सेल्फी एलर्ट ऐप देगा जानलेवा सेल्फी की चेतावनी

सेल्फी लेना अब संक्रामक बीमारी बनती जा रही है। सेल्फी के कारण काफी मौतें हो रही हैं। इससे बचाव के लिए अमेरिका व भारत के वैज्ञानिक एक सेल्फी एलर्ट ऐप तैयार कर रहे हैं, जो खतरनाक पोज़ देने वालों को चेतावनी देगा कि इससे मौत हो सकती है। पेनसिल्वेनिया, अमेरिका के पिट्सबर्ग में कारनेगी मेलन विश्वविद्यालय में शोध कर रहे हेमनाक लांबा यह ऐप बना रहे हैं। वहीं दिल्ली के इंद्रप्रस्थ सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान के प्रोफेसर पोन्नुरंगम कुमारगुरू भी कुछ इसी तरह के ऐप पर काम कर रहे हैं। सेल्फी के दौरान अब तक सबसे अधिक मौतें भारत में ही हुई हैं और यह आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है।

हेमनाक लांबा बताते हैं कि उनकी टीम ने इसके लिए एक एल्गोरिदम विकसित की है, जो आंकड़ों और तथ्यों के आधार पर लोगों को यह बता सकेगी कि कौन-सा स्थान खतरनाक है? इस ऐप के माध्यम से खतरनाक स्थानों पर सेल्फी के लिए पहुंचने वालों के मोबाइल फोन से घंटी बज जाएगी, जिससे यह पता चल जाएगा कि जहां वे पहुंचने वाले हैं वह स्थान खतरनाक है। टीम का दावा है कि देश, समय और परिस्थिति के आधार पर खतरनाक सेल्फी की पहचान और एलर्ट से सम्बंधित शोधों में 70 प्रतिशत से अधिक सफलता मिली है और शीघ्र ही वे इस ऐप को लॉन्च कर सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्राकृतिक तटरक्षक: मैंग्रोव वन – डॉ. दीपक कोहली

मैंग्रोव सामान्यत: ऐसे पेड़-पौधे होते हैं, जो तटीय क्षेत्रों में खारे पानी में पाए जाते हैं। ये उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इन वनस्पतियों को तटीय वनस्पतियां अथवा कच्छीय वनस्पतियां भी कहा जाता है। ये वनस्पतियां समुद्र तटों पर, नदियों के मुहानों व ज्वार प्रभावित क्षेत्रों में पाई जाती हैं। विषुवत रेखा के आसपास के क्षेत्रों में जहां जलवायु गर्म तथा नम होती है, वहां मैंग्रोव वन की लगभग सभी प्रजातियां पाई जाती हैं।

पृथ्वी पर इस प्रकार के मैंग्रोव वनों का विस्तार एक लाख वर्ग किलोमीटर में है। मैंग्रोव वन मुख्य रूप से ब्राज़ील (25,000 वर्ग किलोमीटर), इंडोनेशिया (21,000 वर्ग किलोमीटर) और ऑस्ट्रेलिया (11,000 वर्ग किलोमीटर) में है। भारत में 6,740 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर इस प्रकार के वन फैले हुए हैं। यह विश्व भर में विद्यमान मैंग्रोव वनों का 7 प्रतिशत है। इन वनों में 50 से भी अधिक जातियों के मैंग्रोव वृक्ष पाए जाते हैं। मैंग्रोव वनों का 82 प्रतिशत देश के पश्चिमी भागों में पाया जाता है।

मैंग्रोव वृक्षों के बीजों का अंकुरण एवं विकास पेड़ पर लगे-लगे ही होता है। जब समुद्र में ज्वार आता है और पानी ज़मीन की ओर फैलता है, तब कुछ अंकुरित बीज पानी के बहाव से टूटकर गिर जाते हैं और पानी के साथ बहने लगते हैं। ज्वार के उतरने पर ये जमीन पर यहां-वहां जम जाते हैं और आगे विकसित होते हैं। इसी कारण इन्हें जरायुज (या पिंडज) कहते हैं, यानी सीधे संतान उत्पन्न करने वाले।

चूंकि ये पौधे लवणीय पानी में रहते हैं, इसलिए उनके लिए यह आवश्यक होता है कि इस पानी में मौजूद लवण उनके शरीर में एकत्र न होने लगें। इन वृक्षों की जड़ों एवं पत्तियों पर खास तरह की लवण ग्रंथियां होती हैं, जिनसे लवण निरंतर घुलित रूप में निकलता रहता है। वर्षा का पानी इस लवण को बहा ले जाता है। इन पेड़ों की एक अन्य विशेषता उनकी श्वसन जड़ें हैं। पानी में ऑक्सीजन की कमी के कारण इन पेड़ों की जड़ों को पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिल पाती है। इस समस्या से निपटने के लिए उनमें विशेष प्रकार की जड़ें होती हैं, जो सामान्य जड़ों के विपरीत ज़मीन से ऊपर निकल आती हैं। इनमें छोटे-छोटे छिद्र होते हैं जिनकी सहायता से ये हवा ग्रहण करके उसे नीचे की जड़ों को पहुंचाती हैं। इन जड़ों को श्वसन मूल कहा जाता है।

इन श्वसन मूलों का दूसरा कार्य दलदली भूमि में इन वृक्षों को स्थिरता प्रदान करना भी है। मैंग्रोव पौधों के तनों के केन्द्र में कठोर लकड़ी नहीं पाई जाती है। इसके स्थान पर पतली नलिकाएं होती हैं जो पूरे तने में फैली रहती हैं। इस कारण मैंग्रोव पौधे बाहरी छाल तथा तने को होने वाली क्षति को सहन नहीं कर सकते हैं। इन पौधों में पाई जाने वाली वायवीय जड़ें कई रूप ले सकती हैं। ऐविसेनिया जैसी प्रजाति के पौधों में ये जड़ें छोटी तथा तार जैसी होती हैं जो तने से निकलकर चारों ओर फैली होती हैं। ये जड़ें भूमि तक पहुंचकर पौधों को सहारा देती हैं।

मैंग्रोव वृक्षों में जल संरक्षण की क्षमता भी पाई जाती है। वाष्पोत्सर्जन द्वारा पानी के उत्सर्जन को रोकने के लिए इन पौधों में मोटी चिकनी पत्तियां होती हैं। पत्तियों की सतह पर पाए जाने वाले रोम पत्ती के चारों ओर वायु की एक परत को बनाए रखते हैं। ये पौधे रसदार पत्तियों में पानी संचित कर सकते हैं। ये सभी विशेषताएं इन्हें प्रतिकूल वातावरण में जीवित रहने योग्य बनाती हैं।

विश्व में चार मुख्य प्रकार के मैंग्रोव वृक्ष पाए जाते हैं – लाल मैंग्रोव, काले मैंग्रोव, सफेद मैंग्रोव और बटनवुड मैंग्रोव। लाल मैंग्रोव वनस्पति की श्रेणी में वे पौधे आते हैं जो बहुत अधिक खारे पानी को सहन करने की क्षमता रखते हैं तथा समुद्र के नज़दीक उगते हैं। राइज़ोफोरा प्रजाति के वृक्ष इसी श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं।

काली मैंग्रोव वनस्पति की श्रेणी में वे पौधे आते हैं जिनकी खारे पानी को सहने की क्षमता अपेक्षाकृत कम होती है। ब्रुगेरिया प्रजाति के वृक्ष इस श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं।

सफेद मैंग्रोव वनस्पति का नाम इनकी चिकनी सफेद छाल के कारण पड़ा है। इन पौधों को इनकी जड़ों तथा पत्तियों की विशेष प्रकार की बनावट के कारण अलग से पहचाना जा सकता है। ऐविसेनिया प्रजाति के पौधे इस श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं।

बटनवुड मैंग्रोव पौधे झाड़ी के आकार के होते हैं तथा इनका यह नाम इनके लाल-भूरे रंग के तिकोने फलों के कारण है। कोनोकार्पस प्रजाति के पौधे इस श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं।

