गर्म खून के जंतुओं में ह्रदय मरम्मत की क्षमता समाप्त हुई

कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि जो जंतु गर्म खून वाले होते हैं उनमें ह्दय की मरम्मत की क्षमता कम होती है। गर्म खून वाले जंतु से आशय उन जंतुओं से है जिनके खून का तापमान स्थिर रहता है, चाहे आसपास के पर्यावरण में कमी-बेशी होती रहे। शोधकर्ताओं का यह भी कहना है कि गर्म खून का विकास और ह्दय की मरम्मत की क्षमता का ह्यास परस्पर सम्बंधित हैं।

सैन फ्रांसिस्को स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वैकासिक जीव विज्ञानी गुओ हुआंग और उनके साथियों ने विभिन्न जंतुओं के ह्दय का अध्ययन करके उक्त निष्कर्ष साइन्स शोध पत्रिका में प्रस्तुत किया है।

हुआंग की टीम दरअसल यह देखना चाहती थी कि विभिन्न जंतुओं के ह्दय की कोशिकाओं में कितने गुणसूत्र होते हैं। यह बात आम तौर पर ज्ञात नहीं है कि जंतुओं के शेष शरीर की कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र यानी क्रोमोसोम की दो प्रतियां पाई जाती हैं किंतु ह्रदय  की अधिकांश कोशिकाओं में गुणसूत्रों की 4-4, 6-6 प्रतियां होती हैं।

जंतु कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र की एक प्रति मां से और दूसरी पिता से आती है। इन कोशिकाओं को द्विगुणित कहते हैं। किंतु ह्रदय  की अधिकांश कोशिकाएं बहुगुणित होती हैं। इनमें दो या दो से अधिक प्रतियां पिता से और दो या दो से अधिक प्रतियां माता से आती हैं।

हुआंग की टीम को पता यह चला कि जब आप मछली से शुरू करके छिपकलियों, उभयचर जीवों और प्लेटीपस जैसी मध्यवर्ती प्रजातियों से लेकर स्तनधारियों की ओर बढ़ते हैं वैसे-वैसे ह्रदय  में बहुगुणित कोशिकाओं का अनुपात बढ़ता है। यह तथ्य तब महत्वपूर्ण हो जाता है जब आप यह देखें कि ज़्यादा द्विगुणित कोशिकाओं वाले ह्रदय  – जैसे ज़ेब्रा मछली का ह्रदय  – में पुनर्जनन हो सकता है और मरम्मत हो सकती है। जैसे-जैसे बहुगुणित कोशिकाओं की संख्या बढ़ती है (जैसे चूहों और मनुष्यों में) तो मरम्मत की क्षमता कम होने लगती है।

अब सवाल यह है कि किसी ह्रदय  में बहुगुणित कोशिकाओं का अनुपात कौन तय करता है। यह सवाल वैसे तो अनुत्तरित है किंतु हुआंग की टीम को एक जवाब मिला है। उन्होंने पाया है कि इस मामले में थायरॉइड हारमोन की कुछ भूमिका हो सकती है। थायरॉइड हारमोन शरीर क्रियाओं (मेटाबोलिज़्म) को नियंत्रित करता है और हमें गर्म खून वाला बनाता है। टीम ने देखा कि जब उन्होंने ज़ेब्रा मछली के टैंक में अतिरिक्त थायरॉइड हारमोन डाल दिया तो उनके ह्रदय  में पुनर्जनन नहीं हो पाया। दूसरी ओर, उन्होंने ऐसे चूहे विकसित किए जिनके ह्रदय  थायरॉइड के प्रति असंवेदी थे तो चोट लगने के बाद उनके ह्रदय  दुरुस्त हो गए। वैसे शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि अभी कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी क्योंकि इस संदर्भ में थायरॉइड शायद अकेला ज़िम्मेदार नहीं होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बीमारी के इलाज में वायरसों का उपयोग

वैसे तो बैक्टीरिया जनित रोगों के इलाज में वायरसों के उपयोग का विचार कई दशकों पहले उभरा था और कुछ चिकित्सकों ने इस पर हाथ भी आज़माए थे किंतु एंटीबायोटिक दवाइयों की आसान उपलब्धता के चलते यह विचार उपेक्षित ही रहा। यह आम जानकारी है कि वायरस स्वयं कई बीमारियां पैदा करते हैं। तो यह सवाल अस्वाभाविक नहीं है कि फिर इनका उपयोग बैक्टीरिया से लड़ने में कैसे होगा।

बरसों पहले यह पता चल चुका था कि कई वायरस बैक्टीरिया को संक्रमित करके उन्हें मार डालते हैं। ऐसे वायरसों को बैक्टीरिया-भक्षी वायरस या बैक्टीरियोफेज कहते हैं। इसके आधार पर यह सोचा गया था कि यदि आपके पास सही बैक्टीरिया-भक्षी है तो आप बैक्टीरिया संक्रमण से निपट सकते हैं। प्रत्येक बैक्टीरिया के लिए विशिष्ट भक्षी होता है। अत: सबसे पहले तो आपको भक्षी की खोज करना होती है। ये प्रकृति में हर जगह पाए जाते हैं किंतु सही भक्षी की खोज करना आसान नहीं होता। इसके बाद समस्या यह आती थी कि एक भक्षी सारे मरीज़ों के लिए कारगर नहीं होता था। और सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि एक बार एकत्रित करने के बाद इन वायरसों को सहेजना पड़ता था। इन सब मामलों में एंटीबायोटिक कहीं ज़्यादा सुविधानक थे। इसलिए वायरस उपचार की बात चली नहीं।

मगर आज बड़े पैमाने पर बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाइयों के प्रतिरोधी हो चले हैं। दुनिया भर में यह चिंता व्याप्त है कि एंटीबायोटिक के खिलाफ बढ़ते प्रतिरोध के चलते कहीं हम उस युग में न लौट जाएं जब एंटीबायोटिक थे ही नहीं। यदि वैसा हुआ तो आधुनिक चिकित्सा तथा शल्य चिकित्सा खतरे में पड़ जाएगी। इस माहौल में एक बार फिर वायरस चिकित्सा की चर्चा शुरू हुई है।

हाल ही में कुछ अस्पतालों में वायरस-उपचार के सफल उपयोग के समाचार मिले हैं। टेक्नॉलॉजी के स्तर पर भी हम काफी आगे बढ़े हैं। भक्षी वायरसों को पहचानना, एकत्रित करना और सहेजना अब ज़्यादा आसान हो गया है। अत: वायरस-उपचार अनुसंधान में तेज़ी आई है। (स्रोत फीचर्स)

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मात्र शत प्रतिशत ग्रामीण विद्युतीकरण पर्याप्त नहीं है – एन. श्रीकुमार, मानबिका मंडल, एन. जोसी

एक भरोसेमंद बिजली आपूर्ति काफी महत्वपूर्ण है। वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) को सामाजिक और वाणिज्यिक दोनों गतिविधियों की आवश्यकताओं पर ध्यान देना चाहिए। इस लेख के लेखक प्रयास (ऊर्जा समूह) से संबंधित हैं। यह भारतीय ऊर्जा क्षेत्र के सामने चुनौतियों पर तीन लेखों में से पहला है

स बात की काफी संभावना है कि केंद्र सरकार घोषित करे कि देश के सभी घरों में बिजली कनेक्शन उपलब्ध है। सौभाग्य वेबसाइट पर प्रकाशित ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार, छत्तीसगढ़ में केवल 20,000 परिवार ऐसे हैं जिनके पास बिजली कनेक्शन नहीं है। लेकिन इस बात की खुशी मनाते हुए यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि यह अच्छी शुरुआत भर है। कनेक्शन प्रदान करने की चुनौती को तो शायद पूरा कर लिया गया है, लेकिन बिजली आपूर्ति प्रदान करने की चुनौती अभी भी बनी हुई है। जीवन स्तर में सुधार और आर्थिक गतिविधियों में सहायता के लिए, सस्ती और भरोसेमंद बिजली आपूर्ति ज़रूरी है।

घरेलू कनेक्शन और गांव के विद्युतीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने के चक्कर में बिजली आपूर्ति के लक्ष्य की उपेक्षा हुई है। बिजली आपूर्ति का प्रबंधन पैसों की तंगी वाली वितरण कंपनियों द्वारा किया जाता है जिनके पास गरीब ग्रामीणों को बिजली आपूर्ति देने का कोई वित्तीय प्रलोभन नहीं होता है।

