कैंसर, आनुवंशिक या किसी बाहरी कारक (जैसे धूम्रपान, हानिकारक विकिरण वगैरह) के कारण क्षतिग्रस्त हुई कोशिकाओं की अनियंत्रित वृद्धि और विभाजन है। समान्यतः कोशिकाएं एक निश्चित संख्या तक विभाजित होती हैं और वृद्धि करती हैं। किंतु कैंसर कोशिकाएं, जिनका डीएनए किन्हीं कारणों से क्षतिग्रस्त होकर परिवर्तित हो गया है, वे लगातार वृद्धि करती रहती हैं। जिसके कारण गठान (ट्यूमर) बन जाती है, जो शरीर कमज़ोर करती है और मौत तक हो सकती है।
कैंसर का उपचार और उसे ठीक करना एक बड़ी चुनौती रही है। कैंसर चिकित्सा विज्ञानी और लेखक सिद्धार्थ मुखर्जी ने इसे एकदम सही उपमा दी है – बिमारियों का शहंशाह।
बीमारियों के शहंशाह कैंसर पर विजय पाने के कई तरीके रहे हैं। एक तरीका है कैंसर गठानों को सर्जरी करके निकाल देना। मगर इस तरीके में कैंसर के दोबारा होने की सम्भावना रहती है क्योंकि सर्जरी में इस बात की गारंटी नहीं रहती कि सभी कैंसर कोशिकाएं निकाल दी गई हैं। यदि चंद कैंसर कोशिकाएं भी छूट जाएं तो कैंसर दोबारा सिर उठा सकता है। यदि कैंसर होने के असल कारण से नहीं निपटा जाए, तो भी कैंसर दोबारा उभर सकता है। इसके अलावा अति शक्तिशाली गामा किरणों की रेडिएशन थेरपी से भी उपचार में सीमित सफलता ही मिली है।
सिस–प्लेटिन या कार्बो–प्लेटिन,5-फ्लोरोयूरेसिल, डॉक्सीरोबिसिन जैसी कई कैंसर–रोधी दवाएं भी उपयोग की गई हैं। कई चिकित्सकों ने दवा के साथ गामा रेडिएशन से उपचार का तरीका भी अपनाया, मगर इस उपचार के साथ मुश्किल यह है कि इसे लंबे समय तक जारी रखना होता है।
प्रतिरक्षा का तरीका
इसी संदर्भ में कुछ तरह के कैंसर का उपचार प्रतिरक्षा के तरीके से करने की कोशिश हुई है। इसमें शरीर प्रतिरक्षा तंत्र की मदद ली जाती है। इस तरीके में मुख्य भूमिका श्वेत रक्त कोशिकाओं की होती है। श्वेत रक्त कोशिकाओं का एक प्रकार होता है बी–कोशिकाएं। ये बी–कोशिकाएं हमलावर कोशिकाओं (चाहे वह किसी सूक्ष्मजीव की कोशिका हो या कैंसर कोशिका) की बाहरी सतह पर उपस्थित कुछ उभारों की आकृति (जिन्हें बॉयोमैट्रिक आईडी कह सकते हैं) की पहचान करती हैं, और इम्यूनोग्लोबुलिन नामक प्रोटीन संश्लेषित करती हैं जो हमलावर कोशिकाओं की सतह पर फिट हो जाता है और इस तरह हमलावर कोशिकाओं को हटाती हैं। खास बात यह है कि हमलावरों की आकृति को पहचान कर ‘याद’ रखा जाता है ताकि यदि वही हमलावर दोबारा हमला करे तो बी–कोशिकाएं उससे निपटने के लिए तैयार रहें। आत्मरक्षा का यही तरीका बचपन में किए जाने वाले टीकाकरण का आधार भी है।
सतह की पहचान से सम्बंधित ‘टैग’एंटीजन कहलाता है और उससे लड़ने वाला प्रोटीन एंटीबॉडी। कैंसर कोशिकाओं की भी बॉयोमैट्रिक आईडी (पहचान) होती है, जिसे नियोएंटीजन कहते हैं। कैंसर–रोधी वैक्सीन इन नियोएंटीजन के खिलाफ तैयार की गई एंटीबॉडीज़ के सिद्धांत पर आधारित है। कैंसर के खिलाफ कुछ जानी–मानी दवाएं जैसे बिवेसिज़ुमेब और रिटक्सीमेब व अन्य एंटीबॉडीज़ काफी इस्तेमाल की जाती हैं। (इन दवाओं के नाम के अंत में मेब का मतलब है मोनोक्लोनल एंटीबॉडी।)