भारत में मैंग्रोव वनों का 59 प्रतिशत पूर्वी तट (बंगाल की खाड़ी), 23 प्रतिशत पश्चिमी तट (अरब सागर) तथा 18 प्रतिशत अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में पाया जाता है। भारतीय मैंग्रोव वनस्पतियां मुख्यत: तीन प्रकार के तटीय क्षेत्रों में पाई जाती है – डेल्टा, बैकवॉटर व नदी मुहाने तथा द्वीपीय क्षेत्र। डेल्टा क्षेत्र में उगने वाले मैंग्रोव  मुख्यत: पूर्वी तट पर (बंगाल की खाड़ी में) पाए जाते हैं जहां गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, कृष्णा, गोदावरी और कावेरी जैसी बड़ी नदियां विशाल डेल्टा क्षेत्रों का निर्माण करती हैं। नदी मुहानों पर उगने वाली मैंग्रोव वनस्पति मुख्यत: पश्चिमी तट पर पाई जाती हैं जहां सिन्धु, नर्मदा, ताप्ती जैसी प्रमुख नदियां कीप के आकार के मुहानों का निर्माण करती हैं। द्वीपीय मैंग्रोव द्वीपों में पाए जाते हैं जहां छोटी नदियों, ज्वारीय क्षेत्रों तथा खारे पानी की झीलों में उगने के लिए आदर्श परिस्थितियां उपस्थित होती हैं।

भारत में विश्व के कुछ प्रसिद्ध मैंग्रोव क्षेत्र पाए जाते हैं। सुन्दरवन विश्व का सबसे बड़ा मैंग्रोव क्षेत्र है। इसका कुछ भाग भारत में तथा कुछ बांग्लादेश में है। सुन्दरवन का भारत में आने वाला क्षेत्र गंगा तथा ब्रह्मपुत्र नदियों के डेल्टा क्षेत्रों के पश्चिमी भाग में है। इन नदियों द्वारा ताज़े पानी की लगातार आपूर्ति के कारण वन क्षेत्र में तथा समुद्र के नज़दीक पानी में खारापन समुद्र की अपेक्षा सदैव कम रहता है। उड़ीसा तट पर स्थित महानदी डेल्टा का निर्माण महानदी, ब्रह्मणी तथा वैतरणी नदियों द्वारा होता है। ताज़े पानी की आपूर्ति के कारण यहां भी जैव विविधता तथा पौधों का घनत्व सुन्दरवन जैसा ही है। गोदावरी मैंग्रोव क्षेत्र (आंध्र प्रदेश) गोदावरी नदी के डेल्टा में स्थित है। कृष्णा डेल्टा में भी मैंग्रोव वनस्पतियां पाई जाती हैं। तमिलनाडु में कावेरी डेल्टा में पिचावरम और मुथुपेट मैंग्रोव वन स्थित हैं।

मनुष्य द्वारा मैंग्रोव वनों का प्रयोग कई तरह से किया जाता है। स्थानीय निवासियों द्वारा इनका उपयोग भोजन, औषधि, टैनिन, ईंधन तथा इमारती लकड़ी के लिए किया जाता रहा है। तटीय इलाकों में रहने वाले लाखों लोगों के लिए जीवनयापन का साधन इन वनों से प्राप्त होता है तथा ये उनकी पारम्परिक संस्कृति को जीवित रखते हैं। मैंग्रोव वन धरती व समुद्र के बीच एक अवरोधक बफर की तरह कार्य करते हैं तथा समुद्री प्राकृतिक आपदाओं से तटों की रक्षा करते हैं। ये तटीय क्षेत्रों में तलछट के कारण होने वाले जान-माल के नुकसान को रोकते हैं।

मैंग्रोव उस क्षेत्र में पाई जाने वाली कई जंतु प्रजातियों को शरण उपलब्ध कराते हैं। अनेक प्रकार के शैवालों तथा मछलियों द्वारा जड़ों का उपयोग आश्रय के लिए होता है। मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र मत्स्य उत्पादन के लिए भी महत्वपूर्ण है। मछली तथा शंखमीन (शेल फिश) की बहुत सी प्रजातियों के लिए मैंग्रोव प्रजनन स्थल तथा संवर्धन ग्रह की तरह कार्य करते हैं। मछलियों के अतिरिक्त मैंग्रोव वनों में अन्य जीव-जंतु भी पाए जाते हैं। जैसे, बाघ (बंगाल टाइगर), मगरमच्छ, हिरन, फिशिंग कैट तथा पक्षी। डॉल्फिन, मैंग्रोव-बंदर, ऊदबिलाव आदि मैंग्रोव से सम्बद्ध अन्य जीव हैं।                                                      

बंदर, केकड़े तथा अन्य जीव जंतु मैंग्रोव की पत्तियां खाते हैं। उनके द्वारा उत्सर्जित पदार्थों को जीवाणुओं द्वारा उपयोगी तत्वों में अपघटित कर दिया जाता है।

मैंग्रोव वृक्ष पानी से कार्बनिक अपशिष्ट पदार्थों तथा मिट्टी के कणों को अलग कर देते हैं जिससे पानी साफ होता है तथा उसमें पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ जाती है। यह अन्य सम्बद्ध इकोसिस्टम्स के लिए लाभप्रद है। मैंग्रोव क्षेत्रों में प्रवाल भित्तियां, समुद्री शैवाल तथा समुद्री घास अच्छी तरह पनपती हैं।

मैंग्रोव पौधों में सूर्य की तीव्र किरणों तथा पराबैंगनी-बी किरणों से बचाव की क्षमता होती है। उदाहरण के लिए, ऐविसीनिया प्रजाति के मैंग्रोव पौधे गर्म तथा शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में उगते हैं जहां पर सूर्य की प्रखर किरणें प्रचुर मात्रा में पहुंचती हैं। यह प्रजाति शुष्क जलवायु के लिए भलीभांति अनुकूलित है। राइज़ोफोरा प्रजाति के पौधे अन्य मैंग्रोव पौधों की अपेक्षा अधिक पराबैंगनी-बी किरणों को सहन कर सकते हैं। मैंग्रोव पौधों की पत्तियों में फ्लेवोनाइड होता है जो पराबैंगनी किरणों को रोकने का कार्य करता है।

मैंग्रोव वृक्षों की जड़ें ज्वार तथा तेज़ जल-धाराओं द्वारा होने वाले मिट्टी के कटाव को कम करती हैं। मैंग्रोव वृक्ष धीरे-धीरे मिट्टी को भेदकर तथा उसमें हवा पहुंचाकर उसे पुनर्जीवित करते हैं। जैसे-जैसे दलदली मिट्टी की दशा सुधरती है, उसमें दूसरे पौधे भी उगने लगते हैं जिससे तूफान तथा चक्रवात के समय क्षति कम होती है। चक्रवात तटीय क्षेत्रों पर बहुत तीव्र गति से टकराते हैं और तट जलमग्न हो जाते हैं जिससे तटों पर रहने वाले जीव-जंतुओं की भारी हानि होती है। राइज़ोफोरा जैसी कुछ मैंग्रोव प्रजातियां इन प्राकृतिक आपदाओं के विरूद्ध ढाल का काम करती हैं।

मैंग्रोव वनों की सुरक्षात्मक भूमिका का सबसे अच्छा उदाहरण 1999 में उड़ीसा तट पर आए चक्रवात के समय देखने को मिला था। इस चक्रवात ने मैंग्रोव रहित क्षेत्रों में भारी तबाही मचाई थी जबकि उन क्षेत्रों में नुकसान नगण्य था जहां मैंग्रोव वृक्षों की संख्या अधिक थी। सदियों से समुद्री तूफानों और तेज़ हवाओं का सामना करते आ रहे मैंग्रोव वन आज मनुष्य के क्रियाकलापों के कारण खतरे में हैं। लेकिन हाल के वर्षों की घटनाओं ने मनुष्य को मैंग्रोव वनों के प्रति अपने रवैये के बारे में सोचने पर विवश किया है।

