रासायनिक हथियारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध के बावजूद कई
देश अपने दुश्मन देश की फौज और आम नागरिकों पर घातक नर्व एजेंट (तंत्रिका-सक्रिय
पदार्थ) का हमला करते हैं। ऐसे रासायनिक हमलों के उपचार उपलब्ध तो हैं लेकिन उपचार
तुरंत देने आवश्कता होती है और कई बार ये उपचार रासायनिक हमले के प्रभाव (जैसे
मांसपेशियों की ऐंठन या मस्तिष्क क्षति) से बचाव भी नहीं कर पाते।
हाल ही में अमेरिकी सेना के शोधकर्ताओं ने एक ऐसा जीन उपचार विकसित किया है
जिसके माध्यम से शरीर में नर्व एजेंट को तहस-नहस करने वाला प्रोटीन बनने लगता है।
गौरतलब है कि इसे अभी केवल चूहों पर ही आज़माया गया है। सैद्धांतिक रूप से इस
रणनीति को सैनिकों के लिए अपनाया तो जा सकता है लेकिन यह काफी जोखिम भरा होगा। हो
सकता है कि शरीर इस प्रोटीन के विरुद्ध हानिकारक प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया विकसित कर
ले।
नर्व एजेंट मूलत: ऑर्गनोफॉस्फेट यौगिक होते हैं। ये मांसपेशियों में एक
तंत्रिका-संदेशवाहक रसायन एसीटाइलकोलीन के स्तर को नियंत्रित करने वाले एंज़ाइम को
बाधित करते हैं। एसीटाइलकोलीन की मात्रा बढ़ने की वजह से मांसपेशियों में ऐंठन, सांस लेने में तकलीफ होती है और मृत्यु भी हो सकती है। एट्रोपीन और डायज़ेपाम
जैसे मौजूदा उपचार एसीटाइलकोलीन के ग्राही को अवरुद्ध कर देते हैं। लेकिन यदि
तुरंत उपचार न किया जाए तो इससे तंत्रिका सम्बंधी स्थायी क्षति हो सकती है।
बेहतर उपचार खोजने के लिए शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में जंतुओं में ऐसा मानव
एंज़ाइम इंजेक्ट किया जो ज़्यादा तेज़ गति से क्रिया करता है और ऑर्गनोफॉस्फेट द्वारा
नुकसान पहुंचाए जाने से पहले ही उसे विघटित कर देता है। इससे पहले, वाइज़मैन इंस्टीट्यूट के जैव-रसायनयज्ञ मोशे गोल्डस्मिथ और उनके साथियों ने
पैराऑक्सीनेज़-1 (PON-1) नामक एंज़ाइम में फेरबदल किया
था ताकि यह नर्व एजेंटों को तेज़ी से खत्म करने में मदद करे। लेकिन पूरी सेना के
लिए इतनी बड़ी मात्रा में PON-1 बनाकर
भंडारण करना और शरीर में पहुंचने के बाद उसे प्रतिरक्षा तंत्र से बचाकर रखना काफी
मशक्कत का काम है।
यू.एस. आर्मी मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल डिफेंस के वैज्ञानिकों ने
लीवर को यह अणु बनाने के लिए तैयार करने की सोची। इसके लिए जैव-रसायनयज्ञ नागेश्वर
राव चिलुकुरी और उनकी टीम ने एक वायरस की मदद से चूहों की लीवर कोशिकाओं में डीएनए
निर्देश पहुंचाने की व्यवस्था की। परिणामस्वरूप चूहों के लीवर से PON-1 एंज़ाइम स्रावित होने लगा, जो 5 महीनों तक चले अध्ययन में
स्थिर बना रहा। साइंस ट्रांसलेशनल मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार
चूहे लगभग 6 सप्ताह तक नर्व एजेंटों के 9 घातक इंजेक्शन झेल सके।
जीन उपचार से चूहों को किसी प्रकार का नुकसान तो नहीं हुआ लेकिन PON-1 प्रोटीन के खिलाफ उन्होंने एंटीबॉडी विकसित कर लिए लेकिन एंटीबॉडी की मात्रा इतनी कम थी कि वे PON-1 की क्रिया को रोक नहीं पाए। टीम का मानना है कि इस उपचार से सैनिकों, मेडिकल स्टाफ और सैन्य कुत्तों की रक्षा की जा सकती है तथा खेतों में काम करने वाले मज़दूरों को भी ऑर्गनोफॉस्फेट कीटनाशकों के प्रभाव से बचाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/Nerve_agent_gene_therapy_1280x720.jpg?itok=R-6cTaRm
आज़ादी के बाद के दशकों में हमारे देश ने काफी विकास किया है, फिर भी उच्च शिक्षा और विज्ञान व टेक्नॉलॉजी सम्बंधी नीतियों के निर्माण और
संशोधन के बाद अभी भी काफी कुछ करना बाकी है। यह आलेख उच्च शिक्षा की पिछली
नीतियों और सीखने के परिणाम आधारित उच्च शिक्षा से सम्बंधित है। यहां एक विशिष्ट
उदाहरण की मदद से परिणाम आधारित यूजी और पीजी शिक्षा के बारे में कुछ सुझाव दिए गए
हैं।
“विज्ञान और वैज्ञानिकों से समाज एवं सरकार को तथा सरकार व समाज से
वैज्ञानिकों को क्या उम्मीदें हैं,” यह सवाल जितना महत्वपूर्ण है
उतना ही महत्वपूर्ण महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में शिक्षण की गुणवत्ता का
सवाल भी है। देश के युवाओं को उच्च शिक्षा का उद्देश्य अस्पष्ट है। क्योंकि उच्च
शिक्षा या तो बेहतरीन कैरियर हेतु प्रमाण पत्र हासिल करने की एक प्रक्रिया बनकर रह
गई है या फिर इसने ऐसा मानव संसाधन पैदा किया है जो एक अनुपयोगी संपदा बनकर रह गया
है। जनता की राय भी इस दृष्टिकोण का समर्थन करती है।
व्यवहार में उच्च शिक्षा को विज्ञान और प्रौद्योगिकी (एसएंडटी) नीतियों से अलग
करना,
खास तौर से विज्ञान शिक्षा और उसके अपेक्षित परिणामों के
सम्बंध में,
काफी निराशाजनक रहा है। इसके अलावा राजनीतिक, शैक्षिक,
वैज्ञानिक, सामाजिक और यहां तक कि
नौकरशाही संस्थानों जैसे कई स्तरों पर स्पष्टता और निष्पक्षता की काफी कमी रही है।
नाभिकीय उर्जा व अंतरिक्ष और कुछ हद तक डेयरी एवं कृषि के क्षेत्र को छोड़ दें तो
हमारे पास,
खासकर जीव विज्ञान में, ज़्यादा
नया ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ है। आम तौर पर जिस ज्ञान का दावा किया जा रहा है वह
दरअसल पुराने ज्ञान का पुनर्निर्माण भर है।
जीव विज्ञान की इस स्थिति का कारण कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित
वैज्ञानिक-राजनीतिज्ञ सम्बंधों के इतिहास में दफन है जिसके चलते चुनिंदा क्षेत्रों
में वैश्विक दृश्यता हासिल हुई है। इसके अलावा, 1980 व
1990 के दशक में संस्था निर्माता खुद को प्रभावी ढंग से स्थापित करने और अपने
पूर्ववर्तियों की तरह सफलता अर्जित करने में विफल रहे हैं। कुछ अन्य कारण रहे हैं
– जैसे टुकड़ा-टुकड़ा योगदान जो विश्व स्तर पर जीव विज्ञान में स्थायी प्रभाव छोड़ने
के लिए पर्याप्त नहीं है और देश में मात्र गिने-चुने लोगों द्वारा कुछ ही
क्षेत्रों में किए जा रहे छिटपुट प्रयास।
दुर्भाग्यवश,
उचित दिशा और मार्ग के अभाव के अलावा, एक कारण यह भी रहा है कि इन संस्थानों में राष्ट्रीय की बजाय निजी उद्देश्यों
पर ज़ोर देने के चलते बहुत सारी प्रतिभाएं बेकार पड़ी रह गई हैं। 40 वर्षों के कार्य
अनुभव के आधार पर मेरी निजी राय है कि इसके परिणामस्वरूप, कुछ
व्यक्तियों को छोड़कर, लगभग एक पीढ़ी का योगदान बिलकुल नहीं मिल
सका है। इसका दोष सरकारों और प्रशासन से जुड़े उन लोगों पर जाता है जो जीव विज्ञान
के विषय में एक ‘विशाल-विज्ञान’ के लिए गुंजाइश विकसित नहीं कर पाए, जैसा कि नाभिकीय ऊर्जा और अंतरिक्ष विज्ञान में संभव हो सका था।
इस बहु-आयामी समस्या का एक दिलचस्प परिणाम यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर
स्पष्टता की कमी है और व्यक्तिगत कारक प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इसलिए, जीव विज्ञान के लिए ‘विशाल-विज्ञान’ का स्थान बनाने के लिए एक ऐसा
परिप्रेक्ष्य विकसित करने की आवश्यकता है जिसके तहत मौजूदा प्रतिभा का उपयोग किया
जा सके। साथ ही विज्ञान में उच्च शिक्षा को आकार देने की चुनौतियों का सामना करने
के लिए एसएंडटी नीति को विकसित करने की भी आवश्यकता है।
इस बात से तो कोई इन्कार नहीं कर सकता कि एक अच्छा विज्ञान कर्म उपलब्ध मानव
संसाधन की गुणवत्ता पर और निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इसे तैयार
करने के तरीकों पर निर्भर है। इन लक्ष्यों का निर्धारण व्यापक भागीदारी और गंभीर
मंथन के आधार पर किया जाना चाहिए। हमें अपनी मौजूदा शक्तियों का उपयोग वर्तमान
परिस्थितियों के अनुसार करना होगा और बार-बार पहिए का आविष्कार करने की कवायद से
