शुक्र का एक दिन – एस. अनंतनारायणन

शुक्र ग्रह (जिसे कई बार शुक्र तारा भी कह देते हैं) अपनी धुरी पर बहुत धीमे-धीमे घूमता है। पृथ्वी जितने समय में अपनी धुरी पर 243 बार घूम जाती है, उतने समय में शुक्र मात्र एक चक्कर पूरा कर पाता है। यानी पृथ्वी के 243 दिन शुक्र के एक दिन के बराबर होते हैं। धुरी पर चक्कर लगाने को घूर्णन कहते हैं। पता यह चला है कि हाल के अवलोकनों में घूर्णन के इस समय में वृद्धि हुई है। पृथ्वी के बारे में प्रमाण हैं कि उसकी घूर्णन गति बदलती तो है मगर सहस्राब्दियों में बदलती है। लेकिन शुक्र का दिन पिछले मात्र 16 सालों में 6.5 मिनट लंबा हो गया है।

लॉस एंजेल्स स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के थॉमस नवारो, जेराल्ड श्यूबर्ट और सेबेस्शियन लेबोनिस तथा पेरिस के सोर्बोन ने नेचर जियोसाइन्स पत्रिका में शुक्र ग्रह के वातावरण की अपनी अनुकृति का विवरण प्रस्तुत किया है। इससे पता चल सकता है कि शुक्र के घने वायुमंडल में गड़बड़ी उसके घूर्णन को प्रभावित करेगी। इस अनुकृति में एक सौर दिवस की लंबाई में 2 मिनट तक की घट-बढ़ की गुंजाइश है। जो अनुकृति बनाई गई है वह एक असाधारण संरचना के प्रस्तुतीकरण के लिए है। यह एक ग्रह के आकार की रचना है जो एक वायुमंडलीय तरंग भी हो सकती है। यह शुक्र के ऊपरी वायुमंडल में देखी गई है। शोध पत्र के मुताबिक यह तरंग पिछले चालीस वर्षों में शुक्र के दिन की लंबाई में देखे गए उतार-चढ़ाव की व्याख्या कर सकती है।

लट्टू के समान घूमती वस्तुएं अपनी आंतरिक रचना में बदलाव के ज़रिए अपनी घूर्णन गति को बदल सकती हैं। इसके लिए किसी बाहरी वस्तु से संपर्क की ज़रूरत नहीं होती। दूसरी ओर, सीधी रेखा में गतिमान कोई वस्तु चलती ही रहेगी, जब तक कि उसे रोका या धीमा न किया जाए। किंतु एक बार वह धीमी हो जाए, तो तब तक वापिस गति नहीं पकड़ेगी जब तक कि उसे ठेला न जाए। घूर्णन करती वस्तु के साथ ऐसा नहीं है। यदि चक्कर मारता कोई स्केटर या कलाबाज़ अपनी भुजाएं फैला दे, तो उसकी घूर्णन गति धीमी पड़ जाएगी। और यदि वह अपनी भुजाओं को वापिस समेट ले, तो गति बढ़ जाएगी। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि घूर्णन करती वस्तु के उन हिस्सों में घूर्णन ऊर्जा ज़्यादा संग्रहित होती है जो अक्ष से ज़्यादा दूरी पर हैं। सीधी रेखा में चल रही वस्तु के साथ ऐसा नहीं होता। ऐसे मामलों में वस्तु के सारे हिस्से अपने-अपने द्रव्यमान के अनुसार ऊर्जा का संग्रह करते हैं।

तारों और ग्रहों जैसे पिंडों की शुरुआत गैस और धूल के विशाल बादलों के रूप में हुई थी। फिर ये गुरुत्वाकर्षण के कारण धीरे-धीरे संघनित हुए। जो शुरुआती हल्का-सा घूर्णन चल रहा था वह तब कई गुना बढ़ गया जब पिंड के दूरस्थ हिस्से अक्ष के समीप आते गए। जब किसी तारे या ग्रह का अंतिम आकार व बनावट स्थापित हो जाते हैं तब एक अंतिम घूर्णन गति होती है। आम तौर पर यह स्थिर बनी रहती है।

पृथ्वी के मामले में वैसे तो आकार और डील-डौल कमोबेश स्थिर रहे हैं किंतु लाखों सालों में थोड़े-बहुत परिवर्तन भी हुए हैं। घूर्णन की वजह से ही पिंड पर कुछ बल लगते हैं जो उसकी आकृति को बदलते हैं। चूंकि भूमध्य वाला हिस्सा ध्रुवों की अपेक्षा अधिक तेज़ी से घूमता है, इसलिए भूमध्य का पदार्थ थोड़ा बाहर की ओर फेंका जाता है बनिस्बत ध्रुवों के और इस वजह से मध्य में पृथ्वी थोड़ी फूल गई है और ध्रुवों पर चपटी हो गई है। इसकी वजह से घूर्णन की गति धीमी हो जाती है, जब तक कि मध्य भाग का विस्तार स्थिर नहीं हो जाता। हिम युग के दौरान समुद्रों का पानी ध्रुवों के आसपास बर्फ के रूप में संग्रहित हो जाता है। बर्फ का वज़न दबाव डालता है जिसकी वजह से भूमध्य क्षेत्र और फूल जाता है और घूर्णन धीमा पड़ जाता है। फिर जब धरती गर्म होती है और बर्फ पिघलता है, तो दबाव शिथिल पड़ जाता है, तोंद घट जाती है और घूर्णन गति बढ़ जाती है।

समुद्री धाराएं और हवाएं भी किसी ठोस पिंड के घूर्णन को प्रभावित कर सकती हैं। जब धाराएं और हवाएं ठोस पिंड की गति के विपरीत दिशा में आती हैं तो ठोस पिंड के घूर्णन की रफ्तार बदलना ही होती है ताकि घूर्णन की कुल ऊर्जा अपरिवर्तित रहे। वैसे पृथ्वी के संदर्भ में समुद्रों और वायुमंडल का वज़न शेष धरती के मुकाबले बहुत कम हैं, जिसके चलते यह असर नज़र नहीं आता। चांद और पृथ्वी के बीच लगने वाला ज्वारीय असर भी घूर्णन गति में बहुत कम परिवर्तन कर पाता है। आंकड़ों में कहें तो यह असर प्रति शताब्दी में एक दिन में 2.3 मिलीसेकंड के बराबर होता है।

शुक्र का कोई चांद तो है नहीं, इसलिए ज्वारीय असर की चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है। लेकिन वहां वायुमंडल का असर उल्लेखनीय हो जाता है। शुक्र का वायुमंडल कार्बन डाईऑक्साइड से भरा है। थोड़ी ऊंचाई पर गंधकाम्ल है। शुक्र के वायुमंडल का दबाव पृथ्वी के वायुमंडल की अपेक्षा 92 गुना अधिक है और वज़न 93 गुना अधिक है। इसमें हम 20 प्रतिशत और जोड़ सकते हैं क्योंकि शुक्र का वज़न पृथ्वी के वज़न का 80 प्रतिशत है। इसके अलावा, शुक्र का वायुमंडल अत्यंत ऊर्जावान है। यह वायुमंडल 4 पृथ्वी दिवसों में पूरे ग्रह का चक्कर काट लेता है जबकि शुक्र को एक अपनी धुरी पर एक चक्कर पूरा करने में 243 पृथ्वी-दिवस लगते हैं। लिहाज़ा, शुक्र पर चक्कर काटते वायुमंडल का असर पृथ्वी की तरह नगण्य नहीं है।

शुक्र के घूर्णन का निश्चित माप वह माना गया जो नासा के मेजीलान मिशन द्वारा किया गया था। यह था प्रति घूर्णन 242.0185ल्0.0001 पृथ्वी दिवस। युरोपीय अंतरिक्ष संस्था के मिशन वीनस एक्सप्रेस ने 2006 में पाया कि शुक्र पर कुछ भौगोलिक संरचनाओं की स्थिति की गणना और वास्तविक स्थिति में 19.9 किलोमीटर की त्रुटि है। इसका मतलब है कि 16 साल पहले किए गए आखरी मापन के बाद शुक्र का घूर्णन 6.5 मिनट धीमा हुआ है।

2015 से शुरू करके जापान के वीनस ऑर्बाइटर आकात्सुकी शुक्र के वायुमंडल की विस्तृत तस्वीरें भेजता रहा है। यह देखा गया था कि उच्च गति की हवाएं छोटे आकार की रचनाओं को धीमा करती हैं, वहीं ग्रह के पैमाने की रचनाएं मुख्य हवाओं की अपेक्षा धीमी या तेज़ चलती हैं। यह सोचा गया था कि यह वायुमंडल में विशाल तरंगों की द्योतक हैं। आकात्सुकी ने दर्शाया था कि शुक्र के ऊपरी वायुमंडल में एक धनुषाकार रचना है जो उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव के बीच 10,000 कि.मी. में फैली है। कई दिनों के अवलोकन के दौरान इस रचना की स्थिति स्थिर रही जबकि ग्रह की सतह अपनी गति से घूमती रही। वर्तमान शोध पत्र में कहा गया है कि शुक्र के चार दिवसों तक ग्रह के सूर्य की ओर वाले हिस्से पर दोपहर के समय वायुमंडल में बड़े आकार की एक रचना बनी रही थी।

