हाल के समय में बढ़ते जल संकट के बीच एक सार्थक प्रयास यह हुआ है कि परंपरागत जल ज्ञान व प्रबंधन के महत्व व उसकी उपयोगिता को नए सिरे से समझने का प्रयास किया गया है।
परंपरागत स्रोतों व तकनीक को महत्व देने का यह अर्थ नहीं है कि विज्ञान की नई उपलब्धियों के आधार पर उनमें बदलाव या सुधार नहीं होने चाहिए। बदलाव या सुधार अवश्य हो सकते हैं पर ध्यान देने की बात यह है कि परंपरागत तकनीक की स्थानीय स्थिति की जो मूल समझ है उसके विरुद्ध कोई बदलाव नहीं करना चाहिए।
कुछ समय पहले बुंदेलखंड में परंपरागत तालाबों की बेहतरी के कुछ प्रयास विफल हुए क्योंकि इन प्रयासों में परंपरागत तकनीक की समझ नहीं थी, इस बात की पूरी समझ नहीं थी कि ये तालाब एक-दूसरे से कैसे जुड़े हुए हैं। एक अन्य स्थान पर तालाबों को मज़बूत बनाने के लिए उनकी दीवार ऊंची करने का सुझाव दिया गया, मगर इस बात को ध्यान नहीं रखा गया कि एक तालाब के भरने पर दूसरे तालाब में उसके पानी को भेजने का जो सिलसिला पहले से चला आ रहा था वह इस उपाय से टूट जाएगा।
आधुनिक और अधिक सुविधापूर्ण तकनीक आने से प्राय: परंपरागत तकनीक की उपेक्षा होती है। अब नए साधन भी उपलब्ध हो रहे हैं तो गांव समुदाय को विशेष ध्यान रखना होगा कि परंपरागत रुाोतों की उपेक्षा न हो। भूजल स्तर नीचे न गिरे, इसका निरंतर ध्यान रखना होगा और इस बारे में गांव में साझी समझ बनानी होगी कि थोड़े से लोगों द्वारा जल के अत्यधिक दोहन से पूरे गांव के लिए जल संकट न उत्पन्न हो। जो परंपरागत स्रोत गांव में व आसपास हैं उनके संरक्षण के अनेक प्रयास हो सकते हैं, जैसे उनकी सफाई, सही किस्म के पेड़ों व अन्य वनस्पतियों को लगाना, अतिक्रमण हटाने का प्रयास करना आदि। जो परंपरागत स्रोत काफी बुरी स्थिति में हैं, उनके विषय में देखना होगा कि जलागम क्षेत्र कितना बचा है। यदि किसी तालाब का जलागम क्षेत्र ही नहीं बचा है तो फिर तालाबों का उद्धार नहीं हो सकता। परंपरागत सोच के अनुकूल नए छोटे स्तर के जल संरक्षण कार्यों पर भी काम हो सकता है। जैसे चैक डैम बनाना आदि।
इसके साथ यदि हरियाली बचाने, वृक्षारोपण आदि के कार्यक्रम जोड़ दिए जाएं, तो कार्य अधिक सार्थक होगा। जहां वन विनाश हुआ है पर मिट्टी की उपजाऊ परत बची है, वहां सामुदायिक प्रयास से, कुछ समय के लिए, चुनी हुई भूमि को पशुओं की चराई से विश्राम देने से वन की वापसी कुछ ही समय में हो सकती है। इस तरह के कार्य को चैक डैम, तालाब आदि से जोड़ा जा सके तो दोनों कार्य एक-दूसरे के पूरक सिद्ध होंगे व गांव में पशुपालन, कृषि, फलदार वृक्षों सभी की उन्नति होगी। ऐसा एक आदर्श प्रयास आसपास के कई गांवों को प्रेरित कर सकता है। साथ ही यदि कृषि में रसायनों के उपयोग को दूर करने या कम करने के प्रयास जोड़े जाएं तो जल स्रोतों का प्रदूषण भी दूर होगा व भूमि का उपजाऊपन भी बढ़ेगा। इन प्रयासों में गांव की जो जातियां परंपरागत तौर पर विशेष भूमिका निभाती रही हैं, जैसे ढीमर, केवट, मल्लाह, कहार, कुम्हार आदि, उन्हें विशेष प्रोत्साहन देने व उनकी परंपरागत कुशलता का भरपूर उपयोग करने की आवश्यकता है। महिलाएं ही जल संकट को सबसे अधिक झेलती हैं, अत: उनकी उत्साहवर्धक भागीदारी तो अति आवश्यक है और इस पूरे प्रयास में बहुत लाभदायक सिद्ध होगी।
जल वितरण और उपलब्धि में जाति के आधार पर किसी तरह का भेदभाव न हो इसका विशेष ध्यान तो रखना ही होगा। भूमि सुधार के जो प्रयास हो रहे हैं तथा जहां गरीबों, भूमिहीन लोगों को ज़मीन मिल रही है विशेषकर वहां जल संरक्षण व संग्रहण के प्रयासों से गरीब वर्ग को लाभ पंहुचने की अच्छी संभावना है। बिहार में बोधगया संघर्ष से जुड़े एक वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता ने मुझे कुछ समय पहले बताया था कि भूमि जोतने के उत्साह में उन्होंने परंपरागत अहार पाइन व्यवस्था का ध्यान नहीं रखा व बाद में इस परंपरागत व्यवस्था के नष्ट होने का उन्हें बहुत दुःख हुआ। अत: ऐसे प्रयासों में यदि पहले से ही जल संग्रहण व जल संरक्षण के प्रयासों का ध्यान रखा जाए तो यह बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
जल स्रोतों को और उनके जलागम क्षेत्र को साफ स्वच्छ रखने की पहले बहुत अच्छी परंपरा थी। इस अनुशासन का प्रसार गांव के परिवारों में और स्कूल की शिक्षा के माध्यम से भी होना चाहिए। इस तरह के सांस्कृतिक पर्व आयोजित हो सकते हैं जिनसे तालाबों आदि को साफ करने के श्रम दान को जोड़ा जाए।
कई शहरों में भी परंपरागत जल व्यवस्था को नया जीवन देकर काफी हद तक जल संकट का समाधान किया जा सकता है। जोधपुर, बांदा, सागर, महोबा जैसे नगरों में इसकी अच्छी संभावना है। ऐसे प्रयासों की चर्चा तो अब दिल्ली में भी चल रही है। बड़े शहरों में कई संस्थाओं को आपसी मेलजोल व तालमेल से कार्य करना होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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