अनैतिकता के निर्यात पर रोक का प्रयास

नैतिकता का निर्यात यानी एथिकल डंपिंग शब्द युरोपीय आयोग ने 2013 में गढ़ा था। इसका आशय यह है कि कई देशों के शोधकर्ता नैतिक मापदंडों के चलते जो शोध अपने देश में नहीं कर सकते उसे किसी अन्य देश में जाकर करते हैं जहां के नैतिक मापदंड उतने सख्त नहीं हैं। यह स्थिति प्राय: विकसित सम्पन्न देशों और निर्धन देशों के बीच उत्पन्न होती है। अब युरोपीय संघ ने इस तरह के अनैतिकता के निर्यात पर रोक लगाने का फैसला किया है।

वैसे युरोपीय संघ द्वारा वित्तपोषित शोध के संदर्भ में अनैतिकता के निर्यात की बात 2013 में ही शुरू हो गई थी किंतु उस समय इस संदर्भ में स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं होने के कारण प्रतिबंध को लागू नहीं किया जा सका था। अब आयोग ने दिशानिर्देश तैयार कर लिए हैं और युरोपीय संघ द्वारा वित्तपोषित सारे अनुसंधान प्रोजेक्ट्स में इन्हें लागू किया जाएगा।

युरोपीय आयोग के नैतिकता समीक्षा विभाग का कहना है कि इस तरह से अन्य देशों में जाकर शोध के ढीलेढाले मापदंडों का उपयोग करने से वैज्ञानिक अनुसंधान की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। खास तौर से यह स्थिति जंतुओं पर किए जाने वाले अनुसंधान के संदर्भ में सामने आती है। इसके अलावा, कई मर्तबा यह भी देखा गया है कि जिन देशों में अनुसंधान किया जाता है, वहां के लोगों को पर्याप्त जानकारी देने के मामले में भी लापरवाही बरती जाती है। अनुसंधान में भागीदारी के जो मापदंड युरोप में लागू हैं, उनका पालन प्राय: नहीं किया जाता। दिशानिर्देशों में यह भी कहा गया है कि शोध परियोजनाओं में इस वजह से जानकारी छिपाना या कम जानकारी देना उचित नहीं कहा जा सकता कि वहां के लोग या स्थानीय शोधकर्ता उसे समझ नहीं पाएंगे। इसके अलावा एक मुद्दा यह भी है कि अन्य देशों में शोध करते समय वहां के नियमकानूनों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।

अलबत्ता, कई लोगों का कहना है कि इस तरह की सख्ती से अन्य देशों में अनुसंधान करना मुश्किल हो जाएगा और इससे न सिर्फ वैज्ञानिक अनुसंधान का बल्कि उन देशों का भी नुकसान होगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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चीन में जच्चा-बच्चा का विशाल अध्ययन

चीन में 6 वर्ष पूर्व एक महत्वाकांक्षी शोध परियोजना शुरू की गई थी। इस परियोजना के अंतर्गत लक्ष्य यह है कि 50,000 नवजात शिशुओं और उनकी मांओं को शामिल किया जाएगा और इनका अध्ययन बच्चों की उम्र 18 वर्ष होने तक निरंतर किया जाएगा। इस तरह एक ही समूह का लंबे समय तक अध्ययन करना कोहर्ट अध्ययन कहलाता है और ऐसे समूह को कोहर्ट कहते हैं।

वर्ष 2012 तक इस कोहर्ट में 33,000 बच्चे और उनकी मांओं को शामिल किया जा चुका था। और 2020 तक 50,000 जच्चा-बच्चा का लक्ष्य हासिल करने की योजना है। इसके अलावा अब अध्ययन में पांच हज़ार नानियों को शामिल किया जाएगा। इन सारे बच्चों का जन्म गुआंगज़ाउ महिला व बाल चिकित्सा केंद्र में हुआ है। इस बात का ध्यान रखा जा रहा है कि उन्हीं बच्चों और माओं को शामिल किया जाए जो आने वाले कई वर्षों तक गुआंगज़ाउ में रहने का इरादा रखते हैं।

