साढ़े चार अरब साल पहले धरती पर पानी आया था। जब पृथ्वी का जन्म हुआ तब यह बहुत गर्म थी। कालांतर में यह ठंडी हुई और इस पर पानी ठहरा। वर्तमान में जल संकट बहुत गहरा है। आज पानी महत्वपूर्ण व मूल्यवान वस्तु बन चुका है। शुद्ध पानी जहां अमृत है, वहीं दूषित पानी विष और महामारी का आधार। जल संसाधन संरक्षण और संवर्धन आज की ज़रूरत है जिसमें जनता का सहयोग अपेक्षित है।
धरती के गर्भ से पानी की आखरी बूंद भी खींचने की कवायद की जा रही है। विख्यात समुद्र शास्त्री जैक्वस कांसट्यू ने कहा था कि हमें नहीं भूलना चाहिए कि जल और जीवन चक्र में कोई अंतर नहीं है और यह बात सोलह आने खरी है। लेकिन इस बात को नज़रअंदाज़ करके हम खुद ही बड़े संकट में घिरे हैं। बनारस की वरुणा नदी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जिसका पानी कब कीचड़ बन गया पता ही नहीं चला। यह हालत मात्र वरुणा की ही नहीं, देश–दुनिया की सारी नदियों की हो गई है। दुनिया में पानी की किल्लत एक बड़ा मुद्दा बन चुका है। भारत में पिछले वर्ष 33 करोड़ लोगों ने जल संकट का सामना किया था, लेकिन हमने कोई सबक नहीं लिया।
एक प्रतिशत पानी उपयोगी
पृथ्वी पर कुल उपलब्ध जल लगभग 1.36 अरब घन कि.मी. है, परंतु उसमें से 96.5 प्रतिशत जल समुद्री है जो खारा है। यह खारा जल समुद्री जीवों और वनस्पतियों को छोड़कर शेष जीवों के लिए अनुपयोगी है। शेष 3.5 प्रतिशत (लगभग 4.8 करोड़ घन कि.मी.) जल मीठा है, किंतु इसका 24 लाख घन कि.मी. हिस्सा 600 मीटर गहराई में भूमिगत जल के रूप में विद्यमान है तथा लगभग 5 लाख घन कि.मी. जल गंदा व प्रदूषित हो चुका है, इस प्रकार पृथ्वी पर उपस्थित कुल जल का मात्र एक प्रतिशत हिस्सा ही उपयोगी है। इस एक फीसदी जल पर दुनिया के छ: अरब मनुष्यों समेत सारे सजीव और वनस्पतियां निर्भर हैं।
जिस तरह दुनिया से पानी गायब होना शुरू हो रहा है ऐसे में आने वाले समय में पानी झगड़ों का सबसे बड़ा कारक बनेगा। पानी की किल्लत व लड़ाई सिर्फ गली–कूचों तक नहीं रहने वाली, राज्यों व देशों के बीच नदियों का झगड़ा इसका उदाहरण है। हरियाणा, पंजाब और दिल्ली का झगड़ा हो या फिर कावेरी नदी के लिए कर्नाटक और तमिलनाडु की लड़ाई हो, मुद्दा पानी ही है। दूसरी तरफ ब्रम्हपुत्र के लिए चीन, भारत व बांग्लादेश का टकराव इसका उदाहरण है। पिछले वर्ष महाराष्ट्र के कई ज़िलों में धारा 144 इसलिए लगा दी गई थी क्योंकि पानी को लेकर झगड़े शुरू हो गए थे।
पिछले तीन दशकों में कुछ ऐसा हुआ है जिससे कि पानी की विभिन्न उपयोगिताएं तो बढ़ी ही हैं पर साथ में जनसंख्या की बढ़ोतरी ने भी दूसरी बड़ी मार की है। पहले पानी पीने और सीमित सिंचाई में काम आता था पर अब इसके कई अन्य उपयोग शुरू हो गए हैं। उद्योगों पर होने वाली पानी की खपत एक बड़ा मुद्दा है। अब पानी स्वयं ही उद्योगी उत्पाद के रूप में सामने है। जो पानी पोखरों, तालाबों या फिर नदियों में होना चाहिए था वह अब बोतलों में कैद है। हज़ारों करोड़ों में पहुंच चुका यह व्यापार अभी और फलने–फूलने वाला है। इसके अलावा आज देश भर में कई ऐसे उद्योग खड़े हैं जिनकी पानी की खपत अत्यधिक है। उदाहरण के लिये टेनरी, चमड़ा उद्योग, दवाई कारखाने आदि।
बढ़ते उपयोगों के साथ पानी की गुणवत्ता में भी भारी कमी आई है। एक अध्ययन के अनुसार प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता घटी है। पहले ये 2000 लीटर थी और वर्तमान में घटकर 1100 लीटर के करीब रह गई है। वर्ल्ड ऐड की ताज़ा रपट के अनुसार चीन, पाकिस्तान व बांग्लादेश के साथ–साथ दुनिया के 10 देशों में एक भारत भी है जहां स्थितियां इतनी बिगड़ चुकी हैं कि पीने को साफ पानी नहीं मिलता। 7.6 करोड़ भारतीय पीने के साफ पानी से वंचित हैं और यही कारण है कि यहां प्रति वर्ष लगभग 14 लाख बच्चे दूषित पानी के कारण मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। अपने देश में पानी की कीमत अन्य देशों की तुलना में बहुत ज़्यादा है। इस रिपोर्ट के अनुसार विकसित देशों में पानी की कीमत लोगों की कमाई का मात्र एक प्रतिशत है जबकि भारत में यह 17 प्रतिशत तक है।