सन 2004 में तटीय क्षेत्रों में सुनामी से हुई भयंकर तबाही से वे क्षेत्र बच गए जहां मैंग्रोव वन इन लहरों के सामने एक ढाल की तरह खड़े थे। उस समय इन वनों ने हज़ारों लोगों की रक्षा की। इस घटना के बाद तटीय क्षेत्र के गांवों में रहने वाले लोगों ने मैंग्रोव वनों को संरक्षण देने का निश्चय किया।

मैंग्रोव वनों का औषधीय उपयोग भी है। मैंग्रोव पौधों की प्रजातियों का उपयोग सर्पदंश, चर्मरोग, पेचिश तथा मूत्र सम्बंधी रोगों के उपचार के लिए तथा रक्त शोधक के रूप में किया जाता है। स्थानीय मछुआरे ऐविसीनिया ऑफिसिनेलिस की पत्तियों को उबालकर उनके रस का उपयोग पेट तथा मूत्र सम्बंधी रोगों के उपचार के लिए करते हैं।

इस प्रकार देखें तो मैंग्रोव कई प्रकार से उपयोगी हैं। सौभाग्य से पिछले कुछ समय में मैंग्रोव वनों में लोगों की रुचि जाग्रत हुई है। मानव सभ्यता के तथाकथित विकास के कारण अन्य पारिस्थितिकी तंत्रों की तरह मैंग्रोव क्षेत्रों के लिए भी खतरा उत्पन्न हो गया है। तटीय इलाकों में बढ़ते औद्योगीकरण तथा घरेलू एवं औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थों को समुद्र में छोड़े जाने से इन क्षेत्रों में प्रदूषण फैल रहा है। मैंग्रोव वनों के संरक्षण के लिए आवश्यक है इन पारिस्थितिकी तंत्रों का बारीकी से अध्ययन किया जाए।

तटवर्ती क्षेत्रों में मैंग्रोव वनों के विकास के कई कार्यक्रम आरम्भ किए गए हैं। भारत में भी इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य हो रहा है। तमिलनाडु के पिचावरम क्षेत्र में मैंग्रोव वृक्षारोपण के लिए इन्हें हरित-पट्टिका के रूप में लगाने का वृहत अभियान चलाया गया जिससे क्षेत्र में मैंग्रोव वनों की सघनता बढ़ी है। मैंग्रोव वनों का उचित प्रकार से संरक्षण एवं संवर्धन समय की मांग है। तभी तो हम आने वाली पीढि़यों को समृद्ध मैंग्रोव वन विरासत में दे पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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क्या युवा खून पार्किंसन रोग से निपट सकता है?

चूहों पर किए गए अध्ययनों से पता चल चुका है कि यदि बूढ़े चूहों को युवा चूहों का खून दिया जाए, तो उनके मस्तिष्क में नई कोशिकाएं बनने लगती हैं और उनकी याददाश्त बेहतर हो जाती है। वे संज्ञान सम्बंधी कार्यों में भी बेहतर प्रदर्शन करते हैं। स्टेनफोर्ड के टोनी वाइस-कोरे द्वारा किए गए परीक्षणों से यह भी पता चल चुका है कि युवा खून का एक ही हिस्सा इस संदर्भ में प्रभावी होता है। खून के इस हिस्से को प्लाज़्मा कहते हैं।

उपरोक्त परिणामों के मद्दे नज़र वाइस-कोरे अब मनुष्यों में युवा खून के असर का परीक्षण कर रहे हैं। दिक्कत यह है कि खून के प्लाज़्मा नामक अंश में तकरीबन 1000 प्रोटीन्स पाए जाते हैं और वाइस-कोरे यह पता करना चाहते हैं कि इनमें से कौन-सा प्रोटीन प्रभावी है। सामान्य संज्ञान क्षमता के अलावा वाइस-कोरे की टीम यह भी देखना चाहती है कि क्या पार्किंसन रोग में इस तकनीक से कोई लाभ मिल सकता है।

उम्र बढ़ने के साथ शरीर में होने वाले परिवर्तनों में से कई का सम्बंध रक्त से है। उम्र के साथ खून में लाल रक्त कोशिकाओं और सफेद रक्त कोशिकाओं की संख्या घटने लगती है। सफेद रक्त कोशिकाएं हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली का महत्वपूर्ण अंग हैं। अस्थि मज्जा कम लाल रक्त कोशिकाएं बनाने लगती है। अबतक किए गए प्रयोगों से लगता है कि युवा खून इन परिवर्तनों को धीमा कर सकता है।

वाइस-कोरे जो परीक्षण करने जा रहे हैं उसमें प्लाज़्मा के प्रोटीन्स को अलग-अलग करके एक-एक का प्रभाव आंकना होगा। यह काफी श्रमसाध्य होगा। एक प्रमुख दिक्कत यह है कि इतनी मात्रा में युवा खून मिलने में समस्या है। उनकी टीम ने 90 पार्किंसन मरीज़ों को शामिल कर लिया है और पहले मरीज़ को युवा खून का इंजेक्शन दे भी दिया गया है। उम्मीद है कि वे खून के प्रभावी अंश को पहचानने में सफल होंगे। इसके बाद कोशिश होगी कि इस अंश को प्रयोगशाला में संश्लेषित करके उसके परीक्षण किए जाएं। (स्रोत फीचर्स)

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चीनी यान चांद के दूरस्थ हिस्से पर उतरा

ह एक रोचक तथ्य है कि चांद का एक ही हिस्सा हमेशा पृथ्वी की ओर रहता है। दूसरे वाले हिस्से पर आज तक कोई अंतरिक्ष यान नहीं उतरा है। इसे हम सिर्फ चांद की परिक्रमा करते उपग्रहों के ज़रिए ही देख पाए हैं मगर अब चीनी राष्ट्रीय अंतरिक्ष प्रशासन (सीएनएसए) का यान चांग-4 चांद के उस हिस्से पर उतर चुका है।

7 दिसंबर को प्रक्षेपित चांग-4 यान के साथ-साथ एक और यान छोड़ा गया था जो चांद की परिक्रमा करता रहेगा। पृथ्वी से चांग-4 का संपर्क इसी परिक्रमा करते यान के ज़रिए होगा क्योंकि चांद का वह हिस्सा कभी पृथ्वी से मुखातिब नहीं होता। वास्तव में चांग-4 को चांद की धरती पर अवतरण स्वचालित ढंग से करना पड़ा था क्योंकि वहां उसे निर्देशित करने के लिए पृथ्वी से संदेश भेजना असंभव था। बहरहाल, चांग-4 ने 3 जनवरी के दिन चांद के एक विशाल गड्ढे में सफलतापूर्वक लैंडिंग किया। इस गड्ढे का नाम साउथ पोल-ऐटकिन घाटी है।

यह गड्ढा महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि चांद के निर्माण के शुरुआती वर्षों में यहां एक विशाल उल्का टकराई थी। संभावना यह है कि उस टक्कर के कारण चांद की गहराई में से कुछ चट्टानें सतह पर उभर आई होंगी। चांग-4 इन चट्टानों का अध्ययन कर सकेगा जिसकी मदद से चांद के अतीत का खुलासा करने में मदद मिलेगी।

इस मिशन का एक उद्देश्य भविष्य की चांद-यात्राओं के लिए धरातल तैयार करना भी है। शोधकर्ताओं की योजना है कि चांद की दूरस्थ सतह पर रेडियो दूरबीन स्थापित की जाए। इसका फाय़दा यह होगा कि उस दूरबीन को पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले रेडियो तरंग प्रदूषण का सामना नहीं करना पड़ेगा।

चांग-4 पर एक जैव-मंडल भी सवार है। इसमें आलू के बीज, पत्ता गोभी सरीखा एक पौधा और रेशम के कीड़े की इल्लियां शामिल हैं। शोधकर्ता यह देखना चाहते हैं कि क्या ये जीव चांद पर एक सीलबंद डिब्बे में जीवित रह पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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अंग प्रत्यारोपण के साथ एलर्जी भी मिली

