याददाश्त से जुड़ी समस्याओं में व्यायाम मददगार – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पिछले 30 सालों में भारतीय लोगों की औसत आयु बढ़ी है। 1960 में भारतीय लोगों की औसत आयु 41 वर्ष थी जो 2015 में बढ़कर 68 वर्ष हो गई। उम्र लम्बी होने के साथ उम्र से जुड़ी शारीरिक और मानसिक समस्याएं भी आती हैं। इनके बारे में सचेत होने और उनका हल ढूंढने की ज़रूरत है। औसत आयु में वृद्धि के साथ-साथ स्मृतिलोप (डिमेंशिया) की समस्या भी बढ़ी है। धीरे-धीरे याददाश्त जाना और संज्ञानात्मक क्षमता में कमी स्मृतिलोप की समस्या पैदा करते हैं। अनुमान है कि भारत में लगभग 40 लाख लोग स्मृतिलोप से पीड़ित हैं। इन 40 लाख लोगों में से लगभग 16 लाख लोग तो अल्ज़ाइमर से पीड़ित हैं। अल्ज़ाइमर एक तंत्रिका सम्बंधी विकार है। कुछ अन्य तरह के तंत्रिका विकार भी स्मृतिलोप को जन्म देते हैं।

उम्र बढ़ने के साथ हमारे मस्तिष्क में भी परिवर्तन आते हैं। हमारे मस्तिष्क का हिप्पोकैंपस नामक हिस्सा सीखने, स्मृतियां निर्मित करने और उन्हें सहेजने से जुड़े कार्यों के लिए ज़िम्मेदार होता है। मुश्किलें तब शुरू होती हैं जब हिप्पोकैंपस की तंत्रिका कोशिकाएं क्षतिग्रस्त होने लगती हैं या मरने लगती हैं। यदि इस हिस्से की सुरक्षा के और इन तंत्रिका कोशिकाओं को दुरुस्त करने के तरीके मिल जाएं तो इस समस्या से निजात मिल सकती है और संज्ञानात्मक क्षमता को सामान्य किया जा सकता है।

स्मृतिलोप किन कारणों से होता है? दुनिया भर में हुए कुछ शोध का निष्कर्ष था कि स्मृतिलोप के लिए कुछ हद तक APOE4 नामक रिस्क जीन और प्रेसिनिलीन ज़िम्मेदार है। किंतु सीसीएमबी हैदराबाद के डॉ. डी. चांडक और तिरुवनंतपुरम के डॉ. मथुरानाथ के आंकड़ों के मुताबिक APOE4 (और प्रेसिनिलीन) की भूमिका गंभीर समस्या पैदा करने में कम ही रही है। हालांकि आंकड़ों से यह भी लगता है कि देश भर में क्षेत्रीय अंतर भी हैं (जैसे, पंजाबी युनिवर्सिटी, पटियाला के डॉ. पी.पी. सिंह के आंकड़े)।

मस्तिष्क की इमेजिंग करने पर स्मृतिलोप का मुख्य कारण सामने आया है। ब्रेन इमेजिंग में पता चला है कि हिप्पोकैंपस और मस्तिष्क के कुछ अन्य हिस्से थोड़े टेढ़े या उलझे हुए हैं, और यहां प्लाक’ (अघुलनशील परत) जमा है। प्लाक मस्तिष्क की संकेत भेजने की प्रक्रिया में बाधा पहुंचाते हैं। (इसका पता सबसे पहले यूके में गायों को होने वाली बीमारी मेड काऊ में चला था। इन गायों को मांस के लिए पाला जाता था।)  कुछ अन्य का सुझाव है कि स्मृतिलोप के लिए ब्रेन डेराव्ड न्यूरोट्रॉपिक फैक्टर या BDNF नामक प्रोटीन ज़िम्मेदार है। जब BDNF का स्तर निश्चित सीमा से कम हो जाता है तो स्मृतिलोप होता है।

कई तरीकों से स्मृतिलोप को संभालने की कोशिश की गई है। इसके लिए लोगों को टीका भी दिया गया लेकिन सफल नहीं रहा, ना ही इम्यून थेरपी इसमें कारगर साबित हुई। नियमित शारीरिक व्यायाम से इसमें मदद मिलती दिखी है – शारीरिक व्यायाम और दिमागी व्यायाम के बीच कुछ तो सम्बंध है। काफी समय से माना जाता रहा है कि व्यायाम से नई तंत्रिका कोशिकाओं का निर्माण (न्यूरोजेनेसिस) शुरू होता है या तेज़ होता है। ठीक वैसे ही जैसे व्यायाम मांसपेशियों और ह्मदय की कोशिकाओं के निर्माण में मददगार होता है। इसी सम्बंध में हारवर्ड विश्वविद्यालय के डॉ. रुडोल्फ ई. तान्ज़ी और उनके समूह ने साइंस पत्रिका के सितंबर 2018 के अंक में एक नोट प्रकाशित किया है। अपने अनुसंधान में उन्होंने अल्ज़ाइमर से पीड़ित एक चूहे को मॉडल के तौर पर उपयोग किया था।

व्यायाम कैसे मदद करता है

दिमाग के हिप्पोकैंपस में न्यूरो-प्रोजेनिटर कोशिकाएं होती है जो नए न्यूरॉन्स बनाती रहती हैं। इस प्रक्रिया को एडल्ट हिप्पोकैंपल न्यूरोजिनेसिस (AHN) कहते हैं। अल्ज़ाइमर और अन्य स्मृतिलोप में नए न्यूरॉन्स बनाने (AHN) की यह प्रणाली बाधित हो जाती है। डॉ. रुडोल्फ और उनके साथियों ने अल्ज़ाइमर से पीड़ित चूहों को कुछ दिनों तक रोज़ाना 3 घंटे घूमते हुए चक्के पर दौड़ाया। इससे चूहों में AHN में वृद्धि हुई। इस शोध में डॉ. रुडोल्फ को कई सकारात्मक परिणाम मिले। पहला, चूहों में AHN बढ़ गया था और ज़्यादा तंत्रिका कोशिकाएं बनी देखी गर्इं। दूसरा, चूहों के मस्तिष्क में प्लाक कम हो गए थे। तीसरा, BDNF का स्तर बढ़ गया था। और चौथा, उनकी याददाश्त में सुधार देखने को मिला था। यानी व्यायाम स्मृतिलोप से ग्रस्त चूहों में समस्या को कम करता है, हिप्पोकैंपस में न्यूरॉन्स बढ़ाता है और याददाश्त दुरुस्त करता है।

व्यायाम और रसायन

यदि व्यायाम BDNF को बढ़ाकर AHN की प्रक्रिया तेज़ करता है, और विकार को कम करता है तो सवाल यह उठता है कि क्यों ना व्यायाम के स्थान पर बायोकेमिकल तरीके से उपचार किया जाए। बायोकेमिकल तरीके में BDNF के स्तर को बढ़ाने के लिए AICAR और P7C3 रसायनों को शरीर में इंजेक्शन की मदद से दिया जाता है। ये नए न्यूरॉन्स को जीवित रहने में मदद करते हैं। साइंस पत्रिका के उसी अंक में डॉ. रुडोल्फ के शोध कार्य पर डॉ. टैरा स्पायर्स जोन्स और डॉ. क्रेग रिची ने टिप्पणी की है। इसमें उन्होंने कहा है कि यह पर्चा इशारा करता है कि क्यों व्यायाम याददाश्त के लिए अच्छा है। (उन्होंने थोड़ा मज़ाकिया लहज़े में जोड़ा है कि शायद हम AICAR और P7C3 के रूप में व्यायाम के प्रभावों को शीशियों में बंद कर रहे हैं। यह उन लोगों के लिए है जो शारीरिक व्यायाम नहीं कर सकते, या कुछ आलसियों के लिए जो व्यायाम करना नहीं चाहते)। ध्यान देने वाली बात है कि चूहे लगातार कई दिन रोज़ाना 3 घंटे दौड़ते थे, यानी कसरत लगातार और नियमित तौर पर करने की ज़रूरत है। यानी सभी वरिष्ठ नागरिकों को जल्दी व्यायाम शुरू कर लेना चाहिए, हो सके तो चालीस की उम्र में। ये पूरे शरीर और दिमाग के लिए अच्छा होगा।

क्या ध्यान मददगार है

एक मान्यता यह भी है कि ध्यान संज्ञानात्मक क्षमता को बढ़ाता है और यह तंत्रिका-क्षति रोगों के लिए अच्छा है। हालांकि ना तो डॉ. रुडोल्फ के पेपर में और और ना ही पेपर के समीक्षकों ने ध्यान पर कोई टिप्पणी दी है।

फ्रंटियर्स इन बिहेवियरल न्यूरोसाइंस में प्रकाशित पर्चे में डॉ. मार्सिनिएक और साथियों ने ध्यान पर हुए कई अध्ययनों की समीक्षा की है – ध्यान से संज्ञानात्मक क्षमता बढ़ती है, साथ ही यह बुज़ुर्गों में संज्ञानात्मक कमी से बचाव के लिए एक अच्छा गैर-औषधीय उपचार हो सकता है। हालांकि ध्यान के अलग-अलग प्रकार (बौद्ध, ज़ेन, विहंग्य योग, कीर्तन क्रिया वगैरह) और उनमें भी विविधता होने के कारण इसकी भी कुछ सीमाए हैं। उनका कहना है कि इस क्षेत्र में और शोध से मदद मिलेगी और इसके समस्यामूलक पहलुओं को स्पष्ट किया जा सकेगा। मगर इसमें भी नियमितता और लंबी अवधि की ज़रूरत है; यह कोई एकबारगी किया जाने वाला उपचार नहीं है। भारतीय न्यूरोसाइंस विभाग कुछ प्रयोग कर सकते हैं जो इसके रासायनिक और कोशिकीय पहलुओं की पड़ताल कर सकते हैं।  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भटकती परमाणु घड़ी से आइंस्टाइन के सिद्धांत की पुष्टि

हाल ही में भौतिकीविदों की दो टीमों को अल्बर्ट आइंस्टाइन के गुरुत्वाकर्षण और सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत की पुष्टि करने के लिए एक अनोखा अवसर मिला। उन्होंने कक्षा से भटके हुए उपग्रहों के डैटा का उपयोग किया जिससे इस सिद्धांत की पुष्टि की जा सके कि पृथ्वी जैसे भारी पिंड के करीब समय की गति धीमी हो जाती है और दूर जाने पर तेज़ हो जाती है।

आइंस्टाइन के अनुसार, विशाल पिंड स्थान-काल में विकृति पैदा करते हैं जिसकी वजह से गुरुत्वाकर्षण पैदा होता है। मुक्त गिर रही वस्तुएं इस वक्राकार स्थान-काल में सबसे सीधे संभव रास्ते पर चलती हैं, जो हमें एक फेंकी हुई गेंद या किसी उपग्रह के गोलाकार या अंडाकार पथ के रूप में दिखाई देती हैं। इस विकृति के चलते किसी विशाल पिंड के पास तो समय की गति कम हो जाती है और दूर जाते-जाते अधिक होने लगती है। इस विचित्र प्रभाव की पुष्टि पहली बार 1959 में पृथ्वी पर एक कम सटीकता वाले प्रयोग से की गई थी और इसके बाद 1976 में ग्रेविटी प्रोब-ए द्वारा इसकी एक और बार पुष्टि की गई। इसमें 2 घंटे का प्रयोग किया गया था जिसमें एक परमाणु घड़ी रॉकेट पर थी और उसकी तुलना धरती पर रखी एक परमाणु घड़ी से की गई थी।

