चींटियों को भोजन का छोटा टुकड़ा मिले तो वे उसे धकेलकर अपनी
बांबी तक ले जाती हैं। लेकिन यदि टुकड़ा बड़ा हो तो वे उसे खींचकर ले जाती हैं। सवाल
यह है कि इस तरह उल्टे चलते हुए उन्हें दिशा का अंदाज़ कैसे लगता है। पहले
वैज्ञानिक सोचते थे कि चींटियों को अपने सामने की ओर कुछ परिचित चिंह देखना पड़ते
हैं और उन्हीं की मदद से वे अपनी मंज़िल तक पहुंच पाती हैं। लेकिन अब एक अनुसंधान
दल ने स्पष्ट किया है कि उल्टे चलते हुए भी वे पुराने परिचित दृश्यों को पहचान
सकती हैं।
बात स्पैनिश रेगिस्तानी चींटियों (Cataglyphis velox) की है। ये जब उल्टी चलती हैं तो दिशा निर्धारण के लिए ‘पाथ इंटीग्रेशन’ नामक
रणनीति का इस्तेमाल करती हैं। वे यह याद रखती हैं कि घर से किसी जगह तक पहुंचने
में वे कितने कदम चली थीं और रास्ते में कितने मोड़ या पेंच आए थे। वे अपनी स्थिति
को याद रखने के लिए सूर्य से बनने वाले कोण की भी मदद लेती हैं। और वे घर से किसी
जगह तक चलते हुए मुड़-मुड़कर देखती रहती हैं और नज़र आने वाले पहचान चिंहों को याद
रखती हैं जो वापसी यात्रा में मददगार हो सकते हैं।
लेकिन अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि उल्टे चलते हुए उन्हें पता कैसे चलता है कि
वे कहां जा रही हैं। कभी-कभी चींटियां भोजन को नीचे रखकर मुड़कर देख भी लेती हैं।
पौल सेबेटियर विश्वविद्यालय के सेबेस्टियन श्वार्ज़ और उनके साथी इसी का अध्ययन
करना चाहते थे। उन्होंने उन चींटियों को चुना जो रेगिस्तान में अपने घर से निकलकर
गंतव्य तक पहुंच चुकी थीं। यानी पाथ इंटीग्रेशन के ज़रिए उन्हें मालूम था कि वे
कहां हैं। शोधकर्ताओं ने घर के एकदम बाहर से कुछ ऐसी चींटियां भी पकड़ी जिन्हें लगता
था कि वे घर पहुंच चुकी हैं। इन सब चींटियों को उन्होंने बांबी से थोड़ी दूर उनके
पसंदीदा भोजन के टुकड़ों के पास छोड़ दिया।
जब चींटियां भोजन को लेकर घर की ओर चलीं, तो
कभी-कभी शोधकर्ता दृश्यों में थोड़ा फेरबदल कर देते। जब ऐसे बदले हुए पहचान चिंहों
से सामना हुआ तो चींटियों ने 8 मीटर के रास्ते में 3.2 मीटर चलने के बाद मुड़कर
देखा जबकि परिचित रास्ते पर चींटियां बगैर मुड़े 6 मीटर तक चलती रह सकती हैं। इससे
पता चलता है कि वे उल्टे चलते हुए अपने आसपास के परिवेश पर ध्यान देती हैं और
समय-समय पर पीछे मुड़कर देखती हैं।
उम्मीद के मुताबिक, उन चींटियों का प्रदर्शन कहीं बेहतर रहा
जिन्हें पहले से पता था कि वे कहां हैं। वे बगैर मुड़े ज़्यादा दूरी तय कर पार्इं और
अपना भोजन लेकर घर भी ज़्यादा संख्या में पहुंचीं। जिन चींटियों के पास रास्ते की
जानकारी नहीं थी,
उनमें से कुछ तो भटक गर्इं लेकिन शेष चींटियां घर पहुंच
गर्इं जबकि उनके पास पाथ इंटीग्रेशन द्वारा मिली जानकारी नहीं थी। वे शायद अपनी
दृश्य स्मृतियों अथवा सूर्य से बने कोण की मदद से घर पहुंची थीं।
चींटियों की आंखें काफी विस्तृत दृश्य देख पाती हैं – वे सिरे को घुमाए बगैर
लगभग 360 डिग्री का क्षेत्र देखती हैं जबकि मनुष्य अपने आसपास का एक हिस्सा ही देख
पाते हैं। श्वार्ज़ का कहना है कि संभवत: कीट घर से दूर जाते समय अपने बाजू और पीछे
के दृश्य की जानकारी भी हासिल करते रहते हैं और वापसी में इसका उपयोग कर लेते हैं।
श्वार्ज़ इस संदर्भ में कुछ और प्रयोग करने को उत्सुक हैं। जैसे वे कोशिश कर रहे हैं कि चींटी की एक आंख को बंद करके देखा जाए या उनके लिए एक ट्रेडमिल बनाई जाए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.popsci.com/resizer/7005L4GE4L3DFC67XvVJTMf38L8=/1402×1161/arc-anglerfish-arc2-prod-bonnier.s3.amazonaws.com/public/FA5XJOAQGMW3HH7Y4JBQBM2TD4.jpg
हाल ही में वायरल निमोनिया के एक अज्ञात रूप ने चीन के वुडान शहर
में कई दर्जन लोगों को प्रभावित किया है। इससे देश भर में सीवियर एक्यूट
रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (SARS) के प्रकोप की संभावना
व्यक्त की जा रही है।
यूएस सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के अनुसार, इससे पहले वर्ष 2002 और 2003 में SARS छब्बीस देशों में फैला था जिसने 8000 लोगों में गंभीर फ्लू जैसी बीमारी के
लक्षण पैदा किए थे। इसके कारण लगभग 750 लोगों की मृत्यु भी हुई थी। उस समय इस
प्रकोप की शुरुआत चीन में हुई थी जिसके चलते चीन में 349 और हांगकांग में 299
लोगों की जानें गई थीं।
जब कोई SARS संक्रमित व्यक्ति छींकता या
खांसता है तब संभावना होती है कि वह अपने आसपास के लोगों और चीजों को दूषित कर
देगा।
हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने 2004 में चीन को SARS मुक्त घोषित कर दिया था लेकिन हाल की घटनाओं ने इस बीमारी की वापसी के संकेत
दिए हैं।
अभी तक सामने आए 40 मामलों में से 11 मामले गंभीर माने गए हैं। संक्रमित लोगों
में से अधिकतर लोगों की हुआनन सीफूड थोक बाज़ार में दुकान हैं, उनकी दुकानें स्वास्थ्य अधिकारियों ने अगली सूचना तक बंद कर दी हैं। इसके
अलावा हांगकांग,
सिंगापुर और ताइवान के हवाई अड्डों पर भी बुखार से पीड़ित
व्यक्तियों की स्क्रीनिंग शुरू कर दी गई है।
वैसे अभी तक इस संक्रमण का कारण अज्ञात है, लेकिन
वुडान नगर पालिका के स्वास्थ्य आयोग ने इन्फ्लुएंज़ा, पक्षी-जनित
इन्फ्लुएंज़ा,
एडेनोवायरस संक्रमण और अन्य सामान्य श्वसन रोगों की संभावना
को खारिज कर दिया है। WHO के चीनी प्रतिनिधि के मुताबिक कोरोनावायरस की संभावना की न तो अभी तक कोई
पुष्टि की गई है और न ही इसे खारिज किया गया है।
गौरतलब है कि इस दौरान वुडान पुलिस द्वारा SARS से जुड़ी अपुष्ट खबरें फैलाने के ज़ुर्म में आठ लोगों को
दंडित किया गया है। चाइनीज़ युनिवर्सिटी ऑफ हांगकांग की प्रोफेसर एमिली चैन
यिंग-येंग का मानना है कि यदि यह वास्तव में SARS है तो उन्हें इससे निपटने का तज़ुर्बा है लेकिन यदि यह कोई