बचना होगा।
कोई भी देख सकता है कि जीव विज्ञान के क्षेत्र में, अपनी
नीतियों को धरातल पर उतारने और उनके द्वारा निर्धारित आत्म निर्भरता, टिकाऊपन और न्यायसंगत विकास के लक्ष्य को हासिल करने में हम कितने सफल रहे
हैं। अतीत में प्रधान मंत्रियों और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रियों के तमाम
बयानों में ‘टिकाऊपन’ तथा ‘आत्म-निर्भरता’ जैसे नारे कई बार मुखरित हुए हैं लेकिन
ज़मीनी हकीकत निराशाजनक बनी हुई है।
स्वास्थ्य के संदर्भ में समाज की बुनियादी न्यूनतम आवश्यकताओं, जैसे जल जमाव रोकना, जल निकासी का प्रबंधन, ठोस एवं इलेक्ट्रॉनिक कचरे के कुशल और कम लागत वाले प्रभावी निपटान के अलावा
प्रदूषण नियंत्रण, पर पिछले कई दशकों से प्रभावी रूप से कोई
ध्यान नहीं दिया गया है। आज जब स्वच्छ भारत से लेकर स्किल्ड और डिजिटल इंडिया जैसे
कई अभियान चल रहे हैं, यह देखना बाकी है कि क्या इनसे ज़मीनी हकीकत
में बदलाव आएगा और क्या वैज्ञानिक और शिक्षित वर्ग इनमें अपेक्षित भागीदारी करेगा।
अब हमें प्रशिक्षित मानव संसाधन के बारे में ‘रटंत विद्या और उसके आधार पर सफल
कैरियर’ से आगे बढ़कर भविष्य में ऐसे पाठ्यक्रम के बारे में सोचना चाहिए जिसमें
सीखने के परिणामों को मापा जा सके। इस प्रकार प्राप्त किए गए ज्ञान का उपयोग उपरोक्त
मुद्दों का हल निकालने के साथ-साथ नए ज्ञान के सृजन के लिए करना चाहिए।
यदि आप इस बात का अध्ययन करें कि क्या उच्च शिक्षा नीतियों, खासकर विज्ञान की उच्च शिक्षा नीतियों को एसएंडटी नीतियों के अनुरूप ढालने की
कोशिश हुई है,
तो आपको पता चलेगा कि ऐसा कोई विचार ही नहीं है। इसके अलावा, हमारी नीतियों के कारण उच्च शिक्षा में महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के
बीच अधोसंरचना की संस्थागत असमानता पैदा हुई है और ये अलग-अलग रोडमैप के साथ काम
करते हैं। नतीजा यह है, अलग-अलग पाठ्यक्रम हैं, अलग-अलग शिक्षण विधियां हैं, प्रायोगिक प्रशिक्षण में अंतर
हैं और सीखने के परिणाम भी अलग-अलग हैं। जब भी और जहां भी एकरूपता लाने की कोशिश
की गई,
हर बार असफलता ही हाथ लगी है।
इसके साथ ही,
उभरते हुए ज्ञान के साथ कदम मिलाकर चलने में असफलता, अन्य विषयों से सम्बद्धता और एकीकरण का अधमना प्रयास, और
छात्रों की बदलती ज़रूरतों के हिसाब से आवश्यक कौशल प्रदान करने में असफलता ने पाठ्यक्रम
में क्रमिक संशोधनों की बजाय यकायक परिवर्तन को आवश्यक बना दिया है। विषय विशेष की
पाठ्यक्रम संरचना को बदलने और मापन योग्य परिणाम हासिल करने के लिए यह दृष्टिकोण
और रवैया आवश्यक है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि नए कलेवर में वही पुरानी चीज़
भर दी जाए,
जिसमें पाठ्यक्रमों में टुकड़ा-टुकड़ा संशोधन करके उन्हें
सीखने के परिणामों पर आधारित शिक्षा का नाम दे दिया जाता है।
शिक्षा नीतियों के माध्यम से समय-समय पर शिक्षा सम्बंधी बहसें होती रही हैं:
विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1948); माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952); राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (डी. एस. कोठारी, 1964-66), राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968); राष्ट्रीय शिक्षा नीति का
मसौदा (1979),
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) और राष्ट्रीय शिक्षा नीति
(1992)। हालांकि,
ये नीतियां कागज़ पर प्रशंसनीय दिखती थीं तथा अपने समय के
लिए प्रासंगिक दिशा प्रदान करती थीं, लेकिन खराब क्रियान्वयन
और निगरानी के कारण उत्कृष्टता लाने में विफल रहीं।
हाल ही में,
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर प्रबंधन के लिए नियामक
एजेंसियों में सुधार की घोषणा की गई है। इसके लिए 2018 में उच्च शिक्षा आयोग का
गठन किया गया है ताकि महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की निगरानी और धन आवंटन के
नियामक ढांचे में सुधार किया जा सके। इसने यूजीसी, अखिल
भारतीय अध्यापक शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) जैसी स्थापित संस्थाओं के स्वतंत्र कामकाज
से सम्बंधित मुद्दों को उजागर किया है जो अपेक्षित कार्य नहीं कर रही हैं। एक
विचार यह भी रहा है कि इन संस्थाओं को हटाकर नई संस्थाएं बनाने की बजाय इनसे सही
तरह से काम करवाया जाए और इन्हें जवाबदेह बनाया जाए। डर इस बात का है कि मौजूदा
संस्थाओं की तरह,
कहीं यह विशालकाय उच्च शिक्षा आयोग भी उन्हीं बुराइयों का
शिकार न हो जाए। लिहाज़ा इसका समाधान यह है कि मौजूदा संस्थाओं के कामकाज को सुधारा
जाए और उन्हें चुस्त बनाया जाए, ताकि हम फिर से वही बातें
सीखने में समय न बर्बाद करें।
एक देश के रूप में प्रतिभा को खोजने, उसे पोषित करने तथा
सहायता करने में हमने बहुत कम काम किया है। हां, इक्का-दुक्का
अपवाद हैं लेकिन उनकी संख्या काफी कम है। अर्थात जिस पैमाने पर यह काम किया जाना
है वह नहीं हुआ है और विभिन्न ज़रूरतों के लिए ज़रूरी क्षमता का निर्धारण करना भी
बाकी है। सत्ता के गलियारों में अधिकतर लोग एक उबड़-खाबड़ रास्ते पर हैं। सभी के लिए
समान रूप से आवश्यक डिज़ाइन और क्रियान्वयन के लिए उन्हें गहरे चिंतन और मनन की
ज़रूरत है।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के माध्यम से देश के सामने अवसर है कि यूजीसी को
एक अंग के रूप में शामिल करके स्वयम के माध्यम से मुफ्त ऑॅनलाइन शिक्षा आसानी से
उपलब्ध कराई जा सकती है। अभी सबसे बड़ा कार्य, विभिन्न
विषयों में यूजी और पीजी के लिए बड़े पैमाने पर ऑॅनलाइन कोर्सेज़ और लर्निंग आउटकम
आधारित पाठ्यक्रम फ्रेमवर्क के तहत ऑॅनलाइन मॉड्यूल विकसित करना है। यह प्रक्रिया
काफी समय से कई देशों में लागू है। इसकी रूपरेखा विकसित करने के लिए कोर समिति और
विषय विशेषज्ञों की बैठक हुई थी जिसका उद्देश्य रूपरेखा तैयार करके उसे चर्चा, संशोधन और आखिर में अपनाने के लिए प्रसारित करना था। मुझे लगता है कि यह
(स्वयम) विज्ञान के विभिन्न विषयों में पाठ्यक्रम संरचनाओं में गुणात्मक बदलाव
लाने का उपयुक्त मौका है, जिसमें सीखने के परिणामों को
सटीक रूप से परिभाषित किया जाए और मूल्यांकन किया जाए ताकि इन्हें देश की एसएंडटी
नीति में व्यक्त आकांक्षाओं के अनुरूप बनाया जा सके। पाठ्यक्रम संरचनाओं को एकीकृत, बहु-विषयी और अंतर-विषयी तरीके से तैयार करने की आवश्यकता है ताकि वैज्ञानिक
विषयों के एक बड़े परास को साथ लाया जा सके और जटिल समस्याओं को हल करने के लिए नई
विधियों,
अवधारणाओं और दृष्टिकोणों का विकास हो सके। एसएंडटी और उच्च
शिक्षा नीतियों में संतुलन बनाने के लिए यदि और जब इस दृष्टिकोण को अपनाया जाता है
तो इस बदलाव का विरोध करने वाले शिक्षकों और छात्रों के बीच अभिमत उत्पन्न हो सकते
हैं। दूसरी ओर,
इसे सामाजिक आवश्यकताओं के लिए प्रासंगिक एवं नई खोजों और
नवाचारों के लिए मानव संसाधन तैयार करके उच्च शिक्षा को आकार देने के एक अवसर के
रूप में भी देखा जा सकता है।
उदाहरण के तौर पर मैं यहां एक विषय क्षेत्र की झलक प्रदान करता हूं कि किस तरह
एसएंडटी में नवाचार के घोषित लक्ष्य को पाठ्यक्रम में सीखने के सुपरिभाषित व
सार्थक परिणामों के अनुरूप फेरबदल करके प्राप्त किया जा सकता है। एक अध्ययन के तौर
पर मैं जंतु विज्ञान को चुन रहा हूं जो हमारे पारंपरिक महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों
में पढ़ाया जाता है। यूजी और पीजी पाठ्यक्रम में कुछ बदलाव लाने के लिए हमें जंतु
विज्ञान को आधुनिक जैविक परिप्रेक्ष्य में समझना होगा जिसमें जीवों को परमाणु स्तर