रिपोर्ट इशारा करती है कि पानी की घटती गुणवत्ता आने वाले समय में लाखों लोगों को लील लेगी या फिर मीठे जहर की तरह एक बड़ी आपदा जैसे हालात पैदा कर देगी। जीवन के इस मूल तत्व के प्रति अभी भी हम बहुत गंभीर नहीं दिखाई देते। जिन्हें नीतियां तैयार करनी हैं वे या तो बोतलों के पानी पर पलते हैं या फिर वॉटर प्यूरीफायरों ने उनकी जान बचा रखी है। सवाल उन करोड़ों लोगों का है जिनकी पहुंच उपरोक्त दोनों साधनों तक नहीं है।
पानी के संकट का बड़ा कारण इसका प्रबंधन का भी है। भूमिगत रुाोत लगभग 85 प्रतिशत पानी की आपूर्ति करते हैं जिनमें 56 प्रतिशत तक गिरावट आ चुकी है। देश का कोई भी ऐसा कोना नहीं बचा है जहां परंपरागत पानी के रुाोत सूखे न हों। पहाड़ों में वन विनाश या वर्षा की कमी के कारण जल धाराएं तेज़ी से गायब होती जा रही हैं। यही हालात देश के दूसरे जल रुाोतों के भी हैं। पोखर व तालाब तेज़ी से साथ छोड़ रहे हैं। ये या तो अन्य उपयोगों के लिए कब्ज़ा लिए गए हैं या फिर उचित रख–रखाव के अभाव में नष्ट हो गए हैं।
विडंबना ही है कि देश के ग्रामीण क्षेत्र ही पानी के बड़े संकट में फंसे हैं। शहरों में जल वितरण व्यवस्था चरमराती है तो तत्काल प्रभावी कदम उठा लिए जाते हैं। पर गांवों की पानी की किल्लत हर वर्ष और मुश्किल होती जाती है। पहाड़ों में महिलाओं को पानी के लिए औसतन 2-3 कि.मी. और कभी–कभी 3-4 कि.मी. चलना पड़ता है। मैदानी गांवों में भी एक के बाद एक सूखते कुएं व नीचे खिसकते भूजल ने कहर बरपाना शुरू कर दिया है। दिल्ली में यमुना–गंगा के पानी से जब आपूर्ति नहीं हुई तो हिमाचल प्रदेश के रेणुका बांध का सहारा मिल गया। पर इन्हीं नदियों के जलागम क्षेत्रों में बसे गांवों में पानी के संकट का बड़ा शोर मचा है, लेकिन सुनवाई नहीं है। शहरों के पानी की व्यवस्था के कई विकल्प इसलिए खड़े हो जाते हैं क्योंकि वहां सरकार या नीतिकार बैठते हैं।
वास्तव में हम असली मुद्दों से कतरा रहे हैं। पहला है देश में सही जल प्रबंधन की कमी व दूसरी जल संरक्षण व संग्रहण की बड़ी योजनाओं का अभाव। पानी से जुड़ी एक बात और समझनी चाहिए कि जलवायु परिवर्तन या धरती के बढ़ते तापमान का सीधा असर इसी पर है। जल ही सभी क्रियाओं का केंद्र है इसीलिए जलवायु परिवर्तन को जल केंद्रित दृष्टि से देखना आवश्यक होगा। अब जल को कई आयामों से जोड़कर देखने का समय आ चुका है।
पानी का सच
दुनिया में 70 प्रतिशत पानी खेती के उपयोग में लाया जाता है और मात्र 10 प्रतिशत घरेलू उपयोग में। ग्रामीण दुनिया के 8 प्रतिशत लोगों को साफ पानी की व्यवस्था नहीं है। दुनिया के आधे से ज़्यादा स्कूलों में पानी, शौचालय आदि की व्यवस्था नहीं है और हर वर्ष 4 करोड़ स्कूली बच्चे पानी की बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। दुनिया के 64 प्रतिशत घरों में महिलाएं ही पानी की ज़िम्मेदारी उठाती हैं। करीब 80 प्रतिशत बीमारियां पानी की देन हैं। उप–सहारा क्षेत्र में लोगों के 40 अरब घंटे पानी जुटाने में लग जाते हैं।
भारत में सभी प्राकृतिक संसाधनों में कुल पानी 4000 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) है और लगभग 370 बीसीएम सतही पानी उपयोग के लिए उपलब्ध हो पाता है। पहले प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष यह उपलब्धता 5000 क्यूबिक मीटर तक थी। वर्ष 2000 में यह मात्रा 2000 क्यूबिक मीटर प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति रह गई। अगर ऐसे ही चलता रहा तो वर्ष 2050 तक हम 160 करोड़ होंगे और यह उपलब्धता 100 क्यूबिक मीटर रह जाएगी। इसका मतलब प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 3.2 क्यूबिक मीटर ही उपलब्ध होगा, इसका मतलब है कि इसी पानी में हर व्यक्ति के लिए खेती, नहाना, कपड़े धोना, पीना, खाना–पकाना जुड़ा होगा। मतलब साफ है: एक बड़े संकट की आहट। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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