कई देशों में आजकल लकड़ी से बनी चीज़ों पर इस बात का प्रमाण अंकित किया जाता है कि वह लकड़ी ऐसे जंगल से प्राप्त हुई है जिसका प्रबंधन टिकाऊ ढंग से किया जा रहा है। इस तरह का प्रमाणन जर्मनी में फॉरेस्ट स्टुआर्डशिप कौंसिल (एफएससी) करती है तो स्विटज़रलैंड में प्रोग्राम फॉर दी एंडोर्समेंट ऑफ फॉरेस्ट सर्टिफिकेशन (पीईएफसी) द्वारा किया जाता है। इस प्रमाणीकरण से पूर्व जंगल से सम्बंधित कई सारे पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को परखा जाता है। इन दो संस्थाओं ने मिलकर आज तक 44 करोड़ हैक्टर जंगल को टिकाऊ रूप से प्रबंधित जंगल का प्रमाण पत्र दिया है। इस वर्ष भारत में ऐसी एक व्यवस्था को अंतिम रूप दिया गया है और पीईएफसी ने इसका अनुमोदन कर दिया है।
प्रमाणन की एक शर्त यह है कि प्रमाणित वन में जेनेटिक रूप से परिवर्तित (जीएम) पेड़ नहीं होने चाहिए। संस्थाओं के अनुसार यह शर्त इस आधार पर लगाई गई थी कि ऐसे पेड़ों के कारण पर्यावरणीय जोखिम अनिश्चित है। एफएससी के निदेशक स्टीफन साल्वेडोर का कहना है कि यह प्रतिबंध जेनेटिक इंजीयरिंग टेक्नॉलॉजी के प्रति गहरी आशंकाओं का भी द्योतक है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि टिकाऊ प्रबंधन का प्रमाण पत्र प्राप्त जंगलों में जीएम पेड़ लगाने की अनुमति न देने का मतलब है कि आप नई टेक्नॉलॉजी से हासिल हुए रोग-प्रतिरोधी वृक्षों को अनुमति नहीं दे रहे हैं। वैज्ञानिकों ने उक्त दो संस्थाओं को लिखे अपने पत्र में साफ किया है कि जीएम वृक्ष पर्यावरण की दृष्टि से उतने ही निरापद हैं जितने सामान्य संकर पेड़ होते हैं। और वे कई रोगों से लड़ने की क्षमता से भी लैस होते हैं। एक उदाहरण के रूप में वैज्ञानिकों ने बताया है कि एक रोग के कारण अमेरिकन चेस्टनट (शाहबलूत) का लगभग सफाया हो गया था। अब इस पेड़ में जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से ऐसे परिवर्तन किए गए हैं कि यह रोग प्रतिरोधी हो गया है। वैज्ञानिकों ने अपील की है कि प्रमाणित वनों में जीएम वृक्ष लगाने की अनुमति दी जाए। उनके मुताबिक प्रतिबंध के कारण शोध कार्य में दिक्कत आती है।
पीईएफसी के प्रवक्ता का कहना है कि प्रमाणन की शर्तों को हर पांच साल में संशोधित किया जाता है। अगला संशोधन 2023 में होगा। तब शर्तों में परिवर्तन के हिमायती संशोधन प्रक्रिया में भाग ले सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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