थॉमस नवारो और साथियों ने शुक्र पर संभावित विभिन्न परिस्थितियों की कंप्यूटर अनुकृति तैयार की। ये परिस्थितियां ज्ञात मापदंडों और वर्तमान रचना के साथ मेल खाती थीं। अनुकृति विश्लेषण के आधार पर उन्हें लगता है कि जो कुछ देखा गया है वह शुक्र की सतह की संरचना से मेल खाता है जो वायुमंडलीय तरंगों को जन्म देती है। यहां वायुमंडल का वज़न किसी भी अंसतुलन को बहाल करने की कोशिश करता है। इन तरंगों को ‘गुरुत्व तरंगें’ कहते हैं और ये पृथ्वी के वायुमंडल में भी पैदा होती हैं। ये तरंगें तब पैदा होती है जब वायुमंडल की निचली परतों (जो ऊंचाई के साथ ठंडी होती जाती हैं) से ऊपरी परतों को ऊर्जा का स्थानांतरण होता है। इनके बीच एक मध्यवर्ती परत होती है।

उच्च गति से घूमते वायुमंडल और धीमी गति से घूमते ठोस पिंड के बीच अंतरक्रिया का परिणाम यह होता है कि घूर्णन गति प्रभावित होती है। लिहाज़ा, ग्रह की घूर्णन गति में किसी बैले नर्तकी या कलाबाज़ की तरह उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। देखा जाए तो 243 दिनों में 6.5 मिनट की कमी कोई बड़ी बात नहीं है, मगर बड़ी बात यह है कि यह कमी मात्र 16 सालों की छोटी-सी अवधि में हुई है। यह भी संभव है कि इन्हीं वजहों से शुक्र की घूर्णन गति सौर मंडल के शेष ग्रहों की अपेक्षा सबसे धीमी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हीरों का निर्माण महासागरों में हुआ था

क्सर कहा जाता है कि हीरे सदा के लिए होते हैं, और हों भी क्यों नहीं। ये अरबों वर्ष पुरानी परिवर्तित चट्टानें हैं जो पृथ्वी के अंदरूनी हिस्से में सदियों तक दबाव और झुलसाने वाले तापमान के संपर्क में रहने के बाद तैयार हुई हैं।

एक चमकदार हीरा बनने में काफी समय लगता है। वैज्ञानिकों के पास आज भी इनके बनने का कोई पक्का जवाब नहीं है। एक प्रचलित सिद्धांत के अनुसार हीरे तब बनते हैं जब समुद्र के पेंदे की प्लेट महाद्वीपीय प्लेटों के नीचे दब जाती हैं। इस प्रक्रिया के दौरान, समुद्री प्लेट और समुद्र के तल के सभी खनिज पृथ्वी के मेंटल में सैकड़ों कि.मी. गहराई में दब जाते हैं। यहां वे धीरे-धीरे उच्च तापमान और दबाव के कारण क्रिस्टलीकृत होते हैं। यह दबाव पृथ्वी की सतह की तुलना में दस हज़ार गुना अधिक होता है। अंतत: ये क्रिस्टल ज्वालामुखीय मैग्मा के साथ मिलकर ग्रह की सतह पर हीरे के रूप में बाहर आते हैं।

समुद्र के खनिजों में पाया जाने वाला नीला रत्न इस सिद्धांत का समर्थन करता है। ये हीरे सबसे दुर्लभ और सबसे महंगे हैं, इसलिए उनका अध्ययन करना मुश्किल हो जाता है। हाल ही में साइंस एडवांसेस जर्नल में प्रकाशित एक शोध में हीरे की समुद्री उत्पत्ति के लिए नए सबूत मिले हैं। अध्ययन के लिए, शोधकर्ताओं ने फाइब्रस हीरे नामक साधारण रत्नों के अंदर नमक के अवशेष का अध्ययन किया।

अधिकांश हीरों के विपरीत फाइब्रस हीरे नमक, पोटेशियम और अन्य पदार्थों के थोड़े से अवशेष के साथ बनते हैं। आभूषणों के हिसाब से तो ये कम मूल्यवान हैं, लेकिन वैज्ञानिक अध्ययन की दृष्टि से काफी कीमती हैं। इस अध्ययन के प्रमुख मैक्वेरी विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया के प्रोफेसर माइकल फॉरस्टर के अनुसार एक सिद्धांत कहता है कि हीरे के अंदर नमक समुद्री पानी के कारण आता है लेकिन अभी तक इस सिद्धांत का परीक्षण नहीं किया जा सका था।  

वास्तविक हीरे की प्राचीन उत्पत्ति का पता लगाने के लिए फॉरस्टर और उनके सहयोगियों ने इसे अपनी प्रयोगशाला में बनाने का प्रयास किया। टीम ने समुद्री तलछट के नमूनों को पेरिडोटाइट नामक एक खनिज के साथ एक पात्र में रखा। पेरिडोटाइट एक आग्नेय चट्टान है जो व्यापक रूप उस गहराई पर मौजूद है जहां हीरे बनने का अनुमान है। इसके बाद उन्होंने मिश्रण को पृथ्वी के मेंटल के अनुमानित तापमान और दबाव पर रखा।

देखा गया कि जब मिश्रण को 4-6 गिगापास्कल (समुद्र सतह के वायुमंडलीय दबाव की तुलना में  40,000 से 60,000 गुना अधिक) दबाव और 800 से 1,100 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर रखा गया, तब जो हीरे बने उनमें नमक के लगभग वैसे ही क्रिस्टल मिले जैसे कुदरती फायब्रास हीरों में होते हैं।

वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि हीरे बनने के लिए थोड़ा नमकीन तरल पदार्थ आसपास होना चाहिए, और अब इस परीक्षण से इस बात की पुष्टि भी हो गई है। फॉरस्टर और टीम द्वारा इस परीक्षण में उन खनिजों का भी निर्माण हुआ जो किम्बरलाइट का निर्माण करते हैं। यह वही किम्बरलाइट है जिसके साथ हीरे ज्वालामुखी मैग्मा के साथ बाहर आते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक पौधे और एक पक्षी की अजीब दास्तान – डॉ. किशोर पंवार

जैव विविधता पर तरह तरह के खतरों और मानवीय हस्तक्षेप के कारण प्रजातियों के ह्यास के बीच हाल में संरक्षणवादियों के लिए दो अच्छी खबरें आई है। गुड़हल की जाति के एक विलुप्त माने जा रहे पौधे को पुन: खोज लिया गया है और रेल समूह के एक पक्षी में विकास की एक दुर्लभ घटना देखी गई है।

एक समाचार यह है कि हिबिस्काडेल्फस वूडी नाम का एक पौधा शायद विलुप्त नहीं हुआ है। वनस्पतिविदों ने हवाई द्वीप पर पाए जाने वाले इस दुर्लभ फूलधारी पौधे को एक बार पुन: खोज लिया है और ऐसा संभव हुआ है एक ड्रोन की सहायता से। गौरतलब है कि ड्रोन बहुत छोटे विमान होते हैं जिन्हें सुदूर संचालन से चलाया जाता है। इनका उपयोग जासूसी कार्य के अलावा प्रकृति के अध्ययन में किया जाता है।

हिबिस्काडेल्फस वूडी हवाई द्वीप के पहाड़ों की खड़ी चट्टानों के मुहाने पर उगता है। यहां उगने के कई फायदे हैं। एक तो भूखी भेड़ें ऐसी चट्टानों पर चढ़कर इसे नहीं खा सकती, और न ही वे लोग यहां पहुंच पाते हैं जो कीमती पौधों को पैरों तले रौंद डालते हैं। हिबिस्काडेल्फस वूडी हमारे जाने पहचाने गुड़हल यानी जासौन की जाति का है। इस पौधे को अंतिम बार 2009 में देखा गया था। अप्रैल 2019 में ड्रोन की मदद से की गई नई खोज का मतलब है कि मात्र एक दशक की अवधि में यह विलुप्त प्रजातियों की सूची से बाहर आ चुका है। हिबिस्काडेल्फस वूडी को ग्रीन हाउस में उगाने के प्रयास बार-बार हुए परंतु सफलता नहीं मिली। कलम लगाना, टिप कटिंग करना और पर-परागण द्वारा भी इसे उगाना संभव नहीं हो पाया था।

सैकड़ों हजारों साल के विकास ने इस पौधे में कुछ विलक्षण गुण उत्पन्न किए हैं। जैसे इसका फूल नलिकाकार है जो उम्र बढ़ने के साथ पीले से गहरा लाल हो जाता है। इसके फूल की रचना वहीं के एक स्थानीय परागणकर्ता हनीक्रीपर नामक पक्षी की चोंच से एकदम मेल खाती है।

