देश की सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव, जल की कमी एवं बढ़ता प्रदूषण, वायु प्रदूषण का विस्तार, जैव विविधता तथा सूर्य की बढ़ती तपिश सरीखे प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दों पर किसी भी राजनैतिक दल ने ध्यान नहीं दिया। एच.एस.बी.सी. ने पिछले वर्ष ही बताया था कि भारत में जलवायु परिर्वतन के खतरे काफी अधिक हैं। विज्ञान की प्रसिद्ध पत्रिका नेचर ने भी चेतावनी दी है कि जलवायु परिवर्तन से भारत, अमेरिका व सऊदी अरब सर्वाधिक प्रभावित होंगे।
इस संदर्भ में महत्वपूर्ण व चिंताजनक बात यह है कि इससे हमारा सकल घरेलू उत्पादन (जी.डी.पी.) भी प्रभावित होगा। श्री श्री इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चरल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी ट्रस्ट बैंगलूरु के अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण देश के जी.डी.पी. में 1.5 प्रतिशत की कमी संभव है। विश्व बैंक की 2018 की एक रिपोर्ट (दक्षिण एशिया हॉटस्पाट) में चेतावनी दी गई है कि वर्ष 2050 तक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से देश के जी.डी.पी. में 5.8 प्रतिशत तक की कमी होगी। हमारे देश में राजनैतिक दल एवं जनता भले ही इस समस्या के प्रति जागरूक न हो परंतु विदेशों में तो जागरूक जनता (बच्चों सहित) अपनी-अपनी सरकारों पर यह दबाब बना रही है इस समस्या को गंभीरता से लेकर रोकथाम के हर संभव प्रयास किए जाएं। इसी वर्ष 15 मार्च को एशिया के 85 देशों के 957 स्कूली विद्यार्थियों ने प्रदर्शन किया। एक अप्रैल को ब्रिटेन की संसद में पहली बार पर्यावरण प्रेमियों ने प्रदर्शन कर ब्रेक्ज़िट समझौतों में जलवायु परिवर्तन का मुद्दा जोड़ने हेतु दबाव बनाया। 15 अप्रैल को मध्य लंदन के वाटरलू पुल एवं अन्य स्थानों पर जनता ने प्रदर्शन कर इस बात पर रोष जताया कि सरकार जलवायु परिवर्तन की रोकथाम पर कोई कार्य नहीं कर रही है।
जलवायु परिवर्तन के बाद देश की एक और प्रमुख पर्यावरणीय समस्या पानी की उपलब्धता एवं गुणवत्ता की है। वर्ल्ड रिसोर्स संस्थान की रिपोर्ट अनुसार देश का लगभग 56 प्रतिशत हिस्सा पानी की समस्या से परेशान है। हमारे ही देश के नीति आयोग के अनुसार देश के करीब 60 करोड़ लोग पानी की कमी झेल रहे हैं एवं देश का 70 प्रतिशत पानी पीने योग्य नहीं है। इसी का परिणाम है कि जल गुणवत्ता सूचकांक में 122 में हमारा देश 120वें स्थान पर है। केंद्रीय भूजल बोर्ड ने 2-3 वर्षों पूर्व ही अध्ययन कर बताया था कि देश के 387, 276 एवं 86 ज़िलों में क्रमश: नाइट्रेट, फ्लोराइड व आर्सेनिक की मात्रा निर्धारित स्तर से अधिक है। बाद के अध्ययन बताते हैं कि भूजल में 10 ऐसे प्रदूषक पाए जाते हैं जो जन स्वास्थ्य के लिए काफी खतरनाक हैं। इनमें युरेनियम, सेलेनियम, पारा, सीसा आदि प्रमुख हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल द्वारा 2018 में किए गए अध्ययन के अनुसार देश की 521 प्रमुख नदियों में से 302 की हालत काफी खराब है, जिनमें गंगा, यमुना, सतलज, नर्मदा तथा रावी प्रमुख हैं। आज़ादी के समय देश में 24 लाख तालाब थे। जिनमें से 19 लाख वर्ष 2000 तक समाप्त हो गए।
वायु प्रदूषण का घेरा भी बढ़ता ही जा रहा है। दुनिया के प्रदूषित शहरों की सूची में सबसे ज़्यादा शहर हमारे देश के ही हैं। वायु प्रदूषण अब महानगरों एवं नगरों से होकर छोटे शहरों तथा कस्बों तक फैल गया है। खराब आबोहवा वाले पांच देशों में भारत भी शामिल है। अमेरिकी एजेंसी नासा के अनुसार देश में 2005 से 2015 तक वायु प्रदूषण काफी बढ़ा। वर्ष 2015 में तीन लाख तथा 2017 में 12 लाख मौतों का ज़िम्मेदार वायु प्रदूषण को माना गया है। वायु प्रदूषण के ही प्रभाव से देशवासियों की उम्र औसतन तीन वर्ष कम भी हो रही है। वाराणसी सरीखे धार्मिक शहर में भी वायु गुणवत्ता सूचकांक 2017 में 490 (खतरनाक) तथा 2018 में 384 (खराब) आंका गया है।
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हमारी वन संपदा भी लगातार घट रही है। प्राकृतिक संतुलन हेतु देश के भूभाग के 33 प्रतिशत भाग पर वन ज़रूरी है परंतु केवल 21-22 प्रतिशत पर ही जंगल है। इसमें भी सघन वन क्षेत्र केवल 2 प्रतिशत के लगभग ही है (देश के उत्तर पूर्वी राज्यों में देश के कुल वन क्षेत्र का लगभग एक चौथाई हिस्सा है परंतु यहां भी दो वर्षों में (2015 से 2017 तक) वन क्षेत्र लगभग 650 वर्ग कि.मी. घट गया। वनों का इस क्षेत्र में कम होना इसलिए चिंताजनक है कि यह भाग विश्व के 18 प्रमुख जैव विविधता वाले स्थानों में शामिल है। सबसे अधिक जैव विविधता (80 प्रतिशत से ज़्यादा) वनों में ही पाई जाती है परंतु वनों के विनाश से देश के 20 प्रतिशत से ज़्यादा जंगली पौधों एवं जीवों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।
देश की प्रमुख पर्वत शृंखलाओं – हिमालय, अरावली, विंध्याचल, सतपुड़ा एवं पश्चिमी घाट पर वन विनाश, अतिक्रमण, वैध-अवैध खनन जैसी समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। कई स्थानों पर अरावली की पहाड़ियां समाप्त होने से रेगिस्तान की रेतीली हवाएं दिल्ली तक पहुंच रही है।
वर्षों की अनियमितता से देश में सूखा प्रभावित क्षेत्रों का भी विस्तार हो रहा है। अक्टूबर 2018 से मार्च 2019 तक आठ राज्यों में सूखे की घोषणा की गई है। सरकार की सूखा चेतावनी प्रणाली के अनुसार देश का 42 प्रतिशत भाग सूखे की चपेट में है जिससे 50 करोड़ लोग प्रभावित हो रहे हैं।
पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति राजनैतिक दलों एवं जनता की ऐसी उदासीनता भविष्य में खतरनाक साबित होगी। देश के जी.डी.पी., बेरोज़गारी, गरीबी, कुपोषण, कृषि व्यवस्था, स्वास्थ्य सेवाएं एवं बाढ़ व सूखे की समस्याएं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पर्यावरण की समस्याओं से ही जुड़ी हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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