इस समस्या को दूर करने के लिए आपूर्ति-केंद्रित ग्रामीण विद्युतीकरण अभियान की आवश्यकता है। आपूर्ति और सेवा के वर्तमान घटिया स्तर से मुक्त होने के लिए ऐसा अभियान आवश्यक है। एक बार उल्लेखनीय सुधार हो गया, तो उपभोक्ताओं की ओर से  आपूर्ति की गुणवत्ता के लिए वितरण कंपनियों को जवाबदेह बनाने का दबाव रहेगा, और यह जोश जारी रहेगा।

कनेक्शन से एक कदम आगे 

चूंकि पूरा ध्यान कनेक्शनों पर केंद्रित रहा है, इसलिए आपूर्ति की गुणवत्ता को लेकर हमारे पास बहुत कम जानकारी है। जो भी आंकड़े उपलब्ध हैं, उनसे पता चलता है कि शिकायतों की सूची में मीटरिंग, बिलिंग और भुगतान सम्बंधी शिकायतें प्रमुख हैं। नए कनेक्शन वाले घरों के बिल जारी करने में अनावश्यक विलंब होता, बिलों में गलतियां होती है, मीटर में खामियां हैं और बिल भुगतान में कठिनाइयां हैं। बिलों में विलंब या गलतियों से बिल काफी अधिक आता है, जिससे छोटे उपभोक्ताओं को भुगतान करने में मुश्किल होती है और उनके कनेक्शन कट जाते हैं।

दूसरी शिकायत बिजली कटौती को लेकर है। सरकारी रिपोट्र्स में ग्रामीण इलाकों में 16 से 24 घंटे की बिजली आपूर्ति की बात कही गई है। उपभोक्ता सर्वेक्षण और अन्य अध्ययन इससे बहुत कम घंटे बिजली आपूर्ति रिपोर्ट करते हैं। स्मार्टपॉवर के एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि आधे घरों में एक दिन में आठ घंटे बिजली कटौती होती है और लगभग आधे ग्रामीण उद्यम गैर-ग्रिड विकल्प का उपयोग करते हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा 2017 के राष्ट्रव्यापी ग्राम सर्वेक्षण से संकेत मिलता है कि केवल आधे गांवों में ही 12 घंटे से अधिक बिजली आपूर्ति होती है।

प्रयास ऊर्जा समूह द्वारा 23 राज्यों में 200 मॉनिटरिंग केंद्रों से एकत्रित डैटा के अनुसार ग्रामीण इलाकों के आधे स्थानों में प्रति माह 15 घंटे से अधिक कटौती और प्रति दिन 2-4 बार व्यवधान का अनुभव होता है।

सामुदायिक सेवाएं

घरों के अलावा, ग्रामीण विद्युतीकरण को कृषि, छोटे व्यवसाय और सामुदायिक सेवाओं जैसे स्ट्रीट लाइटिंग, स्कूलों, आंगनवाड़ियों और स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंच सुनिश्चित करनी चाहिए। कृषि क्षेत्र के लिए ज़्यादातर राज्यों में केवल सात से आठ घंटे की आपूर्ति प्रदान की जाती है। यह बिजली आपूर्ति ज़्यादातर रात के समय और अक्सर रुक-रुककर दी जाती है। बार-बार होने वाली रुकावटें ग्रामीण क्षेत्रों में वाणिज्यिक उद्यमों के संचालन को हतोत्साहित करती हैं।

वितरण कंपनी का राजस्व सिर्फ तभी बढ़ सकता है जब ऐसे उपभोक्ता अधिक बिजली का उपभोग करें। इससे पहले कि उपभोक्ता ग्रिड द्वारा आपूर्ति में विश्वास खो दें, बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता में सुधार के लिए कदम उठाना आवश्यक है। सरकारी सर्वेक्षणों की रिपोर्ट के अनुसार 2017 में, 40 प्रतिशत स्कूलों और 25 प्रतिशत स्वास्थ्य उप-केंद्रों में बिजली कनेक्शन नहीं थे। ग्रामीण वितरण के बुनियादी ढांचे को सुधारना आवश्यक है, जो फिलहाल मात्र घरेलू मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त है।

बिजली आपूर्ति अभियान

कनेक्शन-उपरांत के मसलों पर ध्यान देना ज़रूरी है। जैसे प्रथम बिल जारी होना, बिजली आपूर्ति के घंटे, वितरण ट्रांसफॉर्मर की विफलता दर और गैर-घरेलू उपभोक्ता कनेक्शन में बढ़ोतरी। एकीकृत उर्जा विकास योजना (आईपीडीएस) वर्तमान में शहरों पर केंद्रित है; इसे ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ाया जाना चाहिए। बेकार पड़ी बिजली उत्पादन क्षमता, पुराने पड़ चुके उर्जा संयंत्रों और अप्रयुक्त क्षमता से उत्पन्न बिजली डिस्कॉम्स को रियायती दरों पर दी जा सकती है। इसका उपयोग वे निर्धारित ग्रामीण क्षेत्रों में भरोसेमंद आपूर्ति हेतु कर सकती हैं।

राज्य वितरण कंपनियां मीटरिंग और बिलिंग में सुधार कर सकती हैं और बिल भुगतान के लिए ज़्यादा केंद्र स्थापित कर सकती हैं। इसमें वे पंचायत कार्यालयों, डाकघरों या स्वास्थ्य केंद्रों की मदद ले सकती हैं। मोबाइल ऐप्लिकेशन और जन सुनवाई के माध्यम से शिकायत निवारण प्रक्रियाओं को सरल बनाया जा सकता है।

घटिया बिजली आपूर्ति के लिए वितरण कंपनियों को नियामक आयोगों द्वारा आर्थिक रूप से दंडित किया जाना चाहिए। आर्थिक गतिविधि को बढ़ावा देने के लिए, लगभग 300 युनिट की खपत वाले छोटे उद्यमों को सस्ते शुल्क का आश्वासन दिया जाना चाहिए।

स्वास्थ्य केंद्रों जैसी सामुदायिक सुविधाओं के लिए जहां विश्वसनीय आपूर्ति महत्वपूर्ण है, बैटरी बैकअप वाले छोटे सौर संयंत्र लगाने की योजना बनाई जा सकती है। प्रीपेड मीटर, स्मार्ट मीटर और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण जैसे प्रयासों को बढ़ावा देने से पहले पायलट परियोजनाओं के रूप में आज़माया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

*यह लेख अंग्रेज़ी में “द हिन्दू बिज़नेस लाइन” में “100% rural electrification is not enough” नाम से प्रकाशित हो चुका है। इसका लिंक यहां दिया गया है
https://www.thehindubusinessline.com/opinion/100-rural-electrification-is-not-enough/article26645721.ece

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पाई (π) के कुछ रोचक प्रसंग – संकलन: ज़ुबैर

प्राथमिक कक्षाओं से ही वृत्त के क्षेत्रफल और परिधि मापन के लिए हमने पाई (π) का इस्तेमाल किया है। वास्तव में π किसी भी वृत्त की परिधि और व्यास का अनुपात है। यह एक अपरिमेय संख्या है, इसलिए इसे निश्चित भिन्न के रूप में नहीं लिखा जा सकता। इसकी बजाय, यह एक अंतहीन भिन्न है और इसके दशमलव के बाद के अंकों में दोहराव नहीं होता।

लेकिन इस अपरिमेय संख्या की खोज कैसे की गई? अध्ययन के हज़ारों वर्षों के बाद भी क्या इस संख्या में अभी भी कोई रहस्य छिपा है? आइए इस संख्या के उद्गम पर चर्चा करते हैं और देखते हैं कि क्या आज भी यह अपने गर्भ में कुछ रहस्य छिपाए है।

  1. π और पाइलिश भाषा

p को सबसे अधिक संख्या तक याद रखने का रिकॉर्ड भारत में वेल्लोर के राजीव मीणा के नाम दर्ज है। गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड के अनुसार उन्होंने 21 मार्च 2015 को π के दशमलव के बाद 70,000 अंक सुनाने का रिकॉर्ड बनाया है। इससे पहले यह रिकॉर्ड चीन के चाऊ लु के नाम दर्ज था जिन्होंने वर्ष 2005 में दशमलव के बाद 67,890 अंक मुंहज़बानी सुनाए थे।

निम्नलिखित पंक्तियों में प्रत्येक शब्द में अक्षरों की संख्या क्रमश: पाई के मान के अंकों की द्योतक है। प्रथम उदाहरण में पहले 10 अंकों का समावेश है जबकि दूसरे उदाहरण में पहले 31 अंक नज़र आते हैं।

1.        How I need a drink, alcoholic in nature, after the heavy lectures involving quantum mechanics!

2.         But a time I spent wandering in bloomy night;

Yon tower, tinkling chimewise, loftily opportune.

Out, up, and together came sudden to Sunday rite,

The one solemnly off to correct plenilune.