नया वायरस या वायरस की कोई नई किस्म है तो इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
2002 में मृत्यु दर युवाओं में अधिक थी, इसलिए यह देखना भी
आवश्यक है कि इस बार वायरस का अधिक प्रभाव युवाओं पर है या बुज़ुर्गों पर।
2002 की महामारी के विपरीत अब तक व्यक्ति-से-व्यक्ति रोग-प्रसार का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिला है, नहीं तो यह संक्रमण एक सामुदायिक प्रकोप के रूप में उभरकर आता। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static01.nyt.com/images/2020/01/09/science/09CHINA-VIRUS1/09CHINA-VIRUS1-articleLarge.jpg?quality=75&auto=webp&disable=upscale
आज से तकरीबन पचास साल पहले 21 जुलाई 1969 को नील
आर्मस्ट्रांग ने जब चंद्रमा पर कदम रखा था, तब
उन्होंने कहा था कि “मनुष्य का यह छोटा-सा कदम, मानवता
के लिए एक बड़ी छलांग है।” अपोलो मिशन के तहत अमेरिका ने 1969 से 1972 के बीच चांद
की ओर कुल नौ अंतरिक्ष यान भेजे और छह बार इंसान को चांद पर उतारा।
अपोलो मिशन खत्म होने के तीन दशक बाद तक चंद्र अभियानों के प्रति एक बेरुखी-सी
दिखाई दी थी। मगर चांद की चाहत दोबारा बढ़ रही है। बीता साल चंद्र अभियानों के
लिहाज़ से बेहद खास रहा। 16 जुलाई, 2019 को इंसान के चांद पर
पहुंचने की पचासवीं वर्षगांठ थी। जनवरी 2019 में एक चीनी अंतरिक्ष यान चांग-4 ने
एक छोटे से रोबोटिक रोवर के साथ चांद की सुदूर सतह पर उतरकर इतिहास रचा।
भारत ने अपने महत्वाकांक्षी चंद्र अभियान चंद्रयान-2 को चांद पर भेजा हालांकि
इसको उतनी सफलता नहीं मिली जितनी अपेक्षित थी। बीते साल इस्राइल ने भी एक छोटा
रोबोटिक लैंडर चंद्रमा की ओर भेजा था, लेकिन वह दुर्घटनाग्रस्त
हो गया। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने भी साल 2023-24 तक चांद पर इंसानी मिशन
भेजने के प्रयास तेज़ करने के संकेत दिए हैं।
अंतरिक्ष में हमारा सबसे नज़दीकी पड़ोसी चांद प्राचीन काल से ही कौतुहल का
केंद्र रहा है। पिछली सदी के उत्तरार्ध से पहले हम चंद्रमा सम्बंधी अपनी जिज्ञासा
को दूरबीन और उसके ज़रिए ली गई तस्वीरों से शांत करने पर मजबूर थे। पहली बार साल
1959 में रूसी (तत्कालीन सोवियत संघ) अंतरिक्ष यान लूना-1 ने चंद्रमा के काफी
नज़दीक पहुंचने में कामयाबी हासिल की थी। इसके बाद रूसी यान लूना-2 पहली बार
चंद्रमा की सतह पर उतरा। सोवियत संघ ने 1959 से लेकर 1966 तक एक के बाद एक कई
मानवरहित अंतरिक्ष यान चंद्रमा की धरती पर उतारे।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीतयुद्ध जब अपने
उत्कर्ष पर था,
तभी 12 अप्रैल 1961 को सोवियत संघ ने यूरी गागरिन को
अंतरिक्ष में पहुंचाकर अमेरिका से बाज़ी मार ली। इससे अमेरिकी राष्ट्र के अहं तथा
गौरव पर कहीं न कहीं चोट पहुंची थी। उसके बाद अमेरिका ने अंतरिक्ष अन्वेषण में
अपनी श्रेष्ठता को साबित करने के लिए आर्थिक और वैज्ञानिक संसाधन झोंक दिए।
अंततोगत्वा नील आर्मस्ट्रांग चंद्रमा की सतह पर कदम रखने वाले पहले इंसान के रूप
में इतिहास में दर्ज हुए।
अपोलो मिशन के ज़रिए दो दर्जन इंसानों को चंद्रमा तक पहुंचाया गया। शीतयुद्ध की
राजनयिक,
सैन्य विवशताओं और मिशन के बेहद खर्चीला होने के कारण
अपोलो-17 के बाद इसे समाप्त कर दिया गया। तब से लेकर आधी सदी तक अंतरिक्ष
कार्यक्रमों को मंज़ूरी देने वाले नियंताओं की आंखों से चांद मानो ओझल हो गया।
मगर आज चांद पर पहुंचने के लिए जिस तरह से विभिन्न देशों में होड़ लगती हुई
दिखाई दे रही है,
यही कहा जा सकता है कि चांद फिर निकल रहा है! इसरो को
चंद्रयान-2 मिशन की आंशिक विफलता ने उन्नत संस्करण चंद्रयान-3 के लिए नए जोश के
साथ प्रेरित किया है, चीन इस मामले में वैश्विक ताकत बनने को
इच्छुक है,
वहीं 2024 तक नासा चंद्रमा पर अपने अंतरिक्ष यात्री को
उतारने की तैयारी कर रहा है। रूस 2030 तक चांद पर अपने अंतरिक्ष यात्री को उतारने
की तैयारी में है।
चांद के प्रति यह आकर्षण सिर्फ राष्ट्रों तक सीमित नहीं है। कई निजी कंपनियां
चांद पर उपकरण पहुंचाने और प्रयोगों को गति देने के उद्देश्य से नासा का ठेका
हासिल करने की कतार में खड़ी हैं। अमेज़न के संस्थापक जेफ बेजोस की रॉकेट कंपनी ब्लू
ओरिजिन एक विशाल लैंडर विकसित करने के काम में लगी है, जो
अंतरिक्ष यात्रियों और माल को चांद की सतह तक ले जा सके। कंपनी की योजना यह लैंडर
नासा को बेचने की है। तकरीबन दो दशकों से अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में काम कर
रही कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां चांद पर पर्यटन करवाने से लेकर कॉलोनी बनाने तक की
महत्वाकांक्षा दिखा चुकी हैं। धरती से चांद की दूरी सिर्फ पौने चार लाख किलोमीटर
के करीब है जो किसी भी अन्य ग्रह की तुलना में बहुत कम है। इस दूरी को सिर्फ तीन
दिन में तय किया जा सकता है। इसके अलावा, चांद से धरती पर रेडियो
संवाद करने में महज एक-दो सेकंड का फर्क आता है। इसीलिए भी स्पेस कंपनियां
अंतरिक्ष में पर्यटन की योजनाओं पर धड़ल्ले से काम कर रही हैं।
ध्यान देने की बात यह है कि बीते पचास सालों में किसी भी देश ने चांद पर
पहुंचने के लिए कोई बड़ा सफल-असफल प्रयास नहीं किया, तो फिर
अचानक ऐसा क्या हुआ कि हम इंसानों को वहां पर जाने की दोबारा ज़रूरत महसूस होने लगी
है। इसके लिए अलग-अलग देशों के पास अपनी-अपनी वजहें हैं। मसलन, भारत जैसे देशों की बात करें तो उनके लिए चंद्र अभियान खुद को तकनीकी तौर पर
उत्कृष्ट दिखाने का सुनहरा मौका होगा। दूसरी तरफ चीन अपने ग्रह के बाहर खुद को
ताकतवर दिखाकर विश्व शक्ति बनने की दिशा में और आगे बढ़ जाना चाहता है। इनसे अलग
अमेरिका के लिए चांद पर जाना, मंगल पर पहुंचने से पहले आने
वाला एक अहम पड़ाव मात्र है।
चांद के प्रति दुनिया के बढ़ते आकर्षण का प्रमुख कारण पानी भी है। दरअसल हालिया
अध्ययनों में चांद के ध्रुवीय गड्ढों के नीचे बर्फ होने की संभावना जताई गई है। यह