अध्ययन के दौरान अब तक कोई 16 लाख जैविक नमूने एकत्र किए जा चुके हैं। इनमें मल, रक्त, आंवल के ऊतक और गर्भनाल वगैरह शामिल हैं। शोधकर्ता इन बच्चों और उनकी मांओं में कई बातों की जांच करेंगे। जैसे एक प्रमुख जांच बच्चों के शरीर के सूक्ष्मजीव जगत की होगी और यह देखने की कोशिश की जाएगी कि उम्र के साथ प्रत्येक बच्चे का सूक्ष्मजीव जगत कैसे विकसित होता है। यह देखने की भी कोशिश की जा रही है कि शरीर में सूक्ष्मजीव जगत पर किन बातों का असर पड़ता है, जैसे बचपन में दी गई दवाइयां, या यह कि प्रसव सामान्य ढंग से हुआ था या ऑपरेशन से वगैरह। इन आंकड़ों के आधार पर बीमारियों के बारे में समझ बनने की उम्मीद है। इसके साथ ही इन परिवारों की जीवन शैली से जुड़ी बातों पर भी ध्यान दिया जाएगा।

कुछ निष्कर्ष तो उभरने भी लगे हैं और शोधकर्ता दल ने इन्हें प्रकाशित भी किया है। जैसे आम तौर पर गर्भवती स्त्री को प्रोजेस्टरोन नामक दवा दी जाती है ताकि समय-पूर्व प्रसव को टाला जा सके। इस अध्ययन से पता चला है कि शुरुआती गर्भावस्था (14 सप्ताह तक) में यह दवा देने से कोई फायदा नहीं होता बल्कि नुकसान ही हो सकता है। प्रोजेस्टरोन देने से इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि प्रसव सिज़ेरियन ऑपरेशन से करना होगा। इसके अलावा प्रसव-उपरांत अवसाद की आशंका में भी वृद्धि होती है।

यह देखा गया है कि बच्चे में कुछ कोशिकाएं मां से आती हैं और ये अनिश्चित समय तक जीवित रह पाती हैं। अध्ययन में यह देखने की कोशिश की जाएगी कि ये कोशिकाएं कैसे लंबे समय तक जीवित रहती हैं और क्या भूमिका अदा करती हैं। चूहों पर अध्ययन में देखा गया है कि ये उनके बच्चों को संतानोत्पत्ति के समय कुछ सुरक्षा प्रदान करती हैं।

वैसे तो ऐसे कोहर्ट अध्ययन पहले भी किए गए हैं किंतु इतने विशाल पैमाने पर पहली बार किया जा रहा है। गुआंगज़ाउ महिला एवं बाल चिकित्सा केंद्र में वैज्ञानिक और प्रोजेक्ट के निदेशक, ज़िउ किउ का कहना है कि इस अध्ययन से आंकड़ों का एक अकूत भंडार तैयार होगा जो दुनिया भर के वैज्ञानिकों के लिए खुला रहेगा। इस तरह के आंकड़ों से स्वास्थ्य और बीमारी को समझने की ज़बर्दस्त संभावनाएं हैं।(स्रोत फीचर्स)

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क्या मनुष्यों की ऊपरी आयु की सीमा आ चुकी है?