वर्ष 2014 में, वैज्ञानिकों को इस प्रभाव का परीक्षण करने का एक और मौका मिला। युरोप के गैलीलियो ग्लोबल नेविगेशन सिस्टम में 26 उपग्रहों में से दो उपग्रहों का अवलोकन किया गया। ये दोनों उपग्रह गलती से वृत्ताकार कक्षाओं की बजाय अंडाकार कक्षाओं में लॉन्च कर दिए गए थे। ये उपग्रह 13 घंटे की परिक्रमा में 8500 किलोमीटर ऊपर-नीचे होते हैं, जिससे इनका समय धीमा-तेज़ होता रहता है। प्रत्येक परिक्रमण के दौरान 10 अरब में लगभग एक अंश का अंतर पड़ता है। फिज़िकल रिव्यू लेटर्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दो टीमों ने इन अंतरों को ट्रैक किया और पहले की तुलना में 5 गुना ज़्यादा सटीकता से दर्शाया कि समय की गति में यह अंतर सामान्य सापेक्षता की भविष्यवाणियों के अनुरूप है।

ये परिणाम बुरे नहीं हैं क्योंकि ये दोनों उपग्रह इस तरह के परीक्षण के लिए भेजे ही नहीं गए थे। अलबत्ता, 2020 में अंतरिक्ष स्टेशन के लिए एक उपग्रह भेजा जाने वाला है जिसका उद्देश्य ही समय की गति में इन अंतरों को पांच गुना और अधिक सटीकता से नापना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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माहवारी के समय इतनी पाबंदियां क्यों? – सीमा

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मन्दिर में हर उम्र की महिला के अंदर जाने को हरी झंडी देकर फिर से माहवारी से जुड़ी मान्यताओं पर बहस को गरमा दिया है। अलग-अलग लोगों के तरह-तरह के बयान मीडिया की सुर्खियों में छाए रहे। कुछ लोगों ने महसूस किया कि यह फैसला बहुत पहले ही आ जाना चाहिए था तो कुछ अन्य लोगों का मानना था कि धर्म से जुड़े मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट को दखलंदाज़ी करने का कोई हक नहीं है। खैर, सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र पर चर्चा और कभी करेंगे। अभी इस लेख में हम बात करेंगे माहवारी और उससे जुड़ी सामाजिक मान्यताओं पर।

माहवारी महिलाओं के शरीर के अन्दर होने वाली एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सवाल है कि फिर इसके साथ यह छुआछूत कैसे जुड़ गई? औरतें ज़िंदगी के 35-40 साल इस सोच/कुंठा के साथ गुज़ार देती हैं कि माहवारी का खून गंदा है, दूषित करने वाला है। प्राय: इस पर कोई सवाल भी नहीं उठाया जाता। जबकि हकीकत यह है कि माहवारी का खून न तो गंदा है और न ही दूषित करने वाला। इस सच्चाई का एहसास हम तब ही कर पाएंगे जब हम अपने शरीर को, माहवारी की प्रक्रिया को समझने की कोशिश करेंगे।

माहवारी वह प्रक्रिया है जिसमें महिला का शरीर एक बच्चे के ठहरने की तैयारी करता है। जब लड़की किशोरावस्था में कदम रखती है (आम तौर पर 9 से 14 वर्ष के बीच), तब माहवारी चक्र की शुरुआत होती है। एक बार माहवारी शुरू होने के बाद लगभग 45-50 वर्ष की उम्र तक महिलाओं को हर माह माहवारी आती है, सिर्फ उस समय को छोड़कर जब वे गर्भवती होती हैं।

एक महिला के शरीर में प्रजनन के लिए मुख्य अंग दो अंडाशय होते हैं। अंडाशय पेट के निचले क्षेत्र में यानी कूल्हे वाले हिस्से में दोनों ओर एक-एक होता है। प्रत्येक अंडाशय में लाखों अंड कोशिकाएं होती हैं। इन कोशिकाओं में अंडाणु बनाने की क्षमता होती है। मज़ेदार बात यह है कि ये सारी कोशिकाएं जन्म के समय से ही महिला के शरीर में मौजूद होती हैं। मगर ये अपरिपक्व अवस्था में होती हैं। लगभग 9 से 14 वर्ष की उम्र तक ये अपरिपक्व अवस्था में ही बनी रहती हैं। इनके परिपक्व होने की शुरुआत अलग-अलग महिला में अलग-अलग उम्र में होती है। दोनों अंडाशयों के पास एक-एक नली होती है जिसे अंडवाहिनी कहते हैं। अंडाशय में से हर माह एक अंडाणु निकलता है और इस नली के मुंह में गिर जाता है। इस नली के फैलने-सिकुड़ने से ही अंडाणु आगे गर्भाशय की ओर बढ़ता है। गर्भाशय मुट्ठी के बराबर एक तिकोनी, चपटी थैली होती है।

अंडाशय में परिपक्व होने के साथ ही अंडाणु के आसपास गुब्बारे की तरह की थैली बनने लगती है जिसे पुटिका कहते हैं। उसी समय गर्भाशय की अंदरूनी परत मोटी होने लगती है। इसमें ढेर सारी छोटी-छोटी खून की नलियां बनने लगती हैं ताकि यदि बच्चा ठहरे तो उस तक खून पहुंच सके। अंडाशय में अंडाणु के आसपास बढ़ रही पुटिका इतनी बड़ी हो जाती है कि वह फूट जाती है। अंडाणु अंडाशय से बाहर निकल आता है। अंडाणु किसी एक अंडवाहिनी में प्रवेश करता है और गर्भाशय की तरफ बढ़ता है।

मान लीजिए उस समय महिला और पुरुष के बीच संभोग होता है और पुरुष का वीर्य योनि में जाता है। वीर्य में लाखों की तादाद में शुक्राणु होते हैं। इनमें से कुछ योनि से गर्भाशय और वहां से अंडवाहिनियों में पहुंचते हैं जहां उनकी मुलाकात अंडाणु से हो सकती है। अगर शुक्राणु और अंडाणु में निषेचन हो गया तो निषेचित अंडाणु में कोशिका विभाजन शुरू हो जाता है और वह गर्भाशय की ओर बढ़ता रहता है।

निषेचन नहीं होने पर शरीर में शरीर में कुछ हार्मोन की मात्रा घट जाती है और गर्भाशय सिकुड़ने लगता है। गर्भाशय में बन रहा अंदरूनी मोटा अस्तर झड़ जाता है और अपने आप योनि से बाहर निकल आता है। इसी को माहवारी कहते हैं। पूरा अस्तर एक साथ नहीं निकल आता बल्कि दो से सात दिनों तक धीरे-धीरे बूंद-बूंद टपकता रहता है। माहवारी के स्राव में ज़्यादातर खून, ऊतक के छोटे टुकड़े व रक्त वाहिनियां पाई जाती हैं। यह खून न तो गंदा है, न ही रुका हुआ होता है।

माहवारी का स्राव बंद होने में कुछ दिन लग जाते हैं। उसी दौरान अंडाशय में कुछ और अंडाणु बढ़ने लगते हैं और झड़ती हुई परत के नीचे एक नई परत बनना शुरू हो जाती है। जल्द ही यह नया बढ़ता हुआ अंडाणु भी अंडाशय में से बाहर निकल आएगा। इस तरह यह चक्र दोबारा दोहराया जाएगा।

तो हमने देखा कि माहवारी स्त्री के शरीर में प्रजनन से जुड़ी एक सामान्य क्रिया है। मासिक स्राव के साथ जो खून रिसता है वह उन रक्त नलिकाओं का है जो गर्भ ठहरने पर बच्चे को ऑक्सीजन, पोषण तथा अन्य ज़रूरी तत्व मुहैया करवाने के लिए बनी थीं। एक मायने में यह नए जीवन को सहारा देने और संभव बनाने का साधन है।

अब हम बात करेंगे माहवारी से जुड़ी मान्यताओं पर। हमारे समाज में माहवारी के बारे में तरह-तरह की भ्रान्तियां फैली हुई हैं। मसलन, माहवारी के दौरान

– पेड़-पौधों को नहीं छूना चाहिए

– पूजा या नमाज़ नहीं करनी चाहिए

– देवी-देवताओं को नहीं छूना चाहिए

– धार्मिक स्थल पर नहीं जाना चाहिए

– रसोई में नहीं जाना चाहिए

– खाने की चीज़ें, खास तौर से पापड़-अचार को नहीं छूना चाहिए

– पुरुषों को देखना या छूना नहीं चाहिए

– अलग बिस्तर पर सोना चाहिए वगैरह, वगैरह…

आखिर ऐसा क्या होता होगा कि माहवारी के दौरान महिला कुछ भी करेगी तो गड़बड़ ही होगा?

ये मान्यताएं हम सब के मन में इस तरह से पैठ बनाए हुए हैं कि हम इन पर सवाल करने से भी कतराते हैं और उनका जस का तस पालन करते रहते हैं। कुछ लोग इन मान्यताओं को धर्म और पितृसत्ता से जोड़कर देखते हैं तो कुछ इनका वैज्ञानिक कारण तलाशते हैं, जैसे हार्मोन्स का प्रभाव, शरीर का विकास आदि। इन परस्पर विरोधी विचारधाराओं की जांच-पड़ताल करके देखने की ज़रूरत है।

महिलाओं में माहवारी के आने को संतान पैदा करने की क्षमता से भी जोड़कर देखा जाता है। इसलिए माहवारी का आना सिर्फ एक महिला का निजी मुद्दा न रहकर एक पारिवारिक और सामाजिक मुद्दा भी बन जाता है। अफसोस की बात यह है कि परिवार और समाज की चिंताएं सिर्फ माहवारी से जुड़ी पाबंदियों तक ही सीमित हैं। यह विचार तक नहीं आता कि उस समय एक महिला को जिस तरह के आराम, खानपान और साफ-सफाई की ज़रूरत होती है वह उसे मिल पा रही है या नहीं। ज़रा सोचिए हर माह एक रजस्वला स्त्री के शरीर से लगभग 30-40 मि.ली. खून बह जाता है। इसकी क्षतिपूर्ति के बारे में सोचने की बजाय सिर्फ यह चिंता की जाती है कि वह खून गंदा है और उस स्त्री पर तमाम पाबंदियां लग जाती हैं।

आज भी माहवारी के विषय में खुलकर चर्चा नहीं की जाती है, न तो घर में और न ही स्कूल में। टीवी पर सेनेटरी नैपकिन के विज्ञापनों से लड़कियों को माहवारी के समय इस्तेमाल किए जा सकने वाले तरह-तरह के नैपकिन के बारे में जानकारी ज़रूर मिल जाती है, पर माहवारी क्यों होती है और उससे जुड़े तमाम सवालों के जवाबों को जानने का सुलभ ज़रिया उनके पास नहीं होता।

ज़्यादातर स्कूलों में, खासकर गांवों और कस्बों में, अब भी शौचालयों का अभाव है, और अगर होते भी हैं तो टूटे-फूटे और गंदी हालत में, पानी भी नदारद ही होता है। अगर स्कूल में अचानक से किसी लड़की को माहवारी आ जाए तो उन्हें देने के लिए सेनेटरी नेपकिन भी उपलब्ध नहीं होते हैं। इस वजह से लड़कियों को उन दिनों में स्कूल की छुट्टी करनी पड़ती है। सिर्फ लड़कियों को ही नहीं कामकाजी महिलाओं को भी इन परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है।

महिलाएं आज भी बेझिझक होकर किसी दुकान से सेनेटरी नेपकिन नहीं खरीद पातीं। वे या तो दुकान खाली होने का इन्तज़ार करती हैं या फिर दुकान में किसी महिला के होने का। अगर वे दबी ज़ुबान में मांग भी लेती हैं तो नेपकिन को काली पन्नी या अखबार में लपेटकर दिया जाता है जैसे खुल्लम-खुल्ला नैपकिन खरीदना कोई शर्म की बात हो। बहरहाल, सेनेटरी नेपकिन आज भी सब की पहुंच में नहीं हैं और इस कारण से अधिकांश महिलाओं और लड़कियों को कपड़े का ही इस्तेमाल करना होता है। मज़दूरी करने वाली महिलाओं को आसानी से साफ कपड़ा भी मयस्सर नहीं होता। पीने के लिए तो पानी पर्याप्त मिलता नहीं, इन कपड़ों को धोने के लिए कहां से मिल पाएगा? जैसे-तैसे कम पानी में ही धोकर गुज़ारा करना होता है। और फिर औरत माहवारी से है यह सबसे छिपाकर भी रखना होता है इसलिए इन कपड़ों को खुले में न सुखाकर अंधेरी जगह में सुखाना पड़ता है। इस वजह से उन कपड़ों से तरह-तरह के संक्रमण का खतरा लगातार बना रहता है। सामाजिक मर्यादा कायम रखने का दबाव इतना होता है कि यौन संक्रमण के बारे में किसी को बताना या इलाज करवाना भी आसान नहीं होता।

तो क्या इन मान्यताओं को बनाए रखने के लिए –

– किसी महिला के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करना सही है?