किसी ने तो इस शैली में 10,000 शब्दों का एक उपन्यास भी लिख डाला है।

एक अनधिकृत रिकॉर्ड अकीरा हरगुची के नाम पर भी दर्ज है जिन्होंने 2005 में π के मान को 1,00,000 दशमलव स्थानों तक और फिर हाल ही में एक वीडियो के माध्यम से 1,17,000 से भी अधिक दशमलव स्थानों तक प्रस्तुत कर दिखाया।

संख्या के प्रति कुछ उत्साही लोगों ने तो π के कई अंकों को याद करने के लिए मेमोरी एड्स का उपयोग किया है तो कई लोगों ने पाईफिलोलॉजी नेमोनिक तकनीक का इस्तेमाल कर इस संख्या को याद किया है। अक्सर, वे पद्यों का उपयोग करते हैं (जिसमें प्रत्येक शब्द में अक्षरों की संख्या क्रमश: π के अंकों से मेल खाती है)। इसे पाइलिश शैली भी कहा जाता है। ऐसे पद्यों के कुछ उदाहरण बॉक्स में देखिए।

2. अंकों में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि

π एक अनंत संख्या है, हम कभी भी इसके सारे अंकों का निर्धारण नहीं कर सकते। फिर भी, खोज के बाद से दशमलव स्थानों की संख्या तेज़ी से बढ़ी है। 2000 ई.पू. में बेबीलोन के लोगों ने इसे ‘तीन सही एक बटा आठ’ के रूप में उपयोग किया, जबकि प्राचीन चीनी लोगों और ओल्ड टेस्टामेंट के रचयिता 3 के पूर्णांक का उपयोग करके खुश थे। 1665 में, आइज़ैक न्यूटन ने 16 दशमलव स्थानों तक π की गणना की। 1719 तक, फ्रांसीसी गणितज्ञ थॉमस फेंटेट डी लैगी ने 127 दशमलव स्थानों तक π की गणना की थी।

कंप्यूटरों के आने के बाद से π के ज्ञान में काफी सुधार हुआ। 1949 और 1967 के बीच, π के ज्ञात दशमलव स्थानों की संख्या 5,00,000 हो गई। पिछले वर्ष, स्विस कंपनी डेक्ट्रिस लिमिटेड के वैज्ञानिक पीटर ट्रूएब ने π के 2,24, 59,15,77,18, 361 अंकों की गणना के लिए एक विशेष कंप्यूटर प्रोग्राम का उपयोग किया।

3. हाथों से π की गणना करना

जो लोग पुरानी तकनीक से  की गणना करना चाहते हैं, वे एक स्केल, एक गोलाकार चूड़ी, धागे के एक टुकड़े की मदद से यह काम कर सकते हैं या चांदे और पेंसिल का इस्तेमाल कर सकते हैं। चूड़ी विधि की सफलता के लिए आवश्यक होगा कि चूड़ी एकदम गोलाकार हो, और सटीकता इस बात पर निर्भर करेगी कि उसकी परिधि पर धागे को कितनी सही तरह से लपेटा गया है। चांदे की मदद से वृत्त बनाकर उसका व्यास नापने में काफी निपुणता और सटीकता की आवश्यकता होती है।

ज़्यादा सटीक गणना ज्यामिति की मदद से की जा सकती है। इसमें एक वृत्त को पिज़्ज़ा की फांक की तरह कई खंडों में विभाजित किया जाता है। फिर, एक सीधी रेखा की लंबाई की गणना की जाती है जो हर एक खंड को समद्विबाहु त्रिभुज में बदल दे। सभी खंडों को जोड़ने पर π का अनुमान लगाया जाता है। जितनी अधिक फांक बनाएंगे, π का मान उतना ही सटीक होगा।

4. π की खोज

प्राचीन बेबीलोन के लोगों को आज से लगभग 4000 साल पहले p जैसे एक अनुपात के अस्तित्व का पता था। 1900 ई.पू. से 1680 ई.पू. के बीच की एक बेबीलोनी तख्ती पर π की गणना 3.125 देखी गई है। 1650 ईसा पूर्व के प्रसिद्ध गणितीय दस्तावेज़, रिंद गणितीय पैपायरस, में p को 3.1605 दर्ज किया गया है। किंग जेम्स बाइबल में π की संख्या को क्यूबिट्स में दर्शाया गया है। क्यूबिट उस समय दूरी नापने की इकाई थी जो लगभग एक हाथ के बराबर होती थी। आर्किमिडीज़ (287-212 ई.पू.) ने पायथागोरस प्रमेय का उपयोग करके π की गणना की थी।

5. π का चिन्ह और नामकरण

वृत्त के एक स्थिरांक के रूप में स्थापित होने से पहले, गणितज्ञों को π की बात करते हुए काफी कुछ समझाना पड़ता था। पुरानी गणित की किताबों में π को निम्न वाक्य में व्यक्त किया जाता था: ‘quantitas in quam cum multiflicetur diameter, proveniet circumferencia’, अर्थात ‘वह संख्या, जिसमें वृत्त के व्यास का गुणा करने पर, परिधि प्राप्त होती है।’

यह संख्या तब काफी प्रचलित हुई जब स्विस बहुविद् लियोनहार्ड यूलर ने 1737 में त्रिकोणमिति में इसका उपयोग किया। हालंकि इसका ग्रीक संकेत यूलर ने नहीं दिया था। π का पहला उल्लेख गणितज्ञ विलियम जोन्स ने 1706 में अपनी पुस्तक में किया था। जोन्स ने संभवत: π चिन्ह का इस्तेमाल वृत्त की परिधि को दर्शाने के लिए किया था।

देखा जाए तो π काफी अजीब संख्या है। गणितज्ञों ने समय-समय पर इस संख्या के कई रहस्यों पर से पर्दा उठाया है लेकिन अभी भी कई सवालों के जवाब मिलना बाकी है। जैसे, गणितज्ञ अभी भी नहीं जानते कि क्या π तथाकथित सामान्य संख्याओं के समूह में है यानी क्या π में विभिन्न अंकों की आवृत्ति बराबर है या क्या विभिन्न अंक इसमें बराबर बार प्रकट होते हैं। 2016 में आरकाइव्स में प्रकाशित शोध पत्र में पीटर ट्रूएब के अनुसार पहले 2.24 खरब अंकों में 0 से 9 अंकों की आवृत्ति देखें तो लगता है कि π एक सामान्य संख्या है। किंतु इस बात को गणितीय ढंग से प्रमाणित करके ही पक्का कहा जा सकता है।

6. बहुगुणी है π

अट्ठारवीं सदी के एक गणितज्ञ जोहान हाइरिश लैम्बर्ट ने π की अपरिमेयता का प्रमाण दिया था। आगे चलकर यह भी साबित किया गया कि यह न सिर्फ अपरिमेय है बल्कि ट्रांसेन्डेंटल भी है। गणित में ट्रांसेन्डेंटल संख्या का मतलब होता है कि वह किसी ऐसी समीकरण का उत्तर नहीं हो सकता जिसमें परिमेय संख्याएं हों।

7. π का विरोध

जहां एक ओर π को लेकर कई गणितज्ञ आसक्त हैं, वहीं दूसरी ओर इसको लेकर प्रतिरोध भी है। कुछ लोगों का तर्क है कि पाई एक व्युत्पन्न संख्या है, और टाऊ (t, दो π के बराबर) एक अधिक सहज अपरिमेय संख्या है।

τ मैनिफेस्टो के लेखक माइकल हार्टल के अनुसार τ सीधे तौर पर परिधि को त्रिज्या से जोड़ता है, जिसका अधिक गणितीय मूल्य है। τ त्रिकोणमितीय गणनाओं में भी बेहतर काम करता है, उदाहरण के तौर पार टाऊ/4 रेडियन वह कोण है जो वृत्त के एक चौथाई हिस्से को घेरता है।

8. π दिवस

1988 में, भौतिक विज्ञानी लैरी शॉ ने सैन फ्रांसिस्को स्थित विज्ञान संग्रहालय में π-दिवस की शुरुआत की। हर साल, 14 मार्च (3/14) π-दिवस मनाया जाता है। उद्देश्य गणित और विज्ञान में रुचि बढ़ाना है। (स्रोत फीचर्स)

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गणित की एक पुरानी पहेली सुलझाई गई