इसे पुन: खोजे जाने पर वनस्पति शास्त्री केन वुड का कहना है कि प्रजातियों का विलुप्तिकरण कभी भी एक सटीक विज्ञान नहीं रहा। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप उन्हें कहां और कैसे खोज रहे हैं। केन वुड ने अपना सारा समय नेशनल ट्रॉपिकल बॉटेनिकल गार्डन में विलुप्तप्राय वनस्पतियों की खोज में बिताया है। वे अक्सर हवाई द्वीपों की कवाई पहाडि़यों की दरारों पर हेलीकॉप्टर से बाहर लटकते हुए ऐसी प्रजातियों को बचाने में लगे रहते हैं जिनके मुश्किल से 5-10 प्रतिनिधि ही बचे हैं। इनमें से कुछ स्थान ऐसे हैं जहां पर वे और उनके साथी स्टीलमैन रस्सियों और हेलीकॉप्टर की सहायता से भी नहीं पहुंच पाए थे। 2016 में ड्रोन विशेषज्ञ बेन नायबर्ग ने नेशनल ट्रॉपिकल बॉटेनिकल गार्डन के साथ कवाई द्वीप की दुर्गम घाटियों में ऐसे स्थानों पर ड्रोन की सहायता से ऐसी दुर्गम घाटियों पर खोजबीन में मदद की। 2019 की फरवरी में एक धूप भरे दिन ड्रोन कैमरे से उन्होंने एक पौधे के झुंड को खोजा जो केलालू घाटी की खड़ी चट्टानों की दरारों से 700 फीट नीचे था। इससे और नीचे पहुंचने के लिए 800 फीट के नीचे उन्होंने वहां अपना ड्रोन उड़ाया और एक पौधे के समूह को अपने मॉनिटर पर देखा। उन्होंने पाया कि हिबिस्काडेल्फस वूडी वहां जीता-जागता खड़ा है।

यह पहला मौका था जब किसी प्रजाति को खोजने के लिए ड्रोन का उपयोग किया गया। इनका मानना है कि इन जगहों पर कुछ और नई प्रजातियां या ऐसी प्रजातियां भी मिल सकती हैं जिन्हें विलुप्त मान लिया गया है।                  

दूसरी अच्छी खबर एक पक्षी के बारे में है जो करीब 1 लाख छत्तीस हज़ार साल पहले विलुप्त हो गया था पर फिर नए अवतार में प्रकट हुआ है। इसका नाम है व्हाइट थ्रोटेड रेल। यह मुर्गी के आकार का पक्षी है। यह जैव विकास की एक विलक्षण और दुर्लभ घटना है। ज़ुऑलॉजिकल जर्नल ऑफ लिनियन सोसायटी में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार किस्सा यह है कि व्हाइट थ्रोटेड रेल मेडागास्कर का मूल निवासी है। मगर ये प्रवास करके अलग-अलग दीपों में समुदाय बनाकर रहते थे और संख्या बढ़ने पर ये आसपास के द्वीपों पर माइग्रेट हो जाते थे। इनमें से कई उत्तर और दक्षिण के दीपों पर चले गए जो समुद्र का तल बढ़ने से पानी में डूब कर समाप्त हो गए। जो कुछ अफ्रीका में गए थे वहां उन्हें शिकारियों ने खा लिया। वे पक्षी जो पूर्व की ओर गए वे मारीशस, रीयूनियन द्वीप और अलडबरा द्वीप पर पहुंचे। अलडबरा एक छल्ले के आकार का कोरल द्वीप है जो आज से लगभग 4 लाख वर्ष पूर्व बना था। यहां भोजन प्रचुरता से उपलब्ध था और मारीशस के द्वीपों की तरह यहां पर भी कोई शिकारी नहीं था। अत: ये रेल इस प्रकार विकसित हुए कि अपनी उड़ने की क्षमता खो बैठे।

फिर करीब 1 लाख छत्तीस हज़ार वर्ष पूर्व एक बड़ी बाढ़ के दौरान अलडबरा द्वीप समुद्र में डूब गया था। परिणामस्वरूप यहां की सारी वनस्पतियां तथा कई जंतु मारे गए। इनमें उड़ान-विहीन रेल भी शामिल थे। शोधकर्ताओं ने 1 लाख साल पुराने जीवाश्मों का अध्ययन किया है। यह वह समय था जब हिम युग के कारण समुद्र के तल में गिरावट आई थी। जीवाश्म से पता चला कि यह द्वीप पुन: न उड़ पाने वाले रेल पक्षी समुदाय से बस गया था। द्वीप के डूबने के पूर्व और द्वीप के वापिस उभरने के बाद के रेल पक्षियों के जीवाश्म की हड्डियों की तुलना से पता चलता है कि ये दोनों पक्षी मैडागास्कर से उड़कर यहां पहुंचे थे और दोनों बार इन्होंने उड़ने की क्षमता गंवाई।

इसका अर्थ यह है कि मेडागास्कर की एक ही प्रजाति ने न उड़ने वाली रेल की दो उप-प्रजातियों को अलडबरा में कुछ हजार वर्षों के अंतराल पर जन्म दिया। प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय के जूलियन ह्रूम कहते हैं कि ये विशिष्ट जीवाश्म इस बात के अकाट-प्रमाण हैं कि इन द्वीपों पर रेल के दोनों समुदाय मेडागास्कर से ही आए थे, और यहीं आकर अलग-अलग समय पर दो न उड़ने वाले रेल बन गए। यह दोनों घटनाएं दर्शाती है कि जैव विकास के दौरान एक ही गुण का बार-बार प्रकट होना कोई अनहोनी नहीं है। जैव विकास की भाषा में इसे इटरेटिव विकास कहते हैं। इटरेटिव विकास उसे कहते हैं जब वही या मिलती जुलती रचनाएं एक साझा पूर्वज से अलग-अलग समय पर विकसित हों। इसका अर्थ यह है कि एक ही पूर्वज से शुरू करके एक-से जीव वास्तव में दो बार अलग-अलग समय अथवा स्थान पर इस धरती पर विकसित हुए हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि चंद हज़ार सालों के अंतराल पर एक ही पूर्वज प्रजाति से दो उप-प्रजातियां निकली हैं और वे सचमुच अलग-अलग उप प्रजातियां हैं। यह किसी उप प्रजाति का पुनर्जन्म नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

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जीनोम का धंधा: डायरेक्ट टू कंज़्यूमर (डीटीसी) – शशांक एस. तिवारी

नेचर  पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया लेख में उन तरीकों पर प्रकाश डाला गया है जिनसे विभिन्न भारतीय बायोटेक कंपनियां सरकार और मुक्त-प्रवाह उद्यम पूंजी (वेंचर केपिटल) की मदद से नवाचार का कारोबार कर रही हैं। इस लेख की शुरुआत एक युवा भारतीय उद्यमी द्वारा दो बायोटेक स्टार्टअप कंपनियों की स्थापना के वर्णन से होती है। इसमें से उसकी एक कंपनी डायरेक्ट-टू-कंज्यूमर (डीटीसी) आनुवंशिक परीक्षण कंपनी, पर ध्यान केंद्रित किया गया है। इस लेख का उद्देश्य भारत में डीटीसी आनुवंशिक परीक्षणों से जुड़े उभरते नैतिक, सामाजिक और नियामक मुद्दों का विश्लेषण करना है।

डीटीसी जेनेटिक टेस्ट का उद्भव

आनुवंशिक परीक्षण के व्यवसाय का श्रेय मानव जीनोम प्रोजेक्ट को दिया जाता है। मानव जीनोम प्रोजेक्ट की शुरुआत आधिकारिक तौर पर 1990 में हुई थी जिसका उद्देश्य मानव जीनोम के पूरे डीएनए अनुक्रम का मानचित्र तैयार करना था। 2003 तक पूरे मानव जीनोम का अनुक्रमण कर लिया गया था। और इसके साथ ही डीटीसी जेनेटिक्स के व्यापार का रास्ता खुल गया। जब मानव जीनोम परियोजना शुरू की गई थी, तब यह वादा किया गया था कि जीनोम अनुक्रम के ज्ञान से बीमारी और मानव जीव विज्ञान को समझने में मदद मिलेगी।

इस ज्ञान का फायदा उठाने के लिए, वर्ष 2007 में तीन कंपनियों ने संयुक्त राज्य अमेरिका में अपनी उपभोक्ता आनुवंशिक सेवाएं शुरू कीं। ये तीन कंपनियां थीं 23एंडमी (23andMe), डीकोडमी (deCODEMe) और नेवीजेनिक्स (Navigenics)। बाद के वर्षों में, कई अन्य कंपनियों ने संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत सहित दुनिया के कई हिस्सों में जीनोमिक्स सेवाएं प्रदान करना शुरू कर दिया।

पिछले कुछ वर्षों में भारत में कई सारी डीटीसी आनुवंशिक परीक्षण कंपनियां उभरी हैं। कुछ उल्लेखनीय नाम हैं: मैपमायजीनोम (Mapmygenome), दी जीनबॉक्स (The GeneBox), डीएनए लैब्स इंडिया (DNA Labs India), इंडियन बायोसाइंसेस (Indian Biosciences), पॉजि़टिव बायोसाइंसेस (Positive Biosciences), एक्सकोड (Xcode) और इज़ीडीएनए (EasyDNA)। ये कंपनियां जनता को विभिन्न जीनोमिक्स सेवाएं प्रदान करती हैं। इनमें व्यक्तिगत जीनोमिक्स (व्यक्ति पर दवा प्रतिक्रिया का प्रोफाइल, पोषण सम्बंधी आवश्यकताएं, किसी रोग का अंदेशा), नैदानिक (गर्भधारण से पूर्व स्क्रीनिंग), न्यूट्रिजीनोमिक्स (डीएनए आधारित आहार योजना), फिटनेस, खेलकूद, पितृत्व, वंश और फार्माकोजेनेटिक्स (दवाओं की प्रतिक्रिया में मरीज की आनुवंशिकी की भूमिका) जैसे परीक्षण शामिल हैं। आम लोग जेनेटिक टेस्ट किट ऑनलाइन कंपनियों की वेबसाइट्स या अमेज़न जैसी ई-कॉमर्स कंपनियों के माध्यम से खरीद सकते हैं। टेस्ट के प्रकार के आधार पर एक टेस्ट की लागत 3,000 से लेकर 1,20,000 रुपए तक है।