हाल ही में किया गया एक सांख्यिकीय अध्ययन बताता है कि मनुष्यों की आयु की ऊपरी सीमा अभी नहीं आई है हालांकि आज तक का रिकॉर्ड 112 वर्ष है। साइन्स शोध पत्रिका में प्रकाशित यह अध्ययन इटली के राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान द्वारा संग्रहित आंकड़ों के आधार पर किया गया है।

सेपिएन्ज़ा विश्वविद्यालय की एलिसाबेटा बार्बी और उनके साथियों ने पाया कि इटली की नगर पालिकाएं अपने बाशिंदों के काफी व्यवस्थित रिकॉर्ड रखती हैं। इसलिए उन्होंने अपने अध्ययन में इन्हीं आंकड़ों का उपयोग किया।

पूर्व के अध्ययनों में देखा जा चुका है कि उम्र बढ़ने के साथ व्यक्ति की अगले एक वर्ष में मृत्यु की संभावना बढ़ती जाती है। उदाहरण के लिए 50 वर्ष की उम्र में अगले एक साल में व्यक्ति की मृत्यु होने की संभावना 30 वर्ष की उम्र के मुकाबले तीन गुनी हो जाती है। उम्र के सातवें और आठवें दशक के बाद अगले एक वर्ष में मृत्यु की संभावना हर 8 वर्षों में दुगनी हो जाती है। और यदि आप 100 वर्ष की उम्र पर पहुंच गए हैं तो मात्र 60 प्रतिशत संभावना रहती है कि आप अपना अगला जन्म दिन देख पाएंगे।

इस तरह के रुझानों के बावजूद कम से कम मक्खियों और कृमियों में एक और बात देखी गई है। इन जंतुओं में एक उम्र पार करने के बाद मृत्यु की संभावना बढ़ना रुक जाती है। अब तक मनुष्यों में इस बात की जांच नहीं की जा सकी थी। बार्बी व उनके साथियों ने इटली के राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान के आंकड़ों में से उन लोगों के आंकड़े लिए जो 2009 से 2015 के बीच कम से कम 105 वर्ष के थे। इनकी कुल संख्या 3836 थी। आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर देखा गया कि 105 वर्ष की उम्र के बाद मत्यु की संभावना नहीं बढ़ती। कहने का मतलब है कि 106 वर्ष के किसी व्यक्ति की 107 की उम्र में मरने की संभावना उतनी ही होती है जितनी 111 वर्षीय व्यक्ति के 112 वर्ष की उम्र में मरने की।

आंकड़ों से एक बात और पता चली जन्म के वर्ष के आधार पर देखें तो सालदरसाल 105 साल जीने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह इस बात का संकेत है कि यदि मनुष्यों की आयु की कोई उच्चतम सीमा है तो हम उस सीमा तक अभी नहीं पहुंचे हैं। वैसे कई अन्य वैज्ञानिकों का ख्याल है कि यह निष्कर्ष उतना पक्का नहीं है।(स्रोत फीचर्स)

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पोलियो ने फिर सिर उठाया

बात भारत की नहीं, कॉन्गो प्रजातांत्रिक गणतंत्र की है। अलबत्ता, कहीं की भी हो मगर यह बात अंतर्राष्ट्रीय चिंता का विषय है कि पोलियो ने फिर से बच्चों को लकवाग्रस्त किया है।

कॉन्गो प्रजातांत्रिक गणतंत्र (संक्षेप में कॉन्गो) में पोलियो के कारण 29 बच्चे लकवाग्रस्त हो चुके हैं और गत 21 जून को एक और मामला सामने आया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के वैश्विक पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम ने इसे अत्यंत चिंताजनक घटना घोषित किया है जो पोलियो उन्मूलन के हमारे प्रयासों को वर्षों पीछे धकेल सकती है।

कॉन्गो में उभरे नए मामले पोलियो उन्मूलन के प्रयासों के सबसे कठिन हिस्से की ओर संकेत करते हैं। कॉन्गो में पोलियो के ये मामले उस कुदरती वायरस के कारण नहीं हुए हैं, जो अफगानिस्तान, पाकिस्तान और शायद नाइजीरिया में अभी भी मौजूद है। कॉन्गो में लकवे के नए मामले ओरल पोलियो वैक्सीन (दो बूंद ज़िंदगी की) में इस्तेमाल किए गए दुर्बलीकृत वायरस के परिवर्तित रूप के कारण सामने आए हैं। वैक्सीन का यह दुर्बलीकृत वायरस प्रवाहित होता रहा और इसमें विभिन्न उत्परिवर्तन हुए और अंतत: इसने फिर से संक्रमण करने और लकवा पैदा करने की क्षमता अर्जित कर ली है।