णितज्ञों को जो बातें परेशान करती हैं, वे कई बार बहुत विचित्र होती हैं। जैसे 64 साल पुरानी एक पहेली को ही लें। गणितज्ञों का सवाल था कि क्या हरेक संख्या को तीन संख्याओं के घन के जोड़ के रूप में लिखा जा सकता है। अर्थात, क्या हरेक संख्या k के लिए निम्न समीकरण लिखी जा सकती है:

x3 + y3 + z3 = k

यह सवाल वैसे तो एलेक्ज़ेण्ड्रिया के गणितज्ञ डायोफेंटस ने किया था और उक्त समीकरण को डायोफेंटाइन समीकरण कहते हैं। चुनौती यह है कि 1 से अनंत तक किसी भी संख्या (k) के लिए ऐसी तीन संख्याएं खोजें जो उक्त समीकरण को पूरा करें। जैसे यदि संख्या (k) 8 हो तो उसके लिए एक समीकरण निम्नानुसार होगी:

23 + 13 + (-1)3 = 8

आप देख ही सकते हैं कि x, y और z कोई भी संख्या (धनात्मक या ऋणात्मक) हो सकती है। विभिन्न संख्याओं के लिए खोज करते-करते गणितज्ञों को धीरे-धीरे पता चल गया कि सभी संख्याओं के लिए ऐसी समीकरणें लिखना संभव नहीं है। एक नियम यह पता चला कि यदि किसी संख्या में 9 का भाग देने पर शेष 4 या 5 रहे तो उसके लिए ऐसी समीकरण नहीं बन सकती। इस नियम के आधार पर 100 से कम की 22 संख्याएं बाहर हो जाती हैं। शेष 76 संख्याओं के लिए ऐसी समीकरणें बना ली गई हैं किंतु 2 संख्याओं ने गणितज्ञों को खूब छकाया है – 33 और 42।

अब ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के एंड्रयू बुकर ने 33 के लिए समीकरण बना ली है। उन्होंने एक कंप्यूटर सूत्रविधि विकसित की जो इस समीकरण को x, y और z  के मान 1016 तक लेकर समीकरण का हल निकाल सकती है। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि इसकी मदद से कंप्यूटर उन्हें 33 के लिए ऐसी डायोफेंटाइन समीकरण उपलब्ध करा देगी। कुछ सप्ताह की मेहनत के बाद जो समीकरण उन्हें मिली वह थी:

(8,866,128,975,287,528)3 + (-8,778,405,442,862,239)3 + (-2,736,111,468,807,040)3 = 33

बुकर की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मज़ेदार बात यह रही कि उनकी पत्नी को समझ में नहीं आया कि वे इतने खुश क्यों हैं। शायद हममें से भी कई को यह खुशी समझ में नहीं आएगी। मगर 100 से कम की एक संख्या अभी बची है (42) और उम्मीद की जा सकती है कि जल्दी ही कोई और गणितज्ञ खुशी से उछलेगा। (स्रोत फीचर्स)

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एक कृमि को मॉडल बनाने वाले ब्रेनर नहीं रहे

हाल ही में प्रमुख आणविक जीव विज्ञानी सिडनी ब्रेनर का निधन 92 वर्ष की आयु में हुआ। ब्रेनर युरोपियन मॉलीक्यूलर बायोलॉजी ऑर्गेनाइज़ेशन के संस्थापक सदस्य थे।

ब्रेनर की प्रमुख उपलब्धि यह रही कि उन्होंने एक कृमि सिनोरेब्डाइटिस एलेगेंस को मानव रोगों पर अनुसंधान का प्रमुख मॉडल जीव बनाया। इस कार्य के लिए उन्हें वर्ष 2002 का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। ब्रेनर ने सी. एलेगेंस को एक मॉडल जीव के रूप में इसलिए चुना था क्योंकि यह बैक्टीरिया जैसे अन्य जीवों के मुकाबले अधिक जटिल है और इसका अध्ययन करना आसान है। उनके इसी कार्य का परिणाम है कि आज भी यह कृमि जीव विज्ञान में एक प्रमुख मॉडल जीव है और पिछले एक दशक में तकरीबन 15,000 शोध पत्रों में इसका ज़िक्र हुआ है।

ब्रेनर मेसेंजर (यानी संदेशवाहक) आरएनए की खोज में भी शरीक रहे। गौरतलब है कि कोशिकाओं में प्रोटीन निर्माण के निर्देश डीएनए नामक अणु के रूप में संचित होते हैं। इन निर्देशों के आधार पर प्रोटीन बनाने का काम संदेशवाहक आरएनए अणु करवाते हैं। संदेशवाहक मेसेंजर दरअसल डीएनए में उपस्थित सूचना को उस प्रणाली तक पहुंचाते हैं जो वास्तव में प्रोटीन बनाने का काम करती है।

ब्रेनर आणविक जेनेटिक विज्ञान की इस महत्वपूर्ण खोज में भी प्रमुखता से शामिल थे कि डीएनए का अणु तीन-तीन न्यूक्लियोटाइड की तिकड़ियों से बना होता है। ऐसी प्रत्येक इकाई को कोडॉन कहते हैं और प्रत्येक कोडॉन एक अमीनो अम्ल का संकेत होता है। इस तरह कोडॉन के क्रमानुसार अमीनो अम्ल व्यवस्थित हो जाते हैं और फिर जुड़कर प्रोटीन बनते हैं।

ब्रेनर विभिन्न विश्वविद्यालयों और संस्थानों से जुड़े रहे। वे प्रमुख रूप से सिंगापुर में वैज्ञानिक अनुसंधान से जुड़े रहे और सिंगापुर की शोध क्षमता के निर्माण में प्रमुख योगदान दिया। गौरतलब है कि वे सिंगापुर के मानद नागरिक भी थे। (स्रोत फीचर्स)

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चौपाया व्हेल करती थी महाद्वीपों का सफर

शोधकर्ताओं ने कुछ समय पहले ही पेरू के समुद्र तट पर चार पैरों वाली प्राचीन व्हेल की हड्डियां खोज निकाली हैं। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित पेपर के अनुसार यह जीव राइनो और समुद्री ऊदबिलाव के मिश्रित रूप जैसा दिखता होगा। इसका सिर छोटा, लंबी मज़बूत पूंछ और चार छोटे मगर मोटे खुरदार पैर एवं झिल्लीदार पंजे रहे होंगे। एक नए अध्ययन का अनुमान है कि ये जीव आज के युग की व्हेल के पूर्वज रहे होंगे जो लगभग 4 करोड़ वर्ष पहले पाए जाते थे। 

रॉयल बेल्जियन इंस्टिट्यूट ऑफ नेचुरल साइंस, ब्रसेल्स के जंतु विज्ञानी और इस अध्ययन के प्रमुख ओलिवियर लैम्बर्ट के अनुसार यह प्रशांत महासागर में मिलने वाली चार पैरों वाली व्हेल का सबसे पहला प्रमाण है। 

जीवाश्म विज्ञानी पिछले एक दशक से भी अधिक समय से प्राचीन समुद्री स्तनधारियों के जीवाश्म की खोज करने के लिए पेरू के बंजर तटीय क्षेत्रों के आसपास खुदाई कर रहे थे। लैम्बर्ट और उनकी टीम को अधिक सफलता मिलने की उम्मीद नहीं थी लेकिन एक बड़े दांतों वाला जबड़ा मिलने के बाद उन्होंने खुदाई को आगे भी जारी रखा।

ये हड्डियां कई लाख वर्ष पुरानी थीं और कई टुकड़ों में टूटी हुई थीं, लेकिन काफी अच्छे से संरक्षित थीं और आस-पास की तलछट में इन्हें ढूंढना भी काफी आसान था। जब पूरा कंकाल इकट्ठा कर लिया गया तो कमर और भुजा वाले भाग को देखकर यह ज़मीन पर चलने वाले जीव सरीखा मालूम हुआ लेकिन इसके लंबे उपांग और पूंछ की बड़ी-बड़ी हड्डियों से इसके कुशल तैराक होने का अनुमान लगाया गया। लैम्बर्ट का ऐसा मानना है कि उस समय ये जीव ज़मीन पर चलने में भी सक्षम थे और साथ ही तैरने के लिए अपनी पूंछ का भी उपयोग करते होंगे।     

टीम ने इन तैरने और चलने वाली व्हेल प्रजाति को पेरेफोसिटस पैसिफिकस नाम दिया है जिसका अर्थ प्रशांत तक पहुंचने वाली यात्री व्हेल है।  

अब तक, वैज्ञानिकों का ऐसा मानना था कि प्राचीन व्हेल अफ्रीका से निकलकर पहले उत्तरी अमेरिका की ओर गर्इं और उसके बाद दक्षिणी अमेरिका और दुनिया के अन्य हिस्सों में फैली। लेकिन जीवाश्म की उम्र और स्थान को देखते हुए लैम्बर्ट और उनके साथियों का अनुमान है कि यह उभयचर व्हेल दक्षिण अटलांटिक महासागर को पार करते हुए पहले दक्षिण अमेरिका पहुंचीं और फिर उत्तरी अमेरिका और अन्य स्थानों पर।

