विलुप्त होने की कगार पर गिद्ध – डॉ. दीपक कोहली

गिद्धों का हमारे पारिस्थतिकी तंत्र में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। कई धर्मों में भी इसे महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। गिद्ध एक अपमार्जक (सफाई करने वाला) पक्षी है। इनकी कुल 22 प्रजातियां होती हैं। भारत में गिद्ध की पांच प्रजातियां पाई जाती हैं भारतीय गिद्ध (Gyps indicus), लंबी चोंच का गिद्ध (Gyps tenuirostris), लाल सिर वाला गिद्ध (Sarcogyps calvus), बंगाल का गिद्ध (Gyps bengalensis), सफेद गिद्ध (Neophron percnopterus)

गिद्ध की चोंच लंबी एवं अंकुश नुमा होती है जिससे वे मृत जानवर के शव को नोचकर खाने के बाद भी स्वच्छ रहते हैं। गिद्ध भोजन करने के पश्चात तुरंत स्नान करना पसंद करते हैं जिससे भोजन के दौरान शरीर पर लगे रक्त को पानी से धो सकें और ऐसा करके वे कई बीमारियों से अपना बचाव करते हैं।

गिद्ध बड़े कद के पांच से दस किलो वज़न के पक्षी हैं जो गर्म हवा के स्तम्भों पर विसर्पण द्वारा सकुशल उड़ान भरने में दक्ष होते हैं। आसमान की ऊंचाई से उनकी तीक्ष्ण दृष्टि भोजन हेतु जानवरों के शव ढूंढ लेती है। हमारे देश में गिद्ध विशेष रूप से बहुत अधिक संख्या में पाए जाते थे क्योंकि कृषि प्रधान देश में मवेशियों के पर्याप्त शवों की उपलब्धता के कारण गिद्धों के लिए प्रचुर मात्रा में भोजन उपलब्ध रहता था। गिद्धों के सिर व गर्दन पंख विहीन होते हैं। गिद्ध चार से छ: वर्ष की आयु में प्रजनन योग्य वयस्क पक्षी बन जाते हैं एवं 37-40 वर्ष की दीर्घ आयु प्राप्त करते हैं। पक्षीविदों के अनुसार पृथ्वी के सभी भागों में गिद्धों की संख्या स्थिर बनी हुई थी किंतु लगभग 10-15 वर्ष पूर्व से दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में इनकी संख्या में तीव्र गिरावट आनी शुरू हुई। इस पक्षी की कई प्रजातियां आज लुप्त होने की कगार पर  हैं। एक अनुमान के मुताबिक 1952 से आज तक इस पक्षी की संख्या में 99 प्रतिशत कमी हुई है।

कुछ वर्षों पहले तक प्राय: हर स्थान पर, जहां किसी पशु का मृत शरीर पड़ा रहता था, वहां शव भक्षण करते गिद्ध हम सभी ने देखे हैं किंतु अब यह दृश्य दुर्लभ हो गए हैं। पशुओं के मृत शरीर कई दिनों तक लावारिस पड़े रहकर वायुमंडल में दुर्गंध व प्रदूषण फैलाते रहते हैं। इसका मुख्य कारण दिन प्रतिदिन गिद्धों की घटती संख्या है।

सुप्रसिद्ध पक्षीविद डॉक्टर सालिम अली ने अपनी पुस्तक इंडियन बर्ड्स में गिद्धों का वर्णन सफाई की एक कुदरती मशीन के रूप में किया है। गिद्धों का एक समूह एक मृत सांड को मात्र 30 मिनट में साफ कर सकता है। अगर गिद्ध हमारी प्रकृति का हिस्सा न होते तो हमारी धरती हड्डियों और सड़े मांस का ढेर बन जाती। गिद्ध मृत शरीरों का भक्षण कर हमें कई तरह की बीमारियों से बचाते हैं। गिद्धों की तेज़ी से घटती संख्या के साथ हम अपने पर्यावरण की खाद्य कड़ी के एक महत्वपूर्ण जीव को खोते जा रहे हैं, जो हमारी खाद्य शृंखला के लिए घातक है। 

गिद्धों की घटती संख्या के कारण जहां मृत शरीरों के निस्तारण की समस्या जटिल हो गई है वहीं अन्य अपमार्जकों की संख्या में वृद्धि हुई है। आवारा कुत्तों तथा चूहों की संख्या बढ़ी है लेकिन ये गिद्ध जितने कुशल नहीं है। इनकी बढ़ती संख्या के कारण रेबीज़ आदि रोगों के फैलने की समस्या बनी रहती है। कुत्तों की बढ़ती संख्या से वन्य प्राणियों को क्षति पहुंचने की भी आशंका रहती है।

गिद्धों की घटती संख्या का कारण ज्ञात करने के निरंतर प्रयास किए गए हैं। 1950 और 60 के दशक में धारणा थी कि पशुओं के मृत शरीर में डीडीटी का अंश बढ़ने के कारण डीडीटी गिद्धों के शरीर में भी पहुंच रहा है तथा इसके कारण उनके अधिकांश अंडे परिपक्व होने से पूर्व ही टूट जा रहे हैं। यह धारणा कालांतर में त्याग दी गई क्योंकि अन्य पक्षियों में इस तरह का कोई असर नहीं देखा गया। कुछ विशेषज्ञों का मत था कि गिद्धों पर किसी विषाणु का आक्रमण हो गया है जिस कारण वे सुस्त हो जाते हैं। गिद्ध अपने शरीर का तापमान कम करने के लिए ऊंची उड़ान भरते हैं, ऊंचाई में वायुमंडल में ऊपर तापमान कम होता है तथा वहां जाकर गिद्ध ठंडक प्राप्त करते हैं। विषाणु से उत्पन्न सुस्ती के कारण ये उड़ान नहीं भर पाते हैं तथा बढ़ते तापमान के कारण शरीर में पानी की कमी हो जाती है इससे यूरिक एसिड के सफेद कण इनके ह्रदय, लीवर, किडनी में जम जाते हैं और अंतत: इनकी मृत्यु हो जाती है।