दि आप जानते हैं कि आपको किसी तरह के खाने से कोई परेशानी या एलर्जी नहीं है तो आप बेफिक्र होकर वह चीज़ खाते हैं। ऐसा सोचकर ही एक महिला ने हमेशा की तरह पीनट-बटर-जैम सैंडविच खाया। मगर इस बार उसे भयानक एलर्जी हो गई। ट्रासंप्लांटेशन प्रोसिडिंग्स पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक यह एलर्जी महिला को जिस व्यक्ति का अंग प्रत्यारोपित किया गया, उससे मिली है।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के फेफड़ा और क्रिटिकल केयर मेडिसिन के फेलो मज़ेन ओडिश के मुताबिक 68 वर्षीय महिला एंफेसिमा से पीड़ित थी। (एंफेसिमा में फेफड़ो के वायुकोश क्षतिग्रस्त हो जाते हैं और सांस लेने में कठिनाई होती है।) इसी के इलाज में, एक अन्य व्यक्ति का एक फेफड़ा महिला के शरीर में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया गया था। लेकिन अचानक एक दिन महिला को सीने में जकड़न महसूस होने लगी और उन्हें सांस लेने में भी दिक्कत हो रही थी। महिला के अनुसार उन्हें यह दिक्कत पीनट-बटर-जैम सैंडविंच खाने के बाद शुरू हुई। लेकिन महिला में फूड एलर्जी के अन्य कोई लक्षण (रेशेस या पेटदर्द) दिखाई नहीं दे रहे थे। चूंकि महिला को पहले कभी यह समस्या नहीं हुई थी इसलिए डॉक्टर ने जिस व्यक्ति का फेफड़ा महिला के शरीर में लगाया था, उसकी एलर्जी के बारे में जानकारी ली। पता चला कि उस व्यक्ति को मूंगफली से एलर्जी है। ओडिश का कहना है कि फेफड़े के साथ-साथ एलर्जी भी महिला को मिल गई थी।

हालांकि यह बहुत कम होता है कि अंग के साथ-साथ अंग दान करने वाले की एलर्जी भी अंग प्राप्तकर्ता में हस्तांतरित हो जाए। मगर लिवर, किडनी, फेफड़े, अस्थि मज्जा, ह्रदय के प्रत्यारोपण के मामलों में ऐसा देखा गया है कि अंगदान करने वाले की फूड एलर्जी अंग प्राप्तकर्ता में हस्तांतरित हुई है।

एक अन्य शोध के मुताबिक अंग प्रत्यारोपण के दौरान फूड एलर्जी उन मामलों में हस्तांतरित होती है जिनमें अंग प्राप्तकर्ता को टैक्रोलिमस नामक औषधि दी गई हो। दरअसल शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली किसी भी बाहरी चीज़ को नष्ट कर देती है। अंग प्रत्यारोपण के बाद प्रतिरक्षा प्रणाली प्रत्यारोपित अंग को बाहरी समझ कर उसे नष्ट न कर दे, इसके लिए टैक्रोलिमस औषधि दी जाती है। इस महिला को भी टेक्रोलिमस औषधि दी गई थी।

आगे की जांच में इस बात की पुष्टि भी हुई कि महिला को मूंगफली के अलावा काजू-बादाम, अखरोट और नारियल से भी एलर्जी भी हो गई है। ओडिश का कहना है कि यह अभी स्पष्ट नहीं है कि प्रत्यारोपण के साथ आने वाली एलर्जी ताउम्र रहती है या नहीं। किसी-किसी मामले में समय के साथ एलर्जी खत्म भी हो सकती है। फिलहाल डॉक्टर, महिला की मूंगफली और अन्य गिरियों की एलर्जी की लगातार जांच करेंगे और देखेंगे कि क्या वक्त के साथ स्थिति में कोई बदलाव आता है। (स्रोत फीचर्स)

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जैव-विद्युत संदेश और अंगों का पुनर्जनन

ई जीवों में अपने खोए हुए अंगों को पुन: विकसित करने की क्षमता होती है। कुछ जीव ऐसा अपने जीवन के किसी नियत समय में ही करते हैं। इस विषय पर हुए अब तक के अध्ययन बताते हैं कि ज़ीनोपस मेंढक और अन्य उभयचर जीवों में अंग पुनर्जनन में, अंग-विच्छेदन की जगह पर उत्पन्न जैव-विद्युत संदेशों की भूमिका होती है। लेकिन हालिया अध्ययन दर्शाते हैं कि अंग पुनर्जनन में ये जैव-विद्युत संदेश अंग-विच्छेद के स्थान से काफी दूर-दूर तक पहुंचते हैं।

इस बात की पुष्टि करने के लिए शोधकर्ताओं ने मेंढक के टेडपोल का अध्ययन किया। उन्होने टेडपोल को फ्लोरोसेंट रंग में भीगोकर रखा ताकि शरीर में जैव-विद्युत संदेशों पर नज़र रखी जा सके। इसके बाद उन्होंने टेडपोल को बेहोश किया और उसका दायां पिछला पंजा काटकर अलग कर दिया। जैसे ही पंजा शरीर से अलग किया गया वैसे ही विपरीत पैर के पंजे से भी घाव होने के संदेश उत्पन्न हुए। जब सिर्फ पंजा अलग किया गया तो दूसरे पैर के पंजे में संदेश मिले। जब पूरा पैर अलग किया गया तो दूसरे पैर के ऊपरी भाग में संदेश पैदा हुए। लेविन का कहना है कि इन संदेशों को देखकर यह बताया जा सकता है कि कौन-सा अंग काटा गया है।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के आणविक जीव विज्ञानी एन्ड्रयू हैमिल्टन का कहना है कि यह अध्ययन काफी अच्छा है। इसके अगले चरण में, मेंढकों की तंत्रिकाओं को अवरुद्ध करके यह पता करने की कोशिश की जा सकती है कि ये संकेत कैसे फैलते हैं।

शोधकर्ता फिलहाल अंग के पुनर्जनन में क्षति के जैव-विद्युतीय प्रतिबिंब निर्माण की भूमिका को समझना चाहते हैं। इसके लिए वे एक पैर काटेंगे और दूसरे पैर में वोल्टेज में बदलाव करेंगे, और इस बात पर नज़र रखेंगे कि अंग पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में कोई बदलाव होता है या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

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नए वर्ष में धरती की रक्षा से जुड़ें – भारत डोगरा

ए वर्ष का समय मित्रों व प्रियजनों को शुभकामनाएं देने का समय है। इसके साथ यह जीवन में अधिक सार्थकता के लिए सोचते-समझने का भी समय है क्योंकि एक नया वर्ष अपनी तमाम संभावनाओं के साथ हमारे सामने है।

इस सार्थकता की खोज करें तो स्पष्ट है कि धरती की गंभीर व बड़ी समस्याओं के समाधान से जुड़ने में ही सबसे बड़ी सार्थकता है। इस समय समस्याएं तो बहुत हैं, पर संभवत: सबसे बड़ी व गंभीर समस्या यह है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता ही खतरे में है।

वर्ष 1992 में विश्व के 1575 वैज्ञानिकों (जिनमें उस समय जीवित नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिकों में से लगभग आधे वैज्ञानिक भी सम्मिलित थे) ने एक बयान जारी किया था, जिसमें उन्होंने कहा था, “हम मानवता को इस बारे में चेतावनी देना चाहते हैं कि भविष्य में क्या हो सकता है? पृथ्वी और उसके जीवन की व्यवस्था जिस तरह हो रही है उसमें एक व्यापक बदलाव की ज़रूरत है अन्यथा दुख-दर्द बहुत बढ़ेंगे और हम सबका घर – यह पृथ्वी – इतनी बुरी तरह तहस-नहस हो जाएगी कि फिर उसे बचाया नहीं जा सकेगा।”