अलबत्ता, शोधकर्ताओं के मुताबिक महत्वपूर्ण यह नहीं है कि वे किस दिशा में गर्इं, बल्कि यह काफी दिलचस्प है कि ये प्राचीन चार पैर वाले जीव अपनी शारीरिक रचना से इतना सक्षम थे कि दुनिया भर में फैल गए। आगे चलकर इस जीवाश्म से और अधिक जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीवों में अंगों का फिर से निर्माण – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

छिपकली को जब भी किसी खतरे का अंदेशा होता है तो वह अपने बचाव में अपने शरीर से पूंछ अलग कर गिरा देती है और वहां से भाग जाती है। अगले 60 दिनों के भीतर छिपकली के शरीर पर नई पूंछ आ जाती है। लेकिन नई पूंछ कैसे और क्यों आती है? एरिज़ोना स्टेट युनिवर्सिटी के डॉ. केनरो कुसुमी और उनके साथियों ने अपने शोध में इसी सवाल का जवाब खोजने की कोशिश की। उन्होंने पाया कि दोबारा पूंछ विकसित करने के लिए छिपकली अपने शरीर के किसी खास हिस्से के जीनोम में लगभग 326 जीन्स को सक्रिय कर देती है। इसके अलावा वे ‘सैटेलाइट कोशिकाओं’ को भी सक्रिय कर देती हैं, जो विकसित होकर कंकाल की पेशियों और अन्य ऊतकों में तबदील हो सकती हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि चूंकि मनुष्यों में भी सैटेलाइट कोशिकाएं होती हैं इसलिए संभावना है कि इन्हें सक्रिय करके मनुष्यों में भी पेशियों और उपास्थियों को पुन: विकसित किया जा सके।

छिपकली जैव विकास के क्रम में काफी देर से अस्तित्व में आई थीं। छिपकली लगभग 31-32 करोड़ साल पहले अस्तित्व में आई जबकि उनसे पहले केंचुए लगभग 51 करोड़ वर्ष पूर्व और चपटे कृमि लगभग 84 करोड़ वर्ष पूर्व अस्तिस्व में आ चुके थे। अरस्तू ने इन्हें ‘पृथ्वी की आंत’ और डार्विन ने ‘प्रारंभिक जुताई करने वाले’ की उपमा दी थी। प्रोसिडिंग्स ऑफ रॉयल सोसायटी में प्रकाशित एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने यह पता किया है कि कृमियों की 35 विभिन्न प्रजातियां शरीर का कोई हिस्सा कटकर अलग हो जाने पर उसे पुन: विकसित (या अंग पुनर्जनन) कैसे करती हैं। जैसे कम-से-कम चार तरह के कृमि अपने सिर को दोबारा विकसित कर लेते हैं। तो छिपकली की तरह इन जीवों की जीव वैज्ञानिक कार्यप्रणाली का अध्ययन अंग पुनर्जनन की बेहतर समझ बनाने में मददगार होगा।

सवाल यह है कि ऐसा क्यों है कि विकास क्रम में पहले अस्तित्व में आए कृमि, अपना सिर तक पुन: विकसित कर पाते हैं जबकि उनके बाद अस्तित्व में आर्इं छिपकलियां सिर्फ पूंछ दोबारा बना पाती हैं। और उनके भी बाद आए ‘ऊंचे दर्जे के जानवर’ तो कोई भी अंग फिर से नहीं बना पाते। इस मामले में दो तरह के तर्क दिए जाते हैं। युनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड की प्रोफेसर एलेक्सेन्ड्रा बेली ने अपनी समीक्षा इवॉल्यूशनरी लॉस ऑफ एनिमल रीजनरेशन: पैटर्न एंड प्रोसेस (विकास के दौरान जीवों में अंग-पुनर्जनन क्षमता की हानि: पैटर्न और प्रकिया) में बताया है कि पुनर्जनन में नई कोशिकाएं, ऊतक और आंतरिक अंग तो बन सकते हैं लेकिन भुजाओं जैसी रचनाओं के पुनर्जनन पर उम्र, लिंग, पोषण और अन्य कारकों का नियंत्रण होता है। या क्या यह भी हो सकता है कि पुनर्जनन इसलिए समाप्त हो गया क्योंकि जीवों ने मरम्मत में ऊर्जा खर्च करने की बजाय उसे वृद्धि में लगाया। अंग-पुनर्जनन में लगने वाली ऊर्जा और उससे मिलने वाले लाभ के आधार पर इस प्रक्रिया को फिर से समझने की ज़रूरत है।

युनिवर्सिटी ऑफ बाथ के डॉ. जोनाथन स्लैक द्वारा इएमबीओ रिपोर्ट में एक अध्ययन एनिमल रीजनरेशन: एंसेस्ट्रल केरेक्टर ऑर इवॉल्यूशनरी नॉवेल्टी? (जंतु पुनर्जनन: पूर्वजों की विरासत या वैकासिक नवीनता?) प्रकाशित किया गया था। इस अध्ययन में उन्होंने जेनेटिक विश्लेषण के आधार पर बताया था कि सभी जीवों (छिपकली से लेकर मानवों तक) में आनुवंशिक गुण दो मुख्य जीन, Wnt और BMP, के व्यवहार के कारण दिखते हैं। Wnt जीन कोशिकाओं की तेज़ी से वृद्धि और स्व-नवीनीकरण संकेत देने में मददगार होता है। BMP जीन सभी जीवों में शरीर और अंगों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ये जीन सभी जीवों की सभी कोशिकाओं में मौजूद होते हैं, इसलिए सैद्धांतिक रूप से ऐसा लगता है कि अंग-पुनर्जनन सभी जीवों में संभव है।

इसके बावजूद, कुत्ते या बिल्ली की पूंछ कटने के बाद दोबारा नहीं आती। वे अपनी कटी पूंछ के साथ ही रहना सीख जाते हैं। डॉ. बेली के अनुसार इन जीवों में, पूंछ को दोबारा विकसित में लगने वाली ऊर्जा के बदले पूंछ के बिना जीना ज़्यादा फायदेमंद या सार्थक लगता है। (जबकि छिपकली के मामले में उसकी पूंछ जीवित बचने और विकास में अहम अंग है।)

छिपकली पर लौटते हैं। छिपकली में दोबारा जो पूंछ विकसित होती है वह दरअसल मूल पूंछ जैसी नहीं होती बल्कि उसकी अधूरी नकल होती है। इस नकली पूंछ में कोई हड्डी नहीं होती बल्कि इसमें उपास्थि होती है और यह मूल पूंछ की तुलना में अधिक नरम और लचीली होती है। कलकत्ता के डॉ. शुक्ल घोष के शब्दों में यह वास्तविक अंग-पुनर्जनन नहीं बल्कि क्षतिपूर्ति वृद्धि है।

स्टेम सेल तकनीक

हालांकि एरिज़ोना के कुसुमी और उनके साथियों को छिपकली की पुन: विकसित पूंछ के ऊतकों में कोई प्रोजीनेटर कोशिका या स्टेम कोशिका नहीं मिली, लेकिन उभरती हुई स्टेम कोशिका तकनीक से इस क्षेत्र में काफी उत्साह बढ़ा है। इस तकनीक में स्टेम कोशिका की मदद से किसी अन्य अंग की कोशिका या ऊतक प्रयोगशाला में विकसित किए जा सकते हैं। इस तकनीक की मदद से मूत्राशय विकसित किया गया है और एक युवा को लगाया गया, जिसका मूत्राशय क्षतिग्रस्त हो गया था। वर्तमान में किसी भी कोशिका को, चार चुने हुए जीन की मदद से, स्टेम कोशिका बनने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। इस तरह प्रेरित बहुसक्षम स्टेम कोशिकाएं, प्रयोगशाला में मनचाहे ऊतक और ऑर्गेनाइड (मूल अंग की तुलना में छोटे अंग) बनाने के लिए उपयोग किए जा रही हैं। हालांकि अभी यह इस तकनीक का आगाज़ है लेकिन भविष्य में इसकी मदद से अंग बनाए जा सकेंगे और इनका उपयोग अंग-पुनर्जनन के लिए किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हम छठी व्यापक जैव विलुप्ति की कगार पर हैं – सोमेंद्र सिंह खरोला

क्या तूफान आपके अंधत्व का लिहाज़ करके थमता है? – सुधींद्रनाथ दत्त की कविता उत्पाखी (शुतुरमुर्ग) से

जैव मंडल की तुलना एक बहुत बड़ी दीवार से की जा सकती है, मनुष्य जिसके ऊपर बैठा है। अगर इस जैव मंडल में से हम जानवरों की कुछ प्रजातियां गंवा भी देते हैं, तो दीवार से महज़ कुछ र्इंटें गुम होंगी, दीवार तो फिर भी खड़ी रहेगी। परंतु यदि अधिकाधिक जानवर विलुप्त होते जाएंगे, तो पूरी दीवार भी दरक सकती है। सवाल है कि र्इंटों को हटा कौन रहा है?

