जुड़ा होता है और पकड़ने लायक नहीं होता। आत्मघात से ही कार्यशील उंगलियां निर्मित होती हैं। शरीर की वे कोशिकाएं जो संक्रमित हो जाती हैं उन्हें भी आत्मघात के द्वारा संक्रमण को बढ़ने से रोक कर पूरे शरीर को संक्रामक रोग से बचा लिया जाता है।
कैंसर का एपोप्टोसिस से गहरा नाता है। वायरस कैंसर कोशिकाओं को आत्मघात नहीं करने देता अन्यथा वायरसयुक्त कोशिकाएं आत्मघात करके शरीर को कैंसर जैसे घातक रोगों से बचा सकती हैं। अंग प्रत्यारोपण में आत्मघात की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि किसी प्रकार से प्रतिरक्षा कोशिकाएं आत्मघात से नष्ट हो जाएं तो प्रत्यारोपित अंगों को शरीर स्वीकार कर लेता है।
आत्मघात के अध्ययन में सिनोरैब्डाइटिस एलेगेंस नामक कृमि को मॉडल जीव के रूप में प्रयुक्त कर बहुत से रहस्यों पर से पर्दा उठाने में मदद मिली है।
सन 2002 में चिकित्सा/कार्यिकी का नोबेल पुरस्कार तीन वैज्ञानिकों को मिला था। इन्होंने भ्रूणीय विकास के दौरान अंगों के निर्माण तथा कोशिका आत्मघात में आनुवंशिक नियंत्रण की भूमिका को समझाने के लिए मौलिक खोज की थी। छोटी आयु, भरपूर प्रजनन क्षमता, पारदर्शी शरीर एवं आसानी से प्रयोगशाला में कल्चर हो जाने की सुविधाओं के कारण वैज्ञानिकों ने सिनोरैब्डाइटिस एलेगेंस कृमि का चुनाव किया था। उन्होंने पाया कि कृमि के 1090 में से 131 कोशिकाएं नियत समय पर कोशिका आत्मघात से मर जाती है।
उन्होंने यह भी बताया कि भ्रूण से कृमि बनने की प्रक्रिया के दौरान कुछ कोशिकाएं कोशिका आत्मघात से गुजरती हैं क्योंकि उनका कार्य कृमि शरीर में खत्म हो चुका होता है। उन्होंने कोशिका आत्मघात की प्रक्रिया के लिए जि़म्मेदार जीन भी खोज निकाला। आत्मघात के लिए जि़म्मेदार जीन में म्यूटेशन होने से मरने की बजाय कोशिकाएं विभाजन करने लगती हैं। उन्होंने यह भी बताया कि ये जीन मानव में भी पाए जाते हैं।
जब टैडपोल या कैटरपिलर को क्रमश: मेंढक और तितली (यानी वयस्क) में बदलने का समय आ जाता है तो उनकी अनेक कोशिकाओं को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ता है। टैडपोल के परिवर्धन में थायरॉइड हार्मोन की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। थायरॉइड हार्मोन वहां पर जुड़ जाता है जहां कोशिका के केन्द्रक में थायरॉइड ग्राही हो। थायरॉइड हार्मोन के जुड़ते ही कोशिका आत्मघात करने वाले जीन को अभिव्यवित करने लगती है। इसके साथ ही आत्मघात के आंतरिक एवं बाहरी रास्ते भी खुल जाते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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