अभी कुछ समय पहले, 2014 में गुरुत्वाकर्षण तरंगों का पता लगाया गया और इस वर्ष ब्लैक होल की पहली तस्वीर ली गई। दोनों ही खोजें आइंस्टाइन के सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत की भविष्यवाणी के प्रभावशाली प्रमाण हैं। ये दोनों घटनाएं वर्ष 2015 के दोनों ओर घटी हैं जो आइंस्टाइन के युगांतरकारी शोध पत्र के प्रकाशन का शताब्दी वर्ष था। सौ वर्षों के इस अंतराल में काफी बहसें और चर्चाएं तो होती रही हैं साथ ही साथ प्रकृति को लेकर इस महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि ने हमें अचंभित भी किया है।
इस सिद्धांत का पहला भाग, विशिष्ट सिद्धांत, 1905 में प्रकाशित हुआ था। इसमें उच्च वेगों पर वस्तुओं के व्यवहार तथा द्रव्यमान और ऊर्जा की आपसी तुल्यता की बात की गई थी।
दूसरा भाग, सामान्य सापेक्षता, गुरुत्वाकर्षण पर विचार करता है और ऐसे प्रभावों के बारे में चर्चा करता है जो ब्राहृांड के स्तर पर नज़र आते हैं। ये वो चीज़ें हैं जिनको हम रोज़मर्रा की ज़िंदगी में नहीं देखते हैं। लेकिन सामान्य सापेक्षता को असाधारण सटीकता के साथ सत्यापित किया गया है और यह प्रकृति का एक निर्विवाद हिस्सा है। प्रकृति के नियमों को समझने का काम इसी के मार्गदर्शन में करना होगा।
इन आविष्कारों के महत्व और विशिष्ट प्रकृति, दोनों को देखते हुए आइंस्टाइन ने स्वयं उन पाठकों, जो पेशेवर वैज्ञानिक नहीं थे, के लिए एक स्पष्ट और सरल, लेकिन सैद्धांतिक रूप से गहन विवरण प्रस्तुत करने का काम हाथ में लिया। परिणामस्वरूप 1917 के वसंत में उन्होंने जर्मन भाषा में एक पुस्तिका का प्रकाशन किया था: ‘रिलेटिविटी: दी स्पेशल एंड दी जनरल थ्योरी (ए पॉपुलर अकाउंट)’। इसकी शताब्दी के अवसर पर प्रिंसटन युनिवर्सिटी ने हिब्रू विश्वविद्यालय, यरुशलम के साथ मिलकर 1960 में किए गए इसके अंग्रेज़ी अनुवाद को फिर से प्रकाशित किया है। इसमें बाद में जोड़े गए परिशिष्ट भी शामिल किए गए हैं और साथ ही एक रीडिंग कम्पेनियन, टिप्पणियां और अन्य अनुवादों पर नोट्स तथा अन्य स्मृतियां भी शामिल की गई हैं।
मूल पुस्तक तो केवल 132 पृष्ठों की है जिसमें 32 अध्याय हैं। बहुत सारे अध्याय हैं, नहीं? जी हां, आइंस्टाइन ने सापेक्षता की अपनी पहली पुस्तक को छोटे-छोटे हिस्सों में विभाजित किया था। एक अध्याय तो केवल एक पृष्ठ लंबा है। सहजता और स्पष्टता तथा गणित के कम से कम उपयोग के साथ, उन्होंने इस सिद्धांत के मूल विचार को विकसित करने के लिए सिर्फ आवश्यक चीज़ों को ही प्रस्तुत किया है। जैसा कि वे प्रस्तावना में कहते हैं, “यह पुस्तिका उन पाठकों के लिए है जो एक सामान्य वैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से सिद्धांत में रुचि तो रखते हैं, लेकिन सैद्धांतिक भौतिकी के गणितीय औज़ारों से परिचित नहीं हैं।”
आइंस्टाइन पहले पारंपरिक विचार का परिचय देते हैं। उसके अनुसार यदि अवलोकन के दो प्रेक्षण मंच एक-दूसरे के सापेक्ष एकरूप गति से चल रहे हैं, तब दोनों मंचों की सापेक्ष गतियों को जोड़कर-घटाकर एक-दूसरे में परिवर्तित किया जा सकता है। कोई भी प्रेक्षक यह नहीं बता सकता है कि वह एक ऐसे मंच पर है जो ‘स्थिर’ है या एकरूप गति से चलायमान है क्योंकि भौतिकी के नियम एकरूप सापेक्ष गति में प्रेक्षकों के किसी भी जोड़े के लिए एक जैसे होते हैं। इस अभिन्नता को आइंस्टाइन ने सापेक्षता का नियम कहा।
