एक महिला स्विट्जरलैंड की सीमा शुल्क चौकी पर एक छोटा-सा सूटकेस तथा प्लास्टिक की बर्फपेटी लिए कतार में लगी थी। सीमा शुल्क अधिकारी ने पूछा कि इस पेटी में क्या है? उसे लगा था कि उसमें कोई फ्रांसीसी व्यंजन है जो वह दोस्तों के लिए ले जा रही है।
लेकिन उत्तर मिला, ‘खून’। अधिकारी चौंक गया, ‘खून?’ महिला ने स्पष्ट किया कि बर्फपेटी में स्वयं उसके खून की तीन थैलियां बर्फ में दबाकर रखी हैं जो पेरिस के ब्रूसे अस्पताल में पिछले तीन सप्ताह में उसके शरीर से निकाला गया था। कल यही खून लौसाने स्थित एक अस्पताल में उसकी ह्मदय की बायपास सर्जरी के बाद उसे ही चढ़ा दिया जाएगा। सर्जन वहां सर्जरी के दौरान निकले खून को सोखने तथा शोधन के लिए सेल वॉशर का भी उपयोग करते थे। इस प्रकार, सर्जरी के दौरान व बाद में उसे अपना ही खून दिया जाने वाला था ताकि एड्स या हेपेटाइटिस का कोई जोखिम न रहे।
अध्ययन दर्शाते हैं कि दान किए गए खून में एड्स वायरस (एचआईवी) मिलावट की संभावना बनी रहती है, भले यह अत्यल्प है। जॉर्जिया के अटलांटा स्थित अमरीकी रोग नियंत्रण केंद्र के अनुसार दान किए गए खून द्वारा या किसी ओर का खून चढ़ाए जाने के कारण अमरीका में 1985 से अब तक प्रति वर्ष लगभग 460 व्यक्ति एड्स वायरस से संक्रमित होते रहे हैं। प्रसंगवश, इसी वर्ष दान में आए खून की एड्स सम्बंधी जांच अनिवार्य की गई थी।
वैसे शल्य चिकित्सा के अधिकांश मामलों में खून चढ़ाने की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन कई सर्जरी के दौरान अत्यधिक खून बह सकता है। जैसे बायपास सर्जरी में 2 से 4.7 लीटर तक खून बह सकता है जो औसत वयस्क व्यक्ति के कुल खून का आधा है। इस कमी को पूरा करने की तत्काल आवश्यकता होती है वरना रोगी गहरे आघात वाली स्थिति में पहुंच सकता है तथा उसकी मृत्यु भी हो सकती है।
पहले कुछ ही रोगी पर-रक्ताधान (किसी अन्य का खून लेना) के खतरों के प्रति चिंतित रहा करते थे। उदाहरण के लिए, एक पोत के सेवानिवृत्त कप्तान राइटेर को 1980 में न्यूयॉर्क के अस्पताल में कूल्हा बदलवाना पड़ा। वह जानता था कि इस प्रक्रिया में उसे अत्यधिक खून गंवाना पड़ेगा, लेकिन वह यह भी जानता था कि खून की कमी की पूर्ति किसी रक्तदान केंद्र से सही ग्रुप के खून से कर दी जाएगी। पर न तो राइटेर और न ही उसके चिकित्सक वाकिफ थे कि ऐसे खून की एक-एक बूंद खतरे का कारण बन सकती है। इसके कुछ वर्षों बाद ही चिकित्सा क्षेत्र में यह जागरूकता आई कि एड्स का वायरस खून से भी एक से दूसरे तक पहुंचता है। तो अत्यधिक विश्वसनीय एवं जीवन रक्षक उपचार अचानक जोखिम से घिर गया।
खैर, राइटेर में तो कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं हुआ किंतु 1979 से 1985 में पर-रक्त प्राप्त करने वाले अन्य सभी लोग इतने भाग्यशाली न थे। अध्ययनों के अनुसार, जिन रोगियों को 80 के दशक के शुरू में पर-रक्त चढ़ाया गया था, उनमें से लगभग 5 से 6 प्रतिशत एड्स के संपर्क में आ गए, तथा 5 से 17 प्रतिशत हेपेटाइटिस-सी के विषाणुओं से संक्रमित हो गए।
पर-रक्त की सर्वथा निरापद आपूर्ति असंभव है। यद्यपि दान में आए रक्त में एचवाईवी की उपस्थिति की जांच अधिकतर देशों में अनिवार्य हो गई है, लेकिन वायरस आरंभिक अवस्था में हो तो वे पकड़ में नहीं आते हैं। अमरीकी रोग नियंत्रण केंद्रों के अनुसार सर्जरी में रोगी को 5 युनिट पर-रक्त देने पर एड्स विषाणु से संक्रमित होने की संभावना दस हज़ार में एक को होती है।