भविष्य में चांद पर पहुंचने वाले अंतरिक्ष यात्रियों के लिए बेशकीमती पेयजल का स्रोत
तो हो ही सकता है, कृत्रिम प्रकाश संश्लेषण के जरिए पानी को
हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में तोड़ा भी जा सकता है। जहां ऑक्सीजन सांस लेने के काम आएगी, वहीं हाइड्रोजन का उपयोग रॉकेट र्इंधन के रूप में किया जा सकता है। इस तरह
चांद पर एक रिफ्यूलिंग स्टेशन भविष्य में अंतरिक्ष यानों के लिए पड़ाव का काम कर
सकता है,
जहां रुककर अपने टैंक भरकर वे आगे जा सकते हैं।
विभिन्न देशों की नज़र चंद्रमा के कई दुर्लभ खनिजों, जैसे
सोने,
चांदी, टाइटेनियम के अलावा उससे
टकराने वाले क्षुद्र ग्रहों के मलबों की ओर तो है ही, मगर
वैज्ञानिकों की विशेष रुचि चंद्रमा के हीलियम-3 के भंडार में है। हीलियम-3 हमारी
ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के साथ-साथ खरबों डॉलर भी दिला सकता है। हीलियम-3
नाभिकीय रिएक्टरों में इस्तेमाल किया जा सकने वाला एक बेहतरीन और साफ-सुथरा र्इंधन
है।
बहरहाल,
आगामी दशकों में चांद इंसानी गतिविधियों का प्रमुख केंद्र
बनेगा क्योंकि यहां होटल से लेकर मानव बस्तियां तक बसाने की योजनाओं पर काम चल रहा
है। चंद्रमा की दुर्लभ खनिज संपदा ने इसे सबका चहेता बना दिया है। चांद तक पहुंचने
की इस रेस में भारत, जापान, इस्राइल, उत्तर और दक्षिण कोरिया जैसे देश भी शामिल हैं।
कुल मिलाकर, आने वाले वक्त में जल्दी ही चांद पर पहुंचने के लिए भगदड़ मचती दिख सकती है। देखना है, चांद को छू लेने की यह नई होड़ क्या गुल खिलाती है। (स्रोत फीचर्स)
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मेक्सिकन नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एंथ्रोपोलॉजी एंड हिस्ट्री के
पुरातत्वविदों को माया सभ्यता का पत्थरों से बना एक महल मिला है जो कुछ हज़ार वर्ष
से भी अधिक पुराना है। माया सभ्यता वर्तमान के दक्षिणी मेक्सिको से लेकर
ग्वाटेमाला,
बेलीज़ और होंडुरास तक फैली हुई थी। इस सभ्यता को ऊंचे-ऊंचे
पिरामिड,
धातुकला, सिंचाई प्रणाली तथा कृषि के
साथ-साथ जटिल चित्रलिपि के लिए जाना जाता है।
पुरातत्वविदों का मानना है कि यह महल खास तौर पर समाज के अभिजात्य वर्ग के
लोगों के लिए तैयार किया गया था। गौरतलब है कि वैज्ञानिक कई वर्षों से महल के
आस-पास माया सभ्यता स्थल की खुदाई और इमारतों के जीर्णोद्धार का कार्य कर रहे थे।
यह पुरातात्विक स्थल मशहूर शहर कानकुन से लगभग 160 किलोमीटर पश्चिम में कुलुबा में
है।
वैज्ञानिकों ने इस महल पर अध्ययन हाल ही में शुरू किया है। महल में 180 फीट
लंबे,
50 फीट चौड़े और 20 फीट ऊंचे छह कमरे हैं। चूंकि यह महल काफी
बड़ा था इसलिए इसे पूरी तरह से बहाल करने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। पुरातत्वविदों
की टीम के प्रमुख अल्फ्रेडो बरेरा रूबियो के अनुसार इस महल में कमरों के साथ अग्नि-वेदिका, भट्टी और रिहायशी कमरों के अलावा सीढ़ियां भी मौजूद थीं। महल का अध्ययन करने से
मालूम चलता है कि दो अलग-अलग समय के दौरान लोग यहां रहे – एक तो 900 से 600 ईसा
पूर्व के दौरान और दूसरा 1050 से 850 ईसा पूर्व के दौरान। इस क्षेत्र की स्थापत्य
विशेषताओं की जानकारी के अभाव में मुख्य उद्देश्य इस सांस्कृतिक विरासत की बहाली
और वास्तुकला का अध्ययन करना था।
अध्ययन के दौरान टीम को कुछ द्वितीयक कब्रें भी मिलीं, यानी
पहले कहीं दफन किए शव को निकालकर इन कब्रों में फिर से दफनाया गया था। इनकी मदद से
आगे चलकर इस सभ्यता के लोगों की उम्र, लिंग और उनकी तंदुरुस्ती
के बारे में पता लगाया जा सकेगा।
हालांकि इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि 800 से 1000 ईसा पूर्व के बीच यह सभ्यता का खत्म क्यों हुई, फिर भी कुछ शोधकर्ता मानते हैं कि वनों की कटाई और सूखे के कारण यह सभ्यता नष्ट हुई होगी। (स्रोत फीचर्स)
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ऑस्ट्रेलिया के कंगारु द्वीप पर वन्य जीवों का अध्ययन करने
वाली सोफी पेटिट का सामना एक विचित्र जीव से हुआ। दरअसल जीव तो जाना-पहचाना था –
शकर चींटी (Camponotus
terebrans) लेकिन उसके व्यवहार ने पेटिट को अचंभित कर दिया।
कंगारु द्वीप का वातावरण रेगिस्तानी है। सूखी रेत और उस पर उगे सूखे
झाड़-झंखाड़। यहां कंगारु खूब पाए जाते हैं। पेटिट ने देखा कि उस स्थान पर बड़ी
संख्या में शकर चींटियां मंडरा रही हैं जहां कोई दो घंटे पहले उन्होंने पेशाब की
थी। उससे भी ज़्यादा अचरज की बात थी कि वे चींटियां उसी जगह पर कई रातों तक आती
रहीं। पेटिट जानना चाहती थीं कि चींटियों को वहां क्या मिल रहा है।
कुछ महीनों बाद वही सवाल लेकर वे अपने एक अन्य साथी को लेकर वहां पहुंच गर्इं।
आखिर पेशाब में इन चींटियों को क्या मिलता है? रासायनिक
दृष्टि से देखें तो पानी के अलावा पेशाब में मुख्य रूप से यूरिया होता है। यूरिया
एक नाइट्रोजनी यौगिक है और नाइट्रोजन तो समस्त जीवों के लिए अनिवार्य है। तो
शोधकर्ताओं ने यूरिया के अलग-अलग घोल बनाए। किसी में मनुष्य या कंगारु के पेशाब
में पाया जाने वाला 2.5 प्रतिशत यूरिया मिलाया तो किसी घोल में 10 प्रतिशत। इसके
अलावा शकर के अलग-अलग सांद्रता वाले घोल भी बना लिए। इन अलग-अलग घोलों को रेत पर
अलग-अलग स्थानों पर उंडेलकर इंतज़ार करते रहे।
पूरे एक महीने तक अवलोकन करने के बाद एक निष्कर्ष स्पष्ट था – घोल में यूरिया
की सांद्रता जितनी अधिक होती है, शकर चींटियां भी उतनी ही अधिक
संख्या में आती हैं। और तो और, ऑस्ट्रेलियन इकॉलॉजी पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि ये चींटियां शकर के घोल की बजाय
यूरिया के घोल को तरजीह देती हैं।