सिर्फ प्रकाश की गति एक अपवाद है। प्रकाश के मामले में होता यह है कि प्रकाश का स्रोत या प्रेक्षण करने वाला उपकरण किसी भी वेग से चले, प्रकाश का वेग हमेशा 3,00,000 कि.मी. प्रति सेकंड (निर्वात में) होता है। यह सापेक्षता के उपरोक्त नियम के विरुद्ध है। चूंकि प्रकाश के वेग के स्थिर होने की बात को एच.ए. लॉरेंट्ज़ ने विद्युत चुंबकत्व के सिद्धांतों के आधार पर प्रतिपादित किया था, इसलिए लगता था कि इस मामले में सापेक्षता के नियम को तिलांजलि दे दी जाए, हालांकि इस नियम के विरुद्ध कोई सबूत नहीं था।
यहीं पर सापेक्षता के विशेष सिद्धांत का प्रवेश होता है। विशेष सिद्धांत में लॉरेंट्ज़ के काम का उपयोग करते हुए स्थान और समय की प्रकृति की पुन: व्याख्या की गई है। यह पुन:व्याख्या उक्त विरोधाभास का समाधान कर देती है – इसके अनुसार एक-दूसरे के सापेक्ष गति कर रहे दोनों मंचों के लिए प्रकाश का वेग तो समान रहता है, लेकिन गतिशील ताने-बाने के संदर्भ में मापन किया जाए तो लंबाई और समय के अंतराल ही सिकुड़ या फैल जाते हैं।
इस पुनव्र्याख्या का एक और निष्कर्ष यह है कि किसी कण की गति की ऊर्जा न केवल उसके स्थिर द्रव्यमान और चाल पर निर्भर करती है, बल्कि द्रव्यमान और एक ऐसे कारक पर भी निर्भर करती है, जिसका मान चाल के साथ बढ़ता है। यह कारक चाल के वर्ग को प्रकाश के वेग के वर्ग से विभाजित करने पर प्राप्त होता है। इसलिए द्रव्यमान में यह वृद्धि नगण्य रहती है, सिवाय उस स्थिति के जब वस्तु का वेग बहुत अधिक हो। हालांकि ऊर्जा के इस समीकरण से हमें किसी स्थिर कण की आंतरिक ऊर्जा का मान मिलता है जो E = mc2 के रूप में मशहूर है।
सामान्य सिद्धांत
उपरोक्त विचार एकरूप सापेक्ष गति पर चलने वाले प्लेटफार्मों के बारे में हैं। इसके बाद आइंस्टाइन एक ऐसे मामले पर विचार करते हैं जहां एक प्लेटफार्म को त्वरण प्रदान किया जाता है यानी उसकी चाल बदलती जाती है। इस स्थिति में दो मंचों की परस्पर सापेक्ष गति लगातार बदलती रहती है। त्वरणशील प्लेटफॉर्म पर प्रेक्षक त्वरण की विपरीत दिशा में एक बल का अनुभव करेगा, और उसे सभी स्वतंत्र वस्तुएं इसी विपरीत दिशा में गिरती हुई प्रतीत होंगी। और इस प्रेक्षक के पास गुरुत्वाकर्षण बल और त्वरण के कारण लग रहे बल के बीच अंतर जानने का कोई तरीका नहीं होगा। आइंस्टाइन का मत है कि वास्तव में इनके बीच कोई अंतर है भी नहीं। इस आधार पर उन्होंने सापेक्षता के नियम को सामान्य रूप से गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में स्थित मंच अथवा त्वरणशील मंच दोनों पर लागू करने का सुझाव दिया था।
यहां स्थिति यह हो जाती है कि प्रकाश किरण का मार्ग, जो एक प्लेटफॉर्म पर सरल रेखा में दिखाई देता है, वह त्वरणशील गति या गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में स्थित मंच से एक वक्र के रूप में दिखाई देगा। तो इसका मतलब यह होगा कि सापेक्षता का नियम सामान्य रूप से लागू नहीं होता है? आइंस्टाइन इस सवाल से निपटने के लिए कुछ परिमापों के रूप में घटनाओं के निर्धारण का एक नया तरीका विकसित करते हैं – जैसे किसी स्थिर बिंदु से दूरी व दिशा, और समय के माप।