आधुनिक व सघन अनुसंधान के उपरांत अकाट्य प्रमाण मिला है कि पशु चिकित्सा में बुखार, सूजन एवं दर्द आदि के लिए उपयोग की जाने वाली डायक्लोफेनेक औषधि गिद्धों की संख्या में कमी के लिए उत्तरदायी है। किसी पालतू पशु का उपचार डायक्लोफेनेक द्वारा करने पर उस पशु के शव गिद्ध द्वारा खाए जाने पर उसके मांस के माध्यम से डायक्लोफेनेक औषधि गिद्ध के शरीर में प्रवेश कर विषैला प्रभाव डालती है। डायक्लोफेनेक गिद्ध के गुर्दे में गाउट नामक रोग उत्पन्न करता है, जो गिद्धों के लिए प्राण घातक होता है।

कारण चाहे जो भी हो, गिद्धों की संख्या कम होना वास्तव में गंभीर चिंता का विषय है और यदि यह क्रम जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब गिद्ध भी डोडो की तरह केवल पुस्तकों में ही सीमित होकर रह जाएंगे।

गिद्धों का संरक्षण व उनकी संख्या में वृद्धि के प्रयासों में जीवित गिद्धों का वृहद स्तर पर सर्वे, बाड़ों में रखकर प्रजनन व उसकी सहायता से गिद्धों का पुनर्वास एवं सबसे महत्वपूर्ण कदमडायक्लोफेनेक औषधि पर पूर्ण प्रतिबंध जैसे प्रयास शामिल हैं। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी जैसे कुछ संगठनों के अथक प्रयासों से इस दिशा में उल्लेखनीय सफलता भी हासिल हुई है। भारतीय औषधि महानियंत्रक ने सभी राज्यों में पशुचिकित्सा में डायक्लोफेनेक औषधि पर प्रतिबंध के निर्देश दिए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्राकृतिक सफाईकर्मी को विलुप्त होने से बचाया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कार्बन डाईऑक्साइड से र्इंधन बनाने की जुगत – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पिछले कुछ दशकों में कच्चे तेल और कोयले जैसे जीवाश्म र्इंधनों के अत्यधिक उपयोग के चलते वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर बहुत बढ़ गया है। जिसके परिणाम स्वरूप ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएं पैदा हो रही हैं।

इस स्थिति में, क्यों न वातावरण में मौजूद कार्बन डाईऑक्साइड को एकत्रित कर ऐसा स्थिर रूप दे दिया जाए कि वह हवा में घुलमिल न सके? जैसे उसे ठोस कार्बोनेट में परिवर्तित कर दिया जाए? स्विटज़रलैंड स्थित एक कम्पनी, क्लाइमवक्र्स, यही काम कर रही है। वह र्इंधनों के जलने के परिणामस्वरूप बनी गैस को जैवमंडल से लेती है और इसे चट्टानों या खनिज जैसे मृदामंडलीय पदार्थों में परिवर्तित करती है। इस तरह वातावरण की हवा से सीधे गैस को कैद करने की प्रक्रिया को डाइरेक्टएयरकैप्चर (डीएसी) कहते हैं। क्लाइमवक्र्स कम्पनी का यह संयंत्र आइसलैंड में स्थित है। इस संयंत्र में कार्बन डाईऑक्साइड को ठोस कैल्सियम कार्बोनेट की चट्टानों में स्थिर कर दिया जाता है, ठीक बैसाल्ट की तरह। वे कार्बन डाईऑक्साइड को सॉफ्ट ड्रिंक्स निर्माताओं और ग्रीनहाउस संचालकों को बेचते भी हैं।

इससे भी बेहतर होगा यदि कार्बन डाईऑक्साइड को एक उल्टी प्रक्रिया के ज़रिए पुन: हाइड्रोकार्बन र्इंधन में परिवर्तित कर दिया जाए। यह प्रक्रिया एयरटूफ्यूल (एटूएफ, हवा से र्इंधन) कहलाती है। हारवर्ड के डॉ. डेविड कीथ और उनके समूह ने कार्बन इंजीनियरिंग नामक कम्पनी बनाई है जहां वे सीधे हवा से कार्बन डाईऑक्साइड लेकर उसे र्इंधन में परिवर्तित करेंगे (यानि डीएसी को एटूएफ में तबदील कर देंगे)। उन्होंने अपना शोध कार्य जूल नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित किया है जिसका शीर्षक है वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड कैद करने की प्रक्रिया। यहां यह बताया जा सकता है कि इस पत्रिका का नाम इस शोध के प्रकाशन के लिए उपयुक्त है क्योंकि उर्जा की मानक इकाई भी जूल है। (इस पर्चे को यहां देखा जा सकता है: DOI: 10.1016/j.joule.2018.05.006)

टीम इस समस्या पर पिछले कुछ सालों से काम कर रही है। इस प्रक्रिया में अवांछित पदार्थ कार्बन डाईऑक्साइड को वातावरण से एकत्रित करके एक रिएक्टर से गुज़ारते हैं। फिर इसकी क्रिया हाइड्रोजन से करवाई जाती है, जिसमें हाइड्रोकार्बन र्इंधन बनता है। क्रिया के लिए ज़रूरी हाइड्रोजन पानी के विद्युतविच्छेदन से प्राप्त की जाती है। शोधकर्ताओं ने इस पूरी प्रक्रिया को कार्बनउदासीनर्इंधनउत्पादन का नाम दिया है।

वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड कैप्चर करने का विचार नया नहीं है। लेखकों के अनुसार 1950 के दशक में वायु को शुद्ध करने के लिए इस तकनीक के इस्तेमाल की कोशिश हुई थी। और 1960 के दशक में, मोबाइल परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में हाइड्रोकार्बन र्इंधन के उत्पादन के लिए कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग फीडस्टॉक के रूप में करने का प्रयास किया गया था।

कार्बन इंजीनियरिंग कम्पनी का योगदान यह है कि उन्होंने इसकी तकनीकी बारीकियों, अभियांत्रिकी और लागतलाभ विश्लेषण का वर्णन किया है। उनका दावा है कि डीएसी के माध्यम से कार्बन डाईऑक्साइड कैप्चर करना व्यावहारिक रूप से संभव है। इस प्रक्रिया से प्रति टन कार्बन डाईऑक्साइड एकत्रित करने का खर्चा 50-100 डॉलर आता है।

ट्रेसी स्टेटर ने जून 2018 के अपने इनसाइंस कॉलम में इस प्रक्रिया का सारांश प्रस्तुत किया है: वातावरण से हवा खींची जाती है, जिसे प्लास्टिक की पतली सतह के ऊपर से गुज़ारा जाता है। प्लास्टिक की सतह पर पोटेशियम हाइड्रॉक्साइड का घोल होता है। इस प्रक्रिया में पोटेशियम कार्बोनेट बनता है। इस प्रक्रिया में बने पोटेशियम कार्बोनेट को कैल्सियम हाइड्रॉक्साइड युक्त रिएक्टर में भेजा जाता है जहां कैल्शियम कार्बोनेट और पोटेशियम हाइड्राक्साइड बनते हैं। इस पोटेशियम हाइड्रॉक्साइड को पुन: उपयोग के लिए भेज दिया जाता है और कैल्शियम कार्बोनेट को गर्म किया जाता है जिसमें कार्बन डाईऑक्साइड मुक्त हो जाती है। इसे स्थिर करके उपयोग किया जा सकता है (जैसा कि क्लाइमवक्र्स कम्पनी करती है) या पानी के विद्युतविच्छेदन से बनी हाइड्रोजन के साथ क्रिया करवाकर हाइड्रोकार्बन र्इंधन प्राप्त किया जा सकता है। इस तकनीक से वाहनों के लिए र्इंधन बनाना संभव होना चाहिए।

डॉ. डेविड रॉबर्ट्स ने अपनी वेबसाइट vox.com पर एटूएफ तकनीक के विश्लेषण में दावा किया है कि आने वाले सालों में कार्बन इंजीनियरिंग की यह तकनीक व्यावहारिक हो जाएगी। डॉ. जेफ टॉलेफसन नेचर पत्रिका के 7 जून 2018 के अंक में लिखते हैं कि डीएसी तकनीक वैज्ञानिकों के अनुमान से भी सस्ती है। ऐसा माना जाता था कि इसमें प्रति टन कार्बन डाईऑक्साइड कैप्चर की लागत 50-1000 डॉलर के बीच होगी, लेकिन यह 94-234 डॉलर के बीच है। दस लाख टन कार्बन डाईऑक्साइड को 3 करोड़ गैलन जेट र्इंधन, डीज़ल या गैस में परिवर्तित किया जा सकता है।

पूरी प्रक्रिया में खास बात यह है कि यह ना सिर्फ कार्बनउदासीन है बल्कि अकार्बनिकरसायनउदासीन भी है: पहले चरण में भेजी गई कार्बन डाईऑक्साइड तीसरे चरण में मुक्त होती है, जिसे अन्य रिएक्टर में भेजा जाता है जहां यह हाइड्रोजन के साथ क्रिया करके र्इंधन बनाती है। दूसरे चरण में प्राप्त उत्पाद (पानी) को चौथे चरण में अभिकर्मक के रूप में उपयोग किया जाता है। और चौथे चरण में प्राप्त उत्पाद कैल्शियम हाइड्रॉक्साइड को दूसरे चरण में अभिकर्मक के रूप में उपयोग कर लिया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पेंगुइंस की घटती आबादी – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

पृथ्वी के दक्षिणी हिस्से में बर्फ से आच्छादित भाग में बहुत कम प्राणी जीवित रह पाते हैं। किंतु दो पैरों पर डोलते हुए चलने वाले, बर्फीले वातावरण के अनुकूल व उड़ने में असमर्थ पक्षी पेंगुइन के लिए यह स्वर्ग है। पेंगुइन का नाम सुनते ही हम कालेसफेद रंग के शरीर वाले छोटे आकार के जंतु की कल्पना करने लगते हैं। वास्तव में ये पक्षी अनेक आकार और रंग वाले भी होते हैं। कलगीदार (क्रेस्टेड) पेंगुइन को ही लीजिए जिनके सर पर नीले रंग के पंख मुकुट जैसे दिखते हैं। एंपरर और किंग पेंगुइन के चेहरे की पार्श्व सतह पर नारंगी और पीले रंग की आभा, काले चेहरे तथा सफेद छाती इन्हें बेहद सुंदर बना देती है। फिओर्डलैंड, स्नेयर, रॉयल तथा रॉकहॉपर पेंगुइंस की सफेद और पीले रंग के लंबे रेशों वाली भौहें इन्हें बाकी पेंगुइंस से अधिक आकर्षक बना देती है। येलो आइड पेंगुइन की आंखें पीले रंग से घिरी रहती है। कुल मिलाकर पेंगुइन की 17 प्रजातियां हैं।

सबसे छोटे आकार की पेंगुइन प्रजाति लिटिल ब्लू लगभग 12 इंच की होती है तथा सबसे लंबी प्रजाति एंपरर पेंगुइन 44 इंच लंबी होती है।

कहां रहते हैं पेंगुइंस?