– उस पर तरह-तरह की पाबंदियां लगाना जायज़ है?

– उसके साथ अछूतों जैसा व्यवहार करना ठीक है?

कदापि नहीं। ऐसे परिवेश में जहां शारीरिक विकास, माहवारी और प्रजनन पर चर्चा करना गंदा समझा जाता है, एक ऐसा माहौल बनाना और भी ज़रूरी हो जाता है जहां इन विषयों पर बातचीत हो सके। हमें इन मान्यताओं को जांचने-परखने और इन पर सवाल उठाने की ज़रूरत है। और यह ज़िम्मेदारी सिर्फ महिलाओं की नहीं बल्कि समाज के हर तबके की है।

2005 में एकलव्य द्वारा आयोजित एक शिक्षक प्रशिक्षण शिविर में माहवारी से जुड़ी मान्यताओं की जांच-पड़ताल की गई थी। उसी के कुछ अनुभव यहां प्रस्तुत हैं। सबसे पहले माहवारी से जुड़ी उन मान्यताओं को पहचाना गया जिनकी जांच-पड़ताल आसानी से हो सकती है। पूजा-अर्चना वगैरह आस्था से जुड़े सवाल हैं, और ये ऐसी परिकल्पनाएं प्रस्तुत नहीं करते कि आप उनकी वैज्ञानिक जांच कर सकें। पर पापड़ व अचार का खराब हो जाना या पेड़-पौधों का सूख जाना जैसी मान्यताओं को तो प्रयोग करके परखा जा सकता है।

तो शिविर में निम्नलिखित मान्यताओं की जांच की गई:

·         क्या माहवारी के दौरान महिलाओं द्वारा सींचे जाने पर पौधे (खासकर तुलसी और गुलाब) सूख जाते हैं?

·         अचार-पापड़ बनाने या रखने के दौरान माहवारी वाली महिला छू ले, तो क्या अचार-पापड़ खराब हो जाते हैंै?

इन मान्यताओं के बारे में लोगों के विचार एकदम अलग-अलग थे। कुछ लोगों का मानना था कि अचार इसलिए भी खराब हो जाते हैं कि गीला चम्मच डाल दिया, ढक्कन ठीक से बंद नहीं किया, या फिर बनाने में ही कुछ गलती हो गई।

खाद्य सामग्री बनाने वाले उद्योगों के बारे में भी चर्चा हुई, जिनमें ज़्यादातर महिलाएं ही काम करती हैं। माहवारी के दौरान छुट्टी तो नहीं मिलती। तो फिर वहां काम कैसे चलता है?

उपरोक्त मान्यताओं की जांच करने के लिए टोलियां बनाकर अलग-अलग प्रयोग किए गए।

तुलसी और गुलाब के एक जैसे दो-दो पौधे चुनकर एक की सिंचाई माहवारी वाली महिला से और दूसरे की सिंचाई ऐसी महिला से करवाई जिसे माहवारी नहीं हो रही है।

इसी प्रकार, अचार-पापड़ वाले प्रयोग में अचार-पापड़ बनाए गए – कुछ को बनाने-संभालने का काम माहवारी वाली महिलाओं द्वारा कराया गया और कुछ को बिना माहवारी की महिलाओं द्वारा।

तीनों प्रयोग करने के बाद अवलोकन किए गए।

पौधे पहले जैसे ही थे। प्रायोगिक पौधे न तो सूखे, न मुरझाए।

पापड़ भूने। सब एक से थे। लाल नहीं हुए। जिनमें ज़्यादा सोड़ा डाला था, वे भी नहीं। अचार के दोनों नमूने दो महीने के अवलोकन के लिए एकलव्य के ऑॅफिस में ही रखे गए थे। दो महीने बाद देखा तो अचार खराब नहीं हुए थे।

प्रयोग में शामिल एक महिला ने कहा कि उसे पाबंदियों पर गुस्सा तो आता था मगर उनको तोड़ने से डर भी लगता था। पर उसे कभी सूझा ही नहीं था कि वह इन पाबंदियों को परखकर देखे।

खोजबीन का अंतिम परिणाम कुछ भी हो मगर एक बात साफ दिखी कि इन मान्यताओं को प्रयोग की जांच-परख की जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बांध टूटे तो नदी ने अपना मलबा साफ किया

मेरिका में एलव्हा नदी पर बने बांधों को हटाए जाने के बाद जो मलबा मुक्त हुआ, उसे नदी ने अपने प्रवाह से साफ कर लिया।

एलव्हा नदी वाशिंगटन में बहती है। इस छोटी नदी पर बने दो बड़े बांध, 32 मीटर ऊंचा एलव्हा डैम और 64 मीटर ऊंचा ग्लाइंस कैन्यन डैम, नदी के प्राकृतिक प्रवाह को रोके हुए थे। नदी को फिर से बहने देने तथा मछलियों और अन्य जीवों के लाभ के लिए गैर-ज़रूरी बांधों को तोड़ने का निर्णय लिया गया। इन दोनो बांधो को तोड़ने की प्रक्रिया 2011 में शुरू हुई थी जो 2014 तक चली। यह दुनिया का सबसे बड़ा बांध तोड़ने का प्रोजेक्ट रहा।

कैलिफोर्निया के यूएस जियोलॉजिकल सर्वे की एमी ईस्ट और उनके साथियों ने इन बांधों को तोड़ने के पहले, तोड़ने के दौरान और उसके बाद नदी के प्रवाह और रास्तों पर लगातार नज़र रखी।

जब बांध तोड़े गए तो नदी में जमा लगभग 2 करोड़ टन मलबा बहने लगा। इस मलबे के बहने से नदी का आकार बदल गया, वह उथली हो गयी और उसके रास्ते में नए-नए रेतीले किनारे भी बन गए। मगर नदी में आए ऐसे बड़े बदलाव 5 महीने तक रहे। इस दौरान नदी ने अपने पेंदे में जमा अधिकतर मलबा नदी के आखिरी छोर, जुआन दे फुका जलडमरूमध्य तक पहुंचा दिया।

 शोधकर्ताओं का कहना है कि नदियों का बहाव इतना शक्तिशाली होता है कि वे बांध के तोड़े जाने पर बिना किसी भारी नुकसान के, जल्दी ही अपने नियमित ढर्रे पर लौट सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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पराग कण: सूक्ष्म आकार, बड़ा महत्व – डॉ. दीपक कोहली

मारे पर्यावरण में वनस्पतियों का स्थान सर्वोपरि है। ये सूर्य के प्रकाश में प्रकाश-संश्लेषण द्वारा भोजन बनाते हैं तथा हमारे सामाजिक परिवेश में मुख्य घटक हैं। फूल पौधों के अभिन्न अंग हैं। यदि फूल नहीं होंगे, तो पौधों में लैंगिक प्रजनन नहीं हो सकेगा और केवल कायिक प्रवर्धन पर आधारित होने पर मनुष्य का भोजन केवल कन्द-मूलों तक ही सीमित रह जाएगा। पुष्प में पुमंग तथा जायांग लैंगिक प्रजनन के मूल आधार हैं। पुमंग में दो भाग होते हैं – पुतन्तु तथा परागकोश। परागकोश पुतन्तु के अग्रभाग प्रकोष्ठों से मिलकर बनता है। प्रत्येक प्रकोष्ठ में असंख्य पराग कण भरे होते हैं।

पराग कण पौधों की सूक्ष्म जनन इकाइयां हैं, जो अपने व अपनी ही प्रजाति के पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुंच कर निषेचन का कार्य सम्पन्न करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप फलों का निर्माण होता है और इनके बीजों द्वारा नवीन संततियों का जन्म होता है।

परिपक्व पराग कण एक, दो, चार या अनेक समूहों में मिलते हैं, इनका आकार प्रकार तथा ध्रुवीयता सुनिश्चित होती है। पराग कणों का आकार अत्यन्त सूक्ष्म (10 माइक्रॉन से लेकर 250 माइक्रॉन तक) होता है। पराग कणों के चारों ओर सुरक्षा के लिए दो परतें होती हैं – पहली बाह्र परत या एक्सॉन, जो स्पोरोपोलेनिन नामक एक रसायन से बनी होती है। इस पर्त में तेज़ाब, क्षार, ताप, दाब आदि सहने की क्षमता होती है एवं यह कोशिका की रक्षा करती है।

पराग कण जल, थल, वायु आदि सभी स्थानों पर पाए जाते हैं। इनका इतिहास पुरातनकालीन चट्टानों में करीब 30 करोड़ वर्ष से लेकर आज तक के पर्यावरण में मिलता है। पराग कणों के अध्ययन को परागाणु विज्ञान कहते हैं। परागाणु विज्ञान को दो भागों में बांटा जा सकता है – प्राथमिक परागाणु विज्ञान तथा व्यावहारिक परागाणु विज्ञान। प्राथमिक परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत पराग कणों तथा बीजाणुओं की संरचना, उनके रासायनिक तथा भौतिक विश्लेषण और कोशिका विज्ञान, आकार वर्गिकी आदि का अध्ययन किया जाता है। व्यावहारिक परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत पराग कणों के व्यावहारिक उपयोग एवं महत्व का अध्ययन किया जाता है। व्यावहारिक परागाणु विज्ञान का आगे वर्गीकरण भी किया जा सकता है – भूगर्भ परागाणु विज्ञान, वायु परागाणु विज्ञान, शहद परागाणु विज्ञान, औषधि परागाणु विज्ञान, मल-अवशेष परागाणु विज्ञान तथा अपराध परागाणु विज्ञान।                              