व्यापक जैविक विलोपन ऐसी वैश्विक घटना को कहते हैं जिसके दौरान पृथ्वी के 75 प्रतिशत से अधिक वन्य जीव विलुप्त हो जाते हैं। पिछले 50 करोड़ वर्षों में, इस तरह के व्यापक विलोपन की पांच घटनाएं हुई हैं। इनमें से सबसे हालिया विलोपन ने डायनासौर को हमेशा के लिए खत्म कर दिया था। लेकिन कितने लोग यह जानते हैं कि हाल ही में किए गए कई शोध अध्ययनों ने समय-समय पर यह दावा किया है कि पृथ्वी एक और व्यापक विलोपन घटना की गिरफ्त में है: छठा व्यापक विलोपन।

दरअसल, पिछले 100 वर्षों में, रीढ़धारी प्राणियों की 200 प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। प्रजातियों के विलुप्त होने की यह दर (प्रति वर्ष 2 प्रजातियां), आपको शायद मामूली लगे और शायद चिंता का विषय भी न हो। शायद आप कहें कि जीव तो हर समय विलुप्त होते रहते हैं, यह तो प्रकृति का तरीका है। लेकिन पिछले बीस लाख वर्षों में विलोपन की दर को देखें तो 200 प्रजातियों को विलुप्त होने में सौ नहीं बल्कि दस हज़ार साल लगना चाहिए थे। दूसरे शब्दों में, विलुप्त होने की दर पहले के युगों की तुलना में पिछले मात्र 100 वर्षों लगभग 100 गुना बढ़ गई है।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ जर्नल में हाल ही में प्रकाशित एक शोध आलेख छठे व्यापक विलोपन के अपने दावों के साथ एक कदम और आगे बढ़ता है।

यह अध्ययन बताता है कि न केवल छठा व्यापक विलोपन एक वास्तविकता है, बल्कि इसके परिणाम हमारे सोच से कहीं अधिक गंभीर होंगे। इसके अलावा यह अध्ययन इसके लिए पूरी तरह मनुष्यों को ज़िम्मेदार ठहराता है। यह काफी दिलचस्प बात है कि पहला व्यापक विलोपन, जो मनुष्य के अस्तित्व में आने से बहुत पहले हुआ था, वह भी उल्काओं की बौछार या ज्वालामुखी विस्फोटों के कारण नहीं बल्कि जीवों के द्वारा ही हुआ था।

अपने शोध पत्र में लेखक – गेरार्डो सेबालोस, पॉल आर. एह्यलिच, रोडोल्फो दिर्ज़ो लिखते हैं कि “पिछले कुछ दशकों में, प्राकृतवासों की हानि, अतिदोहन, घुसपैठी जीव, प्रदूषण, विषाक्तता, और हाल ही में जलवायु की गड़बड़ी, तथा इन कारकों के बीच परस्पर क्रियाएं आम एवं दुर्लभ कशेरुकी आबादियों की संख्या और उनके आकार दोनों में भयावह गिरावट का कारण बनी है।” इसके अलावा, अध्ययन के अनुसार, पिछले सौ वर्षों में, “हमारे साथ पृथ्वी पर रहने वाले रीढ़धारी जीवों की 50 प्रतिशत संख्या खत्म हो चुकी है”, और इस तरह से जीवों की आबादी का ऐसा भयावह पतन इस ओर संकेत देता है कि छठा व्यापक विलोपन शुरू हो चुका है।

लेकिन इस व्यापक विलोपन के कारण यदि 75 प्रतिशत से अधिक जीव भी खत्म हो जाएं मनुष्य होने के नाते  हम क्यों परवाह करें? क्योंकि पारिस्थितिक तंत्र में विभिन्न जीव एक दूसरे पर निर्भर हैं, शृंखला प्रभाव की तरह मनुष्यों पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

उदाहरण के लिए, कीट-पतंगों को ही लीजिए। पर्यावरण कीटों की अनुपस्थिति के अनुकूल हो पाए यदि उससे पहले ही कीटों की हज़ारों प्रजातियां विलुप्त हो जाएं, तो पेड़ों की हज़ारों प्रजातियां भी गायब हो जाएंगी, क्योंकि पेड़ों की कई प्रजातियां परागण के लिए कीटों पर निर्भर होती हैं। अगर पेड़ गायब हो जाते हैं, तो मानव जाति के लिए यह मौत की दस्तक होगी। हमारी धरती की हवा गंदी और ज़हरीली तो होगी ही, पृथ्वी का तापमान कई डिग्री बढ़ जाएगा। भू-क्षरण की दर बढ़ेगी जिससे कृषि योग्य भूमि का नुकसान होगा। वर्षा गंभीर रूप से प्रभावित होगी, जिसके फलस्वरूप मीठे पानी के स्रोतों की गुणवत्ता पर भी असर होगा। निश्चित रूप से, मानव पर नकारात्मक वार होगा।

यह देखते हुए कि यह बड़े पैमाने का विलोपन मानव अस्तित्व के लिए एक वास्तविक खतरा साबित हो सकता है, यह काफी निराशाजनक है कि इस विलोपन के प्राथमिक कारण – यानी हम – इससे बेखबर हैं। इसकी ओर ध्यान न देने के दो कारण हैं।

पहला कारण है, औसतन हर साल गायब होने वाली दो प्रजातियां ऐसी होती हैं जो या तो हमारे लिए आकर्षक नहीं हैं (शेर की तरह आकर्षक नहीं हैं) या दुनिया के अलग-थलग कोनों में रहती हैं, इसलिए हम उस नुकसान को महसूस नहीं करते हैं।

उदाहरण के लिए, क्या आपने कैटरीना पपफिश का नाम सुना है? या क्रिसमस आइलैंड पिपिस्ट्रेल का? या पायरेनियन आइबेक्स का? हाल ही के दिनों में ये तीनों प्रजातियां हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी हैं, लेकिन हममें से कितने लोग इस तथ्य से अवगत हैं?

विलोपन के खतरे की सूचना से हमें अनभिज्ञ रखने वाला दूसरा कारण यह है कि पृथ्वी के वन्य जीवन के स्वास्थ्य का आकलन करने हेतु शोध अध्ययनों का पूरा ध्यान केवल ‘अंतिम बिंदु’ पर रहा है – यानी जीवों की प्रजातियों का पूरी तरह विलुप्त हो जाना। और वर्तमान अध्ययन यही बताता है कि ‘अंतिम बिंदु’ आधारित उन अध्ययनों ने व्यापक विलोपन के परिमाण को कम करके आंका है। अगले हिस्से में इस बात को विस्तार में स्पष्ट किया गया है।

तर्क को आगे बढ़ाने के लिए, एक जीव प्रजाति ‘X’ पर विचार करते हैं। यह जीव ‘X’ एशिया के पंद्रह अलग-अलग देशों में फैला हुआ है। दूसरे शब्दों में, इस जीव की ‘वैश्विक आबादी’ पंद्रह अलग-अलग देशों में फैली हुई ‘स्थानीय आबादियों’ से मिलकर बनी है। किसी भी देश में, इस जीव की स्थानीय आबादी में एक निश्चित संख्या में जीव होंगे; किसी अन्य देश में एक निश्चित संख्या की स्थानीय आबादी होगी, और इसी तरह सब देशों में अलग अलग स्थानीय आबादियां होंगी।

मान लीजिए, एक साल के बाद, पंद्रह स्थानीय आबादियों में से चौदह खत्म हो जाती हैं और केवल एक अंतिम स्थानीय आबादी बची रह जाती है।

ऐसे परिदृश्य में, अगर हम केवल ‘अंतिम बिंदु’ – यानी इस जीव प्रजाति का पूर्ण विलोपन – पर ध्यान केंद्रित करेंगे, तो हर साल हम जीव ‘X’ के सामने एक टिक मार्क लगाकर इसे ‘विलुप्त नहीं’ की श्रेणी में डाल देंगे क्योंकि एक स्थानीय आबादी तो बची हुई है।