वास्तव में मुंह से पिलाया जाने वाला पोलियो का टीका काफी सुरक्षित और कारगर माना जाता है और यही पोलियो उन्मूलन के प्रयासों का केंद्र बिंदु रहा है। इसकी एक खूबी है जो अब परेशानी का कारण बन रही है। टीकाकरण के बाद कुछ समय तक यह दुर्बलीकृत वायरस मनुष्य से मनुष्य में फैलता रहता है। इसके चलते उन लोगों को भी सुरक्षा मिल जाती है जिन्हें सीधे-सीधे टीका नहीं पिलाया गया था। मगर कई बार यह वायरस इस तरह से बरसों तक पर्यावरण में मौजूद रहकर उत्परिवर्तित होता रहता है और फिर से संक्रामक रूप में आ जाता है।

टीके से उत्पन्न पोलियो वायरस सबसे पहले वर्ष 2000 में खोजा गया था। इसकी खोज होते ही, विश्व स्वास्थ्य सभा ने घोषित किया था कि कुदरती वायरस के समाप्त होते ही मुंह से पिलाए जाने वाले टीके को बंद कर देना चाहिए। फिर 2016 में पता चला कि टीका-जनित पोलियो वायरस अब कहीं अधिक घातक हो चला है और यह कुदरती वायरस की अपेक्षा ज़्यादा लोगों को लकवाग्रस्त बना रहा है। उसके बाद से इसे एक वैश्विक समस्या मानते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन के पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम ने पोलियो उन्मूलन की रणनीति में कई बदलाव किए हैं और देशों को प्रसारित किए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि बदली हुई रणनीतियां कामयाब होंगी।(स्रोत फीचर्स)

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बीमारियों के शहंशाह पर विजय – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कैंसर तब होता है जब स्वस्थ कोशिकाएं क्षतिग्रस्त हो जाती है, उनमें अनियंत्रित विकास होता है जो स्वास्थ को प्रभावित करता है।

कैंसर विशेषज्ञ डॉ. सिद्धार्थ मुखर्जी की कैंसर पर लिखी किताब पुलित्ज़र पुरस्कार के लिए चुनी गई थी। उनकी इस किताब का नाम था एम्परर ऑफ ऑल मेलेडीज़ (बीमारियों का शहंशाह)। यह कैंसर जैसे शत्रु द्वारा प्रस्तुत चुनौती के प्रति विस्मय और खेल भावना से अपने शत्रु की प्रशंसा का मिलाजुला प्रस्तुतीकरण है। इससे पहले 1971 में अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने कैंसर पर युद्ध की घोषणा की थी और इसके लिए 1.4 अरब डॉलर की राशि प्रदान की थी। इन 47 वर्षों में अकेले यू.एस. राष्ट्रीय कैंसर संस्थान ने ही कैंसर पर युद्ध में 90 अरब डॉलर खर्च किए हैं। और विजय अभी हमारा मुंह चिढ़ा रही है।

प्रति वर्ष अमेरिका में 173 लाख नए कैंसर मरीज़ रिपोर्ट होते हैं। और हर 20 मिनिट में एक कैंसर मरीज़ की मृत्यु होती है। भारत में यह आंकड़ा 25 लाख है और हर 8 मिनिट में एक मृत्यु। इस प्रकार सभ्यता की शुरुआत से ही हमारे साथ चली आ रही इस घातक बीमारी का समाधान बेहद ज़रूरी और महत्वपूर्ण है।