यूरिया को पसंद करने तक तो ठीक था क्योंकि कई जीव यूरिया से पोषण प्राप्त करते हैं किंतु आश्चर्य की बात तो यह थी कि ये चींटियां पेशाब के सूख जाने के बाद भी रेत को खोदती रहीं। वे तो पेशाब के हल्के से दाग को भी खोदने लगती थी। यह पहली बार है कि किसी जीव द्वारा सूखे यूरिया का उपयोग पोषण प्राप्त करने के लिए होता देखा गया है। (स्रोत फीचर्स)
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चुर्इंगम को चबाते हुए हमने कई अठखेलियां की हैं। हाल ही में दक्षिणी डेनमार्क
से 5700 वर्ष पूर्व इंसानों
द्वारा चबाए गए टार के टुकड़े प्राप्त हुए हैं। बर्च नामक पेड़ की छाल को चबाने से
बनी चिपचिपी एवं काली टार की इस चुर्इंगम को चबाते-चबाते उन लोगों ने अपने कई रहस्य उसमें कैद कर दिए। इनकी
मदद से आज के वैज्ञानिक उनके रहन-सहन और खान-पान की आदतों का पता लगा
सकते हैं।
5700 वर्ष पूर्व
के प्राचीन डेनमार्क निवासी शिकार करके अपना जीवन यापन करते थे। वे तीर के सिरे पर
नुकीले पत्थर चिपकाने के लिए या पत्थरों के सूक्ष्म औजारों को लकड़ी पर चिपकाने के
लिए चिपचिपे टार का उपयोग करते थे। टार प्राप्त होता था बर्च नामक पेड़ की छाल को
चबाने से। लगातार चबाने से टार चुर्इंगम के समान नरम हो जाता था और औज़ारों को
चिपकाने-सुधारने के काम आता था। शायद, टार
में पाए जाने वाले एन्टिसेप्टिक तेल और रसायन का उपयोग दांत दर्द से राहत पहुंचाने
के लिए भी किया जाता हो। यह भी हो सकता है कि आज के बच्चों के समान उस समय के
बच्चे भी टार की चुर्इंगम से खिलवाड़ करते रहे हों। टार की चुर्इंगम को चबाते-चबाते मुंह के अंदर की
टूटी कोशिकाएं, भोजन
के कण एवं सूक्ष्मजीव भी उसमें संरक्षित हो गए थे। यह प्राचीन चुर्इंगम
वैज्ञानिकों को प्राचीन मानव के डीएनए का अध्ययन करने का बेहतरीन अवसर दे रही है।
नेचर कम्यूनिकेशन में दी एनशियंट डीएनए (प्राचीन डीएनए) नामक शोध पत्र में बताया गया है कि प्राचीन चुर्इंगम से
प्राप्त डीएनए उस क्षेत्र में बसे लोगों की शारीरिक रचना तथा उनके भोजन और दांतों
पर पाए जाने वाले जीवाणु के सुराग देता है।
कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के
पुरातत्ववेत्ता हेंस श्रोडर ने बताया है कि अक्सर वैज्ञानिक डीएनए अध्ययन के लिए
हड्डियों का उपयोग करते हैं क्योंकि उनका कठोर आवरण अंदर नाज़ुक कोशिकाओं और डीएनए
को संरक्षित कर लेता है। परंतु, इस शोध में वैज्ञानिकों ने हड्डियों के बजाय प्राचीन टार की चुर्इंगम का उपयोग
किया। उन्होंने यह भी बताया कि टार की चुर्इंगम से बहुत से जीवाणुओं के संरक्षित
डीएनए भी प्राप्त हुए हैं।
शोधकर्ताओं को टार की चुर्इंगम
पिछले साल खोजबीन के दौरान एक सुरंग से प्राप्त हुई थी। डॉ. श्रोडर ने कहा कि इस स्थान से
प्राप्त जीवाश्म के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इस इलाके के रहने वाले लोग मुख्य
रूप से मछली पकड़ने, शिकार करने
और जंगली बेर और फल खाकर अपना जीवन यापन करते थे। यद्यपि, आसपास के इलाकों में लोगों ने खेती और पशुपालन भी प्रारंभ
कर दिया था।
जब शोधकर्ताओं ने 5700 साल पुरानी टार की चुर्इंगम में संरक्षित मानव डीएनए का
विश्लेषण किया तो पाया कि जिसने उसे चबाया था वह एक महिला थी जो शिकारी समुदाय से
अधिक निकटता रखती थी। वैज्ञानिकों ने उस महिला का नाम लोला रखा। लोला के डीएनए को
पूरा पढ़ने के बाद उसी क्षेत्र की वर्तमान आबादी के डीएनए आंकड़ों का तुलनात्मक
विश्लेषण करके वैज्ञानिकों का अनुमान है कि लोला की त्वचा का रंग गहरा था,
बाल भी गहरे रंग के थे तथा आंखों का रंग नीला था। वह
लेक्टोस असहिष्णुता से ग्रसित थी जिसके कारण वह दूध की शर्करा का पाचन नहीं कर
सकती थी।
डीएनए में क्षारों के अनुक्रम
को पढ़कर व्यक्ति के रंग-रूप, कद-काठी एवं अन्य लक्षणों से
चेहरे और शरीर का पुनर्निर्माण करना अब कोई आश्यर्चजनक कार्य नहीं रह गया है।
वैज्ञानिकों ने कुछ ही समय पहले दस हज़ार वर्ष
पुराने ब्रिटिश व्यक्ति (चेडर मेन) के कंकाल को देखकर और डीएनए को पढ़कर
शारीरिक लक्षणों का अंदाज़ लगाया था।
टार की चुर्इंगम से प्राप्त
कुछ अन्य डीएनए नमूनों से यह भी ज्ञात हुआ है कि लोला ने टार की चुर्इंगम को चबाने
से पहले हेसलनट तथा बतख खाई थी। बर्च टार से बैक्टीरिया एवं वायरस का डीएनए भी
प्राप्त हुआ है। हम सभी के मुंह और आंत में बैक्टीरिया, वायरस और फफूंद होती हैं। अत: प्राप्त सबूतों से लोला के मुंह में पाए जाने वाले
सूक्ष्मजीव संसार (माइक्रोबायोम) का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
लोला की चुर्इंगम से कई
बैक्टीरिया भी प्राप्त हुए हैं जो दांतों में प्लाक और जीभ पर भी पाए जाते हैं।
चुर्इंगम से प्राप्त एक बैक्टीरिया पोकायरोमोनास जिंजिवेलिस मसूड़ों की बीमारी का
द्योतक है। चुर्इंगम में स्ट्रेप्टोकोकस न्यूमोनिया जैसे अन्य प्रकार के
बैक्टीरिया एवं वायरस भी प्राप्त हुए हैं जो लोला के स्वास्थ्य का सुराग देते हैं।
छोटे से गम के टुकड़े से जानकारी का खजाना प्राप्त करना उत्कृष्ट शोध का नमूना है। अलबत्ता, वैज्ञानिक लोला की उम्र ज्ञात नहीं कर पाए हैं। और निश्चित तौर पर यह भी कहा नहीं जा सकता कि लोला ने चुर्इंगम को क्यों चबाया (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thesun.co.uk/wp-content/uploads/2019/12/CJ-COMP-CHEWING-GUM.jpg?strip=all&quality=100&w=1200&h=800&crop=1
विदा हो चुके वर्ष 2019 में
भारतीय विज्ञान लगातार आगे बढ़ता रहा। हमारे देश के वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष
विज्ञान से लेकर जीनोम अनुक्रम के अनुसंधान में बड़ी सफलताएं हासिल कीं। गुज़रे साल
में भारत की अंतरिक्ष विज्ञान की उपलब्धियों में नए और ऐतिहासिक अध्याय जुड़ते रहे।
वर्ष के उत्तरार्ध में 22 जुलाई को चंद्रयान-2 का सफल प्रक्षेपण किया गया। आखरी
क्षणों की छोटी-सी विफलता को छोड़ दें तो भारत ने यह साबित कर दिया कि वह चंद्रमा
के उस हिस्से पर अपना यान पहुंचा सकता है, जिसे दक्षिणी ध्रुव कहा जाता है।
