ज़्यादातर कीट अंडे देने के बाद उन्हें छोड़ देते हैं। किंतु काले–नारंगी रंग की, छोटी–सी खोदक भृंग (गुबरैला) अपने अंडों को छोड़ती नहीं बल्कि अपने बच्चों की तब तक देखभाल करती है जब तक वे स्वयं भोजन जुटाने लायक ना हो जाएं। किंतु शोधकर्ताओं ने हाल ही में आयोजित वैकासिक जीव विज्ञान पर हुई द्वितीय कांग्रेस में बताया है इसकी संतान जन्म से ही खुद अपना भोजन जुटाने में समर्थ हो सकती हैं।
युरोप के जंगलों और उत्तरी अमेरिका के दलदली इलाकों में पाई जाने वाली खोदक भृंग का भोजन ज़मीन में दबे मृत चूहे या पक्षी होते हैं। इन्हीं के नज़दीक मादा अंडे देती है। वयस्क भृंग शव के ऊपर के बाल या पंख को हटाकर उनका नर्म गोला बना लेते हैं और इन्हें अंडों के साथ रख देते हैं। जब अंडे से बच्चे निकलते हैं तो मां–भृंग शव में सुराख कर देती है और नवजात लार्वा को भोजन देती है।
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की वैकासिक जीव वैज्ञानिक रेबेका किलनर ने प्रयोगशाला में इन भृंगों के परिवारिक माहौल में बदलाव करके उनमें शारीरिक और व्यावहारिक बदलाव का अध्ययन किया। उन्होंने भृंगों को दो समूहों में रखा। एक समूह में अंडे देने के तुरंत बाद मां को उस समूह से हटा दिया गया। दूसरे समूह में उन्होंने ऐसा कोई बदलाव नहीं किया। लगातार 30 पीढ़ियों तक इस प्रयोग को दोहराने के बाद उन्होंने पाया कि मां–विहीन समूह के नवजात लार्वा आकार में बड़े थे और उनके जबड़े मज़बूत थे। किलनर का कहना है कि आम तौर पर भृंग–माता मृत शरीर के आसपास की मिट्टी हटाने और शव में छेद करने का काम करती है। पर जब नवजात लार्वा को खुद ये काम करने पड़ा तो सिर्फ वही लार्वा भोजन तक पहुंच पाए जिनके जबड़े बड़े थे। इसलिए वे जीवित भी रह पाए। इस तरह उनकी संतानों के जबड़े बड़े होते गए।
लार्वा के व्यवहार को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने दोनों समूह (मां वाले, और मां विहीन) से विभिन्न अनुपात में लार्वा को एक साथ शव के पास छोड़ा। उन्होंने पाया कि जिस समूह में सभी लार्वा मां विहीन समूह से थे वे भोजन तक पहुंच पाए। किलनर का कहना है कि वे नहीं जानते कि लार्वा यह कैसे कर सके, हो सकता है मिल–जुलकर काम करने से उन्हें कामयाबी मिली हो। इसके विपरीत जिस समूह में सारे लार्वा मां वाले समूह से थे वे भोजन तक नहीं पहुंच पाए। देखा गया कि वे शव तक पहुंचने के लिए एक–दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे थे।
मां विहीन समूह के लार्वा में सहयोग का एक और संकेत दिखाई दिया – सभी लार्वा अंडों से एक साथ और जल्दी बाहर निकल आए। किलनर का कहना है कि शव को भेदने के लिए एक खास संख्या में लार्वा की ज़रूरत पड़ती है, अत: यदि अंडों से निकलने का समय एक होगा तो वे मिल–जुलकर बेहतर काम कर सकेंगे।
जॉर्जिया विश्वविद्यालय के वैकासिक जीव वैज्ञानिक एलन मूरे का कहना है कि इस अध्ययन से पता चलता है कि परिस्थिति बदलने पर परिवार में कैसे अलग–अलग तरह के समाजिक सम्बंध विकसित हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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