मिट्टी तथा चट्टानों के बनने की प्रक्रिया के समय पाई जाने वाली वनस्पतियां दबकर जीवाश्म के रूप में परिरक्षित होती हैं एवं इन चट्टानों की लक्षणात्मक इकाइयां बनकर चट्टानों की आयु बताने में समर्थ होती हैं। कोयले की खानों तथा तैलीय चट्टानों में दबे पराग कण एवं बीजाणुओं के अध्ययन से उनकी आयु के साथ-साथ उनके पार्श्व एवं क्षैतिज विस्तार की भी जानकारी प्राप्त होती है। ऐसा अनुमान है कि जलीय स्थानों में तेल की उत्पत्ति कार्बनिक पदार्थों के विघटन के फलस्वरूप होती है। तदुपरान्त इसका जमाव जगह-जगह पर चट्टानों में होता है, खनिज तेल की खोज तथा कोयला भण्डारों की जानकारी प्राप्त करने में इन सूक्ष्म इकाइयों का विशेष योगदान है। ऐसे जीवाश्मीय पराग कणों के अध्ययन को भूगर्भ परागाणु विज्ञान कहते हैं।

वनस्पतियों के अवशेष चट्टानों में दबे हुए मिलते हैं जिनसे पुराकालीन जलवायु, वनस्पतियों तथा उनके आसपास की जलवायु तथा भौतिक दशाओं का अनुमान लगाया जा सकता है। इसी प्रकार झील तथा दलदली स्थानों के विभिन्न गहराइयों से लिए गए मृदा के नमूनों से लुप्त होती वनस्पतियों, सिमटते तथा फैलते समुद्र के इतिहास का पता आसानी से लगाया जा सकता है। इस प्रकार, भूगर्भ परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत जीवाश्मित पराग कण व बीजाणु व इनके समतुल्य जनन इकाइयों के द्वारा प्राचीनकाल के पाई वाली पुरावनस्पतियों तथा पुरावातावरण की जानकारी प्राप्त होती है।

वायु परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत वायु में पाए जाने वाले पराग कणों तथा इनके समतुल्य जनन इकाइयों का अध्ययन किया जाता है। वायु में पेड़-पौधों के असंख्य पराग कण सदैव विद्यमान रहते हैं। कुछ पौधों के पराग कण संवेदनशील व्यक्तियों में सांस के रोग उत्पन्न करते हैं। इनमें दमा, मौसमी ज़ुकाम, एलर्जी, त्वचा रोग आदि प्रमुख हैं।

पराग कण जब सर्वप्रथम नाक के द्रव के सम्पर्क में आते हैं, तो पहले-पहले कोई लक्षण प्रकट नहीं होते, परन्तु जब नाक का द्रव संवेदित हो जाता है तो शरीर में विजातीय तत्व के विरुद्ध प्रतिरक्षा तत्व (इम्यूनोग्लोब्यूलिन) पैदा हो जाते हैं। जब वही विजातीय तत्व (एलर्जेन) नासिका द्रव पर पुन: हमला करता है तो पहले से उपस्थित अवरोधक तत्व उस विजातीय तत्व को नष्ट कर देता है जिससे नासिका की कोशिकाओं का नाश होता है और इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न हिस्टामिन नामक रसायन एलर्जी के लक्षणों का कारण बनता है। इसके मुख्य लक्षण हैं – तालू व गले में खराश, नाक का बन्द हो जाना, तेज़ जुकाम के साथ छींकें आना, आंखों में जलन, सांस फूलना, सिरदर्द आदि। मुख्यत: वायु द्वारा विसरित परागकण ही इन बीमारियों को जन्म देते हैं। वायु परागाणु विज्ञान केवल एलर्जी की नहीं बल्कि मनुष्य, जानवरों तथा पेड़-पौधों के विकास से जुड़े अन्य कई विषयों की भी विस्तृत जानकारी देता है। जैसे, वायु प्रदूषण, कृषि विज्ञान, वानिकी, जैव विनाश, जैव गतिविधि, मौसम विज्ञान आदि।

शहद परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत शहद के नमूनों में पराग कणों का अध्ययन किया जाता है। शहद के गुणों तथा प्रभाव से सभी परिचित हैं। शहद की चिकित्सकीय उपयोगिता मुख्यत: पराग कणों के कारण ही होती है। मानव को आदिकाल से ही इसकी उपयोगिता का ज्ञान है। शहद और पराग कणों का पारस्परिक सम्बंध अटूट है। शहद की शुद्धता तथा गुणवत्ता उसमें निहित पराग कणों के द्वारा परखी जाती है। शहद एक ही प्रकार के फूलों के पराग कणों या अनेक प्रकार के फूलों के पराग कणों का मिश्रण है। शहद का वैज्ञानिक विश्लेषण करने से ऋतु-सम्बंधी जानकारी भी प्राप्त होती है। मधुमक्खियां मकरन्द व पराग कणों को फूलों से एकत्र करती हैं। बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान, लखनऊ में हुए एक शोध के अनुसार, शहद के एक नमूने में 45 किस्म के परागकण विद्यमान थे।

औषधि परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत पराग कणों से विभिन्न प्रकार की औषधियों के निर्माण सम्बंधी अध्ययन किए जाते हैं। आदिकाल से मनुष्य तथा जानवरों के लिए पराग कणों की महत्ता जैव उद्दीपक के रूप में रही है। स्वीडन की सिरनेले कम्पनी सन 1952 से पराग कणों का सत बना रही है जिससे पोलेन-टूथपेस्ट, पोलेन फेस क्रीम, पोलेन एनिमल फीड तथा पोलेन टेबलेट्स आदि का उत्पादन होता है। इस कम्पनी को 14 करोड़ टेबलेट्स बनाने के लिए करीब 20 टन पराग कण आसपास के क्षेत्र से एकत्र करने पड़ते हैं। कहते हैं सर्निटिन  एक्सट्रेक्ट दीर्घ आयु तथा स्वस्थ जीवन प्रदान करने वाले सभी तत्वों से भरपूर होता है। यह विभिन्न प्रकार के पौधों के पराग कणों से तैयार किया जाता है।

ओर्टिस पोलेनफ्लावर नामक दवा मधुमक्खियों की सहायता से एकत्रित पराग कणों से बनाई जाती है, जिसमें स्वस्थ शरीर बनाए रखने के लिए शक्तिवर्धक तत्व मौजूद होते हैं। पोलेन-बी के नाम से प्रसिद्ध औषधियां धावकों तथा अन्य खिलाड़ियों द्वारा शक्तिवर्धक की तरह प्रयोग की जाती है।

प्रोस्टेट ग्रन्थि बढ़ने पर जिस दवा का प्रयोग किया जाता है, उसमें तीन-चार प्रकार के पराग कणों का सत होता है, जिसमें विटामिन-बी तथा स्टीरॉयड की प्रचुर मात्रा होती है। साइकस सर्सिनेलिस पौधे के पराग कणों को नींद की दवा के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। टाइफा लैक्समानी पौधे के पराग कणों को रक्तचाप नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

मल-अवशेष परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत मनुष्यों तथा जानवरों के मल-अवशेषों में संरक्षित पराग कणों का अध्ययन किया जाता है। पाषाण युग में कंदराओं और गुफाओं में रहने वाले शिकारी, खानाबदोश पूर्वजों तथा उनके काफिलों के पालतू जानवरों के खानपान, जलवायु तथा वनस्पतियों का लेखा-जोखा पराग कणों के माध्यम से पता किया जा सकता है। मल-अवशेषों में संरक्षित पराग कणों के परीक्षण से भोज्य वनस्पतियों की किस्मों, ऋतुओं, जलवायु आदि का अनुमान लगाया जा सकता है। भेड़-बकरियों, चमगादड़ों तथा मनुष्यों के मल-अवशेषों का अध्ययन ही अभी तक प्रमुख रूप से किया गया है।

डॉ. ब्रयन्ट ने टेक्सास के सेमिनोल कैन्यन में रहने वाले 9000 वर्ष पूर्व के मानव के भोजन में प्रयोग किए गए पौधों का उल्लेख अपने एक शोध पत्र में किया है। मल-अवशेषों के पराग कण के अध्ययन से उस समय के पर्यावरण का भी अन्दाज़ा लगाया गया है।

डॉ. लीशय गोरहन ने गुफाओं में रहने वाले निएन्डरथल मानव के कंकाल के नीचे से मिली मिट्टी तथ अन्य अवशेषों के आधार पर 50,000 वर्ष तक पुरानी वनस्पतियों के इतिहास को उजागर किया। उन्होंने यहां तक प्रमाणित किया कि शव को एफेड्रा नामक वृक्ष की शाखाओं पर मई-जून के महीने में दफनाया गया था। इस प्रकार आदि-मानव के इतिहास को जानने में यह परागाणु विज्ञान अत्यन्त कारगर सिद्ध हुआ है।

अपराध परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत अपराधों की जांच-पड़ताल में पराग कणों के उपयोग का अध्ययन किया जाता है। वर्ष 1969 में प्रसिद्ध परागाणु विज्ञानी एर्टमैन ने स्वीडन तथा ऑस्ट्रिया में हुए दो अपराधों का पता पराग कणों के माध्यम से लगाकर दुनिया को अचंभित कर दिया था। उन्होंने वारदातों की गुत्थियां सुलझाने के लिए प्रमाण के तौर पर कपड़ों तथा जूतों की धूल से प्राप्त पराग कणों का विश्लेषण किया और तत्पश्चात अपराधियों को ढूंढ निकालने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। इसके अलावा बन्दूक पर चिपके पराग कणों की सहायता से वे एक मामले मे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हत्या संदिग्ध बन्दूक से नहीं बल्कि किसी अन्य बन्दूक का प्रयोग किया गया था। इस प्रकार आपराधिक मामलों की खोजबीन में परागाणु विज्ञान उपयोगी है।

भोजन के रूप में भी पराग कणों की उपयोगिता सिद्ध हुई है। पराग कणों को संतुलित भोजन की श्रेणी में रखा गया है। पराग कणों पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों ने इसके चमत्कारी गुणों को पहचान कर हेल्थ फूड नाम दिया है। इनमें जीवन प्रणाली को सुचारु रूप से चलाने वाले सभी पौष्टिक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं, जैसे प्रोटीन, विभिन्न विटामिन तथा खनिज तत्व।

टाइफा पौधे की करीब 9 प्रजातियों के पराग कणों का भोज्य पदार्थ के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इनके पराग कणों को आटे के साथ मिलाकर केक व अन्य बेकरी पदार्थ बनाने में प्रयुक्त किया जाता है। सूप को गाढ़ा करने में तथा गरम दूध के साथ इनका सेवन किया जाता है। मक्का के पराग कणों का आकार बड़ा होता है और वे खाने की सूची में विशिष्ट स्थान रखते हैं। कई देशों में पराग कणों का प्रयोग नवजात शिशु के प्रथम आहार के तौर पर भी किया जाता है। अनेकानेक गुणों के साथ पराग कणों का एक अवगुण भी है, जो एलर्जी के रूप में नज़र आता है।

पराग कणों के गुणों-अवगुणों को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि पराग कणों के गुणों का पलड़ा बहुत भारी है। पराग कण पेड़-पौधों के लिए जितने जरूरी हैं उतने ही मानव के लिए भी आवश्यक हैं। यदि समग्र रूप में पराग कणों के महत्व का मूल्यांकन किया जाए, तो ये निसन्देह मानव जीवन के लिए अपरिहार्य हैं तथा इनके अभाव में मानव के अस्तित्व की कल्पना भी कर पाना असम्भव है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सूरज को धरती पर उतारने की तैयारी – प्रदीप