इन वैज्ञानिकों ने आगे कहा था कि तबाह हो रहे पर्यावरण का बहुत दबाव वायुमंडल, समुद्र, मिट्टी, वन और जीवन के विभिन्न रूपों, सभी पर पड़ रहा है और वर्ष 2100 तक पृथ्वी के विभिन्न जीवन रूपों में से एक तिहाई लुप्त हो सकते हैं। मनुष्य की वर्तमान जीवन पद्धति शैली के कई तौर-तरीके भविष्य में सुरक्षित जीवन की संभावनाओं को नष्ट कर रहे हैं और इस जीती-जागती दुनिया को इतना बदल सकते हैं कि जिस रूप में जीवन को हमने जाना है, उसका अस्तित्व ही कठिन हो जाए।

इस चेतावनी के 25 वर्ष पूरा होने पर अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने वर्ष 2017 में फिर एक नई चेतावनी जारी की। इस चेतावनी पर कहीं अधिक वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने हस्ताक्षर किए। इसमें कहा गया है कि वर्ष 1992 में जो चिंता के बिंदु गिनाए गए थे उनमें से अधिकांश पर अभी तक समुचित कार्रवाई नहीं हुई है व कई मामलों में स्थितियां पहले से और बिगड़ गई हैं।

इससे पहले एमआईटी द्वारा प्रकाशित चर्चित अध्ययन ‘इम्पेरिल्ड प्लैनेट’(संकटग्रस्त ग्रह) में एडवर्ड गोल्डस्मिथ व उनके साथी पर्यावरण विशेषज्ञों ने कहा था कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता सदा ऐसी ही बनी रहेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इस रिपोर्ट में बताया गया सबसे बड़ा खतरा यही है कि हम उन प्रक्रियाओं को ही अस्त-व्यस्त कर रहे हैं जिनसे धरती की जीवनदायिनी क्षमता बनती है।

स्टॉकहोम रेसिलिएंस सेंटर के वैज्ञानिकों के अनुसंधान ने हाल के समय में धरती के सबसे बड़े संकटों की ओर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया है। यह अनुसंधान बहुत चर्चित रहा है। इस अनुसंधान में धरती पर जीवन की सुरक्षा के लिए नौ विशिष्ट सीमा-रेखाओं की पहचान की गई है जिनका अतिक्रमण मनुष्य को नहीं करना चाहिए। गहरी चिंता की बात है कि इन नौ में से तीन सीमाओं का अतिक्रमण आरंभ हो चुका है। ये तीन सीमाएं है – जलवायु बदलाव, जैव-विविधता का ह्यास व भूमंडलीय नाइट्रोजन चक्र में बदलाव।

इसके अतिरिक्त चार अन्य सीमाएं ऐसी हैं जिनका अतिक्रमण होने की संभावना निकट भविष्य में है। ये चार क्षेत्र हैं – भूमंडलीय फॉस्फोरस चक्र, भूमंडलीय जल उपयोग, समुद्रों का अम्लीकरण व भूमंडलीय स्तर पर भूमि उपयोग में बदलाव।

इस अनुसंधान में सामने आ रहा है कि इन अति संवेदनशील क्षेत्रों में कोई सीमा-रेखा एक ‘टिपिंग पॉइंट’ (यानी डगमगाने के बिंदु) के आगे पहुंच गई तो अचानक बड़े पर्यावरणीय बदलाव हो सकते हैं। ये बदलाव ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें सीमा-रेखा पार होने के बाद रोका न जा सकेगा या पहले की जीवन पनपाने वाली स्थिति में लौटाया न जा सकेगा। वैज्ञानिकों की तकनीकी भाषा में, ये बदलाव शायद रिवर्सिबल यानी उत्क्रमणीय न हो।

इन चिंताजनक स्थितियों को देखते हुए बहुत ज़रूरी है कि अधिक से अधिक लोग इन समस्याओं के समाधान से जुड़ें। इसके लिए इन समस्याओं की सही जानकारी लोगों तक ले जाना बहुत ज़रूरी है। इस संदर्भ में वैज्ञानिकों व विज्ञान की अच्छी जानकारी रखने वाले नागरिकों की भूमिका व विज्ञान मीडिया की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। जन साधारण को इन गंभीर समस्याओं के समाधान से जोड़ने के लिए पहला ज़रूरी कदम यह है कि उन तक इन गंभीर समस्याओं व उनके समाधानों की सही जानकारी पंहुचे।

नए वर्ष के आगमन का समय इन बड़ी चुनौतियों को ध्यान में रखने, इन पर सोचने-विचारने का समय भी है ताकि नए वर्ष में इन गंभीर समस्याओं के समाधान से जुड़कर अपने जीवन में अधिक सार्थकता ला सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रोगों की पहचान में जानवरों की भूमिका – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कुछ हफ्तों पहले काफी दिलचस्प खबर सुनने में आई थी कि कुत्ते मलेरिया से संक्रमित लोगों की पहचान कर सकते हैं। ऐसा वे अपनी सूंघने की विलक्षण शक्ति की मदद से करते हैं। यह रिपोर्ट अमेरिका में आयोजित एक वैज्ञानिक बैठक में ‘मेडिकल डिटेक्शन डॉग’संस्था द्वारा प्रस्तुत की गई थी। मेडिकल डिटेक्शन डॉग यूके स्थित एक गैर-मुनाफा संस्था है। इसी संदर्भ में डोनाल्ड जी. मैकनील ने न्यू यार्क टाइम्स में एक बेहतरीन लेख लिखा है। (यह लेख इंटरनेट पर उपलब्ध है।)

मेडिकल डिटेक्शन डॉग कुत्तों में सूंघने की खास क्षमता की मदद से अलग-अलग तरह के कैंसर की पहचान पर काम कर चुकी है। इसके लिए उन्होंने कुत्तों को व्यक्ति के ऊतकों, कपड़ों और पसीने की अलग-अलग गंध की पहचान करवाई ताकि कुत्ते इन संक्रमणों या कैंसर को पहचान सकें। इस समूह ने पाया कि मलेरिया और कैंसर पहचानने के अलावा कुत्ते टाइप-1 डाइबिटीज़ की भी पहचान कर लेते हैं। कुछ अन्य समूहों का कहना है कि उन्होंने कुत्तों को इस तरह प्रशिक्षित किया है कि वे मिर्गी के मरीज़ में दौरा पड़ने की आशंका भांप लेते हैं। उम्मीद है कि कुत्तों की मदद से कई अन्य बीमारियों की पहचान भी की जा सकेगी। कुत्तों में रासायनिक यौगिकों (खासकर गंध वाले) को सूंघने और पहचानने की विलक्षण शक्ति होती है। उनकी इस विलक्षण क्षमता के कारण ही एयरपोर्ट पर सुरक्षा के लिए, कस्टम विभाग में, पुलिस में या अन्य भीड़भाड़ वाले स्थानों पर ड्रग्स, बम या अन्य असुरक्षित चीज़ों को ढूंढने के लिए कुत्तों की मदद ली जाती है। सदियों से शिकारी लोग कुत्तों को साथ ले जाते रहे हैं, खासकर लोमड़ियों और खरगोश पकड़ने के लिए।

