हमारे जीवन के लिए वायु की उपलब्धता अत्यन्त आवश्यक है। इसके बिना हम कुछ क्षण से अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकते। परन्तु यह भी ज़रूरी है कि जिस हवा को हम सांस द्वारा ग्रहण करते हैं वह शुद्ध हो। विभिन्न प्रकार के प्रदूषकों से युक्त हवा हमारे स्वास्थ्य के लिए कई तरह से हानिकारक साबित होती है। आज औद्योगिक विकास के दौर में समय–समय पर नए–नए कारखाने स्थापित किए जा रहे हैं जिनकी चिमनियों से निकलने वाले धुएं से हमारा वायुमंडल निरन्तर प्रदूषित होता जा रहा है। साथ ही स्वचालित वाहनों की बढ़ती संख्या ने वायुमंडल को प्रदूषित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इस प्रकार से प्रदूषित वायु में रहने के कारण लोग कई रोगों से ग्रस्त हो रहे हैं।
पहले लोगों की धारणा थी वायु प्रदूषण के कारण सिर्फ हमारे फेफड़ों और हृदय को ही नुकसान पहुंचता है। परन्तु हाल में किए गए अध्ययनों एवं अनुसंधानों का निष्कर्ष है कि वायु प्रदूषण फेफड़ों और हृदय के अतिरिक्त हमारे मस्तिष्क को भी बुरी तरह प्रभावित करता है। ऐसा ही एक अध्ययन संयुक्त राज्य अमेरिका के येल विश्वविद्यालय तथा चीन के बेजिंग विश्वविद्यालय में कार्यरत शोधकर्ताओं द्वारा हाल ही में किया गया है। इस अध्ययन से सम्बंधित एक शोध पत्र कुछ ही समय पूर्व नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस के जर्नल में प्रकाशित हुआ था। इसमें बताया गया है कि यदि कोई व्यक्ति लंबे समय तक प्रदूषित वायु में रहता है तो उसके संज्ञान या अनुभूति ग्रहण करने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है। विशेष कर बुज़ुर्ग लोग वायु प्रदूषण से ज़्यादा प्रभावित होते हैं। बहुत से बुज़ुर्ग तो बोलने में काफी कठिनाई अनुभव करते हैं।
वॉशिंगटन स्थित इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टिट्यूट में कार्यरत वैज्ञानिकों के अनुसार जो लोग बहुत लंबे समय तक वायु प्रदूषण की चपेट में रहते हैं उनकी बोलने और गणितीय आकलन की क्षमता बहुत अधिक घट जाती है। इस प्रकार का प्रतिकूल प्रभाव महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों पर अधिक देखा गया है। इस अध्ययन में चीन में सन 2010 से 2014 के बीच 32,000 लोगों पर सर्वेक्षण किया गया था। उन पर अल्पकालीन और दीर्घकालीन प्रभावों का अध्ययन किया गया।
अब एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि उपरोक्त अध्ययन से निकाला गया निष्कर्ष क्या सिर्फ चीन पर लागू होता है? ग्रीनपीस इंडिया में कार्यरत सुनील दहिया के मुताबिक उपरोक्त अध्ययन से निकाला गया निष्कर्ष भारत पर भी पूरी तरह लागू होता है क्योंकि चीन और भारत दोनों ही देशों में वायु–प्रदूषण का स्तर लगभग एक समान है। भारत में सन 2015 में लगभग 25 लाख लोगों की मृत्यु वायु प्रदूषण के कारण उत्पन्न समस्याओं की वजह से हुई थी। भारत में 14 वर्ष से कम उम्र के लगभग 28 प्रतिशत बच्चे वायु प्रदूषण से प्रभावित हैं। गर्भ में पल रहे बच्चों पर भी वायु प्रदूषण का काफी बुरा प्रभाव पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार विश्व स्तर पर लगभग 90 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में वायु प्रदूषण से उत्पन्न गम्भीर समस्याओं से जूझ रहे हैं।
भारत के विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (सीएसई) ने नवम्बर 2017 में एक अध्ययन के आघार पर निष्कर्ष निकाला था कि अपने देश में रोगों के कारण होने वाली 30 प्रतिशत असमय मौतों का मुख्य कारण वायु प्रदूषण ही है। भारत में वायु प्रदूषण की समस्या काफी चिंताजनक स्थिति में पहुंच चुकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा किए गए एक आकलन के अनुसार संसार के सर्वाधिक वायु प्रदूषित 15 शहरो में से 14 शहर सिर्फ भारत में हैं तथा देश के अधिकांश क्षेत्रों में वायु की गुणवत्ता निरंतर घटती जा रही है, वायु प्रदूषण में वृद्धि लगातार जारी है। यह समस्या अब सिर्फ नगरों या उद्योग प्रधान शहरों तक ही सीमित नहीं रह गई है। महानगरों से बहुत पीछे माने जाने वाले नगरों में भी वायु प्रदूषण का स्तर साल के अधिकांश समय खतरे की सीमा को पार कर जाता है। उदाहरण के तौर पर पटना में सन 2017 में हवा में लंबित घातक सूक्ष्म कणों (पीएम 2.5) की मात्रा निगरानी के कुल 311 दिनों में से सिर्फ 81 दिन ही स्वास्थ्य सुरक्षा की निर्धारित सीमा के भीतर पाई गई। पटना में पिछले वर्ष कुछ दिन तो ऐसे रहे जब पीएम 2.5 की हवा में उपस्थिति 600 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से ज़्यादा थी। प्रदूषण का यह स्तर भारत सरकार द्वारा निर्धारित सुरक्षा मानक से 15 गुना अधिक है।
बढ़ती बीमारियों पर होने वाले खर्च को कम करने के दृष्टिकोण से वायु प्रदूषण को रोकने के लिए सरकार को कुछ प्रभावी कदम उठाने पड़ेंगे। विज्ञान व पर्यावरण केंद्र ने सन 2017 में तैयार किए गए अपने प्रतिवेदन में ध्यान दिलाया था कि पर्यावरणीय कारणों से उत्पन्न होने वाले खतरों की पहचान और उससे निपटने के उपाय किए बिना भारत गैर संक्रामक रोगों (जैसे हृदय रोग, सांस रोग, मधुमेह और कैंसर इत्यादि) की वृद्धि पर अंकुश लगाने में बिलकुल कामयाब नहीं हो सकता। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने गैर संक्रामक रोगों की वृद्धि के मुख्य कारक के तौर पर शराब, तम्बाकू, कम गुणवत्ता वाले आहार तथा शारीरिक परिश्रम की कमी की पहचान की है और इसके लिए प्रति व्यक्ति 1-3 डॉलर के खर्च को आवश्यक माना है। परन्तु विज्ञान व पर्यावरण केंद्र ने अपने प्रतिवेदन में कहा था कि भारत में गैर संक्रामक रोगों की वृद्धि के कारकों में पर्यावरणीय जोखिम (जैसे वायु प्रदूषण) का भी आकलन आवश्यक है। साथ ही, स्वास्थ्य सुरक्षा और आर्थिक विकास की नीतियां भी पर्यावरणीय जोखिम को ध्यान में रखकर बनाई जानी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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