पर देखा जाता है। जीवों की प्रणालियों के तुलनात्मक अध्ययन हेतु रासायनिक, भौतिक,
गणितीय और आणविक पहलुओं का कारगर तरीके से एकीकृत अध्ययन
करने की आवश्यकता है ताकि विभिन्न जीवों के आंतरिक कामकाज को आकारिकी, कोशिकीय,
आणविक, परस्पर क्रियात्मक एवं जैव
विकास जैसे विभिन्न स्तरों पर समझा जा सके।
पाठ्यक्रम को संस्था में उपलब्ध संसाधनों और भौगोलिक स्थिति के आधार पर
अलग-अलग आकार दिया जा सकता है। लेकिन, इसे सीखने के कमोबेश
एकरूप परिणामों के अनुरूप होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर, विभिन्न
भौगोलिक क्षेत्रों में, विभिन्न कौशलों के साथ शिक्षण और प्रायोगिक
प्रदर्शन में जैव विकास के विभिन्न सोपानों की क्षेत्रीय प्रजातियों का उपयोग किया
जा सकता है और फिर भी तुलनात्मक जीव विज्ञान की समझ एक जैसी हो सकती है। आखिरकार, इसका उद्देश्य अकशेरुकी और कशेरुकी जीवों यानी एकल कोशिकीय प्रोटोज़ोआ से लेकर
बहुकोशिकीय मनुष्यों तक में विभिन्न प्रणालियों की तुलना करते हुए जीव जगत के
आंतरिक कामकाज को समझने में मदद देने का होना चाहिए। इसमें सूचना व संचार
टेक्नॉलॉजी (आईसीटी) के औज़ारों की मदद ली जा सकती है तथा प्रायोगिक कार्य और
मैदानी अध्ययन को भी जोड़ा जा सकता है। दूसरे शब्दों में, यदि
विभिन्न फायलम को समझने के लिए एक ही सैद्धांतिक ढांचे का इस्तेमाल किया जाए और
आकारिकी और आणविक औज़ारों के आधार पर वर्गीकरण को जैव विकास के आधार पर समझने की
कोशिश हो और साथ में उपयुक्त मैदानी व प्रयोगशाला कार्य को जोड़ा जाए तो छात्र रटंत
प्रणाली से मुक्त रहेंगे।
यदि कोई छात्र जंतु विज्ञान में उद्यम स्थापित करने में रुचि रखता है तो उसे
जीवन के विभिन्न रूपों में विविधता को एक सामाजिक-आर्थिक संपदा के रूप में देखने
की आवश्यकता होगी। इसमें प्राणि विज्ञान के प्रयुक्त पहलुओं को ध्यान में रखना
होगा। शोध को अपना कैरियर बनाने में रुचि रखने वाले छात्र के लिए ज़रूरी होगा कि वह
रासायनिक और भौतिक सिद्धांतों को अणुओं से लेकर स्व-संगठित एवं संगठित जीवों पर
इन्हें लागू करना समझे। जीन, जीनोम, कोशिका, ऊतक,
अंग और तंत्रों के स्तर पर संरचना व कार्य के परस्पर
सम्बंधों का व्यापक व समग्र ज्ञान सीखने के परिणामों में और अधिक योगदान देगा।
इसके अलावा ज्ञान का यह आधार औद्योगिक अनुप्रयोग एवं विशुद्ध शोध कार्य, दोनों के लिए जीन एवं जीनोम संपादन के संदर्भ में भी काफी उपयोगी होगा।
छात्रों को प्रायोगिक अनुभव प्रदान करने तथा भविष्य में उपयोग के लिए कौशल प्रदान
करने के लिए इन समस्याओं से जुड़े लघु शोध प्रबंध हाथ में लिए जा सकते हैं। अर्जित
ज्ञान का संश्लेषण और उससे हासिल परिणाम भविष्य में यूजी एवं पीजी के छात्रों के
सीखने के परिणामों को परिभाषित करेंगे।
इस तरह जो मानव संसाधन तैयार होगा वह भविष्य की ज़रूरतों, बुनियादी तथा अनुप्रयुक्त दोनों, को पूरा करने के लिए
भली-भांति तैयार होगा। वैसे भी अब बुनियादी तथा अनुप्रयुक्त शोध को अलग-अलग करके
देखना मुनासिब नहीं है। प्रसंगवश बता दें कि यदि इस दृष्टिकोण को अपनाया जाता है
तो शिक्षकों का अध्यापन बोझ अनुकूलित और कम किया जा सकता है, हालांकि शुरू में पाठ्यक्रम की सामग्री को आकार देने के लिए थोड़ी मेहनत करना
होगी। शिक्षकों को इसके लिए तथा एकरूप तरीका अपनाने के लिए प्रशिक्षित करने की
आवश्यकता होगी।
हालांकि उपरोक्त विशेषताओं की उम्मीद जंतु विज्ञान के यूजी/पीजी के ऐसे समस्त
छात्रों से की जा सकती है, जो एक एकीकृत और अंतर-विषयी
तरीके से पारिस्थितिक तंत्र के भीतर के अंतर्सम्बंधों के आधार पर विषय का अध्ययन
करेंगे लेकिन संस्थान-संस्थान में इसका पैमाना, प्रकृति
और गहनता को लेकर भिन्नता हो सकती है। अन्य विषयों के लिए भी ऐसा ही होने की
संभावना है।
विषय कोई भी हो, अध्ययन के विषय और उससे जुड़े ‘सामाजिक
कौशल’ से सम्बंधित सीखने के परिणामों में एकरूपता लाना अनिवार्य है। विषय से जुड़े
कौशलों की एक व्यापक श्रेणी के के भीतर ज़रूरत इस बात की है कि आलोचनात्मक चिंतन, विश्लेषणात्मक और वैज्ञानिक तर्क, तार्किक सोच, सूचना एवं डिजिटल साक्षरता, और समस्याएं सुलझाने की
क्षमताएं प्रदान की जाएं एवं उनका आकलन किया जाए। ये वे गुण हैं जो यूजीसी की कोर
समिति द्वारा यूजी/पीजी के प्रत्येक छात्र के लिए निर्धारित किए गए हैं।
यदि विज्ञान के विभिन्न विषयों के विभिन्न टॉपिक्स को पढ़ाने के इन तरीकों को अपनाया जाता है, जिसमें विषयों को अनुप्रयोगों के एक दायरे से जोड़ा जाएगा, तो उससे लोगों और भावी पीढ़ियों में विश्वास पैदा होगा क्योंकि इससे उनकी सामाजिक ज़रूरतों की पूर्ति होगी। जो लोग खोजी अनुसंधान की क्षमता दर्शाते हैं उन्हें किसी अप्रासंगिक खोज को दोहराते रहने की बजाय अपनी जिज्ञासा से उभरे अनूठे सवालों के जवाब खोजने का मौका दिया जा सकता है। आखिरकार, प्राप्त शिक्षा और इसके सीखने के परिणाम या तो नए ज्ञान के रूप में होना चाहिए या फिर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सामाजिक लाभों के रूप में या शायद दोनों रूपों में होने चाहिए। यह नहीं भूलना चाहिए कि आज का तथाकथित ‘बुनियादी’ ज्ञान कल एक अनुप्रयोगी मूल्य प्राप्त कर सकता है। विषय क्षेत्रों की बुनियादी और एकीकृत वैचारिक समझ में स्पष्टता आविष्कारों, खोजों और नवाचार का आधार है। यह समय एसएंडटी मिशन और राष्ट्र निर्माण को पूरा करने के लिए उच्च शिक्षा प्रणाली में पाठ्यक्रम और सीखने के परिणामों को आकार देने का है। (स्रोत फीचर्स)
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बढ़ता वैश्विक तापमान और जलवायु परिवर्तन आज काफी गंभीर
समस्या है। इसे कम करने के प्रयास में लंबे समय से वैज्ञानिक जीवाश्म र्इंधनों के
विकल्प के रूप में, सौर ऊर्जा का दोहन कर, मीथेन बनाने के प्रयास कर रहे हैं। मिशिगन युनिवर्सिटी के ज़ेटियन माई और उनके साथियों
का हालिया शोध इसी दिशा में एक और कदम है। उन्होंने तांबा और लोहा आधारित ऐसा
उत्प्रेरक विकसित किया है जो सौर ऊर्जा का उपयोग कर कार्बन डाईऑक्साइड को मीथेन
में परिवर्तित करता है, जिसे र्इंधन के रूप में उपयोग किया जा सकता
है।
हाल ही में अमेरिका में बिजली पैदा करने के प्राथमिक स्रोत के रूप में मीथेन
ने कोयले को मात दी है। मीथेन से बिजली पैदा करने की प्रक्रिया में होता यह है कि
मीथेन जलने पर कार्बन डाईऑक्साइड और पानी में बदल जाती है और इस प्रक्रिया में
ऊष्मा उत्पन्न होती है। इस ऊष्मा का उपयोग बिजली बनाने में किया जाता है।
सौर ऊर्जा की मदद से मीथेन बनाने की प्रक्रिया इसके विपरीत है। इसमें विद्युत
की मदद से कार्बन डाईऑक्साइड और पानी को मीथेन में बदला जाता है। हालांकि इस तरह
मीथेन बनाना इतना आसान नहीं है। कार्बन डाईऑक्साइड के एक अणु में आठ इलेक्ट्रॉन और
चार प्रोटॉन जुड़ने पर मीथेन का एक अणु बनता है। हर इलेक्ट्रॉन और हर प्रोटॉन को
अणु में जोड़ने के लिए ऊर्जा की ज़रूरत होती है।
वैज्ञानिक यह तो पहले ही पता लगा चुके थे कि जब तांबे के कण प्रकाश-अवशोषक
पदार्थों के साथ जुड़ते हैं तब वे कार्बन डाईऑक्साइड को अधिक ऊर्जा वाले यौगिकों
में परिवर्तित कर देते हैं। लेकिन इसमें समस्या यह थी कि इनकी दक्षता और अभिक्रिया
दर कम थी। इसलिए वे तांबे और अन्य धातुओं की जोड़ियों को प्रकाश-अवशोषकों के साथ
जोड़ने का प्रयास कर रहे थे।
इसी प्रयास में माई और उनके साथियों ने सिलिकॉन पापड़ (सिलिकॉन अर्धचालक की
पतली चादर) के ऊपर प्रकाश-अवशोषक गैलियम नाइट्राइड से बने नैनोवायर विकसित किए।