कैंसर तब होता है जब शरीर में कोई स्वस्थ कोशिका क्षतिग्रस्त हो जाती है और अनियंत्रित वृद्धि करने लगती है जिससे स्वास्थ्य प्रभावित होता है। कोशिका में क्षति या तो कोशिका के जीन्स को प्रभावित करने वाली जन्मजात या आनुवंशिक त्रुटियों की वजह से हो सकती है या जीवन शैली और पर्यावरणीय कारकों के कारण हो सकती है। सामान्य कोशिका में यह शुरू से तय होता है कि वह एक निश्चित समय तक विभाजन करेगी और एक निश्चित आकार तक वृद्धि करेगी। लेकिन कैंसर कोशिकाओं के डीएनए में क्षति के कारण वे बेलगाम वृद्धि करती रहती हैं जिसकी वजह से ट्यूमर (गठान) बनता है। कैंसर विशेषज्ञ दवाइयों या सर्जरी से इस ट्यूमर को हटा देते हैं। लेकिन बड़ी चुनौती इसका यह पहला उपचार नहीं है बल्कि यह है कि कैंसर फिर से सिर न उठाए या इसका मेटास्टेसिस (शरीर के दूसरे हिस्सों में पहुंचकर उन्हें नुकसान पहुंचाना) न होने पाए। अर्थात कैंसर से लड़ाई का मकसद इसकी जड़ तक पहुंचकर उसे उखाड़ फेंकना है।

इसी संदर्भ में हम अपने अंदर कुदरती रूप से मौजूद प्रतिरक्षा तंत्र का रुख करते हैं। प्रतिरक्षा तंत्र कोशिकाओं, ऊतकों और अणुओं का एक जटिल नेटवर्क है। यह तंत्र संक्रमण और अन्य बीमारियों के साथसाथ कैंसर से लड़ने में मदद करता है। श्वेत रक्त कोशिकाएं (लिम्फोसाइट्स) इसमें अहम भूमिका निभाती हैं। विशेष रूप से बीलिम्फोसाइट्स नामक कोशिकाएं हमलावरों में अणुओं की आकृति को पहचानती हैं और फिर एंटीबॉडीज़ बनाती हैं, जो हमलावरों को घेरकर शरीर से हटा देते हैं। (महत्वपूर्ण बात यह है कि लिम्फोसाइट इस आकृति को याद रखते हैं, और जब भी इस हमलावर द्वारा पुन: हमला हो तो बीलिम्फोसाइट तैयार रहते हैं।) कोशिकाओं का एक समूह टीकोशिकाओं का होता है जो कुछ रसायन छोड़ती हैं। ये रसायन हमलावर कोशिकाओं को आत्महत्या के लिए प्रेरित करते हैं। इस प्रक्रिया में इन टीकिलर कोशिकाओं को टीहेल्पर कोशिकाओं की मदद मिलती है। इसके अलावा डेंड्राइटिक कोशिकाओं का एक और समूह होता है जो बीकोशिकाओं और टीकोशिकाओं दोनों को सक्रिय करने में मदद करता है, और वे विशिष्ट खतरे का जवाब देने में समर्थ हो जाती हैं।

प्रत्येक कोशिका की सतह पर एक छोटा मार्कर होता है, एक छोटे आण्विक पहचान पत्र के समान। इसे एंटीजन कहते हैं। ये छोटेछोटे अणु होते हैं जो कोशिका की सतह पर पाए जाते हैं। शरीर की सामान्य कोशिकाओं पर उपस्थित एंटीजन को शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली की कोशिकाएं अपनेके रूप में पहचानती है और उन्हें हाथ नहीं लगाती। लेकिन जैसे ही कोई अन्य कोशिका (जैसे हमलावर सूक्ष्मजीव या वायरस) इस तंत्र में घुसपैठ करने की कोशिश करती है तो उसके पराए एंटीजन का पता लगाया जाता है और बी और टी लिम्फोसाइट्स द्वारा हमलावर को शरीर से बाहर फेंक दिया जाता है।