डीएनए का नमूना (लार या गाल का फाहा) जमा करने के बाद कुछ ही दिनों में उपभोक्ता को परिणाम प्राप्त हो जाते हैं। पश्चिम देशों की तरह, भारत में भी डीटीसी आनुवंशिक परीक्षणों के प्रसार ने कई वैज्ञानिक, नैतिक, सामाजिक और नियामक मुद्दों को जन्म दिया है। जैसे निदान की वैधता और उपयोगिता, आनुवंशिक नियतिवाद और जीनोमिक्स डैटा का संभावित दुरुपयोग। इसके अलावा, कई कंपनियों की विपणन रणनीति ने भारत में वैज्ञानिक कामकाज की प्रकृति के बारे में कई सवाल उठाए हैं।

विपणन रणनीति की नैतिकता

जहां चिकित्सा आचार संहिता तथा विज्ञापन कानून का क्रियांवयन व अनुपालन कमज़ोर तरीके से किया जाता है, वहां डीटीसी आनुवंशिक परीक्षणों के लिए किसी दिशानिर्देश या नियम-कायदों के अभाव में, कंपनियां अपने परीक्षण के लाभों के बारे में अतिरंजित दावे करने के लिए स्वतंत्र हैं। वे आम लोगों की सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताओं का फायदा उठाने के लिए अपने उत्पादों को गलत तरीके से प्रस्तुत कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, एक कंपनी ने व्यवसाय रणनीति के रूप में, जीनोमिक्स को ज्योतिष के साथ जोड़ दिया है ताकि अपने परीक्षणों को खरीदने के लिए उपभोक्ताओं को लुभा सके। इस उद्देश्य को मन में रखकर कंपनी ने अपने एक उत्पाद का नाम जीनोमपत्री रखा है, जो जन्मपत्री से मेल खाता है। कंपनी की सीईओ ने यूट्यूब पर एक प्रचार संदेश में ज्योतिष के महत्व पर प्रकाश डालते हुए ऑनलाइन आनुवंशिक परीक्षणों के लाभ पर ज़ोर दिया है। उन्होंने कहा है कि जिस तरह जन्मपत्री लोगों को जन्म के समय राशि, ग्रहदशा और गोत्र आदि समझने में मदद करती है, उसी तरह आनुवंशिक परीक्षण, जेनेटिक बनावट और जेनेटिक लक्षणों को समझने में मदद करेंगे, जिसमें यह भी पता चलेगा कि कोई उत्परिवर्तन तो उपस्थित नहीं है। इसके अलावा, उन्होंने विस्तार से बताया कि व्यक्ति जेनेटिक संरचना की जानकारी होने पर जीवनशैली में बदलाव के ज़रिए सकारात्मक (आनुवंशिक) लक्षणों को समृद्ध कर सकता है। उनके अनुसार, रोकथाम के ये उपाय ज्योतिष के समान ही हैं जिसमें लोग खुद को ग्रहों के बुरे प्रभाव से बचाने के लिए पूजा, यज्ञ आदि करते हैं।

उपरोक्त प्रचार संदेश को उपमा कहकर उचित ठहराया जा सकता है। जटिल वैज्ञानिक अवधारणा को आसान शब्दों में संप्रेषित करने के लिए उपमाओं का उपयोग करना एक आम बात है। हालांकि, जीनोमिक्स के संदर्भ में ज्योतिष की इस विशेष उपमा का भारत में विज्ञान के कामकाज पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है। यह ध्यान देने योग्य है कि कमोबेश समूचा भारतीय वैज्ञानिक समुदाय ज्योतिष को एक छदम विज्ञान मानता है, और ज्योतिष को वैज्ञानिक मंच पर लाने के किसी भी प्रयास का कड़ा विरोध किया जाता रहा है। यह उपमा वैज्ञानिक स्वभाव की अवधारणा के विपरीत है।

इसके अतिरिक्त, कंपनियों की वेबसाइट्स पर प्रख्यात हस्तियों के प्रशंसा पत्रों का प्रकाशन चिकित्सा नैतिकता से सम्बंधित मुद्दों को भी जन्म देता है। कभी-कभी, इनमें प्रमुख राजनेताओं, उद्योगपतियों और देश की अन्य जानी-मानी हस्तियों के बयान होते हैं। क्योंकि देश के अत्यधिक प्रतिष्ठित और शिक्षित माने जाने वाले लोग इन उत्पादों की सिफारिश करते हैं, इस तरह के प्रशंसा पत्र आम जनता को गुमराह करने की क्षमता रखते हैं। उपरोक्त महत्वपूर्ण मुद्दों के अलावा, आनुवंशिक परीक्षणों के साथ प्रमुख वैज्ञानिक चिंताएं भी हैं जो विशेष रूप से भारत में प्रासंगिक हैं।

विज्ञान सम्बंधी मुद्दे

डीटीसी आनुवांशिक परीक्षणों में से कुछ परीक्षण डीएनए-आधारित आहार योजना, फिटनेस, खेलकूद, पितृत्व और वंशावली जैसे विकल्प उपलब्ध कराते हैं जो गैर-नैदानिक हैं (यानी ये किसी रोग या तकलीफ का पता नहीं लगाते)। वैसे भी, तथ्य यह है कि ये व्यक्तिगत ऑनलाइन परीक्षण किसी बीमारी की उपस्थिति या अनुपस्थिति का सटीक निदान नहीं कर सकते; ये केवल उसकी संभाविता का अनुमान लगाते हैं। ये परीक्षण किसी डॉक्टर से चर्चा किए बिना सीधे आम जनता के लिए पेश किए जाते हैं, इसलिए इस बात की काफी संभावना है कि उपभोक्ता इन परिणामों की गलत व्याख्या कर बैठेंगे। भारत में योग्य आनुवंशिक परामर्शदाताओं और आनुवंशिकीविदों की संख्या नगण्य है जिसकी वजह से स्थिति और भी पेचीदा हो जाती है।

भारत के लोगों के बारे में प्रामाणिक आनुवंशिक डैटा का अभाव है। यह डीटीसी आनुवंशिक सेवाओं के साथ एक और स्पष्ट समस्या है। इस मुद्दे को मीडिया कवरेज भी मिला है। शायद यही कारण है कि कई भारतीय कंपनियां अपने परीक्षणों में तुलना हेतु कॉकेशियन आबादी से प्राप्त डेटा का उपयोग संदर्भ-डैटा के रूप में कर रही हैं।

समापन टिप्पणी

जीनोमिक्स में नवाचारों को नैतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक और नियामक मुद्दों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। हालांकि भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद पूरी तरह से इस स्थिति से अवगत है लेकिन दुर्भाग्य से, इस समय भारत में जीनोमिक चिकित्सा के लिए कोई दिशानिर्देश या नियम नहीं हैं। भारतीय बायोमेडिकल एजेंसियों, स्वास्थ्य पेशवरों और वैज्ञानिकों को उपभोक्ताओं को संभावित स्वास्थ्य जोखिमों और डीटीसी आनुवंशिक परीक्षणों से जुड़े आर्थिक शोषण से बचाने के लिए एक नियामक ढांचा तैयार करने के लिए आगे आना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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लैक्टोस पचाने की क्षमता की शुरुआत कहां से हुई

ह एक पहेली रही है कि दूध में उपस्थित एक शर्करा लैक्टोस को पचाने की क्षमता सभी मनुष्यों में नहीं पाई जाती। जिन लोगों में यह क्षमता नहीं होती उन्हें दूध नहीं सुहाता। इसके अलावा, एक बात यह भी है कि आम तौर पर लैक्टोस को पचाने की क्षमता बचपन में पाई जाती है और बड़े होने के साथ समाप्त हो जाती है। तो सवाल यह है कि यह क्षमता मनुष्य में कब आई और कैसे फैली।

आज से लगभग 5500 साल पहले युरोप में मवेशियों, भेड़-बकरियों को पालने की शुरुआत हो रही थी, लगभग उसी समय पूर्वी अफ्रीका में भी पशुपालन का काम ज़ोर पकड़ रहा था।