नैनोवायर पर उन्होंने विद्युत-लेपन करके तांबा और लोहे के 5-10 नैनोमीटर बड़े कण
जोड़े। इस तरह तैयार सेटअप ने सूक्ष्म सौर-सेलों की तरह काम किया, यानी सूर्य के प्रकाश को अवशोषित कर उसे विद्युत ऊर्जा में बदल दिया। इसका
उपयोग कार्बन डाइऑक्साइड को मीथेन में परिवर्तित करने के लिए किया गया।
तैयार सेटअप ने प्रकाश और कार्बन डाईऑक्साइड व पानी की मौजूदगी में प्रकाश में
मौजूद 51 प्रतिशत ऊर्जा को मीथेन में परिवर्तित किया। प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल
एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक तांबा-लोहा आधारित यह नया
उत्प्रेरक अब तक की सबसे तीव्र दर से और सबसे अधिक ऊर्जा उत्पन्न करने वाला है।
माई का कहना है कि इस सेटअप का एक और फायदा है – इसमें इस्तेमाल किए गए प्रकाश-अवशोषक और उत्प्रेरक सस्ते और आसानी से उपलब्ध हैं, और उद्योगों में उपयोग किए जा रहे हैं। लेकिन मीथेन उत्पादन को व्यावहारिक रूप में लाने के लिए अभी उत्पादन दक्षता और दर, दोनों ही बढ़ाने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/Methane_Recyling_1280x720.jpg?itok=NY6d1vic
पर्यावरण वैज्ञानिकों ने वर्ष 2019 को पुन: काफी गर्म बताया, परंतु इस गर्म वर्ष में भी दुनिया भर में पर्यावरण बचाने के अनुकरणीय एवं
प्रेरक प्रयास हुए।
कोलंबिया की सरकार ने दक्षिण अफ्रीका की एक कंपनी एंग्लोगोल्ड को छोटे से गांव
काज़मारका में ज़मीन के नीचे दबे सोने के खनन की अनुमति प्रदान की थी। यहां लगभग 680
टन सोना होने की संभावना बताई गई थी। लगभग 30 हज़ार की आबादी वाले इस गांव में खनन
कार्य के संदर्भ में अप्रैल में एक जनमत संग्रह का आयोजन किया। केवल 80 लोगों ने
खनन के पक्ष मत रखा एवं शेष लोगों ने विरोध किया। लोगों का कहना था कि सोने से
ज़्यादा महत्वपूर्ण पर्यावरण है; पर्यावरण बचेगा तो ही हम
बचेंगे। हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ियों को बेहतर पर्यावरण मिले। जनमत के
परिणाम से सरकार काफी परेशान हो गई।
इसी तरह,
म.प्र. के सतपुड़ा टाइगर रिज़र्व में केंद्र सरकार के
युरेनियम खनन के प्रस्ताव का राज्य सरकार ने विरोध किया एवं कहा कि वन्य प्राणियों
की कीमत पर युरेनियम खनन नहीं करने दिया जाएगा। बैतूल ज़िले में युरेनियम होने की
संभावना बताई गई थी।
मंगोलिया के दक्षिण गोबी रेगिस्तान में बड़े पैमाने पर खनन की योजना लगभग 10
वर्ष पूर्व वहां की सरकार ने बनाई थी। यह वह क्षेत्र है जहां हिम तेंदुए बहुतायत
में पाए जाते हैं। अन्य स्थानों पर शिकार एवं अन्य पर्यावरणीय कारकों की वजह से
इनकी संख्या काफी कम हो गई थी। दक्षिण मंगोलिया की 50 वर्षीय शिक्षिका बयारजारगल
आगवांतसेरेन ने खनन की इस योजना का विरोध शुरू किया। उन्होंने लोगों को समझाया कि
हिम तेंदुए उनकी पहचान हैं। खनन कार्य से यदि हिम तेंदुए समाप्त होते हैं तो उनकी
पहचान भी मिट जाएगी। किसानों, चरवाहों एवं स्थानीय ग्रामीणों
को लेकर अगवांतसेरेन ने कई स्थानों पर इस योजना का लगातार विरोध किया। बढ़ते
जन-विरोध को देखते हुए सरकार ने 34 खदानों के लायसेंस निरस्त कर दिए और 18 लाख एकड़
क्षेत्र को प्राकृतिक संरक्षित पार्क घोषित किया। अगवांतसेरेन को इस कार्य के लिए
2019 में एशिया का प्रसिद्ध गोल्डमैन पुरस्कार प्रदान किया गया।
समुद्र के अंदर पाई जाने वाली मूंगे की चट्टानें (कोरल रीफ) कई समुद्री जीवों
के लिए प्राकृतिक आवास तथा प्रजनन स्थल होती हैं। पिछले 30-40 वर्षों में प्रदूषण
के कारण लगभग आधी कोरल रीफ समाप्त हो गई हैं। इस समस्या से निपटने हेतु दो युवाओं –
सेम टीचर तथा गैटोर हाल्पर्न – ने केरेबियन द्वीप के बहामास नामक स्थान पर 14 करोड़
रुपए की लागत से दुनिया का पहला व्यावसायिक कोरल-रीफ फार्म प्रारंभ किया। फार्म
में कोरल रीफ के छोटे-छोटे टुकड़े समुद्र से लाकर ज़मीन पर बनी पानी की टंकियों में
उगाए जाते हैं। इन टंकियों में कोरल के टुकड़े 50 गुना तेज़ी से बढ़ते हैं। उगे हुए
टुकड़ों को समुद्र में डाल दिया जाता है।
वाहनों से पैदा वायु प्रदूषण को थोड़ा नियंत्रित करने हेतु लंदन में प्रदूषण
फैलाने वाले वाहनों पर 8 अप्रैल से प्रदूषण टैक्स लगाया गया। लंदन के मध्य में
अल्ट्रा-लो-टूरिज़्म ज़ोन बनाया गया जिसमें प्रवेश करने पर प्रदूषण फैलाने वाले
वाहनों को 1150 से 9000 रुपए तक टैक्स देना होगा।
पर्यावरण में कार्बन उत्सर्जन कम करने एवं र्इंधन की बचत करने हेतु सिंगापुर
में छत पर बगीचे वाली बसें शुरू की गर्इं। अभी सिंगापुर के चार मार्गों पर दस बसें
चलाई जा रही हैं एवं धीरे-धीरे इनकी संख्या 400 तक बढ़ाई जाएगी। प्रत्येक बस से
कार्बन उत्सर्जन में 52 प्रतिशत कमी तथा 25 प्रतिशत ईधन बचने का अनुमान है।
प्रदूषण की सही ढंग से रोकथाम नहीं करने एवं इसके कारण स्वास्थ्य बिगड़ने से
मांट्रल (फ्रांस) की प्रशासनिक अदालत में एक मां-बेटी ने याचिका दायर कर सरकार से
1.25 करोड़ रुपए के हर्जाने की मांग की।
अधिकांश विकसित देश अपना प्लास्टिक व इलेक्ट्रॉनिक कचरा विकासशील देशों को भेज
देते हैं। कई देश इस खतरनाक कचरे का अवैज्ञानिक तरीके से निपटान करते हैं जिससे
पर्यावरण प्रदूषित होता है तथा मानव स्वास्थ्य प्रभावित होता है। इस खतरनाक सच्चाई
को जानकर मलेशिया की महिला पर्यावरण मंत्री यिओ बी यीन ने 3000 मीट्रिक टन कचरा
अमेरिका,
चीन, ब्रिटेन, कनाडा,
ऑस्ट्रेलिया सहित अन्य देशों को वापस भेजने का निर्णय लिया।
पानी पर्यावरण का महत्वपूर्ण भाग है परंतु इसकी उपलब्धता घटती जा रही है। इसी
संदर्भ में सूखे से प्रभावित ऑस्ट्रेलिया के शहर सिडनी में जल प्रतिबंध नियमों के
तहत जल खुला छोड़ना अपराध घोषित किया गया। न्यू साउथ वेल्स सरकार के अनुसार यह नियम
जून से लागू कर दिया गया है।
जंगल एवं पेड़ भी पर्यावरण के अहम भाग होते हैं। अत: उनको बचाने के प्रयास भी
सराहनीय है। ब्रिाटिश कोलंबिया प्रान्त (कनाडा) के डार्कवुड नामक संरक्षित क्षेत्र
में पेड़ पौधों एवं जीवों की 40 दुर्लभ प्रजातियां पाई जाती हैं। नेचर कंज़रवेंसी ऑफ
कनाडा नामक एक स्वैच्छिक संगठन इस क्षेत्र की देखभाल करता है। इस क्षेत्र का लगभग
80 वर्ग कि.मी. का भाग किसी की निजी मिल्कियत में था जो संरक्षण कार्य में बाधा
पैदा करता था। इस परेशानी को देखकर उपरोक्त संगठन ने जुलाई 2019 में यह निजी
मिल्कियत का भाग 104 करोड़ रुपए में खरीद लिया एवं संरक्षण का कार्य बेहतर तरीके से
किया।
लगभग ऐसा ही स्कॉटलैंड में भी हुआ। यहां एक पहाड़ी पर देवदार के प्राचीन पेड़
बड़ी संख्या में लगे हैं। सरकारी रिकॉर्ड में यह पहाड़ी किसी की निजी संपत्ति के रूप
में दर्ज थी। पहाड़ी के आसपास बसे लोगों को यह डर हमेशा बना रहता था कि संपत्ति का
मालिक कभी भी देवदार के प्राचीन पेड़ों को कटवा देगा। इन प्राचीन पेड़ों को बचाने
हेतु लोगों ने एक ट्रस्ट बनाया। ट्रस्ट के माध्यम से धन एकत्र करके 15 करोड़ रुपए
में पहाड़ी को ही खरीद लिया। ट्रस्ट के लोग अब देवदार पेड़ों को तो बचा ही रहे हैं, साथ में अन्य पेड़ पौधे भी लगा रहे हैं ताकि पूरी पहाड़ी हरी-भरी हो जाएं।
जापान के हिरोशिमा तथा नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बमों से पैदा विकिरण के
कारण ज़्यादातर पेड़ क्षतिग्रस्त हो गए थे। वर्तमान में 4 कि.मी. के क्षेत्र में 46
में से 30 पेड़ ज़्यादा क्षतिग्रस्त पाए गए। इन सभी पेड़ों को बचाने हेतु अगस्त 2019
तक लगभग 1.60 करोड़ रुपए की राशि एकत्र हो गई थी। पेड़ों को बचाने हेतु प्रभावित भाग
हटाए जाएंगे एवं रसायनों का लेप लगाया जाएगा ताकि भविष्य में और संक्रमण न हो।