किसी समतल सतह पर किसी बिंदु की स्थिति बताने का सामान्य तरीका दो लंबवत रेखाओं से उसकी दूरी बताने का है (यह ग्राफ का तरीका है)। इस तरह दर्शाने के बाद दो बिंदुओं के बीच की दूरी निकाली जा सकती है। किंतु यदि जिस सतह पर रेखाएं खींची जाएं वह समतल न होते हुए गोलाई लिए हो (जैसे पृथ्वी) तो बिंदुओं के बीच की दूरी समतल सतह के समान नहीं होगी। गणित का उपयोग किए बगैर, इस तरह के तर्क का उपयोग करते हुए, आइंस्टाइन ने एक गोलाईदार स्थान का विचार विकसित किया जो एक गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र की उपस्थिति से मेल खाता है। इसकी मदद से उन्होंने साबित किया कि गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में प्रकाश की वक्र मार्ग पर चलती किरण अभी भी उसी चाल से चल रही है!
इस विचार ने ब्राहृांड की एक नई प्रणाली का मार्ग प्रशस्त किया। यह प्रणाली ब्राहृांड पर लागू होती है, जहां विशाल द्रव्यमान के पिंड और गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र हैं। यह प्रणाली न्यूटन की उस प्रणाली से अलग है जो 17वीं शताब्दी से सौर मंडल का वर्णन करने में काफी प्रभावशाली साबित हुई थी। द्रव्यमान ‘कम’, यानी तुलनात्मक रूप से कम हो, तो आइंस्टाइन की प्रणाली न्यूटन प्रणाली का ही रूप ले लेती है।
इसलिए न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत में एक सन्निकटन था। यह उस स्थिति में काफी अच्छे परिणाम देती थी जब मापन पर्याप्त रूप से सटीक नहीं थे। न्यूटन द्वारा प्रतिपादित व्युत्क्रम वर्ग का नियम (जो कहता है कि दो पिंडों के बीच लगने वाला गुरुत्वाकर्षण बल उनके बीच की दूरी के वर्ग के व्युत्क्रमानुपाती होता है) भी एक सन्निकटन ही है। आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत के आने के बाद तथ्यों की व्याख्या के लिए इस नियम को अलग से कहने की ज़रूरत नहीं रह जाती क्योंकि कम द्रव्यमान पर वह आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत का एक सीमित रूप ही है।
आइंस्टाइन पारंपरिक ब्राहृांड विज्ञान में अन्य विसंगतियों का जि़क्र भी करते हैं, जिन्हें सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत ने सुलझाया है। बुध की कक्षा के अग्रगमन (या पुरस्सरण, प्रेसेशन) की अवधि की गणना करना इस सिद्धांत की एक प्रमुख सफलता रही। न्यूटोनियन यांत्रिकी के तहत, ग्रहों की कक्षाएं दीर्घवृत्ताकार हैं और ये दीर्घवृत्त परिवर्तनशील नहीं हैं। और बुध (सूर्य का सबसे करीब ग्रह) के अलावा शेष सभी ग्रहों के लिए यह बात सही पाई गई थी। बुध के मामले में दीर्घवृत्ताकार कक्षा स्वयं भी घूमती है। यह गति काफी धीमी है, हर सदी में केवल 43 सेकंड (ध्यान दें कि 1 सेकंड डिग्री का 3600वां भाग होता है)। न्यूटोनियन यांत्रिकी इसको समझाने में असमर्थ थी। लेकिन सामान्य सापेक्षता सिद्धांत की मदद से, आइंस्टाइन ने यह दर्शा दिया कि सभी ग्रहों की कक्षाएं घूमती हैं, और बुध के मामले में उन्होंने एक सदी में 43 सेकंड के अग्रगमन की गणना भी की! (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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