चंद्रयान-2 मिशन में आठ महिला
वैज्ञानिकों ने सहभागिता की। वनिता मुथैया मिशन की प्रोजेक्ट डायरेक्टर थीं,
जो काफी समय से उपग्रहों पर शोध करती रही हैं। मुथैया
चंद्रयान-1 मिशन में भी योगदान कर चुकी हैं। रितु करिधान मिशन डायरेक्टर थीं,
जिन्हें ‘रॉकेट वुमन ऑफ इंडिया’ कहा जाता है।
दरअसल, चंद्रयान-2 एक विशेष उपग्रह था, जिसे जीएसएलवी मार्क-3 प्रक्षेपण यान के ज़रिए अंतरिक्ष में
सफलतापूर्वक भेजा गया था। चंद्रयान-2 के तीन महत्वपूर्ण घटक हैं – ऑर्बाइटर,
विक्रम लैंडर और प्रज्ञान रोवर। लैंडर का नामकरण भारतीय
अंतरिक्ष कार्यक्रम के संस्थापक विक्रम साराभाई के नाम पर किया गया है। चंद्रयान-2
का वज़न लगभग चार हज़ार किलोग्राम था। इसरो के अनुसार चंद्रयान-2 मिशन पर 978 करोड़
रुपए खर्च हुए। इससे पहले अक्टूबर 2008 में चंद्रयान-1 भेजा गया था। चंद्रयान-1 की
सबसे बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि चंद्रमा पर पानी की खोज थी। यह भारत का पहला
इंटरप्लेनेटरी मिशन था, जिसने मंगल
और चंद्रयान-2 का मार्ग प्रशस्त किया।
इस वर्ष 25 जनवरी को भारतीय
अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने पीएसएलवीसी-44 के ज़रिए इमेजिंग उपग्रह
माइक्रोसैट-आर और कलामसैट को पृथ्वी की कक्षा में सफलतापूर्वक विदा किया। कलामसैट
उपग्रह का निर्माण विद्यार्थियों ने किया था। यह विश्व का सबसे कम वज़न का और सबसे
छोटा उपग्रह था। कलामसैट का जीवन काल भी बहुत छोटा था। कलामसैट अपने साथ दो
बॉयोलाजिकल पेलोड ले गया, जिसमें तुलसी और सूरजमुखी के बीज थे। 1 फरवरी को पीएसएलवी-सी-45 द्वारा एमीसैट
और अन्य 28 उपग्रहों का प्रक्षेपण किया गया। 6 फरवरी को संचार उपग्रह जीसैट-31 को
फ्रेंच गुयाना से सफलतापूर्वक विदा किया गया। यह भारत का 40वां संचार उपग्रह है।
जीसैट-31 का वजन 40 किलोग्राम है। यह 15 वर्षों तक अंतरिक्ष में रहेगा। इस उपग्रह
से शेेयर बाजार, ई-प्रशासन और
दूर संचार से जुड़ी अन्य सेवाओं के विस्तार में मदद मिल रही है।
27 मार्च को भारत ने
उपग्रहरोधी मिसाइल क्षमता का सफलतापूर्वक परीक्षण किया। इसके साथ ही हमारा देश
अमेरिका, रूस और चीन
की विशिष्ट बिरादरी में सम्मिलित हो गया। एक अप्रैल को पीएसएलवी-सी-45 प्रक्षेपण
यान से एमिसैट सहित 29 उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करके नया
इतिहास रचा गया। एमिसैट का निर्माण इसरो और भारतीय प्रतिरक्षा अनुसंधान संगठन
(डीआरडीओ) ने किया है। एमिसैट सीमा पर नज़र रखने में मददगार होगा। मई में इसरो ने
पृथ्वी पर्यवेक्षण उपग्रह रीसैट-2 बी का प्रक्षेपण किया। रीसैट-2 बी वास्तव में
राडार इमेजिंग उपग्रह है। इससे प्राप्त आंकड़ों का उपयोग कृषि,
वानिकी, आपदा प्रबंधन और मौसम की नवीनतम जानकारियां प्राप्त करने में हो रहा है।
गुज़रे साल इसरो ने अंतरिक्ष
में उपग्रहों को भेजने का सिलसिला जारी रखते हुए 27 नवम्बर को कार्टोसैट-3 और
अमेरिका के 13 नैनौ उपग्रहों का प्रक्षेपण किया। कार्टोसैट-3 उन्नत और भू-अवलोकन
उपग्रह है, जो अंतरिक्ष
से पृथ्वी पर पैनी निगाह रख रहा है। 11 दिसंबर को पीएसएलवी-सी-48 की पीठ पर सवार
होकर रीसैट-2बी-1अंतरिक्ष में पहुंचा। यह पीएसएलवी का 50वां सफल प्रक्षेपण था। रीसैट-2बी-1का
जीवनकाल पांच वर्ष है। यह उपग्रह निगरानी की भूमिका निभाएगा। इसरो ने शोध और विकास
के लिए बजट में न्यू इंडिया स्पेस लिमिटेड बनाने का प्रस्ताव भी रखा। नेशनल रिसर्च
फाउंडेशन की स्थापना का प्रस्ताव भी रखा गया।
यह वही वर्ष है,
जब नई दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड
इंटीग्रेटिव बायोलॉजी के वैज्ञानिकों ने जीन सम्पादन की तकनीक क्रिस्पर कॉस-9 का
एक नया स्वरूप विकसित किया। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार अब जीन सम्पादन अत्यधिक सटीक
तरीके से किया जा सकेगा। इस सफलता से भविष्य में सिकल सेल विकार का प्रभावी तरीके
से इलाज किया जा सकेगा।
इसी साल वैज्ञानिक एवं
औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की आठ प्रयोगशालाओं के संघ ने दीपावली पर
आतिशबाज़ी से होने वाले वायु प्रदूषण को घटाने के लिए इको फ्रेंडली पटाखों – ग्रीन
क्रैकर्स – का निर्माण किया। अनुमान है कि इको फ्रेंडली पटाखों से तीस प्रतिशत तक
पार्टिक्युलेट उत्सर्जन कम करने में मदद मिली।
वर्ष 2019 में अक्टूबर में
आरंभ की गई एक नई और महत्वाकांक्षी परियोजना इंडिजेन के अंतर्गत हैदराबाद स्थित
सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी और दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स
एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी के वैज्ञानिकों ने देश के विभिन्न समुदायों के लोगों का
सम्पूर्ण जीनोम अनुक्रम तैयार किया। इस परियोजना से प्राप्त आंकड़ों का उपयोग
आनुवंशिक बीमारियों के इलाज, नई औषधियों के विकास और विवाह के पहले आनुवंशिकी परीक्षणों में किया जा सकेगा।
इसी वर्ष कोशिकीय एवं आणविक
जीव विज्ञान संस्थान (सीसीएमबी), हैदराबाद के वैज्ञानिकों ने भारतीय पुरुषों में बांझपन के आनुवंशिक कारणों का
पता लगाया। यह शोध भारतीय पुरुषों में बांझपन की चिकित्सा में सहायक हो सकता है।
वर्ष 2019 में एक भारतीय
इंजीनियर ने थर्टी मीटर टेलीस्कोप (टीएमटी) के लिए सॉफ्टवेयर विकसित किया। यह वि·ा का सबसे बड़ा भू-आधारित टेलीस्कोप है। बीते साल में टाटा
मूलभूत अनुसंधान संस्थान, मुम्बई के डॉ.सुनील गुप्ता और उनकी शोध टीम ने गर्जन मेघों के मापन के लिए
म्यूऑनों के उपयोग की विधि का आविष्कार किया।
विदा हो चुके वर्ष में भारत
सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी
(सीएसआर) की तर्ज पर साइंटिफिक सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (एसएसआर) का ड्रॉफ्ट जारी
किया। इसका उद्देश्य वैज्ञानिकों को सामाजिक ज़िम्मेदाारी में सहभागी बनाना है।
