किसी भी आपदा के आने पर उसके नियंत्रण के उपाय उच्च प्राथमिकता के आधार पर किए जाते हैं। पर यदि नीतिगत स्तर पर कुछ सावधानियों व समाधानों पर निरंतरता से कार्य हो तो आपदाओं की संभावना भी कम होगी तथा किसी आपदा से होने वाली क्षति भी कम होगी।
जल संरक्षण व हरियाली बढ़ाने के छोटे–छोटे लाखों कार्यों में सरकार को निवेश बड़ी मात्रा में बढ़ाना चाहिए। साथ ही यह कार्य जन भागीदारी से करने की व्यवस्था करनी चाहिए। जल संरक्षण के साथ नमी संरक्षण की सोच को महत्त्व मिलना चाहिए। हरियाली स्थानीय वनस्पतियों से बढ़नी चाहिए। वृक्षारोपण में जल व मिट्टी संरक्षण के साथ पौष्टिक खाद्य उपलब्धि को भी महत्व देना चाहिए। जिन गांवों में जल संरक्षण व हरियाली की उत्तम व्यवस्था है, वे विभिन्न आपदाओं के प्रकोप को झेलने में अन्य ग्रामीण क्षेत्रों से अधिक सक्षम हैं। कुछ अलग तरह से यह प्राथमिकता शहरी व अर्धशहरी क्षेत्रों में भी अपनानी चाहिए।
विभिन्न संदर्भों में पर्यावरण रक्षा की नीतियों को मज़बूत करने से आपदाओं में होने वाली क्षति को कम करने में सहायता मिलेगी। चाहे खनन नीति हो या वन नीति या कृषि नीति, यदि इनमें पर्यावरण की रक्षा पर समुचित ध्यान दिया जाता है तो इससे आपदाओं की संभावना व क्षति को कम करने में भी मदद मिलेगी।
विभिन्न क्षेत्रों की संभावित आपदा की दृष्टि से मैपिंग करने, पहचान करने व आपदा का सामना करने की तैयारी पर पहले से समुचित ध्यान देना ज़रूरी है। जलवायु बदलाव के इस दौर में केवल सामान्य नहीं अपितु असामान्य स्थितियों की संभावना को भी ध्यान में रखने की ज़रूरत है। इसके लिए बजट बढ़ाने के साथ–साथ अनुभवी स्थानीय लोगों के परामर्श को महत्व देना आवश्यक है। अधिक जोखिमग्रस्त स्थानों में रहने वाले लोगों से परामर्श के बाद नए स्थान पर पुनर्वास ज़रूरी समझा जाए तो उसकी व्यवस्था भी करनी चाहिए।
मौसम के पूर्वानुमान की बेहतर व्यवस्था, इसके समुचित प्रसार को सुनिश्चित करना भी आवश्यक है।
देश के ढांचागत या इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास में आपदा पक्ष को भी स्थान मिलना चाहिए। दूसरे शब्दों में, विभिन्न ढांचागत विकास की परियोजनाओं (सड़क, हाईवे, नहर, बांध, बिजलीघर आदि) के नियोजन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी होना चाहिए कि उनसे किसी आपदा की संभावना या उससे होने वाली क्षति न बढ़े। उदाहरण के लिए सड़कों में निकासी की उचित व्यवस्था न होने से बाढ़ व जल–जमाव की समस्या बहुत बढ़ सकती है। विभिन्न ढांचागत परियोजनाओं में बड़े पैमाने पर पेड़ काटने या डायनामाइट दागने से भूस्खलन की समस्या बहुत बढ़ सकती है। इस बारे में पहले से सावधानी बरती जाए तो अनेक महंगी गलतियों से बचा जा सकता है। इस तरह की सावधानियां विशेषकर उन क्षेत्रों में अपनाना ज़रूरी है जहां बहुत बड़े पैमाने पर ढांचागत विकास होने वाला है। यह स्थिति इस समय देश के अनेक क्षेत्रों की है, जो पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील माने गए हैं। जैसे हिमालय व पश्चिमी घाट क्षेत्र।
बांध प्रबंधन में सुधार की ज़रूरत काफी समय से महसूस की जा रही है। इस बारे में उच्च अधिकारियों व विशेषज्ञों ने वर्तमान समय में कहा है कि बांध प्रबंधन में बाढ़ से रक्षा को अधिक महत्व देना व इसके अनुकूल तैयारी करना महत्वपूर्ण है।
आपदाओं की स्थिति में कैसा व्यवहार करना चाहिए, कैसी तैयारी घर–परिवार व स्कूल–कॉलेजों में पहले से रखनी चाहिए, इसके लिए समय–समय पर प्रशिक्षण दिए जाएं व इसकी ड्रिल की जाए तो यह कठिन वक्त में सहायक सिद्ध होंगे।
शौच व्यवस्था या स्वच्छता के क्षेत्र में प्रगति से भी आपदाओं के नियंत्रण में मदद मिलेगी। विशेषकर प्लास्टिक व पोलीथीन के कचरे पर नियंत्रण से बाढ़ व जल जमाव की समस्या को कम करने में सहायता मिलेगी। बाढ़ व जल जमाव से अधिक प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में यदि परिस्थितियों के अनुकूल स्वच्छ शौच व्यवस्था हो जाए तो इससे यहां के लोगों को राहत मिलेगी। दूसरी ओर जल्दबाज़ी में की गई व ज़रूरी सावधानियों की अवहेलना करने वाली व्यवस्थाएं यहां के लिए हानिकारक भी हो सकती हैं। ऐसे क्षेत्रों में भूजल स्तर ऊपर होता है। अत: शौचालय बनाते समय यह ध्यान में रखना ज़रूरी होता है कि कहीं इनका डिज़ाइन ऐसा न हो कि उससे भूजल के प्रदूषित होने की संभावना हो।
यदि उचित नीतियां अपनाकर उनके क्रियांवयन में निरंतरता रखते हुए सावधानियों व समाधानों पर ध्यान दिया जाए तो आपदाओं की संभावना व उनसे होने वाली क्षति को काफी कम किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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