पूर्व में हुए पुरातात्विक शोध के अनुसार पूर्वी अफ्रीका में प्रथम चरवाहे लगभग 5000 साल पूर्व आए थे। आनुवंशिक अध्ययन बताते हैं कि ये निकट-पूर्व और आजकल के सूडान के निवासियों के मिले-जुले वंशज थे। ये चरवाहे वहां के शिकारी-संग्रहकर्ता मानवों के साथ तो घुल-मिल गए; ठीक उसी तरह जैसे पशुपालन को एशिया से युरोप लाने वाले यामनाया चरवाहों ने वहां के स्थानीय किसानों और शिकारियों के साथ प्रजनन सम्बंध बनाए थे। अलबत्ता, लगभग 1000 साल बाद भी पूर्वी अफ्रीका के चरवाहे स्वयं को आनुवंशिक रूप से अलग रख सके यानी उनके साथ संतानोत्पत्ति के सम्बंध नहीं बनाए और वहां के अन्य स्थानीय लोगों से अलग ही रहे।

अपने अध्ययन में शोधकर्ताओं ने प्राचीन समय के लगभग 41 उन लोगों के डीएनए का विश्लेषण किया जो वर्तमान के केन्या और तंज़ानिया के निवासी थे। उन्होंने पाया कि आजकल के चरवाहों के विपरीत इन लोगों में लैक्टोस को पचाने की क्षमता नहीं थी। सिर्फ एक व्यक्ति जो लगभग 2000 वर्ष पूर्व तंज़ानिया की गिसीमंगेडा गुफा में रहता था, में लैक्टोस को पचाने वाला जीन मिला है जो इस ओर इशारा करता है कि इस इलाके में लैक्टोस के पचाने का गुण किस समय विकसित होना शुरू हुआ था। इस व्यक्ति के पूर्वज चरवाहे और उसके साथी यदि दूध या दूध से बने उत्पादों का सेवन करते होंगे तो वे किण्वन के ज़रिए दही वगैरह बनाकर ही करते होंगे क्योंकि उसमें लैक्टोस लैक्टिक अम्ल में बदल जाता है। मंगोलियन चरवाहे लैक्टोस को पचाने के लिए सदियों से यही करते आए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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अल्जीरिया और अर्जेंटाइना मलेरिया मुक्त घोषित

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 22 मई के दिन अल्जीरिया और अर्जेंटाइना को मलेरिया मुक्त घोषित कर दिया। यह निर्णय तब किया गया जब इन दोनों देशों में पिछले तीन सालों से अधिक समय से मलेरिया का कोई मामला नहीं देखा गया। इसके साथ ही मलेरिया मुक्त देशों की संख्या 38 हो गई है।

गौरतलब है कि दुनिया के 80 देशों में हर साल करीब 20 करोड़ मलेरिया के मामले सामने आते हैं। 2017 में तकरीबन 4 लाख 35 हज़ार लोग मलेरिया की वजह से मारे गए थे।

अफ्रीकी देश अल्जीरिया में मलेरिया परजीवी पहली बार 1880 में देखा गया था। यहां मलेरिया का आखिरी मामला 2013 में सामने आया था। दक्षिण अमरीकी देश अर्जेंटाइना में मलेरिया आखिरी बार 2010 में पाया गया था। दोनों ही देशों में कई दशकों में मलेरिया प्रसार की दर काफी कम रही है। यहां मलेरिया से संघर्ष में प्रमुख भूमिका सबके लिए स्वास्थ्य की उपलब्धता और मलेरिया की गहन निगरानी की रही है। इसके अलावा अर्जेंटाइना ने विशेष प्रयास यह भी किया कि पड़ोसी देशों को राज़ी किया कि वे अपने यहां कीटनाशक छिड़काव करें और बुखारग्रस्त लोगों की मलेरिया के लिए जांच करें ताकि सीमापार फैलाव को रोका जा सके।

पहले तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने विश्व स्तर पर मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम चलाया था जो मुख्य रूप से डीडीटी के छिड़काव और मलेरिया-रोधी दवाइयों पर टिका था। इस कार्यक्रम के अंतर्गत 27 देश मलेरिया मुक्त हुए थे। लेकिन साल 1969 में संगठन ने मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम को त्याग दिया था क्योंकि वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया कि विश्व स्तर पर मलेरिया का उन्मूलन अल्प अवधि में संभव नहीं है।

अलबत्ता, 2000 के दशक में एक बार फिर कोशिशें शुरू हुर्इं और इस बार लक्ष्य यह रखा गया कि 2020 तक 21 देशों को मलेरिया मुक्त कर दिया जाएगा। इनमें से 2 (पेरागुए और अल्जीरिया) अब पूरी तरह मलेरिया मुक्त हैं। (स्रोत फीचर्स)

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आंतों के बैक्टीरिया और ऑटिज़्म का सम्बंध

वैसे तो माना जाता है कि ऑटिज़्म के लिए जीन्स ज़िम्मेदार है मगर एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि शायद आंतों में पलने वाले बैक्टीरिया का भी इस स्थिति में योगदान हो सकता है। कहना न होगा कि यह अध्ययन चूहों पर किया गया है और इसके परिणामों को तत्काल मनुष्यों पर लागू नहीं किया जा सकता।

दरअसल, ऑटिज़्म के लक्षण व्यवहार में नज़र आते हैं। जैसे ऑटिज़्म पीड़ित व्यक्ति को सामाजिक सम्बंध बनाने में दिक्कत होती है, उसमें एक ही क्रिया को बार-बार करने की प्रवृत्ति होती है और वह सामान्यत: बोलने-संवाद करने से कतराता है।

आंतों में पल रहे बैक्टीरिया का असर व्यवहार पर देखने के लिए कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के सार्किस मेज़मानियन और उनके साथियों ने चूहों पर कुछ प्रयोग किए। पहले उन्होंने कुछ चूहों को पूरी तरह कीटाणु मुक्त कर दिया। इसके बाद उन्होंने ऑटिज़्म पीड़ित और ऑटिज़्म मुक्त बच्चों के मल के नमूने लिए। कुछ चूहों के पेट में ऑटिज़्म पीड़ित बच्चों का और कुछ चूहों में ऑटिज़्म मुक्त बच्चों का मल डाला गया। इसके बाद उन्होंने एक ही किस्म के बैक्टीरिया से युक्त चूहों के बीच प्रजनन करवाया। अर्थात इनकी संतानें शुरू से ही एक ही किस्म के बैक्टीरिया के संपर्क में रहीं।

इन संतानों पर कई सारे व्यवहारगत परीक्षण किए गए ताकि ऑटिज़्मनुमा लक्षण पहचाने जा सकें। जैसे यह देखा गया कि अलग-अलग चूहे कितनी बार आवाज़ें निकालते हैं और कितनी बार साथ के चूहों के नज़दीक आते हैं या मेलजोल करते हैं। शोधकर्ताओं ने बार-बार दोहराए जाने वाले व्यवहार को भी परखा। इसके लिए उन्होंने दड़बे में कई कंचे रख दिए थे। देखा यह गया कि कोई चूहा कितने कंचों को मिट्टी में दबाता है।

सेल नामक शोध पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि ऑटिज़्म-मुक्त बच्चों के मल की अपेक्षा ऑटिज़्म पीड़ित बच्चों के मल युक्त चूहे कम सामाजिक रहे, और उनमें बार-बार दोहराए जाने वाला व्यवहार भी ज़्यादा देखने को मिला।

इन चूहों का जैव-रासायनिक विश्लेषण भी किया गया। देखा गया कि ऑटिज़्म-उत्पन्न मल वाले चूहों में कई बैक्टीरिया प्रजातियों की संख्या कम थी। यह तो पहले से पता है कि हमारी आंतों के बैक्टीरिया अमीनो अम्लों में फेरबदल करते हैं और कई बार ये अमीनो अम्ल दिमाग तक भी पहुंच सकते हैं। पता यह चला कि दोनों समूहों के चूहों के दिमाग में डीएनए की अभिव्यक्ति में अंतर थे। खास तौर से ऑटिज़्म पीड़ित चूहों में दो अमीनो अम्लों (टॉरीन और 5-अमीनोवेलेरिक अम्ल) की मात्रा कम पाई गई। ये अमीनो अम्ल तंत्रिकाओं से जुड़कर उनकी क्रिया को रोकते हैं। शोधकर्ताओं का ख्याल है कि ये ऑटिज़्म के विकास में महत्वपूर्ण हो सकते हैं क्योंकि जब उन्होंने अलग से कुछ ऑटिस्टिक चूहों को इन रसायनों की खुराक दी तो उनमें सामाजिक मेलजोल में वृद्धि हुई और बार-बार की जाने वाली क्रियाओं में कमी आई।

बहरहाल, अभी यह शोध काफी प्रारंभिक अवस्था का है और इसके आधार पर यह कहना उचित नहीं होगा कि आंतों के बैक्टीरिया ऑटिज़्म के कारक हैं। इसके अलावा, चूहों में मिले परिणामों को मनुष्यों पर लागू करने में भी सावधानी की ज़रूरत होगी। इसलिए शायद फिलहाल इसके आधार पर सीधे-सीधे किसी उपचार के उभरने की संभावना तो नहीं है किंतु इसने ऑटिज़्म के उपचार की नई संभावनाओं को जन्म अवश्य दिया है। (स्रोत फीचर्स)

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गिद्धों की कमी से खतरे की घंटी – मनीष वैद्य

ध्यप्रदेश के आबादी क्षेत्रों में गिद्धों की तादाद में बड़ी कमी दर्ज की गई है। पूरे प्रदेश में एक ही दिन 12 जनवरी 2019 को एक ही समय पर की गई गिद्धों की गणना में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं।