कमज़ोर तनों एवं शाखाओं को सहारा देकर जड़ों में खाद भी दी जाएगी।
ब्रिटेन के कई शहरों (डार्लिंगटन, बकिंगहैम, ग्लॉचेस्टर,
वार्विकशावर) में भवन निर्माताओं ने 500 पेड़ों को जालियों
से ढंक दिया ताकि पक्षी घोंसला न बनाएं एवं गंदगी न फैले। स्थानीय लोग इस कार्य से
नाराज़ हुए एवं इसके विरोध में न्यायालय में याचिका दायर की। विरोध स्वरूप कई
स्थानों पर जालियां तोड़ी गई एवं पेड़ों पर हरी पट्टियां बांधी गई। लगातार बढ़ता
विरोध देखकर भवन निर्माताओं ने सारे पेड़ों से जालियां हटा लीं।
हमारे देश में हरियाणा, दिल्ली तथा छत्तीसगढ़ में पेड़
बचाने के प्रयास हुए। हरियाणा सरकार ने 24 फरवरी 2019 को विधान सभा में पंजाब भूमि
संरक्षण अधिनियम में संशोधन को स्वीकृति प्रदान की थी। इस स्वीकृति से 60 हज़ार एकड़
वन भूमि पर गैर-वानिकी एवं निर्माण कार्य को छूट दी गई। इसके विरोध में फरीदाबाद
तथा गुड़गांव में कई प्रदर्शन हुए एवं कहा गया कि इससे अरावली का बड़ा जंगल क्षेत्र
समाप्त हो जाएगा। विरोध के मद्देनज़र सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर नाराज़ी व्यक्त करते
हुए संशोधन पर रोक लगाई। दिल्ली सरकार ने कहा कि विकास कार्यों के लिए पेड़ काटने
की अनुमति तभी मिलेगी जब पेड़ों की कुल संख्या में से 80 प्रतिशत स्थानांतरित किए
जाएंगे। इस अधिसूचना पर लोगों से सुझाव भी मांगे गए थे।
जगदलपुर (छत्तीसगढ़) के बेलाडीला में खनन की अनुमति के विरोध में जून में 200 गांवों के लोगों ने कई दिनों तक प्रदर्शन किए। खनन हेतु 20 हज़ार पेड़ काटे जाने थे। कई स्थानों पर तीर-कमान के साथ पेड़ों की पहरेदारी की गई। (स्रोत फीचर्स)
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शोधकर्ताओं को एक ऐसे व्यक्ति की खोपड़ी और दिमाग मिले हैं
जिसका लगभग 2600 वर्ष पहले सिरकलम किया गया था। यह घटना जिस जगह हुई थी वह आजकल के
यॉर्क (यू.के.) में है। वर्ष 2008 में शोधकर्ताओं को जब खोपड़ी मिली थी, तो उसमें से मस्तिष्क का ऊतक प्राप्त हुआ जो आम तौर पर मृत्यु के तुरंत बाद
सड़ने लगता है। इसलिए यह आश्चर्य की बात है कि यह ढाई हज़ार वर्षों तक संरक्षित रहा।
और तो और,
मस्तिष्क की सिलवटों और खांचों में भी कोई परिवर्तन नहीं
आया था। ऐसा लगता है कि धड़ से अलग होकर वह सिर तुरंत ही कीचड़ वाली मिट्टी में दब
गया था।
शोधकर्ताओं ने मामले को समझने के लिए विभिन्न आणविक तकनीकों का उपयोग करके बचे
हुए ऊतकों का परीक्षण किया। शोधकर्ताओं ने इस प्राचीन मस्तिष्क में दो संरचनात्मक
प्रोटीन पाए जो न्यूरॉन्स और ताराकृति ग्लियल कोशिकाओं दोनों के लिए एक किस्म के कंकाल
या ढांचे का काम करते हैं। लगभग एक वर्ष तक चले इस अध्ययन में पाया गया कि उक्त
प्राचीन मस्तिष्क में यह प्रोटीन-पुंज ज़्यादा सघन रूप से भरा हुआ था और आधुनिक
मस्तिष्क की तुलना में अधिक स्थिर भी था। जर्नल ऑफ रॉयल सोसाइटी इंटरफेस
में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस प्राचीन प्रोटीन-पुंज ने ही मस्तिष्क के नरम
ऊतक की संरचना को दो सहस्राब्दियों तक संरक्षित रखने में मदद की होगी।
पुंजबद्ध प्रोटीन उम्र के बढ़ने और मस्तिष्क की अल्ज़ाइमर जैसी बीमारियों की पहचान हैं। लेकिन शोधकर्ताओं को इनसे जुड़े कोई विशिष्ट पुंजबद्ध प्रोटीन नहीं मिले। वैज्ञानिकों को अभी भी मालूम नहीं है कि ऐसे पुंज बनने की वजह क्या है लेकिन उनका अनुमान है कि इसका सम्बंध दफनाने के तरीकों से है जो परंपरागत ढंग से हुआ होगा। ये नए निष्कर्ष शोधकर्ताओं को ऐसे अन्य प्राचीन ऊतकों के प्रोटीन से जानकारी इकट्ठा करने में मदद कर सकते हैं जिनसे आसानी से डीएनए बरामद नहीं किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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इंडोनेशिया के स्वास्थ्य मंत्री तेरावन एगस पुत्रान्तो द्वारा
वहां के अस्पतालों में एक विवादास्पद उपचार की सिफारिश ने चिकित्सकों को चौंका
दिया है। मंत्री जी ने इंट्रा-आर्टीरियल हेपेरिन फ्लशिंग (IAHF) नामक यह उपचार स्ट्रोक के इलाज के लिए सुझाया है। लेकिन कई चिकित्सकों और
वैज्ञानिकों का कहना है कि इस बात के कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है कि IAHF कारगर है। और तो और, इससे नुकसान भी हो सकते हैं। आलोचकों का कहना है कि तेरावन जिस आक्रामक ढंग से
इस उपचार की पैरवी कर रहे हैं उसके चलते वे देश की स्वास्थ्य नीतियों का नेतृत्व
करने के अयोग्य हैं।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार IAHF एक निदान तकनीक डिजिटल सबट्रेक्शन एंजियोग्राफी (DSA) का थोड़ा परिवर्तित रूप है। मस्तिष्क की रक्त वाहिकाओं को दृश्यमान बनाने के
लिए DSA की मदद ली जाती है, जिसमें मरीज़ के पैर से
मस्तिष्क की रक्त वाहिका तक एक कैथेटर के ज़रिए ऐसी स्याही डाली जाती है जो एक्स-रे
में दिखाई दे। कैथेटर पर रक्त के थक्के जमने से रोकने के लिए हेपेरिन डाला जाता
है।
तेरावन जब गातोत सोब्राोतो आर्मी अस्पताल में रेडियोलॉजिस्ट थे तब उन्होंने
हेपेरिन की मात्रा बढ़ाकर इस नैदानिक तकनीक को स्ट्रोक के उपचार में तबदील कर दिया।
उनका विचार था कि हेपेरिन जब ऑपरेशन के दौरान खून के थक्के बनने से रोकता है तो
उसे मस्तिष्क की रक्त वाहिनियों में ज़्यादा मात्रा में पहुंचाकर वहां से रक्त के
थक्के हटाकर स्ट्रोक से बचाव किया जा सकेगा। उन्होंने IAHF की मदद से इंडोनेशिया के पूर्व राष्ट्रपति सुशीलो बम्बांग
युधोयोनो के अलावा कई नामी व्यवसायियों, राजनेताओं और सैन्य
अधिकारियों सहित हज़ारों मरीज़ों में ना सिर्फ स्ट्रोक का इलाज किया बल्कि बचाव के
लिए भी उपयोग किया। तेरावन का मानना है कि अब इस उपचार को बड़े पैमाने पर शुरू कर
देना चाहिए।
लेकिन इंडोनेशिया के तंत्रिका चिकित्सकों का कहना है कि इस उपचार के प्रभावी
होने का कोई प्रमाण नहीं है, और यह तकनीक अंतर्राष्ट्रीय
मानकों का पालन भी नहीं करती। इसके अलावा इस तरीके में स्नायु सम्बंधी और
गैर-स्नायु सम्बंधी दोनों तरह के जोखिमों की थोड़ी संभावना है और 0.05-0.08 प्रतिशत
तक मृत्यु का जोखिम भी है।
तेरावन द्वारा 75 लोगों पर किए गए क्लीनिकल परीक्षण के परिणाम बाली मेडिकल
जर्नल में प्रकाशित हुए थे। इसके अनुसार क्रोनिक स्ट्रोक के मामले में IAHF से मांसपेशियां मज़बूत होती
हैं। लेकिन मांसपेशियों की मज़बूती जांचने के लिए जो परीक्षण किया गया था, वह बहुत सटीक नहीं है।
इंडोनेशिया के चिकित्सा समुदाय ने पहले भी तेरावन को रोकने की कोशिश की है। 2018 में इंडोनेशियन मेडिकल एसोसिएशन (IDI) की नैतिकता परिषद ने तेरावन को अपना काम समझाने के लिए तलब किया था। लेकिन उन्होंने अपना काम नहीं समझाया। परिषद ने तेरावन को कई नैतिक उद्दंडता का दोषी पाया – पहला, अप्रमाणित उपचार के लिए मोटी रकम वसूलना। दूसरा, मरीज़ों को ठीक करने का झूठा वादा करना। तीसरा, ज़रूरत से ज़्यादा अपना विज्ञापन या प्रचार-प्रसार करना। और चौथा, परिषद के साथ सहयोग ना करना। IDI ने तेरावन की सदस्यता भी एक साल के निरस्त कर दी थी। अलबत्ता, इंडोनेशिया सरकार ने अब तक इस मामले में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। (स्रोत फीचर्स)
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नए साल में इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइज़ेशन (इसरो) ने अपने
नए इरादे ज़ाहिर किए हैं। महीने की शुरुआत में ही एक पत्रकार वार्ता में इसरो
प्रमुख के. सिवन ने मीडिया को बतलाया था कि इसरो ने अंतरिक्ष में भारत के पहले