पेंगुइंस उड़ तो नहीं सकते परंतु चप्पू जैसे रूपांतारित हाथ इन्हें बेहद माहिर तैराक बनाते हैं। ये अपने जीवन का 80 प्रतिशत समय समुद्र में तैरते हुए ही बिताते हैं। सभी पेंगुइन दक्षिणी गोलार्ध में रहते हैं हालांकि यह एक आम मिथक है कि वे सभी अंटार्कटिका में ही रहते हैं। वास्तव में दक्षिणी गोलार्ध में हर महाद्वीप पर पेंगुइन पाए जा सकते है। यह भी एक मिथक है कि पेंगुइन केवल ठंडे इलाकों में पाए जाते हैं। गैलापगोस द्वीपसमूह में पाए जाने वाले पेंगुइन भूमध्य रेखा के उष्णकटिबंधीय समुद्री किनारों पर रहते हैं।

क्या खाते हैं पेंगुइन?

पेंगुइन मांसाहारी हैं। उनका आहार समुद्र में पाए जाने वाले छोटे क्रस्टेशियन जीव, स्क्विड और मछलियां हैं। पेंगुइन बहुत पेटू भी होते हैं। कई बार तो इनके समूह इतना खाते हैं कि इनकी आबादी के आसपास का क्षेत्र भोजन रहित हो जाता है। प्रत्येक दिन कुछ पेंगुइन तो औसत 200 बार गोता लगाकर समुद्र में 120 फीट नीचे तक भोजन की तलाश में चले जाते हैं।

पेंगुइन के बच्चे

पेंगुइन के समूह को कॉलोनी कहते हैं। प्रजनन ऋतु में पेंगुइन समुद्र के किनारों पर आकर बड़े समूहों में एकत्रित हो जाते हैं। इन समूहों को रूकरी कहते हैं। अधिकाश पेंगुइंस मोनोगेमस होते हैं अर्थात प्रत्येक प्रजनन ऋतु में एक नर और एक मादा का जोड़ा बनता है और पूरे जीवनकाल तक साथसाथ रहकर प्रजनन करता है।

लगभग पांच साल की उम्र में मादा पेंगुइन प्रजनन के लिए परिपक्व हो जाती है। ज़्यादातर प्रजातियां वसंत और ग्रीष्म के दौरान प्रजनन करती हैं। आम तौर पर नर पेंगुइन प्रजनन में पहल करते हैं। मादा पेंगुइन को प्रजनन के लिए मनाने के पूर्व ही नर घोंसले के लिए एक अच्छी जगह का चयन कर लेते हैं।

प्रजनन के बाद मादा एंपरर तथा किंग पेंगुइन केवल एक ही अंडा देती है। पेंगुइन की सभी अन्य प्रजातियां दो अंडे देती हैं। एंपरर पेंगुइन को छोड़कर अन्य सभी प्रजातियों में अंडों को सेने का कार्य मातापिता दोनों बारीबारी से करते हैं। इसके लिए वे घोंसले में अंडे को पैरों के बीच रखकर बैठते हैं। एंपरर पेंगुइन में अंडा नर के ज़िम्मे सौंपकर मादा कई सप्ताह के लिए भोजन की तलाश में दूर निकल जाती है। पेंगुइन के बच्चे बड़े होकर जब अंडे से निकलने की तैयारी में होते हैं तो वे अपनी चोंच की सहायता से अंडे को तोड़कर बाहर आते हैं। बच्चों को भोजन देने का कार्य नर एवं मादा दोनों करते हैं। भोजन को चबाकर पुन: मुंह से निकालकर बच्चों को दिया जाता है। बच्चों की आवाज़ से मातापिता उन्हें खोज लेते हैं।

खतरे में पेंगुइन

पेंगुइन की अधिकांश प्रजातियां खतरे में है। अंटार्कटिक साइंस में प्रकाशित हाल ही में किए गए शोध के अनुसार अफ्रीका और अंटार्कटिका के बीच दक्षिणी हिंद महासागर के पिग द्वीप पर पेंगुइंस के बड़े समूह में से 88 प्रतिशत तक पेंगुइन घट गए हैं। विश्व के किंग पेंगुइंस की एक तिहाई जनसंख्या यहीं पाई जाती है। पिछले पांच दशकों से वैज्ञानिकों का एक दल हवाई और उपग्रह तस्वीरों से पेंगुइन की कालोनी के आकार में परिवर्तन पर निगाहें जमाए हुए था। 1980 में विश्व की सबसे अधिक जनसंख्या वाले किंग पेंगुइन के पांच लाख प्रजनन जोड़े घटकर 2018 में केवल 60,000 जोड़े तक सीमित हो गए हैं। वैज्ञानिक शोध से पता चला है कि किंग पेंगुइन की जनसंख्या 1990 से गिरना प्रारंभ हुई थी। यह वही समय था जब अलनीनो प्रभाव हुआ था। भूमध्य रेखा के आसपास के क्षेत्र में प्रशांत महासागर के वातावरण में अलनीनो एक अस्थायी परिवर्तन है। इसके कारण पेंगुइन का भोजन, जैसे मछली तथा अन्य प्राणी उनकी कालोनी से दूर दक्षिण में चले जाते हैं। आसानी से मिलने वाला भोजन अलनीनो प्रभाव के कारण दूभर हो जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मतदान से निर्धारित हुई मंगल पर उतरने की जगह