यही टीकाकरण की बुनियाद है। टीके में, हम रोग पैदा करने वाले रोगाणुओं (या तो मृत या अक्षम बनाए हुए) को शरीर में प्रवेश कराते हैं। इसे प्रतिरक्षा तंत्र पराएविदेशी एंटीजन के रूप में पहचानता है और उसे पकड़कर (एंटीबॉडी प्रोटीन की मदद से) शरीर से बाहर फेंक देता है। साथ ही प्रतिरक्षा तंत्र इस पराए एंटीजन को याद रखता है और जब भी हमलावर फिर से आता है, बी कोशिकाएं इसके खिलाफ एंटीबॉडीज़ बनाती हैं और इसे हटा देती हैं। इस प्रकार शरीर को लंबे समय तक सुरक्षा मिलती है। ह्रूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) जैसे कैंसरकारक वायरस और हेपेटाइटिस बी और सी के वायरस सहित कई बीमारियों के खिलाफ टीकाकरण के पीछे यही आधार रहा है।

अन्य प्रकार के कैंसर के लिए इसका क्या महत्व है? कैंसर कोशिकाओं की सतह पर भी एंटीजन होते हैं। ये कैंसरसम्बंधी एंटीजन हैं। इनमें कुछ एंटीजन को शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा पहले नहीं देखा गया था। ये नवएंटीजन्स कहलाते हैं। ये शरीर के लिए पराए होते हैं जो हमलावर से आते हैं।

वर्तमान में कैंसर के इलाज को लेकर उत्साह के माहौल में, प्रतिरक्षा तंत्र का इस्तेमाल करके एक कैंसररोधी टीका बनाने का यह विचार सूची में सबसे आगे हैं। यह रोकथाम का टीका नहीं होगा (जैसे कि एचपीवी या हिपेटाइटिस के टीके होते हैं) बल्कि एक उपचारात्मक टीका होगा। इसमें पहले तो मौजूदा तरीकों से कैंसर का इलाज किया जाता है। इलाज के बाद कैंसर फिर से सिर न उठाए और न ही (मेटास्टेसिस के ज़रिए) अन्य अंगों में फैले, इसके लिए रोगी के शरीर से कैंसर ऊतक का एक टुकड़ा लिया जाता है और इसमें नवएंटीजन की पहचान की जाती है। इसके बाद वैज्ञानिकों का एक समूह कंप्यूटर विधि का उपयोग यह जांचने के लिए करता है कि कौनसा टुकड़ा रोगी के प्रतिरक्षा तंत्र को कैंसर कोशिकाओं से लड़ने के लिए सबसे अच्छी तरह से सक्रिय करेगा। इस तरह चुने गए नवएंटीजन का इस्तेमाल करके टीका बनाया जाता है। और यह टीका मरीज़ों को दिया जाता है ताकि कैंसर की पुनरावृत्ति न हो। उम्मीद है कि इस प्रकार हमेशा के लिए कैंसर से निजात मिल जाएगी।

कैंसर के कुछ टीके तो बाज़ार में उपलब्ध भी हो चुके हैं। उदाहरण के लिए स्तन कैंसर के खिलाफ एचईआर-2, प्रोस्टेट कैंसर के खिलाफ प्रोवेन्ज और मेलानोमा के खिलाफ टीवीईसी। वैसे आजकल कुछ शोधकर्ता रोगी के पूरे जीनोम को पढ़ कर ट्यूमर के डीएनए या आरएनए के क्षारों का अनुक्रमण करना चाहते हैं ताकि उसमें हुए उत्परिवर्तन की पहचान करके हर मरीज़ के लिए व्यक्तिगत टीका बनाया जा सके। सम्राटहमला कर सकता है और घायल कर सकता है। लेकिन अब हम बॉय स्काउट का नारा अपना रहे हैं कि तैयार रहो, तो शायद सम्राट की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। (स्रोत फीचर्स)

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अड़ियल फिलामेंट बल्ब – आदित्य चुनेकर, संजना मुले, मृदुला केलकर