मानव मिशन ‘गगनयान’ की तैयारी कर ली है। ‘गगनयान’ के डिज़ाइन को अंतिम रूप दिया जा
चुका है। ‘गगनयान’ के लिए चार अंतरिक्ष यात्रियों के चयन की प्रक्रिया पूरी हो गई
है। चारों यात्री वायुसेना के हैं। इन पायलटों को मेडिकल टेस्ट के बाद, भारत और रूस में इस मिशन सम्बंधी ट्रेनिंग दी जाएगी। अंतरिक्ष यात्रियों को ले
जाने के लिए 3.7 टन का अंतरिक्ष यान डिज़ाइन किया गया है। अंतरिक्ष यात्रियों को इस
मिशन के लिए प्रशिक्षित करने और क्रू कैप्सूल में लाइफ सपोर्ट सिस्टम बनाने के लिए
रूस की मदद ली जाएगी।
गगनयान के अलावा सरकार ने मिशन ‘चंद्रयान-3’ को भी मंज़ूरी दे दी है। इससे जुड़ी
सभी गतिविधियां सुचारु रूप से चल रही हैं। यदि सब कुछ योजना के मुताबिक चला, तो यान अगले साल चांद की सतह को छूने के अपने सफर पर निकल सकता है। इसरो की
गतिविधियों में तेज़ी लाने के लिए एक और महत्वपूर्ण निर्णय हुआ है। देश का दूसरा
अंतरिक्ष प्रक्षेपण केंद्र, तमिलनाडु के थुथुकुडी में
बनेगा। केन्द्र के लिए भूमि अधिग्रहण का काम शुरू कर दिया गया है। अभी अंतरिक्ष
में उपग्रह,
यान और रॉकेट प्रक्षेपित करने का पूरा भार आंध्र प्रदेश के
श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन स्पेस सेंटर पर ही है।
बीते साल की तरह, नए साल में भी इसरो के अंतरिक्ष अभियान
जारी रहेंगे। साल 2020 के लिए उसने तकरीबन 25 अभियान तय किए हैं। साल 2019 में जो
मिशन अधूरे रह गए थे, उन्हें भी मार्च 2020 तक पूरा करने का
लक्ष्य रखा गया है। इस दिशा में शुरुआत करते हुए इसरो ने हाल ही में उच्च गुणवत्ता
वाले संचार उपग्रह जीसैट-30 का फ्रेंच गुयाना से सफल प्रक्षेपण किया। जीसैट-30
इनसैट/जीसैट शृंखला का उपग्रह है और यह 12 सी और 12 केयू बैंड ट्रांस्पॉन्डरों से
लैस है। जीसैट-30 इनसैट-4 ए की जगह लेगा और इसकी कवरेज क्षमता भी अधिक होगी। इस
उपग्रह से देश को बेहतर दूरसंचार एवं प्रसारण सेवाएं मिलेंगी। भारत अंतरिक्ष में
पहली ही कोशिश में मानव यात्री भेजने वाला दुनिया का पहला देश होगा। बाकी देशों ने
किसी वस्तु या जानवर को भेजा था। हालांकि, मानव
मिशन भेजने से पहले यान कई दौर की आज़माइश से गुज़रेगा। ‘गगनयान’ की पहली मानवरहित
उड़ान इसी साल आयोजित करने की योजना है। मानवरहित ‘गगनयान’ के लिए इसरो के
वैज्ञानिकों ने एक महिला रोबोट बनाया है। जिसका नाम ‘व्योममित्र’ है। इस रोबोट का
नाम संस्कृत के दो शब्दों ‘व्योम’ यानी अंतरिक्ष और मित्र को मिलाकर रखा गया है।
गगनयान की उड़ान से ठीक पहले इसरो ‘व्योममित्र’ को अंतरिक्ष में भेजेगा और अध्ययन
करेगा। यह इंसानी महिला रोबोट अंतरिक्ष से इसरो को अपनी रिपोर्ट भेजेगी। इसरो ने
हाल ही में व्योममित्र को दुनिया के सामने पेश किया और इसकी खूबियों के बारे में
बताया। इसरो का कहना है कि व्योममित्र अंतरिक्ष में एक मानव शरीर की एक्टिविटी का
अध्ययन करेगी और हमारे पास रिपोर्ट भेजेगी। यह अंतरिक्ष में अंतरिक्ष यात्रियों की
साथी होगी और उनसे बातचीत करेगी। यह महिला रोबोट जांच करेगी कि सभी प्रणालियां सही
ढंग से काम कर रही हैं या नहीं।
मिशन गगनयान और चंद्रयान-3, दोनों का काम एक साथ चल रहा
है। ‘चंद्रयान-3’ की संरचना बहुत हद तक ‘चंद्रयान-2’ जैसी होगी। फर्क सिर्फ इतना
रहेगा कि ‘चंद्रयान-2’ में ऑर्बाइटर, लैंडर और रोवर मौजूद था, जबकि ‘चंद्रयान-3’ को लैंडर व रोवर के अलावा प्रोपल्शन मॉड्यूल से भी लैस किया
जाएगा। यानी इस बार ऑर्बाइटर नहीं जाएगा। मिशन ‘चंद्रयान-3’ की कुल लागत 600 करोड़
रुपए अनुमानित है। इसरो ने पिछले साल अपने महत्वाकांक्षी मिशन ‘चंद्रयान-2’ की
बहुत अच्छी तैयारी की थी। लेकिन चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर विक्रम लैंडर की
सॉफ्ट लैंडिंग कराने के दौरान, मून लैंडर विक्रम का इसरो से
उस समय संपर्क टूट गया, जब वह चंद्रमा की सतह से महज दो किलोमीटर
की दूरी पर था। यानी मिशन कामयाब होते-होते रह गया। भले ही चंद्रयान-2 सफलतापूर्वक
लैंड नहीं कर सका लेकिन ऑर्बाइटर अभी भी काम कर रहा है। इससे अगले सात वर्षों के
लिए वैज्ञानिक डैटा के उत्पादन करने का काम होता रहेगा।
चंद्रयान-3 और गगनयान के बाद इसरो का अंतरिक्ष में अपना स्पेस स्टेशन बनाने का
इरादा है। स्पेस स्टेशन से इसरो की अंतरिक्ष के साथ-साथ पृथ्वी की निगरानी की
क्षमता बढ़ेगी। इस स्टेशन पर भारतीय वैज्ञानिक कई तरह के प्रयोग कर पाएंगे। स्पेस
स्टेशन में लगे कैमरों से वे अच्छी गुणवत्ता वाली तस्वीरें लेने के अलावा जो देखना
चाहेंगे,
उसे आसानी से देख सकेंगे। इससे अंतरिक्ष में बार-बार
निगरानी उपग्रह भेजने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी और खर्च में भी कमी आएगी।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की
योजना है कि पृथ्वी की निचली कक्षा यानी पृथ्वी की सतह से 400 किलोमीटर की ऊंचाई
पर परिक्रमा करने वाले इस स्पेस स्टेशन में तीन अंतरिक्ष यात्री 15-20 दिन तक रह
सकें। गगनयान की कामयाबी के बाद इस मिशन पर सिलसिलेवार काम शुरू होगा जिसे पांच से
सात साल में पूरा किए जाने की संभावना है। अभी इसकी योजना-निर्माण पर काम शुरू ही
हुआ है। इसरो के अध्यक्ष के. सिवन के मुताबिक यह स्टेशन महज 20 टन का होगा।
इसरो यदि स्पेस स्टेशन बनाने में कामयाब हुआ तो अंतरिक्ष में उसकी धाक जम जाएगी। अंतरिक्ष अनुसंधान और उपग्रह प्रक्षेपण के क्षेत्र में उसका काम और भी बढ़ेगा। वर्तमान में वैश्विक अंतरिक्ष उद्योग का आकार 350 अरब डॉलर है। साल 2025 तक इसके बढ़कर 550 अरब डॉलर होने की संभावना है। ज़ाहिर है, दुनिया में अंतरिक्ष एक महत्वपूर्ण बाज़ार के तौर पर विकसित हो रहा है। बीते एक दशक में अंतरिक्ष के क्षेत्र में इसरो ने निश्चित तौर पर महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं, लेकिन भारत का अंतरिक्ष उद्योग अभी भी 7 अरब डॉलर के आस-पास है, जो वैश्विक बाज़ार का सिर्फ 2 फीसदी है। अंतरिक्ष उद्योग में भारत को अपनी भागीदारी बढ़ाना है, तो उसे और भी ज़्यादा गंभीर प्रयास करने होंगे। ना सिर्फ उसे इसरो का सालाना बजट बढ़ाना होगा, बल्कि नए वैज्ञानिकों को भी अंतरिक्ष अभियान में जोड़ना होगा। (स्रोत फीचर्स)
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वनस्पतियों के महत्व को देखते हुए वर्ष 2020 को
अंतर्राष्ट्रीय पादप स्वास्थ्य वर्ष घोषित किया गया है जिसका उद्देश्य पादप जगत
एवं उसके संरक्षण के बारे में जागरूकता पैदा करना है।
जीवन को संभव बनाने वाले कारकों में वनस्पतियों की अहम भूमिका है। वनस्पतियां, भूमि ही नहीं समुद्रों तक में जीवन को पनाह दिए हुए हैं। पेड़-पौधों से हमें
जीवनदायी ऑक्सीजन मिलती है। वनस्पतियां हमारे और अन्य जीवों के आहार का मुख्य स्रोत
हैं। पेड़-पौधे औषधि, वस्त्र, साज-सज्जा, शृंगार सहित अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। ये करोड़ों लोगों की आजीविका
का साधन भी हैं।
2015 में,
पादप स्वच्छता सम्बंधी आयोग के 10वें सत्र में, फिनलैंड ने वर्ष 2020 को अंतर्राष्ट्रीय पादप स्वास्थ्य वर्ष के रूप में मनाए
जाने का प्रस्ताव रखा था। इस प्रस्ताव को उस सम्मेलन में ज़ोरदार समर्थन मिला, जिसे देखते हुए वर्ष 2020 को फिनलैंड के नेतृत्व में अंतर्राष्ट्रीय पादप
स्वास्थ्य वर्ष मनाए जाने पर विचार किया जाने लगा। संयुक्त राष्ट्र संघ आम सभा ने
दिसंबर 2018 में वर्ष 2020 को अंतर्राष्ट्रीय पादप स्वास्थ्य वर्ष के रूप में
मनाने की घोषणा की। इसके उपरांत विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन और अंतर्राष्ट्रीय