अत: पूर्णत: निरापद रूप से रक्त चढ़ाना हो तो इसका उपाय यही है कि रक्त स्वयं आपका ही हो। सर्जरी के अधिकतर मामलों में रक्तदान सर्जरी से तीन सप्ताह पहले शुरू कर दिया जाता है तथा सामान्यत: रक्त को संपूर्ण अथवा प्राकृतिक अवस्था में किसी आम रेफ्रिजरेटर में रख दिया जाता है। हां, रक्त ज़्यादा बह जाने की आशंका हो तो रक्तदान शल्य चिकित्सा से कई माह पहले भी शुरू हो सकता है। ऐसे में रक्त कोशिकाओं, जिन्हें केवल पांच सप्ताह तक सुरक्षित रखा जा सकता है, को अलग कर लिया जाता है तथा रोगी को चढ़ा दिया जाता है। शेष तरल रक्त प्लाज़्मा को शून्य से 56 डिग्री सेल्सियस कम तापमान पर एकदम से जमा कर फ्रीजर में रख दिया जाता है। इस अवस्था में इसे दो से तीन वर्षों तक अच्छी दशा में यथावत रखा जा सकता है।
घालमेल से बचने के लिए थैलियों पर पर्चियां लगा दी जाती हैं। अक्सर कंप्यूटर द्वारा पठनीय लिपि कोड तक संलग्न होता है जिसमें रोगी का नाम, खून का वर्ग, पहचान संख्या तथा आंकडे होते हैं। अतिरिक्त स्वरक्त चाहिए हो तो शल्य क्रिया के ठीक पहले लाल रक्त कोशिका के अनुपात में प्लाज़्मा चढ़ाया जाता है। इस तकनीक को रक्त तनुकरण कहा जाता है।
स्वरक्ताधान को महत्वपूर्ण तकनीकी बढ़ावा छोटे आकार के सेंट्रिफ्यूज जैसे यंत्र से मिला है जिसे सेल वॉशर कहते हैं। इससे सर्जरी के दौरान तथा बाद में बहे रक्त का उपयोग शोधन के बाद कर लिया जाता है। उदाहरण के लिए जब राइटेर ही दूसरी बाद कूल्हा बदलवाने के लिए गया तो उसके घावों से बहते खून को ‘नली’ द्वारा चूसकर ऑपरेशन की मेज़ के पास लगे सेल वॉशर में पहुंचा दिया गया।
इसके साथ ही साथ डॉक्टरों द्वारा अलग किए गए रक्त से भरे पतले स्पंजों को इकट्ठा कर चीनी मिट्टी के पात्र में निचोड़ा जाता है तथा रक्त की छोटी मात्रा को उसी नली का प्रयोग कर चूस लिया जाता है।
शल्य क्रिया के दौरान रक्त शोधन का दोहरा लाभ है। वॉशर लाल रक्त कोशिकाओं को पुन: चढ़ाए जाने के लिए 3 से 7 मिनटों में तैयार कर देता है और रोगी के अपने रक्त का प्रयोग होने के कारण रक्त के बेमेल होने, संक्रमित होने तथा एलर्जी होने के जोखिम समाप्त हो जाते हैं। राइटेर के मामले में सर्जरी के दौरान बहे रक्त का लगभग 75 प्रतिशत वॉशर द्वारा फिर से प्राप्त कर लिया गया। 4 युनिट रक्त सर्जरी से पहले निकाला गया था वह बाद में उसे चढ़ा दिया गया।
यद्यपि ऐसे कई उदाहरण भी हैं जहां स्वरक्ताधान न तो संगत है, न ही अनुमोदनीय। उदाहरण के लिए कैंसर सर्जरी में रोगी का अपना रक्त शरीर के अन्य भागों में भी कैंसर को फैला देगा। फिर आपात सर्जरी के पहले से रक्तदान के लिए समय नहीं होता तथा हो सकता है कि अस्पताल में वॉशर न हो। फिर दुर्घटना में घायल रोगी के अपने खून का बड़ा हिस्सा दुर्घटनास्थल पर ही बह चुका होता है तथा दुर्बल तथा खून की कमी से ग्रस्त रोगी के मामले में स्वरक्तदान उसकी दशा और भी बिगाड़ सकते हैं। ऐसे मामलों में पररक्त के अलावा और कोई चारा नहीं है।
लेकिन ऐसे प्रत्येक रोगी को, जो स्वैच्छिक शल्य चिकित्सा करवाने जा रहा है, स्वरक्ताधान का विकल्प प्रस्तुत क्यों नहीं किया जाता है? एक कारण है धन। फ्रांस में ही वॉशर की कीमत लगभग 2 लाख यूरो है तथा रक्तदान केंद्रों द्वारा संशोधित रक्त का प्रयोग करना लगभग तीन गुना महंगा पड़ता है। इसी के परिणामस्वरूप अधिकतर अस्पताल मानते भी हैं कि दान किए गए पररक्त द्वारा एड्स तथा यकृतशोथ के संक्रमण होने के छोटे से जोखिम को देखते हुए ऐसी महंगी व्यवस्था तर्कसंगत नहीं है।
अपने रक्त की पर्याप्त आपूर्ति की सुनिश्चितता के लिए अस्पताल से दूर रहने वाले स्वैच्छिक रोगी अपने इलाके में भी स्वरक्तदान की व्यवस्था कर सकते हैं तथा रक्त को अपने साथ कहीं भी लाया ले जाया जा सकता है या विमान से भी भेजा जा सकता है। एक से दूसरे अस्पताल तथा एक से दूसरे देश के नियम पृथक होते हैं, इसलिए रोगी को पहले से ही रक्तदान और रक्ताधान के विषय में पूछताछ कर लेनी चाहिए। स्वरक्तदान द्वारा अब कम से कम दो घातक रोगों से बचने का उपाय उपलब्ध हो गया है। इसलिए सबसे निरापद यही है कि आप बन सकते हैं तो अपने खुद के रक्तदाता बनिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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