शुरुआत कैसे हुई

पिछले पचासेक वर्षों में रोगों की पहचान के लिए कुत्तों की सूंघने की क्षमता की मदद लेने की शुरुआत हुई है। इस सम्बंध में वर्ष 2014 में क्लीनिकल केमिस्ट्री नामक पत्रिका में प्रकाशित ‘एनिमल ऑलफैक्ट्री डिटेक्शन ऑफ डिसीज़: प्रॉमिस एंड पिट्फाल्स’लेख बहुत ही उम्दा और पढ़ने लायक है। यह लेख कुत्तों और अन्य जानवरों (खासकर अफ्रीकन थैलीवाले चूहे) में रोग की पहचान करने के विभिन्न पहलुओं पर बात करता है। (इंटरनेट पर उपलब्ध है: DOI:10.1373/clinchem.2014.231282)। कैंसर की पहचान में कुत्तों की क्षमता का पता 1989 में लगा था, जब एक कुत्ता अपनी देखरेख करने वाले व्यक्ति के पैर के मस्से को लगातार सूंघ रहा था। जांच में पाया गया कि त्वचा का यह घाव मेलेनोमा (एक प्रकार का त्वचा कैंसर) है। इसी लेख में डॉ. एन. डी बोर ने बताया है कि किस प्रकार कुत्ते हमारे शरीर के विभिन्न अंगों के कैंसर को पहचान सकते हैं। प्रयोगों और जांचों में इन सभी कैंसरों की पुष्टि भी हुई। हाल ही में कुत्तों को कुछ सूक्ष्मजीवों (टीबी के लिए ज़िम्मेदार बैक्टीरिया और आंतों को प्रभावित करने वाले क्लॉस्ट्रिडियम डिफिसाइल बैक्टीरिया) की पहचान करने के लिए भी प्रशिक्षित किया गया है।

जानवरों में इंसान के मुकाबले कहीं अधिक तीक्ष्ण और विविध तरह की गंध पहचानने की क्षमता होती है। (जानवर पृथ्वी पर मनुष्य से पहले आए थे और पर्यावरण का सामना करते हुए विकास में उन्होने सूंघने की विलक्षण शक्ति हासिल की है।) डॉ. एस. के. बोमर्स पेपर में इस बात पर ध्यान दिलाते हैं कि बीडोइन्स ऊंट (अरब के खानाबदोशों के साथ चलने वाले ऊंट) 80 किलोमीटर दूर से ही पानी का स्रोत खोज लेते हैं। ऊंट ऐसा गीली मिट्टी में मौजूद जियोसिमिन रसायन की गंध पहचान कर करते हैं।

चूहे भी मददगार

लेकिन विभिन्न गंधों की पहचान के लिए ऊंटों की मदद हर जगह तो नहीं ली जा सकती। डॉ. बी. जे. सी. विटजेन्स के अनुसार अफ्रीकन थैलीवाले चूहे की मदद ली जा सकती है। चूहों में दूर ही से और विभिन्न गंधों को पहचानने की बेहतरीन क्षमता होती है, इन्हें आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है और इनके रहने के लिए जगह भी कम लगती है। साथ ही ये चूहे उष्णकटिबंधीय इलाकों के रोगों की पहचान में पक्के होते हैं। इतिहास की ओर देखें तो मनुष्य ने गंध पहचान के लिए कुत्तों को पालतू बनाया। कुछ चुनिंदा बीमारियों की पहचान के लिए कुत्तों की जगह अफ्रीकन थैलीवाले चूहों की मदद ली जाती है। तंजानिया स्थित एक गैर-मुनाफा संस्था APOPO इन चूहों पर सफलतापूर्वक काम कर रही है। चूहों के साथ फायदा यह है कि उनकी ज़रूरतें कम होती हैं – एक तो आकार में छोटे होते हैं, उनकी इतनी देखभाल नहीं करनी पड़ती, उन्हें प्रशिक्षित करना आसान है, और उन्हें आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है। फिलहाल तंजानिया और मोज़ेम्बिक में इन चूहों की मदद से फेफड़ों के टीबी की पहचान की जा रही है (https://www.flickr.com/photos/42612410@N05>)। दुनिया भर में भी स्थानीय चूहों की मदद रोगों की पहचान के लिए ली जा सकती।

कुत्तों, ऊंटों, चूहों जैसे जानवरों में रोग पहचानने की यह क्षमता उनकी नाक में मौजूद 15 करोड़ से 30 करोड़ गंध ग्रंथियों के कारण होती है। जबकि मनुष्यों में इन ग्रंथियों की संख्या सिर्फ 50 लाख होती है। इतनी अधिक ग्रंथियों के कारण ही जानवरों की सूंघने की क्षमता मनुष्य की तुलना में 1000 से 10 लाख गुना ज़्यादा होती है। अधिक ग्रंथियों के कारण ही जानवर विभिन्न प्रकार गंध की पहचान पाते हैं और थोड़ी-सी भी गंध को ताड़ने में समर्थ होते हैं। इसी क्षमता के चलते कुत्ते जड़ों के बीच लगी फफूंद भी ढूंढ लेते हैं, जो पानी के अंदर होती हैं।

भारत में क्यों नहीं?

भारत में कुत्तों के प्रशिक्षण के लिए अच्छी सुविधाएं हैं, जिनका इस्तेमाल क्राइम ब्रांच, कस्टम वाले और अपराध वैज्ञानिक एजेंसियां करती हैं। जनसंख्या के घनत्व और चूहों के उपयोग की सरलता को देखते हुए ग्रामीण इलाकों में चूहों की मदद रोगों की पहचान के लिए ली जा सकती है। APOPO की तर्ज पर हमारे यहां भी स्थानीय जानवरों को महामारियों की पहचान के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। ज़रूरी होने पर रोग की पुष्टि के लिए विश्वसनीय उपकरणों की मदद ली जा सकती है। इस तरह की ऐहतियात से हमारे स्वास्थ्य केंद्रों और स्वास्थ्य कर्मियों को सतर्क करने में मदद मिल सकती है। स्वास्थ्य केंद्र और स्वास्थ्य कार्यकर्ता शुरुआत में ही बीमारी या महामारी पहचाने जाने पर दवा, टीके या अन्य ज़रूरी इंतज़ाम कर सकते हैं और रोग को फैलने से रोक सकते हैं। हमारे पशु चिकित्सा संस्थानों को इस विचार की संभावना के बारे में सोचना चाहिए। पशु चिकित्सा संस्थान उपयुक्त और बेहतर स्थानीय जानवर चुनकर उन्हें रोगों की पहचान के लिए प्रशिक्षित कर सकते हैं। और इन प्रशिक्षित जानवरों को उपनगरीय और ग्रामीण इलाकों, खासकर घनी आबादी वाले और कम स्वास्थ्य सुविधाओं वाले इलाकों में रोगों की पहचान के लिए तैनात किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीन संपादन: संभावनाएं और चुनौतियां – प्रदीप

म जीव विज्ञान की सदी में रह रहे हैं। यह काफी पहले ही घोषित किया जा चुका है कि अगर 20वीं सदी भौतिक विज्ञान की सदी थी तो 21वीं सदी जीव विज्ञान की सदी होगी। ऐसा स्वास्थ्य, कृषि, पशु विज्ञान, पर्यावरण, खाद्य सुरक्षा आदि क्षेत्रों में सतत मांग के कारण संभव हुआ है। इन सभी क्षेत्रों में जीवजगत एक केंद्रीय तत्व है। पिछले कुछ वर्षों में जीव विज्ञान में चमत्कारिक अनुसंधान तेज़ी से बढ़े हैं। इस दिशा में हैरान कर देने वाली हालिया खबर है – एक चीनी वैज्ञानिक द्वारा जन्म से पूर्व ही जुड़वां बच्चियों के जीन्स में बदलाव करने का दावा। जीन सजीवों में सूचना की बुनियादी इकाई और डीएनए का एक हिस्सा होता है। जीन माता-पिता और पूर्वजों के गुण और रूप-रंग संतान में पहुंचाता है। कह सकते हैं कि काफी हद तक हम वैसे ही दिखते हैं या वही करते हैं, जो हमारे शरीर में छिपे सूक्ष्म जीन तय करते हैं। डीएनए के उलट-पुलट जाने से जीन्स में विकार पैदा होता है और इससे आनुवंशिक बीमारियां उत्पन्न होती हैं, जो संतानों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में मिलती हैं।