पादप सुरक्षा परिषद के विशेष सत्र में अंतर्राष्ट्रीय पादप स्वास्थ्य वर्ष का
शुभारंभ हुआ। यह वर्ष हमें इस बात के प्रति सचेत करता है कि किस प्रकार वनस्पतियों
के स्वास्थ्य पर ध्यान देकर हम भुखमरी, गरीबी से उबरते हुए पर्यावरणीय
और आर्थिक विकास को गति दे सकते हैं।
वनस्पतियों की प्रचुरता सम्पन्नता लाती है। वनस्पतियों से घिरा क्षेत्र
सुंदरता को जन्म देता है। हम जो ऑक्सीजन लेते हैं उसका 98 प्रतिशत हिस्सा
वनस्पतियों से आता है। पिछले एक दशक में वनस्पतियों पर आधारित व्यापार में तीन
गुना की वृद्धि हुई है।
भारत को फसलों की विविधता का का एक केंद्र माना जाता है। यह फसली वनस्पतियों
की उत्पत्ति के 12 केंद्रों में से एक है। भारत चावल, अरहर, आम,
हल्दी, अदरक, गन्ना, गूज़बेरी आदि की 30-50 हज़ार किस्मों के विकास का केंद्र है। भारत की असीम जैव
विविधता के मद्देनज़र युनेस्को ने भारत के पांच संरक्षित क्षेत्रों को वनस्पतियों
एवं प्राणियों के अनोखेपन के लिए विश्व विरासत स्थल घोषित किया है।
विश्व खाद्य संगठन के अनुसार वर्ष 2050 तक कृषि उत्पादन में 60 प्रतिशत की वृद्धि करने की आवश्यकता होगी ताकि बढ़ी हुई जनंसख्या के लिए पर्याप्त आहार की व्यवस्था की जा सके। वनस्पतियों को बीमारियों, कीटों और खरपतवारों से बचाने के लिए विज्ञान का सहारा लेना होगा। (स्रोत फीचर्स)
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विश्व भर में विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग
और चिकित्सा (STEM) के
क्षेत्र में महिलाओं की तुलना में पुरुष अधिक हैं। इस लिंग-आधारित बंटवारे के पीछे
के क्या सामाजिक कारण हैं? शोध बताते हैं कि चाहे श्रम बाज़ार हो या उच्च योग्यता वाले क्षेत्र,
इनमें जब महिला और पुरुष दोनों ही नौकरी के लिए आवेदन करते
हैं तब पुरुष उम्मीदवार स्वयं का खूब प्रचार करते हैं और अपनी शेखी बघारते हैं
जबकि समान योग्यता वाली महिलाएं ‘विनम्र’ रहती हैं और स्वयं को कम प्रचारित करती
हैं। और उन जगहों पर जहां महिला और पुरुष सहकर्मी के रूप में होते हैं,
वहां पुरुषों की तुलना में महिलाओं के विचारों या मशवरों को
या तो अनदेखा कर दिया जाता है या उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता है। नतीजतन,
पुरुषों की तुलना में महिलाएं स्वयं की क्षमताओं को कम
आंकती हैं, खासकर
सार्वजनिक स्थितियों में, और अपनी बात रखने में कम सफल रहती हैं।
युनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन की
डॉ. सपना चेरियन और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में उपरोक्त अंतिम बिंदु को
विस्तार से उठाया है। साइकोलॉजिकल बुलेटिन में प्रकाशित अपने शोध पत्र,
‘क्यों कुछ चुनिंदा STEM क्षेत्रों
में अधिक लिंग संतुलन है?’ में वे बताती हैं कि अमेरिका में स्नातक, स्नातकोत्तर और पीएच.डी. में जीव विज्ञान और रसायन विज्ञान
विषयों में 60 प्रतिशत से अधिक उपाधियां महिलाएं प्राप्त करती हैं जबकि कंप्यूटर
साइंस, भौतिकी और
इंजीनियरिंग में सिर्फ 25-30 प्रतिशत ही महिलाएं हैं। सवाल है कि इन क्षेत्रों में
इतना असंतुलन क्यों है? चेरियन इसके
तीन सामाजिक-मनोवैज्ञानिक कारण बताती हैं (1) मर्दाना संस्कृति,
(2) बचपन से लड़कों की तुलना में लड़कियों की कंप्यूटर,
भौतिकी या सम्बंधित विषयों तक कम पहुंच,
और (3) स्व-प्रभाविता में लैंगिक-विषमता।
रूढ़िगत छवियां
‘मर्दाना संस्कृति’ क्या है?
रूढ़िगत छवि है कि कुछ विशिष्ट कामों के लिए पुरुष ही योग्य
होते हैं और महिलाओं की तुलना में पुरुष इन कामों में अधिक निपुण होते हैं,
और महिलाएं ‘कोमल’ और ‘नाज़ुक’ होती हैं इसलिए वे ‘मुश्किल’
कामों के लिए अयोग्य हैं। इसके अलावा महिलाओं के समक्ष पर्याप्त महिला अनुकरणीय
उदाहरण भी नहीं हैं जिनसे वे प्रेरित हो सकें और उनके नक्श-ए-कदम पर चल सकें। (866
नोबेल पुरस्कार विजेताओं में से सिर्फ 53 महिलाएं हैं। यहां तक कि जीव विज्ञान और
चिकित्सा के क्षेत्र में अब तक दिए गए 400 से भी अधिक लास्कर पुरस्कारों में से भी
सिर्फ 33 महिलाओं को मिले हैं।)
दूसरा बिंदु (यानी बचपन से
लड़कियों की कुछ नियत क्षेत्रों में कम पहुंच) की बात करें तो कंप्यूटर का काम करने
वालों के बारे में यह छवि बनाई गई है कि वे ‘झक्की’ होते हैं और सामाजिक रूप से
थोड़े अक्खड़ होते हैं, जिसके चलते
महिलाएं कतराकर अन्य क्षेत्रों में चली जाती हैं।
तीसरा बिंदु,
स्व-प्रभाव उत्पन्न करने में लैंगिक-खाई,
यह उपरोक्त दो कारणों के फलस्वरूप पैदा होती है। इसके कारण
लड़कियों और महिलाओं के मन में यह आशंका जन्मी है कि शायद वास्तव में वे कुछ
चुनिंदा ‘नज़ाकत भरे’ कामों या विषयों (जैसे सामाजिक विज्ञान और जीव विज्ञान) के ही
काबिल हैं। उनमें झिझक की भावना पैदा हुई है। यह भावना स्पष्ट रूप से प्रचलित
मर्दाना संस्कृति के कारण पैदा हुई है और इसमें मर्दाना संस्कृति झलकती है।
फिर भी यदि हम जीव विज्ञान
जैसे क्षेत्रों की बात करें तो, जहां विश्वविद्यालयों और अनुसंधान प्रयोगशालाओं के पद और तरक्की के लिए महिला
और पुरुष दोनों ही दावेदार होते हैं, वहां भी लैंगिक असामनता झलकती है। विश्लेषण बताते हैं कि शोध-प्रवण विश्वविद्यालय
कम महिला छात्रों को प्रवेश देते हैं। इसके अलावा यह भी देखा गया है कि कई काबिल
महिला वैज्ञानिकों ने, यह महसूस
करते हुए कि उनके अनुदान आवेदन खारिज कर दिए जाएंगे, नेशनल इंस्टीट्यूटट ऑफ हैल्थ जैसी बड़ी राष्ट्रीय संस्थाओं
में अनुदान के लिए आवेदन करना बंद कर दिया है। इस संदर्भ में लेर्चेनमुलर,
ओलेव सोरेंसन और अनुपम बी. जेना का एक पठनीय व
विश्लेषणात्मक पेपर Gender Differences in How
Scientists Present the Importance of their Research: Observational Study (वैज्ञानिकों द्वारा अपने काम का महत्व प्रस्तुत करने में
लैंगिक अंतर) दी ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के 16 दिसम्बर के अंक में प्रकाशित
हुआ है (नेट पर मुफ्त उपलब्ध है)। अपने पेपर में उन्होंने 15 वर्षों (2002 से
2017) के दौरान पबमेड में प्रकाशित 1 लाख से ज़्यादा चिकित्सीय शोध लेख और
62 लाख लाइफ साइंस सम्बंधी शोध पत्रों का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि
चिकित्सा फैकल्टी के रूप में और जीव विज्ञान शोध संस्थानों और विश्वविद्यालयों में
महिलाओं की संख्या कम है। पुरुष सहकर्मियों की तुलना में महिलाओं को कम वेतन दिया
जाता है, कुछ ही शोध
अनुदान मिलते हैं और उनके शोध पत्रों को कम उद्धरित किया जाता है।
भारत में स्थिति
भारत में भी पुरुषों का ही बोलबाला है। लेकिन
क्यों? महिलाओं की
तुलना में पुरुष अपने काम की तारीफ में भड़कीले शब्दों का इस्तेमाल करते हैं,
और अपने काम को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं। लेखकों ने ऐसे 25
शब्द नोट किए हैं, इनमें से कुछ
शब्द तो बार-बार दोहराए जाते हैं जैसे अनूठा, अद्वितीय, युगांतरकारी, मज़बूत और
उल्लेखनीय। जबकि इसके विपरीत महिलाएं विनम्र रहती हैं और खुद को कम आंकती हैं।
लेकिन अफसोस है कि इस तरह अपनी शेखी बघारने के कारण पुरुषों को अधिक अनुदान मिलते
हैं, जल्दी पदोन्नती मिलती है,
वेतनवृद्धि होती है और निर्णायक समिति में सदस्यताएं मिलती
है। इस तरह खुद को स्थापित करने को चेरियन ने अपने पेपर में मर्दानगी कहा है। ब्रिटिश
मेडिकल जर्नल में प्रकाशित चेरियन के उपरोक्त पेपर के नतीजे कई नामी अखबारों
में भी छपे थे, जिनमें से एक
का शीर्षक था – पुरुष वैज्ञानिक ऊंचा बोलकर महिलाओं को चुप करा देते हैं!