भारत में वर्ष 2014 से एलईडी बल्ब की मांग में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। यह वृद्धि मुख्य रूप से उजाला कार्यक्रम के तहत सस्ते एलईडी बल्ब उपलब्ध कराने की योजना की बदौलत हुई है। हालांकि, फिलामेंट बल्ब की मांग अभी भी काफी है, हालांकि धीरेधीरे घट रही है। 2017 में, भारत में लगभग 77 करोड़ फिलामेंट बल्ब बेचे गए थे, जो उस वर्ष बल्ब और ट्यूबलाइट की कुल बिक्री के 50 प्रतिशत से भी अधिक था।

इस आलेख में, हम भारत में फिलामेंट बल्ब के निरंतर उपयोग की जांच के लिए भारतीय घरों के लिए उपलब्ध विभिन्न प्रकाश विकल्पों की मांग और आपूर्ति के कुछ पहलुओं की जांच करेंगे। इस विश्लेषण के आधार पर, हम भारत में फिलामेंट बल्ब के उपयोग को कम करने और अंतत: समाप्त करने करने के लिए कुछ कार्यक्रम और नीतिगत हस्तक्षेपों के सुझाव भी देंगे।

हमने अपने द्वारा किए गए सर्वेक्षण में पाया कि लोग, विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में, एलईडी बल्ब और उसके लाभों से पर्याप्त रूप से परिचित नहीं हैं। संभावित उपभोक्ता की प्रमुख चिंता एलईडी बल्ब द्वारा उत्सर्जित प्रकाश की गुणवत्ता और देश में खराब बिजली आपूर्ति के मद्देनज़र उनके टिकाऊपन को लेकर है। एलईडी बल्ब की एकमुश्त ऊंची कीमत अभी भी एक चुनौती है क्योंकि अधिकांश सर्वेक्षित घरों ने वित्त पोषित योजना को पसंद किया है। सर्वेक्षण में स्थानीय बाज़ारों, विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में एलईडी बल्बों की सीमित उपलब्धता का भी पता चला है।

जहां तक फिलामेंट बल्ब की आपूर्ति का सवाल है, मुट्ठी भर कंपनियां भारत में अधिकांश फिलामेंट बल्ब का उत्पादन करती हैं। फिलामेंट बल्ब का उत्पादन करने वाले कारखाने पुराने, घिसेपिटे और स्वचालित हैं। फिलामेंट बल्ब के उत्पादन में शोध, गारंटी और विपणन की लागत बहुत कम होती है। इस कारण से कंपनियां फिलामेंट बल्ब बहुत कम कीमत पर बेच पाती हैं। इसके अलावा, फिलामेंट बल्ब उद्योग में कोई नया प्रवेशकर्ता भी नहीं है।

दूसरी तरफ, एलईडी लाइटिंग उद्योग हाल ही के वर्षों में उजाला कार्यक्रम द्वारा उत्पन्न मांग पर चल रहा है। चूंकि शुरुआती पूंजी निवेश कम लगता है और बल्ब के पुर्ज़ों को हाथ से जोड़ा जा सकता है, इसलिए मांग को पूरा करने के लिए लघु उद्योग भी मौजूद है। भारतीय मानक ब्यूरो और ऊर्जा दक्षता ब्यूरो के पास एलईडी बल्बों के प्रदर्शन और सुरक्षा सम्बंधी अनिवार्य मानक हैं। हालांकि, बाज़ार में उपलब्ध उत्पादों में इन मानकों के अनुपालन को लेकर स्थिति चिंताजनक है। मात्र कीमत में कमी पर ध्यान केन्द्रित किए जाने के कारण शायद एलईडी बल्ब की गुणवत्ता के साथ समझौता हुआ होगा। खास तौर से उन पहलुओं की उपेक्षा हुई होगी जो उनके जीवनकाल और प्रदर्शन को प्रभावित कर सकते हैं। मौजूदा मानकों में शायद इन्हें सटीक रूप से पकड़ा नहीं जा सका है।

