हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि दिमाग की तंत्रिका कोशिकाओं में मूल जेनेटिक बनावट को लगातार बदला जाता है और तमाम किस्म के नए-नए संस्करण बनते रहते हैं। इस अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिकों का मत है कि संभवत: यह प्रक्रिया अल्ज़ाइमर रोग के मूल में हो सकती है।
यह बात तो 1970 के दशक में पता चल गई थी कि कुछ कोशिकाएं अपने डीएनए को उलट-पलट कर सकती हैं, उसमें परिवर्तन कर सकती हैं। जैसे, प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं उन जीन्स को हटा देती हैं जो किसी रोगजनक को पहचानकर उससे लड़ने के लिए प्रोटीन बनाने का काम करते हैं। इन जीन्स को हटाने के बाद शेष डीएनए को जोड़कर वापिस साबुत कर दिया जाता है। जीन्स के इस तरह के पुनर्मिश्रण को कायिक पुनर्मिश्रण कहते हैं।
इस बात के कई सुराग मिले हैं कि ऐसा कायिक पुनर्मिश्रण दिमाग में चलता रहता है। देखा गया है कि तंत्रिकाएं प्राय: एक-दूसरे से काफी अलग-अलग जेनेटिक बनावट रखती हैं। लेकिन इस प्रक्रिया के प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं थे। अब सैनफोर्ड बर्नहैम प्रीबाइस मेडिकल डिस्कवरी इंस्टीट्यूट के तंत्रिका वैज्ञानिक जेरॉल्ड चुन और उनके साथियों ने छ: स्वस्थ बुज़ुर्ग व्यक्तियों द्वारा दान किए गए दिमागों तथा सात अल्ज़ाइमर रोगियों के दिमागों की तंत्रिकाओं का विश्लेषण करके उक्त प्रक्रिया का प्रमाण जुटाने का प्रयास किया है। अल्ज़ाइमर रोगी गैर-वंशानुगत अल्ज़ाइमर से पीड़ित थे।
शोधकर्ताओं ने उक्त व्यक्तियों के मस्तिष्क में एक खास जीन में परिवर्तनों का अध्ययन किया। यह जीन एमिलॉइड पूर्ववर्ती प्रोटीन (एपीपी) बनाने का निर्देश देता है। यही प्रोटीन अल्ज़ाइमर रोगियों में प्लाक बनने का कारण होता है। शोधकर्ता देखना चाहते थे कि क्या अल्ज़ाइमर रोगियों में एपीपी जीन के विभिन्न संस्करण पाए जाते हैं।
नेचर नामक शोध पत्रिका में उन्होंने रिपोर्ट किया है कि तंत्रिकाओं में एपीपी जीन के एक-दो नहीं बल्कि हज़ारों परिवर्तित रूप मौजूद थे। कुछ रूपांतरण तो डीएनए में मात्र एक क्षार इकाई में परिवर्तन के फलस्वरूप हुए थे जबकि कुछ मामलों में डीएनए के बड़े-बड़े खंडों को हटा दिया गया था और शेष बचे डीएनए को सिल दिया गया था। चुन व उनके साथियों ने पाया कि अल्ज़ाइमर रोगियों में रूपांतरित जीन्स की संख्या सामान्य लोगों से छ: गुना ज़्यादा थी। वैसे शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि एपीपी जीन के इतने संस्करणों का होना कुछ मामलों में लाभप्रद भी हो सकता है। मगर कुछ लोगों में इस प्रक्रिया से एपीपी जीन के हानिकारक रूप बन जाते हैं जो अल्ज़ाइमर जैसे रोगों के लिए ज़िम्मेदार होते हैं।
शोधकर्ताओं ने इस तरह के रूपांतरण की क्रियाविधि का भी अनुमान लगाने की कोशिश की है। कोशिकाओं में डीएनए के किसी खंड (जीन) से प्रोटीन बनाने के लिए उस हिस्से की आरएनए प्रतिलिपि बनाई जाती है। कभी-कभी एक एंज़ाइम की सक्रियता के चलते इस आरएनए की पुन: प्रतिलिपि बनाई जाती है जो डीएनए के रूप में होती है। यह डीएनए जाकर जीनोम में जुड़ जाता है। आरएनए से डीएनए बनाने की प्रक्रिया में ज़्यादा त्रुटियां होती हैं, इसलिए जो नया डीएनए बनता है वह प्राय: मूल डीएनए से भिन्न होता है। ऐसे डीएनए के जुड़ने से नए-नए संस्करण प्रकट होते रहते हैं।
एक सुझाव यह है कि आरएनए से वापिस डीएनए बनने की प्रक्रिया को रोककर अल्ज़ाइमर की रोकथाम संभव है। एड्स वायरस पर नियंत्रण के लिए इस तकनीक का सहारा लिया जाता है। बहरहाल, यह तकनीक अपनाने से पहले काफी सावधानीपूर्वक पूरे मामले का अध्ययन ज़रूरी होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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