बीते साल में संसद द्वारा डीएनए प्रौद्योगिकी नियमन विधेयक को मंज़ूरी दी गई। इस
विधेयक का उद्देश्य लापता लोगों, अपराधियों और अज्ञात मृतकों के लिए डीएनए प्रौद्योगिकी का उपयोग करना है।
नवम्बर में कोलकाता में
पांचवां भारतीय अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव आयोजित किया गया। चार दिनों तक चले
महोत्सव में वैज्ञानिकों, अनुसंधानकर्ताओं, विज्ञान
संचारकों और स्कूली बच्चों ने उत्साहपूर्वक भाग लिया। महोत्सव में समाज के हर
व्यक्ति के लिए कुछ-न-कुछ था। महोत्सव में विज्ञान साहित्य समारोह और विज्ञान
फिल्में सम्मिलित थे। स्कूली बच्चों के लिए ‘छात्र विज्ञान ग्राम’ बनाया गया था।
इसी वर्ष 8 मई को मुम्बई स्थित
नेहरू साइंस सेंटर में ‘विज्ञान समागम’ प्रदर्शनी का शुभारंभ हुआ। देश में ऐसा
पहली बार हुआ है, जब विश्व की
वृहत विज्ञान परियोजनाओं को विज्ञान समागम में एक साथ प्रदर्शित किया गया है।
विज्ञान समागम प्रदर्शनी वैश्विक परियोजनाओं की वैज्ञानिक जानकारी आम लोगों तक
पहुंचाने के लिए विज्ञान संचार के एक सशक्त मंच के रूप में सामने आई है। प्रदर्शनी
में विश्व स्तर की विज्ञान परियोजनाओं में भारत के योगदान को विशेष रूप से
रेखांकित किया गया है। वृहत विज्ञान प्रदर्शनी ग्यारह महीने की यात्रा में मुंबई,
बैंगलुरु और कोलकाता होते हुए दिल्ली में समाप्त होगी।
वर्ष 2019 में विद्यार्थियों
की प्रतिभा को तराशने के लिए प्रधानमंत्री नवाचारी शिक्षण कार्यक्रम ‘ध्रुव’ शुरू
किया गया। इसरो ने विद्यार्थियों की अंतरिक्ष अनुसंधान में दिलचस्पी बढ़ाने के लिए
‘संवाद’ कार्यक्रम आरंभ किया।
इसी वर्ष भारतीय अंतरिक्ष
कार्यक्रम के संस्थापक विक्रम साराभाई का जन्म शताब्दी वर्ष मनाया गया।
अंतर्राष्ट्रीय एस्ट्रोनॉमिकल यूनियन ने चंद्रमा के एक क्रेटर का नाम उनकी स्मृति
में रखकर उन्हें सम्मानित किया था। इसी साल विख्यात प्रकृतिविद् और बांग्ला भाषा
में लोकप्रिय विज्ञान लेखन से जुड़े रहे गोपालचंद्र भट्टाचार्य की 125 वीं जयंती
विचार गोष्ठी और व्याख्यान आयोजनों के साथ मनाई गई।
प्रोफेसर गगन दीप कांग पहली
भारतीय महिला वैज्ञानिक हैं, जिन्हें इस वर्ष फेलो ऑफ रॉयल सोसायटी चुना गया है। 360 वर्षों बाद पहली महिला
वैज्ञानिक को यह सम्मान मिला है। उन्होंने रोटा वायरस पर विशेष अनुसंधान किया है।
भारत में जन स्वास्थ्य अनुसंधान में उनका विशेष योगदान है। प्रोफेसर कांग वर्तमान
में फरीदाबाद स्थित ट्रांसलेशनल हेल्थ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी इंस्टीट्यूट में
कार्यकारी निदेशक हैं।
वर्ष 2019 के शांतिस्वरूप
भटनागर पुरस्कार के लिए विभिन्न विषयों से जुड़े
12 वैज्ञानिकों का चयन किया गया। इसके अलावा, इसी वर्ष इसरो के वैज्ञानिक नांबी नारायण को पद्मभूषण से
सम्मानित किया गया।
वर्ष 2019 में शोध अभिव्यक्ति
हेतु लेखन कौशल सुदृढ़ीकरण (Augmenting Writing Skills for Articulating Research – अवसर) पुरस्कार से चार युवा वैज्ञानिकों को पुरस्कृत
किया गया। पीएच. डी. वर्ग में सर्वश्रेष्ठ शोधपत्र के लिए आशीष श्रीवास्तव को
प्रथम पुरस्कार दिया गया। पोस्ट डॉक्टरेट वर्ग में डॉ. पालोमी संघवी को प्रथम
पुरस्कार प्रदान किया गया। इस पुरस्कार की शुरुआत 2018 में विज्ञान एवं
प्रौद्योगिकी विभाग ने की थी, जिसका उद्देश्य विज्ञान को आम लोगों के बीच लोकप्रिय बनाना है।
17 दिसंबर को इंटरनेशनल
एस्ट्रोनॉमिकल यूनियन ने सेक्सटेंस नक्षत्र के एक तारे को भारतीय महिला वैज्ञानिक
बिभा चौधरी के नाम पर ‘बिभा’ और उसके एक ग्रह को ‘संतमस’ नाम दिया। संतमस संस्कृत
शब्द है जिसका अर्थ है बादली। पहले इस तारे का नाम एचडी 86081 और ग्रह का नाम
86081-बी रखा गया था।
इस वर्ष 3 दिसंबर को भारत में पोषण अनुसंधान के जनक डॉ. सी.गोपालन का निधन हो गया। इसी साल 14 नवंबर को भारतीय गणितज्ञ डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह नहीं रहे। उन्होंने आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धांत को चुनौती दी थी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.gadgets360cdn.com/large/isro_1577172149885.jpg
प्रागैतिहासिक युग का अध्ययन
करते समय पुरातत्वविद अक्सर बच्चों को अनदेखा कर देते हैं। उनका ऐसा मानना है कि
उनका बचपन केवल माता-पिता के लालन-पालन तथा खेल और खिलौनों के बीच ही गुज़रता होगा।
लेकिन एक नए अध्ययन से पता चला है कि प्रागैतिहासिक युग के बच्चे भी कठोर कार्य
करते थे। वे कम आयु में ही उपकरणों और हथियारों का उपयोग करना सीख लेते थे जिससे
बड़े होकर उनको मदद मिलती थी।
कनाडा स्थित अल्बर्टा विश्वविद्यालय
के पुरातत्वविद रॉबर्ट लोसी और एमिली हल को ओरेगन के तट पर 1700 वर्ष पुरानी
वस्तुओं का अध्ययन करते हुए कुछ टूटे हुए तीर और भाले मिले। गौरतलब है कि यह
क्षेत्र अतीत में चिनूकन और सलीश भाषी लोगों का घर रहा है। इस अध्ययन के दौरान
उन्हें टूटे ऐटलेटल (भालों को फेंकने के हथियार) भी मिले।
लोसी बताती हैं कि उनको इन
हथियारों के केवल बड़े नहीं बल्कि छोटे संस्करण भी दिखाई दिए। एंटिक्विटी में
प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताओं का अनुमान है कि वयस्कों ने हथियारों के
लघु संस्करण भी तैयार किए होंगे ताकि उनकी युवा पीढ़ी शिकार करने के कौशल सीख सके
जिसकी उन्हें बाद में आवश्यकता होगी। वास्तव में एक सफल शिकारी बनने के लिए ऐटलेटल
में महारत हासिल करना आवश्यक था। हालांकि यह हथियार आज शिकारियों के शस्त्रागार से
लगभग गायब हो चुका है लेकिन इसमें पूर्ण महारत हासिल करने में कई साल लग जाते
थे।