तो क्या भारतीय वैज्ञानिक भी
इसके लिए दोषी हैं? उक्त 62 लाख
शोध पत्रों में निश्चित रूप से ऐसे शोधपत्र भी होंगे जिनका विश्लेषण करके भारतीय
वैज्ञानिकों की स्थिति को परखा जा सकता है। भारतीय संदर्भ में अनुदान प्रस्तावों,
निर्णायक दलों और प्रकाशनों के इस तरह के विश्लेषण की हमें
प्रतीक्षा है। सेज पब्लिकेशन द्वारा साल 2019 में प्रकाशित नम्रता गुप्ता
की किताब Women in Science and Technology:
Confronting Inequalities (विज्ञान व
टेक्नॉलॉजी में महिलाएं: असमानता से सामना) स्पष्ट करती है कि इस तरह की असमानता
भारत में मौजूद है। वे बताती हैं कि भारत के पितृसत्तात्मक समाज में यह धारणा रही
है कि महिलाओं को नौकरी की आवश्यकता ही नहीं है। यह धारणा हाल ही में बदली है। आगे
वे बताती हैं कि आईआईटी, एम्स, सीएसआईआर और
पीजीआई के STEM विषयों के शोधकर्ताओं और प्राध्यापकों में सिर्फ 10-15
प्रतिशत ही महिला शोधकर्ता और अध्यापक हैं। निजी शोध संस्थानों में भी बहुत कम
महिला वैज्ञानिक हैं। अर्थात भारत में भी स्थिति बाकी दुनिया से बेहतर नहीं है।
भारतीय वैज्ञानिकों को प्राप्त
सम्मान और पहचान की बात करें तो इस बारे में जी. पोन्नारी बताते हैं कि विज्ञान
अकादमियों में बमुश्किल 10 प्रतिशत ही महिलाएं हैं। अब तक दिए गए 548 भटनागर
पुरस्कारों में से सिर्फ 18 महिलाओं को ही यह पुरस्कार मिला है। और 52 इंफोसिस
पुरस्कारों में से 15 महिलाएं पुरस्कृत की गई हैं। दिलचस्प बात यह है कि इन
पुरस्कारों की निर्णायक समिति (जूरी) में एक भी महिला सदस्य नहीं थी।
भारतीय संदर्भ में राष्ट्रीय एजेंसियों (जैसे DST, DBT, SERB, ICMR, DRDO) द्वारा दिए गए अनुसंधान अनुदान में लैंगिक अनुपात का अध्ययन करना रोचक हो सकता है। साथ ही लेर्चेनमुलर के अध्ययन की तर्ज पर, नाम और जानकारी गुप्त रखते हुए, दिए गए अनुदान के शीर्षक और विवरण का विश्लेषण किया जाना चाहिए ताकि यह देखा जा सके कि क्या भारतीय पुरुष वैज्ञानिक भी हो-हल्ला करके हावी हो जाते हैं? (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th.thgim.com/migration_catalog/article10281036.ece/alternates/FREE_660/Mangalyaan
अपने परिजनों की रक्षा करना और अजनबियों को आश्रय देना
मानवता का एक ऐसा अनिवार्य भाग है जिसको हमने व्यापक रूप से विकसित किया है।
मनुष्यों के अलावा ओरांगुटान और बोनोबो जैसे कुछ ही अन्य जीवों में स्वेच्छा से
दूसरों की मदद करने का गुण देखा गया है। अब वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि
उन्होंने ऐसे गैर-स्तनपायी प्राणि खोज निकाले हैं जो परोपकारी होते हैं।
गौरतलब है कि पूर्व में हुए अध्ययनों से पक्षियों में बुद्धिमत्ता के प्रमाण
तो मिले हैं लेकिन अफ्रीकी मटमैला तोता (Psittacus erithacus) एक ऐसा पक्षी है जो परोपकारी भी है। मैक्स प्लांक इंस्टिट्यूट फॉर
ओर्निथोलॉजी के पशु संज्ञान वैज्ञानिकों ने असाधारण मस्तिष्क वाले अफ्रीकन मटमैले
तोते और नीले सिर वाले मैकॉ (Primolius couloni) की
कुछ जोड़ियों पर अध्ययन किया। सबसे पहले शोधकर्ताओं ने पक्षियों को सिखाया कि वे एक
टोकन के बदले पुरस्कारस्वरूप एक काजू या बादाम प्राप्त कर सकते हैं। इस परीक्षा
में दोनों प्रजाति के पक्षी सफल रहे।
लेकिन अगली परीक्षा में केवल अफ्रीकी मटमैले तोते ने बाज़ी मारी। इस परीक्षा
में शोधकर्ताओं ने जोड़ी के एक ही पक्षी को टोकन दिया और वह भी ऐसे पक्षी को जो
किसी भी तरह से शोधकर्ता तक या पुरस्कार तक नहीं पहुंच सकता था। अलबत्ता वह एक
छोटी खिड़की से टोकन अपने साथी पक्षी को दे सकता था। और वह साथी टोकन के बदले
पुरस्कार प्राप्त कर सकता था। लेकिन इसमें पेंच यह था कि काजू-बादाम जो भी मिलता
उसे वही दूसरा पक्षी खाने वाला था।
दोनों प्रजातियों में, जिन पक्षियों को टोकन नहीं
मिला,
उन्होंने हल्के से चिंचिंयाकर दूसरे साथी का ध्यान खींचने
की कोशिश की। ऐसे में नीले सिर वाले मैकॉ अपने साथी को नज़रअंदाज़ करते हुए निकल गए
लेकिन अफ्रीकी मटमैले तोतों ने पुरस्कार की चिंता किए बिना अपने साथी पर ध्यान
दिया। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार पहले ही परीक्षण में 8
में से 7 मटमैले तोतों ने अपने (वंचित) साथी को टोकन दे दिया। जब इन भूमिकाओं को
पलट दिया गया तब तोतों ने अपने पूर्व सहायकों की भी उसी प्रकार मदद की। इससे लगता
है कि उनमें परस्परता का कुछ भाव होता है।
शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि यदि उनका साथी कोई करीबी दोस्त या रिश्तेदार नहीं
है तब भी उनमें उदारता दिखी। और यदि वह उनका करीबी रिश्तेदार है तब तो वे और अधिक
टोकन दे देते थे। मैकॉ के व्यवहार से तो लगता था कि उन्हें साथी चाहिए ही नहीं।
बल्कि अपने खाने का कटोरा साझा करना भी उन्हें पसंद नहीं था।
शोधकर्ताओं का मानना है कि इन दोनों प्रजातियों के बीच का अंतर उनके अलग-अलग सामाजिक माहौल के कारण हो सकता है। जहां अफ्रीकी मटमैले तोते अपने झुंड बदलते रहते हैं वहीं मैकॉ छोटे समूहों में रहना पसंद करते हैं। वैसे कुछ अन्य पक्षी वैज्ञानिकों को लगता है कि तोतों के परोपकार के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है किवे शायद आपस में भाई-बहन रहे हों, जिनके बीच आधे जीन तो एक जैसे होते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.dailymail.co.uk/1s/2020/01/09/16/23202042-0-image-m-44_1578587189426.jpg