फिलामेंट बल्ब को बाज़ार से दूर करने के लिए नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता है। अब तक अपनाए गए मूल्यकेंद्रित हस्तक्षेप एलईडी बल्ब की कीमत को कम करके उनकी मांग में वृद्धि करने में सफल रहे हैं। किंतु फिलामेंट बल्ब से पूरी तरह से निजात पाने के लिए मूल्यकेंद्रित हस्तक्षेप से आगे बढ़ने की आवश्यकता है। जैसे ऊर्जा दक्षता ब्यूरो लोगों को एलईडी बल्ब के लाभों के बारे में जागरूक करने के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान आयोजित कर सकता है। ऐसे अभियान ऊर्जा दक्षता ब्यूरो के स्टार रेटिंग कार्यक्रम द्वारा प्रमाणित अच्छी गुणवत्ता वाले एलईडी बल्ब खरीदने के बारे में जागरूकता भी बढ़ा सकते हैं। ऊर्जा दक्षता ब्यूरो और भारतीय मानक ब्यूरो समयसमय पर मानकों के अनुपालन की जांच कर सकते हैं और अनुपालन न करने वालों की जानकारी प्रकाशित भी कर सकते हैं। उजाला की कार्यान्वयन एजेंसी, ऊर्जा दक्षता सेवा लिमिटेड (ईईएसएल), खरीदे गए एलईडी बल्बों की गुणवत्ता की जांच कर सकती है और अनुपालन न करने वाले निर्माताओं को ब्लैकलिस्ट कर सकती है। ईईएसएल सुनिश्चित कर सकता है कि गारंटीशुदा बल्बों को बदलने की प्रक्रिया आसान हो। इससे लोगों में एलईडी बल्ब की गुणवत्ता को लेकर विश्वास पैदा करने में मदद मिलेगी। एलईडी बल्ब के ऊंचे मूल्य के मुद्दे को हल करने के लिए, ईईएसएल बिल भुगतान के समय वित्त पोषण प्रक्रिया पर अधिक ध्यान दे सकता है। यह उजाला कार्यक्रम का हिस्सा तो रहा है, लेकिन इस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। ईईएसएल ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंच बढ़ाने के लिए डाकघर, पेट्रोल पंप और ग्राम स्वराज अभियान के माध्यम से वितरण की अपनी वर्तमान पहल को जारी रख सकता है। सरकार का विद्युतीकरण कार्यक्रम सौभाग्य नव विद्युतीकृत घरों में एलईडी बल्ब के उपयोग को बढ़ावा देने का एक और तरीका हो सकता है।

एलईडी बल्ब के बारे में जागरूकता बढ़ाने, उनकी गुणवत्ता में सुधार करने, उनकी कीमत को कम करने और उनकी उपलब्धता में वृद्धि करने और आसान बनाने जैसे हस्तक्षेपों से भारत में फिलामेंट बल्ब के उपयोग को कम करने में महत्वपूर्ण योगदान मिल सकता है। लेकिन आज की स्थिति में तो अन्य समस्याओं को संबोधित किए बिना फिलामेंट बल्ब को एकाएक विदा करने की सिफारिश नहीं की जा सकती है। ऐसा करने से इसका बोझ मुख्य रूप से निम्न आय वर्ग और नव विद्युतीकृत घरों पर पड़ेगा। (स्रोत फीचर्स)

पुणे स्थित प्रयास (ऊर्जा समूह) ने हाल ही में एलईडी बल्बों के उपयोग सम्बंधी एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी ऑब्स्टिनेट बल्ब मूविंग बियॉण्ड प्राइस फोकस्ड इंटरवेंशन्स टु टेकल इंडियाज़ पर्सिस्टेंट इनकेंडेसेंट बल्ब प्रॉबलम। यह रिपोर्ट निम्नलिखित वेबसाइट पर उपलब्ध है: http://www.prayaspune.org/peg/publications/item/380यहां उस रिपोर्ट का सारांश प्रस्तुत है।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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