इन आंकड़ों पर गौर करें तो ऊपर से देखने पर मध्यप्रदेश में गिद्धों की संख्या बढ़ी हुई नज़र आती है लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और बयान करती है। पूरे प्रदेश में दो साल पहले हुई गणना के मुकाबले ताज़ा गणना में आंकड़े यकीनन बढ़े हैं। लेकिन इनमें सबसे ज़्यादा गिद्ध सुरक्षित अभयारण्यों में पाए गए हैं। दूसरी तरफ गांवों, कस्बों और शहरों के आबादी क्षेत्र में गिद्ध तेज़ी से कम हुए हैं। गिद्धों के कम होने से पारिस्थितिकी तंत्र पर संकट के साथ किसानों के मृत मवेशियों की देह के निपटान और संक्रमण की भी बड़ी चुनौती सामने आ रही है।

इस बार 1275 स्थानों पर किए गए सर्वेक्षण में प्रदेश में 7906 गिद्धों की गिनती हुई है। वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक इसमें 12 प्रजातियों के गिद्ध मिले हैं। इससे पहले जनवरी 2016 में 6999 तथा मई 2016 में 7057 गिद्ध पाए गए थे। ऐसे देखें तो गिद्धों की तादाद 12 फीसदी की दर से बढ़ी है। पर इसमें बड़ी विसंगति यह है कि इसमें से 45 फीसदी गिद्ध प्रदेश के संरक्षित वन क्षेत्रों में मिले हैं जबकि पूरे प्रदेश के आबादी क्षेत्र में गिद्धों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से कम हुई है।

जैसे, मंदसौर ज़िले में गांधी सागर अभयारण्य में गिद्धों को साधन सम्पन्न प्राकृतिक परिवेश हासिल होने से इनकी संख्या बढ़ी है। बड़ी बात यह भी है कि एशिया में तेज़ी से विलुप्त हो रहे ग्रिफोन वल्चर की संख्या यहां बढ़ी है। ताज़ा गणना में यहां 650 गिद्ध मिले हैं। दूसरी ओर, श्योपुर के कूनो अभयारण्य में 242 गिद्धों की गणना हुई है जो दो साल पहले के आंकड़े 361 से 119 कम है। पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में भी 2016 के आंकड़े 811 के मुकाबले मात्र 567 गिद्ध मिले हैं। सर्वाधिक गिद्ध रायसेन ज़िले में 650 रिकॉर्ड किए गए हैं।

यदि गिद्धों की कुल संख्या में से मंदसौर अभयारण्य और रायसेन के आंकड़ों को हटा दें तो शेष पूरे प्रदेश में गिद्ध कम ही हुए हैं। नगरीय या ग्रामीण क्षेत्र में, जहां गिद्धों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, वहां इन कुछ सालों में गिद्ध कम ही नहीं हुए, खत्म हो चुके हैं। दरअसल वन विभाग ने जंगल और आबादी क्षेत्र के गिद्धों के आंकड़ों को मिला दिया है। इस वजह से यह विसंगति हो रही है।

दरअसल बीते दो सालों में यहां गिद्धों की तादाद तेज़ी से कम हुई है। इंदौर में तीन साल पहले तक 300 गिद्ध हुआ करते थे, अब वहां मात्र 94 गिद्ध ही बचे हैं। उज्जैन और रतलाम ज़िलों में तो एक भी गिद्ध नहीं मिला। इसी तरह देवास ज़िले में भी मात्र दो गिद्ध पाए गए हैं। धार, झाबुआ और अलीराजपुर में भी कमोबेश यही स्थिति है। इंदौर शहर को देश का सबसे स्वच्छ शहर घोषित किया गया है। लेकिन शहर की यही स्वच्छता अब गिद्धों पर भारी पड़ती नज़र आ रही है। बीते मात्र दो सालों में इंदौर शहर और ज़िले से 136 गिद्ध गायब हुए हैं। कभी यहां के ट्रेचिंग ग्राउंड पर गिद्धों का झुण्ड जानवरों के शवों की चीरफाड़ में लगा रहता था। अब वहां गंदगी के ढेर कहीं नहीं हैं। मृत जानवरों को ज़मीन में गाड़ना पड़ रहा है। अब गणना में ट्रेंचिंग ग्राउंड पर सिर्फ 54 गिद्ध मिले हैं। दो साल पहले तक यहां ढाई सौ के आसपास गिद्ध हुआ करते थे।

इसी तरह चोरल, पेडमी और महू के जंगलों में भी महज 40 गिद्ध ही मिले हैं जहां कभी डेढ़ सौ गिद्ध हुआ करते थे। गिद्ध खत्म होने के पीछे पानी की कमी भी एक बड़ा कारण है। ट्रेंचिंग ग्राउंड के पास का तालाब सूख चुका है और एक तालाब का कैचमेंट एरिया कम होने से इसमें पानी की कमी रहती है और अक्सर सर्दियों में ही यह सूख जाता है। शहर से कुछ दूरी पर गिद्धिया खोह जल प्रपात की पहचान रहे गिद्ध अब यहां दिखाई तक नहीं देते। गणना के समय एक गिद्ध ही यहां मिला।

इन दिनों गांवों में भी कहीं गिद्ध नज़र नहीं आते। कुछ सालों पहले तक गांवों में भी खूब गिद्ध हुआ करते थे और किसी पशु की देह मिलते ही उसका निपटान कर दिया करते थे। अब शव के सड़ने से उसकी बदबू फैलती रहती है। ज़्यादा दिनों तक मृत देह के सड़ते रहने से जीवाणु-विषाणु फैलने तथा संक्रमण का खतरा भी बढ़ जाता है।

देवास के कन्नौद में फॉरेस्ट एसडीओ एम. एल. यादव बताते हैं, “करीब 75 हज़ार वर्ग किमी में फैले ज़िले में 2033 वर्ग कि.मी. जंगल है। कुछ सालों पहले तक जंगल में गिद्धों की हलचल से ही पता चल जाता था कि किसी जंगली या पालतू जानवर की मौत हो चुकी है। जंगलों में चट्टानों तथा ऊंचे-ऊंचे पेड़ों पर इनका बसेरा हुआ करता था। इन्हें स्वीपर ऑफ फॉरेस्ट कहा जाता रहा है। मृत पशुओं के मांस का भक्षण ही उनका भोजन हुआ करता था। ये कुछ ही समय में प्राणी के शरीर को चट कर देते थे। लेकिन अब ज़िले के हरे-भरे जंगलों में भी इनका कोई वजूद नहीं रह गया है।”

सदियों से गिद्ध हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के महत्वपूर्ण सफाईकर्मी रहे हैं। ये मृत जानवरों के शव को खाकर पर्यावरण को दूषित होने से बचाते रहे हैं। लेकिन अब पूरे देश में गिद्धों की विभिन्न प्रजातियों पर अस्तित्व का ही सवाल खड़ा होने लगा है। इनमें सामान्य जिप्स गिद्ध की आबादी में बीते दस सालों में 99.9 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। 1990 में तीन प्रजातियों के गिद्धों की आबादी हमारे देश में चार करोड़ के आसपास थी जो अब घटकर दस हज़ार से भी कम रह गई है। पर्यावरण के लिए यह खतरे की घंटी है।

दरअसल पालतू पशुओं को उपचार के दौरान दी जाने वाली डिक्लोफेनेक नामक दवा गिद्धों के लिए घातक साबित हो रही है। इस दवा का उपयोग मनुष्यों में दर्द निवारक के रूप में किया जाता था। अस्सी के दशक में इसका उपयोग गाय, बैल, भैंस और कुत्ते-बिल्लियों के लिए भी किया जाने लगा। इस दवा का इस्तेमाल जैसे-जैसे बढ़ा, वैसे-वैसे गिद्धों की आबादी लगातार कम होती चली गई। पहले तो इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया लेकिन जब हालात बद से बदतर होने लगे तो खोज-खबर शुरू हुई। तब यह दवा शक के घेरे में आई। वैज्ञानिकों के मुताबिक डिक्लोफेनेक गिद्धों के गुर्र्दों पर बुरा असर डालता है। इस दवा से उपचार के बाद मृत पशु का मांस जब गिद्ध खाते हैं तो इसका अंश गिद्धों के शरीर में जाकर उनके गुर्दों को खराब कर देता है जिसकी वजह से उनकी मौत हो जाती है। खोज में यह बात भी साफ हुई है कि यदि मृत जानवर को कुछ सालों पहले भी यह दवा दी गई हो तो इसका अंश उसके शरीर में रहता है और उसका मांस खाने से यह गिद्धों के शरीर में आ जाता है।