मानव विकास के लिए अधिकाधिक ऊर्जा की ज़रूरत होती है। बिजली पर हमारी बढ़ती निर्भरता के कारण भविष्य में ऊर्जा की खपत और भी बढ़ेगी। मगर इतनी ऊर्जा आएगी कहां से। यह तो हम सब जानते हैं कि धरती पर कोयले और पेट्रोलियम के भंडार सीमित हैं। ये भंडार ज़्यादा दिनों तक हमारी ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा नहीं कर सकते। और इनसे प्रदूषण भी होता है। आप कह सकते हैं कि अब तो नाभिकीय रिएक्टरों का इस्तेमाल बिजली पैदा करने में किया जाने लगा है तो कोयले और पेट्रोलियम के खत्म होने की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। मगर ऐसा नहीं है, जिस युरेनियम या थोरियम से नाभिकीय रिएक्टर में परमाणु क्रिया सम्पन्न होती है, उनके भंडार भी भविष्य में हमारी ऊर्जा ज़रूरतों के लिए बेहद कम हैं। और नाभिकीय ऊर्जा उत्पादन में रेडियोधर्मी, रेडियोएक्टिव उत्पाद भी उत्पन्न होते हैं जो पर्यावरण और मनुष्य के लिए घातक है। 

वैज्ञानिक लंबे समय से एक ऐसे र्इंधन की खोज में हैं, जो पर्यावरण और मानव शरीर को नुकसान पहुंचाए बगैर हमारी ऊर्जा ज़रूरतों की पूर्ति करने में सक्षम हो। वैज्ञानिकों की यह तलाश नाभिकीय संलयन (न्यूक्लियर फ्यूज़न) पर समाप्त होती दिखाई दे रही है। नाभिकीय संलयन प्रक्रिया ही सूर्य तथा अन्य तारों की ऊर्जा का स्रोत है। जब दो हल्के परमाणु नाभिक जुड़कर एक भारी तत्व के नाभिक का निर्माण करते हैं तो इस प्रक्रिया को नाभिकीय संलयन कहते हैं। यदि हम हाइड्रोजन के चार नाभिकों को जोड़ें तो हीलियम के एक नाभिक का निर्माण होता है। हाइड्रोजन के चार नाभिकों की अपेक्षा हीलियम के एक नाभिक का द्रव्यमान कुछ कम होता है। इस प्रक्रिया में द्रव्यमान में हुई कमी ही ऊर्जा के रूप में निकलती है।

हाइड्रोजन के संलयन द्वारा इतनी विशाल ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है, यह बात सबसे पहले वर्ष 1938 में जर्मन वैज्ञानिक हैन्स बैथे के अनुसंधान कार्यों से पता चली। इसी नाभिकीय संलयन के सिद्धान्त पर हाइड्रोजन बम का निर्माण किया गया, जिसमें बैथे की महत्वपूर्ण भूमिका थी। वैज्ञानिक कई वर्षों से सूर्य में होने वाली संलयन अभिक्रिया को पृथ्वी पर कराने के लिए प्रयासरत हैं, जिससे बिजली पैदा की जा सके। अगर इसमें सफलता मिल जाती है तो यह सूरज को धरती पर उतारने जैसा ही होगा।

हालांकि लक्ष्य अभी दूर है, मगर चीनी वैज्ञानिकों की इस दिशा में हालिया बड़ी सफलता ने उम्मीदें जगा दी हैं। चीन के हेफई इंस्टीट्यूट ऑफ फिज़िकल साइंसेज़ के मुताबिक चीन अपने नाभिकीय विकास कार्यक्रम के तहत पृथ्वी पर नाभिकीय संलयन प्रक्रिया द्वारा सूर्य जैसा एक ऊर्जा स्रोत बनाने का प्रयास कर रहा है। चाइना डेली में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक वैज्ञानिकों ने चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ प्लाज़्मा फिज़िक्स के न्यूक्लियर फ्यूज़न रिएक्टर में सूरज की सतह के तापमान से 6 गुना ज़्यादा तापमान (तकरीबन 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस) उत्पन्न कर लिया है। इस तापमान को तकरीबन 10 सेकंड तक स्थिर रखा गया। नाभिकीय संलयन क्रिया को सम्पन्न कराने के लिए इतना उच्च ताप और दाब ज़रूरी है। अभी तक इतना अधिक तापमान पृथ्वी पर प्राप्त नहीं किया जा सका था।

चीन निर्मित इस फ्यूज़न रिएक्टर का व्यास 8 मीटर, लंबाई 11 मीटर और वज़न 400 टन है। इस रिएक्टर को दी एक्सपेरिमेंटल एडवांस्ड सुपरकंडक्टिंग टोकामैक नाम दिया गया है। चीन के अनहुई प्रांत में स्थापित रिएक्टर ईस्ट में प्लाज़्मा को टायर जैसे एक गोलाकार पात्र में गर्म किया जाता है। दरअसल प्लाज़्मा द्रव्य की चौथी अवस्था है। प्लाज़्मा बहुत गर्म भी हो सकता है और बहुत ठंडा भी। ईस्ट की दीवारों को प्लाज़्मा के उच्च ताप से बचाने के लिए चुंबकीय क्षेत्र का इस्तेमाल किया गया है जिससे प्लाज़्मा पात्र की दीवारों को बिना स्पर्श किए चक्कर काटता रहता है। ड्यूटेरियम और ट्रिटियम से बने हीलियम कण प्लाज़्मा के चुंबकीय क्षेत्र में कुछ देर तक कैद रहते हैं। बाद में इन्हें डाइवर्टर पम्प से बाहर कर दिया जाता है। चुंबकीय क्षेत्र से न्यूट्रॉन कण निरंतर दूर होते जाते हैं क्योंकि वे आवेश रहित होते हैं। भविष्य में इन्हें एक ऊर्जा संयंत्र में पकड़कर ऊर्जा बनाना संभव होगा।

नाभिकीय विखंडन पर आधारित वर्तमान रिएक्टरों की आलोचना का सबसे बड़ा कारण है इनसे ऊर्जा के साथ रेडियोएक्टिव अपशिष्ट पदार्थों का भी उत्पन्न होना। नाभिकीय विखंडन के सिद्धान्त के आधार पर ही परमाणु बम बना। विखंडन रिएक्टर मनुष्य तथा पर्यावरण के लिए बहुत घातक होते हैं। इनसे डीएनए में उत्परिवर्तन तक हो सकते हैं। इससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी आनुवंशिक दोषयुक्त संतानें पैदा हो सकती हैं। वहीं संलयन रिएक्टर से उत्पन्न होने वाले रेडियोएक्टिव कचरे बहुत कम होते हैं तथा इनसे पर्यावरण को कोई भी नुकसान नहीं होता।

तारों पर होने वाली नाभिकीय संलयन प्रक्रिया को सर्वप्रथम मार्क ओलिफेंट ने 1932 में पृथ्वी पर दोहराने में सफलता प्राप्त की थी। अभी तक वैज्ञानिकों को इस प्रक्रिया को पृथ्वी पर नियंत्रित रूप से सम्पन्न कराने में कामयाबी नहीं मिली थी। मगर चीनी वैज्ञानिकों ने रिएक्टर ईस्ट में कृत्रिम संलयन करवाने लिए हाइड्रोजन के दो भारी समस्थानिकों ड्यूटेरियम और ट्रिटियम को र्इंधन के रूप में प्रयोग किया है। धरती के समुद्रों में ड्यूटेरियम काफी मात्रा में मौजूद है। जबकि ट्रिटियम को लीथियम से प्राप्त किया जा सकता है जो धरती पर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। इसलिए नाभिकीय संलयन के लिए र्इंधन की कभी कमी नहीं होगी। ड्यूटेरियम में एक न्यूट्रॉन होता है और ट्रिटियम में दो। अगर इन दोनों में टकराव हो तो उससे हीलियम का एक नाभिक बनता है। इस प्रक्रिया में ऊर्जा मुक्त होती है। भविष्य में इसी ऊर्जा का इस्तेमाल टर्बाइन को चलाने में किया जाएगा। अनुमान है कि इसमें अभी 10-15 वर्षों का समय लगेगा। निश्चित रूप से चीन का नाभिकीय संलयन कार्यक्रम ऊर्जा संकट को दूर करने में और वैश्विक विकास के लिए एक महत्वपूर्ण कदम सिद्ध होगा। (स्रोत फीचर्स)

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जैव विविधता का तेजी से होता ह्यास – नवनीत कुमार गुप्ता

र्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड ने अपनी एक रिपोर्ट में जैव विधिधता में हो रही कमी को रेखांकित किया है। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड प्रकृति के संरक्षण के मामले में दुनिया का विशालतम तथा स्वतंत्र संगठन है, जिसका उद्देश्य पृथ्वी के प्राकृतिक पर्यावरण को नष्ट होने से बचाना तथा एक ऐसे भविष्य का निर्माण करना है, जिसमें इंसानों तथा प्रकृति के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्ता बना रहे।

यह संगठन हर दो वर्ष में लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट प्रकाशित करता है। इस वर्ष के प्रकाशन में कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। डब्लू.डब्लू.एफ. के शोधकर्ताओं ने जैव विविधता की वर्तमान स्थिति का आकलन करने के लिए ज़ुऑलॉजिकल सोसायटी ऑफ लंदन के लिविंग प्लैनेट इंडेक्स का अध्ययन किया। लिविंग प्लैनेट इंडेक्स दुनिया भर में रीढ़धारी प्रजातियों की संख्या के आधार पर वैश्विक जैव विविधता की स्थिति का आकलन करती है। नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक 1970 से 2014 के बीच विभिन्न रीढ़धारी प्रजातियों की आबादी में औसतन 60 प्रतिशत की कमी आई है। सर्वाधिक कमी उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों जैसे दक्षिणी तथा मध्य अमेरिका में आई है। यहां 1970 की तुलना में 89 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। मीठे पानी में पाए जाने वाले जीवों की संख्या में भी भारी कमी देखी गई है। इंडेक्स के मुताबिक 1970 की तुलना में इन जीवों में 83 प्रतिशत की कमी आई है।

ये वैश्विक आंकड़े उपयोगी हैं। लेकिन यह समझना आवश्यक है कि क्या विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में आई कमी का स्तर अलग-अलग है तथा क्या उन्हीं प्रजातियों पर अलग प्रकार से भी असर पड़ रहा है? इन जानकारियों के लिए लिविंग प्लैनेट इंडेक्स एक महत्त्वपूर्ण साधन है, जो जीवों की विभिन्न प्रजातियों पर खतरों के बारे में बता सकता है।

यह रिपोर्ट वैश्विक जैव विविधता के संरक्षण के लिए कुछ कदमों की भी सिफारिश करती है। पहला कदम विशिष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विश्व स्तर पर जैव विविधता संरक्षण हेतु योजना विकसित करना तथा उसे विभिन्न देशों द्वारा लागू करना है। पहला लक्ष्य है वन क्षेत्र में विस्तार करना, जो कई जानवरों, कीड़ों तथा पक्षियों को आश्रय देते हैं। जैव विविधता के संरक्षण के लिए अगला लक्ष्य एक बार इस्तेमाल किए जाने वाले प्लास्टिक के उपयोग पर प्रतिबंध लगाना तथा मीठे पानी में पाए जाने वाले जीवों की सुरक्षा के लिए प्लास्टिक को पानी में फेंकने पर रोक लगाना शामिल है।