कैंसर उपचार के एक और नए तरीके में, कैंसर चिकित्सक रोगी के शरीर से कैंसर ऊतक को अलग करके आणविक जैव विश्लेषकों की मदद से कैंसर कोशिका के नियोएंटीजन की पहचान करते हैं। फिर प्रतिरक्षा विज्ञानियों की मदद से इन नियोएंटीजन के लिए एंटीबॉडी तैयार करते हैं, जिसे रोगी के शरीर में प्रवेश कराया जाता है ताकि कैंसर दोबारा ना उभर सके। इस मायने में यह वैक्सीन उपचार के लिए है, ना कि अन्य वैक्सीन (हैपेटाइटिस या खसरा वगैरह) की तरह रोकथाम के लिए। इस तरह के कुछ कैंसर वैक्सीन बाज़ार में उपलब्ध भी हो चुके हैं। जैसे ब्रोस्ट कैंसर के लिए HER-2, कैंसर के लिए रेवेंज और मेलोनेमा के लिए T-VEC।
कैंसर उपचार में नोबेल
इस साल का चिकित्सा नोबेल पुरस्कार कैंसर उपचार के लिए मिला है। इस उपचार में जो तरीका अपनाया है वो इन तरीकों से अलग है। इसमें शोधकर्ताओं ने बी–लिम्फोसाइट पर ध्यान देने की बजाय टी–कोशिकाओं पर ध्यान दिया। टी–कोशिकाएं ऐसे रसायन छोड़ती हैं जो हमलावर कोशिकाओं को खुदकुशी के लिए मजबूर करते हैं। इस प्रक्रिया को एपोप्टोसिस कहते हैं। प्रत्येक टी–कोशिका की सतह पर पंजानुमा ग्राही होते हैं जो बाहरी या असामान्य एंटीजन के साथ जुड़ जाते हैं। मगर इसके लिए इन्हें एक प्रोटीन द्वारा सक्रिय करने की ज़रूरत होती है। साथ ही कुछ अन्य प्रोटीन भी होते हैं जो टी–कोशिकाओं द्वारा सर्वनाश मचाने पर अंकुश रखते हैं। इन प्रोटीन को ‘ब्रेक’या ‘चेक पाइंट प्रोटीन’कहते हैं।
टेक्सास युनिवर्सिटी के एंडरसन कैंसर सेंटर के एमडी डॉ. जेम्स एलिसन ऐसे एक ब्रोक या चेक पॉइंट, CTLA-4, प्रोटीन पर साल 1990 से काम कर रहे थे। CTLA-4 प्रोटीन टी–कोशिकाओं की प्रतिरक्षा प्रक्रिया को नियंत्रित करने का काम करता है। वे ऐसे प्रोटीन का पता लगाना चाहते थे जो CTLA-4 के इस अंकुश को हटा सके। 1994-95 तक उनके साथियों ने anti–CTLA4 नामक एक ऐसे रसायन का पता लगा लिया जो कैंसर ग्रस्त चूहों को देने पर ट्यूमर रोधी गतिविधी शुरू कर देता था और चूहों के कैंसर का इलाज कर देता था। नोबेल समिति के मुताबिक “दवा कंपनियों की अनिच्छा के बावजूद, एलिसन ने इस तरीके पर काम जारी रखा। साल 2010 में उम्मीद के मुताबिक नतीजे मिले, जिसमें एक तरह के त्वचा कैंसर, मेलानोमा में रोगी में काफी सुधार दिखा। कई रोगियो में बचे–खुचे कैंसर के संकेत भी गायब हो गए। ऐसे रोगियों में इससे पहले कभी इतना सुधार नहीं देखा गया था।”
यहीं दूसरे नोबेल विजेता तासुकु होन्जो के काम का पदार्पण होता है। तासुकु होन्जो वर्तमान में क्योतो युनिवर्सिटी जापान में काम कर रहे हैं। उन्होंने एलिसन से भी पहले 1992 में यह पता लगा लिया था कि प्रोटीन पीडी-1, टी–कोशिकाओं की सतह पर अभिव्यक्त होता है। लगातार इस पर काम करते रहने पर उन्होंने पाया कि पीडी-1 एक चेकपॉइंट प्रोटीन भी है। यदि हम इसे प्रविष्ट कराएं, तो टी–कोशिकाएं ट्यूमर–रोधी गतिविधी शुरु कर देती हैं। इससे उन्होंने एंटीबॉडी anti-PD1 बनाई जिसे किसी भी तरह के कैंसर से ग्रस्त रोगी के शरीर में देने पर नतीजे काफी नाटकीय मिले। एलिसन और होन्जो, दोनों के ही तरीकों में उन्होंने ऐसे रसायन पहचाने जो ब्रोक या चेकपॉइंट को हटा देते हैं, और कैंसर रोधी गतिविधि को अंजाम देते हैं। उम्मीद के मुताबिक चेकपॉइंट अवरोधकों पर अब कई शोध किए जा रहे हैं। लगभग 1100 से ज़्यादा PD1से सम्बंधित ट्रायल किए जा रहे हैं। ट्यूमर के इलाज में आज इम्यूनोथेरपी काफी चर्चित और लोकप्रिय है। अगले 5 से 10 सालों में इससे कैंसर उपचार किए जाएंगे। एलिसन और होन्जो के काम से लगता है कि बीमारियों के शहंशाह का अंत नज़दीक है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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