नासा 2020 तक अपना अगला रोवर यान मंगल पर उतारने की तैयारी में है। लेकिन मंगल पर यह रोवर किस जगह उतरेगा इसे लेकर दुविधा रही है।

नासा ने मंगल पर रोवर उतारने के लिए तीन स्थान (जेज़ेरो, पूर्वोत्तर सिर्टिस और कोलंबिया हिल्स) प्रस्तावित किए थे। बाद में एक चौथा स्थान, मिडवे, भी जोड़ा गया। जेज़ेरो एक सूख चुका डेल्टा है जो मंगल की धरती पर किसी उल्का की टक्कर से बने गड्ढे में गिरता था। सिर्टिस एक प्राचीन पपड़ी है जो शायद एक भूमिगत खनिज झरने से बनी है। कोलंबिया हिल्स सुदूर अतीत में शायद गर्म पानी का चश्मा था। मिडवे नामक स्थान सिर्टिस जैसा ही है और यहां फायदा यह है कि रोवर मिडवे और सिर्टिस दोनों जगह जा सकता है।

ग्लैंडेल, कैलिफोर्निया में आयोजित तीन दिवसीय मीटिंग में नासा द्वारा प्रस्तावित स्थानों पर ग्रह वैज्ञानिकों की राय मांगी गई थी। वैज्ञानिकों को अपनी राय कई मापदंडों के आधार पर देनी थी। सबसे पहले तो रोवर यहां सफलतापूर्वक उतर सके और अपने शुरुआती दो वर्ष के बाद भी छानबीन जारी रख सके। दूसरी, कि उस स्थान पर रोवर अपने सारे वैज्ञानिक उपकरणों के तामझाम को लेकर घूमफिर सके और तीसरी यह कि घरती पर लाने के लिए नमूनों की गुणवत्ता बढ़िया हो।  

रोवर की सफलतापूर्वक लैंडिंग स्थान के लिए जेज़ेरो और पूर्वोत्तर सिर्टिस को 158 वोट मिले। तकरीबन इतने ही वोट मिडवे को मिले। सिर्फ कोलंबिया हिल्स के पक्ष में ज़्यादा मत नहीं आए। हालांकि तीन दिन चली इस बहस में कोई स्पष्ट सुझाव नहीं मिले हैं। लेकिन पहली लैंडिंग और दूसरे विचरण स्थल के लिए मिडवेजेज़ेरो की जोड़ी को समर्थन मिला है। शायद रोवर को जेज़ेरोमिडवे जोड़ी पर उतारा जाएगा मगर  अंतिम फैसला मिशन टीम और अंतत: नासा प्रमुख थॉमस जरिबिचेन का होगा। (स्रोत फीचर्स)

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व्हेल में भक्षण की छन्ना विधि कैसे विकसित हुई

ब्लू व्हेल और उसके नज़दीकी रिश्तेदार ही चंद ऐसे जीव हैं जो भोजन प्राप्त करने के लिए बेलीन का उपयोग करते हैं। बेलीन केरेटीन नामक पदार्थ की कंघीनुमा रचनाएं है जिनकी मदद से व्हेल अपना सूक्ष्मजीव भोजन हासिल करती है। ये व्हेल करती यह हैं कि पानी में मुंह खोलकर ढेर सारा पानी मुंह में भर लेती हैं और फिर बेलीन को बंद करके पानी को बाहर फेंकती हैं। पानी तो निकल जाता है लेकिन छोटेछोटे जीव अंदर रह जाते हैं जो व्हेल का भोजन बन जाते हैं। एक तरह से बेलीन छानकर भोजन प्राप्त करने का एक तरीका है।

वैसे व्हेल के शुरुआती पूर्वजों में आज की किलर व्हेल की तरह दांत होते थे। वैज्ञानिक इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश कर रहे थे कि व्हेल में बेलीन कैसे विकसित हुए। एक परिकल्पना यह है कि बेलीन का विकास दांतों से ही क्रमिक रूप से हुआ है। जैसे कि वाशिंगटन में मिले 3 करोड़ वर्ष पुराने व्हेल के एक जीवाश्म के अध्ययन के मुताबिक इनमें पैने, बागड़नुमा दांत थे। इनके बीच में थोड़ी जगह खाली होती थी, जिससे वे भोजन अलग करती होंगी। एक अन्य परिकल्पना के अनुसार व्हेल कुछ समय तक भोजन प्राप्त करने के लिए दांतों और बेलीन दोनों का उपयोग करती रही होंगी।

मगर हाल ही में कशेरुकी जीवाश्म विज्ञान की वार्षिक बैठक में प्रस्तुत व्हेल की एक लगभग समूची खोपड़ी के जीवाश्म का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया जो इन दोनों परिकल्पनाओं को झुठला देता है।

जॉर्ज मेसन विश्वविद्यालय के पुराजीव वैज्ञानिक कार्लोस पेरेडो और उनके साथी मार्क उहेन कहना है कि ओरेगन में 1970 के दशक में मिले व्हेल के जीवाश्म के अध्ययन से पता चलता है कि पहले व्हेल ने अपने दांत गंवा दिए थे और बाद में स्वतंत्र रूप से उनमें बेलीन विकसित हुए। ये दो संरचनाएं कभी साथसाथ नहीं रहीं।

शोधकर्ताओं ने 3 करोड़ साल पुरानी व्हेल की खोपड़ी के अंदर वाले हिस्से का सीटी स्कैन किया। इसमें ना तो उन्हें दांत मिले और ना ही बेलीन को सहारा देने वाली हड्डी। मगर और बारीकी से अध्ययन करने पर पाया कि इसमें भोजन हासिल करने का अलग ही तंत्र मौजूद था: चूषण तंत्र।