चूंकि शरीर में क्रियाशील जीन की स्थिति कुछ बीमारियों को आमंत्रित करती है, इसलिए वैज्ञानिक लंबे समय से मनुष्य की जीन कुंडली को पढ़ने में जुटे हैं। वैज्ञानिकों का उद्देश्य यह रहा है कि जन्म से पहले या जन्म के साथ शिशु में जीन संपादन तकनीक के ज़रिए आनुवंशिक बीमारियों के लिए ज़िम्मेदार जीन्स को पहचान कर उन्हें दुरुस्त कर दिया जाए। इस दिशा में इतनी प्रगति हुई है कि अब जेनेटिक इंजीनियर आसानी से आणविक कैंची का इस्तेमाल करके दोषपूर्ण जीन में काट-छांट कर सकते हैं। इसे जीन संपादन कहते हैं और इस तकनीक को व्यावहारिक रूप से किसी भी वनस्पति या जंतु प्रजाति पर लागू किया जा सकता है।

हालांकि मनुष्य के जीनोम में बदलाव करने की तकनीक बेहद विवादास्पद होने के कारण अमेरिका, ब्रिाटेन और जर्मनी जैसे लोकतांत्रिक देशों में प्रतिबंधित है मगर चीन एक ऐसा देश ऐसा है जहां मानव जीनोम में फेरबदल करने पर प्रतिबंध नहीं है और इस दिशा में वहां पर पिछले वर्षों में काफी तेज़ी से काम हुआ है। इसी कड़ी में ताज़ा समाचार है – चीनी शोधकर्ता हे जियानकुई द्वारा जुड़वां बच्चियों (लुलू और नाना) के पैदा होने से पहले ही उनके जीन्स में फेरबदल करने का दावा। हे जियानकुई के अनुसार उन्होंने सात दंपतियों के प्रजनन उपचार के दौरान भ्रूणों को बदला जिसमें अभी तक एक मामले में संतान के जन्म लेने में यह परिणाम सामने आया है। इन जुड़वां बच्चियों में सीसीआर-5 नामक एक जीन को क्रिस्पर-कास 9 नामक जीन संपादन तकनीक की मदद से बदला गया। सीसीआर-5 जीन भावी एड्स वायरस संक्रमण के लिए उत्तरदायी है। क्रिस्पर-कास 9 तकनीक का उपयोग मानव, पशु और वनस्पतियों में लक्षित जीन को हटाने, सक्रिय करने या दबाने के लिए किया जा सकता है। जियानकुई ने यह दावा एक यू ट्यूब वीडियो के माध्यम से किया है। अलबत्ता, इस दावे की स्वतंत्र रूप से कोई पुष्टि अभी तक नहीं हो सकी है और इसका प्रकाशन किसी मानक वैज्ञानिक शोध पत्रिका में भी नहीं हुआ है।

दुधारी तलवार

जीन संपादन तकनीक आनुवंशिक बीमारियों का इलाज करने की दिशा में निश्चित रूप से एक मील का पत्थर है। इसकी संभावनाएं चमत्कृत कर देने वाली हैं। यह निकट भविष्य में आणविक स्तर पर रोगों को समझने और उनसे लड़ने के लिए एक अचूक हथियार साबित हो सकता है। लेकिन यह भी सच है कि ज्ञान दुधारी तलवार की तरह होता है। हम इसका उपयोग विकास के लिए कर सकते हैं और विनाश के लिए भी! इसलिए जियानकुई के प्रयोग पर तमाम सामाजिक संस्थाओं और बुद्धिजीवियों ने आपत्ति जतानी शुरू कर दी है तथा मानव जीन संपादन पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। जेनेटिक्स जर्नल के संपादक डॉ. किरण मुसुनुरू के मुताबिक ‘इस तरह से तकनीक का परीक्षण करना गलत है। मनुष्यों पर ऐसे प्रयोगों को नैतिक रूप से सही नहीं ठहराया जा सकता।’एमआईटी टेक्नॉलजी रिव्यू ने चेतावनी दी है कि यह तकनीक नैतिक रूप से सही नहीं है क्योंकि भ्रूण में परिवर्तन भविष्य की पीढ़ियों को विरासत में मिलेगा और अंतत: समूची जीन कुंडली को प्रभावित कर सकता है। इसलिए नैतिकता से जुड़े सवाल व विवाद खड़े होने के बाद फिलहाल जियानकुई ने अपने प्रयोग को रोक दिया है तथा चीनी सरकार ने भी इसकी जांच के आदेश दिए हैं। चीन मानव क्लोनिंग को गैर-कानूनी ठहराता है लेकिन जीन संपादन को गलत नहीं ठहराता।

नैतिक और सामाजिक प्रश्न

इस तरह के प्रयोग पर विरोधियों ने सवालिया निशान खड़े करने शुरू कर दिए हैं। उनका कहना है कि इससे समाज में बड़ी जटिलताएं और विषमताएं उत्पन्न होंगी।

सर्वप्रथम इससे कमाई के लिए डिज़ाइनर (मनपसंद) शिशु बनाने का कारोबार शुरू हो सकता है। प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चे को गोरा-चिट्टा, गठीला, ऊंची कद-काठी और बेजोड़ बुद्धि वाला चाहते हैं। इससे भविष्य में जो आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग होंगे उनके ही बच्चों को बुद्धि-चातुर्य और व्यक्तित्व को जीन संपादन के ज़रिए संवारने-सुधारने का मौका मिलेगा। तो क्या इससे सामाजिक भेदभाव को बढ़ावा नहीं मिलेगा?

वैज्ञानिकों का एक तबका इस तरह के प्रयोगों को गलत नहीं मानता। उन्हें लगता है कि ऐसे प्रयोग लाइलाज बीमारियों के उपचार के लिए नई संभावनाओं के द्वार खोल सकते हैं। इससे किसी बीमार व्यक्ति के दोषपूर्ण जीन्स का पता लगाकर जीन संपादन द्वारा स्वस्थ जीन आरोपित करना संभव होगा। मगर विरोधी इस तर्क से भी सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि अगर जीन विश्लेषण से किसी व्यक्ति को यह पता चल जाए कि भविष्य में उसे फलां बीमारी की संभावना है और वह जीन संपादन उपचार करवाने में आर्थिक रूप सक्षम नहीं है, तो क्या उस व्यक्ति का सामाजिक मान-सम्मान प्रभावित नहीं होगा? क्या बीमा कंपनियां संभावित रोगी का बीमा करेंगी? क्या नौकरी में इस जानकारी के आधार पर उससे भेदभाव नहीं होगा?

जीन संपादन तकनीक अगर गलत हाथों में पहुंच जाए, तो इसका उपयोग विनाश के लिए भी किया जा सकता है। इसके संभावित खतरों से चिंतित भविष्यवेत्ताओं का मानना है कि यह तकनीक आनुवंशिक बीमारियों को ठीक करने तक ही सीमित नहीं रहेगी, बल्कि कुछ अतिवादी आतंकवादी अनुसंधानकर्ता अमानवीय मनुष्य के निर्माण करने की कोशिश करेंगे। तब इन अमानवीय लोगों से समाज कैसे निपट सकेगा?

