मानव विकास के लिए अधिकाधिक ऊर्जा की ज़रूरत होती है। बिजली पर हमारी बढ़ती निर्भरता के कारण भविष्य में ऊर्जा की खपत और भी बढ़ेगी। मगर इतनी ऊर्जा आएगी कहां से। यह तो हम सब जानते हैं कि धरती पर कोयले और पेट्रोलियम के भंडार सीमित हैं। ये भंडार ज़्यादा दिनों तक हमारी ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा नहीं कर सकते। और इनसे प्रदूषण भी होता है। आप कह सकते हैं कि अब तो नाभिकीय रिएक्टरों का इस्तेमाल बिजली पैदा करने में किया जाने लगा है तो कोयले और पेट्रोलियम के खत्म होने की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। मगर ऐसा नहीं है, जिस युरेनियम या थोरियम से नाभिकीय रिएक्टर में परमाणु क्रिया सम्पन्न होती है, उनके भंडार भी भविष्य में हमारी ऊर्जा ज़रूरतों के लिए बेहद कम हैं। और नाभिकीय ऊर्जा उत्पादन में रेडियोधर्मी, रेडियोएक्टिव उत्पाद भी उत्पन्न होते हैं जो पर्यावरण और मनुष्य के लिए घातक है।
वैज्ञानिक लंबे समय से एक ऐसे र्इंधन की खोज में हैं, जो पर्यावरण और मानव शरीर को नुकसान पहुंचाए बगैर हमारी ऊर्जा ज़रूरतों की पूर्ति करने में सक्षम हो। वैज्ञानिकों की यह तलाश नाभिकीय संलयन (न्यूक्लियर फ्यूज़न) पर समाप्त होती दिखाई दे रही है। नाभिकीय संलयन प्रक्रिया ही सूर्य तथा अन्य तारों की ऊर्जा का स्रोत है। जब दो हल्के परमाणु नाभिक जुड़कर एक भारी तत्व के नाभिक का निर्माण करते हैं तो इस प्रक्रिया को नाभिकीय संलयन कहते हैं। यदि हम हाइड्रोजन के चार नाभिकों को जोड़ें तो हीलियम के एक नाभिक का निर्माण होता है। हाइड्रोजन के चार नाभिकों की अपेक्षा हीलियम के एक नाभिक का द्रव्यमान कुछ कम होता है। इस प्रक्रिया में द्रव्यमान में हुई कमी ही ऊर्जा के रूप में निकलती है।
हाइड्रोजन के संलयन द्वारा इतनी विशाल ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है, यह बात सबसे पहले वर्ष 1938 में जर्मन वैज्ञानिक हैन्स बैथे के अनुसंधान कार्यों से पता चली। इसी नाभिकीय संलयन के सिद्धान्त पर हाइड्रोजन बम का निर्माण किया गया, जिसमें बैथे की महत्वपूर्ण भूमिका थी। वैज्ञानिक कई वर्षों से सूर्य में होने वाली संलयन अभिक्रिया को पृथ्वी पर कराने के लिए प्रयासरत हैं, जिससे बिजली पैदा की जा सके। अगर इसमें सफलता मिल जाती है तो यह सूरज को धरती पर उतारने जैसा ही होगा।
हालांकि लक्ष्य अभी दूर है, मगर चीनी वैज्ञानिकों की इस दिशा में हालिया बड़ी सफलता ने उम्मीदें जगा दी हैं। चीन के हेफई इंस्टीट्यूट ऑफ फिज़िकल साइंसेज़ के मुताबिक चीन अपने नाभिकीय विकास कार्यक्रम के तहत पृथ्वी पर नाभिकीय संलयन प्रक्रिया द्वारा सूर्य जैसा एक ऊर्जा स्रोत बनाने का प्रयास कर रहा है। चाइना डेली में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक वैज्ञानिकों ने चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ प्लाज़्मा फिज़िक्स के न्यूक्लियर फ्यूज़न रिएक्टर में सूरज की सतह के तापमान से 6 गुना ज़्यादा तापमान (तकरीबन 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस) उत्पन्न कर लिया है। इस तापमान को तकरीबन 10 सेकंड तक स्थिर रखा गया। नाभिकीय संलयन क्रिया को सम्पन्न कराने के लिए इतना उच्च ताप और दाब ज़रूरी है। अभी तक इतना अधिक तापमान पृथ्वी पर प्राप्त नहीं किया जा सका था।