पहले तो उन्हें इस बात पर यकीन नहीं हुआ किंतु खोपड़ी के आकार ने बात साफ कर दी। खोपड़ी का यह आकार शक्तिशाली मांसपेशियों को सहारा देता होगा जो चूसने में मददगार रही होंगी। पूरी बात की पुष्टि इस आधार पर हुई कि यह जीवाश्म दांत वाली व्हेल और बेलीन वाली व्हेल के बीच के समय का है। अर्थात बेलीन के विकास से पहले व्हेल अपने दांत गंवा चुकी थी।

मोनाश यूनिवर्सिटी के वैकासिक जीवाश्म विज्ञानी एलिस्टेयर इवांस का कहना है कि वे भी ऐसे ही निष्कर्ष पर पहुंचे थे। उन्होंने 2016 में दांत वाली बेलीन व्हेल पर अध्ययन किया था। इस अध्ययन के अनुसार व्हेल अपने दांतों की जगह चूसकर भोजन ग्रहण करती थी। उनका कहना है कि ओरेगन में मिला व्हेल का जीवाश्म हमारे अनुमान को पुख्ता करता है। और बेलीन के विकास की कड़ी जोड़ता है। उनके अनुसार बेलीन का विकास अधिक भोजन हासिल करने के लिए हुआ है। पेरेडो का कहना है कि यह लगभग 2.3 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ होगा। (स्रोत फीचर्स)

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होम्योपैथी अध्ययन पर बवाल

हाल ही में एक अध्ययन में दावा किया गया है कि होम्योपैथी उपचार से चूहों को दर्द से राहत मिलती है। यह अध्ययन साइंटिफिक रिपोर्टस नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित हुआ है जो एक ऐसी पत्रिका है जिसमें समकक्ष समीक्षा की प्रक्रिया की जाती है। होम्योपैथी के कई समर्थक समूह इस अध्ययन को लेकर काफी उत्साहित हैं किंतु कई अन्य समूहों ने इन नतीजों पर शंका प्रकट की है।

उपरोक्त शोध पत्र के प्रमुख लेखक धुले के औषधि विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान के चंद्रगौड़ा पाटिल हैं। उनका कहना है कि उनके अध्ययन के नतीजे अत्यंत प्रारंभिक हैं और अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इन्हें मनुष्यों पर लागू किया जा सकता है या नहीं।

चूहों पर किए गए इस अध्ययन में पाटिल व उनके साथियों ने बताया है कि टॉक्सिकोडेंड्रॉन प्यूबीसेंस (Toxicodendron pubescens) नामक एक पौधे का अत्यंत तनु काढ़ा 8 चूहों को पिलाया गया। यह देखा गया कि गर्म या ठंडे से संपर्क होने पर ये चूहे कितनी तेज़ी से अपना पंजा हटा लेते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह औषधि सूजन व दर्द को कम करने में एक दर्द निवारक दवा गैबापेंटिन के बराबर कारगर साबित हुई थी।

अन्य वैज्ञानिकों का कहना है कि 8 चूहों का नमूना बहुत छोटा है। इसके अलावा अध्ययन के दौरान शोधकर्ता जानते थे कि किस चूहे को औषधि दी गई है और किसे नहीं। अत: चूहों की प्रतिक्रिया को रिकॉर्ड करने में उनके पूर्वाग्रहों की भूमिका हो सकती है। वैसे, इस शोध पत्र के एक विश्लेषण में यह भी पता चला कि इसमें दो अलगअलग प्रयोगों के लिए जो चित्र दिए गए हैं, वह दरअसल एक ही चित्र है। इसके अलावा आंकड़ों में गफलत नज़र आई है। पाटिल का कहना है कि ये त्रुटियां भूलवश रह गई हैं और वे शोध पत्रिका से अनुरोध करेंगे कि इन्हें दुरुस्त करके शोध पत्र को अपडेट कर दे।

वैज्ञानिकों में असंतोष इस बात को लेकर है कि साइंटिफिक रिपोर्टस जैसी पत्रिका के प्रकाशनपूर्व समीक्षकों ने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया। पत्रिका के संपादकों का कहना है कि वे पूरे मामले की जांच करवा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्यों होती है गाय के दूध से एलर्जी – नरेंद्र देवांगन

क वर्ष के एक दुबले-पतले बच्चे को लेकर एक महिला डॉक्टर के पास पहुंची। बच्चे को पांच-छह महीने से कब्ज़ की शिकायत थी और यह बीमारी ठीक नहीं हो रही थी। पूछताछ के दौरान पता चला कि उस महिला को दूध नहीं आ रहा था इसलिए उसका बच्चा जन्म से ही गाय का दूध पी रहा था। पूछताछ के दौरान यह भी पता चला कि उस महिला की बड़ी बहन, उसकी मां तथा दादी को गाय के दूध से एलर्जी थी। अब डॉक्टर को उस बच्चे की कब्ज़ियत का कारण पता चल गया। उस बच्चे के इलाज के क्रम में दूध तथा दूध से बनी चीज़ें देने की मनाही कर दी गई और हरी सब्ज़ी, फल, साग आदि खिलाने की हिदायत के साथ-साथ मल को मुलायम करने तथा पेट साफ करने वाली मामूली-सी एक-दो दवाएं दी गर्इं। दो-तीन दिनों में ही अनुकूल प्रभाव देखने को मिला। कब्ज़ छूमंतर हो गई, मल नियमित रूप से होने लगा।