कई सालों तक इस दवा के उपयोग को पूरी तरह प्रतिबंधित करने के लिए पर्यावरण विशेषज्ञ और संगठन मांग करते रहे तब कहीं जाकर इस दवा के पशुओं में उपयोग पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंध लगाया गया। लेकिन आज भी तमाम प्रतिबंधों को धता बताते हुए यह दुनिया के कई देशों में बनाई और बेची जा रही है। इससे भी खतरनाक बात यह है कि कई कंपनियां इन्हीं अवयवों के साथ नाम बदलकर दवा बना रही हैं। इसी वजह से गिद्धों को बचाने की तमाम सरकारी कोशिशें भी सफल नहीं हो पा रही हैं। अब जब गिद्धों की आबादी हमारे देश के कुछ हिस्सों में उंगलियों पर गिने जाने लायक ही बची है तब 2007 में भारत में इसके निर्माण और बिक्री पर रोक लगाई गई। लेकिन अब भी इसका इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जा रहा है। कुछ दवा कंपनियों ने डिक्लोफेनेक के विकल्प के रूप में पशुओं के लिए मैलोक्सीकैम दवा बनाई है। यह गिद्धों के लिए नुकसानदेह नहीं है।

विशेषज्ञों के मुताबिक संकट के बादल सिर्फ गिद्धों पर ही नहीं, अन्य शिकारी पक्षियों बाज़, चील और कुइयां पर भी हैं। कुछ सालों पहले ये सबसे बड़े पक्षी शहरों से लुप्त हुए। फिर भी गांवों में दिखाई दे जाया करते थे पर अब तो गांवों में भी नहीं मिलते। कभी मध्यप्रदेश में मुख्य रूप से चार तरह के गिद्ध मिलते थे।

गिद्धों को विलुप्ति से बचाने के लिए सरकारें अब भरसक कोशिश कर रही हैं। संरक्षण के लिहाज़ से गिद्ध वन्य प्राणी संरक्षण 1972 की अनुसूची 1 में आते हैं। देश में आठ खास जगहों पर इनके ब्राीडिंग सेंटर बनाए गए हैं। हरियाणा के पिंजौर तथा पश्चिम बंगाल के बसा में ब्रीडिंग सेंटर में इनके लिए प्राकृतिक तौर पर रहवास उपलब्ध कराया गया है। पिंजौर में सबसे अधिक 127 गिद्ध हैं।

दो साल पहले भोपाल में भी केरवा डेम के पास मेंडोरा के जंगल में प्रदेश का पहला गिद्ध प्रजनन केंद्र स्थापित किया गया है। वन अधिकारियों के मुताबिक यहां गिद्धों की निगरानी के लिए सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं और उनकी हर हलचल पर नज़र रखी जाती है।

हमारे पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए गिद्धों को सहेजना बहुत ज़रूरी है। हमारे देश में किसानों के पास बीस करोड़ से ज़्यादा गायें, बैल, भैंस आदि पालतू मवेशी हैं। इन्हें पशुधन माना जाता है। लेकिन जब इनकी मृत्यु हो जाती है तब इन्हें जलाया या दफनाया नहीं जाता है, बल्कि गांव किनारे की क्षेपण भूमि में मृत देह को रख आते हैं। गिद्धों के अभाव में मृत मवेशियों की देह सड़ती रहती है। गिद्धों की कमी के कारण मांस खाने वाले कुत्तों की तादाद बढ़ने से रैबीज़ जैसे रोगों का खतरा भी बढ़ जाता है।

पारसी समुदाय में शवों को डोखमा (बुर्ज) में खुला छोड़ दिया जाता है। जहां गिद्ध जैसे बड़े पक्षी उन्हें नष्ट करते हैं। पारसी धारणा के मुताबिक शव को दफनाने से ज़मीन तथा जलाने से आग दूषित होती है। इसलिए इस समाज के लोगों के लिए तो गिद्धों का होना बहुत ज़रूरी है। अब गिद्धों की कमी के चलते बुर्जों पर सौर उर्जा परावर्तक लगाए जा रहे हैं।

गिद्धों के संरक्षण के लिए सरकारों के साथ समाज को भी आगे आना पड़ेगा। तेज़ी से कम होते जा रहे गिद्धों के नहीं रहने से बढ़ते प्रदूषण पर सोचने भर से हम सिहर उठते हैं। गिद्धों का रहना हमारे पर्यावरण की सेहत के लिए बेहद ज़रूरी है। उनके बिना प्रकृति की सफाई कौन करेगा। किसान चाहें तो खुद अपने मवेशियों को डिक्लोफेनेक देने से रोक सकते हैं। इसके विकल्प के रूप में मैलोक्सीकैम दवा का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इसके अलावा गिद्धों के प्राकृतिक आवास तथा घोंसलों को भी संरक्षित कर सहेजने की ज़रूरत है। कहीं ऐसा न हो कि हम अगली पीढ़ी को सिर्फ किताबों और वीडियो में दिखाएं कि कभी इस धरती पर गिद्ध रहा करते थे। (स्रोत फीचर्स)

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एक फफूंद मच्छरों और मलेरिया से बचाएगी

1980 के दशक में बुर्किना फासो के गांव सूमोसो ने मलेरिया के खिलाफ एक ज़ोरदार हथियार मुहैया करया था। यह था कीटनाशक-उपचारित मच्छरदानी। इसने लाखों लोगों को मलेरिया से बचाने में मदद की थी। मगर मच्छरों में इन कीटनाशकों के खिलाफ प्रतिरोध विकसित हो गया और इन मच्छरदानियों का असर कम हो गया। अब यही गांव एक बार फिर मलेरिया के खिलाफ एक और हथियार उपलब्ध कराने जा रहा है।

इस बार एक फफूंद में जेनेटिक फेरबदल करके एक ऐसी फफूंद तैयार की गई है जो मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों को मारती है। इसके परीक्षण सूमोसो में 600 वर्ग मीटर के एक ढांचे में किए गए हैं जिसे मॉस्किटोस्फीयर नाम दिया गया है। यह एक ग्रीनहाउस जैसा है, फर्क सिर्फ इतना है कि कांच के स्थान पर यह मच्छरदानी के कपड़े से बना है। परीक्षण में पता चला है कि यह फफूंद एक महीने में 90 फीसदी मच्छरों का सफाया कर देती है।

व्यापक उपयोग से पहले इसे कई नियम कानूनों से गुज़रना होगा क्योंकि फफूंद जेनेटिक रूप से परिवर्तित है। इसकी एक खूबी यह है कि यह मच्छरों के अलावा बाकी कीटों को बख्श देती है। तेज़ धूप में यह बहुत देर तक जीवित नहीं रह पाती। इसलिए इसके दूर-दूर तक फैलने की आशंका भी नहीं है।

फफूंदें कई कीटों को संक्रमित करती हैं और उनके आंतरिक अंगों को चट कर जाती है। इनका उपयोग कीट नियंत्रण में किया जाता रहा है। 2005 में शोधकर्ताओं ने पाया था कि मेटाराइज़ियम नामक फफूंद मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों का सफाया कर देती है। किंतु उसकी क्रिया बहुत धीमी होती है और संक्रमण के बाद भी मच्छर काफी समय तक जीवित रहकर मलेरिया फैलाते रहते हैं। इसके बाद कई फफूंदों पर शोध किए गए और अंतत: शोधकर्ताओं ने इसी फफूंद की एक किस्म मेटाराइज़ियम पिंगशेंस में एक मकड़ी से प्राप्त जीन जोड़ दिया। यह जीन एक विष का निर्माण करता है और तभी सक्रिय होता है जब यह कीटों के रक्त (हीमोलिम्फ) के संपर्क में आता है। प्रयोगशाला में तो यह कामयाब रहा। इससे प्रेरित होकर बुर्किना फासो में मॉस्किटोस्फीयर स्थापित किया गया।

स्थानीय बाशिंदों की मदद से आसपास के डबरों से कीटनाशक प्रतिरोधी लार्वा इकट्ठे किए गए और इन्हें मॉस्किटोस्फीयर के अंदर मच्छर बनने दिया गया। यह देखा गया है कि मनुष्य को काटने के बाद मादा मच्छर आम तौर पर किसी गहरे रंग की सतह पर आराम फरमाना पसंद करती है। लिहाज़ा, मॉस्किटोस्फीयर टीम ने फफूंद को तिल के तेल में घोलकर काली चादरों पर पोत दिया और चादरों को स्फीयर के अंदर लटका दिया।

शोधकर्ताओं ने स्फीयर के अंदर अलग-अलग कक्षों में 500 मादा और 1000 नर मच्छर छोड़े। विभिन्न कक्षों में चादरों पर कुदरती फफूंद, जेनेटिक रूप से परिवर्तित फफूंद और बगैर फफूंद वाला तेल पोता गया था। मच्छरों को काटने के लिए बछड़े रखे गए थे। यह देखा गया कि मात्र 2 पीढ़ी के अंदर (यानी 45 दिनों में) जेनेटिक रूप से परिवर्तित फफूंद वाले कक्ष में मात्र 13 मच्छर बचे थे जबकि अन्य दो कक्षों में ढाई हज़ार और सात सौ मच्छर थे।

यह तो स्पष्ट है कि यह टेक्नॉलॉजी मलेरिया वाले इलाकों में महत्वपूर्ण होगी किंतु इसे एक व्यावहारिक रूप देने में समय लगेगा।  (स्रोत फीचर्स)

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देश बन रहा है डंपिंग ग्राउंड – संध्या रायचौधरी