चीन निर्मित इस फ्यूज़न रिएक्टर का व्यास 8 मीटर, लंबाई 11 मीटर और वज़न 400 टन है। इस रिएक्टर को दी एक्सपेरिमेंटल एडवांस्ड सुपरकंडक्टिंग टोकामैक नाम दिया गया है। चीन के अनहुई प्रांत में स्थापित रिएक्टर ईस्ट में प्लाज़्मा को टायर जैसे एक गोलाकार पात्र में गर्म किया जाता है। दरअसल प्लाज़्मा द्रव्य की चौथी अवस्था है। प्लाज़्मा बहुत गर्म भी हो सकता है और बहुत ठंडा भी। ईस्ट की दीवारों को प्लाज़्मा के उच्च ताप से बचाने के लिए चुंबकीय क्षेत्र का इस्तेमाल किया गया है जिससे प्लाज़्मा पात्र की दीवारों को बिना स्पर्श किए चक्कर काटता रहता है। ड्यूटेरियम और ट्रिटियम से बने हीलियम कण प्लाज़्मा के चुंबकीय क्षेत्र में कुछ देर तक कैद रहते हैं। बाद में इन्हें डाइवर्टर पम्प से बाहर कर दिया जाता है। चुंबकीय क्षेत्र से न्यूट्रॉन कण निरंतर दूर होते जाते हैं क्योंकि वे आवेश रहित होते हैं। भविष्य में इन्हें एक ऊर्जा संयंत्र में पकड़कर ऊर्जा बनाना संभव होगा।
नाभिकीय विखंडन पर आधारित वर्तमान रिएक्टरों की आलोचना का सबसे बड़ा कारण है इनसे ऊर्जा के साथ रेडियोएक्टिव अपशिष्ट पदार्थों का भी उत्पन्न होना। नाभिकीय विखंडन के सिद्धान्त के आधार पर ही परमाणु बम बना। विखंडन रिएक्टर मनुष्य तथा पर्यावरण के लिए बहुत घातक होते हैं। इनसे डीएनए में उत्परिवर्तन तक हो सकते हैं। इससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी आनुवंशिक दोषयुक्त संतानें पैदा हो सकती हैं। वहीं संलयन रिएक्टर से उत्पन्न होने वाले रेडियोएक्टिव कचरे बहुत कम होते हैं तथा इनसे पर्यावरण को कोई भी नुकसान नहीं होता।
तारों पर होने वाली नाभिकीय संलयन प्रक्रिया को सर्वप्रथम मार्क ओलिफेंट ने 1932 में पृथ्वी पर दोहराने में सफलता प्राप्त की थी। अभी तक वैज्ञानिकों को इस प्रक्रिया को पृथ्वी पर नियंत्रित रूप से सम्पन्न कराने में कामयाबी नहीं मिली थी। मगर चीनी वैज्ञानिकों ने रिएक्टर ईस्ट में कृत्रिम संलयन करवाने लिए हाइड्रोजन के दो भारी समस्थानिकों ड्यूटेरियम और ट्रिटियम को र्इंधन के रूप में प्रयोग किया है। धरती के समुद्रों में ड्यूटेरियम काफी मात्रा में मौजूद है। जबकि ट्रिटियम को लीथियम से प्राप्त किया जा सकता है जो धरती पर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। इसलिए नाभिकीय संलयन के लिए र्इंधन की कभी कमी नहीं होगी। ड्यूटेरियम में एक न्यूट्रॉन होता है और ट्रिटियम में दो। अगर इन दोनों में टकराव हो तो उससे हीलियम का एक नाभिक बनता है। इस प्रक्रिया में ऊर्जा मुक्त होती है। भविष्य में इसी ऊर्जा का इस्तेमाल टर्बाइन को चलाने में किया जाएगा। अनुमान है कि इसमें अभी 10-15 वर्षों का समय लगेगा। निश्चित रूप से चीन का नाभिकीय संलयन कार्यक्रम ऊर्जा संकट को दूर करने में और वैश्विक विकास के लिए एक महत्वपूर्ण कदम सिद्ध होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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