इसी तरह एक तीन महीने के बच्चे की मां को भी दूध नहीं आता था। उसकी भी शिकायत थी कि उसके बच्चे को गाय का दूध पचता ही नहीं। दूध पिलाने के बाद उल्टी हो जाती है। डायरिया की शिकायत तो करीब ढाई महीने से है ही। बच्चे का स्वास्थ्य एकदम गिर गया था। पूछताछ के क्रम में मात्र इतना पता चला कि उस बच्चे की मां को भी दूध पीना अच्छा नहीं लगता। इतना ही नहीं, जब वह दूध पी लेती है तो तुरंत उल्टी हो जाती है और सारा दूध बाहर निकल जाता है। बच्चे की जांच के दौरान पाया गया कि उसे एनीमिया था और शरीर में पानी कमी थी।

गाय, बकरी तथा मनष्य के दूध की तुलना (मात्रा प्रति 100 ग्राम में)
  गाय बकरी मनुष्य
वसा (ग्राम) 3.80 4.00 3.10
प्रोटीन (ग्राम) 3.50 3.50 1.25
लैक्टोस (ग्राम) 4.80 4.30 7.20
कैल्शियम (ग्राम) 120.0 170.0 28.20
लोहा (मि. ग्राम) 0.2 0.3
पानी (ग्राम) 87.25 87.50 88.20
ऊर्जा (कि.कैलोरी) 67.0 72.0 65.0

एक-दो प्रतिशत बच्चे गाय के दूध के प्रति अति संवेदनशील होते हैं। वे उसकी थोड़ी-सी भी मात्रा को पचा नहीं पाते। या तो उन्हें कब्ज़ रहने लगती है या फिर उल्टी और दस्त की शिकायत हो जाती है। पेट में दर्द की भी शिकायत कई वजह से होती है। श्वसन तंत्र की कुछ बीमारियां जैसे नाक बहना, खांसी, सर्दी आदि भी हो सकती है। कई मरीज़ों में त्वचा सम्बंधी विकार भी उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे एक्जि़मा, फोड़े-फुंसी आदि। पाचन शक्ति ठीक नहीं होने तथा संक्रमण की वजह से एनीमिया हो जाता है। इससे शारीरिक तथा मानसिक विकास या तो धीमा हो जाता है या रुक जाने के लक्षण दिखने लगते हैं। दूध से एलर्जी दो साल की अवस्था के बाद स्वत: समाप्त हो जाती है।

ऐसा क्यों होता है? इसके सटीक कारणों की जानकारी शिशु रोग विशेषज्ञों को भी नहीं है। फिर भी जितनी जानकारी है उसके आधार पर डॉक्टरों का मत है कि इसके लिए प्रतिरक्षा तंत्र ही मुख्य रूप से दोषी है। इतना ही नहीं गाय के दूध में कुछ ऐसे पदार्थ पाए जाते हैं जो कई बच्चों की पाचन शक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।

दूध में पाया जाने वाला प्रोटीन मुख्यत: कैसीन, लैक्टाल्ब्यूमिन तथा लैक्टोग्लोबुलिन के रूप में पाया जाता है। मनुष्य के दूध की अपेक्षा गाय तथा बकरी के दूध में प्रोटीन तीन गुना अधिक होता है। कैसीन नामक प्रोटीन दूध के कैल्सियम के साथ मिलकर कैल्सियम कैसिनेट के रूप में रहता है। कैसीन तथा एल्ब्यूमिन का अनुपात मनुष्य के दूध में 1:1 तथा जानवर के दूध में 7:1 का होता है। गाय के दूध में पाए जाने वाले प्रोटीन का अणु मनुष्य के दूध की अपेक्षा बड़ा होता है, जिसका सीधा प्रभाव पाचन तंत्र की दीवार पर पड़ता है। इस दौरान बाहरी दूध से अत्यधिक मात्रा में एंटीजन प्रवेश करता है।

 

नवजात शिशु में पाचन तंत्र पूरी तरह विकसित नहीं होता है। अत: कई तरह से उसकी दीवार को क्षति पहुंचती है। उसकी दीवार की भीतरी सतह नष्ट हो जाती है और पचे भोजन को अवशोषित करने वाली प्रणाली बुरी तरह प्रभावित होती है। इतना ही नहीं, कई तरह के जीवाणुओं का संक्रमण भी हो जाता है, क्योंकि प्रतिरोधी क्षमता भी पूरी तरह विकसित नहीं रहती। नतीजा यह होता है कि बच्चा दूध को पचा पाने में सक्षम नहीं होता और उल्टी, डायरिया, कब्ज़ आदि कई तरह के लक्षण नज़र आने लगते हैं। इस तरह के मरीज़ में मुख्यत: लैक्टोग्लोबुलिन से ही एलर्जी होती है। इसके अतिरिक्त कैसीन, लैक्टाल्ब्यूमिन, ग्लोबुलिन से भी एलर्जी हो सकती है।

अब यह बात महत्वपूर्ण हो जाती है कि किसी महिला को कैसे पता चले कि उसके बच्चे को गाय के दूध से एलर्जी है। यहां यह भी कह देना ज़रूरी है कि इसकी कोई विशेष जांच नहीं होती। इसका पता मात्र दूध छोड़ने तथा कुछ अंतराल के बाद पुन: देने के बाद होने वाले लक्षणों से ही चल सकता है। एन. डब्लू. क्लाइन नामक चिकित्सक ने 206 बच्चों में दूध से होने वाली एलर्जी का गहन अध्ययन किया और वे इस नतीजे पर पहुंचे कि कब्ज़ के शिकार 6 प्रतिशत बच्चों को (जिन्हें जुलाब से भी कोई फायदा नहीं हुआ था) खाने में गाय का दूध तथा इससे बने खाद्य पदार्थ न देने पर कब्ज़ियत दूर हो गई।