देखा जाए तो आज भी कई समाजों में काफी कम उम्र से ही बच्चों को ऐसे उपकरणों और साधनों का उपयोग सिखाया जाता है। कई अध्ययनों से पता चला है कि जो बच्चे औज़ारों से खेलते हैं वे जल्द उनका उपयोग करना भी सीख जाते हैं। उदाहरण के तौर पर थाईलैंड के मानिक समाज के 4 वर्षीय बच्चे बड़ी सफाई से खाल उतारने और आंत को अलग करने का काम कर लेते हैं। एक अध्ययन से पता चला है कि तंज़ानिया के हाज़दा समाज के 5 वर्षीय बच्चे उम्दा संग्रहकर्ता होते हैं और अपनी दैनिक कैलोरी खपत का आधा हिस्सा खुद इकट्ठा कर सकते हैं। इस प्रकार के कई अन्य अध्ययन दर्शाते हैं कि प्रागैतिहासिक युग के बच्चे लघु-प्रसंस्करण के औज़ारों और खाद्य प्रसंस्करण के औज़ारों का उपयोग किया करते थे। कई अध्ययन के अनुसार कंकाल के प्रमाणों से पता चला है कि वाइकिंग किशोर भी सेना में शामिल थे। लोगान स्थित ऊटा स्टेट युनिवर्सिटी की मानव विज्ञानी लैंसी के अनुसार इन अध्ययनों के बाद औद्योगिक समाज के माता-पिता को सीख लेनी चाहिए। आजकल एक कामकाजी बच्चे के विचार को एक प्रकार के शोषण के रूप में देखा जाता है, अधिकतर माता-पिता इसे गलत मानते हैं। लेकिन लैंसी का ऐसा मानना है कि बाल-श्रम और बच्चों के काम में काफी फर्क है। काम करते हुए बच्चे उपयोगी कौशल सीखते हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि बच्चों का काम करना आज भी कई समाजों में एक सामान्य बात है और लगता है कि ऐसा सहरुााब्दियों से रहा है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/weapons_1280p.jpg?itok=7a4UMKB-
न्यूयॉर्क टाइम्स के 28 दिसंबर
के अंक में एक आलेख के शीर्षक का भावार्थ कुछ ऐसा था: दीवालियापन के शिकार
एंटीबायोटिक्स – स्वास्थ्य का संकट मंडरा रहा है क्योंकि दवा-प्रतिरोधी कीटाणुओं
के खिलाफ लड़ाई में मुनाफा कम होने की वजह से निवेशक कतरा रहे हैं (Lifelines
at risk as bankruptcies stall antibiotics – a health crisis looms: scant
profits in fighting drug-resistant bugs sours investors)। इसका सम्बंध ऐसे रोगजनक बैक्टीरिया और फफूंद से है जो अब पारंपरिक
एंटीबायोटिक के प्रतिरोधी हो चले हैं। इनमें स्यूडोमोनास, ई. कोली, क्लेबसिएला, साल्मोनेला
और तपेदिक का बैक्टीरिया शामिल हैं। ऐसे बहु-औषधि प्रतिरोधी (MDR) रोगाणु उभर
रहे हैं। ये प्रति वर्ष दुनिया भर में लगभग 30 लाख लोगों को बीमार करते हैं और
राष्ट्र संघ का कहना है कि यदि हमने जल्दी ही ऐसे रोगाणुओं से लड़ने के लिए दवाइयां
विकसित न कीं तो 2050 तक इनकी वजह से सालाना 1 करोड़ लोग मौत के शिकार होंगे।
सवाल है कि ये बहु-औषधि
प्रतिरोधी रोगाणु आए कहां से? पेनिसिलीन और उसी जैसे एंटीबायोटिक्स (एरिथ्रोमायमीन, फ्लॉक्सिन) वगैरह का इस्तेमाल 60-70 साल पहले शुरू हुआ था।
तब से हम इनका उपयोग सफलतापूर्वक करते रहे हैं क्योंकि ऐसी कोई भी परंपरागत दवा
करोड़ों रोगाणुओं को मार डालती है। लेकिन फिर भी ऐसे रोगाणुओं की एक छोटी-सी संख्या
बच निकली। उनके जीन्स में कतिपय छोटे-मोटे अंतरों की वजह से उनमें बचाव के कुछ
रास्ते रहे होंगे जिसकी बदौलत उनमें ऐसी क्षमता होती है कि वे दवा को अपनी
कोशिकाओं में प्रवेश ही नहीं करने देते या प्रवेश करने के बाद उसे निकाल बाहर करते
हैं। ऐसे बचे हुए रोगाणु लगातार संख्यावृद्धि करते हैं और महीनों-वर्षों में करोड़ों
की तादाद में इकट्ठे हो जाते हैं। इनमें से कुछ एकाधिक दवाइयों से बचने का जुगाड़
कर लेते हैं। सारे प्रचलित एंटीबायोटिक्स के खिलाफ प्रतिरोधी ऐसे रोगाणुओं को ही MDR कहते हैं।
ऐसी स्थिति में ज़रूरत इस बात
की है कि वैज्ञानिक और दवा कंपनियां MDR रोगाणुओं के जीव विज्ञान को लेकर बुनियादी
अनुसंधान करें और उनके खिलाफ लड़कर फतह हासिल करने के लिए कारगर दवाइयां विकसित
करें।
किसी नई दवा की खोज/आविष्कार
करके उसे बाज़ार में उपलब्ध कराने में प्राय: दस वर्ष तक का समय लग जाता है। दरअसल,
इसी तरह के अनुसंधान व विकास के प्रयासों के दम पर ही
मधुमेह, गठिया,
रक्त विकार और कैंसर जैसी जीर्ण बीमारियों के खिलाफ दवाइयां
विकसित हुई हैं। और इनमें से हरेक से सम्बंधित अनुसंधान व विकास के काम पर अरबों
डॉलर का निवेश लगता है और कंपनी की अपेक्षा होती है कि उसे हर साल अरबों डॉलर का
मुनाफा मिले। न्यूयॉर्क टाइम्स के उपरोक्त लेख में एंड्रू जैकब कहते हैं कि प्रमुख
दवा कंपनियां MDR रोगाणु सम्बंधी शोध से कतराती रही हैं क्योंकि जीर्ण रोगों
के विपरीत एंटीबायोटिक दवाइयों में अच्छा मुनाफा नहीं है। कारण यह है कि जहां
जीर्ण रोगों की दवाइयां लंबे समय तक लेनी होती हैं, वहीं एंटीबायोटिक तो कुछ दिनों या, बहुत हुआ तो, हफ्तों के लिए दी जाती हैं।
यही स्थिति MDR रोगाणुओं के
संदर्भ में अनुसंधान और विकास कार्य करके उनके खिलाफ दवा विकसित करने के मामले में
भी है। इसके लिए भी लंबी अवधि के प्रयासों और अरबों डॉलर के निवेश की ज़रूरत है।
इसी मामले में कुछ निजी कंपनियों ने योगदान दिया है। खुशी की बात है कि इन्हें
अनुसंधान व विकास कार्य के लिए वित्तपोषण कुछ निजी प्रतिष्ठानों और सरकारी रुाोतों
से प्राप्त हो रहा है। उक्त लेख में बताया गया है कि कैसे एकाओजेन नामक
जैव-टेक्नॉलॉजी कंपनी यूएस सरकार के बायोमेडिकल रिसर्च एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी से
एक अरब डॉलर का अनुदान पाने में सफल रही है और उसने 15 साल के अनुसंधान व विकास
कार्य के फलस्वरूप ज़ेमड्री नामक दवा तैयार की है। ज़ेमड्री दरअसल प्लेज़ोमायसिन का
ब्राांड नाम है और यह मूत्र मार्ग के दुष्कर संक्रमण के उपचार में कारगर पाई गई
है। ज़ेमड्री को यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन की मंज़ूरी
मिल चुकी है। बदकिस्मती से, एकाओजेन इस औषधि से ज़्यादा मुनाफा नहीं कमा सकी, जिसके चलते उसके निवेशक खफा हो गए और कंपनी दिवालिया हो गई।
इसी प्रकार से टेट्राफेज़ नामक
कंपनी को एक गैर-मुनाफा संस्था से बड़ा अनुदान मिला था और उसने ज़ेरावा नामक दवा का
विकास किया जो कुछ MDR रोगाणुओं के खिलाफ कारगर है। लेकिन कंपनी को गिरते स्टॉक