‘विलुप्त’ या ‘विलुप्त नहीं’ का यह सख्त विभाजन जंगल में उपस्थित किसी प्रजाति के वास्तविक स्वास्थ्य को समझने का एक अपरिष्कृत तरीका है। इस मामले में, उदाहरण के लिए, केवल जीव ‘X’ को ‘विलुप्त नहीं’ के रूप में अंकित करके, हम जीव ‘X’ की सोचनीय स्थिति जैसी महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करने में विफल हो जाते हैं। इसकी स्थानीय आबादियों की संख्या में भारी गिरावट आई है। इस काल्पनिक परिदृश्य में यह संख्या 15 से घटकर एक तक आ पहुंची है। अर्थात व्यापक विलोपन को कम करके आंका जा रहा है।

इसलिए, वर्तमान अध्ययन के अनुसार, वर्तमान व्यापक विलोपन की घटना का सही अनुमान लगाने के लिए, यह ज़रूरी है कि प्रजातियों की स्थानीय आबादियों के विलुप्त होने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाए, न कि केवल वैश्विक विलुप्ति पर। कोई जीव जीवित है इसका मतलब यह नहीं कि वह फल-फूल रहा है।

पिछले सभी अध्ययनों में इसी दोषपूर्ण रास्ते को अपनाया गया है जिनमें केवल ‘अंतिम बिंदु’ पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। इस प्रकार ये अध्ययन इस गलतफहमी के शिकार हैं कि जैव विविधता के नुकसान का दौर शुरू ही हो रहा है, और मानव जाति के पास इसका मुकाबला करने के लिए कई दशकों का समय उपलब्ध है। विलुप्त होने की दर केवल दो जीव प्रति वर्ष ही तो है। लेकिन वर्तमान अध्ययन इसका ज़ोरदार विरोध करता है: “हम इस बात पर ज़ोर देते हैं कि छठा सामूहिक विलोपन शुरू हो चुका है और प्रभावी कार्रवाई के लिए वक्त बहुत कम है, शायद दो या तीन दशक।” शायद, इससे भी कम।

बेशक, यह कहना सही नहीं है कि मानव जाति कुछ दशकों के भीतर विलुप्त हो जाएगी; लेकिन अगर हमने अभी कार्य करना शुरू नहीं किया तो यह व्यापक विलोपन दो या तीन दशकों के भीतर अपरिवर्तनीय साबित होगा। नतीजतन, इसके साथ ही मानव जाति के विलोपन की संभावना शुरू हो जाएगी।  

इस तरह के मज़बूत दावे का समर्थन करने के लिए, यह अध्ययन एक नए दृष्टिकोण का अनुसरण करता है। पूर्व अध्ययनों के विपरीत, यह दो महत्वपूर्ण कारकों को ध्यान में रखता है जो ‘अंतिम बिंदु’ – अर्थात किसी जीव प्रजाति के संपूर्ण वैश्विक विलोपन – से ठीक पहले सामने आते हैं। पहला है, जैसा कि ऊपर कहा गया, पिछले सौ वर्षों में विभिन्न जीव प्रजातियों की स्थानीय आबादियों में कमी। दूसरा है, इसी अवधि में उनके भौगोलिक आवास में कमी। (नोट: इस अध्ययन के लिए, 27,600 कशेरुकी जीवों की स्थानीय आबादियों पर ध्यान दिया गया, जो दुनिया की कुल लगभग 87 लाख जीव प्रजातियों का एक छोटा-सा अंश है।)

अध्ययन बताता है कि पिछले सौ वर्षों में विभिन्न जानवरों की एक अरब स्थानीय आबादियां विलुप्त हो चुकी हैं। जी हां, एक अरब। इसका मतलब यह नहीं है कि दुनिया में एक अरब जीव प्रजातियां विश्व स्तर पर पूरी तरह से विलुप्त हो चुकी हैं, बल्कि यह है कि विभिन्न प्रजातियों की कुल एक अरब स्थानीय आबादियां दुनिया के कुछ क्षेत्रों में हमेशा के लिए खत्म हो गई है, जबकि ये जीव अभी भी दुनिया के अन्य क्षेत्रों में मौजूद है। अर्थात, इन प्रजातियों का ‘स्थानीय’ विलोपन हुआ है।

उदाहरण के लिए, एक समय में एशियाई शेर की हज़ारों स्थानीय आबादियां पूरे भारत में पाई जाती थी। लेकिन समय के साथ, ये सभी स्थानीय आबादियां, अन्य जीवों की एक अरब स्थानीय आबादियों के साथ विलुप्त हो गर्इं। आज, एशियाई शेरों की अंतिम कुछेक स्थानीय आबादियां गुजरात में एक अलग-थलग भाग (गिर वन) में पाई जाती है। जब ये चंद अंतिम स्थानीय आबादियां विलुप्त हो जाएंगी, तो एशियाई शेर को ‘विश्व स्तर पर विलुप्त’ घोषित कर दिया जाएगा। तब यह विश्व में कहीं भी नहीं पाया जाएगा। 

अध्ययन एक और विचलित करने वाला तथ्य बताता है।

पिछले सौ वर्षों में, पृथ्वी की रीढ़धारी प्रजातियों में से 32 प्रतिशत की आबादी के आकार और भौगोलिक विस्तार में कमी आई है। अध्ययन में विश्लेषण किए गए सभी 177 स्तनधारियों ने अपने भौगोलिक क्षेत्रों का 30 प्रतिशत या उससे अधिक हिस्सा खो दिया है। और 40 प्रतिशत से अधिक प्रजातियों की सीमा 80 प्रतिशत से अधिक घट गई है। और तो और, जीवों की जिन प्रजातियां को ‘कम चिंता’ की श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है, वे भी इसी तरह के संकटों से पीड़ित हैं और लगातार ‘लुप्तप्राय’ श्रेणी की ओर बढ़ रही हैं।

“हमारा डैटा बताता है कि प्रजातियों के विलुप्त होने से परे, पृथ्वी स्थानीय आबादियों में गिरावट और विलुप्त होने की एक विशाल घटना का सामना कर रही है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र के कार्य और सेवाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। यह पारिस्थितिकी तंत्र सभ्यता को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण होता है। अंतत: मानवता इस ब्राहृाण्ड में जीवन के एकमात्र समुच्चय के उन्मूलन की बहुत बड़ी कीमत चुकाएगी।”

इसलिए, भले ही विश्व स्तर पर हर साल ‘मात्र दो’ प्रजातियां विलुप्त हो रही हों, यह ‘मात्र दो’ की संख्या दुनिया भर में विभिन्न जीव प्रजातियों की सैकड़ों-हज़ारों स्थानीय आबादियों के कठोर और व्यापक विलोप का संकेत देती है। आखिरकार, इस तरह स्थानीय आबादियों और प्राकृतवासों का नुकसान कुछ ही समय में हज़ारों जीव प्रजातियों के वैश्विक विलोप का कारण बन जाएगा: जिसको व्यापक विलोपन कहते हैं।

तो, हम स्थानीय आबादियों के विलोपन की इस लहर का मुकाबला कैसे करें और छठे सामूहिक विलोपन को कैसे रोकें?

इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए चाहें तो वन्य जीव संरक्षण कार्यक्रमों, लोक निकायों, राष्ट्रीय नीतियों, अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी वगैरह की बात कर सकते हैं। लेकिन इस सवाल का असली जवाब वह है जो हम – और हाई स्कूल का कोई भी छात्र – लंबे समय से जानते हैं। यह एक ऐसा जवाब है जिसे इतनी बार दोहराया गया है कि ऐसा लगता है कि इसकी धार बोथरी हो गई है: उपभोग में कमी करें, जनसंख्या पर लगाम कसें।

हालांकि, अध्ययन के नापसंद दावों को देखते हुए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कई वैज्ञानिकों ने इसके निष्कर्षों पर सवाल उठाए हैं।

इन वैज्ञानिकों को लगता है कि यह अध्ययन फालतू में ‘भेड़िया आया, भेड़िया आया’ का शोर मचाने जैसा है, क्योंकि व्यापक विलुप्ति की घटनाओं के इरादे कहीं अधिक सख्त होते हैं। इन शंकालुओं का मानना है कि व्यापक विलुप्ति की घटनाएं लाखों वर्षों में सामने आती हैं। इसलिए यह मान लेना जल्दबाज़ी होगी कि पानी सिर से ऊपर जा चुका है। आखिरकार इस अध्ययन में मात्र पिछले 100 वर्षों में केवल रीढ़धारी जीवों की विलुप्ति की संख्या पर ही तो विचार किया गया है। यह अवधि पिछले बड़े पैमाने पर विलोपन घटनाओं की तुलना में पलक झपकाने जैसी है। कीटों और अन्य गैर-कशेरुकी जीवों का क्या? केवल 27,600 कशेरुकी जीवों पर ध्यान केंद्रित करके (जो कुल 87 लाख जीव प्रजातियों का अंश-मात्र है) यह अध्ययन व्यापक विलुप्ति की घटना की एक ऐसी तस्वीर खींचता है जो वास्तविकता से कहीं अधिक गंभीर और अतिरंजित बन गई है।