सामान्य माताओं को इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि गाय के दूध से एलर्जी हो सकती है। यदि नवजात शिशु या कम उम्र के बच्चे को कब्ज़ियत, पेट में दर्द, उल्टी या डायरिया की शिकायत हो तथा किसी कारणवश मां के दूध की जगह उसे गाय का दूध दिया जा रहा हो तो तुरंत गाय का दूध पिलाना बंद कर देना चाहिए। गाय के दूध की जगह पर कोई दूसरा दूध दिया जा सकता है। सोयाबीन का दूध अच्छा होता है। यह बाज़ार में सूखे पाउडर के रूप में मिलता है। यदि बकरी का दूध उपलब्ध हो तो वह देने में कोई हर्ज नहीं है।

जब बच्चे की उम्र 9 महीने की हो जाए तो गाय का दूध थोड़ी मात्रा में देना शुरू कर देना चाहिए। शुरू-शुरू में मात्र कुछ बूंदें देकर उसका प्रभाव देखना चाहिए। यदि कोई दिक्कत न हो तो धीरे-धीरे मात्रा बढ़ाई जानी चाहिए। इसके लिए डॉक्टर की देख-रेख ज़रूरी है। वैसे भी दो वर्ष की अवस्था तक पहुंचते-पहुंचते छोटी आंत की दूध पचाने की शक्ति बढ़ जाती है और उससे एलर्जी स्वत: समाप्त हो जाती है। कई बार गाय के दूध में पानी तथा चीनी उचित मात्रा में नहीं मिलाने पर भी बच्चे को डायरिया या उल्टी होने लगती है। गाय का दूध 24 घंटे में 5-6 बार ही पिलाना चाहिए, न कि बार-बार। दूध की कितनी मात्रा दी जाए यह बच्चे के वज़न पर निर्भर करता है।

एक बात और, यदि अपना दूध देना एकदम मना न हो तो स्तनपान ही सर्वोत्तम है। यदि मां को कोई ऐसी बीमारी है जिसमें स्तनपान कराना वर्जित हो तब स्तनपान न कराया जाए। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीवन की शुरुआत के और नज़दीक पहुंचे रसायनज्ञ

किसी समय पृथ्वी पर वे हालात बने होंगे जब ऐसे अणुओं का निर्माण हुआ होगा जिन्हें जीवन की ओर पहला कदम माना जा सके। वैज्ञानिकों के बीच लगभग आम सहमति है कि यह अणु राइबोन्यूक्लिक एसिड (यानी आर.एन.ए.) रहा होगा। आर.एन.ए. एक ऐसा अणु है जो सूचनाओं का संग्रह कर सकता है, और रासायनिक क्रियाओं को गति दे सकता है। यह अणु चार मूल अणुओं का पोलीमर है। तो सवाल है कि शुरुआत में ये चार मूल अणु या न्यूक्लिक एसिड कैसे बने थे।

आर.एन.ए. के निर्माण के ये चार अणु हैं सायटोसीन, यूरेसिल, एडीनीन और ग्वानीन। सायटोसीन और यूरेसिल को पिरिमिडीन कहते हैं और एडीनीन व ग्वानीन प्यूरिन हैं। वैज्ञानिक यह समझने की कोशिश करते रहे हैं कि पृथ्वी पर सूदूर अतीत में मौजूद हालात में इन अणुओं का निर्माण सामान्य रासायनिक क्रियाओं से हो सकता है या नहीं।

वर्ष 2009 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के जॉन सदरलैंड के नेतृत्व में रसायनज्ञों के एक दल ने प्रयोगशाला में उन परिस्थितियों को निर्मित किया जो पृथ्वी के शुरुआती वातावरण में रही होंगी, ऐसा माना जाता है। इस प्रयोग में उन्होंने पांच ऐसे रसायन मिलाए थे जो उस समय पृथ्वी पर मौजूद रहे होंगे। प्रयोग में सायटोसीन और यूरेसिल (यानी पिरिमिडीन) बन गए।

फिर लगभग 2 वर्ष पूर्व जर्मनी के लुडविग मैक्सीमिलन विश्वविद्यालय के थॉमस कैरल और उनके सहयोगियों ने एक आसान से प्रयोग में प्यूरिन्स (एडीनीन और ग्वानीन) बनने की खबर दी।

इन प्रयोगों से स्पष्ट हो गया कि आर.एन.ए. की निर्माण इकाइयां सामान्य रासायनिक क्रियाओं के दौरान बन सकती हैं। मगर एक सवाल यह था कि यदि ये इकाइयां अलग-अलग जगहों पर बनीं तो फिर आर.एन.ए. का संश्लेषण कैसे हुआ होगा। अब कैरल की टीम ने इस सवाल का जवाब पा लिया है। ओरिजिन ऑफ लाइफ वर्कशॉप में उन्होंने अपने प्रयोगों का ब्यौरा दिया है।

कैरल की टीम ने 6 सरल पदार्थों के साथ काम किया – ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, मीथेन, अमोनिया, पानी और हाइड्रोजन सायनाइड। ये सभी शुरुआती धरती पर मौजूद रहे होंगे। इन पदार्थों की रासायनिक क्रियाओं की एक पूरी खाद्य शृंखला के बाद कैरल प्यूरिन्स और पिरिमिडीन्स दोनों समूह के यौगिक एक ही परखनली में बनाने में सफल रहे हैं। यानी यह समस्या तो सुलझ गई कि ये चारों इकाइयां एक स्थान पर कैसे बनी होंगी। लेकिन अभी भी एक बड़ी समस्या बाकी है – इन चारों इकाइयों को लंबी खाद्य शृंखलाओं में जोड़कर आर.एन.ए. कैसे बना होगा। अगला कदम वही समझने का होगा। (स्रोत फीचर्स)

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