यह एक पहेली रही है कि दूध में उपस्थित एक शर्करा लैक्टोस को पचाने की क्षमता सभी मनुष्यों में नहीं पाई जाती। जिन लोगों में यह क्षमता नहीं होती उन्हें दूध नहीं सुहाता। इसके अलावा, एक बात यह भी है कि आम तौर पर लैक्टोस को पचाने की क्षमता बचपन में पाई जाती है और बड़े होने के साथ समाप्त हो जाती है। तो सवाल यह है कि यह क्षमता मनुष्य में कब आई और कैसे फैली।
आज से लगभग 5500 साल पहले युरोप में मवेशियों, भेड़-बकरियों को पालने की शुरुआत हो रही थी, लगभग उसी समय पूर्वी अफ्रीका में भी पशुपालन का काम ज़ोर पकड़ रहा था।
पूर्व में हुए पुरातात्विक शोध के अनुसार पूर्वी अफ्रीका में प्रथम चरवाहे लगभग 5000 साल पूर्व आए थे। आनुवंशिक अध्ययन बताते हैं कि ये निकट-पूर्व और आजकल के सूडान के निवासियों के मिले-जुले वंशज थे। ये चरवाहे वहां के शिकारी-संग्रहकर्ता मानवों के साथ तो घुल-मिल गए; ठीक उसी तरह जैसे पशुपालन को एशिया से युरोप लाने वाले यामनाया चरवाहों ने वहां के स्थानीय किसानों और शिकारियों के साथ प्रजनन सम्बंध बनाए थे। अलबत्ता, लगभग 1000 साल बाद भी पूर्वी अफ्रीका के चरवाहे स्वयं को आनुवंशिक रूप से अलग रख सके यानी उनके साथ संतानोत्पत्ति के सम्बंध नहीं बनाए और वहां के अन्य स्थानीय लोगों से अलग ही रहे।
अपने अध्ययन में शोधकर्ताओं ने प्राचीन समय के लगभग 41 उन लोगों के डीएनए का विश्लेषण किया जो वर्तमान के केन्या और तंज़ानिया के निवासी थे। उन्होंने पाया कि आजकल के चरवाहों के विपरीत इन लोगों में लैक्टोस को पचाने की क्षमता नहीं थी। सिर्फ एक व्यक्ति जो लगभग 2000 वर्ष पूर्व तंज़ानिया की गिसीमंगेडा गुफा में रहता था, में लैक्टोस को पचाने वाला जीन मिला है जो इस ओर इशारा करता है कि इस इलाके में लैक्टोस के पचाने का गुण किस समय विकसित होना शुरू हुआ था। इस व्यक्ति के पूर्वज चरवाहे और उसके साथी यदि दूध या दूध से बने उत्पादों का सेवन करते होंगे तो वे किण्वन के ज़रिए दही वगैरह बनाकर ही करते होंगे क्योंकि उसमें लैक्टोस लैक्टिक अम्ल में बदल जाता है। मंगोलियन चरवाहे लैक्टोस को पचाने के लिए सदियों से यही करते आए हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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