संभावनाएं अपार हैं और चुनौतियां भी। जीन संपादन तकनीक पर नैतिक और सामाजिक बहस और वैज्ञानिक शोध कार्य दोनों जारी रहने चाहिए। इस तकनीक का इस्तेमाल मानव विकास के लिए होगा या विनाश के लिए, यह भविष्य ही बताएगा। (स्रोत फीचर्स)

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यदि आपके बच्चे सब्ज़ियां नहीं खाते – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

भी मांओं की एक ही कहानी है – मेरा बच्चा सब्ज़ियां नहीं खाता। उसे तो केवल क्रीम बिस्किट्स, चॉकलेट और आईसक्रीम ही चाहिए। और फिर शुरू होता है धमकी और रिश्वत का एक सौदा। मां अपने बच्चे से कहती है कि जब तक तुम सब्ज़ी नहीं खाओगे तब तक मिठाई नहीं मिलेगी। इस रणनीति में कुछ बच्चे आलू और भिंडी तो खाने के लिए हां कर देते हैं और बाकी बेचारों को पालक, गिलकी, लौकी-कद्दू और टिन्डों की ज़बरदस्ती स्वीकार करते बड़ा होना पड़ता है।

हम सभी को मीठा पसंद है। मीठे की ओर आकर्षण हमें हमारे पूर्वज प्रायमेट्स से विरासत में मिला है। उस समय हमारे पूर्वज भी आज के बंदरों और वनमानुष की तरह खुशबूदार पके मीठे फलों को खोजते दिन बिताते थे। अधिक ऊर्जा और पानी के लिए पके और मीठे फल को कच्चे और कड़वे फल पर प्राथमिकता मिलती थी। पेड़ों पर पके मीठे फल मिलने पर पानी की खोज भी पूरी हो जाती थी।

तो आपका बच्चा अगर मिठाई की ओर ललचाई निगाह से देखता है तो इसमें बच्चे का दोष नहीं है। दोष है हमारे प्रायमेट पूर्वजों और उनको मिली परिस्थितियों का और हमारे आनुवंशिक लक्षणों का।

आज भी हमारे नज़दीकी रिश्तेदार चिम्पैंज़ी जंगलों में जब भी मधुमक्खी के छत्ते को देखते हैं, तो सैकड़ों मधुमक्खियों के दंश की परवाह न करते हुए शहद खाने के मौके को कभी भी हाथ से जाने नहीं देते। शहद को खाने की उत्कंठा चिम्पैंज़ियों में इतनी तीव्र होती है कि अफ्रीका के विभिन्न स्थानों पर पाए जाने वाले स्थानीय चिम्पैंज़ियों ने शहद को खाने के लिए उपयुक्त तरीके भी निकाल लिए हैं। पूर्वजों के समान अगर हम भी मीठे की ओर आकर्षित होते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यही कारण है कि मानव के पूर्वजों ने गन्ने को पूरे विश्व में फैला दिया है।

अधिकांश ज़हरीले भोज्य पदार्थ कड़वे होते हैं और हमारे पूर्वजों ने भी कड़वे पदार्थों से दूरी बनाना सीख लिया था। मीठे, खट्टे और नमकीन की तुलना में कड़वे पदार्थों के स्वाद के लिए मनुष्यों में अन्य सभी प्राणियों से 25 जीन्स अधिक पाए जाते हैं।

तो मांओं की यह चिंता जायज़ है कि बच्चे सब्ज़ियां नहीं खाते जो स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं। कई प्रकार के खाद्य पदार्थ तो अधिकता में शरीर के लिए नुकसानदायक होते हैं। वसा एवं शर्करा ज़्यादा मात्रा में लेने पर वे चयापचय को धीमा करते हैं, वज़न बढ़ाते हैं तथा धमनियों में जमा होकर उन्हें कठोर कर देते हैं, खासकर जब बच्चे खेलना-कूदना छोड़ देते हैं। तो क्या हम बच्चों को मिठाई की बजाय सब्ज़ी खाने के लिए तैयार कर सकते हैं। उत्तर है, हां।

विज्ञान की नई शाखा ऑप्टोजेनेटिक्स इसमें बहुत उपयोगी होगी। ऑप्टोजेनेटिक्स एक ऐसी तकनीक है जिसमें प्रकाश द्वारा जीवित ऊतक, खासकर जेनेटिक तौर पर बदले गए न्यूरॉन्स को प्रकाश संवेदी बनाकर कार्य करने के लिए उकसाया जाता है।

ऑप्टोजेनेटिक्स के भोजन सम्बंधी कुछ प्रयोग फलों पर पाई जाने वाली छोटी एवं लाल आंखों वाली फ्रूट फ्लाय (ड्रॉसोफिला) पर किए गए हैं। मनुष्य को मीठे लगने वाले विभिन्न प्रकार के रसायन अन्य प्रजातियों के प्राणियों को भी मीठे लगें यह ज़रूरी नहीं है। उदाहरण के लिए मनुष्यों द्वारा मीठे के लिए उपयोग किया जाने वाला रसायन एस्पार्टेम चूहों और बिल्लियों को मीठा नहीं लगता। आश्चर्यजनक रूप से मीठे के मामले में ड्रॉसोफिला एवं मानव की पसंद एक जैसी ही है। दोनों की पसंद इतनी मिलती है कि हमारे नज़दीकी रिश्तेदार कई बंदरों को भी वे चीज़ें मीठी नहीं लगती जो हमें और ड्रॉसोफिला को मीठी लगती हैं। यह भी पता लगा है कि मनुष्य एवं ड्रॉसोफिला दोनों के पूर्वज सर्वाहारी एवं मुख्य रूप से मीठे फल खाने वाले थे।

मीठे की तुलनात्मक अनुभूति कराने वाले रसायन में से 21 पोषक और अपोषक रसायन जो मानव को मीठे लगते हैं वे मक्खियों को कैसे लगते हैं यह जानने के लिए प्रयोग किए गए।

क्या स्वाद ग्रंथियां सब्ज़ियों का स्वाद लेने पर भी मस्तिष्क को मीठा खाने जैसी अच्छी अनुभूति दे सकती है? हां। इसे सिद्ध करने के लिए ड्रॉसोफिला पर एक प्रयोग किया गया। मक्खियों के उपयोग में लाए जाने वाले आयपैड (जिसे फ्लायपैड कहते हैं) का उपयोग किया गया। पैड के दो कक्षों में से एक में हरी ब्रोकली तथा दूसरे में केले का गूदा रखा गया। अब मक्खियों को छोड़कर यह देखा गया कि वे किस प्रकार का खाद्य पदार्थ पसंद करती हैं। मक्खी जिस खाद्य पदार्थ की ओर जाती थी फ्लायपैड उस परिणाम को आंकड़े के रूप में एकत्रित कर लेता था। निष्कर्षों में यह पता चला कि मक्खियों ने भी बच्चों की तरह ब्रोकली की बजाय केले को मीठे स्वाद के कारण ज़्यादा पसंद किया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मानव में जीभ पर पाए जाने वाली स्वाद कलिकाएं स्वाद ग्राहियों से बनी होती है जो विशेष न्यूरॉन्स होते हैं। जब भी जीभ पर भोज्य पदार्थ लगता है तो स्वाद ग्राही मस्तिष्क तक एक संदेश भेजते हैं। मीठे पदार्थ के अणु मीठे स्वाद ग्राहियों से जुड़कर तुरंत संदेश को मस्तिष्क में पहुंचाते हैं जिससे सुखद अनुभूति होती है। किंतु ड्रॉसोफिला में ब्रोकली पदार्थ के अणु मीठे स्वाद ग्राहियों से नहीं जुड़ते। इस कारण मस्तिष्क को संदेश नहीं मिलते हैं। हम ब्रोकली के जीनोम में कुछ जीन जोड़कर उन्हें ऑप्टोजेनेटिक्स से ब्रोकली खाने पर भी मीठे होने जैसी अनुभूति दे सकते हैं।

नए जीन डालने पर ड्रॉसोफिला के स्वाद ग्राही के न्यूरॉन्स प्रकाश के प्रति संवेदी हो जाते हैं। अब प्रयोग में एक परिवर्तन किया गया। जब भी ड्रॉसोफिला ब्रोकली खाने के लिए आती है तभी एक लाल लाइट के जलने से मीठे स्वाद ग्राही मस्तिष्क को संदेश भेजते हैं। ब्रोकली खाने पर भी ड्रॉसोफिला को मीठे खाने जैसी ही अनुभूति होती है। प्रयोगों द्वारा पाया गया कि जीन परिवर्तित ड्रॉसोफिला अब ब्रोकली को भी केले के बराबर पसंद करने लगी थी।

क्या ऑप्टोजेनेटिक्स के द्वारा आपके बच्चे भी मिठाई की बजाय सब्ज़ियां पसंद करने लगेंगे? कही नहीं जा सकता। लेकिन ऑप्टोजेनेटिक्स की सहायता से अब दृष्टिबाधित भी देखने लगे हैं और आने वाले समय में भूलने की समस्या का निदान भी ऑप्टोजेनेटिक्स द्वारा संभव हो जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

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