इंटरनेशनल टेलीकम्यूनिकेशंस यूनियन (आईटीयू) के आंकड़ों के अनुसार भारत चीन और कुछ अन्य देशों में मोबाइल फोन की संख्या इंसानी आबादी को पीछे छोड़ चुकी है। सिर्फ भारत और चीन में मोबाइल फोन का आंकड़ा 8 अरब पार कर चुका है। चीन की तरह भारत में भी सस्ते से सस्ता फोन उपलब्ध है। लेकिन गंभीर और खतरनाक बात यह है कि इससे इलेक्ट्रॉनिक क्रांति में खतरे ही खतरे उत्पन्न हो जाएंगे जो इस धरती की हर चीज़ को नुकसान पहुंचाएंगे।

फिलहाल भारत में एक अरब से ज़्यादा मोबाइल ग्राहक है। मोबाइल सेवाएं शुरू होने के 20 साल बाद भारत ने यह आंकड़ा इसी साल जनवरी में पार किया है। फिलहाल चीन और भारत में एक-एक अरब से ज़्यादा लोग मोबाइल फोन से जुड़े हैं। देश में मोबाइल फोन इंडस्ट्री को अपने पहले 10 लाख ग्राहक जुटाने में करीब 5 साल लग गए थे, पर अब भारत-चीन जैसे आबादी बहुल देशों की बदौलत पूरी दुनिया में मोबाइल फोन की संख्या इंसानी आबादी के आंकड़े यानी 8 अरब को भी पीछे छोड़ चुकी है। ये आंकड़े बताते हैं कि अब गरीब देशों के नागरिक भी ज़िंदगी में बेहद ज़रूरी बन गई संचार सेवाओं का लाभ उठाने की स्थिति में हैं, वहीं यह इलेक्ट्रॉनिक क्रांति दुनिया को एक ऐसे खतरे की तरफ ले जा रही है जिस पर अभी ज़्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यह खतरा है इलेक्ट्रॉनिक कचरे यानी ई-कचरे का।

सालाना 8 लाख टन

आईटीयू के मुताबिक, भारत, रूस, ब्रााज़ील समेत करीब 10 देश ऐसे हैं जहां मानव आबादी के मुकाबले मोबाइल फोनों की संख्या ज़्यादा है। रूस में 25 करोड़ से ज़्यादा मोबाइल हैं जो वहां की आबादी का 1.8 गुना है। ब्राज़ील में 24 करोड़ मोबाइल हैं, जो आबादी से 1.2 गुना हैं। इसी तरह मोबाइल फोनधारकों के मामले में अमेरिका और रूस को पीछे छोड़ चुके भारत में भी स्थिति यह बन गई है कि यहां करीब आधी आबादी के पास मोबाइल फोन हैं। भारत की विशाल आबादी और फिर बाज़ार में सस्ते से सस्ते मोबाइल हैंडसेट उपलब्ध होने की सूचनाओं के आधार पर इस दावे में कोई संदेह भी नहीं लगता। पर यह तरक्की हमें इतिहास के एक ऐसे विचित्र मोड़ पर ले आई है, जहां हमें पक्के तौर पर मालूम नहीं है कि आगे कितना खतरा है? हालांकि इस बारे में थोड़े-बहुत आकलन-अनुमान अवश्य हैं जिनसे समस्या का आभास होता है। जैसे वर्ष 2015 में इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्निकल एजूकेशन एंड रिसर्च (आईटीईआर) द्वारा मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग ऑफ ई-वेस्ट विषय पर आयोजित सेमिनार में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के विज्ञानियों ने एक आकलन करके बताया था कि भारत हर साल 8 लाख टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा कर रहा है। इस कचरे में देश के 65 शहरों का योगदान है पर सबसे ज़्यादा ई-वेस्ट देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई में पैदा हो रहा है। हम अभी यह कहकर संतोष जता सकते हैं कि नियंत्रण स्तर पर हमारा पड़ोसी मुल्क चीन इस मामले में हमसे मीलों आगे है।

बैटरी और पानी प्रदूषण

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन दुनिया का सबसे बड़ा ई-वेस्ट डंपिंग ग्राउंड है। उल्लेखनीय यह है कि जो टीवी, फ्रिज, एयर कंडीशनर, मोबाइल फोन, कंप्यूटर आदि चीन में बनाकर पूरी दुनिया में सप्लाई किए जाते हैं, कुछ वर्षों बाद चलन से बाहर हो जाने और कबाड़ में तब्दील हो जाने के बाद वे सारे उपकरण चीन या भारत लौट आते हैं। निसंदेह अभी पूरी दुनिया का ध्यान विकास की ओर है। टेक्नॉलॉजी की तरक्की ने हमें जो साधन और सुविधाएं मुहैया कराई हैं, उनसे हमारा जीवन पहले के मुकाबले आसान भी हुआ है। कंप्यूटर और मोबाइल फोन जैसी चीजों ने हमारा कामकाज काफी सुविधाजनक बना दिया है। हम फैक्स मशीन, फोटो कॉपियर, डिजिटल कैमरों, लैपटॉप, प्रिंटर, इलेक्ट्रॉनिक खिलौने व गैजेट, एयर कंडीशनर, माइक्रोवेव, कुकर, थर्मामीटर आदि चीजों से घिर चुके हैं। दुविधा यह है कि आधुनिक विज्ञान की देन पर सवार हमारा समाज जब इन उपकरणों के पुराना पड़ने पर उनसे पीछा छुड़ाएगा, तो ई-कचरे की विकराल समस्या से कैसे निपट पाएगा। यह चिंता भारत-चीन जैसे तीसरी दुनिया के मुल्कों के लिए ज़्यादा बड़ी है क्योंकि यह कचरा ब्रिटेन-अमेरिका जैसे विकसित देशों की सेहत पर कोई असर नहीं डाल रहा है। इसकी एक वजह यह है कि तकरीबन सभी विकसित देशों ने ई-कचरे से निपटने के प्रबंध पहले ही कर लिए हैं, और दूसरे, वे ऐसा कबाड़ हमारे जैसे गरीब मुल्कों की तरफ ठेल रहे हैं। अर्थात हमारे लिए चुनौती दोहरी है। पहले तो हमें देश के भीतर पैदा होने वाली समस्या से जूझना है और फिर विदेशी ई-कचरे से निपटना है। हमारी चिंताओं को असल में इससे मिलने वाली पूंजी ने ढांप रखा है। विकसित देशों से मिलने वाले चंद डॉलरों के बदले हम यह मुसीबत खुद ही अपने यहां बुला रहे हैं।

ई-कचरा पर्यावरण और मानव सेहत की बलि भी ले सकता है। मोबाइल फोन की ही बात करें, तो कबाड़ में फेंके गए इन फोनों में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक और विकिरण पैदा करने वाले कलपुर्जे सैकड़ों साल तक ज़मीन में स्वाभाविक रूप से घुलकर नष्ट नहीं होते। सिर्फ एक मोबाइल फोन की बैटरी 6 लाख लीटर पानी दूषित कर सकती है। इसके अलावा एक पर्सनल कंप्यूटर में 3.8 पौंड घातक सीसा तथा फास्फोरस, कैडमियम व मरकरी जैसे तत्व होते हैं, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं और विषैले प्रभाव उत्पन्न करते हैं। कंप्यूटरों के स्क्रीन के रूप में इस्तेमाल होने वाली कैथोड रे पिक्चर ट्यूब जिस मात्रा में सीसा (लेड) पर्यावरण में छोड़ती है, वह भी काफी नुकसानदेह होता है।

कानून

समस्या इस वजह से भी ज़्यादा विनाशकारी है क्योंकि हम सिर्फ अपने ही देश के ई-कबाड़ से काम की चीज़ें निकालने की आत्मघाती कोशिश नहीं करते, बल्कि विदेशों से भी ऐसा खतरनाक कचरा अपने स्वार्थ के लिए आयात करते हैं। पर्यावरण स्वयंसेवी संस्था ग्रीनपीस ने अपनी रिपोर्ट ‘टॉक्सिक टेक: रीसाइÏक्लग इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट्स इन चाइना एंड इंडिया’ में साफ किया है कि जिस ई-कचरे की रिसाइÏक्लग पर युरोप में 20 डॉलर का खर्च आता है, वही काम भारत-चीन जैसे मुल्कों में महज चार डॉलर में हो जाता है। वैसे तो हमारे देश में ई-कचरे पर रोक लगाने वाले कानून हैं। खतरनाक कचरा प्रबंधन और निगरानी नियम 1989 की धारा 11(1) के तहत ऐसे कबाड़ की खुले में रिसायÏक्लग और आयात पर रोक है, लेकिन कायदों को अमल में नहीं लाने की लापरवाही ही वह वजह है, जिसके कारण अकेले दिल्ली की सीलमपुर, जाफराबाद, मायापुरी, बुराड़ी आदि बस्तियों में संपूर्ण देश से आने वाले ई-कचरे का 40 फीसदी हिस्सा रिसायकिल किया जाता है।

हमारी तरक्की ही हमारे खिलाफ न हो जाए और हमारा देश दुनिया के ई-कचरे के डंपिंग ग्राउंड में तब्दील होकर नहीं रह जाए; इस बाबत सरकार और जनता, दोनों स्तरों पर जागृति की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :   https://th.thgim.com/sci-tech/energy-and-environment/article22429946.ece/alternates/FREE_660/14SME-WASTE2jpg