मूल्य के चलते स्टाफ की छंटनी करनी पड़ी और आगे अनुसंधान व विकास कार्य में भी
कटौती करनी पड़ी।
यही हालत एक तीसरी कंपनी
मेंलिंटा थेराप्यूटिक्स की भी हुई। इस कंपनी ने बैक्सडेला नामक औषधि विकसित की थी
जिसे खाद्य व औषधि प्रशासन ने दवा-प्रतिरोधी निमोनिया के लिए मंज़ूरी दे दी थी।
यह बात गौरतलब है कि एकाओजेन
कंपनी को सिप्ला-यूएस ने खरीद लिया था। सिप्ला-यूएस भारतीय लोकहितैषी दवा कंपनी
सिप्ला की यूएस शाखा है। इसके अंतर्गत सारे उपकरण भी खरीदे गए और ज़ेमड्री को बनाने
की टेक्नॉलॉजी तथा उसे बनाने व दुनिया भर में बेचने के अधिकार भी शामिल थे।
सिप्ला का यह कदम अन्य भारतीय
कंपनियों के लिए मिसाल है कि उन्हें भी इस क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिए। वे अपने
तर्इं यूएस की अन्य कंपनियों से बातचीत करके उन्हें खरीद सकती हैं या पार्टनर अथवा
मालिक के रूप में रोगाणुओं के खिलाफ दवाइयां बनाने की वह टेक्नॉलॉजी अर्जित कर
सकती हैं जो इन कंपनियों ने कड़ी मेहनत करके विकसित की है। इसके बाद ये भारतीय
कंपनियां ये दवाइयां न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया भर के ज़रूरतमंद मरीज़ों को
मुहैया करा सकती है।
हाल ही में भारत में MDR रोगाणुओं की
वजह से होने वाली मौतों को लेकर सोमनाथ गंद्रा व साथियों ने देश के 10 अस्पतालों
में अध्ययन किया था। क्लीनिकल इंफेक्शियस डिसीज़ेस में प्रकाशित उनके शोध पत्र में
बताया गया है कि MDR रोगाणुओं की वजह से मृत्यु दर 13 प्रतिशत है। यदि यह
अस्पताल में पहुंचने वाले मरीज़ों की स्थिति है, तो कल्पना कर सकते हैं कि देश के गांवों-कस्बों में लाखों
लोग ऐसी बीमारियों की वजह से दम तोड़ रहे होंगे। और इसमें कोई संदेह नहीं कि
अफ्रीका, दक्षिण-पूर्वी
एशिया और अन्य कम आमदनी वाले देशों में भी स्थिति बहुत अलग नहीं होगी। लिहाज़ा,
भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा किया गया अनुसंधान व विकास कार्य
जन स्वास्थ्य और आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होगा।
अच्छी बात यह है कि भारत सरकार
और उसकी वित्तपोषक संस्थाएं सरकारी शोध व विकास संस्थानों और वि·ाविद्यालयों में इस फोकल थीम के क्षेत्र में शोधकर्ताओं को
अनुदान देने को तत्पर हैं। इसके अलावा, गैर-सरकारी संस्थाओं और दवा कंपनियों को भी यह अनुदान मिल सकता है। भारत में
निजी गैर-मुनाफा प्रतिष्ठानों को भी अपने बटुए खोलने चाहिए।
हममें से कई यह बात शायद नहीं जानते कि हमारा देश दुनिया भर में बचपन के टीकों का एक प्रमुख सप्लायर बन चुका है। भारत के मुट्ठी भर टीका-उत्पादक आज अपने अनुसंधान व विकास कार्य के दम पर दुनिया भर में 35 प्रतिशत बचपन के टीके सप्लाय करते हैं। ऐसे में कोई कारण नहीं कि क्यों भारत MDR किस्म के रोगों और अन्य संक्रमणों के खिलाफ अपने अनुसंधान के दम पर दुनिया के 7 अरब लोगों को अच्छा स्वास्थ्य देने के मामले में अग्रणि नहीं हो सकता। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://smw.ch/journalimage/1170/0/ratio/view/article/ezm_smw/en/smw.2017.14553/881440033726048a489670fb0ed97d05d9ab76c4/14553_14553.jpg/rsrc/ji
आज से लगभग 7000 वर्ष पूर्व विश्व भर के महासागरों के जलस्तर में वृद्धि होने
लगी थी। हिमयुग के बाद हिमनदों के पिघलने से भूमध्य सागर के तट पर बसे लोगों को इस
बढ़ते जलस्तर से काफी परेशानी का सामना करना पड़ा। लेकिन इस परेशानी से निपटने के
लिए उन्होंने एक दीवार का निर्माण किया जिससे वे अपनी फसलों और गांव को तूफानी
लहरों और नमकीन पानी की घुसपैठ से बचा सकें। हाल ही में पुरातत्वविदों ने इरुााइल
के तट पर उस डूबी हुई दीवार को खोज निकाला है जो एक समय में एक गांव की रक्षा के
लिए तैयार की गई थी।
इस्राइल स्थित युनिवर्सिटी ऑफ हायफा के पुरातत्वविद एहुद गैलिली के अनुसार
इरुााइल की अधिकतर खेतिहर बस्तियां, जो अब जलमग्न हैं, उत्तरी तट पर मिली हैं। ये बस्तियां रेत की एक मीटर मोटी परत के नीचे संरक्षित
हैं। कभी-कभी रेत बहने पर ये बस्तियां सतह पर उभर आती हैं।
गैलिली और उनकी टीम ने इस दीवार को 2012 में खोज निकाला था। यह दीवार तेल
हराइज़ नामक डूबी हुई बस्ती के निकट मिली है। बस्ती समुद्र तट से 90 मीटर दूर तक
फैली हुई थी और 4 मीटर पानी में डूबी हुई थी। टीम ने स्कूबा गियर की मदद से अधिक
से अधिक जानकारी खोजने की कोशिश की। इसके बाद वर्ष 2015 के एक तूफान ने उन्हें एक
मौका और दिया। उन्हें पत्थर और लकड़ी से बने घरों के खंडहर, मवेशियों
की हड्डियां,
जैतून के तेल उत्पादन के लिए किए गए सैकड़ों गड्ढे, कुछ उपकरण,
एक चूल्हा और दो कब्रों भी मिलीं। लकड़ी और हड्डियों के
रेडियोकार्बन डेटिंग के आधार पर बस्ती 7000 वर्ष पुरानी है।
प्लॉस वन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह दीवार 100 मीटर लंबी थी और
बड़े-बड़े पत्थरों से बनाई गई थी जिनका वज़न लगभग 1000 किलोग्राम तक था। गैलिली का
अनुमान है कि यह गांव 200-300 वर्ष तक अस्तित्व में रहा होगा और लोगों ने सर्दियों
के भयावाह तूफान कई बार देखे होंगे। आधुनिक समुद्र की दीवारों की तरह इसने भी ऐसे
तूफानों से निपटने में मदद की होगी। गैलिली के अनुसार मानवों द्वारा समुद्र पानी
से खुद को बचाने का यह पहला प्रमाण है।
गैलिली का ऐसा मानना है कि तेल हराइज़ पर समुद्र का जल स्तर प्रति वर्ष 4-5 मिलीमीटर बढ़ रहा है। यह प्रक्रिया सदियों से चली आ रही है। कुछ समय बाद उस क्षेत्र में रहने वाले लोग समझ गए होंगे कि अब वहां से निकल जाना ही बेहतर है। समुद्र का स्तर बढ़ता रहा होगा और पानी दीवारनुमा रुकावट को पार करके रिहाइशी इलाकों में भर गया होगा। लोगों ने बचाव के प्रयास तो किए होंगे लेकिन अंतत: समुद्र को रोक नहीं पाए होंगे और अन्यत्र चले गए होंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/ancientseawall2-16×9.jpg?itok=m0fDloxu