इसके अलावा, एक यह तर्क भी दिया जा सकता है कि विलोपन के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए मनुष्य नामक प्राणि कोई न कोई समाधान खोज निकालेगा। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, यह ध्यान रखना समझदारी होगी कि जैविक व्यापक विलोपन की घटना अचानक होने वाली घटना नहीं है जो पूरी मानव जाति को एक झपट्टा मारकर समाप्त कर देगी। यह सही है कि ऐसी घटना के दौरान अल्पावधि में हज़ारों जीव प्रजातियां उच्च दर से विलुप्त हो जाती हैं, लेकिन यह अल्पावधि लाखों वर्षों में फैली होती है। यह लंबी अल्पावधि मनुष्य को पेड़ों में परागण के लिए रोबोट विकसित करने के लिए पर्याप्त हो सकती है। उसी तरह यदि विश्व के मत्स्य भंडार प्रभावित होते हैं, तो यह अल्पावधि कृत्रिम मांस तैयार करने के लिए काफी है। यहां तक कि ऐसी प्रौद्योगिकियों का निर्माण करने के लिए भी यह पर्याप्त समय हो सकता है, जिससे विलुप्त पेड़-पौधों की नकल कर वायुमंडलीय ऑक्सीजन और अन्य गैसों की निश्चित मात्रा को बरकरार रखा जा सके। तब तक, हम अन्य ग्रहों पर बस ही चुके होंगे। तो, व्यापक विलोपन का खतरा उतना बुरा नहीं हो सकता है जितना लगता है, कम से कम मनुष्यों के लिए तो नहीं।

फिर भी, यह अध्ययन दावा करता है कि अगर हम अभी, दो या तीन दशकों के अंदर, कार्रवाई नहीं करते हैं तो सामूहिक विलोपन स्थायी होगा। नतीजतन, स्थानीय आबादियों के विलुप्त होने की दर कैंसर की तरह बढ़ सकती है। इसके परिणामस्वरूप जैव विविधता में गिरावट आएगी और मानव अस्तित्व के लिए खतरा पैदा हो जाएगा।

लेकिन क्या जैव विविधता में गिरावट हमारे तकनीकी विकास को पछाड़ देगी? खतरे की घंटी बजाने से पहले इस सवाल पर विचार करना ज़रूरी है।

फिर भी, मैं कहना चाहूंगा कि हमने पिछले सौ वर्षों में 50 प्रतिशत कशेरुकी जीवों का सफाया तो कर दिया है, अगर अब कुछ नहीं किया गया तो हम जल्द ही बचे हुए 50 प्रतिशत को भी खो सकते हैं। व्यक्तिगत रूप से, विलुप्त होने की गति को देखते हुए, मेरे मन में सवाल आता है कि क्या मानव के पास, प्रौद्योगिकी या अन्य माध्यम से, इसका सामना करने के लिए पर्याप्त समय होगा। इसके अलावा, जैव विविधता के नुकसान की ऐसी दर पहले हो चुकी विलोपन की घटनाओं से कहीं अधिक विनाशकारी साबित हो सकती है।

मेरे साथ बातचीत के दौरान अध्ययन के प्रमुख लेखक गेरार्डो सेबलोस ने कहा था कि ‘इससे यह और भी ज़रूरी हो जाता है। पिछले सभी व्यापक विलोपन की घटनाएं लाखों वर्षों में फैली हुई थीं, लेकिन वर्तमान व्यापक विलोपन केवल कुछ सौ वर्षों में फैला हुआ है!’

उन्होंने बात को जारी रखते हुए कहा: ‘और आप कितना संदेह करेंगे? मैं केवल दो वैज्ञानिकों को जानता हूं जो कहते हैं कि छठा व्यापक विलोपन कुछ नहीं है। अगर हम अगले दो या तीन दशकों के भीतर इस व्यापक विलोपन की घटना पर कोई कार्रवाई नहीं करते हैं, तो हमारा विनाश निश्चित और पूर्ण होगा। वास्तव में, इस बात में क्या तुक है कि आप व्यापक विलोपन के और गंभीर होने की प्रतीक्षा करें ताकि आपको यकीन हो जाए कि व्यापक विलोपन सचमुच हो रहा है? उस समय तक कुछ भी करने का समय बीत चुका होगा। विलोपन की प्रतीक्षा करना और फिर कहना कि ‘अरे, यह तो वास्तव में हो गया’ बेकार है, क्योंकि तब तक हम जा चुके होंगे। हमको कोई कदम उठाना चाहिए। अभी।’ (स्रोत फीचर्स)

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दृष्टिबाधितों की सेवा में विज्ञान – नवनीत कुमार गुप्ता

दृष्टिबाधितों को जीवन में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। दुनिया के लगभग चार करोड़ नेत्रहीनों में से डेढ़ करोड़ भारत में रहते हैं। दृष्टिहीन होने का तात्पर्य सामान्यतया देख सकने में पूरी तरह असमर्थता है। हालांकि दृष्टिहीनता में देख सकने की क्षमता के विभिन्न स्तर और कभी-कभी भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में शामिल होते हैं।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ऐसे कार्य हो रहे हैं जो दृष्टिबाधितों के जीवन के लिए सहायक साबित हो रहे हैं। यहां दो ऐसी ही प्रौद्योगिकियों की चर्चा की जा रही है।

डॉटबुक

आधुनिक समय में दृष्टिबाधितों के समक्ष एक बड़ी चुनौती कंप्यूटर या लैपटॉप तथा उनके ज़रिए इंटरनेट जैसी सुविधाओं का इस्तेमाल करना है। दृष्टिबाधितों को ये सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए आई.आई.टी., दिल्ली ने कुछ अन्य संस्थाओं की मदद से भारत का पहला ब्रोल लैपटॉप (डॉटबुक) आरम्भ किया है। इस उपकरण में उभरे हुए डॉट के रूप में ब्रोल लिपि है।

दृष्टिबाधितों के सशक्तिकरण के लिए उनमें स्वयं सीखने की क्षमता विकसित करना आवश्यक है, जिसमें ब्रोल लिपि काफी मददगार है। डॉटबुक पढ़ने, लिखने, सुनने, ब्रााउज़ करने तथा विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आंकड़ों का संपादन करने में सक्षम है। इसे लैपटॉप, कंप्यूटर, वेब, मोबाइल के तार, वाईफाई तथा ब्लूटूथ के साथ भी जोड़ा जा सकता है। डॉटबुक स्कूलों, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में लोगों को आवश्यक सामग्रियां उपलब्ध कराएगा। डॉटबुक  के द्वारा स्कूली छात्रों को डिजिटल रूप में नोट्स उपलब्ध होंगे। ब्रोल लिपि के ऑनलाइन रुाोेतों के द्वारा पुस्तकें भी डाउनलोड की जा सकती हैं।

टीम ने देश भर के 10 से अधिक स्थलों पर विभिन्न संगठनों के 200 उपयोगकर्ताओं के साथ इसका अध्ययन किया है। इसने ऐसे लोगों के लिए दुनिया के साथ आसान संचार का रास्ता खोल दिया है, जो ब्रोल लिपि में लिख-पढ़ सकते हैं।

दिव्य नयन

चंडीगढ़ स्थित सीएसआईआर के केंद्रीय वैज्ञानिक उपकरण संगठन द्वारा दिव्य नयन नामक एक उपकरण विकसित किया गया है जिसकी मदद से दृष्टिहीन व्यक्ति भी पढ़ सकेंगे। दिव्य नयन यानी हैंड-हेल्ड स्टेप स्कैनिंग डिवाइस (एचएचएसएस)। यह ‘बोलने वाली आंखों’ की तरह काम करता है।

एचएचएसएस एक हस्तधारित उपकरण है जिसमें कोई भी गतिशील पुर्जा नहीं है, जिससे यह काफी हल्का होता है और उपयोग के लिए आसान हो जाता है। यह किसी पुस्तक के आकार का एक फील्ड व्यू प्रदान करता है।

यह उपकरण स्टैंड अलोन, पोर्टेबल और पूरी तरह से तार रहित है और आईओटी सक्षम है। वर्तमान में यह हिंदी और अंग्रेज़ी में उपलब्ध है, लेकिन अन्य भारतीय और विदेशी भाषाओं के लिए भी अनुकूल है। इस उपकरण में 32 जीबी का इंटरनल स्टोरेज है, यह वायरलेस कम्युनिकेशन फीचर से सुसज्जित है। विभिन्न संस्थानों और गैर सरकारी संगठनों में दिव्य नयन का सफल परीक्षण आयोजित किया गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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