पूरी धरती के मनुष्यों तथा जानवरों को संरक्षण देने वाली प्राकृतिक व्यवस्था में गिरावट रोकने के लिए दुनिया भर में वास्तविक परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। सबसे बड़ी चुनौती लगातार बढ़ती आबादी पर नियंत्रण पाने के तरीके तलाशना है। पृथ्वी को खूबसूरत बनाने तथा इसके रहवासियों को एक सकारात्मक भविष्य देने के लिए प्रकृति का ह्यास रोकना आवश्यक है, जिसके लिए हम सबको मिलकर कार्य करना होगा। (स्रोत फीचर्स)

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इंसान-मशीन के एकीकरण और अंतरिक्ष का साल – चक्रेश जैन

विज्ञान की प्रतिष्ठित और लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओं पर नज़र डालने से पता चलता है कि वर्ष 2018 विज्ञान जगत में नई उपलब्धियों का साल रहा। ब्राहृांड के रहस्यों को बेहतर और वैज्ञानिक तरीके से समझने के प्रयास चलते रहे। अंतरिक्ष में जीवन की संभावनाओं का पता लगाने की कोशिशों का और अधिक विस्तार हुआ। इनमें चंद्रमा और मंगल ग्रह का ज़िक्र विशेष रूप से किया जा सकता है। जीन सम्पादन प्रौद्योगिकी में नए प्रयोगों और सफलताओं के दावों से संकेत मिला कि वैज्ञानिक बिरादरी ईश्वर की भूमिका में हस्तक्षेप करने की दहलीज़ तक पहुंच चुकी है। वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की नई-नई प्रजातियों का पता चला। मनुष्य और मशीन के एकीकरण के विस्तार की झलक दिखाई दी। अब हम उस दौर तक पहुंच चुके हैं, जहां से हाइब्रिड युग आरंभ होता है। साइबोर्ग महिला और पुरुष दोनों का आगमन हो चुका है। साइबोर्ग का अर्थ है मशीन और मनुष्य का संकर।

विदा हो चुके वर्ष 2018 में विश्व भर में कृत्रिम मेधा यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का बोलबाला रहा। इसकी शुरुआत 1950 के दशक में हुई थी। इस बारे में सबसे पहले कंप्यूटर वैज्ञानिक जॉन मेकार्थी ने बताया था। वास्तव में कृत्रिम मेधा से मेधावी कंप्यूटर और कंप्यूटर नियंत्रित रोबोट बनाए जा रहे हैं। कृत्रिम मेधा ने एक लंबा सफर तय किया है। स्मार्ट फोन, मेधावी गैजेट्स, ड्रोन, रोबोट आदि इंटेलीजेंट मशीनों के कुछ उदाहरण हैं जो रोज़मर्रा के जीवन में पैठ बना चुके हैं। सच तो यह है कि आने वाले वर्षों में जीवन का हर क्षेत्र कृत्रिम मेधा की ताकत से बड़े पैमाने पर प्रभावित होने वाला है।

इसी वर्ष ब्रिटेन में संसदीय शिक्षा समिति की बैठक में पेपर रोबोट पेश किया गया, जिसने सांसदों के विभिन्न सवालों के उत्तर दिए। वर्ष 2018 में नेतानुमा धुआंधार भाषण देने वाले रोबोट के निर्माण के प्रयास जारी रहे।

गुज़रे साल जापान के वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष में एक स्पेस एलिवेटर भेजने का विलक्षण प्रयोग किया। यह दुनिया का प्रथम और बेहद शुरुआती प्रयोग है। इस तरह का विचार 1895 में रूस के वैज्ञानिक कांस्टान्टिन तासिलकोव्स्की के मन में पेरिस में ऑइफल टॉवर देखने के बाद आया था। लेकिन यह विचार साकार नहीं हो सका था। लगभग एक सदी बाद आर्थर सी. क्लार्क ने इस विचार को दोहराया था। अब स्पेस एलिवेटर विज्ञान गल्प या कोरी कल्पना नहीं रह गया है।

इस वर्ष अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा की आंख कही जाने वाली केप्लर अंतरिक्ष दूरबीन रिटायर हो गई। इसने नौ वर्षों के दौरान 3600 से ज़्यादा एक्सोप्लेनेट्स यानी हमारे सौर मंडल से बाहर के ग्रहों की खोज की। इनमें से कुछ पर जीवन की संभावना व्यक्त की गई है।

12 अगस्त को नासा ने सूर्य और उसके वायुमंडल के रहस्यों पर से पर्दा हटाने के लिए डेल्टा-4 रॉकेट से पार्कर सोलर प्रोब भेजा। इस यान का नाम विख्यात भौतिकीविद् यूजीन पार्कर के नाम पर रखा गया है। यह मिशन सूर्य के वायुमंडल कहे जाने वाले आभामंडल यानी करोना का व्यापक अध्ययन करेगा। वास्तव में करोना प्लाज़्मा से बना होता है। करोना के बारे में हमारी जानकारी बहुत कम है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो ने भी 2019-2020 के दौरान सौर मिशन आदित्य-एल-1 लांच करने की योजना बनाई है। इसका उद्देश्य सूर्य के बारे में हमारी वैज्ञानिक समझ को बढ़ाना है।

विदा हो चुके साल में नासा की बड़ी सफलताओं में एक और अध्याय नवंबर में जुड़ गया, जब इनसाइट यान लगभग पचास करोड़ किलोमीटर की यात्रा पूरी कर मंगल ग्रह पर उतरा। इनसाइट से मिली जानकारी चंद्रमा और मंगल पर मानव भेजने के अभियानों में अहम भूमिका निभाएगी।

17 जुलाई को अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ ने बृहस्पति के दस नए उपग्रहों की खोज की घोषणा की। अब इन उपग्रहों की कुल संख्या 79 हो गई है। सौर मंडल के सबसे बड़े ग्रह बृहस्पति के उपग्रहों की संख्या भी सबसे ज़्यादा है।

आठ दिसंबर को चीन ने अपने चंद्र मिशन कार्यक्रम के अंतर्गत चंद्रमा की अंधेरी सतह का अध्ययन करने के लिए चांग-ई-4 यान सफलतापूर्वक भेजा। इस मिशन का उद्देश्य चंद्रमा की उत्पत्ति के रहस्यों पर शोध करना है। जीव वैज्ञानिक अनुसंधानों के लिए आलू और रेशम के कीड़ों के अंडाणु भी भेजे गए हैं। इस वर्ष दिसंबर में नासा का अंतरतारकीय यान वोयेजर-2 सफलतापूर्वक सौर मंडल से बाहर निकल गया। वोयेजर-1 छह वर्ष पहले ऐसा कर चुका है। दरअसल, दोनों ही मानव रहित यान हैं, जिन्हें सौर मंडल और उसके बाहर के ग्रहों का पता लगाने के लिए भेजा गया है। वोयेजर-2 को 41 वर्ष पूर्व प्रक्षेपित किया गया था।

नवंबर के अंतिम सप्ताह में हांगकांग में जीन सम्पादन प्रौद्योगिकी क्रिस्पर कास-9 पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में चीनी वैज्ञानिक ही जियानकुई ने क्रिस्पर तकनीक से तैयार किए गए मानव भ्रूणों से दो शिशुओं के पैदा होने की घोषणा की। जीन सम्पादन प्रौद्योगिकी ने जीन्स में फेरबदल कर डिज़ाइनर शिशु पैदा करने का मार्ग प्रशस्त किया है। अधिकांश वैज्ञानिकों ने इस प्रयोग की आलोचना करते हुए इसे जैव नैतिकी का उल्लंघन बताया है। दुनिया के कुछ देशों में जीन सम्पादन प्रौद्योगिकी पर प्रतिबंध है। इसी वर्ष चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ और अमेरिका के पडर्यू विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने क्रिस्पर तकनीक से चावल की अधिक पैदावार वाली किस्म विकसित की।

विज्ञान शोध पत्रिका नेचर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार जर्मनी के वैज्ञानिकों ने बैबून (बंदर की प्रजाति) के शरीर में सूअर का दिल सफलतापूर्वक लगा दिया है। बैबून छह महीने से अधिक समय तक जीवित रहा। प्रत्यारोपण के लिए सूअर के जीन में परिवर्तन किया गया था। अपनी तरह के इस पहले प्रयोग से भविष्य में मनुष्य को नया जीवन प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त हुआ है।

खगोल विज्ञान के अध्येताओं ने विशेष प्रकार के कैमरे से एक मंदाकिनी 1052-डीएफ-2 की खोज की, जिसमें डार्क मैटर अर्थात अदृश्य द्रव्य नहीं है। वास्तव में डार्क मेटर एक रहस्यपूर्ण पदार्थ है, जिसका द्रव्यमान है, लेकिन वह दिखाई नहीं देता।

इसी साल भौतिकीविदों ने हिग्स बोसान की खोज के छह वर्षों बाद बताया कि इनका क्षय होता है। सर्न प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने 2012 में इन कणों के अस्तित्व का पता लगाया था।

अमेरिकी अध्ययनकर्ताओं की एक टीम को समुद्री घोंघे में याददाश्त स्थानांतरण में सफलता मिली। वैज्ञानिकों का कहना है कि आरएनए अणु के ज़रिए याददाश्त को एक जीव से दूसरे जीव में स्थानांतरित किया गया था। बीते साल ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं ने मनुष्य की कोशिकाओं में एक नई आकृति के डीएनए अणु की खोज की, जिसे आई-मेटिफ नाम दिया है। वस्तुत: यह चार लड़ियों की गांठ जैसी संरचना है। आई-मेटिफ डीएनए अणु जीन्स के नियंत्रण में अहम भूमिका निभाता है।

विदा हो रहे वर्ष में ईरान ने इस्राइल पर बादलों को चुराने का आरोप लगाया। ईरान में हो रहे जलवायु परिवर्तन को देखते हुए इस्राइल संदेह के दायरे में आ गया। ईरान के अनुसंधानकर्ताओं ने एक विश्लेषण का हवाला देते हुए कहा कि इस्राइल की कोशिश है कि ईरान के आसमान में बादल तो छाएं, लेकिन बारिश न हो। ऐसा पहले हो चुका है। बीते वर्षों में मौसम विज्ञानी बादलों को कैद करने और कृत्रिम बादल बनाने के प्रयोग करते रहे हैं। एक बात और। मौसम को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की दिशा में कई देश लंबे समय से अनुसंधानों में लगे हुए हैं।

नवंबर के दूसरे पखवाड़े में फ्रांस के वरसेलीज़ में साठ देशों के वैज्ञानिकों ने किलोग्राम की परिभाषा बदलने का निर्णय किया। 129 वर्षों बाद किया गया यह परिवर्तन ऐतिहासिक कहा जा सकता है। भविष्य में मानक वज़न की बजाय विद्युत धारा से किलोग्राम नापा जाएगा। नए मापन से नैनो तकनीक और औषधियों के विकास में सटीकता और परिशुद्धता प्राप्त की जा सकेगी।

इस वर्ष परखनली शिशु तकनीक के चार दशक पूरे हुए। विश्व की पहली परखनली शिशु लुईस ब्राउन है। इन चार दशकों में लगभग साठ लाख परखनली शिशु पैदा हो चुके हैं।

वर्ष 2018 में विज्ञान कथाओं पर लिखी किताब फ्रैंकेस्टाइन: ऑर दी मॉडर्न प्रोमेथियस के प्रकाशन के दो सौ साल पूरे हुए। इस किताब का प्रकाशन पहली बार 1818 में हुआ था। इसे पहली विज्ञान कथा पुस्तक का सम्मान मिला है। इसी वर्ष इंडोनेशिया में एशियाई खेल हुए, जहां विज्ञान और अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी का जलवा दिखाई दिया। खिलाड़ियों ने विज्ञान की मदद से नए कीर्तिमान रचे।

वर्ष 2018 का भौतिक विज्ञान का नोबेल पुरस्कार आर्थर एस्किन, गेरार्ड मोरो और डोना स्ट्रिकलैंड को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया। तीनों अनुसंधानकर्ताओं को लेज़र रिसर्च में योगदान के लिए यह प्रतिष्ठित सम्मान मिला। रसायन विज्ञान का नोबेल सम्मान फ्रांसेस अर्नाल्ड, ग्रेगरी विंटर और जॉर्ज स्मिथ को संयुक्त रूप से दिया गया। तीनों अध्येताओं को परखनली में रसायनों के क्रमिक विकास में शोधकार्य के लिए पुरस्कृत किया गया। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार अमेरिका के जेम्स पी. एलिसन और जापान के तासुकु होन्जो को प्रदान किया गया। दोनों अध्येताओं ने कैंसर के खिलाफ शरीर को सक्षम बनाने वाली चिकित्सा की खोज में विशेष योगदान किया है। इस साल का अर्थशास्त्र का नोबेल विलियम नॉर्डहॉस और पॉल रोमर को जलवायु परिवर्तन को आर्थिक विकास के साथ एकीकृत करने के लिए प्रदान किया गया। वर्ष 2018 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार रॉबर्ट पी. लैंगलैंड्स को प्रदान किया गया।

14 मार्च को महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग का निधन हो गया। वे नर्वस सिस्टम की एक दुर्लभ बीमारी से पीड़ित थे। उन्होंने ब्लैक होल्स और सापेक्षता जैसे अहम वैज्ञानिक मुद्दों पर अपनी सोच प्रस्तुत की। उनकी मौलिक सोच ने ब्राहृांड में नई संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त किया। स्टीफन हॉकिंग की पुस्तक ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम 1988 में प्रकाशित हुई थी। स्टीफन हॉकिंग ने पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन के मंडराते खतरों को देखते हुए अंतरिक्ष में जीवन की नई संभावनाओं को तलाशने की बात कही थी।

3 अक्टूबर को गॉड पार्टिकल के जनक लियो लेडरमैन का निधन हो गया। उन्हें 1988 में भौतिक शास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला था। लियो लेडरमेन फर्मी लैब के निदेशक पद पर भी आसीन रहे। 26 मई को चंद्रमा पर पहुंचने वाले चौथे अंतरिक्ष यात्री एलन बीन की 86 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई। एलन बीन अंतरिक्ष यात्री होने के साथ चित्रकार भी थे। उन्होंने अपने अंतरिक्ष यात्रा के अनुभवों को चित्रों के माध्यम से व्यक्त किया है। उनकी पुस्तक माई लाइफ एज़ एन एस्ट्रोनॉट उल्लेखनीय है।

गुज़रे साल भारतीय विज्ञान अनेक क्षेत्रों में आगे बढ़ता रहा। अंतरिक्ष में शानदार सफलताएं हासिल कीं। इसरो ने अगस्त में गगन मिशन के अंतर्गत 2022 में अंतरिक्ष में मनुष्य को भेजने की घोषणा की। इसकी तैयारी 2004 में शुरू की गई थी। जुलाई में क्रू एस्केप सिस्टम का सफल परीक्षण किया गया। इस परीक्षण से हम समानव अंतरिक्ष यात्रा की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ गए। अमेरिका, रूस और चीन के बाद भारत अंतरिक्ष में मानव भेजने वाला चौथा देश होगा।

वर्ष की शुरुआत में इसरो ने पीएसएलवी सी-40 प्रक्षेपण यान से एक साथ 31 उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित किया। इनमें भारत का सौवां उपग्रह कार्टोसैट-2 एफ भी शामिल था।

गत वर्ष में इसरो की उपलब्धियों में एक-के-बाद-एक सफलता के अध्याय जुड़ते रहे। 16 सितंबर को पीएसएलवी सी-42 प्रक्षेपण यान के ज़रिए ब्रिटेन के दो उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजा गया। भारत अभी तक 28 देशों के 237 उपग्रहों का प्रक्षेपण कर चुका है। 14 नवंबर को बाहुबली रॉकेट जीएसएलवी मार्क-3 डी-2 रॉकेट के ज़रिए संचार उपग्रह जीसैट-29 उपग्रह को अंतरिक्ष में विदाई दी गई। इसका निर्माण देश में ही किया गया है। यह अभी तक का सबसे भारी उपग्रह है। इस सफलता के साथ इसरो मानव अंतरिक्ष उड़ान के एक कदम और नज़दीक पहुंच गया। इस रॉकेट में स्वदेशी क्रॉयोजेनिक इंजन है।

इसी वर्ष इसरो ने 29 नवंबर को पीएसएलवी-सी-43 के माध्यम से आधुनिक भू-पर्यवेक्षण उपग्रह हाइसिस एवं तीस अन्य उपग्रहों को अंतरिक्ष में विदाई दी। हाइपर स्पेक्ट्रल इमेजिंग उपग्रह का उद्देश्य पृथ्वी की सतह का अध्ययन करना है। साल के उत्तरार्ध में फ्रेंच गुआना से देश के सबसे भारी संचार उपग्रह जीसैट-11 का सफल प्रक्षेपण किया गया। इस उपग्रह से इंटरनेट की रफ्तार बढ़ाने में सहायता मिलेगी। इसरो अगले वर्ष 3 जनवरी को चंद्रयान-2 भेजेगा, जो चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचेगा।

इस वर्ष 27 अगस्त को पहली बार जैव-र्इंधन से विमान उड़ाकर भारत ने विमानन के क्षेत्र में नया इतिहास रचा। रतनजोत से बने इस र्इंधन का विकास सीएसआईआर के देहरादून स्थित भारतीय पेट्रोलियम संस्थान ने किया है। विमान ने 20 सवारियों के साथ देहरादून से दिल्ली के बीच 25 मिनट उड़ान भरी। विकासशील देशों में यह उपलब्धि हासिल करने वाला भारत पहला देश बन गया है।

इसी साल भौतिकी अनुसंधान प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों के एक दल ने पहली बार में ही लगभग 600 प्रकाश वर्ष दूर सूर्य के समान तारे की परिक्रमा कर रहे एक बड़े बाह्र-ग्रह (एक्सोप्लेनेट) की खोज की। वास्तव में एक्सोप्लेनेट की खोज नई बात नहीं है। हाल के वर्षों में यह अनुसंधान का रोमांचक विषय रहा है। नासा का केप्लर उपग्रह पहले ही 3786 एक्सोप्लेनेट की खोज कर चुका है। इस खोज के साथ भारत उन देशों की पंक्ति में सम्मिलित हो गया है, जिन्होंने सौर मंडल से बाहर ग्रहों की खोज की है।

गुज़रे साल पृथ्वी के भूगर्भीय इतिहास में एक और नया युग मेघालयन जुड़ गया। इसका नाम भारत के पूर्वोत्तर राज्य मेघालय के नाम पर रखा गया है। मेघालयन युग 4200 वर्ष पूर्व शुरू हुआ था और अभी जारी है।

सीएसआईआर की राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी), नागपुर और केंद्रीय विद्युत रसायन अनुसंधान संस्थान, कराईकुड़ी प्रयोगशालाओं ने दीपावली पर आतिशबाज़ी से होने वाले प्रदूषण को घटाने के लिए ग्रीन पटाखे बनाने की तकनीक विकसित की। इनसे तीस प्रतिशत तक कम वायु प्रदूषण होता है।  

हमारे देश में कृत्रिम मेधा पर अनुसंधान शुरुआती दौर में है। इसके लिए सामाजिक ढांचा ज़रूरी है। हमारे जीवन पर इसका सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार का प्रभाव पड़ेगा। एक ओर गंभीर बीमारियों के इलाज और खेती-किसानी सम्बंधी कार्यों में सहायता मिलेगी, वहीं दूसरी ओर, बेरोज़गारी की चुनौतियों का मुकाबला भी करना पड़ेगा।

26 सितंबर को सीएसआईआर ने वर्ष 2018 के शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार के लिए 13 वैज्ञानिकों के नामों की घोषणा की। इनमें एकमात्र महिला वैज्ञानिक डॉ. अदिति सेन डे को भौतिक विज्ञान में पुरस्कृत किया गया है।

इस वर्ष 3 अक्टूबर को एक विशेष समारोह में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों को संयुक्त रूप से संयुक्त राष्ट्र के सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार चैम्पियंस ऑफ दी अर्थ से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार पॉलिसी लीडरशिप के अंतर्गत प्रति वर्ष दिया जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह सम्मान पर्यावरण संरक्षण तथा जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों पर रोक लगाने के प्रयासों में सराहनीय नेतृत्व के लिए प्रदान किया गया।

केंद्र सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने पहली बार विज्ञान के विभिन्न विषयों में पीएच.डी. और पोस्ट डॉक्टरल शोधकर्ताओं में लोकप्रिय विज्ञान लेखन के कौशल को बढ़ावा देने की एक परियोजना आगमेंटेड राइटिंग स्किल्स फॉर आर्टिक्युलेटिंग रिसर्च (संक्षेप में अवसर) शुरू की। इस राष्ट्रीय प्रतियोगिता का उद्देश्य अखबारों, पत्रिकाओं, ब्लॉग्स, सोशल मीडिया आदि माध्यमों से विज्ञान को लोकप्रिय बनाना और समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना है। प्रतियोगिता में चुने गए आलेखों को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस पर पुरस्कृत किया जाएगा।

अक्टूबर में लखनऊ में चौथा भारतीय अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव आयोजित किया गया, जिसमें नवाचारों और अनुसंधान कार्यों पर विचारों का आदान-प्रदान हुआ। चार-दिवसीय महोत्सव के दौरान साइंस एक्सपो में अंतरिक्ष विज्ञान और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आधारित मॉडल ने दर्र्शकों को आकर्षित किया। विज्ञान महोत्सव में लगभग छह सौ विद्यार्थियों ने एक साथ केले का डीएनए अणु अलग करके एक नया इतिहास रचा। इसी प्रकार करीब साढ़े तीन हज़ार विद्यार्थियों ने प्राथमिक उपचार का डेमो देकर नया कीर्तिमान स्थापित किया। सम्मेलन में इंटरनेशनल साइंस लिटरेचर एंड फिल्म फेस्टिवल आयोजित किया गया, जिसमें विज्ञान फिल्मों और साइंस कार्टून शामिल किए गए।

गुज़रे साल संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ने सिक्किम को जैविक राज्य के रूप में मान्यता देते हुए स्वर्ण पदक से सम्मानित किया। वर्ष 2016 में सिक्किम को पूरी तरह जैविक राज्य घोषित किया गया था। विदा हो चुके वर्ष 2018 में प्लास्टिक के खिलाफ महाअभियान जारी रहा। संयुक्त राष्ट्र की बीट प्लास्टिक पोल्यूशन थीम पर देश के विश्वविद्यालयों में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया गया।

इसी वर्ष 14 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ अंतरिक्ष वैज्ञानिक शंकरलिंगम नम्बी को गोपनीय जानकारियां बेचने के आरोपों से मुक्त कर दिया। उन पर 1994 में इसरो की गोपनीय सूचनाएं पाकिस्तान को बेचने के आरोप लगाए गए थे।

इसी साल केरल के कोझिकोड ज़िले में निपाह वायरस का प्रकोप दिखाई दिया। 1998 में पहली बार इस वायरस के हमले का पता चला था। निपाह वायरस को फैलाने में चमगादड़ों की अहम भूमिका रही है। निपाह वायरस का नामकरण मलेशिया के सुनगई निपाह गांव के नाम पर किया गया है।

नवंबर में देश की पहली परमाणु पनडुब्बी आईएनएस अरिहंत राष्ट्र को समर्पित की गई।

गुज़रे साल देश में मेट्रिक प्रणाली लागू होने की हीरक जयंती मनाई गई। मेट्रिक प्रणाली एक अप्रैल 1957 से लागू की गई है। इसी वर्ष विख्यात वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस की 125 वीं जयंती मनाई गई। इस अवसर पर कोलकाता में आयोजित समारोह में मुख्य अतिथि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्षेत्रीय भाषाओं में विज्ञान प्रसार पर बल दिया। 29 जून को जाने-माने सांख्यिकीविद् प्रोफेसर महालनोबिस की 125 वीं जयंती मनाई गई।

इस वर्ष भारतीय गणित की विलक्षण प्रतिभा तथा शिक्षा शास्त्री पी. सी. वैद्य का जन्म शती वर्ष मनाया गया। 23 मार्च 1918 को जन्मे वैद्य ने सापेक्षता सिद्धांत के अनेक पक्षों पर अनुसंधान किया। उन्होंने गांधीवादी विचारों को अपनाते हुए पूरा जीवन गणित के अध्ययन और अनुसंधान को समर्पित कर दिया। वैद्य ने गुजरात गणित मंडल की स्थापना की। वे गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे।

18 जून को विख्यात वनस्पति विज्ञानी और विज्ञान संचारक एच. वाई. मोहनराम नहीं रहे। उनका नाम देश के प्रथम पंक्ति के वनस्पतिविदों में गिना जाता है। उन्होंने वनस्पति शास्त्र की अनेक विधाओं में विशेष योगदान किया। प्रोफेसर मोहनराम ने ऊतक संवर्धन तकनीक से बांस, केला आदि आर्थिक महत्व की वनस्पतियों को पैदा करने की दिशा में शोधकार्य किया और अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। उन्होंने विद्यार्थियों और सामान्य जन के बीच विज्ञान को लोकप्रिय बनाने में भी सक्रिय भूमिका निभाई।

प्रसिद्ध खगोल फोटोग्राफर और विज्ञान संचारक चंदर देवगन की 29 जुलाई को मृत्यु हो गई। उन्होंने अनेक ग्रहण अभियानों का कुशल नेतृत्व किया। वे सूर्य व चंद्र ग्रहण, बुध और शुक्र के पारगमन सहित कई दुर्लभ खगोलीय घटनाओं के साक्षी बने थे।

वर्ष 2018 में हमने पर्यावरणविद प्रोफेसर गुरुदास अग्रवाल को खो दिया। उन्होंने गंगा नदी प्रवाह को निरतंर बनाए रखने के लिए चार दशकों तक संघर्ष किया। पेशे से इंजीनियर प्रोफेसर अग्रवाल ने आईआईटी, कानपुर में अध्यापन किया। वे कई पर्यावरण आंदोलनों से जुड़े रहे। उन्हें गंगा नदी प्राधिकरण का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था।

6 जुलाई को पर्यावरणविद, चित्रकार और लेखक अमृतलाल वेगड़ नहीं रहे। वे संवेदनशील चित्रकार थे। उन्होंने नर्मदा नदी पर तीन किताबें लिखीं – सौंदर्य की नदी नर्मदा, अमृतस्य नर्मदा और तीरे-तीरे नर्मदा। नर्मदा नदी से उनका जीवन पर्यंत विशेष लगाव रहा। उन्होंने नदियों को बचाने की चिंता की और अपनी अलग पहचान बनाई। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैफीन-रहित चाय का पौधा – डॉ. अरविंद गुप्ते

जकल चाय सही अर्थ में आम आदमी का पेय बन गया है। गरीब से गरीब व्यक्ति मेहमाननवाज़ी के लिए चाय ही पिलाता है। चाय का पौधा मूल रूप से चीन का निवासी है। एक दंतकथा के अनुसार 2732 ईसा पूर्व (आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व) चीन का बादशाह शेन नुंग शिकार के लिए जंगल गया था। वहां खाना बनाते समय एक जंगली झाड़ी की कुछ पत्तियां उबलते पानी में गिर गर्इं। बादशाह को उस पानी का स्वाद पसंद आया और इस प्रकार उस पौधे की पत्तियों से चाय बनाने की शुरुआत हुई। उस समय चाय का सेवन प्रमुख रूप से एक दवा के रूप में किया जाता था। किंतु पेय के रूप में चाय का उपयोग वहां लगभग 1500 से 2000 वर्ष पूर्व के बीच होने लगा। 16वीं शताब्दी में पुर्तगाल के पादरी और व्यापारी चाय को युरोप लाए। 17वीं शताब्दी में ब्रिाटेन में चाय पीने का फैशन चल पड़ा और अंग्रेज़ों ने भारत में चाय के बागान लगा कर इसका उत्पादन शुरू किया।

चाय पीने से ताज़गी क्यों आती है? इसका कारण यह है कि चाय में कैफीन होता है जो तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित कर देता है। कैफीन के अलावा चाय में थियोब्रोमीन और थियोफायलीन जैसे तंत्रिका उत्तेजक पदार्थ होते हैं जो कैफीन की तुलना में कम मात्रा में होते हैं। चाय और कॉफी के पौधों में कैफीन की उपस्थिति उन्हें कीटों से बचाती है क्योंकि यह एक कीटनाशक भी होता है। कैफीन के विषैले होने के कारण इसके अत्यधिक सेवन से मृत्यु तक हो सकती है।   

चाय या कॉफी पीने का एक नकारात्मक पहलू यह होता है कि तंत्रिका तंत्र के उत्तेजित हो जाने से नींद नहीं आती। जब नींद नहीं आती तब अकारण चिंता बढ़ती है। इसलिए कई लोग बिना कैफीन वाली कॉफी पीते हैं। कॉफी के समान चाय से भी कैफीन को हटाया जा सकता है किंतु इसके लिए चाय की पत्तियों को खौलते पानी में काफी देर तक रखना पड़ता है। इस प्रक्रिया से कैफीन के साथ चाय में मौजूद लाभदायक रसायन भी निकल जाते हैं। बिना कैफीन की कॉफी या चाय अगर तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित न करे तो ताज़गी महसूस नहीं होगी। फिर उन्हें पीने से क्या फायदा? इसके अलावा, कैफीन और अन्य रसायन हट जाने से इनका स्वाद भी बदल जाता है।

यदि चाय का ऐसा पौधा मिल जाए जिसमें कैफीन बिलकुल न हो या बहुत कम हो तो सोने में सुहागा वाली स्थिति बन जाएगी – चाय का स्वाद बना रहेगा और इससे होने वाले हानिकारक परिणामों से भी बचा जा सकेगा। 2011 में चीन के गुआंगडांग प्रांत में चाय का एक ऐसा पौधा मिला था जिसमें कैफीन नहीं था। इस पौधे की खोज के बाद चीनी वनस्पतिशास्त्रियों ने ऐसे ही अन्य चाय के पौधों की तलाश शुरू की। परिणामस्वरूप उन्हें दक्षिण चीन के फुजियान प्रांत में भी चाय का कैफीन-रहित पौधा मिला है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि कैफीन की अनुपस्थिति का कारण इन पौधों के कैफीन का निर्माण करने वाले जीन में परिवर्तन था। सन 2003 में कॉफी के भी दो ऐसे पौधे पाए गए थे जिनमें कैफीन प्राकृतिक रूप से अनुपस्थित था, किंतु इन्हें बड़े क्षेत्र में लगाना संभव नहीं हो पाया। संभव है कि बिना कैफीन वाले चाय के पौधों के साथ भी ऐसा ही हो। फिलहाल यह पहेली बनी हुई है कि यदि कैफीन कीटनाशक के रूप में पौधों की कीटों से रक्षा करता है तो इन पौधों ने ऐसे लाभदायक रसायन को क्यों त्याग दिया। (स्रोत फीचर्स)

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क्या विश्व सतत विकास लक्ष्य प्राप्त कर सकेगा? – भारत डोगरा

न दिनों विश्व स्तर पर सतत विकास लक्ष्य (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स या एस.डी.जी) विमर्श के केंद्र में हैं। विकास, पर्यावरण रक्षा व समाज कल्याण की विभिन्न प्राथमिकताओं के सम्बंध में व्यापक विमर्श के बाद समयबद्ध लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं कि विभिन्न देशों को निर्धारित समय पर यहां तक अवश्य पहुंचना चाहिए। सतत विकास लक्ष्यों की सार्थकता यह बताई गई है कि इनके निर्धारित होने से उचित प्राथमिकताओं को अपनाने में विश्व स्तर पर बहुत मदद मिलेगी।

ये लक्ष्य तो बहुत ज़रूरी हैं और यदि विश्व इन समयबद्ध लक्ष्यों को पूरा कर सके तो निश्चय ही यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। विकास के महत्वपूर्ण मानकों के आधार पर अभी तक की सबसे बड़ी उपलब्धियां प्राप्त होंगी। पर बड़ा सवाल यह है कि यह सतत विकास लक्ष्य वास्तव में कहां तक प्राप्त हो सकेंगे।

चिंता की एक बड़ी वजह यह है कि जिस दौर में विकास के सबसे बड़े लक्ष्य प्राप्त करने की बात कही जा रही है उसी दौर में अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक व विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि इस दौर में अति गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं के कारण व अति विनाशक हथियारों के कारण धरती की जीवनदायिनी क्षमताएं ही खतरे में पड़ सकती हैं। सवाल यह है कि ऐसे गंभीर संकट के दौर में विकास की सबसे बड़ी उपलब्धियां कैसे प्राप्त की जा सकती हैं।

जहां एक ओर इतनी गंभीर चुनौतियां हैं, उसी दौर में सतत विकास के निर्धारित लक्ष्य कैसे प्राप्त होंगे? यह प्रश्न इस कारण और पेचीदा हो जाता है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता को संकट में पड़ने से बचाने के प्रयास हाल के समय में सफलता से बहुत दूर रहे हैं और विश्व के सबसे शक्तिशाली देश इस संदर्भ में अपनी बड़ी ज़िम्मेदारियों से दूर हटते नज़र आए हैं।

अत: इस समय यह बहुत ज़रूरी है कि विध्वंसक हथियारों को न्यूनतम करने, युद्ध व गृह युद्ध की संभावना कम से कम करने तथा अमन-शांति के लिए विश्व में एक व्यापक व सशक्त जन-अभियान निरंतरता से चले। इसी तरह धरती की जीवनदायिनी क्षमता से जुड़े पर्यावरण के मुद्दों पर भी ऐसा ही अभियान चले। इन जन-अभियानों द्वारा इन समस्याओं की गंभीरता की जानकारी करोड़ों लोगों तक भलीभांति पहुंचाई जाए व इन समस्याओं के समाधान के अनुकूल जीवन-मूल्यों का प्रसार किया जाए। इस तरह अति महत्वपूर्ण मुद्दों पर एक ज़बरदस्त जन-उभार आ सकता है व इस उभार के कारण सरकारें भी इन मुद्दों पर अधिक ध्यान देने के लिए बाध्य होंगी। इस तरह जो अनुकूल माहौल तैयार होगा, उससे सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने की संभावना बहुत बढ़ जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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